Difference between revisions of "Varahamihira (वराहमिहिर)"
(सुधार जारि) |
(सुधार जारी) |
||
(3 intermediate revisions by the same user not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
− | भारतीय खगोलज्ञों की परंपरा में कई आचार्यों का उल्लेख किया गया है। जिनमें अर्वाचीन खगोलज्ञों में वराहमिहिर जी का नाम सर्वोपरि लिया जाता है। | + | भारतीय खगोलज्ञों की परंपरा में कई आचार्यों का उल्लेख किया गया है। जिनमें अर्वाचीन खगोलज्ञों में वराहमिहिर जी का नाम सर्वोपरि लिया जाता है। इस लेख में वराहमिहिर जी का भारतीय ज्योतिष के विकास परम्परा में योगदान , ग्रह , नक्षत्र सम्बन्धी संहिता का सकारण ज्ञान एवं भारतीय ज्योतिष के आधारभूत स्वरूप की जानकारी प्राप्त होगी। |
− | |||
− | |||
− | |||
+ | ==परिचय== | ||
+ | आचार्य वराहमिहिर का नाम भी प्राचीनतम आचार्यों में आर्यभट, श्रीषेण एवं विष्णुचन्द्र जी के उपरांत और आचार्य लल्ल के पूर्ववर्ति काल के आचार्य के रूप में बहुत ही मुख्यता के साथ लिया जाता है। आचार्य वराहमिहिर गणित एवं ज्योतिष के संहिता स्कन्ध के विशेष प्रतिभा सम्पन्न त्रिस्कन्धविद् विद्वान् थे। कालिदास जी द्वारा विरचित ज्योतिर्विदाभरणम् में उन्हैं विक्रमादित्य जी के नवरत्नों में स्वीकार किया गया है - <blockquote>धन्वंतरिक्षपणकामर सिंह शंकुवेतालभट्ट घटखर्परकालिदासाः। ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नवविक्रमस्य॥ (ज्योतिर्विदाभरणम्)<ref>कालिदास प्रणीत - [https://archive.org/details/Jyotirvidabharanam/mode/1up ज्योतिर्विदाभरणम्] , अध्याय- २२ , श्लोक - १०, (पृ० ३५८)।</ref></blockquote> | ||
+ | '''भाषार्थ -''' धन्वंतरि , क्षपणक , अमर सिंह , शंकु , वेतालभट्ट , घटखर्पर , कालिदास , वराहमिहिर और वररुचि ये सब नौ विक्रमादित्य जी के नवरत्न हैं। | ||
'''नाम''' | '''नाम''' | ||
− | आवन्तिको मुनिमतान्यवलोक्यसम्यग्घोरां वराहमिहिरो रुचिरां चकार॥ (बृहज्जातक)<ref name=":0">संपादक एवं व्याख्याकार - महीधर शर्मा , वराहमिहिरप्रणीत - [https://archive.org/details/pdf_20201206/mode/1up बृहज्जातकम्] , उपसंहाराध्याय - २८, श्लोक - ९ (पृ० २२५)।</ref> | + | बृहज्जातक ग्रन्थ के उपसंहाराध्याय के 9 वें श्लोक में इन्होंने अपना नाम स्वयं उद्घोषित किया है। जैसा कि वह स्वयं कह रहे हैं - <blockquote>आवन्तिको मुनिमतान्यवलोक्यसम्यग्घोरां वराहमिहिरो रुचिरां चकार॥ (बृहज्जातक)<ref name=":0">संपादक एवं व्याख्याकार - महीधर शर्मा , वराहमिहिरप्रणीत - [https://archive.org/details/pdf_20201206/mode/1up बृहज्जातकम्] , उपसंहाराध्याय - २८, श्लोक - ९ (पृ० २२५)।</ref></blockquote>'''भावार्थ -''' आवन्तिक वराहमिहिर, मुनियों के मतों का सम्यक् अवलोकन कर रुचिर होराशास्त्र का निर्माण करता है। |
'''जन्म स्थान''' | '''जन्म स्थान''' | ||
