Difference between revisions of "Groundwater (भूगर्भ जल)"

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search
(नया पृष्ठ - भूगर्भ जल)
 
(सुधार जारी)
 
(11 intermediate revisions by the same user not shown)
Line 1: Line 1:
 
{{ToBeEdited}}
 
{{ToBeEdited}}
  
भूगर्भ जल (संस्कृतः उदकार्गल) का तात्पर्य- भूस्तर के नीचे प्रवाहित सभी प्रकार के जल स्रोत से है। वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में भूगर्भीय जल अन्वेषण पद्धति का वर्णन किया है।<ref>डॉ० मोहन चंद तिवारी, [https://www.himantar.com/varahamihira/ वराहमिहिर की ‘बृहत्संहिता’ में भूमिगत जलशिराओं का सिद्धान्त], सन् २०१४, हिमांतर ई-मैगज़ीन (पृ० १)।</ref>  
+
भूगर्भ जल (संस्कृतः उदकार्गल) का तात्पर्य- भूस्तर के नीचे प्रवाहित सभी प्रकार के जल स्रोत से है। वेदों में जल की उपयोगिता और महत्व पर प्रकाश डालते हुये - जल को जीवन, अमृत, भेषज, रोगनाशक एवं आयुर्वर्धक कहा है। वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में भूगर्भ जल की परिभाषा, जल चिन्हों का वैज्ञानिक प्रतिपादन, वृक्ष तथा बाँबी के लक्षण से जल विचार, तृण शाकादि के द्वारा जल विचार, भू-लक्षण के अनुसार जल विचार, अन्य चिन्हों से जल विचार एवं जल शोधन की विधि के विषय में उल्लेख किया गया है। भूगर्भीय जल अन्वेषण पद्धति का विस्तृत वर्णन है, जिसके द्वारा मानव समाज भूगर्भ जल प्राप्त कर लाभान्वित हो सकता है।<ref>डॉ० मोहन चंद तिवारी, [https://www.himantar.com/varahamihira/ वराहमिहिर की ‘बृहत्संहिता’ में भूमिगत जलशिराओं का सिद्धान्त], सन् २०१४, हिमांतर ई-मैगज़ीन (पृ० १)।</ref>
  
== परिचय ==
+
==परिचय॥ Introduction==
भारतीय जलविज्ञान का सैद्धांतिक स्वरूप अन्तरिक्षगत मेघविज्ञान और वृष्टिविज्ञान के स्वरूप को जाने समझे बिना अधूरा ही है.मैंने अपने पिछ्ले दो लेखों में अन्तरिक्षगत मेघ विज्ञान, वृष्टि विज्ञान और वर्षा के पूर्वानुमानों से सम्बद्ध भारतीय मानसून विज्ञान के विविध पक्षों पर चर्चा की.अब इस लेख में विशुद्ध भूमिगत जलविज्ञान के बारे में प्राचीन भारतीय जलविज्ञान के महान् वराहमिहिर प्रतिपादित भूगर्भीय जलान्वेषण विज्ञान के बारे में विशेष चर्चा की जा रही है। जल वैज्ञानिक वराहमिहिर ने पृथिवी, समुद्र और अन्तरिक्ष तीनों क्षेत्रों के प्राकृतिक जलचक्र को संतुलित रखने के उद्देश्य से ही भूमिगत जलस्रोतों को खोजने और वहां कुएं, जलाशय आदि निर्माण करने वाली पर्यावरण मित्र जलसंग्रहण विधियों का भूगर्भीय परिस्थितियों के अनुरूप निरूपण किया है।
+
भूगर्भीय जलान्वेषण का विज्ञान सर्वप्रथम वराहमिहिर के द्वारा बृहत्संहिता में प्रतिपादन किया गया है। जल वैज्ञानिक वराहमिहिर ने पृथिवी, समुद्र और अन्तरिक्ष तीनों क्षेत्रों के प्राकृतिक जलचक्र को संतुलित रखने के उद्देश्य से ही भूमिगत जलस्रोतों को खोजने और वहां कुएं, जलाशय आदि निर्माण करने वाली पर्यावरणमित्र जलसंग्रहण विधियों का भूगर्भीय परिस्थितियों के अनुरूप निरूपण किया है।<ref name=":0">निर्भय  कुमार पाण्डेय, [https://egyankosh.ac.in/handle/123456789/93133 दकार्गलादि विचार], सन् २०२३, इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मुक्‍त विश्‍वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २१२)।</ref> बृहत्संहिता में जल विज्ञान को दकार्गल कहा गया है। वराहमिहिर के अनुसार जिस विद्या से भूमिगत जल का ज्ञान होता है, उस धर्म तथा यश देने वाले ज्ञान को दकार्गल या उदकार्गल कहते हैं - <blockquote>धर्म्यं यशस्यं च वदाम्यतोऽहं दगार्गलं येन जलोपलब्धिः। पुंसां यथाङ्गेषु शिरास्तथैव क्षितावपि प्रोन्नतनिम्नसंस्थाः॥ (बृहत्संहिता)<ref>बलदेवप्रसाद मिश्र, [https://archive.org/details/brihat-samhita-/%E0%A4%AC%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE%20Brihat%20Samhita%20B.P%20Mishra/page/n275/mode/1up बृहत्संहिता अनुवाद सहित], सन् १९५४, लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर प्रेस, मुंबई (पृ० ५४)।</ref></blockquote>भारतीय जलविज्ञान का सैद्धांतिक स्वरूप अन्तरिक्षगत मेघविज्ञान और वृष्टिविज्ञान के स्वरूप को जाने समझे बिना अधूरा ही है, मैंने अपने पिछ्ले दो लेखों में अन्तरिक्षगत मेघ विज्ञान, वृष्टि विज्ञान और वर्षा के पूर्वानुमानों से सम्बद्ध भारतीय मानसून विज्ञान के विविध पक्षों पर चर्चा की। अब इस लेख में विशुद्ध भूमिगत जलविज्ञान के बारे में प्राचीन भारतीय जलविज्ञान के महान वराहमिहिर प्रतिपादित भूगर्भीय जलान्वेषण विज्ञान के बारे में विशेष चर्चा की जा रही है। महाभारत काल में भी अन्य रीतियों द्वारा भूजल प्राप्त करने के प्रमाण मिलते हैं। भीष्म की शर शैय्या के पास अर्जुन द्वारा बाण बेधन से जल की धारा निकलने का कथ्य सर्वविदित है।
  
