Difference between revisions of "शिक्षा पाठ्यक्रम एवं निर्देशिका-योग"
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# योग द्वारा शरीर, प्राण, मन, बुद्धि एवं चित्त ऐसे पाँचों स्तर का विकास करना <ref>प्रारम्भिक पाठ्यक्रम एवं आचार्य अभिभावक निर्देशिका :अध्याय १, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखिका: श्रीमती इंदुमती काटदरे | # योग द्वारा शरीर, प्राण, मन, बुद्धि एवं चित्त ऐसे पाँचों स्तर का विकास करना <ref>प्रारम्भिक पाठ्यक्रम एवं आचार्य अभिभावक निर्देशिका :अध्याय १, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखिका: श्रीमती इंदुमती काटदरे | ||
</ref>। अर्थात् शरीर सुदृढ एवं स्वस्थ करना । चेतातंत्र शुद्ध करना, प्राणों मे संतुलन और लय को बनाना, मन की एकाग्रता को बढाना, बुद्धि विवेकशील बनाना एवं चित्त शुद्ध बनाना । शरीर, प्राण, मन, बुद्धी चित्त मे सुसंगती तथा परस्पर पोषकत्व स्थापित करना । | </ref>। अर्थात् शरीर सुदृढ एवं स्वस्थ करना । चेतातंत्र शुद्ध करना, प्राणों मे संतुलन और लय को बनाना, मन की एकाग्रता को बढाना, बुद्धि विवेकशील बनाना एवं चित्त शुद्ध बनाना । शरीर, प्राण, मन, बुद्धी चित्त मे सुसंगती तथा परस्पर पोषकत्व स्थापित करना । | ||
− | # वर्तमान समय में सारा संसार योग के महत्व का स्वीकार कर रहा है। योग मूलतः भारत की ही विद्या है। | + | # वर्तमान समय में सारा संसार योग के महत्व का स्वीकार कर रहा है। योग मूलतः भारत की ही विद्या है। अतः योग को विद्यालय के शिक्षणक्रम का एक महत्वपूर्ण भाग बनना । |
# योग शारीरिक शिक्षण का भाग नहीं है। उसका संबंध केवल शारीरिक स्वास्थ्य या भौतिक विज्ञान के साथ ही नहीं है अपितु सभी विषयों के साथ है। योग एक संपूर्ण जीवन, विज्ञान, एवं संपूर्ण शास्त्र है। इस दृष्टिकोण का भी विद्यालयों के योग अभ्यासक्रम में अंतर्भाव करना। | # योग शारीरिक शिक्षण का भाग नहीं है। उसका संबंध केवल शारीरिक स्वास्थ्य या भौतिक विज्ञान के साथ ही नहीं है अपितु सभी विषयों के साथ है। योग एक संपूर्ण जीवन, विज्ञान, एवं संपूर्ण शास्त्र है। इस दृष्टिकोण का भी विद्यालयों के योग अभ्यासक्रम में अंतर्भाव करना। | ||
# योग से एक जीवनदृष्टि प्राप्त होती है। यह जीवनदृष्टि आदिकाल से भारत में स्वीकृत है। यही जीवनदृष्टि एवं इससे रचित जीवन व्यवहार के कारण ही भारत का अस्तित्व युगों से प्रवाही रूप मे टिका हुआ है। यह जीवनदृष्टि हमारे छात्रों को प्राप्त हो एवं उनकी जीवनरचना भी उस तरह की बने । | # योग से एक जीवनदृष्टि प्राप्त होती है। यह जीवनदृष्टि आदिकाल से भारत में स्वीकृत है। यही जीवनदृष्टि एवं इससे रचित जीवन व्यवहार के कारण ही भारत का अस्तित्व युगों से प्रवाही रूप मे टिका हुआ है। यह जीवनदृष्टि हमारे छात्रों को प्राप्त हो एवं उनकी जीवनरचना भी उस तरह की बने । | ||
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== आलंबन == | == आलंबन == | ||
# योग प्रदर्शन, सूचना या मूल्यांकन का विषय नहीं है। वह तो व्यवस्था, वातावरण, व्यवहार एवं भावना इत्यादि से संबंधित है। | # योग प्रदर्शन, सूचना या मूल्यांकन का विषय नहीं है। वह तो व्यवस्था, वातावरण, व्यवहार एवं भावना इत्यादि से संबंधित है। | ||
− | # योग अभ्यास का विषय है। | + | # योग अभ्यास का विषय है। अतः अधिक सीखने के स्थान पर अधिक अभ्यास के स्वरूप में होना चाहिए। |
− | # योग अनेक नामों से पहचाना जाता है। जैसे हटयोग, कर्मयोग, प्रेमयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, इत्यादि। जिसे हम योगदर्शन कहते हैं वह है - राजयोग या पातंजल योग। | + | # योग अनेक नामों से पहचाना जाता है। जैसे हटयोग, कर्मयोग, प्रेमयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, इत्यादि। जिसे हम योगदर्शन कहते हैं वह है - राजयोग या पातंजल योग। अतः पातंजल योगसूत्र इसका मुख्य आधार है। |