− | आदित्यदासतनयस्तदवाप्तबोधः कापित्थके सवितृ लब्धवरप्रसादः॥ (बृहज्जताक)<ref name=":0" /> | + | वराहमिहिर कृत बृहज्जातक अनुसार ही इनका जन्मस्थान अवन्ति राज्य के सीमान्तर्गत स्थित कापित्थक नामक ग्राम में हुआ था। जैसा कि वे स्वयं कह रहे हैं - <blockquote>आदित्यदासतनयस्तदवाप्तबोधः कापित्थके सवितृ लब्धवरप्रसादः॥ (बृहज्जताक)<ref name=":0" /></blockquote>'''भावार्थ -''' मैं आदित्यदास का पुत्र, उनसे ही अर्थात् अपने पिता से ही ज्ञान प्राप्त किया, कापित्थक ग्राम में सूर्य का वरप्रसाद प्राप्त किया। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि वराह मिहिर जी उज्जयिनी के रहने वाले थे और इनके पिता एवं गुरू का नाम आदित्यदास था। |
+ | |||
+ | अवन्ती के पास कापित्थक नाम का कोई गांव होगा और वहां ये कुछ दिन रहे होंगे। सब ग्रन्थों के आरम्भ में इन्होंने मंगलाचरण में मुख्यतः सूर्य की वन्दना की है, इससे ज्ञात होता है कि ये सूर्य के भक्त थे। पञ्चसिद्धान्तिका के प्रथमाध्याय की निम्नलिखित आर्या से ज्ञात होता है कि इनके ज्योतिषशास्त्र के गुरु इनके पिता से भिन्न थे - <blockquote>दिनकरवसिष्ठपूर्वान् बिविधयुनीन् भावतः प्रणम्यादी। जनक गुरुञ्च शास्त्रे येतास्मिन् नः कृतो बोधः॥ (पञ्चसिद्धान्तिका)<ref name=":1" /></blockquote>दूसरे स्थलों के अन्य चार-पाँच उल्लेखों से भी ज्ञात होता है कि ये अवन्ती अर्थात् उज्जयिनी के निवासी थे। | ||
'''जन्म काल''' | '''जन्म काल''' | ||
− | वराहमिहिराचार्य जी ने अपने जन्म के संबंध में किसी भी ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से कोई संकेत नहीं दिया है। और न ही कोई पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक प्रमाण ही इनके जन्मकाल के संबंध में प्राप्त होता है। | + | वराहमिहिराचार्य जी ने अपने जन्म के संबंध में किसी भी ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से कोई संकेत नहीं दिया है। और न ही कोई पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक प्रमाण ही इनके जन्मकाल के संबंध में प्राप्त होता है। किन्तु पंचसिद्धान्तिकाकरण ग्रन्थ के गणित में आरम्भ वर्ष शक 427 ग्रहण किया गया है। उसके अनुसार वराहमिहिर का जन्म काल 505 ईस्वी से 20 वर्ष पूर्व अनुमानतः 485 ईस्वी माना जाता है। चूँकि पंचसिद्धान्तिका उनकी पहली रचना है, और उस समय वराहमिहिर 20 वर्ष के आसन्न तो रहे ही होंगे। अतः यह कथन ठीक लगता है कि कदाचित शक 427 उसके अनुसार ईस्वी 505 ही वराहमिहिर का जन्म शक हो इसी कारण से उस करण ग्रन्थ में यह शक वर्ष लिया गया होगा।<ref>अच्युतानन्द झा, वराहमिहिरजी-[https://archive.org/details/brihat-samhita-/%E0%A4%AC%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%20Brihat%20Samhita%20-1/page/n7/mode/1up बृहत्संहिता], सन् 2014, चौखम्बा विद्याभवन (पृ० 07)।</ref> |
+ | |||
− | |||
− | == वराहमिहिर की कृतियां == | + | इनके मृत्युकाल के विषय में एक वाक्य प्रचलित है - <blockquote>नवाधिकपञ्चशतसंख्यशाके वराहमिहिराचार्यो दिवं गतः।(भारतीय ज्योतिष)<ref name=":1">शिवनाथ झारखण्डी, [https://archive.org/details/BharatiyaJyotishShivnathJharkhandi/page/n323/mode/1up भारतीय ज्योतिष] , सन् १९५७, राजर्षि पुरुषोत्तम टण्डन हिन्दी भवन, लखनऊ (पृ० २९०)।</ref></blockquote> |
