Difference between revisions of "Mukhya Smritis (मुख्य स्मृतियां)"

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== परिचय ==
 
== परिचय ==
स्मृति ग्रन्थ मनुष्य के कर्तव्य और अकर्तव्य का निर्देशक होने से मनुष्यमात्र को स्मृति शास्त्रों में देश, काल भेद से जो कर्तव्य सांस्कृतिक जीवन, व्यवहार, नीति और कर्म विपाक सिखाया है उसकी जानकारी होनी परमावश्यक है। बिना स्मृति ग्रन्थों के किये जाने वाले कर्तव्य, कर्म, ग्राह्यव्यवहार और त्याज्य व्यवहार का ज्ञान नहीं हो सकता है। भारतवर्ष में प्रायः लोग अपने आप को स्मार्तधर्मी कहते हैं अर्थात स्मृति प्रतिपादित धर्म का आचरण करने वाले हैं। कलिदास ने लिखा है - <ref>[https://www.jainfoundation.in/JAINLIBRARY/books/smruti_sandarbh_part_01_032667_hr6.pdf स्मृति-सन्दर्भः-प्रथमो भागः], सन 1988, नाग प्रकाशन,दिल्ली (पृ० 27)।</ref><blockquote>श्रुतिरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत्।</blockquote>वेद मन्त्रों का ही विशदीकरण स्मृति शास्त्र है। श्रुतिद्रष्टा ऋषि के अनन्तर स्मृतिकार ऋषि "मुनि" कहे जाते हैं। स्मृतियां 50/60 के लगभग हैं। प्रत्येक स्मृति का आधार वर्णधर्म, आश्रमधर्म, राजधर्म एवं व्यवहारक्रम है। याज्ञवल्क्य स्मृति में - <blockquote>मन्वत्रिविष्णुहारीत याज्ञवल्क्योशनोऽङ्गिराः। यमापस्तम्बसम्वर्त्ताः कात्यायनबृहस्पतिः॥
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स्मृतिशास्त्र का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। स्मृतियाँ प्रायः पद्य में है तथा स्मृतियों की भाषा लौकिक संस्कृत है। वेदों की विषय वस्तु का विशदीकरण एवं स्पष्टीकरण स्मृतियों में प्राप्त होता है। स्मृतियों में मानव के सामाजिक जीवन के ग्राह्य तथा अग्राह्य नियमों का विवेचन किया गया है -
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*डॉ० निरूपण विद्यालंकार ने धर्मसूत्रों तथा श्लोकात्मक स्मृतियों का प्रधान विषय वर्णधर्म तथा आश्रमधर्म माना है।
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*पूर्वकाल से लेकर सूत्रकाल तक सामाजिक व्यवस्था के जो नियम थे, उन्हीं का संग्रह स्मृतियों में प्राप्त होता है।
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*स्मृतियां भारतीय वांग्मय में विधि ग्रन्थों के रूप में प्रसिद्ध हैं। उनमें आचार-विचार के साथ-साथ न्याय की भी विस्तृत व्याख्या की गई है तथा तत्कालीन धार्मिक एवं सामाजिक व्यवस्थाओं का विवेचन एवं चारों वर्गों के कर्तव्यों और अकर्तव्य के निर्णय का निर्धारण भी किया गया है।
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*गीता में भी कर्तव्य और अकर्तव्य के निर्णय के लिए स्मृति शास्त्रों को प्रमाण बताया गया है।
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इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि स्मृतियों में मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष से सम्बन्धित सभी नियमों का समावेश किया गया है जो मनुष्य के लिए कल्याणकारी है तथा समाज व्यवस्था के संचालन में भी सहायक है। स्मृतियों में वर्णित विषयवस्तु की दृष्टि से स्मृतियों को तीन भागों में विभाजित है - आचार, व्यवहार और प्रायश्चित्त।
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स्मृति ग्रन्थ मनुष्य के कर्तव्य और अकर्तव्य का निर्देशक होने से मनुष्यमात्र को स्मृति शास्त्रों में देश, काल भेद से जो कर्तव्य सांस्कृतिक जीवन, व्यवहार, नीति और कर्म विपाक सिखाया है उसकी जानकारी होनी परमावश्यक है। बिना स्मृति ग्रन्थों के किये जाने वाले कर्तव्य, कर्म, ग्राह्यव्यवहार और त्याज्य व्यवहार का ज्ञान नहीं हो सकता है। भारतवर्ष में प्रायः लोग अपने आप को स्मार्तधर्मी कहते हैं अर्थात स्मृति प्रतिपादित धर्म का आचरण करने वाले हैं। कलिदास ने लिखा है - <ref>[https://www.jainfoundation.in/JAINLIBRARY/books/smruti_sandarbh_part_01_032667_hr6.pdf स्मृति-सन्दर्भः-प्रथमो भागः], सन 1988, नाग प्रकाशन,दिल्ली (पृ० 27)।</ref><blockquote>श्रुतिरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत्।</blockquote>वेद मन्त्रों का ही विशदीकरण स्मृति शास्त्र है। श्रुतिद्रष्टा ऋषि के अनन्तर स्मृतिकार ऋषि "मुनि" कहे जाते हैं। स्मृतियां 50/60 के लगभग हैं। प्रत्येक स्मृति का आधार वर्णधर्म, आश्रमधर्म, राजधर्म एवं व्यवहारक्रम है।  
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==धर्मशास्त्र एवं स्मृति==
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धर्मशास्त्र शब्द सर्वप्रथम मनुस्मृति में प्राप्त है। मनु ने श्रुतियों को वेद तथा स्मृतियों को धर्मशास्त्र शब्द से व्यवहार किया है - <blockquote>श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः। ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ॥ (मनु 2.10)</blockquote>याज्ञवल्क्य-स्मृति के प्रारंभ में उन्नीस धर्मशास्त्रकारों का उल्लेख किया गया है। इससे उनकी रचनाओं का धर्मशास्त्र होना स्वतः सिद्ध हो जाता है।<ref>शोधगंगा-विनोद कुमार, स्मृति साहित्य में राष्ट्र अवधारणा, सन २००२, शोधकेन्द्र- पंजाब विश्वविद्यालय (पृ० २७)।</ref>
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प्राचीन भारत की सभ्यता एवं संस्कृति के विषय में ये पर्याप्त सूचना देतीं हैं। स्मृतियों की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता यह है, कि ये कर्तव्यों, अधिकारों, सामाजिक नियमों तथा शासन की विधियों को व्यवस्थित रखने के लिए इन सभी विषयों का विवेचन करती है।<ref>शोध गंगा- रेखा खरे, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/9292/5/05_chapter%201.pdf याज्ञवल्क्य स्मृति में प्रतिबिम्बित सामाजिक जीवन-एक अनुशीलन], सन २०१३, शोध केन्द्र - उत्तर प्रदेश राजर्षि टण्डन मुक्त विश्वविद्यालय (पृ० १२)।</ref>
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== स्मृतियों का स्वरूप एवं विषय-वस्तु ==
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स्मृतियाँ वेदों की व्याख्या हैं, अतः भारतीय जनमानस में इन्हें वेदों जैसी ही प्रतिष्ठा प्राप्त है। स्मृतियों में निरूपित आचार, व्यवहार, प्रायश्चित्त, राजनीतिक, आर्थिक सिद्धान्त हजारों वर्षों तक प्राचीन भारतीय समाज के मेरुदण्ड रहे हैं। स्मृतियों से ही प्राचीन भारतीय संस्कृति का विशद ज्ञान होता है। भारत विश्व का पथ प्रदर्शक और प्रेरणा स्रोत किस प्रकार रहा है और भारतीय संस्कृति ने किस प्रकार विश्व को प्रभावित किया है, इसका स्वरूप स्मृतियों से ज्ञात होता है। स्मृतियों से ही प्राचीन भारत की स्थिति का ज्ञान होता है। स्मृतियां श्रुतियों का विशदीकरण हैं, जो तत्व वेद में संक्षेप में निर्दिष्ट हैं, उनका ही स्मृतियों में विस्तृत विवेचन है। मनु का कथन है कि श्रुति वेद हैं और स्मृतियां धर्मशास्त्र हैं। इन दोनों से ही धर्म का प्रादुर्भाव हुआ है। मनु ने वेदों के पश्चात स्मृतियों को ही धर्म का आधार माना है।
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===1. मनुस्मृति===
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{{Main|Manusmrti_(मनुस्मृतिः)}}
