Difference between revisions of "Water Systems (जलव्यवस्था)"
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== परिचय॥ Introduction== | == परिचय॥ Introduction== | ||
| − | वैदिक एवं संस्कृत साहित्य में समुद्र, नदी, झील, तालाब, कूप आदि के रूप में जल व्यवस्था का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। वनस्पति और जीव-जन्तु दोनों ही वर्गों के समुदायों को अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए जल अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्व है। पञ्च महाभूतों में पृथ्वी के उपरान्त जल तत्व हमारे जीवन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्राणियों के रक्त में ८० प्रतिशत मात्रा जल की होती है किन्तु वनस्पति में ये मात्रा अधिक होती है। दोनों ही वर्गों के लिए जल जीवन का आधार है। जीव-जन्तु और पशु-पक्षी जल पीकर तथा वनस्पति | + | वैदिक एवं संस्कृत साहित्य में समुद्र, नदी, झील, तालाब, कूप आदि के रूप में जल व्यवस्था का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। वनस्पति और जीव-जन्तु दोनों ही वर्गों के समुदायों को अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए जल अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्व है। पञ्च महाभूतों में पृथ्वी के उपरान्त जल तत्व हमारे जीवन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्राणियों के रक्त में ८० प्रतिशत मात्रा जल की होती है किन्तु वनस्पति में ये मात्रा अधिक होती है। दोनों ही वर्गों के लिए जल जीवन का आधार है। जीव-जन्तु और पशु-पक्षी जल पीकर तथा वनस्पति मूल द्वारा जल ग्रहण कर जीवित रहते हैं।<ref>मृत्युञ्जय कुमार तिवारी, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/95272/1/Unit-3.pdf जल व्यवस्था], सन २०२३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २२०)।</ref> जलविज्ञानीय चक्र की विभिन्न प्रक्रियाओं जैसे कि वाष्पीकरण, संक्षेपण, वर्षा, धारा प्रवाह आदि के समय जल का क्षय नहीं होता है अपितु एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित हो जाता है। अमरकोष के अनुसार आप, अम्भ, वारि, तोय, सलिल, जल, अमृत, पय, उदक इत्यादि जल के ही पर्यायवाची शब्द हैं।<ref>अमरकोष, प्रथमकाण्ड, (पृ० १०६)।</ref> |
==जलव्यवस्था की वैदिक अवधारणा== | ==जलव्यवस्था की वैदिक अवधारणा== | ||
| − | + | भारतीय ज्ञान परंपरा में प्राप्त प्राचीन ग्रन्थों में जलाशय के निर्माण की विधि, जलाशय के प्रकार, जलाशय दान, कुंड निर्माण, सोख गर्तों का निर्माण, नहर एवं बाँध निर्माण आदि का वर्णन है। ऋग्वेद में प्राचीन जल व्यवस्था के कई सूत्र प्राप्त होते हैं - <blockquote>या आपो दिव्या उनन वा स्रवन्ति खनित्रिमा उत वा या स्वयंजा। समुद्रार्था या शुचयः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु॥ (ऋग्वेद)</blockquote>इस मन्त्र में यह वर्णन है कि जो दिव्य (शुद्ध) जल है या जो खोदने से प्राप्त होता है, या जो स्वयं उत्पन्न होता या समुद्री जल या जो जल शुद्धिकरण करने वाला है वह हमारी रक्षा करे। इस मंत्र के आधार पर जल का विभाजन इस प्रकार करते हैं - | |
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| + | # '''दिव्य जल -''' वर्षा के द्वारा जो जल आकाश से प्राप्त होता है। | ||
| + | # '''स्रवन्ति जल -''' नदियों, झरनों आदि में बहता हुआ जल। | ||
| + | # '''खनित्रिमा जल -''' जो जल भूमि को खोदकर प्राप्त किया जाता है। | ||
| + | # '''स्वयंजा जल -''' वह जल जो स्वयं भूमि से फूत कर निकलता है। | ||
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| + | इसके अतिरिक्त ऋग्वेद में जलाशय या जल संचयन से संबंधित वर्णन भी प्राप्त होते हैं जैसे - पुष्करिणी, ह्रद, अवट, पोखरा, गर्त, वापी, द्रोण आदि। ऐतरेय ब्राह्मण में बताया गया है कि आत्मा-रूप मूल तत्त्व ने जिस जल को (अप्-तत्त्व को) उत्पन्न किया, वह चार अवस्थाओं में चार नामों से चार लोकों में व्याप्त है। जैसा कि -<ref>पं० श्री गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी, [https://ia800709.us.archive.org/20/items/VaidikaVishvaAurBharatiyaSanskriti/Vaidika-Vishva-aur-Bharatiya-Sanskriti.pdf वैदिक विज्ञान और भारतीय संस्कृति], सन २०००, बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना (पृ० १०६)।</ref><blockquote>आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीन्नान्यत्किञ्चन मिषत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति। स इमांल्लोकानसृजत अम्भो मरीचिर्भर आपः। अदोऽम्भः परेण दिवम् द्यौः प्रतिष्ठाः अन्तरिक्षं मरीचयः, पृथिवी भरः, या अधस्तात्ता आपः। स ईंक्षतेमे नु लोका लोकपालान्नु सृजा इति सोऽद्भ्य एव पुरुषं समुद्धृत्यामूर्च्छयत्। (ऐतरेय ब्राह्मण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%90%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6%E0%A5%8D ऐतरेयोपनिषद्], अध्याय - १, खण्ड - १।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' अम्भ, मरीचि, भर् और आप् रूप में इन चार अवस्थाओं एवं नामों के द्वारा चार लोकों में व्याप्त है। अम्भः इनमें वह है, जो सूर्य-मण्डल से (द्युलोक से) भी ऊर्ध्व-प्रदेश में महः, जनः आदि लोकों में व्याप्त है। अन्तरिक्ष में जो जल व्याप्त है, वह मरीचि-रूप है। | ||
===अपः सूक्त एवं नासदीय सूक्त में जल=== | ===अपः सूक्त एवं नासदीय सूक्त में जल=== | ||
| + | <blockquote>आपो हिष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे ॥1॥ | ||
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| + | यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः ॥2॥ | ||
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| + | तस्मा अरंग माम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः ॥3॥ | ||