+ | |||
+ | ==वराहमिहिर की कृतियां== | ||
वराहमिहिर अप्रतिम प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने अपने जीवन काल में अनेक गणित, ज्योतिष परक ग्रंथों की रचना की जिनमें से विद्वानों के मतानुसार उनकी पांच रचनाएं प्रमुख हैं – | वराहमिहिर अप्रतिम प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने अपने जीवन काल में अनेक गणित, ज्योतिष परक ग्रंथों की रचना की जिनमें से विद्वानों के मतानुसार उनकी पांच रचनाएं प्रमुख हैं – | ||
Line 26: | Line 30: | ||
'''प्रमुख कृतियों का संक्षिप्त विवरण''' | '''प्रमुख कृतियों का संक्षिप्त विवरण''' | ||
− | पञ्चसिद्धांतिका – पैतामहसिद्धान्त , वसिष्ठ सिद्धान्त , रोमक सिद्धान्त , पुलिश सिद्धान्त | + | पञ्चसिद्धांतिका – इस ग्रन्थ में पैतामहसिद्धान्त , वसिष्ठ सिद्धान्त , रोमक सिद्धान्त , पुलिश सिद्धान्त और सूर्य सिद्धान्त इन पाँचों का संकलन किया गया है। |
− | + | इस ग्रन्थ में पांच अलग-अलग सिद्धान्तों का संकलन कर ग्रह गणना के लिये , अनेकों कालों का तथा विभिन्न आकाशीय घटनाओं के निर्धारण के लिये गणितीय सूत्रों एवं खगोलीय सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। | |
− | बृहज्जातक | + | *बृहत्संहिता |
+ | *बृहज्जातक | ||
+ | *लघुजातक | ||
− | + | वराहमिहिर का योगदान | |
− | + | पोलिशकृतः स्फुटोऽसौ तस्यासन्नस्तु रोमक प्रोक्तः। स्पष्टतरः सावित्रः परिशेषऔ दूर विभ्रष्टौ॥ (पञ्चसिद्धांतिका1/4) | |
− | पोलिशकृतः | ||
वराहमिहिर का योगदान | वराहमिहिर का योगदान | ||
− | * ग्रहण, ग्रहचार, आदि का प्रत्यक्षानुमानाप्त प्रमाण्य से वराह की युक्तियां प्रामाणिक सिद्ध होती हैं। | + | *ग्रहण, ग्रहचार, आदि का प्रत्यक्षानुमानाप्त प्रमाण्य से वराह की युक्तियां प्रामाणिक सिद्ध होती हैं। |
− | * ग्रहचार, गोचर एवं ग्रहणों का प्रामाणिक निरूपण | + | *ग्रहचार, गोचर एवं ग्रहणों का प्रामाणिक निरूपण |
− | * धूमकेतुओं का सटीक वर्णन | + | *धूमकेतुओं का सटीक वर्णन |
− | * व्यापारिक हित साधनार्थ तेजी मंदी का शास्त्रीय विचार | + | *व्यापारिक हित साधनार्थ तेजी मंदी का शास्त्रीय विचार |
− | * भूमिगत जल का ज्ञान | + | *भूमिगत जल का ज्ञान |
− | * वर्षा और मौसम का निरूपण | + | *वर्षा और मौसम का निरूपण |
− | * वृक्ष चिकित्सा | + | *वृक्ष चिकित्सा |
− | * फसल एवं उपज की ज्यौतिषीय विवेचना | + | *फसल एवं उपज की ज्यौतिषीय विवेचना |
− | * सुगंधित द्रव्य निर्माण की प्राचीन विधियों की विवेचना | + | *सुगंधित द्रव्य निर्माण की प्राचीन विधियों की विवेचना |
− | * ऋतु सापेक्ष भवन निर्माण की प्राचीन विधियों की विवेचना | + | *ऋतु सापेक्ष भवन निर्माण की प्राचीन विधियों की विवेचना |
इस प्रकार श्री वराहमिहिर आचार्य जी का लोक के कल्याण के लिये संपरीक्षित विधि का उपस्थापन व्यापक रूप से किया जाना यह समाज के लिये वराह कृत एक महती योगदान है। | इस प्रकार श्री वराहमिहिर आचार्य जी का लोक के कल्याण के लिये संपरीक्षित विधि का उपस्थापन व्यापक रूप से किया जाना यह समाज के लिये वराह कृत एक महती योगदान है। | ||