== भूमिगत जलशिराओं का सिद्धान्त ==
+
== भूमिगत जलशिराओं का सिद्धान्त॥ Bhumigata  Jalashiraon ka Siddhanta ==
 +
बृहत्संहिता में आचार्य वराहमिहिर ने जिन वृक्षों से जल विचार कहा है, वे सभी वृक्ष स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होते हैं। आचार्य वराहमिहिर ने जल की गहराई मापने के लिये पुरुष शब्द का प्रयोग किया है। ऊपर की ओर हाथ उठाकर पुरुष की लम्बाई को पुरुष का मान, माना जायेगा। अतः औसतन १२० अंगुल - १ पुरुष का पैमाना हुआ तथा ९०" इंच, ७.६ फिट, २२५ से. मी. या २.२५ मी. का एक पुरुष हुआ। बृहत्संहिता में -<ref name=":1" />
  
== सारांश ==
+
{| class="wikitable"
 +
|+बृहत्संहिता- वृक्ष तथा बाँबी के अनुसार भूगर्भ जल का विचार
 +
!वृक्ष
 +
!बाँबी की दिशा
 +
!जल की दिशा
 +
!गहराई
 +
! जन्तु, मिट्टी व पत्थर की प्राप्ति
 +
!भूगर्भ जल के गुण धर्म
 +
!भूगर्भजल की मात्रा
 +
!श्लोक संख्या
 +
|-
 +
|करीर (Capparis decidua)
 +
|उत्तर की ओर
 +
|साढेचार हाथ दक्षिण में
 +
|दस पुरुष (९००")
 +
|९०" बाद पीला मेंढक फिर जल
 +
|मीठा
 +
|<nowiki>-</nowiki>
 +
|बृ० सं० ५४/६८
 +
|-
 +
|बेर (Ziphus mauritiana) व करील
 +
|<nowiki>-</nowiki>
 +
|पश्चिम में तीन हाथ दूर
 +
|अट्ठारह पुरुष (१६२०")
 +
|जल
 +
|<nowiki>-</nowiki>
 +
| प्रचुर मात्रा में
 +
|बृ० सं० ५४/७४
 +
|-
 +
|पीलु (Salvadora oleiodes), व बेर
 +
|<nowiki>-</nowiki>
 +
|तीन हाथ पूर्व में
 +
|बीस पुरुष (१८००")
 +
|जल
 +
|<nowiki>-</nowiki>
 +
|प्रचुर मात्रा में
 +
| बृ० सं० ५४/७५
 +
|-
 +
|जामुन (Syzygium cumini)
 +
|पूर्व की ओर
 +
|दक्षिण में तीन हाथ वृक्ष से दूर
 +
|दो पुरुष (१८०")
 +
|४५" बाद मछली, काला पत्थर, काली मिट्टी, जलशिरा (असितपाषाणम्)
 +
|मीठा
 +
|प्रचुर मात्रा में
 +
| बृ० सं० ५४/९-१०
 +
|-
 +
|गूलर (Ficus racemosa)
 +
|<nowiki>-</nowiki>
 +
|तीन हाथ पश्चिम में
 +
|ढाई पुरुष (२२५")
 +
|४५"बाद सफेद सांप, काला पत्थर, जलशिरा
 +
|मीठा
 +
|_
 +
|बृ० सं० ५४/११
 +
|-
 +
|निर्गुंडी (Vitex negando)
 +
|पास में ही
 +
|दक्षिण की ओर तीन हाथ दूर
 +
|सवा दो पुरुष (२२२.५")
 +
|<nowiki>-</nowiki>
 +
|मीठा
 +
|प्रचुर मात्रा में
 +
|बृ० सं० ५४/१४-१५
 +
|-
 +
|करंज (Pongamia pinnata)
 +
|दक्षिण दिशा
 +
|दो हाथ दक्षिण में
 +
|साढेतीन पुरुष (३१५')
 +
|४१" बाद कछुआ, तत्पश्चात जल
 +
|<nowiki>-</nowiki>
 +
|कम (स्वल्पम्)
 +
|बृ० सं० ५४/३३-३४
 +
|-
 +
|महुआ (Madhuca longifalia)
 +
|उत्तर में
 +
|पश्चिम की ओर पाँच हाथ बाद
 +
|साढेसात पुरुष (६७५")
 +
|९०" बाद साँप, धुएंरंगत वाली मिट्टी, मेहरुन रंगत का पत्थर पश्चात जल
 +
|मीठा
 +
|प्रचुर मात्रा में
 +
|बृ० सं० ५४/३५-३६
 +
|-
 +
|तिलक
 +
|दक्षिण में कुशाघास उगी हो
 +
|पाँच हाथ पश्चिम में
 +
|पाँच पुरुष (४५०")
 +
|जल
 +
|मीठा
 +
|प्रचुर मात्रा में
 +
|बृ० सं० ५४/३५-३६
 +
|-
 +
|कदंब (Neolumorrckia cadamba)
 +
|पश्चिम में
 +
|तीन हाथ दक्षिण में
 +
|छह पुरुष (५४० ")
 +
|९०" बाद सुनहरा मेंढक, पीली  मिट्टी, जल
 +
|लोह स्वाद
 +
|प्रचुर मात्रा में
 +
|बृ० सं० ५४/३८-३९
 +
|-
 +
|पीला धतूरा (Datura stramonium)
 +
|बायीं या उत्तर दिशा में बाँबी
 +
|दो हाथ बाद दक्षिण में
 +
|पन्द्रह पुरुष (१३५०")
 +
|४५" बाद ताम्ररंग का नेवला, ताम्ररंग का पत्थर, लाल मिट्टी
 +
|खारा
 +
|<nowiki>-</nowiki>
 +
| बृ० सं० ५४/७०-७२
 +
|-
 +
|पीलु (Salvadora oleiodes)
 +
|ईशान कोण में, साँप चीटीं की बाँबी में
 +
|साढेचार हाथ पश्चिम में
 +
|पाँच पुरुष (४५०")
 +
| ९०" इंच बाद मेंढक, पीली मिट्टी, हरी चमकीली मिट्टी, पत्थर अन्त में जल।
 +
|खारा
 +
|प्रचुर मात्रा में
 +
|बृ० सं० ५४/६३-६४
 +
|-
 +
|ताड़ (Borassus flabellifer), नारियल (Cocos Hucifera), खजूर (Phocnix sylvestris)
 +
|पास बाँबी में
 +
|छह हाथ पश्चिम में
 +
|चार पुरुष (३६०")
 +
|जल
 +
|<nowiki>-</nowiki>
 +
|<nowiki>-</nowiki>
 +
|बृ० सं० ५४/४०
 +
|}
  