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| + | शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्रवन्तु नः ॥4॥ | ||
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| + | ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम्। अपो याचामि भेषजम् ॥5॥ | ||
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| + | अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विष्वानि भेषजा। अग्निं च विश्वभुवम् ॥6॥ | ||
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| + | आप: पृणीत भेषजं वरूथं तन्वेsमम। ज्योक्च सूर्यं दृशे ॥7॥ | ||
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| + | इदमाप: प्र वहत यत्किं च दुरितं मयि। यद्वाहमभिदुद्रोह यदवा शेप उतान्रूतम॥8॥ | ||
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| + | आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि। पयस्वानग्न आ गहि तं मा सं सृज वर्चसा॥9॥ (ऋग्वेद)</blockquote>'''भाषार्थ -''' हे जल! आपकी उपस्थिति से वायुमंडल बहुत तरोताजा है, और यह हमें उत्साह और शक्ति प्रदान करता है। आपका शुद्ध सार हमें प्रसन्न करता है, इसके लिए हम आपको आदर देते हैं। हे जल! आप अपना यह शुभ सार, कृपया हमारे साथ साझा करें, जिस प्रकार एक मां की इच्छा होती है कि वह अपने बच्चों को सर्वश्रेष्ठतम प्रदान करे। हे जल! जब आपका उत्साही सार किसी दुखी प्राणी को प्राप्त होता है, तो वह उसे जीवंत कर देता है। हे जल! इसलिए आप हमारे जीवन दाता हैं। हे जल! जब हम आपका सेवन करते हैं तो उसमें शुभ दिव्यता होने की कामना करते हैं। जो शुभकामनाएँ आप में विद्यमान हैं, उसका हमारे अंदर संचरण हो। हे जल! आपकी दिव्यता कृषि भूमियों में भी संचरित हो!। हे जल, मेरा आग्रह है कि आप फसलों का समुचित पोषण करें। हे जल, सोमा ने मूझे बताया कि जल में दुनिया की सभी औषधीय जड़ी बूटियाँ और अग्नि, जो दुनिया को सुख-समृद्धि प्रदान करती है, भी मौजूद है। हे जल, आप में औषधीय जड़ी बूटियाँ प्रचुर मात्रा में समायी हुई हैं; कृपया मेरे शरीर की रक्षा करें, ताकि मैं सूर्य को लंबे समय तक देख सकूं (अर्थात मैं लंबे समय तक जीवित रह सकूँ। हे जल, मुझ में जो भी दुष्ट प्रवृतियाँ हैं, कृपया उन्हें दूर करें, और मेरे मस्तिष्क में विद्यमान समस्त विकारों को दूर करें और मेरे अंतर्मन में जो भी बुराइयाँ हैं उन्हें दूर करें। हे जल, आप जो उत्साही सार से भरे हुए हैं, मैं आपकी शरण में आया हूँ, मैं आप में गहराई से सम्माहित हूं (अर्थात स्नान) से घिरा हुआ है (अग्नि सिद्धांत) जो अग्नि (कर) मुझमें चमक पैदा करे। | ||
===पञ्चमहाभूतों में जल का स्थान=== | ===पञ्चमहाभूतों में जल का स्थान=== | ||
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==जलसंरचना एवं वास्तु: एक परम्परा== | ==जलसंरचना एवं वास्तु: एक परम्परा== | ||
| + | [[File:मोहन जोदड़ो का महान स्नानागार.jpg|thumb|मोहन जोदड़ो का महान स्नानागार]] | ||
| + | प्राचीन भारतीय सभ्यता, जिसे सिंधु घाटी सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता के रूप में जाना जाता है, ३३००-१३०० ई०पू० के आसपास अपने उत्कर्ष पर थी। अब यह ज्ञात हुआ है कि हड़प्पा के लोगों के पास पानी की आपूर्ति और सीवरेज की परिष्कृत प्रणालियाँ थीं, जिनमें हाइड्रोलिक संरचनाएँ जैसे बाँध, टैंक, पंक्तिबद्ध कुएँ, पानी के पाइप और फ्लश शौचालय आदि शामिल थे। हड़प्पा और मोहन जोदड़ो के शहरों ने विश्व की प्रथम शहरी स्वच्छता प्रणाली विकसित की। सिंधु घाटी सभ्यता में सिंचाई के उद्देश्य से बड़े पैमाने पर कृषि का कार्य किया गया था और नहरों के एक व्यापक नेटवर्क का उपयोग किया गया था।<ref>शरद कुमार जैन, [https://nihroorkee.gov.in/sites/default/files/Ancient_Hydrology_Hindi_Edition.pdf प्राचीन भारत में जलविज्ञानीय ज्ञान], सन २०१९, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान-रुड़की, उत्तराखण्ड (पृ० १३)।</ref> | ||
===प्राचीन नगरों में जल प्रबंधन=== | ===प्राचीन नगरों में जल प्रबंधन=== | ||
| − | भारतीय लोगों के सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन पर जल का हमेशा एक व्यापक प्रभाव रहा हि। प्राचीन भारतीय सभ्यता में सिंधु घाटी या हडप्पा सभ्यता के लोगों के पास पानी की आपूर्ति और सीवरेज की परिष्कृत प्रणालियाँ थीं। मोहन जोदडों का 'महान स्नान गृह' इस बात का अद्भुत प्रमाण है।<ref>शरद कुमार जैन, [https://nihroorkee.gov.in/sites/default/files/Ancient_Hydrology_Hindi_Edition.pdf प्राचीन भारत में जलविज्ञानीय ज्ञान], सन २०१९, राष्ट्रीय जलविज्ञान | + | भारतीय लोगों के सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन पर जल का हमेशा एक व्यापक प्रभाव रहा हि। प्राचीन भारतीय सभ्यता में सिंधु घाटी या हडप्पा सभ्यता के लोगों के पास पानी की आपूर्ति और सीवरेज की परिष्कृत प्रणालियाँ थीं। मोहन जोदडों का 'महान स्नान गृह' इस बात का अद्भुत प्रमाण है।<ref>शरद कुमार जैन, [https://nihroorkee.gov.in/sites/default/files/Ancient_Hydrology_Hindi_Edition.pdf प्राचीन भारत में जलविज्ञानीय ज्ञान], सन २०१९, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, उत्तराखण्ड (पृ० ३)।</ref> |
===यज्ञवेदियों के समीप जल स्रोतों की व्यवस्था=== | ===यज्ञवेदियों के समीप जल स्रोतों की व्यवस्था=== | ||
| + | जलस्रोत एवं जलसंरचना के संबंध में तड़ागामृतलता और जलाशयादिवास्तु पद्धति आदि प्राचीन ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। | ||
==वास्तुशास्त्र में जलस्थान का निर्धारण== | ==वास्तुशास्त्र में जलस्थान का निर्धारण== | ||
| + | भूमि के पृष्ठ भाग पर प्रवाहमान नदियां, समुद्र, तालाब, सरोवर, झील, झरने, बावडी आदि जल के स्रोत कहलाते हैं। भूमि में पाए जाने वाले जल के अतिरिक्त भूगर्भ में जल का संचार होता रहता है। | ||