− | == सारांश == | + | ==सारांश== |
− | ज्योतिष शास्त्र का सबसे पहला पौरुषेय लिखित ग्रंथ है आर्यभटीयम् । इसके उपरांत 5 वीं शताब्दि में वराहमिहिर प्रणीत | + | ज्योतिष शास्त्र का सबसे पहला पौरुषेय लिखित ग्रंथ है आर्यभटीयम् । इसके उपरांत 5 वीं शताब्दि में वराहमिहिर प्रणीत पंचसिद्धान्तिका नामक सिद्धान्त ग्रंथ लिपि बद्ध हुआ। इस ग्रंथ में पांच अलग-अलग सिद्धांतों का संकलन कर ग्रह गणना के लिये, अनेकों कालों का तथा विभिन्न आकाशीय घटनाओं के निर्धारण के लिये गणितीय सूत्रों एवं खगोलीय सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। |
+ | |||
+ | आचार्य वराहमिहिर के ग्रन्थ में हमें ज्योतिष शास्त्र के लिखित पौरुषेय ग्रन्थों के रूप में ब्रह्मगुप्त प्रणीत ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त के पूर्ववर्ति काल में प्राप्त होता है। अर्थात ज्योतिषशास्त्र का सबसे पहला पौरुषेय लिखित ग्रन्थ है आर्यभटीयम् । इसके उपरान्त ५ वीं शताब्दि में वराहमिहिर प्रणीत पंचसिद्धान्तिका नामक सिद्धान्त ग्रन्थ लिपि बद्ध हुआ। | ||
+ | |||
+ | आचार्य वराहमिहिर आर्यभटीय खगोलविज्ञान के पोषक होने के साथ-साथ ग्रह , नक्षत्रों से संबंधित संहिता का निगमन करने वाले विद्वान् भी थे , अतः खगोल शास्त्रीय अवधारणा के प्रतिपादक आचार्य के रूप में इन्हैं भी स्मरण किया जाता है। ये ऐसे विद्वान् हुए जिन्होंने खगोलीय ग्रहों की स्फुटता हेतु अपने पूर्ववर्ति काल में प्रणीत खगोलशास्त्रीय , सिद्धान्तज्योतिष के आर्ष ग्रन्थों के विषयवस्तु पर व्यापक चर्चा की है। | ||
− | == उद्धरण == | + | ==उद्धरण== |
+ | <references /> | ||
+ | [[Category:Jyotisha]] | ||
+ | [[Category:Hindi Articles]] |
Latest revision as of 20:32, 29 September 2024
भारतीय खगोलज्ञों की परंपरा में कई आचार्यों का उल्लेख किया गया है। जिनमें अर्वाचीन खगोलज्ञों में वराहमिहिर जी का नाम सर्वोपरि लिया जाता है। इस लेख में वराहमिहिर जी का भारतीय ज्योतिष के विकास परम्परा में योगदान , ग्रह , नक्षत्र सम्बन्धी संहिता का सकारण ज्ञान एवं भारतीय ज्योतिष के आधारभूत स्वरूप की जानकारी प्राप्त होगी।
परिचय
आचार्य वराहमिहिर का नाम भी प्राचीनतम आचार्यों में आर्यभट, श्रीषेण एवं विष्णुचन्द्र जी के उपरांत और आचार्य लल्ल के पूर्ववर्ति काल के आचार्य के रूप में बहुत ही मुख्यता के साथ लिया जाता है। आचार्य वराहमिहिर गणित एवं ज्योतिष के संहिता स्कन्ध के विशेष प्रतिभा सम्पन्न त्रिस्कन्धविद् विद्वान् थे। कालिदास जी द्वारा विरचित ज्योतिर्विदाभरणम् में उन्हैं विक्रमादित्य जी के नवरत्नों में स्वीकार किया गया है -
धन्वंतरिक्षपणकामर सिंह शंकुवेतालभट्ट घटखर्परकालिदासाः। ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नवविक्रमस्य॥ (ज्योतिर्विदाभरणम्)[1]
भाषार्थ - धन्वंतरि , क्षपणक , अमर सिंह , शंकु , वेतालभट्ट , घटखर्पर , कालिदास , वराहमिहिर और वररुचि ये सब नौ विक्रमादित्य जी के नवरत्न हैं।
नाम
बृहज्जातक ग्रन्थ के उपसंहाराध्याय के 9 वें श्लोक में इन्होंने अपना नाम स्वयं उद्घोषित किया है। जैसा कि वह स्वयं कह रहे हैं -