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मनुस्मृति में बारह अध्याय तथा छब्बीस सौ चौरासी (2684) श्लोक हैं। कुछ संस्करणों में श्लोकों की संख्या 2964 है। मनुस्मृति सरल भाषा में लिखी गई है। मृच्छकटिक नामक नाटक में मनुस्मृति का नाम उल्लिखित हुआ है। वाल्मीकीय रामायण में भी मनुस्मृति के कुछ श्लोक मनु के नाम से प्रस्तुत हुए हैं। मनुस्मृति याज्ञवल्क्य स्मृति से बहुत पुरानी स्मृति है। मनुस्मृति याज्ञवल्क्य स्मृति की अपेक्षा अपूर्ण एवं अनियमित रूप से वर्णित है। ब्रह्मांड का उद्देश्य, कर्म, कर्मों के गुण और दोष, स्थान और जाति, कुल का कर्तव्य और मोक्ष ये मनु स्मृति के मुख्य वर्णनीय विषय हैं।<ref>सम्पादक-पं० श्री तुलसीराम स्वामी, [https://vedpuran.net/wp-content/uploads/2016/07/manusmiriti.pdf मनुस्मृति], सन 1984, अध्यक्ष स्वामी प्रेस, मेरठ (पृ० 31)।</ref>
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===2. अत्रिस्मृति===
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मनुस्मृति से पता चलता है कि अत्रि प्राचीन धर्मशास्त्रकार थे। अत्रि का धर्मशास्त्र नौ अध्यायों में है। इन अध्यायों में दान, जप, तप का वर्णन है, जिनसे पापों से छुटकारा मिलता है। कुछ अध्याय गद्य और पद्य दोनों में ही है। इनके कुछ श्लोक मनुस्मृति में आते हैं। हस्तलिखित प्रतियों में अत्रि स्मृति या 'अत्रि संहिता' नामक एक अन्य ग्रन्थ मिलता है। अत्रि स्मृति में 400 श्लोक हैं। इसमें स्वयं अत्रि प्रमाण स्वरूप उद्धृत किये गये हैं। "अत्रि स्मृति में आपस्तम्ब, यम, व्यास, शंख, शातातप के नाम एवं उनकी कृतियों का वर्णन किया गया है।
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===3. विष्णु स्मृति===
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विष्णु स्मृति में 100 अध्याय हैं। इस स्मृति की एवं मनु स्मृति की 160 बातें विल्कुल समान हैं। ऐसा लगता है कि कुछ स्थानों पर तो मनुस्मृति के पद्य गद्य में रख दिये गये हों। याज्ञवल्क्य ने भी विष्णुधर्मसूत्र से शरीरांग-सम्बन्धी ज्ञान ले लिया है। विष्णुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति के बाद की कृति है। यह स्मृति भगवद्गीता, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य तथा अन्य धर्मशास्त्रकारों की ऋणी है। मिताक्षरा ने विष्णुस्मृति का 30 बार वर्णन किया हैं।" स्मृति चन्द्रिका में 225 बार विष्णु के उदाहरण आये हैं।<ref>पं० श्रीनन्द, [https://ia801308.us.archive.org/6/items/VisnuSmrti/VisnuSmrti.pdf वैजयन्ती व्याख्या सहित-विष्णुस्मृति], सन 1962, चौखम्बा संस्कृत सीरीज ऑफिस, वाराणसी (पृ० 13)।</ref>
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===4. हारीत स्मृति===
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यह स्मृति सात अध्यायों वाली है तथा संक्षिप्त होने के बाद भी इसमें वैदिक शिक्षा को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि वह सभी के कल्याण के लिये उपयोगी है -
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*प्रथम अध्याय में चारों वर्णों तथा अवस्थाओं का वर्णन है।
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*दूसरे अध्याय में चारों वर्णों का विश्लेषण है।
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*तीसरे अध्याय में ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए कर्तव्यों का वर्णन है।
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*चतुर्थ अध्याय में गृहस्थ जीवन तथा कर्तव्यों का वर्णन है।
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*पंचम अध्याय में वानप्रस्थ अर्थात वन में जाने वाले व्यक्ति के जीवन तथा कर्तव्यों का वर्णन है।
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*छटवें अध्याय में त्याग की अवधारणा है।
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*सातवें अध्याय में योग की अवधारणा है।
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हारीत के व्यवहार-सम्बन्धी पद्यावतरणों की चर्चा अपेक्षित है। स्मृति चन्द्रिका के उद्धरण में आया हैं- <blockquote>स्वधनस्य यथा प्राप्तिः परधनस्य वर्जनम्। न्यायेन यत्र क्रियते व्यवहारः स उच्चयते॥</blockquote>उन्होंनें इस प्रकार व्यवहार की परिभाषा की है। नारद की भाँति हारीत ने भी व्यवहार के चार स्वरूप बताये हैं। जैसे-धर्म, व्यवहार, चरित्र एवं नृपाज्ञा हारीत, वृहस्पति एवं कात्यायन के समाकालीन लगते हैं। हरिताचार्य ने तप और ज्ञान के सम्मिश्रण को बहुत अच्छे प्रकार से समझाया है -  <blockquote>यथा रथो अश्व हिंसास्तु ताहश्वो रथि हिना कारा। एवं तपश्च विद्या च संयुतं भेषजं भवेत॥ (हा० स्मृ० 6/9) </blockquote>जिस प्रकार घोड़े के बिना रथ सारथी के बिना घोड़े के समान है, अर्थात दोनों ही बेकार हैं। उसी प्रकार तप और ज्ञान का उचित समन्वय ही औषधि के गुण के समान सभी लोगों के कल्याण में सहायक होगा।
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===5. आंगिरस स्मृति===
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अंगिरा स्मृति, जिसे अंगिरस स्मृति या अंगिरस धर्मशास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। यह ग्रन्थ सामाजिक और नैतिक सिद्धान्तों, कानूनी और नैतिक आचरण, अनुष्ठानों, रीति-रिवाजों और जीवन के विभिन्न चरणों में व्यक्तियों के कर्तव्यों सहित विषयों की एक विस्तृत शृंघला को पूर्ण करता है। याज्ञवल्क्य ने अंगिरा को धर्मशास्त्रकार माना है। विश्वरूप के कथनानुसार परिषद् में 121 ब्राह्मण निवास करते थे। इसी प्रकार अडिरस की बहुत सी बातों का वर्णन विश्वरूप ने दिया है। अंगिरस स्मृति केवल 72 श्लोकों में है। यह स्मृति वृहत् का संक्षिप्त रूप है। अंगिरस स्मृति में आपस्तम्ब व अंगिरस के नाम आते हैं। इसके उपन्त्य श्लोक में स्त्रीधन को चुराने वाले की आलोचना की गई है।
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===6. यम स्मृति===
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वशिष्ठ धर्मसूत्र ने यम को धर्मशास्त्रकार मानकर उनकी स्मृति से उदाहरण लिया है। याज्ञवल्क्य ने यम को धर्मवक्ता बताया है। इस स्मृति में 78 श्लोक हैं मूलतः यम स्मृति बहुत छोटा ग्रंथ है। इस स्मृति के कुछ श्लोक मनुस्मृति से मिलते जुलते हैं। यम ने नारियों के लिए संन्यास वर्जित किया है। इसमें विभिन्न प्रकार के तपों की चर्चा की गई है तथा उनके पीछे के सैद्धांतिक सिद्धांतों को भी बताया गया है। मुनि यम ने ग्रंथ के प्रारंभ से ही प्रायश्चित के प्रकारों की व्याख्या की है।
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===7. संवर्त स्मृति===
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याज्ञवल्क्य की सूची में संवर्त एक स्मृतिकार के रूप में आते हैं। संवर्त स्मृति में 227 से 230 तक श्लोक उपलब्ध होते हैं। आज जो प्रकाशित संवर्त स्मृति मिलती है, वह मौलिक स्मृति के अंश का संक्षिप्त सार मात्र प्रतीत होता है।
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===8. कात्यायन स्मृति ===
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शंख, लिखित, याज्ञवल्क्य एवं पराशर आदि स्मृतिकारों ने कात्यायन को धर्म वक्ताओं में गिना है। कात्यायन ने नारद एवं वृहस्पति को अपना आदेश माना है। कात्यायन ने स्त्रीधन पर जो लिखा है, वह उनकी व्यवहार-सम्बन्धी कुशलता का परिचायक है। इस निबन्धों में कात्यायन के 900 श्लोक उद्धृत हुए हैं। कात्यायन का काल-निर्णय सरल नहीं है। वे मनु एवं याज्ञवल्क्य के बाद आते हैं। कात्यायन अधिक से अधिक ईसा के बाद तीसरी या 90 चौथी शताब्दी के माने जाते हैं।