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| + | वैदिक एवं लौकिक साहित्य में जल की जीवन धारक तथा लोक संरक्षक तत्त्व के रूप में प्रशंसा की गई है। भारतीय चिन्तक वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक जल को पवित्र एवं दिव्य आस्थाभाव से देखते आए हैं। वैदिक साहित्य में जल देवता संबंधी मंत्र इसके प्रमाण हैं। जल के प्रति आस्था भाव का परिणाम है कि संस्कृत वाड़्मय के विभिन्न ग्रन्थों में वापी, कूप, तडाग आदि जलाशयों को धार्मिक दृष्टि से पुण्यदायी माना गया है -<blockquote>वापीकूपतडागानि देवतायतनानि च। अन्नप्रदानमारामाः पूतधर्मश्च मुक्तिदम्॥ (अग्निपुराण २०९,२)</blockquote>प्रासादमण्डन नामक वास्तुशास्त्र के ग्रन्थ में कहा गया है कि - <blockquote>जीवनं वृक्षजन्तूनां करोति य जलाश्रयम्। दत्ते वा लभेत्सौख्यमुर्व्यां स्वर्गे च मानवः॥ (प्रासाद मण्डन ८,९५)</blockquote>पुराणकारों ने भूमिगत जल के संरक्षण और संवर्धन को विशेष रूप से प्रोत्साहित करने के लिए नए जलाशयों के निर्माण के अतिरिक्त पुराने तथा जीर्ण-शीर्ण जलाशयों की मरम्मत और जीर्णोद्धार को भी अत्यन्त पुण्यदायी कृत्य माना है। | ||
===भूमिगत जल॥ Underground Water=== | ===भूमिगत जल॥ Underground Water=== | ||
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===जलसंरचना के प्रकार=== | ===जलसंरचना के प्रकार=== | ||
| + | संस्कृत साहित्य के सुप्रसिद्ध साहित्यकार बाणभट्ट अपनी रचना कादंबरी में पोखर-सरोवर उत्खनन को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। लोक कल्याण हेतु इस प्रकार उत्खनित करवाये गये जलकोष को प्रमुख चार वर्गों में विभाजित किया गया है -<ref>शोध कर्ता - अभिषेक कुमार, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/344787 प्राचीन भारत में जल प्रबन्धन], सन २०१७, शोध केन्द्र - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (पृ० २७)।</ref> | ||
====कूप॥ Well==== | ====कूप॥ Well==== | ||
| + | कूप गोलाकार होते हैं एवं इनका व्यास ७ फीट से ७५ फीट तक हो सकता है और इसमें जल निकासी के लिए किसी यंत्र डोल-डोरी (बाल्टी) आदि का प्रयोग किया जाता है। | ||
====वापी॥ Stepwell==== | ====वापी॥ Stepwell==== | ||
| + | वापी छोटा और चौकोर आकार का पोखर होता था इसकी लंबाई ७५ फीट से १५० फीट हो सकती थी जिसमें जलस्तर तक पैरों की सहायता से पहुँचा जा सकता था। | ||
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वापी का अर्थ है "छोटे तालाब" (पानी के जलाशय)। इन्हें राजा द्वारा दो गांवों के बीच सीमा-जोड़ पर बनाया जाना चाहिए। मनुस्मृति में -<blockquote>तडागान्युदपानानि वाप्यः प्रस्रवणानि च। सीमासंधिषु कार्याणि देवतायतनानि च॥ (मनु स्मृति ८.२४८)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय-८, श्लोक-२४८।</ref></blockquote> | वापी का अर्थ है "छोटे तालाब" (पानी के जलाशय)। इन्हें राजा द्वारा दो गांवों के बीच सीमा-जोड़ पर बनाया जाना चाहिए। मनुस्मृति में -<blockquote>तडागान्युदपानानि वाप्यः प्रस्रवणानि च। सीमासंधिषु कार्याणि देवतायतनानि च॥ (मनु स्मृति ८.२४८)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय-८, श्लोक-२४८।</ref></blockquote> | ||
कूप, कुण्ड, तालाब, सरोवर आदि। | कूप, कुण्ड, तालाब, सरोवर आदि। | ||
| − | ==== | + | ====पुष्करिणी==== |
| + | पुष्करिणी छोटा गोलाकार पोखर था जिसका व्यास १५० से ३०० फीट तक हो सकता था। | ||
| − | ==== | + | ====तड़ाग ==== |
| + | तडाग चौकोर आकार का पोखर था जिसकी लम्बाई ३०० से ४५० फीट तक होती थी। | ||
| − | ==== | + | ====ह्रद==== |
| + | मत्स्यपुराण में इस प्रसंग में पांचवें वर्ग की चर्चा की गयी है, इसे ह्रद नाम दिया गया है। जिसमें साधारणतः पानी कभी नहीं सूखता हो। | ||
| − | = | + | ===नगर नियोजन एवं जलसंरचना=== |
| − | ==नगर नियोजन एवं जलसंरचना== | + | वैदिक ऋषियों को समुद्र, नदी व पुष्करणियों से अत्यन्त ही लगाव था। इसी कारण ऋषियों के आश्रम और बस्तियाँ नदियों के किनारे ही विकसित हुए। ऋग्वेद में सर्वत्र जल को चार सूक्तों में आपो देवता कहकर संबोधित किया गया है। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के तेईसवें सूक्त, जिसके द्रष्टा मेधातिथि काण्व हैं, इसके १६-२३ वें मन्त्रों में जल की स्तुति की गयी है। इसी के सप्तम मण्डल के ४७ वें तथा ४९वे सूक्त में मन्त्रद्रष्टा ऋषि वसिष्ठ मैत्रावरुणि ने आपो देवरूप जल की स्तुति की है। ४९ वें सूक्त में समुद्र को जलाशयों में ज्येष्ठ माना गया है -<ref>डॉ० धीरेन्द्र झा, [https://mahavirmandirpatna.org/dharmayan/wp-content/uploads/2021/05/%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%95-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%9C%E0%A4%B2-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6-%E0%A4%A1%E0%A4%BE.-%E0%A4%A7%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0-%E0%A4%9D%E0%A4%BE.pdf धर्मायण पत्रिका-वैदिक साहित्य में जल-विमर्श], सन २०२१, महावीर मन्दिर पटना (पृ० ११)।</ref> <blockquote>समुद्र ज्येष्ठाः सलिलस्य मध्यात्पुनाना यन्त्यनिविशमानाः। इन्द्रो या वज्री वृषभो रराद ता आपो देवीरिह मामवन्तु॥ (ऋग्वेद)</blockquote>समुद्र जिनमें ज्येष्ठ है, वे जल प्रवाह, सदा अन्तरिक्ष से आने वाले है। इन्द्रदेव ने जिनका मार्ग प्रशस्त किया है, वे जलदेव हमारी रक्षा करें। |
| + | |||
| + | भारत में शुष्कतम मौसम और पानी की कमी ने जल प्रबंधन के क्षेत्रों में कई अन्वेषी कार्यों को मूर्तरूप दिया है। सिंधु घाटी सभ्यता के समय से इस पूरे क्षेत्र में सिंचाई प्रणाली, भिन्न-भिन्न प्रकार के कूपों, जल भण्डारण प्रणाली तथा न्यून लागत और अनवरत जल संग्रहण तकनीकें विकसित की गई थी। 3000 ईसा पूर्व में गिरनार में बने जलाशय तथा पश्चिमी भारत में प्राचीन स्टेप-वैल्स कौशल के कुछ उदाहरण हैं। प्राचीन भारत में जल पर आधारित तकनीकें भी प्रचलन में थीं। कौटिल्य के सदियों पुराने लिखे अर्थशास्त्र (400 ईसा पूर्व) में हस्तचालित कूलिंग उपकरण 'वारियंत्र' (हवा को ठंडा करने के लिए घूमता हुआ जल स्प्रे) का संदर्भ दिया गया है। पाणिनी (700 ईसा पूर्व) के 'अर्थशास्त्र' और 'अष्टाध्यायी' में वर्षामापी (नायर, 2004) यंत्रों का विधिवत संदर्भ उपलब्ध है। | ||