आवन्तिको मुनिमतान्यवलोक्यसम्यग्घोरां वराहमिहिरो रुचिरां चकार॥ (बृहज्जातक)[2]
भावार्थ - आवन्तिक वराहमिहिर, मुनियों के मतों का सम्यक् अवलोकन कर रुचिर होराशास्त्र का निर्माण करता है।
जन्म स्थान
वराहमिहिर कृत बृहज्जातक अनुसार ही इनका जन्मस्थान अवन्ति राज्य के सीमान्तर्गत स्थित कापित्थक नामक ग्राम में हुआ था। जैसा कि वे स्वयं कह रहे हैं -
आदित्यदासतनयस्तदवाप्तबोधः कापित्थके सवितृ लब्धवरप्रसादः॥ (बृहज्जताक)[2]
भावार्थ - मैं आदित्यदास का पुत्र, उनसे ही अर्थात् अपने पिता से ही ज्ञान प्राप्त किया, कापित्थक ग्राम में सूर्य का वरप्रसाद प्राप्त किया। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि वराह मिहिर जी उज्जयिनी के रहने वाले थे और इनके पिता एवं गुरू का नाम आदित्यदास था। अवन्ती के पास कापित्थक नाम का कोई गांव होगा और वहां ये कुछ दिन रहे होंगे। सब ग्रन्थों के आरम्भ में इन्होंने मंगलाचरण में मुख्यतः सूर्य की वन्दना की है, इससे ज्ञात होता है कि ये सूर्य के भक्त थे। पञ्चसिद्धान्तिका के प्रथमाध्याय की निम्नलिखित आर्या से ज्ञात होता है कि इनके ज्योतिषशास्त्र के गुरु इनके पिता से भिन्न थे -
दिनकरवसिष्ठपूर्वान् बिविधयुनीन् भावतः प्रणम्यादी। जनक गुरुञ्च शास्त्रे येतास्मिन् नः कृतो बोधः॥ (पञ्चसिद्धान्तिका)[3]
दूसरे स्थलों के अन्य चार-पाँच उल्लेखों से भी ज्ञात होता है कि ये अवन्ती अर्थात् उज्जयिनी के निवासी थे।
जन्म काल
वराहमिहिराचार्य जी ने अपने जन्म के संबंध में किसी भी ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से कोई संकेत नहीं दिया है। और न ही कोई पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक प्रमाण ही इनके जन्मकाल के संबंध में प्राप्त होता है। किन्तु पंचसिद्धान्तिकाकरण ग्रन्थ के गणित में आरम्भ वर्ष शक 427 ग्रहण किया गया है। उसके अनुसार वराहमिहिर का जन्म काल 505 ईस्वी से 20 वर्ष पूर्व अनुमानतः 485 ईस्वी माना जाता है। चूँकि पंचसिद्धान्तिका उनकी पहली रचना है, और उस समय वराहमिहिर 20 वर्ष के आसन्न तो रहे ही होंगे। अतः यह कथन ठीक लगता है कि कदाचित शक 427 उसके अनुसार ईस्वी 505 ही वराहमिहिर का जन्म शक हो इसी कारण से उस करण ग्रन्थ में यह शक वर्ष लिया गया होगा।[4]
इनके मृत्युकाल के विषय में एक वाक्य प्रचलित है -
नवाधिकपञ्चशतसंख्यशाके वराहमिहिराचार्यो दिवं गतः।(भारतीय ज्योतिष)[3]
वराहमिहिर की कृतियां
वराहमिहिर अप्रतिम प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने अपने जीवन काल में अनेक गणित, ज्योतिष परक ग्रंथों की रचना की जिनमें से विद्वानों के मतानुसार उनकी पांच रचनाएं प्रमुख हैं –
पञ्चसिद्धांतिका, बृहत्संहिता, बृहज्जातक, लघुजातक, बृहद्विवाह-पटल, इन प्रसिद्ध पांच कृतियों के अलावा भी कुछ विद्वानों ने उनकी और भी रचनाएं भी मानी हैं जिनमें – दैवज्ञ-वल्लभा, योग यात्रा, समास संहिता, लग्न-वाराही आदि हैं। इनमें से कुछ प्रकाशित तो कुछ अप्रकाशित हैं।
प्रमुख कृतियों का संक्षिप्त विवरण
पञ्चसिद्धांतिका – इस ग्रन्थ में पैतामहसिद्धान्त , वसिष्ठ सिद्धान्त , रोमक सिद्धान्त , पुलिश सिद्धान्त और सूर्य सिद्धान्त इन पाँचों का संकलन किया गया है।