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===9. बृहस्पति स्मृति===
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वृहस्पति स्मृति, मनुस्मृति का पूर्ण अनुकरण करती है। इस स्मृति में बहुत से श्लोकों का नारद स्मृति के समान विवरण मिलता है। यह स्मृति मनु व याज्ञवल्क्य स्मृति के बाद की स्मृति है। इन स्मृति का समय छठी या सातवीं शताब्दी है। कात्यायन और विश्वरूप ने इसका कई बार वर्णन किया है। वृहस्पति स्मृति में 711 श्लोक हैं।
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===10. पराशर स्मृति===
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इस स्मृति में 12 अध्याय और 512 श्लोक है। आचार और प्रायश्चित इसके विषय हैं। याज्ञवल्क्य इसका उल्लेख करते हैं। यह एक प्राचीन प्रामाणिक स्मृति मानी जाती है। इसका रचना-काल 100 से लेकर 501 ई0 के बीच में माना गया है।
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===11. व्यास स्मृति===
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व्यास स्मृति चार अध्यायों एवं 250 श्लोकों में निबद्ध है। व्यास ने अपनी स्मृति की घोषणा बनारस में की थी। व्यास ने व्यवहार विधि का वर्णन किया है। व्यास स्मृति की बहुत सी बातें नारद, कात्यायन एवं वृहस्पति आदि से मिलती है। व्यास के अनुसार उत्तर के चार प्रकार हैं-1. मिथ्या, 2. सम्प्रतिपत्ति, 3. कारण एवं 4. प्राड्न्याय। व्यास स्मृति का रचनाकाल ईसा के बाद दूसरी एवं पांचवी शताब्दी के बीच माना जाता है।
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===12. शंख एवं लिखित स्मृति===
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याज्ञवल्क्य ने शंख, लिखित को धर्मशास्त्रकारों में गिना है। शंख एवं लिखित स्मृति प्राचीन है। इस स्मृति में 18 अध्याय तथा शंख स्मृति के 330 तथा लिखित स्मृति के 93 श्लोक पाये जाते हैं। मित्ताक्षरा में इस स्मृति के 50 श्लोक उद्धृत हुए हैं। यह धर्मसूत्र गौतम एवं आपस्तम्ब के बाद की किन्तु याज्ञवल्क्य स्मृति के पहले की रचना है। इसके प्रणयन का काल ई०पू० 300 से लेकर सन् 100 के बीच में माना गया हैं।
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===14. दक्ष स्मृति ===
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याज्ञवल्क्य ने दक्ष का उल्लेख किया है। विश्वरूप, मिताक्षरा अपरार्क ने दक्ष से उदाहरण लिए हैं। दक्ष के व्यवहार-सम्बन्धी अपरार्क ने दक्ष से उदाहरण लिए हैं। दक्ष के व्यवहार-सम्बन्धी निम्नलिखित दो श्लोक, जिनमें दान में न दिये जाने वाले नौ पदार्थो की चर्चा की गई हैं, बहुधा प्रस्तुत किये जाते हैं-<blockquote>सामान्यं याचितं न्यास आदिर्दाराश्व तद्धनम्। क्रमायातंच निक्षेपः सर्वस्व चान्वये सति॥  आपत्स्वति न देयानि नव वस्तूनि सर्वदा। यो ददाति स मूढात्मा प्रायश्चित्तीयते नरः॥</blockquote>यह स्मृति वस्तुतः बहुत पुरानी है।
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===15. याज्ञवल्क्य स्मृति===
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याज्ञवल्क्य स्मृति में लगभग 1010 श्लोक हैं। यह मनुस्मृति से अधिक नियमित है। इसमें क्रमबद्ध रूप से थोड़े में सब कुछ वर्णित है। अनुष्टुप छन्द में यह सम्पूर्ण ग्रन्थ सृजित है। संक्षिप्त होते हुए भी यह दुर्बोध नहीं है। इसमें वर्ण; आश्रम आदि के धर्मो का अच्छा वर्णन किया गया है। याज्ञवल्क्य स्मृति अवश्य ही मनु के पीछे की है। अतः यह "स्मृति प्रथम शताब्दी ई०पू० से पहले को नहीं हो सकती। इस स्मृति का रचनाकाल प्रथम शताब्दी ई०पू० से लेकर 300 ई0 तक होना चाहिए।
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===16. शातातप स्मृति===
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याज्ञवल्क्य एवं पराशर ने शातातप को धर्मवक्ताओं में माना है। मिताक्षरा, स्मृति चन्द्रिका तथा अन्य ग्रन्थों में शातातप के बहुत से श्लोक लिये गये हैं। शातांतप के नाम की कई स्मृतियां हैं। जीवानन्द के संग्रह में कर्मविपाक नामक शतातप स्मृति है, जिसमें छः अध्याय एवं 231 श्लोक हैं। यह बहुत ही प्राचीन स्मृति है।
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===17. वसिष्ठ स्मृति===
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भगवान् श्रीराम का नाम लेते समय हमारे मन में एक और नाम स्मृति का विषय बनता है और वह नाम मुनि वशिष्ठ का है, जिन्हे अपने तप, ज्ञान आदि से ब्रह्मषि का पद प्राप्त हुआ हैं। इन्होंने तीस अध्यायों में समाप्त होने वाली अपनी वशिष्ठस्मृति के अध्याय 16, 17 और 18 में न्याय प्रक्रिया, साक्षी, दाय विभाग तथा राजा के कर्त्तव्यों का वर्णन किया है।
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===18. आपस्तम्ब स्मृति===
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इसमें संहिताओं के अतिरिक्त ब्राह्मणों के उद्धरण उल्लिखित हैं। इसमें मीमांसा के बहुत से पारिभाषिक शब्द एवं सिद्धान्त पाये जाते हैं। अपरार्क, हरदन्त, स्मृतिचन्द्रिका तथा अन्य ग्रन्थों में इसके बहुत से उद्धरण हैं।
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==स्मृतियों की संख्या==
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मुख्य स्मृतिकार अट्ठारह हैं - मनु, बृहस्पति, दक्ष, गौतम, अंगिरा, योगीश्वर (याज्ञवल्क्य), प्रचेता, शातातप, पराशर, संवर्त, उशनस, शंख, लिखित, अत्रि, विष्णु, यम, आपस्तम्ब और हारीत।
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इनके अतिरिक्त उपस्मृतियों के लेखकों के नाम इस प्रकार से हैं - <blockquote>नारद पुलहो गार्ग्यः पुलस्त्यः शौनकः क्रतुः। बौधायनो जातु कर्ण्यो विश्वामित्रः पितामहः॥
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जाबालिनाचिकेतश्च स्कन्दो लौगाक्षिकश्यपौ। व्यासः सनत्कुमारश्च शान्तनुर्जनकस्तथा॥
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व्याघ्रः कात्यायनश्चैव जातुकर्ण्यः कपिञ्ज्जलः। बौधायनश्च काणादौ विश्वामित्रस्तथैव च॥
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पैठीनसिर्गोभिलश्चेत्युपस्मृतिविधायकाः॥ (याज्ञवल्क्य स्मृति का समीक्षात्मक अध्ययन)</blockquote>वीरमित्रोदय, परिभाषा प्रकरण के अनुसार अन्य स्मृतिकारों की संख्या इक्कीस है। ये स्मृतिकार निम्नलिखित हैं - <blockquote>वसिष्ठो नारदश्चैव सुमन्तुश्चैव पितामहः। विष्णुः कार्ष्णाजिनिः सत्यव्रतौ गार्ग्यश्च देवलः॥
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जमदग्नि भरद्वाजः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः। आत्रेयः छागलेयश्च मरीचिर्वत्स एव च॥
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पारस्करश्चर्ष्यशृंगो वैजवापस्तथैव च। इत्येते स्मृति करति एकविंशतिरीरिताः॥</blockquote>
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==स्मृतियों का महत्व==
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याज्ञवल्क्य स्मृति में -<ref>पं० श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी, [https://satymarg.wordpress.com/wp-content/uploads/2017/01/ashtadash-smriti-satymarg.pdf अष्टादश स्मृति], सन १९६९, खेमराज श्रीकृष्णदास, मुम्बई (पृ० ३)।</ref> <blockquote>मन्वत्रिविष्णुहारीत याज्ञवल्क्योशनोऽङ्गिराः। यमापस्तम्बसम्वर्त्ताः कात्यायनबृहस्पतिः॥
  