== उद्धरण ==
+
==जल-स्रोतों का पता लगाना॥ Jala Sroton ka Pata Lagana ==
 +
ज्योतिष शास्त्र के संहिता स्कन्ध में जो क्षेत्र-विभाग बतलाए गए हैं उन क्षेत्रों में विभिन्न लक्षणों के आधार पर जल की स्थिति, शिरा व मात्रा का ज्ञान भी बतलाया गया है। भूमि को हमारे आचार्यों ने प्रायः चार क्षेत्रों में विभक्त कर जल की रीति बतलाई है। जल स्रोतों का पता लगाने के लिये दीमकों के मार्ग का पता लगाना अत्युत्तम साधन है।<ref>डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, [https://ia903201.us.archive.org/21/items/wg1141/WG1141-2004%20-Vedo%20Mein%20Vigyan%20-Positive%20Sciences%20In%20The%20Vedas.pdf वेदों में विज्ञान], सन् २०००, विश्वभारती अनुसंधान परिषद, भदोही (पृ० ३११)।</ref> इसके अतिरिक्त अन्य विधियों का भी वर्णन है -
 +
 
 +
*'''वेतस (वेदमजनूं) के वृक्ष से जल का ज्ञान''' -
 +
*'''जामुन के वृक्ष से जल का ज्ञान'''
 +
*'''गूलर के वृक्ष से जल का ज्ञान'''
 +
*'''बेर के वृक्ष से जल का ज्ञान'''
 +
*'''बहेड़े के वृक्ष से जल का ज्ञान'''
 +
*'''महुए के वृक्ष से जल का ज्ञान'''
 +
*'''कदंब के वृक्ष से जल का ज्ञान'''
 +
*'''ताड़ या नारियल के वृक्ष से जल का ज्ञान'''
 +
 
 +
==जलप्राप्ति ज्ञानार्थ क्षेत्र विभाग॥ jalapraapti gyaanaarth kshetr Vibhaga ==
 +
भूमि में स्थित जल के ज्ञान हेतु भूमि का ज्ञान सर्वप्रथम आवश्यक है, क्योंकि पृथ्वी सर्वत्र एक समान नहीं है। कहीं समतल मैदान हैं तो कहीं पठार, कहीं दलदली भूमि है तो कहीं रेगिस्तान। अतः भारतीय ऋषियों को यह ज्ञात था कि एक ही प्रकार का लक्षण जलप्राप्ति के लिए सर्वत्र उपयुक्त नहीं हो सकता। अतएव पूर्वाचार्यों ने भूमि को मुख्यतः चार क्षेत्रों में विभक्त किया है -<ref name=":0" />
 +
 
 +
#जाबलदेश
 +
#अनूपदेश
 +
#मरुदेश
 +
#शिलादेश
 +
 
 +
=== जाबल देश॥ Jabala desha ===
 +
जाबलदेश या क्षेत्र को स्पष्ट करते हुए आचार्य वराह मिहिर ने - स्वल्पोदको देशः जाबलः" अन्यत्र "अम्बुरहितः देशः" अथवा "जलवर्जितः देशः" का प्रयोग किया है। अतः इससे स्पष्ट हो जाता है कि जिस क्षेत्र में जल न्यून मात्रा में हो वह क्षेत्र जाबल देश कहलाता है। जाबल क्षेत्र में जम्बूवृक्ष, उदुम्बर, अर्जुन, पलाश, बिल्व आदि वृक्षों के द्वारा लक्षण ज्ञान बताया गया है। इस आधार पर हम समझ सकते हैं कि जिन क्षेत्रों में बडे तने वाले वृक्ष होते हैं वह जाबल क्षेत्र होता है तथा उस क्षेत्र में भूजल की मात्रा कम होती है।
 +
 
 +
===अनूप देश॥ Anup Desha ===
 +
अनूप क्षेत्र के विषय में बृहत्संहिता की टीका करते हुए आचार्य भट्टोत्पल ने लिखा है - बहूदको देशोऽनूपः" तथा प्रभूतं जलं यस्मिन् देशे स अनूपदेशः"। अतः इस व्याख्या से स्पष्ट हो जाता है कि जिस क्षेत्र में भू-जल पर्याप्त मात्रा में हो उस क्षेत्र को अनूपक्षेत्र या अनूपदेश के नाम से जाना जाता है।
 +
 
 +
जब हम अनूपदेश के लक्षणों को देखते हैं तो स्पष्ट होता है कि जिस क्षेत्र में स्निग्ध (चिकने), वृक्ष, लता, गुल्म, पुष्प के वृक्ष, कुश-काश, व तृण (घास) से युक्त होता है वह क्षेत्र प्रायः अनूपदेश होता है। अनुपदेश में जल कम गहराई पर तथा प्रायः सर्वत्र प्राप्त हो जाता है।
 +
 
 +
=== मरु देश॥ Maru Desha ===
 +
मरुदेश अपने नाम से स्वतः विख्यात है, जिस क्षेत्र में जल की उपलब्धता अत्य्न्त न्यून होती है बालू से युक्त वह भूखण्ड मरुदेश कहलाता है। मरुदेश के सन्दर्भ में वराह मिहिर ने लिखा है - <blockquote>मरुदेशे भवति शिरा यथा तथातः परं प्रवक्ष्यामि। ग्रीवा करभाणामिव भूतलसंस्थाः शिरा यान्ति॥ (बृहत्संहिता)</blockquote>अर्थात मरुभूमि में जिस तरह शिरा होती है उसको बताता हूँ। जैसे ऊँट की गर्दन होती है उसी प्रकार मरुभूमि में नीची शिराएं होती हैं। मरुदेश में प्रायः कांटेदार वृक्ष होते हैं अतः इस क्षेत्र में जलोपलब्धि के लिए प्रायः इसी प्रकार के वृक्षों से लक्षणज्ञान किया गया है। इसके अतिरिक्त बृहत्संहिताकार लिखते हैं - <blockquote>मरुदेशे याच्छिद्धं न जाबले तैर्जलं विनिर्देश्यम्। जम्बूवेतसपूर्वैर्ये पुरुषास्ते मरौ द्विगुणाः॥ (बृहत्संहिता) </blockquote>अर्थात् जिन चिह्नों से मरुस्थल में जल ज्ञान कहा गया है उन चिह्नों से जाबल (स्वल्प जल वाले) देश में जल का ज्ञान नहीं करना चाहिए। पहले जामुन, बेंत आदि के द्वारा जल ज्ञान के समय जो पुरुष प्रमाण (गहराई के मापन हेतु) बतलाया गया है उसको द्विगुणित करके मरुदेश में ग्रहण करना चाहिए। इसके अतिरिक्त भी "तस्मिन् शिरा प्रदिष्टानर्षष्ट्या पञ्चवर्जिताया" अर्थात् पचपन पुरुष नीचे जल ज्ञान की चर्चा मरुदेश के सन्दर्भ में प्राप्त होती है, अतः इसका तात्पर्य है कि मरुदेश में जल अत्यन्त नीचे स्थित होता है तथा उसकी मात्रा भी स्वल्प होती है।
 +
 