===हड़प्पा, लोथल, धोलावीरा में जल निकास=== | ===हड़प्पा, लोथल, धोलावीरा में जल निकास=== | ||
| + | सिंधु सभ्यता के बहुत से स्थलों से उन्नत जल प्रबंधन के साक्ष्य हमें प्राप्त होते हैं। इस सभ्यता के समस्त नगरों में उन्नत जल प्रबंधन की व्यवस्था थी किन्तु तकनीकी निर्माण के दृष्टिकोण से मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानागार, लोथल का डाकयार्ड और धौलावीरा शहर की बनावट का यहाँ उल्लेख आवश्यक हो जाता है -<ref>डॉ० ममता शर्मा, [https://www.iesrj.com/upload/4.%20Mamta%20Ji%20-%20Online.pdf प्राचीन भारत में जल प्रबंधन के पुरातात्विक साक्ष्यः एक ऐतिहासिक अध्ययन], सन २०२३, इन्टरनेशनल एजुकेशन साइंटिफिक रिसर्च जर्नल (पृ० १२)।</ref> | ||
| + | |||
| + | *मोहनजोदड़ो से एक बृहत स्नानागार प्राप्त हुआ जिसकी लंबाई १२ मीटर, चौड़ाई ७ मीटर और गहराई २.४ मीटर थी। स्नानागार के जलाशय में उतरने के लिए इसके उत्तरी और दक्षिणी छोर पर सीढियाँ बनी हुई हैं। पूरी बृहत स्नानागार की संरचना पक्की ईंटों से निर्मित हैं और इस पर विटूमिन से पलस्तर किया गया है। जलाशय के पश्चिमी हिस्से में जल निकास हेतु नालियाँ भी प्राप्त हुई है। इस जलाशय में जलापूर्ति का माध्यम निकट ही स्थित एक कुआ था। | ||
| + | *जल प्रबन्धन का दूसरा प्रमाण मिलता है लोथल के डाकयार्ड से, इसके उत्खननकर्ता एस०आर०राव थे उन्होंने इसका माप २१४x१६ मीटर ऊंचाई तथा गहराई ४.१५ मीटर माना है। इस डाकयार्ड के उत्तरी दीवार में १२ मीटर चौड़ा प्रवेश द्वार भी था। एस०आर० राव का मानना है कि यह प्रवेश द्वार एक नहर के माध्यम से भोगवा नदी से जुड़ा था और इसी नदी के जल से ही इसे जलापूर्ति भी होती है। इसमें उतरने के लिए सँकरी सीढियों का भी निर्माण किया गया था। डाकयार्ड के दक्षिणी भाग में जल निकासी हेतु एक नलिका मार्ग भी बना है, इसके दोनों तरफ सोख्ता गर्ते भी पाये गये हैं। विद्वानों के बीच इसके डाकयार्ड होने या जलाशय होने को लेकर पर्याप्त मतभेद है। जल प्रबन्धन के दृष्टिकोण से चाहे यह डाकयार्ड हो या जलाशय दोनों ही दृष्टि से यह एक उत्कृष्ट जल संरचना है। | ||
| + | *सिंधु सभ्यता से तीसरा महत्त्वपूर्ण जल प्रबंधकीय साक्ष्य हमें धौलावीरा शहर के बनावट के अन्तर्गत प्राप्त होता है। धौलावीरा शहर के कच्छ के रन्न में स्थित था जो जल की अभाव वाला क्षेत्र था। इस क्षेत्र में वर्ष भर बहने वाली नदियों और प्राकृतिक झीलों का अभाव पाया जाता है। इसलिये यह आवश्यक हो जाता है यहाँ के निवासी उन्नत जल प्रबन्धन करे जो उन्होंने किया भी। सिन्धु निवासियों ने धौलावीरा शहर का बसाव मानहर और मानसर दो वर्षाकालिक नालियों के मध्य किया। ये दोनों नाले वर्षाकाल में छोटी नदियों की भाँति हो जाते थे। सिन्धु निवासियों ने तकनीकी सूझबूझ का परिचय देते हुए दोनों नाले के वर्षाकालीन जल का प्रयोग अपनी आवश्यकता के लिए किया। | ||
| + | |||
| + | [[File:धोलावीरा में परिष्कृत जलाशय।.jpg|thumb|धोलावीरा में परिष्कृत जलाशय, प्राचीन सिंधु घाटी सभ्यता में हाइड्रोलिक सीवेज सिस्टम्स का प्रमाण।]] | ||
===मंदिरों में कूप–सरोवर–जलमंडप की योजना=== | ===मंदिरों में कूप–सरोवर–जलमंडप की योजना=== | ||
| − | ==आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जलसंरचना== | + | जल जीवन का आधार है और इसके बिना संसार की कोई भी गतिविधि संभव नहीं। जलाशयों की स्थापना केवल भौतिक उपयोग के लिए नहीं, किन्तु एक आध्यात्मिक कार्य भी मानी गई है। वास्तुशास्त्र के अनुसार मंदिर परिसर में स्थित कूप, तड़ाग, सरोवर आदि का निर्माण अत्यंत पुण्यदायी और यज्ञों के तुल्य माना गया है - <blockquote>पानीयमेतत्सकलं त्रैलोक्यं सचराचरम्। विकारः सलिलस्येदं स्थावरं जङ्गमं तथा॥ |
| − | '''वर्षाजल-संग्रह | + | |
| + | कूपः प्रवृत्तपानीयस्त्वर्धं हरति दुष्कृतम्। कूपकृत्स्वर्गमासाद्य देवभोगान्समश्नुते॥ | ||
| + | |||
| + | दशकूप समा वापी तथा च परिकीर्तिता। कृत्वा तडागं च तथा वारुणं लोकमश्नुते॥ (विष्णुधर्मोत्तर पुराण)</blockquote>मंदिरों के समीप जलाशयों की स्थापना का धार्मिक, पर्यावरणीय और सांस्कृतिक उद्देश्य रहा है। ये न केवल जल संग्रहण के साधन हैं, बल्कि आध्यात्मिक ऊर्जा के भी स्रोत होते हैं। इस प्रकार जल की शुद्धता, उपयोगिता और आध्यात्मिक महत्ता देवालय वास्तु के एक अभिन्न अंग के रूप में प्रतिष्ठित है। | ||
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| + | == रामायण एवं महाभारत में जल व्यवस्था == | ||
| + | हमारे महाकाव्यों में भी जल संरचनाओं का वर्णन प्राप्त होता है। रामायण में 'पंपासर' एवं 'पंचाप्सरोतटाक' नामक दो तालाबों का वर्णन मिलता है। राजा भरत के आदेश से अयोध्या एवं शृंगवेरपुर के बीच में कम जल वाले झरनों का जल रोककर, बाँध निर्मित करने को कहा गया है जिससे वे विविध आकारों वाले जलाशयों में परिणत हो गये थे - <blockquote>अथ भूमि प्रदेशज्ञाः सूत्र कर्म विशारदाः। स्व कर्म अभिरताः शूराः खनका यन्त्रकाः तथा॥ | ||
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| + | कूप काराः सुधा कारा वम्श कर्म कृतः तथा। समर्था ये च द्रष्टारः पुरतः ते प्रतस्थिरे॥ (बाल्मीकि रामायण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%97%E0%A4%83_%E0%A5%AE%E0%A5%A6 बाल्मीकि रामायण], अयोध्याकाण्ड, सर्ग ८०, श्लोक - १-२।</ref></blockquote>राजा का प्रमुख कर्त्तव्य तालाब और नहरों का निर्माण करवाना भी था। जलाशय, कूप, बाँध, नहरें, झील आदि कृत्रिम रूप से जल प्राप्ति के साधन थे। इन जल संरचनाओं के निर्माणकर्ता अभियांत्रिकों को रामायण में यंत्रकार कहा गया है। इसी प्रकार का विवरण महाभारत से भी प्राप्त होता है - | ||