 
पराशरव्यासशङ्ख‌लिखिताः दक्षगौतमौ। शातातपो वशिष्ठश्च धर्मशास्त्रप्रयोजकाः॥ (याज्ञवल्क्य स्मृति, आचाराध्याय 4/5)</blockquote>भाषार्थ-
 
पराशरव्यासशङ्ख‌लिखिताः दक्षगौतमौ। शातातपो वशिष्ठश्च धर्मशास्त्रप्रयोजकाः॥ (याज्ञवल्क्य स्मृति, आचाराध्याय 4/5)</blockquote>भाषार्थ-
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#अत्रि स्मृति
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#विष्णु स्मृति
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#हारीत स्मृति
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#औशनस स्मृति
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#अंगिरा स्मृति
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#यम स्मृति
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#आपस्तम्ब स्मृति
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#संवर्त स्मृति
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#कात्यायन स्मृति
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#बृहस्पति स्मृति
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#पाराशर स्मृति
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#व्यास स्मृति
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#शंख स्मृति
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#लिखित स्मृति
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#दक्ष स्मृति
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#गौतम स्मृति
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#शतातप स्मृति
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#वशिष्ठ स्मृति (मनु स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति)}}
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==प्रमुख वर्ण्यविषय==
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वर्ण्य विषय की दृष्टि से स्मृतियों की समस्त विषय सामग्री को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है - आचाराध्याय, व्यवहाराध्याय और प्रायश्चित्ताध्याय।
  
# मनु स्मृति
+
स्मृति को धर्मशास्त्र भी कहा जाता है जिसका अर्थ आचार-संहिता होता है। आचाराध्याय के अन्तर्गत अनुष्ठान अथवा कर्मकाण्ड, सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वाह आदि विषय आते हैं। व्यवहाराध्याय के अन्तर्गत राजनीति, राज्यशासन-विधि, राजा और प्रजा के कर्तव्य, न्याय व्यवस्था, विवादास्पद विषयों का निर्णय, दायभाग आदि और प्रायश्चित्ताध्याय में पापों (अपराध)  उनका प्रायश्चित्त आदि का विवेचन है। मनुष्य को धर्माचरण सिखाती हैं स्मृतियाँ। 
# याज्ञवल्क्य स्मृति
 