 +
===शिला देश॥ Shila Desha ===
 +
शिलादेश का तात्पर्य पथरीली भूमि वाले क्षेत्र से है। यहाँ एक विशिष्टता दिखती है कि जहाँ जाबल, अनूप या मरुदेश में जल ज्ञान के लक्षण प्रायः वृक्षों या वनस्पतियों पर आधारित हैं वहीं शिलादेश में भूमिवर्ण अथवा शिला के वर्ण के आधार पर जल का ज्ञान बतलाया जाता है। इसके अतिरिक्त यहाँ एक महत्त्वपूर्ण विषय और भी है कि बृहत्संहिता में शिलादेश में जल ज्ञान के साथ-साथ शिलाओं को विदीर्ण करने का मार्ग व उपाय भी बतलाए गये हैं। यह उपाय प्राचीन काल के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इन बातों को देखने से ज्ञात होता है कि हमारे पूर्वजों के पास ज्ञान का कितना अगाध भण्डार था और तकनीक भी उन्नत थी जिसके द्वारा समाज के कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता था।
 +
 
 +
==जल विज्ञान का लक्षण व स्वरूप॥ Jala Vigyana ka Lakshan va Svarupa ==
 +
अमरकोष के अनुसार आप, अंभ, वारि, तोय, सलिल, जल, अमृत, जीवन, पेय, पानी, उदक इत्यादि जल के ही पर्यायवाची शब्द हैं। वराहमिहिर ने जल विज्ञान को उदकार्गल कहा है। उदक जल को कहते हैं, अर्गला जल के ऊपर आई हुई रुकावट को कहते हैं। वराहमिहिर के ही शब्दों में जिस विद्या से भूमिगत जल का ज्ञान होता है उस धर्म और यश को देने वाले ज्ञान को उदकार्गल कहते हैं - <blockquote>धर्म्यं यशस्यं च वदाम्यतोsहं दकार्गल येन जलोपलब्धिः। पुंसां यथांग्रेषु शिरास्तथैव क्षितावपि प्रोन्नतनिम्नसंस्थाः॥ (बृहत्संहिता)<ref>डॉ० जितेन्द्र व्यास, [https://www.allresearchjournal.com/archives/2022/vol8issue5/PartB/8-5-33-660.pdf जल विज्ञान व वनस्पति विज्ञानः प्राकृतिक संसाधन शास्त्र की ज्योतिषीय प्रासंगिकता], सन् २०२२, इन्टरनेशनल जर्नल ऑफ अप्लाईड रिसर्च (पृ० १३४)।</ref></blockquote>जिस तरह मनुष्यों के अंग में नाडियाँ है उसी तरह भूमि में ऊँची नीची जल की शिरायें (धारायें) बहती हैं। आकाश से केवल एक स्वाद वाला जल पृथ्वी पर गिरता है। किन्तु वही जल पृथ्वी की विशेषता से तत्तत्स्थान में अनेक प्रकार के रस और स्वाद वाला हो जाता है। भूमि के वर्ण और रस के समान, जल का रस और वर्ण और रस व स्वाद का परीक्षण करना चाहिए। 
 +
 
 +
==भूगर्भ जल वर्तमान में महत्व॥ Present importance of ground water==
 +
अर्जेण्टीना में १९७७ ईस्वी में आयोजित युनाइटेड नेशन्स की इण्टरनेशनल कॉन्फ्रेंस में भूगर्भ जल के बारे में विचारणा हुई थी। इसमें बताया गया था कि विश्व में जल की ९५ प्रतिशत राशि समुद्रों एवं महासागरों में है। ४ प्रतिशत हिम बर्फ एवं स्थायी भूमि के स्वरूप में हैं। केवल १ प्रतिशत जल राशि ही भूगर्भ जल के रूप में प्राप्त होता है।<ref name=":1">टंकेश्वरी पटेल, [https://www.researchgate.net/publication/339378721_brhatsanhita_mem_bhugarbha_jalavidya बृहत्संहिता में भूगर्भ जलविद्या], सन् २०१५, देव संस्कृति इण्टरडिस्किप्लिनरी इण्टरनेशनल जर्नल (पृ० २६)।</ref>
 +
 
 +
==जलशुद्धि के प्रकार॥ Jalashuddhi ke Prakara ==
 +
भूगर्भ से प्राप्त जल पूर्व के समय में वापी (कुआं) अथवा तडाग (तालाब) में संचित होता था तथा इसका उपयोग दैनिक कार्यों हेतु किया जाता था। कुए ही मुख्य रूप से जल प्राप्ति के साधन होते थे। इन कूपों का जल विभिन्न कारणों से दूषित हो जाता था अथवा कुछ स्थानों पर जल का स्वाद उपयुक्त नहीं होता था। इसलिये इस दूषित जल से जलजनित रोगों की सम्भावना रहती थी। अतएव आचार्यों ने भारतीय शास्त्रों में इनके शुद्धार्थ औषधियों के प्रक्षेपण का विधान किया है। कूप में डालने के लिए द्रव्यों का वर्णन करते हुए वराहमिहिर कहते हैं - <blockquote>अञ्जनमुस्तोशीरैः सराजकोशातकामलक चूर्णैः। कतकफलसमायुक्तैर्योगः कूपे प्रदातव्यः॥ (बृहत्संहिता)<ref>बलदेवप्रसाद मिश्र, [https://archive.org/details/brihat-samhita-/%E0%A4%AC%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE%20Brihat%20Samhita%20B.P%20Mishra/page/n293/mode/1up बृहत्संहिता] अनुवाद सहित, अध्याय-५४, श्लोक-१२१, सन १९५४, लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर प्रेस, मुंबई (पृ० २७४)।</ref></blockquote>अर्थात अञ्जन, मोथा, खश, राजकोशातक, आँवला, कतक का फल इन सभी का चूर्ण बनाकर कुएं में डालना चाहिए। इन औषधि से क्या लाभ होता है यह स्पष्ट करते हुए लिखा है कि - <blockquote>कलुषं कटुकं लवणं विरसं सलिलं यदि वाशुभगन्धि भवेत्। तदनेन भवत्यमलं सुरसं सुसुगन्धिगुणैरपरैश्च युतम्॥ (बृहत्संहिता)<ref>बलदेवप्रसाद मिश्र, [https://archive.org/details/brihat-samhita-/%E0%A4%AC%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE%20Brihat%20Samhita%20B.P%20Mishra/page/n293/mode/1up बृहत्संहिता] अनुवाद सहित, अध्याय-५४, श्लोक-१२२, सन १९५४, लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर प्रेस, मुंबई (पृ० २७४)।</ref></blockquote>इन द्रव्यों के प्रयोग से गन्दला, कडुआ, खारा, बेस्वाद या दुर्गन्ध वाला जल निर्मल, मधुर, सुगन्धित और अनेक गुणों से युक्त हो जाता है।
 +
 