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| + | महाभारत के सभापर्व में नारद युधिष्ठिर से पूछते हैं कि जलाशय, नहर आदि सभी का निर्माण उचित दूरी व स्थान पर किया गया है कि नहीं जिससे खेतों को समान रूप से जल प्राप्त हो। | ||
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| + | == आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जलसंरचना == | ||
| + | '''वर्षाजल-संग्रह और वास्तु॥ Rainwater Harvesting and Vastu''' | ||
'''जल पुनःचक्रण प्रणाली''' | '''जल पुनःचक्रण प्रणाली''' | ||
'''स्मार्ट सिटी और प्राचीन जल प्रणालियों की तुलनात्मक समीक्षा''' | '''स्मार्ट सिटी और प्राचीन जल प्रणालियों की तुलनात्मक समीक्षा''' | ||
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| + | अग्नि पुराण में जल के महत्व को प्रतिपादित करके सम्पूर्ण जगत जलमय है ऐसा कहकर वापी व तडाग की प्रतिष्ठा विधि का वर्णन किया गया है। पद्म पुराण, ब्रह्म पुराण व अन्य अनेकों पुराणों में इनकी प्रतिष्ठा का विधान है। महर्षि वेदव्यास ने भविष्य पुराण में कहा है कि - <blockquote>प्रासादाः सेतवश्चैव तडागाद्यास्तथैव च। त्रिभिर्वर्णैः प्रतिष्ठार्हाः जीर्णानां तु समुद्गता॥ | ||
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| + | यस्तडागं नवं कृत्वा जीर्णं वा नवतां नयेत्। सर्वं कुलं समुद्धृत्य स्वर्ग लोके महीयते॥ (भविष्य पुराण)</blockquote> | ||
==निष्कर्ष॥ conclusion== | ==निष्कर्ष॥ conclusion== | ||
| + | हडप्पा नगर में खुदाई के दौरान जल संचयन प्रबन्धन व्यवस्था होने की जानकारी प्राप्त होती है। प्राचीन अभिलेखों में जल स्रोतों को पोषित करने के साक्ष्य मिलते हैं। पौराणिक ग्रन्थों में तथा जैन, बौद्ध साहित्य में नहरों, तालाबों, बांधों, कुओं और झीलों का विवरण मिलता है। प्राचीन काल में जल को विविध रूप में संग्रहित कर सदुपयोग किया जाता था, मनुस्मृति के अनुसार तालाबों, पोखरों, नहरों एवं अन्य जलाशयों से गाँव का सीमांकन किया जाता था। धर्मशास्त्रों में जलाशयों को क्षति पहुँचाने वालों के लिए कठोर दंड का विधान है। <ref>डॉ० आशा, [https://www.shodh.net/phocadownload/Vol-9-Issue-2/Shodh_Sanchayan_Vol_9_Issue_2_Article_2_Prachin_Kal_Me_Jal%20-%20Dr._Asha.pdf प्राचीन काल में जल स्रोतों को पल्लवित एवं पोषित करने के लिए मानवीय प्रयास], सन २०१८, शोध संचयन (पृ० १४)।</ref> | ||
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जल भूमि पर जीवन का आधार तत्व है। भारतीय ज्ञान परंपरा में 'जलमेव जीवनम्' अर्थात जल को जीवन मानकर इसके सभी स्वरूपों के संरक्षण की भावना रही है। वैदिक साहित्य में जल अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्व के रूप में विवेचित है। वेदों में अनेक आपः (जल देवता) या जल सूक्त विद्यमान हैं।[1]
परिचय॥ Introduction
वैदिक एवं संस्कृत साहित्य में समुद्र, नदी, झील, तालाब, कूप आदि के रूप में जल व्यवस्था का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। वनस्पति और जीव-जन्तु दोनों ही वर्गों के समुदायों को अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए जल अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्व है। पञ्च महाभूतों में पृथ्वी के उपरान्त जल तत्व हमारे जीवन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्राणियों के रक्त में ८० प्रतिशत मात्रा जल की होती है किन्तु वनस्पति में ये मात्रा अधिक होती है। दोनों ही वर्गों के लिए जल जीवन का आधार है। जीव-जन्तु और पशु-पक्षी जल पीकर तथा वनस्पति मूल द्वारा जल ग्रहण कर जीवित रहते हैं।[2] जलविज्ञानीय चक्र की विभिन्न प्रक्रियाओं जैसे कि वाष्पीकरण, संक्षेपण, वर्षा, धारा प्रवाह आदि के समय जल का क्षय नहीं होता है अपितु एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित हो जाता है। अमरकोष के अनुसार आप, अम्भ, वारि, तोय, सलिल, जल, अमृत, पय, उदक इत्यादि जल के ही पर्यायवाची शब्द हैं।[3]
जलव्यवस्था की वैदिक अवधारणा
भारतीय ज्ञान परंपरा में प्राप्त प्राचीन ग्रन्थों में जलाशय के निर्माण की विधि, जलाशय के प्रकार, जलाशय दान, कुंड निर्माण, सोख गर्तों का निर्माण, नहर एवं बाँध निर्माण आदि का वर्णन है। ऋग्वेद में प्राचीन जल व्यवस्था के कई सूत्र प्राप्त होते हैं -
या आपो दिव्या उनन वा स्रवन्ति खनित्रिमा उत वा या स्वयंजा। समुद्रार्था या शुचयः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु॥ (ऋग्वेद)
इस मन्त्र में यह वर्णन है कि जो दिव्य (शुद्ध) जल है या जो खोदने से प्राप्त होता है, या जो स्वयं उत्पन्न होता या समुद्री जल या जो जल शुद्धिकरण करने वाला है वह हमारी रक्षा करे। इस मंत्र के आधार पर जल का विभाजन इस प्रकार करते हैं -
- दिव्य जल - वर्षा के द्वारा जो जल आकाश से प्राप्त होता है।
- स्रवन्ति जल - नदियों, झरनों आदि में बहता हुआ जल।
- खनित्रिमा जल - जो जल भूमि को खोदकर प्राप्त किया जाता है।
- स्वयंजा जल - वह जल जो स्वयं भूमि से फूत कर निकलता है।
इसके अतिरिक्त ऋग्वेद में जलाशय या जल संचयन से संबंधित वर्णन भी प्राप्त होते हैं जैसे - पुष्करिणी, ह्रद, अवट, पोखरा, गर्त, वापी, द्रोण आदि। ऐतरेय ब्राह्मण में बताया गया है कि आत्मा-रूप मूल तत्त्व ने जिस जल को (अप्-तत्त्व को) उत्पन्न किया, वह चार अवस्थाओं में चार नामों से चार लोकों में व्याप्त है। जैसा कि -[4]
आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीन्नान्यत्किञ्चन मिषत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति। स इमांल्लोकानसृजत अम्भो मरीचिर्भर आपः। अदोऽम्भः परेण दिवम् द्यौः प्रतिष्ठाः अन्तरिक्षं मरीचयः, पृथिवी भरः, या अधस्तात्ता आपः। स ईंक्षतेमे नु लोका लोकपालान्नु सृजा इति सोऽद्भ्य एव पुरुषं समुद्धृत्यामूर्च्छयत्। (ऐतरेय ब्राह्मण)[5]