# अत्रि स्मृति
 
# विष्णु स्मृति
 
# हारीत स्मृति
 
# औशनस स्मृति
 
# अंगिरा स्मृति
 
# यम स्मृति
 
# कात्यायन स्मृति
 
# बृहस्पति स्मृति
 
# पराशर स्मृति
 
# व्यास स्मृति
 
# दक्ष स्मृति
 
# गौतम स्मृति
 
# वशिष्ठ स्मृति
 
# आपस्तम्ब स्मृति
 
# संवर्त स्मृति
 
# शंख लिखित स्मृति
 
# देवल स्मृति
 
# शतातप स्मृति
 
  
== प्रमुख वर्ण्यविषय ==
+
==त्रिविध स्रोत - श्रुति स्मृति एवं पुराण==
 +
श्रुति, स्मृति एवं पुराण प्रायः इन तीनों का नाम एक साथ लिया जाता है, जैसे पूजा आदि के पूर्व संकल्प में श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त फलप्राप्त्यर्थम् या आद्यशंकराचार्य की स्तुति में - श्रुतिस्मृतिपुराणानामालयं करुणालयम्।
  
== उद्धरण ==
+
==उद्धरण==
 
[[Category:Smrtis]]
 
[[Category:Smrtis]]
 
[[Category:Hindi Articles]]
 
[[Category:Hindi Articles]]
 +
<references />

Latest revision as of 22:20, 23 October 2024

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भारतीय ज्ञान परंपरा में स्मृति शास्त्र वे ग्रन्थ हैं, जो किसी ऋषि के द्वारा आचार संहिता और विधि विधान के रूप में लिखे गए या संकलित किए गए हैं। ये एक प्रकार से सामाजिक धर्मशास्त्र हैं। मनुष्यता के विकास का स्रोत, सांस्कृतिक आधार तथा नैतिक निष्ठा स्मृतियों में देश, काल और अवस्था भेद से बताई गई है। आदिवैदिक मन्त्रों को श्रुति शब्द से निर्देश किया है। इन्हीं मन्त्रों के संस्मरणों से मनु याज्ञवल्क्यादि ऋषियों ने अपने संस्मरणों को प्रकट किया जिनको स्मृति नाम दिया गया।

परिचय

स्मृतिशास्त्र का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। स्मृतियाँ प्रायः पद्य में है तथा स्मृतियों की भाषा लौकिक संस्कृत है। वेदों की विषय वस्तु का विशदीकरण एवं स्पष्टीकरण स्मृतियों में प्राप्त होता है। स्मृतियों में मानव के सामाजिक जीवन के ग्राह्य तथा अग्राह्य नियमों का विवेचन किया गया है -

  • डॉ० निरूपण विद्यालंकार ने धर्मसूत्रों तथा श्लोकात्मक स्मृतियों का प्रधान विषय वर्णधर्म तथा आश्रमधर्म माना है।
  • पूर्वकाल से लेकर सूत्रकाल तक सामाजिक व्यवस्था के जो नियम थे, उन्हीं का संग्रह स्मृतियों में प्राप्त होता है।
  • स्मृतियां भारतीय वांग्मय में विधि ग्रन्थों के रूप में प्रसिद्ध हैं। उनमें आचार-विचार के साथ-साथ न्याय की भी विस्तृत व्याख्या की गई है तथा तत्कालीन धार्मिक एवं सामाजिक व्यवस्थाओं का विवेचन एवं चारों वर्गों के कर्तव्यों और अकर्तव्य के निर्णय का निर्धारण भी किया गया है।
  • गीता में भी कर्तव्य और अकर्तव्य के निर्णय के लिए स्मृति शास्त्रों को प्रमाण बताया गया है।

इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि स्मृतियों में मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष से सम्बन्धित सभी नियमों का समावेश किया गया है जो मनुष्य के लिए कल्याणकारी है तथा समाज व्यवस्था के संचालन में भी सहायक है। स्मृतियों में वर्णित विषयवस्तु की दृष्टि से स्मृतियों को तीन भागों में विभाजित है - आचार, व्यवहार और प्रायश्चित्त।

स्मृति ग्रन्थ मनुष्य के कर्तव्य और अकर्तव्य का निर्देशक होने से मनुष्यमात्र को स्मृति शास्त्रों में देश, काल भेद से जो कर्तव्य सांस्कृतिक जीवन, व्यवहार, नीति और कर्म विपाक सिखाया है उसकी जानकारी होनी परमावश्यक है। बिना स्मृति ग्रन्थों के किये जाने वाले कर्तव्य, कर्म, ग्राह्यव्यवहार और त्याज्य व्यवहार का ज्ञान नहीं हो सकता है। भारतवर्ष में प्रायः लोग अपने आप को स्मार्तधर्मी कहते हैं अर्थात स्मृति प्रतिपादित धर्म का आचरण करने वाले हैं। कलिदास ने लिखा है - [1]

श्रुतिरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत्।

वेद मन्त्रों का ही विशदीकरण स्मृति शास्त्र है। श्रुतिद्रष्टा ऋषि के अनन्तर स्मृतिकार ऋषि "मुनि" कहे जाते हैं। स्मृतियां 50/60 के लगभग हैं। प्रत्येक स्मृति का आधार वर्णधर्म, आश्रमधर्म, राजधर्म एवं व्यवहारक्रम है।

धर्मशास्त्र एवं स्मृति

धर्मशास्त्र शब्द सर्वप्रथम मनुस्मृति में प्राप्त है। मनु ने श्रुतियों को वेद तथा स्मृतियों को धर्मशास्त्र शब्द से व्यवहार किया है -

श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः। ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ॥ (मनु 2.10)

याज्ञवल्क्य-स्मृति के प्रारंभ में उन्नीस धर्मशास्त्रकारों का उल्लेख किया गया है। इससे उनकी रचनाओं का धर्मशास्त्र होना स्वतः सिद्ध हो जाता है।[2]

प्राचीन भारत की सभ्यता एवं संस्कृति के विषय में ये पर्याप्त सूचना देतीं हैं। स्मृतियों की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता यह है, कि ये कर्तव्यों, अधिकारों, सामाजिक नियमों तथा शासन की विधियों को व्यवस्थित रखने के लिए इन सभी विषयों का विवेचन करती है।[3]