 +
==सारांश॥ Summary==
 +
आचार्य वराहमिहिर के ग्रन्थ बृहत्संहिता में वास्तुविद्या में जिस विद्या के ज्ञान से भूमिगत जल का ज्ञान किया जाए उस ज्ञान को दकार्गल कहा गया है। बृहत्संहिता के ५४वें अध्याय में कुल १२५ श्लोकों में इसका विस्तार से वर्णन है।<ref>[https://mahavirmandirpatna.org/dharmayan/dharmayan-vol-107-jala-vimarsha-ank/ धर्मायण- जल विमर्श विशेषांक], आचार्या कीर्ति शर्मा- ज्योतिष में भूगर्भीय जल का ज्ञान, सन- २०२१, महावीर मन्दिर, पटना (पृ० ८८)।</ref> संसार के छ्ह रस अर्थात मधुर अम्ल लवण कटु कषाय और तिक्त रसों का निर्माण इसी जल से विभिन्न रूपों में हुआ है। ये जल हमारे दोषों को दूर करते हैं तथा शरीर के मलों को नष्ट करते हैं। अथर्ववेद में नौ प्रकार के जलों का वर्णन हैं -<ref>शरद कुमार जैन, [https://nihroorkee.gov.in/sites/default/files/Ancient_Hydrology_Hindi_Edition.pdf प्राचीन भारत में जलविज्ञानीय ज्ञान], राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान-रुड़की (पृ० ४९)।</ref>
 +
 
 +
#'''परिचरा आपः -''' प्राकृतिक झरनों से बहने वाला जल
 +
#'''हेमवती आपः -''' हिमयुक्त पर्वतों से बहने वाला जल
 +
#'''वर्ष्या आपः -''' वर्षा से उत्पन्न जल
 +
#'''सनिष्यदा आपः -''' तीव्र गति से बहने वाला जल
 +
#'''अनूप्पा आपः -''' अनूप देश का जल अर्थात जहाँ दलदल अधिक हो
 +
#'''धन्वन्या आपः -''' मरुभूमि का जल
 +
#'''कुम्भेभिरावृता आपः -''' घडों में रखा हुआ जल
 +
#'''अनभ्रयः आपः -''' किसी यंत्र से खोदकर निकाला गया जल, जैसे - कुएं का
 +
#'''उत्स्या आपः -''' स्रोत का जल, जैसे-तालाबादि
 +
वेदों में जल की महत्ता के अनेक मंत्र प्राप्त होते हैं जिनमें कहा है - जल निश्चय ही भेषज रूप है जल रोगों को दूर करने वाले <ref>समीर व्यास, [http://117.252.14.250:8080/jspui/bitstream/123456789/4121/1/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0-7.6-%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%95%20%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2%20%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82%20%E0%A4%AD%E0%A5%82-%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8%20%E0%A4%8F%E0%A4%B5%E0%A4%82%20%E0%A4%9C%E0%A4%B2%20%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE.pdf वैदिक काल में भू-जलविज्ञान एवं जल गुणवत्ता], सन् २०१९, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की (पृ० ४३७)।</ref>
 +
 
 +
==उद्धरण॥ References==
 
[[Category:Hindi Articles]]
 
[[Category:Hindi Articles]]
 +
<references />

Latest revision as of 20:30, 20 February 2025

ToBeEdited.png
This article needs editing.

Add and improvise the content from reliable sources.

भूगर्भ जल (संस्कृतः उदकार्गल) का तात्पर्य- भूस्तर के नीचे प्रवाहित सभी प्रकार के जल स्रोत से है। वेदों में जल की उपयोगिता और महत्व पर प्रकाश डालते हुये - जल को जीवन, अमृत, भेषज, रोगनाशक एवं आयुर्वर्धक कहा है। वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में भूगर्भ जल की परिभाषा, जल चिन्हों का वैज्ञानिक प्रतिपादन, वृक्ष तथा बाँबी के लक्षण से जल विचार, तृण शाकादि के द्वारा जल विचार, भू-लक्षण के अनुसार जल विचार, अन्य चिन्हों से जल विचार एवं जल शोधन की विधि के विषय में उल्लेख किया गया है। भूगर्भीय जल अन्वेषण पद्धति का विस्तृत वर्णन है, जिसके द्वारा मानव समाज भूगर्भ जल प्राप्त कर लाभान्वित हो सकता है।[1]

परिचय॥ Introduction

भूगर्भीय जलान्वेषण का विज्ञान सर्वप्रथम वराहमिहिर के द्वारा बृहत्संहिता में प्रतिपादन किया गया है। जल वैज्ञानिक वराहमिहिर ने पृथिवी, समुद्र और अन्तरिक्ष तीनों क्षेत्रों के प्राकृतिक जलचक्र को संतुलित रखने के उद्देश्य से ही भूमिगत जलस्रोतों को खोजने और वहां कुएं, जलाशय आदि निर्माण करने वाली पर्यावरणमित्र जलसंग्रहण विधियों का भूगर्भीय परिस्थितियों के अनुरूप निरूपण किया है।[2] बृहत्संहिता में जल विज्ञान को दकार्गल कहा गया है। वराहमिहिर के अनुसार जिस विद्या से भूमिगत जल का ज्ञान होता है, उस धर्म तथा यश देने वाले ज्ञान को दकार्गल या उदकार्गल कहते हैं -

धर्म्यं यशस्यं च वदाम्यतोऽहं दगार्गलं येन जलोपलब्धिः। पुंसां यथाङ्गेषु शिरास्तथैव क्षितावपि प्रोन्नतनिम्नसंस्थाः॥ (बृहत्संहिता)[3]

भारतीय जलविज्ञान का सैद्धांतिक स्वरूप अन्तरिक्षगत मेघविज्ञान और वृष्टिविज्ञान के स्वरूप को जाने समझे बिना अधूरा ही है, मैंने अपने पिछ्ले दो लेखों में अन्तरिक्षगत मेघ विज्ञान, वृष्टि विज्ञान और वर्षा के पूर्वानुमानों से सम्बद्ध भारतीय मानसून विज्ञान के विविध पक्षों पर चर्चा की। अब इस लेख में विशुद्ध भूमिगत जलविज्ञान के बारे में प्राचीन भारतीय जलविज्ञान के महान वराहमिहिर प्रतिपादित भूगर्भीय जलान्वेषण विज्ञान के बारे में विशेष चर्चा की जा रही है। महाभारत काल में भी अन्य रीतियों द्वारा भूजल प्राप्त करने के प्रमाण मिलते हैं। भीष्म की शर शैय्या के पास अर्जुन द्वारा बाण बेधन से जल की धारा निकलने का कथ्य सर्वविदित है।