भाषार्थ - अम्भ, मरीचि, भर् और आप् रूप में इन चार अवस्थाओं एवं नामों के द्वारा चार लोकों में व्याप्त है। अम्भः इनमें वह है, जो सूर्य-मण्डल से (द्युलोक से) भी ऊर्ध्व-प्रदेश में महः, जनः आदि लोकों में व्याप्त है। अन्तरिक्ष में जो जल व्याप्त है, वह मरीचि-रूप है।
अपः सूक्त एवं नासदीय सूक्त में जल
आपो हिष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे ॥1॥
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः ॥2॥
तस्मा अरंग माम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः ॥3॥
शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्रवन्तु नः ॥4॥
ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम्। अपो याचामि भेषजम् ॥5॥
अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विष्वानि भेषजा। अग्निं च विश्वभुवम् ॥6॥
आप: पृणीत भेषजं वरूथं तन्वेsमम। ज्योक्च सूर्यं दृशे ॥7॥
इदमाप: प्र वहत यत्किं च दुरितं मयि। यद्वाहमभिदुद्रोह यदवा शेप उतान्रूतम॥8॥
आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि। पयस्वानग्न आ गहि तं मा सं सृज वर्चसा॥9॥ (ऋग्वेद)
भाषार्थ - हे जल! आपकी उपस्थिति से वायुमंडल बहुत तरोताजा है, और यह हमें उत्साह और शक्ति प्रदान करता है। आपका शुद्ध सार हमें प्रसन्न करता है, इसके लिए हम आपको आदर देते हैं। हे जल! आप अपना यह शुभ सार, कृपया हमारे साथ साझा करें, जिस प्रकार एक मां की इच्छा होती है कि वह अपने बच्चों को सर्वश्रेष्ठतम प्रदान करे। हे जल! जब आपका उत्साही सार किसी दुखी प्राणी को प्राप्त होता है, तो वह उसे जीवंत कर देता है। हे जल! इसलिए आप हमारे जीवन दाता हैं। हे जल! जब हम आपका सेवन करते हैं तो उसमें शुभ दिव्यता होने की कामना करते हैं। जो शुभकामनाएँ आप में विद्यमान हैं, उसका हमारे अंदर संचरण हो। हे जल! आपकी दिव्यता कृषि भूमियों में भी संचरित हो!। हे जल, मेरा आग्रह है कि आप फसलों का समुचित पोषण करें। हे जल, सोमा ने मूझे बताया कि जल में दुनिया की सभी औषधीय जड़ी बूटियाँ और अग्नि, जो दुनिया को सुख-समृद्धि प्रदान करती है, भी मौजूद है। हे जल, आप में औषधीय जड़ी बूटियाँ प्रचुर मात्रा में समायी हुई हैं; कृपया मेरे शरीर की रक्षा करें, ताकि मैं सूर्य को लंबे समय तक देख सकूं (अर्थात मैं लंबे समय तक जीवित रह सकूँ। हे जल, मुझ में जो भी दुष्ट प्रवृतियाँ हैं, कृपया उन्हें दूर करें, और मेरे मस्तिष्क में विद्यमान समस्त विकारों को दूर करें और मेरे अंतर्मन में जो भी बुराइयाँ हैं उन्हें दूर करें। हे जल, आप जो उत्साही सार से भरे हुए हैं, मैं आपकी शरण में आया हूँ, मैं आप में गहराई से सम्माहित हूं (अर्थात स्नान) से घिरा हुआ है (अग्नि सिद्धांत) जो अग्नि (कर) मुझमें चमक पैदा करे।
पञ्चमहाभूतों में जल का स्थान
जल के प्रकार (पार्थिव, दिव्य, अन्तरिक्षीय जल)
जलसंरचना एवं वास्तु: एक परम्परा
प्राचीन भारतीय सभ्यता, जिसे सिंधु घाटी सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता के रूप में जाना जाता है, ३३००-१३०० ई०पू० के आसपास अपने उत्कर्ष पर थी। अब यह ज्ञात हुआ है कि हड़प्पा के लोगों के पास पानी की आपूर्ति और सीवरेज की परिष्कृत प्रणालियाँ थीं, जिनमें हाइड्रोलिक संरचनाएँ जैसे बाँध, टैंक, पंक्तिबद्ध कुएँ, पानी के पाइप और फ्लश शौचालय आदि शामिल थे। हड़प्पा और मोहन जोदड़ो के शहरों ने विश्व की प्रथम शहरी स्वच्छता प्रणाली विकसित की। सिंधु घाटी सभ्यता में सिंचाई के उद्देश्य से बड़े पैमाने पर कृषि का कार्य किया गया था और नहरों के एक व्यापक नेटवर्क का उपयोग किया गया था।[6]
प्राचीन नगरों में जल प्रबंधन
भारतीय लोगों के सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन पर जल का हमेशा एक व्यापक प्रभाव रहा हि। प्राचीन भारतीय सभ्यता में सिंधु घाटी या हडप्पा सभ्यता के लोगों के पास पानी की आपूर्ति और सीवरेज की परिष्कृत प्रणालियाँ थीं। मोहन जोदडों का 'महान स्नान गृह' इस बात का अद्भुत प्रमाण है।[7]
यज्ञवेदियों के समीप जल स्रोतों की व्यवस्था
जलस्रोत एवं जलसंरचना के संबंध में तड़ागामृतलता और जलाशयादिवास्तु पद्धति आदि प्राचीन ग्रन्थ प्राप्त होते हैं।
वास्तुशास्त्र में जलस्थान का निर्धारण
भूमि के पृष्ठ भाग पर प्रवाहमान नदियां, समुद्र, तालाब, सरोवर, झील, झरने, बावडी आदि जल के स्रोत कहलाते हैं। भूमि में पाए जाने वाले जल के अतिरिक्त भूगर्भ में जल का संचार होता रहता है।
वैदिक एवं लौकिक साहित्य में जल की जीवन धारक तथा लोक संरक्षक तत्त्व के रूप में प्रशंसा की गई है। भारतीय चिन्तक वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक जल को पवित्र एवं दिव्य आस्थाभाव से देखते आए हैं। वैदिक साहित्य में जल देवता संबंधी मंत्र इसके प्रमाण हैं। जल के प्रति आस्था भाव का परिणाम है कि संस्कृत वाड़्मय के विभिन्न ग्रन्थों में वापी, कूप, तडाग आदि जलाशयों को धार्मिक दृष्टि से पुण्यदायी माना गया है -
वापीकूपतडागानि देवतायतनानि च। अन्नप्रदानमारामाः पूतधर्मश्च मुक्तिदम्॥ (अग्निपुराण २०९,२)
प्रासादमण्डन नामक वास्तुशास्त्र के ग्रन्थ में कहा गया है कि -
जीवनं वृक्षजन्तूनां करोति य जलाश्रयम्। दत्ते वा लभेत्सौख्यमुर्व्यां स्वर्गे च मानवः॥ (प्रासाद मण्डन ८,९५)
पुराणकारों ने भूमिगत जल के संरक्षण और संवर्धन को विशेष रूप से प्रोत्साहित करने के लिए नए जलाशयों के निर्माण के अतिरिक्त पुराने तथा जीर्ण-शीर्ण जलाशयों की मरम्मत और जीर्णोद्धार को भी अत्यन्त पुण्यदायी कृत्य माना है।
भूमिगत जल॥ Underground Water
शिलाओं के आधार पर भूमिगत जल शिराओं की पहचान की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। इस विद्या को 'उदकार्गल' कहा गया है अर्थात भूगर्भ में निहित जलस्रोतों की खोज।[8] बृहत्संहिता में -
वदाम्यतोऽहं दकार्गलं येन जलोपलब्धिः। (बृहत्संहिता)