स्मृतियों का स्वरूप एवं विषय-वस्तु

स्मृतियाँ वेदों की व्याख्या हैं, अतः भारतीय जनमानस में इन्हें वेदों जैसी ही प्रतिष्ठा प्राप्त है। स्मृतियों में निरूपित आचार, व्यवहार, प्रायश्चित्त, राजनीतिक, आर्थिक सिद्धान्त हजारों वर्षों तक प्राचीन भारतीय समाज के मेरुदण्ड रहे हैं। स्मृतियों से ही प्राचीन भारतीय संस्कृति का विशद ज्ञान होता है। भारत विश्व का पथ प्रदर्शक और प्रेरणा स्रोत किस प्रकार रहा है और भारतीय संस्कृति ने किस प्रकार विश्व को प्रभावित किया है, इसका स्वरूप स्मृतियों से ज्ञात होता है। स्मृतियों से ही प्राचीन भारत की स्थिति का ज्ञान होता है। स्मृतियां श्रुतियों का विशदीकरण हैं, जो तत्व वेद में संक्षेप में निर्दिष्ट हैं, उनका ही स्मृतियों में विस्तृत विवेचन है। मनु का कथन है कि श्रुति वेद हैं और स्मृतियां धर्मशास्त्र हैं। इन दोनों से ही धर्म का प्रादुर्भाव हुआ है। मनु ने वेदों के पश्चात स्मृतियों को ही धर्म का आधार माना है।

1. मनुस्मृति

मनुस्मृति में बारह अध्याय तथा छब्बीस सौ चौरासी (2684) श्लोक हैं। कुछ संस्करणों में श्लोकों की संख्या 2964 है। मनुस्मृति सरल भाषा में लिखी गई है। मृच्छकटिक नामक नाटक में मनुस्मृति का नाम उल्लिखित हुआ है। वाल्मीकीय रामायण में भी मनुस्मृति के कुछ श्लोक मनु के नाम से प्रस्तुत हुए हैं। मनुस्मृति याज्ञवल्क्य स्मृति से बहुत पुरानी स्मृति है। मनुस्मृति याज्ञवल्क्य स्मृति की अपेक्षा अपूर्ण एवं अनियमित रूप से वर्णित है। ब्रह्मांड का उद्देश्य, कर्म, कर्मों के गुण और दोष, स्थान और जाति, कुल का कर्तव्य और मोक्ष ये मनु स्मृति के मुख्य वर्णनीय विषय हैं।[4]

2. अत्रिस्मृति

मनुस्मृति से पता चलता है कि अत्रि प्राचीन धर्मशास्त्रकार थे। अत्रि का धर्मशास्त्र नौ अध्यायों में है। इन अध्यायों में दान, जप, तप का वर्णन है, जिनसे पापों से छुटकारा मिलता है। कुछ अध्याय गद्य और पद्य दोनों में ही है। इनके कुछ श्लोक मनुस्मृति में आते हैं। हस्तलिखित प्रतियों में अत्रि स्मृति या 'अत्रि संहिता' नामक एक अन्य ग्रन्थ मिलता है। अत्रि स्मृति में 400 श्लोक हैं। इसमें स्वयं अत्रि प्रमाण स्वरूप उद्धृत किये गये हैं। "अत्रि स्मृति में आपस्तम्ब, यम, व्यास, शंख, शातातप के नाम एवं उनकी कृतियों का वर्णन किया गया है।

3. विष्णु स्मृति

विष्णु स्मृति में 100 अध्याय हैं। इस स्मृति की एवं मनु स्मृति की 160 बातें विल्कुल समान हैं। ऐसा लगता है कि कुछ स्थानों पर तो मनुस्मृति के पद्य गद्य में रख दिये गये हों। याज्ञवल्क्य ने भी विष्णुधर्मसूत्र से शरीरांग-सम्बन्धी ज्ञान ले लिया है। विष्णुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति के बाद की कृति है। यह स्मृति भगवद्गीता, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य तथा अन्य धर्मशास्त्रकारों की ऋणी है। मिताक्षरा ने विष्णुस्मृति का 30 बार वर्णन किया हैं।" स्मृति चन्द्रिका में 225 बार विष्णु के उदाहरण आये हैं।[5]

4. हारीत स्मृति

यह स्मृति सात अध्यायों वाली है तथा संक्षिप्त होने के बाद भी इसमें वैदिक शिक्षा को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि वह सभी के कल्याण के लिये उपयोगी है -

  • प्रथम अध्याय में चारों वर्णों तथा अवस्थाओं का वर्णन है।
  • दूसरे अध्याय में चारों वर्णों का विश्लेषण है।
  • तीसरे अध्याय में ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए कर्तव्यों का वर्णन है।
  • चतुर्थ अध्याय में गृहस्थ जीवन तथा कर्तव्यों का वर्णन है।
  • पंचम अध्याय में वानप्रस्थ अर्थात वन में जाने वाले व्यक्ति के जीवन तथा कर्तव्यों का वर्णन है।
  • छटवें अध्याय में त्याग की अवधारणा है।
  • सातवें अध्याय में योग की अवधारणा है।

हारीत के व्यवहार-सम्बन्धी पद्यावतरणों की चर्चा अपेक्षित है। स्मृति चन्द्रिका के उद्धरण में आया हैं-

स्वधनस्य यथा प्राप्तिः परधनस्य वर्जनम्। न्यायेन यत्र क्रियते व्यवहारः स उच्चयते॥

उन्होंनें इस प्रकार व्यवहार की परिभाषा की है। नारद की भाँति हारीत ने भी व्यवहार के चार स्वरूप बताये हैं। जैसे-धर्म, व्यवहार, चरित्र एवं नृपाज्ञा हारीत, वृहस्पति एवं कात्यायन के समाकालीन लगते हैं। हरिताचार्य ने तप और ज्ञान के सम्मिश्रण को बहुत अच्छे प्रकार से समझाया है -

यथा रथो अश्व हिंसास्तु ताहश्वो रथि हिना कारा। एवं तपश्च विद्या च संयुतं भेषजं भवेत॥ (हा० स्मृ० 6/9)

जिस प्रकार घोड़े के बिना रथ सारथी के बिना घोड़े के समान है, अर्थात दोनों ही बेकार हैं। उसी प्रकार तप और ज्ञान का उचित समन्वय ही औषधि के गुण के समान सभी लोगों के कल्याण में सहायक होगा।

5. आंगिरस स्मृति

अंगिरा स्मृति, जिसे अंगिरस स्मृति या अंगिरस धर्मशास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। यह ग्रन्थ सामाजिक और नैतिक सिद्धान्तों, कानूनी और नैतिक आचरण, अनुष्ठानों, रीति-रिवाजों और जीवन के विभिन्न चरणों में व्यक्तियों के कर्तव्यों सहित विषयों की एक विस्तृत शृंघला को पूर्ण करता है। याज्ञवल्क्य ने अंगिरा को धर्मशास्त्रकार माना है। विश्वरूप के कथनानुसार परिषद् में 121 ब्राह्मण निवास करते थे। इसी प्रकार अडिरस की बहुत सी बातों का वर्णन विश्वरूप ने दिया है। अंगिरस स्मृति केवल 72 श्लोकों में है। यह स्मृति वृहत् का संक्षिप्त रूप है। अंगिरस स्मृति में आपस्तम्ब व अंगिरस के नाम आते हैं। इसके उपन्त्य श्लोक में स्त्रीधन को चुराने वाले की आलोचना की गई है।