भूमिगत जलशिराओं का सिद्धान्त॥ Bhumigata Jalashiraon ka Siddhanta

बृहत्संहिता में आचार्य वराहमिहिर ने जिन वृक्षों से जल विचार कहा है, वे सभी वृक्ष स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होते हैं। आचार्य वराहमिहिर ने जल की गहराई मापने के लिये पुरुष शब्द का प्रयोग किया है। ऊपर की ओर हाथ उठाकर पुरुष की लम्बाई को पुरुष का मान, माना जायेगा। अतः औसतन १२० अंगुल - १ पुरुष का पैमाना हुआ तथा ९०" इंच, ७.६ फिट, २२५ से. मी. या २.२५ मी. का एक पुरुष हुआ। बृहत्संहिता में -[4]

बृहत्संहिता- वृक्ष तथा बाँबी के अनुसार भूगर्भ जल का विचार
वृक्ष बाँबी की दिशा जल की दिशा गहराई जन्तु, मिट्टी व पत्थर की प्राप्ति भूगर्भ जल के गुण धर्म भूगर्भजल की मात्रा श्लोक संख्या
करीर (Capparis decidua) उत्तर की ओर साढेचार हाथ दक्षिण में दस पुरुष (९००") ९०" बाद पीला मेंढक फिर जल मीठा - बृ० सं० ५४/६८
बेर (Ziphus mauritiana) व करील - पश्चिम में तीन हाथ दूर अट्ठारह पुरुष (१६२०") जल - प्रचुर मात्रा में बृ० सं० ५४/७४
पीलु (Salvadora oleiodes), व बेर - तीन हाथ पूर्व में बीस पुरुष (१८००") जल - प्रचुर मात्रा में बृ० सं० ५४/७५
जामुन (Syzygium cumini) पूर्व की ओर दक्षिण में तीन हाथ वृक्ष से दूर दो पुरुष (१८०") ४५" बाद मछली, काला पत्थर, काली मिट्टी, जलशिरा (असितपाषाणम्) मीठा प्रचुर मात्रा में बृ० सं० ५४/९-१०
गूलर (Ficus racemosa) - तीन हाथ पश्चिम में ढाई पुरुष (२२५") ४५"बाद सफेद सांप, काला पत्थर, जलशिरा मीठा _ बृ० सं० ५४/११
निर्गुंडी (Vitex negando) पास में ही दक्षिण की ओर तीन हाथ दूर सवा दो पुरुष (२२२.५") - मीठा प्रचुर मात्रा में बृ० सं० ५४/१४-१५
करंज (Pongamia pinnata) दक्षिण दिशा दो हाथ दक्षिण में साढेतीन पुरुष (३१५') ४१" बाद कछुआ, तत्पश्चात जल - कम (स्वल्पम्) बृ० सं० ५४/३३-३४
महुआ (Madhuca longifalia) उत्तर में पश्चिम की ओर पाँच हाथ बाद साढेसात पुरुष (६७५") ९०" बाद साँप, धुएंरंगत वाली मिट्टी, मेहरुन रंगत का पत्थर पश्चात जल मीठा प्रचुर मात्रा में बृ० सं० ५४/३५-३६
तिलक दक्षिण में कुशाघास उगी हो पाँच हाथ पश्चिम में पाँच पुरुष (४५०") जल मीठा प्रचुर मात्रा में बृ० सं० ५४/३५-३६
कदंब (Neolumorrckia cadamba) पश्चिम में तीन हाथ दक्षिण में छह पुरुष (५४० ") ९०" बाद सुनहरा मेंढक, पीली मिट्टी, जल लोह स्वाद प्रचुर मात्रा में बृ० सं० ५४/३८-३९
पीला धतूरा (Datura stramonium) बायीं या उत्तर दिशा में बाँबी दो हाथ बाद दक्षिण में पन्द्रह पुरुष (१३५०") ४५" बाद ताम्ररंग का नेवला, ताम्ररंग का पत्थर, लाल मिट्टी खारा - बृ० सं० ५४/७०-७२
पीलु (Salvadora oleiodes) ईशान कोण में, साँप चीटीं की बाँबी में साढेचार हाथ पश्चिम में पाँच पुरुष (४५०") ९०" इंच बाद मेंढक, पीली मिट्टी, हरी चमकीली मिट्टी, पत्थर अन्त में जल। खारा प्रचुर मात्रा में बृ० सं० ५४/६३-६४
ताड़ (Borassus flabellifer), नारियल (Cocos Hucifera), खजूर (Phocnix sylvestris) पास बाँबी में छह हाथ पश्चिम में चार पुरुष (३६०") जल - - बृ० सं० ५४/४०

जल-स्रोतों का पता लगाना॥ Jala Sroton ka Pata Lagana

ज्योतिष शास्त्र के संहिता स्कन्ध में जो क्षेत्र-विभाग बतलाए गए हैं उन क्षेत्रों में विभिन्न लक्षणों के आधार पर जल की स्थिति, शिरा व मात्रा का ज्ञान भी बतलाया गया है। भूमि को हमारे आचार्यों ने प्रायः चार क्षेत्रों में विभक्त कर जल की रीति बतलाई है। जल स्रोतों का पता लगाने के लिये दीमकों के मार्ग का पता लगाना अत्युत्तम साधन है।[5] इसके अतिरिक्त अन्य विधियों का भी वर्णन है -

  • वेतस (वेदमजनूं) के वृक्ष से जल का ज्ञान -
  • जामुन के वृक्ष से जल का ज्ञान
  • गूलर के वृक्ष से जल का ज्ञान
  • बेर के वृक्ष से जल का ज्ञान
  • बहेड़े के वृक्ष से जल का ज्ञान
  • महुए के वृक्ष से जल का ज्ञान
  • कदंब के वृक्ष से जल का ज्ञान
  • ताड़ या नारियल के वृक्ष से जल का ज्ञान

जलप्राप्ति ज्ञानार्थ क्षेत्र विभाग॥ jalapraapti gyaanaarth kshetr Vibhaga

भूमि में स्थित जल के ज्ञान हेतु भूमि का ज्ञान सर्वप्रथम आवश्यक है, क्योंकि पृथ्वी सर्वत्र एक समान नहीं है। कहीं समतल मैदान हैं तो कहीं पठार, कहीं दलदली भूमि है तो कहीं रेगिस्तान। अतः भारतीय ऋषियों को यह ज्ञात था कि एक ही प्रकार का लक्षण जलप्राप्ति के लिए सर्वत्र उपयुक्त नहीं हो सकता। अतएव पूर्वाचार्यों ने भूमि को मुख्यतः चार क्षेत्रों में विभक्त किया है -[2]