पृथिवी के गर्भ से ऊपर भूतल पर लाया गया जल उदक है। किन्तु इस उदक के मार्ग में प्रस्तर, मृदा आदि आवरण रूप अवरोध हैं। अर्गल का अर्थ है साँकल या अवरोध। इस अवरोध को दूर कर ही जल को भूतल पर लाया जा सकता है। 'उदकार्गलम्' इन अवरोधों के पीछे अन्तर्निहित जलस्रोतों की उपलब्धि का मार्ग बताता है। प्राचीन मान्यता रही है कि जिस प्रकार मनुष्यों के अंग में नाडियां हैं उसी तरह भूमि में ऊंची, नीची शिराएं हैं। भूमि भेद एवं पाषाण आदि के आधार पर इनकी पहचान होती है। आकाश से केवल एक ही स्वाद का जल पृथ्वी पर पतित होता है लेकिन पृथ्वी की विशेषता से स्थान के अनुरूप अनेक रस एवं स्वाद वाला हो जाता है।[9]
जलसंरचना के प्रकार
संस्कृत साहित्य के सुप्रसिद्ध साहित्यकार बाणभट्ट अपनी रचना कादंबरी में पोखर-सरोवर उत्खनन को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। लोक कल्याण हेतु इस प्रकार उत्खनित करवाये गये जलकोष को प्रमुख चार वर्गों में विभाजित किया गया है -[10]
कूप॥ Well
कूप गोलाकार होते हैं एवं इनका व्यास ७ फीट से ७५ फीट तक हो सकता है और इसमें जल निकासी के लिए किसी यंत्र डोल-डोरी (बाल्टी) आदि का प्रयोग किया जाता है।
वापी॥ Stepwell
वापी छोटा और चौकोर आकार का पोखर होता था इसकी लंबाई ७५ फीट से १५० फीट हो सकती थी जिसमें जलस्तर तक पैरों की सहायता से पहुँचा जा सकता था।
वापी का अर्थ है "छोटे तालाब" (पानी के जलाशय)। इन्हें राजा द्वारा दो गांवों के बीच सीमा-जोड़ पर बनाया जाना चाहिए। मनुस्मृति में -
तडागान्युदपानानि वाप्यः प्रस्रवणानि च। सीमासंधिषु कार्याणि देवतायतनानि च॥ (मनु स्मृति ८.२४८)[11]
कूप, कुण्ड, तालाब, सरोवर आदि।
पुष्करिणी
पुष्करिणी छोटा गोलाकार पोखर था जिसका व्यास १५० से ३०० फीट तक हो सकता था।
तड़ाग
तडाग चौकोर आकार का पोखर था जिसकी लम्बाई ३०० से ४५० फीट तक होती थी।
ह्रद
मत्स्यपुराण में इस प्रसंग में पांचवें वर्ग की चर्चा की गयी है, इसे ह्रद नाम दिया गया है। जिसमें साधारणतः पानी कभी नहीं सूखता हो।
नगर नियोजन एवं जलसंरचना
वैदिक ऋषियों को समुद्र, नदी व पुष्करणियों से अत्यन्त ही लगाव था। इसी कारण ऋषियों के आश्रम और बस्तियाँ नदियों के किनारे ही विकसित हुए। ऋग्वेद में सर्वत्र जल को चार सूक्तों में आपो देवता कहकर संबोधित किया गया है। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के तेईसवें सूक्त, जिसके द्रष्टा मेधातिथि काण्व हैं, इसके १६-२३ वें मन्त्रों में जल की स्तुति की गयी है। इसी के सप्तम मण्डल के ४७ वें तथा ४९वे सूक्त में मन्त्रद्रष्टा ऋषि वसिष्ठ मैत्रावरुणि ने आपो देवरूप जल की स्तुति की है। ४९ वें सूक्त में समुद्र को जलाशयों में ज्येष्ठ माना गया है -[12]
समुद्र ज्येष्ठाः सलिलस्य मध्यात्पुनाना यन्त्यनिविशमानाः। इन्द्रो या वज्री वृषभो रराद ता आपो देवीरिह मामवन्तु॥ (ऋग्वेद)
समुद्र जिनमें ज्येष्ठ है, वे जल प्रवाह, सदा अन्तरिक्ष से आने वाले है। इन्द्रदेव ने जिनका मार्ग प्रशस्त किया है, वे जलदेव हमारी रक्षा करें।
भारत में शुष्कतम मौसम और पानी की कमी ने जल प्रबंधन के क्षेत्रों में कई अन्वेषी कार्यों को मूर्तरूप दिया है। सिंधु घाटी सभ्यता के समय से इस पूरे क्षेत्र में सिंचाई प्रणाली, भिन्न-भिन्न प्रकार के कूपों, जल भण्डारण प्रणाली तथा न्यून लागत और अनवरत जल संग्रहण तकनीकें विकसित की गई थी। 3000 ईसा पूर्व में गिरनार में बने जलाशय तथा पश्चिमी भारत में प्राचीन स्टेप-वैल्स कौशल के कुछ उदाहरण हैं। प्राचीन भारत में जल पर आधारित तकनीकें भी प्रचलन में थीं। कौटिल्य के सदियों पुराने लिखे अर्थशास्त्र (400 ईसा पूर्व) में हस्तचालित कूलिंग उपकरण 'वारियंत्र' (हवा को ठंडा करने के लिए घूमता हुआ जल स्प्रे) का संदर्भ दिया गया है। पाणिनी (700 ईसा पूर्व) के 'अर्थशास्त्र' और 'अष्टाध्यायी' में वर्षामापी (नायर, 2004) यंत्रों का विधिवत संदर्भ उपलब्ध है।
हड़प्पा, लोथल, धोलावीरा में जल निकास
सिंधु सभ्यता के बहुत से स्थलों से उन्नत जल प्रबंधन के साक्ष्य हमें प्राप्त होते हैं। इस सभ्यता के समस्त नगरों में उन्नत जल प्रबंधन की व्यवस्था थी किन्तु तकनीकी निर्माण के दृष्टिकोण से मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानागार, लोथल का डाकयार्ड और धौलावीरा शहर की बनावट का यहाँ उल्लेख आवश्यक हो जाता है -[13]
- मोहनजोदड़ो से एक बृहत स्नानागार प्राप्त हुआ जिसकी लंबाई १२ मीटर, चौड़ाई ७ मीटर और गहराई २.४ मीटर थी। स्नानागार के जलाशय में उतरने के लिए इसके उत्तरी और दक्षिणी छोर पर सीढियाँ बनी हुई हैं। पूरी बृहत स्नानागार की संरचना पक्की ईंटों से निर्मित हैं और इस पर विटूमिन से पलस्तर किया गया है। जलाशय के पश्चिमी हिस्से में जल निकास हेतु नालियाँ भी प्राप्त हुई है। इस जलाशय में जलापूर्ति का माध्यम निकट ही स्थित एक कुआ था।
- जल प्रबन्धन का दूसरा प्रमाण मिलता है लोथल के डाकयार्ड से, इसके उत्खननकर्ता एस०आर०राव थे उन्होंने इसका माप २१४x१६ मीटर ऊंचाई तथा गहराई ४.१५ मीटर माना है। इस डाकयार्ड के उत्तरी दीवार में १२ मीटर चौड़ा प्रवेश द्वार भी था। एस०आर० राव का मानना है कि यह प्रवेश द्वार एक नहर के माध्यम से भोगवा नदी से जुड़ा था और इसी नदी के जल से ही इसे जलापूर्ति भी होती है। इसमें उतरने के लिए सँकरी सीढियों का भी निर्माण किया गया था। डाकयार्ड के दक्षिणी भाग में जल निकासी हेतु एक नलिका मार्ग भी बना है, इसके दोनों तरफ सोख्ता गर्ते भी पाये गये हैं। विद्वानों के बीच इसके डाकयार्ड होने या जलाशय होने को लेकर पर्याप्त मतभेद है। जल प्रबन्धन के दृष्टिकोण से चाहे यह डाकयार्ड हो या जलाशय दोनों ही दृष्टि से यह एक उत्कृष्ट जल संरचना है।
- सिंधु सभ्यता से तीसरा महत्त्वपूर्ण जल प्रबंधकीय साक्ष्य हमें धौलावीरा शहर के बनावट के अन्तर्गत प्राप्त होता है। धौलावीरा शहर के कच्छ के रन्न में स्थित था जो जल की अभाव वाला क्षेत्र था। इस क्षेत्र में वर्ष भर बहने वाली नदियों और प्राकृतिक झीलों का अभाव पाया जाता है। इसलिये यह आवश्यक हो जाता है यहाँ के निवासी उन्नत जल प्रबन्धन करे जो उन्होंने किया भी। सिन्धु निवासियों ने धौलावीरा शहर का बसाव मानहर और मानसर दो वर्षाकालिक नालियों के मध्य किया। ये दोनों नाले वर्षाकाल में छोटी नदियों की भाँति हो जाते थे। सिन्धु निवासियों ने तकनीकी सूझबूझ का परिचय देते हुए दोनों नाले के वर्षाकालीन जल का प्रयोग अपनी आवश्यकता के लिए किया।