6. यम स्मृति

वशिष्ठ धर्मसूत्र ने यम को धर्मशास्त्रकार मानकर उनकी स्मृति से उदाहरण लिया है। याज्ञवल्क्य ने यम को धर्मवक्ता बताया है। इस स्मृति में 78 श्लोक हैं मूलतः यम स्मृति बहुत छोटा ग्रंथ है। इस स्मृति के कुछ श्लोक मनुस्मृति से मिलते जुलते हैं। यम ने नारियों के लिए संन्यास वर्जित किया है। इसमें विभिन्न प्रकार के तपों की चर्चा की गई है तथा उनके पीछे के सैद्धांतिक सिद्धांतों को भी बताया गया है। मुनि यम ने ग्रंथ के प्रारंभ से ही प्रायश्चित के प्रकारों की व्याख्या की है।

7. संवर्त स्मृति

याज्ञवल्क्य की सूची में संवर्त एक स्मृतिकार के रूप में आते हैं। संवर्त स्मृति में 227 से 230 तक श्लोक उपलब्ध होते हैं। आज जो प्रकाशित संवर्त स्मृति मिलती है, वह मौलिक स्मृति के अंश का संक्षिप्त सार मात्र प्रतीत होता है।

8. कात्यायन स्मृति

शंख, लिखित, याज्ञवल्क्य एवं पराशर आदि स्मृतिकारों ने कात्यायन को धर्म वक्ताओं में गिना है। कात्यायन ने नारद एवं वृहस्पति को अपना आदेश माना है। कात्यायन ने स्त्रीधन पर जो लिखा है, वह उनकी व्यवहार-सम्बन्धी कुशलता का परिचायक है। इस निबन्धों में कात्यायन के 900 श्लोक उद्धृत हुए हैं। कात्यायन का काल-निर्णय सरल नहीं है। वे मनु एवं याज्ञवल्क्य के बाद आते हैं। कात्यायन अधिक से अधिक ईसा के बाद तीसरी या 90 चौथी शताब्दी के माने जाते हैं।

9. बृहस्पति स्मृति

वृहस्पति स्मृति, मनुस्मृति का पूर्ण अनुकरण करती है। इस स्मृति में बहुत से श्लोकों का नारद स्मृति के समान विवरण मिलता है। यह स्मृति मनु व याज्ञवल्क्य स्मृति के बाद की स्मृति है। इन स्मृति का समय छठी या सातवीं शताब्दी है। कात्यायन और विश्वरूप ने इसका कई बार वर्णन किया है। वृहस्पति स्मृति में 711 श्लोक हैं।

10. पराशर स्मृति

इस स्मृति में 12 अध्याय और 512 श्लोक है। आचार और प्रायश्चित इसके विषय हैं। याज्ञवल्क्य इसका उल्लेख करते हैं। यह एक प्राचीन प्रामाणिक स्मृति मानी जाती है। इसका रचना-काल 100 से लेकर 501 ई0 के बीच में माना गया है।

11. व्यास स्मृति

व्यास स्मृति चार अध्यायों एवं 250 श्लोकों में निबद्ध है। व्यास ने अपनी स्मृति की घोषणा बनारस में की थी। व्यास ने व्यवहार विधि का वर्णन किया है। व्यास स्मृति की बहुत सी बातें नारद, कात्यायन एवं वृहस्पति आदि से मिलती है। व्यास के अनुसार उत्तर के चार प्रकार हैं-1. मिथ्या, 2. सम्प्रतिपत्ति, 3. कारण एवं 4. प्राड्न्याय। व्यास स्मृति का रचनाकाल ईसा के बाद दूसरी एवं पांचवी शताब्दी के बीच माना जाता है।

12. शंख एवं लिखित स्मृति

याज्ञवल्क्य ने शंख, लिखित को धर्मशास्त्रकारों में गिना है। शंख एवं लिखित स्मृति प्राचीन है। इस स्मृति में 18 अध्याय तथा शंख स्मृति के 330 तथा लिखित स्मृति के 93 श्लोक पाये जाते हैं। मित्ताक्षरा में इस स्मृति के 50 श्लोक उद्धृत हुए हैं। यह धर्मसूत्र गौतम एवं आपस्तम्ब के बाद की किन्तु याज्ञवल्क्य स्मृति के पहले की रचना है। इसके प्रणयन का काल ई०पू० 300 से लेकर सन् 100 के बीच में माना गया हैं।

14. दक्ष स्मृति

याज्ञवल्क्य ने दक्ष का उल्लेख किया है। विश्वरूप, मिताक्षरा अपरार्क ने दक्ष से उदाहरण लिए हैं। दक्ष के व्यवहार-सम्बन्धी अपरार्क ने दक्ष से उदाहरण लिए हैं। दक्ष के व्यवहार-सम्बन्धी निम्नलिखित दो श्लोक, जिनमें दान में न दिये जाने वाले नौ पदार्थो की चर्चा की गई हैं, बहुधा प्रस्तुत किये जाते हैं-

सामान्यं याचितं न्यास आदिर्दाराश्व तद्धनम्। क्रमायातंच निक्षेपः सर्वस्व चान्वये सति॥ आपत्स्वति न देयानि नव वस्तूनि सर्वदा। यो ददाति स मूढात्मा प्रायश्चित्तीयते नरः॥

यह स्मृति वस्तुतः बहुत पुरानी है।

15. याज्ञवल्क्य स्मृति

याज्ञवल्क्य स्मृति में लगभग 1010 श्लोक हैं। यह मनुस्मृति से अधिक नियमित है। इसमें क्रमबद्ध रूप से थोड़े में सब कुछ वर्णित है। अनुष्टुप छन्द में यह सम्पूर्ण ग्रन्थ सृजित है। संक्षिप्त होते हुए भी यह दुर्बोध नहीं है। इसमें वर्ण; आश्रम आदि के धर्मो का अच्छा वर्णन किया गया है। याज्ञवल्क्य स्मृति अवश्य ही मनु के पीछे की है। अतः यह "स्मृति प्रथम शताब्दी ई०पू० से पहले को नहीं हो सकती। इस स्मृति का रचनाकाल प्रथम शताब्दी ई०पू० से लेकर 300 ई0 तक होना चाहिए।

16. शातातप स्मृति

याज्ञवल्क्य एवं पराशर ने शातातप को धर्मवक्ताओं में माना है। मिताक्षरा, स्मृति चन्द्रिका तथा अन्य ग्रन्थों में शातातप के बहुत से श्लोक लिये गये हैं। शातांतप के नाम की कई स्मृतियां हैं। जीवानन्द के संग्रह में कर्मविपाक नामक शतातप स्मृति है, जिसमें छः अध्याय एवं 231 श्लोक हैं। यह बहुत ही प्राचीन स्मृति है।