  1. जाबलदेश
  2. अनूपदेश
  3. मरुदेश
  4. शिलादेश

जाबल देश॥ Jabala desha

जाबलदेश या क्षेत्र को स्पष्ट करते हुए आचार्य वराह मिहिर ने - स्वल्पोदको देशः जाबलः" अन्यत्र "अम्बुरहितः देशः" अथवा "जलवर्जितः देशः" का प्रयोग किया है। अतः इससे स्पष्ट हो जाता है कि जिस क्षेत्र में जल न्यून मात्रा में हो वह क्षेत्र जाबल देश कहलाता है। जाबल क्षेत्र में जम्बूवृक्ष, उदुम्बर, अर्जुन, पलाश, बिल्व आदि वृक्षों के द्वारा लक्षण ज्ञान बताया गया है। इस आधार पर हम समझ सकते हैं कि जिन क्षेत्रों में बडे तने वाले वृक्ष होते हैं वह जाबल क्षेत्र होता है तथा उस क्षेत्र में भूजल की मात्रा कम होती है।

अनूप देश॥ Anup Desha

अनूप क्षेत्र के विषय में बृहत्संहिता की टीका करते हुए आचार्य भट्टोत्पल ने लिखा है - बहूदको देशोऽनूपः" तथा प्रभूतं जलं यस्मिन् देशे स अनूपदेशः"। अतः इस व्याख्या से स्पष्ट हो जाता है कि जिस क्षेत्र में भू-जल पर्याप्त मात्रा में हो उस क्षेत्र को अनूपक्षेत्र या अनूपदेश के नाम से जाना जाता है।

जब हम अनूपदेश के लक्षणों को देखते हैं तो स्पष्ट होता है कि जिस क्षेत्र में स्निग्ध (चिकने), वृक्ष, लता, गुल्म, पुष्प के वृक्ष, कुश-काश, व तृण (घास) से युक्त होता है वह क्षेत्र प्रायः अनूपदेश होता है। अनुपदेश में जल कम गहराई पर तथा प्रायः सर्वत्र प्राप्त हो जाता है।

मरु देश॥ Maru Desha

मरुदेश अपने नाम से स्वतः विख्यात है, जिस क्षेत्र में जल की उपलब्धता अत्य्न्त न्यून होती है बालू से युक्त वह भूखण्ड मरुदेश कहलाता है। मरुदेश के सन्दर्भ में वराह मिहिर ने लिखा है -

मरुदेशे भवति शिरा यथा तथातः परं प्रवक्ष्यामि। ग्रीवा करभाणामिव भूतलसंस्थाः शिरा यान्ति॥ (बृहत्संहिता)

अर्थात मरुभूमि में जिस तरह शिरा होती है उसको बताता हूँ। जैसे ऊँट की गर्दन होती है उसी प्रकार मरुभूमि में नीची शिराएं होती हैं। मरुदेश में प्रायः कांटेदार वृक्ष होते हैं अतः इस क्षेत्र में जलोपलब्धि के लिए प्रायः इसी प्रकार के वृक्षों से लक्षणज्ञान किया गया है। इसके अतिरिक्त बृहत्संहिताकार लिखते हैं -

मरुदेशे याच्छिद्धं न जाबले तैर्जलं विनिर्देश्यम्। जम्बूवेतसपूर्वैर्ये पुरुषास्ते मरौ द्विगुणाः॥ (बृहत्संहिता)

अर्थात् जिन चिह्नों से मरुस्थल में जल ज्ञान कहा गया है उन चिह्नों से जाबल (स्वल्प जल वाले) देश में जल का ज्ञान नहीं करना चाहिए। पहले जामुन, बेंत आदि के द्वारा जल ज्ञान के समय जो पुरुष प्रमाण (गहराई के मापन हेतु) बतलाया गया है उसको द्विगुणित करके मरुदेश में ग्रहण करना चाहिए। इसके अतिरिक्त भी "तस्मिन् शिरा प्रदिष्टानर्षष्ट्या पञ्चवर्जिताया" अर्थात् पचपन पुरुष नीचे जल ज्ञान की चर्चा मरुदेश के सन्दर्भ में प्राप्त होती है, अतः इसका तात्पर्य है कि मरुदेश में जल अत्यन्त नीचे स्थित होता है तथा उसकी मात्रा भी स्वल्प होती है।

शिला देश॥ Shila Desha

शिलादेश का तात्पर्य पथरीली भूमि वाले क्षेत्र से है। यहाँ एक विशिष्टता दिखती है कि जहाँ जाबल, अनूप या मरुदेश में जल ज्ञान के लक्षण प्रायः वृक्षों या वनस्पतियों पर आधारित हैं वहीं शिलादेश में भूमिवर्ण अथवा शिला के वर्ण के आधार पर जल का ज्ञान बतलाया जाता है। इसके अतिरिक्त यहाँ एक महत्त्वपूर्ण विषय और भी है कि बृहत्संहिता में शिलादेश में जल ज्ञान के साथ-साथ शिलाओं को विदीर्ण करने का मार्ग व उपाय भी बतलाए गये हैं। यह उपाय प्राचीन काल के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इन बातों को देखने से ज्ञात होता है कि हमारे पूर्वजों के पास ज्ञान का कितना अगाध भण्डार था और तकनीक भी उन्नत थी जिसके द्वारा समाज के कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता था।

जल विज्ञान का लक्षण व स्वरूप॥ Jala Vigyana ka Lakshan va Svarupa

अमरकोष के अनुसार आप, अंभ, वारि, तोय, सलिल, जल, अमृत, जीवन, पेय, पानी, उदक इत्यादि जल के ही पर्यायवाची शब्द हैं। वराहमिहिर ने जल विज्ञान को उदकार्गल कहा है। उदक जल को कहते हैं, अर्गला जल के ऊपर आई हुई रुकावट को कहते हैं। वराहमिहिर के ही शब्दों में जिस विद्या से भूमिगत जल का ज्ञान होता है उस धर्म और यश को देने वाले ज्ञान को उदकार्गल कहते हैं -

धर्म्यं यशस्यं च वदाम्यतोsहं दकार्गल येन जलोपलब्धिः। पुंसां यथांग्रेषु शिरास्तथैव क्षितावपि प्रोन्नतनिम्नसंस्थाः॥ (बृहत्संहिता)[6]

जिस तरह मनुष्यों के अंग में नाडियाँ है उसी तरह भूमि में ऊँची नीची जल की शिरायें (धारायें) बहती हैं। आकाश से केवल एक स्वाद वाला जल पृथ्वी पर गिरता है। किन्तु वही जल पृथ्वी की विशेषता से तत्तत्स्थान में अनेक प्रकार के रस और स्वाद वाला हो जाता है। भूमि के वर्ण और रस के समान, जल का रस और वर्ण और रस व स्वाद का परीक्षण करना चाहिए।