इस ग्रन्थ में पांच अलग-अलग सिद्धान्तों का संकलन कर ग्रह गणना के लिये , अनेकों कालों का तथा विभिन्न आकाशीय घटनाओं के निर्धारण के लिये गणितीय सूत्रों एवं खगोलीय सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है।
- बृहत्संहिता
- बृहज्जातक
- लघुजातक
वराहमिहिर का योगदान
पोलिशकृतः स्फुटोऽसौ तस्यासन्नस्तु रोमक प्रोक्तः। स्पष्टतरः सावित्रः परिशेषऔ दूर विभ्रष्टौ॥ (पञ्चसिद्धांतिका1/4)
वराहमिहिर का योगदान
- ग्रहण, ग्रहचार, आदि का प्रत्यक्षानुमानाप्त प्रमाण्य से वराह की युक्तियां प्रामाणिक सिद्ध होती हैं।
- ग्रहचार, गोचर एवं ग्रहणों का प्रामाणिक निरूपण
- धूमकेतुओं का सटीक वर्णन
- व्यापारिक हित साधनार्थ तेजी मंदी का शास्त्रीय विचार
- भूमिगत जल का ज्ञान
- वर्षा और मौसम का निरूपण
- वृक्ष चिकित्सा
- फसल एवं उपज की ज्यौतिषीय विवेचना
- सुगंधित द्रव्य निर्माण की प्राचीन विधियों की विवेचना
- ऋतु सापेक्ष भवन निर्माण की प्राचीन विधियों की विवेचना
इस प्रकार श्री वराहमिहिर आचार्य जी का लोक के कल्याण के लिये संपरीक्षित विधि का उपस्थापन व्यापक रूप से किया जाना यह समाज के लिये वराह कृत एक महती योगदान है।
सारांश
ज्योतिष शास्त्र का सबसे पहला पौरुषेय लिखित ग्रंथ है आर्यभटीयम् । इसके उपरांत 5 वीं शताब्दि में वराहमिहिर प्रणीत पंचसिद्धान्तिका नामक सिद्धान्त ग्रंथ लिपि बद्ध हुआ। इस ग्रंथ में पांच अलग-अलग सिद्धांतों का संकलन कर ग्रह गणना के लिये, अनेकों कालों का तथा विभिन्न आकाशीय घटनाओं के निर्धारण के लिये गणितीय सूत्रों एवं खगोलीय सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है।
आचार्य वराहमिहिर के ग्रन्थ में हमें ज्योतिष शास्त्र के लिखित पौरुषेय ग्रन्थों के रूप में ब्रह्मगुप्त प्रणीत ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त के पूर्ववर्ति काल में प्राप्त होता है। अर्थात ज्योतिषशास्त्र का सबसे पहला पौरुषेय लिखित ग्रन्थ है आर्यभटीयम् । इसके उपरान्त ५ वीं शताब्दि में वराहमिहिर प्रणीत पंचसिद्धान्तिका नामक सिद्धान्त ग्रन्थ लिपि बद्ध हुआ।
आचार्य वराहमिहिर आर्यभटीय खगोलविज्ञान के पोषक होने के साथ-साथ ग्रह , नक्षत्रों से संबंधित संहिता का निगमन करने वाले विद्वान् भी थे , अतः खगोल शास्त्रीय अवधारणा के प्रतिपादक आचार्य के रूप में इन्हैं भी स्मरण किया जाता है। ये ऐसे विद्वान् हुए जिन्होंने खगोलीय ग्रहों की स्फुटता हेतु अपने पूर्ववर्ति काल में प्रणीत खगोलशास्त्रीय , सिद्धान्तज्योतिष के आर्ष ग्रन्थों के विषयवस्तु पर व्यापक चर्चा की है।
उद्धरण
- ↑ कालिदास प्रणीत - ज्योतिर्विदाभरणम् , अध्याय- २२ , श्लोक - १०, (पृ० ३५८)।
- ↑ 2.0 2.1 संपादक एवं व्याख्याकार - महीधर शर्मा , वराहमिहिरप्रणीत - बृहज्जातकम् , उपसंहाराध्याय - २८, श्लोक - ९ (पृ० २२५)।
- ↑ 3.0 3.1 शिवनाथ झारखण्डी, भारतीय ज्योतिष , सन् १९५७, राजर्षि पुरुषोत्तम टण्डन हिन्दी भवन, लखनऊ (पृ० २९०)।
- ↑ अच्युतानन्द झा, वराहमिहिरजी-बृहत्संहिता, सन् 2014, चौखम्बा विद्याभवन (पृ० 07)।