17. वसिष्ठ स्मृति

भगवान् श्रीराम का नाम लेते समय हमारे मन में एक और नाम स्मृति का विषय बनता है और वह नाम मुनि वशिष्ठ का है, जिन्हे अपने तप, ज्ञान आदि से ब्रह्मषि का पद प्राप्त हुआ हैं। इन्होंने तीस अध्यायों में समाप्त होने वाली अपनी वशिष्ठस्मृति के अध्याय 16, 17 और 18 में न्याय प्रक्रिया, साक्षी, दाय विभाग तथा राजा के कर्त्तव्यों का वर्णन किया है।

18. आपस्तम्ब स्मृति

इसमें संहिताओं के अतिरिक्त ब्राह्मणों के उद्धरण उल्लिखित हैं। इसमें मीमांसा के बहुत से पारिभाषिक शब्द एवं सिद्धान्त पाये जाते हैं। अपरार्क, हरदन्त, स्मृतिचन्द्रिका तथा अन्य ग्रन्थों में इसके बहुत से उद्धरण हैं।

स्मृतियों की संख्या

मुख्य स्मृतिकार अट्ठारह हैं - मनु, बृहस्पति, दक्ष, गौतम, अंगिरा, योगीश्वर (याज्ञवल्क्य), प्रचेता, शातातप, पराशर, संवर्त, उशनस, शंख, लिखित, अत्रि, विष्णु, यम, आपस्तम्ब और हारीत।

इनके अतिरिक्त उपस्मृतियों के लेखकों के नाम इस प्रकार से हैं -

नारद पुलहो गार्ग्यः पुलस्त्यः शौनकः क्रतुः। बौधायनो जातु कर्ण्यो विश्वामित्रः पितामहः॥

जाबालिनाचिकेतश्च स्कन्दो लौगाक्षिकश्यपौ। व्यासः सनत्कुमारश्च शान्तनुर्जनकस्तथा॥

व्याघ्रः कात्यायनश्चैव जातुकर्ण्यः कपिञ्ज्जलः। बौधायनश्च काणादौ विश्वामित्रस्तथैव च॥

पैठीनसिर्गोभिलश्चेत्युपस्मृतिविधायकाः॥ (याज्ञवल्क्य स्मृति का समीक्षात्मक अध्ययन)

वीरमित्रोदय, परिभाषा प्रकरण के अनुसार अन्य स्मृतिकारों की संख्या इक्कीस है। ये स्मृतिकार निम्नलिखित हैं -

वसिष्ठो नारदश्चैव सुमन्तुश्चैव पितामहः। विष्णुः कार्ष्णाजिनिः सत्यव्रतौ गार्ग्यश्च देवलः॥

जमदग्नि भरद्वाजः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः। आत्रेयः छागलेयश्च मरीचिर्वत्स एव च॥

पारस्करश्चर्ष्यशृंगो वैजवापस्तथैव च। इत्येते स्मृति करति एकविंशतिरीरिताः॥

स्मृतियों का महत्व

याज्ञवल्क्य स्मृति में -[6]

मन्वत्रिविष्णुहारीत याज्ञवल्क्योशनोऽङ्गिराः। यमापस्तम्बसम्वर्त्ताः कात्यायनबृहस्पतिः॥ पराशरव्यासशङ्ख‌लिखिताः दक्षगौतमौ। शातातपो वशिष्ठश्च धर्मशास्त्रप्रयोजकाः॥ (याज्ञवल्क्य स्मृति, आचाराध्याय 4/5)

भाषार्थ-

  1. अत्रि स्मृति
  2. विष्णु स्मृति
  3. हारीत स्मृति
  4. औशनस स्मृति
  5. अंगिरा स्मृति
  6. यम स्मृति
  7. आपस्तम्ब स्मृति
  8. संवर्त स्मृति
  9. कात्यायन स्मृति
  10. बृहस्पति स्मृति
  11. पाराशर स्मृति
  12. व्यास स्मृति
  13. शंख स्मृति
  14. लिखित स्मृति
  15. दक्ष स्मृति
  16. गौतम स्मृति
  17. शतातप स्मृति
  18. वशिष्ठ स्मृति (मनु स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति)

प्रमुख वर्ण्यविषय

वर्ण्य विषय की दृष्टि से स्मृतियों की समस्त विषय सामग्री को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है - आचाराध्याय, व्यवहाराध्याय और प्रायश्चित्ताध्याय।

स्मृति को धर्मशास्त्र भी कहा जाता है जिसका अर्थ आचार-संहिता होता है। आचाराध्याय के अन्तर्गत अनुष्ठान अथवा कर्मकाण्ड, सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वाह आदि विषय आते हैं। व्यवहाराध्याय के अन्तर्गत राजनीति, राज्यशासन-विधि, राजा और प्रजा के कर्तव्य, न्याय व्यवस्था, विवादास्पद विषयों का निर्णय, दायभाग आदि और प्रायश्चित्ताध्याय में पापों (अपराध) उनका प्रायश्चित्त आदि का विवेचन है। मनुष्य को धर्माचरण सिखाती हैं स्मृतियाँ।

त्रिविध स्रोत - श्रुति स्मृति एवं पुराण

श्रुति, स्मृति एवं पुराण प्रायः इन तीनों का नाम एक साथ लिया जाता है, जैसे पूजा आदि के पूर्व संकल्प में श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त फलप्राप्त्यर्थम् या आद्यशंकराचार्य की स्तुति में - श्रुतिस्मृतिपुराणानामालयं करुणालयम्।

उद्धरण

  1. स्मृति-सन्दर्भः-प्रथमो भागः, सन 1988, नाग प्रकाशन,दिल्ली (पृ० 27)।
  2. शोधगंगा-विनोद कुमार, स्मृति साहित्य में राष्ट्र अवधारणा, सन २००२, शोधकेन्द्र- पंजाब विश्वविद्यालय (पृ० २७)।
  3. शोध गंगा- रेखा खरे, याज्ञवल्क्य स्मृति में प्रतिबिम्बित सामाजिक जीवन-एक अनुशीलन, सन २०१३, शोध केन्द्र - उत्तर प्रदेश राजर्षि टण्डन मुक्त विश्वविद्यालय (पृ० १२)।
  4. सम्पादक-पं० श्री तुलसीराम स्वामी, मनुस्मृति, सन 1984, अध्यक्ष स्वामी प्रेस, मेरठ (पृ० 31)।
  5. पं० श्रीनन्द, वैजयन्ती व्याख्या सहित-विष्णुस्मृति, सन 1962, चौखम्बा संस्कृत सीरीज ऑफिस, वाराणसी (पृ० 13)।
  6. पं० श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी, अष्टादश स्मृति, सन १९६९, खेमराज श्रीकृष्णदास, मुम्बई (पृ० ३)।