भूगर्भ जल वर्तमान में महत्व॥ Present importance of ground water

अर्जेण्टीना में १९७७ ईस्वी में आयोजित युनाइटेड नेशन्स की इण्टरनेशनल कॉन्फ्रेंस में भूगर्भ जल के बारे में विचारणा हुई थी। इसमें बताया गया था कि विश्व में जल की ९५ प्रतिशत राशि समुद्रों एवं महासागरों में है। ४ प्रतिशत हिम बर्फ एवं स्थायी भूमि के स्वरूप में हैं। केवल १ प्रतिशत जल राशि ही भूगर्भ जल के रूप में प्राप्त होता है।[4]

जलशुद्धि के प्रकार॥ Jalashuddhi ke Prakara

भूगर्भ से प्राप्त जल पूर्व के समय में वापी (कुआं) अथवा तडाग (तालाब) में संचित होता था तथा इसका उपयोग दैनिक कार्यों हेतु किया जाता था। कुए ही मुख्य रूप से जल प्राप्ति के साधन होते थे। इन कूपों का जल विभिन्न कारणों से दूषित हो जाता था अथवा कुछ स्थानों पर जल का स्वाद उपयुक्त नहीं होता था। इसलिये इस दूषित जल से जलजनित रोगों की सम्भावना रहती थी। अतएव आचार्यों ने भारतीय शास्त्रों में इनके शुद्धार्थ औषधियों के प्रक्षेपण का विधान किया है। कूप में डालने के लिए द्रव्यों का वर्णन करते हुए वराहमिहिर कहते हैं -

अञ्जनमुस्तोशीरैः सराजकोशातकामलक चूर्णैः। कतकफलसमायुक्तैर्योगः कूपे प्रदातव्यः॥ (बृहत्संहिता)[7]

अर्थात अञ्जन, मोथा, खश, राजकोशातक, आँवला, कतक का फल इन सभी का चूर्ण बनाकर कुएं में डालना चाहिए। इन औषधि से क्या लाभ होता है यह स्पष्ट करते हुए लिखा है कि -

कलुषं कटुकं लवणं विरसं सलिलं यदि वाशुभगन्धि भवेत्। तदनेन भवत्यमलं सुरसं सुसुगन्धिगुणैरपरैश्च युतम्॥ (बृहत्संहिता)[8]

इन द्रव्यों के प्रयोग से गन्दला, कडुआ, खारा, बेस्वाद या दुर्गन्ध वाला जल निर्मल, मधुर, सुगन्धित और अनेक गुणों से युक्त हो जाता है।

सारांश॥ Summary

आचार्य वराहमिहिर के ग्रन्थ बृहत्संहिता में वास्तुविद्या में जिस विद्या के ज्ञान से भूमिगत जल का ज्ञान किया जाए उस ज्ञान को दकार्गल कहा गया है। बृहत्संहिता के ५४वें अध्याय में कुल १२५ श्लोकों में इसका विस्तार से वर्णन है।[9] संसार के छ्ह रस अर्थात मधुर अम्ल लवण कटु कषाय और तिक्त रसों का निर्माण इसी जल से विभिन्न रूपों में हुआ है। ये जल हमारे दोषों को दूर करते हैं तथा शरीर के मलों को नष्ट करते हैं। अथर्ववेद में नौ प्रकार के जलों का वर्णन हैं -[10]

  1. परिचरा आपः - प्राकृतिक झरनों से बहने वाला जल
  2. हेमवती आपः - हिमयुक्त पर्वतों से बहने वाला जल
  3. वर्ष्या आपः - वर्षा से उत्पन्न जल
  4. सनिष्यदा आपः - तीव्र गति से बहने वाला जल
  5. अनूप्पा आपः - अनूप देश का जल अर्थात जहाँ दलदल अधिक हो
  6. धन्वन्या आपः - मरुभूमि का जल
  7. कुम्भेभिरावृता आपः - घडों में रखा हुआ जल
  8. अनभ्रयः आपः - किसी यंत्र से खोदकर निकाला गया जल, जैसे - कुएं का
  9. उत्स्या आपः - स्रोत का जल, जैसे-तालाबादि

वेदों में जल की महत्ता के अनेक मंत्र प्राप्त होते हैं जिनमें कहा है - जल निश्चय ही भेषज रूप है जल रोगों को दूर करने वाले [11]

उद्धरण॥ References

  1. डॉ० मोहन चंद तिवारी, वराहमिहिर की ‘बृहत्संहिता’ में भूमिगत जलशिराओं का सिद्धान्त, सन् २०१४, हिमांतर ई-मैगज़ीन (पृ० १)।
  2. 2.0 2.1 निर्भय कुमार पाण्डेय, दकार्गलादि विचार, सन् २०२३, इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मुक्‍त विश्‍वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २१२)।
  3. बलदेवप्रसाद मिश्र, बृहत्संहिता अनुवाद सहित, सन् १९५४, लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर प्रेस, मुंबई (पृ० ५४)।
  4. 4.0 4.1 टंकेश्वरी पटेल, बृहत्संहिता में भूगर्भ जलविद्या, सन् २०१५, देव संस्कृति इण्टरडिस्किप्लिनरी इण्टरनेशनल जर्नल (पृ० २६)।
  5. डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, वेदों में विज्ञान, सन् २०००, विश्वभारती अनुसंधान परिषद, भदोही (पृ० ३११)।
  6. डॉ० जितेन्द्र व्यास, जल विज्ञान व वनस्पति विज्ञानः प्राकृतिक संसाधन शास्त्र की ज्योतिषीय प्रासंगिकता, सन् २०२२, इन्टरनेशनल जर्नल ऑफ अप्लाईड रिसर्च (पृ० १३४)।
  7. बलदेवप्रसाद मिश्र, बृहत्संहिता अनुवाद सहित, अध्याय-५४, श्लोक-१२१, सन १९५४, लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर प्रेस, मुंबई (पृ० २७४)।
  8. बलदेवप्रसाद मिश्र, बृहत्संहिता अनुवाद सहित, अध्याय-५४, श्लोक-१२२, सन १९५४, लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर प्रेस, मुंबई (पृ० २७४)।
  9. धर्मायण- जल विमर्श विशेषांक, आचार्या कीर्ति शर्मा- ज्योतिष में भूगर्भीय जल का ज्ञान, सन- २०२१, महावीर मन्दिर, पटना (पृ० ८८)।
  10. शरद कुमार जैन, प्राचीन भारत में जलविज्ञानीय ज्ञान, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान-रुड़की (पृ० ४९)।
  11. समीर व्यास, वैदिक काल में भू-जलविज्ञान एवं जल गुणवत्ता, सन् २०१९, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की (पृ० ४३७)।