मंदिरों में कूप–सरोवर–जलमंडप की योजना
जल जीवन का आधार है और इसके बिना संसार की कोई भी गतिविधि संभव नहीं। जलाशयों की स्थापना केवल भौतिक उपयोग के लिए नहीं, किन्तु एक आध्यात्मिक कार्य भी मानी गई है। वास्तुशास्त्र के अनुसार मंदिर परिसर में स्थित कूप, तड़ाग, सरोवर आदि का निर्माण अत्यंत पुण्यदायी और यज्ञों के तुल्य माना गया है -
पानीयमेतत्सकलं त्रैलोक्यं सचराचरम्। विकारः सलिलस्येदं स्थावरं जङ्गमं तथा॥
कूपः प्रवृत्तपानीयस्त्वर्धं हरति दुष्कृतम्। कूपकृत्स्वर्गमासाद्य देवभोगान्समश्नुते॥
दशकूप समा वापी तथा च परिकीर्तिता। कृत्वा तडागं च तथा वारुणं लोकमश्नुते॥ (विष्णुधर्मोत्तर पुराण)
मंदिरों के समीप जलाशयों की स्थापना का धार्मिक, पर्यावरणीय और सांस्कृतिक उद्देश्य रहा है। ये न केवल जल संग्रहण के साधन हैं, बल्कि आध्यात्मिक ऊर्जा के भी स्रोत होते हैं। इस प्रकार जल की शुद्धता, उपयोगिता और आध्यात्मिक महत्ता देवालय वास्तु के एक अभिन्न अंग के रूप में प्रतिष्ठित है।
रामायण एवं महाभारत में जल व्यवस्था
हमारे महाकाव्यों में भी जल संरचनाओं का वर्णन प्राप्त होता है। रामायण में 'पंपासर' एवं 'पंचाप्सरोतटाक' नामक दो तालाबों का वर्णन मिलता है। राजा भरत के आदेश से अयोध्या एवं शृंगवेरपुर के बीच में कम जल वाले झरनों का जल रोककर, बाँध निर्मित करने को कहा गया है जिससे वे विविध आकारों वाले जलाशयों में परिणत हो गये थे -
अथ भूमि प्रदेशज्ञाः सूत्र कर्म विशारदाः। स्व कर्म अभिरताः शूराः खनका यन्त्रकाः तथा॥ कूप काराः सुधा कारा वम्श कर्म कृतः तथा। समर्था ये च द्रष्टारः पुरतः ते प्रतस्थिरे॥ (बाल्मीकि रामायण)[14]
राजा का प्रमुख कर्त्तव्य तालाब और नहरों का निर्माण करवाना भी था। जलाशय, कूप, बाँध, नहरें, झील आदि कृत्रिम रूप से जल प्राप्ति के साधन थे। इन जल संरचनाओं के निर्माणकर्ता अभियांत्रिकों को रामायण में यंत्रकार कहा गया है। इसी प्रकार का विवरण महाभारत से भी प्राप्त होता है -
महाभारत के सभापर्व में नारद युधिष्ठिर से पूछते हैं कि जलाशय, नहर आदि सभी का निर्माण उचित दूरी व स्थान पर किया गया है कि नहीं जिससे खेतों को समान रूप से जल प्राप्त हो।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जलसंरचना
वर्षाजल-संग्रह और वास्तु॥ Rainwater Harvesting and Vastu
जल पुनःचक्रण प्रणाली
स्मार्ट सिटी और प्राचीन जल प्रणालियों की तुलनात्मक समीक्षा
अग्नि पुराण में जल के महत्व को प्रतिपादित करके सम्पूर्ण जगत जलमय है ऐसा कहकर वापी व तडाग की प्रतिष्ठा विधि का वर्णन किया गया है। पद्म पुराण, ब्रह्म पुराण व अन्य अनेकों पुराणों में इनकी प्रतिष्ठा का विधान है। महर्षि वेदव्यास ने भविष्य पुराण में कहा है कि -
प्रासादाः सेतवश्चैव तडागाद्यास्तथैव च। त्रिभिर्वर्णैः प्रतिष्ठार्हाः जीर्णानां तु समुद्गता॥ यस्तडागं नवं कृत्वा जीर्णं वा नवतां नयेत्। सर्वं कुलं समुद्धृत्य स्वर्ग लोके महीयते॥ (भविष्य पुराण)
निष्कर्ष॥ conclusion
हडप्पा नगर में खुदाई के दौरान जल संचयन प्रबन्धन व्यवस्था होने की जानकारी प्राप्त होती है। प्राचीन अभिलेखों में जल स्रोतों को पोषित करने के साक्ष्य मिलते हैं। पौराणिक ग्रन्थों में तथा जैन, बौद्ध साहित्य में नहरों, तालाबों, बांधों, कुओं और झीलों का विवरण मिलता है। प्राचीन काल में जल को विविध रूप में संग्रहित कर सदुपयोग किया जाता था, मनुस्मृति के अनुसार तालाबों, पोखरों, नहरों एवं अन्य जलाशयों से गाँव का सीमांकन किया जाता था। धर्मशास्त्रों में जलाशयों को क्षति पहुँचाने वालों के लिए कठोर दंड का विधान है। [15]
उद्धरण॥ References
- ↑ अमित कुमार एवं कृष्ण कुमार शर्मा, वेदों में निरूपित जल संसाधनों की महत्ता एवं उनका संरक्षण, सन - २०२१, इण्टरनेशनल जर्नल ऑफ हुमैनिटीज एण्ड सोशल साइंस इन्वेंशन (पृ० ६०)।
- ↑ मृत्युञ्जय कुमार तिवारी, जल व्यवस्था, सन २०२३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २२०)।
- ↑ अमरकोष, प्रथमकाण्ड, (पृ० १०६)।
- ↑ पं० श्री गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी, वैदिक विज्ञान और भारतीय संस्कृति, सन २०००, बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना (पृ० १०६)।
- ↑ ऐतरेयोपनिषद्, अध्याय - १, खण्ड - १।
- ↑ शरद कुमार जैन, प्राचीन भारत में जलविज्ञानीय ज्ञान, सन २०१९, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान-रुड़की, उत्तराखण्ड (पृ० १३)।
- ↑ शरद कुमार जैन, प्राचीन भारत में जलविज्ञानीय ज्ञान, सन २०१९, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, उत्तराखण्ड (पृ० ३)।
- ↑ डॉ० इला घोष, वेदविज्ञानश्रीः-जलस्रोतों की खोज का विज्ञान-उदकार्गलम्, सन २००२, आर्य कन्या डिग्री कॉलेज, इलाहाबाद (पृ० ७९)।
- ↑ पत्रिका - वास्तुशास्त्र विमर्श, डॉ० सुशील कुमार, वास्तु शास्त्र एवं जलव्यवस्था, सन २०१५, श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली (पृ० १०३)।
- ↑ शोध कर्ता - अभिषेक कुमार, प्राचीन भारत में जल प्रबन्धन, सन २०१७, शोध केन्द्र - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (पृ० २७)।
- ↑ मनु स्मृति, अध्याय-८, श्लोक-२४८।
- ↑ डॉ० धीरेन्द्र झा, धर्मायण पत्रिका-वैदिक साहित्य में जल-विमर्श, सन २०२१, महावीर मन्दिर पटना (पृ० ११)।
- ↑ डॉ० ममता शर्मा, प्राचीन भारत में जल प्रबंधन के पुरातात्विक साक्ष्यः एक ऐतिहासिक अध्ययन, सन २०२३, इन्टरनेशनल एजुकेशन साइंटिफिक रिसर्च जर्नल (पृ० १२)।
- ↑ बाल्मीकि रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग ८०, श्लोक - १-२।
- ↑ डॉ० आशा, प्राचीन काल में जल स्रोतों को पल्लवित एवं पोषित करने के लिए मानवीय प्रयास, सन २०१८, शोध संचयन (पृ० १४)।