− | # योग के आठ अंग हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि। इनमें यम, नियम आगे आनेवाले अभ्यास की आधारभूमि व संदर्भ बिन्दु निश्चित करते हैं। ये जीवनदृष्टि के विकास के मूल आधार हैं। | + | # योग के आठ अंग हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि। इनमें यम, नियम आगे आनेवाले अभ्यास की आधारभूमि व संदर्भ बिन्दु निश्चित करते हैं। ये जीवनदृष्टि के विकास के मूल आधार हैं। अतः इन दोनों का सर्वाधिक महत्व है। शेष अंगों का गंभीर अभ्यास कम से कम बारह वर्ष की आयु के बाद ही हो सकता है। अतः यहाँ इन सभी अंगों की योग्य पूर्वतैयारी को ही महत्व दिया गया है। |
# पातंजल योग को आधार बनाकर योग के अन्य प्रकारों को भी सम्मिलित करने का प्रयास किया गया है; क्योंकि जीवनव्यवहार में उनका भी महत्वपूर्ण स्थान है। | # पातंजल योग को आधार बनाकर योग के अन्य प्रकारों को भी सम्मिलित करने का प्रयास किया गया है; क्योंकि जीवनव्यवहार में उनका भी महत्वपूर्ण स्थान है। | ||
# इस समन्वित दृष्टि से सोचकर योग का कक्षा १, २ के लिए इस प्रकार से पाठ्यक्रम तैयार किया गया है। | # इस समन्वित दृष्टि से सोचकर योग का कक्षा १, २ के लिए इस प्रकार से पाठ्यक्रम तैयार किया गया है। | ||
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=== श्वसन === | === श्वसन === | ||
− | यह प्राणायाम की पूर्व तैयारी है। श्वसन मानव के पूर्ण जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। | + | यह प्राणायाम की पूर्व तैयारी है। श्वसन मानव के पूर्ण जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। अतः श्वसन योग्य रूप से ठीक तरह से हो इस तरह श्वासप्रश्वास की आदत डालनी चाहिए। इस दृष्टि से निम्न बातें सीखना आवश्यक है: |
# दीर्घश्वसन, | # दीर्घश्वसन, | ||
# श्वास बाहर निकालना, | # श्वास बाहर निकालना, | ||
Line 43: | Line 43: | ||
=== कीर्तन करना === | === कीर्तन करना === | ||
− | कीर्तन अर्थात् प्रार्थना या भजन नहीं अपितु भगवान के गुणों का स्मरण। कीर्तन भगवान के संगीतमय नाम स्मरण को कहते हैं। कीर्तन से | + | कीर्तन अर्थात् प्रार्थना या भजन नहीं अपितु भगवान के गुणों का स्मरण। कीर्तन भगवान के संगीतमय नाम स्मरण को कहते हैं। कीर्तन से भगवाननाम के पवित्र स्पंदन सुना कर सभी जीवो तथा परिवेश को लाभान्वित किया जाता है । |
=== सेवा === | === सेवा === | ||
Line 56: | Line 56: | ||
=== स्तोत्र या स्तुति === | === स्तोत्र या स्तुति === | ||
− | प्रार्थना, कीर्तन, भावना इत्यादि को स्तोत्र के रूप में गाया जा सकता है । ऐसे अनेक स्तोत्र भारत की सभी भाषाओं में सर्वत्र प्रचलित हैं। जनसमाज में उनका विशिष्ट स्थान है। | + | प्रार्थना, कीर्तन, भावना इत्यादि को स्तोत्र के रूप में गाया जा सकता है । ऐसे अनेक स्तोत्र भारत की सभी भाषाओं में सर्वत्र प्रचलित हैं। जनसमाज में उनका विशिष्ट स्थान है। अतः छात्रों को इनका परिचय भी होना चाहिए। सीखने योग्य स्तोत्रों की सूची स्वतंत्र पुस्तिका में दी गई है। |
=== आसन === | === आसन === | ||
Line 80: | Line 80: | ||
# समय पालन करना। | # समय पालन करना। | ||
# पुस्तकें सम्हालकर रखना। उनमें आड़ीटेढ़ी लकीरें बनाकर उसे गंदा नहीं करना। | # पुस्तकें सम्हालकर रखना। उनमें आड़ीटेढ़ी लकीरें बनाकर उसे गंदा नहीं करना। | ||
− | # कूड़ा | + | # कूड़ा सदा कूड़ेदान में ही डालना। |
# शौच के लिए शौचालय का ही उपयोग करना एवं उपयोग के बाद वहाँ पानी डालकर स्वच्छता बनाए रखना। | # शौच के लिए शौचालय का ही उपयोग करना एवं उपयोग के बाद वहाँ पानी डालकर स्वच्छता बनाए रखना। | ||
# अवकाश के समय में ही कक्षा से बाहर जाना। | # अवकाश के समय में ही कक्षा से बाहर जाना। | ||
Line 120: | Line 120: | ||
==== फूल चढ़ाना ==== | ==== फूल चढ़ाना ==== | ||
− | फूल दानों हाथों से चढ़ाना चाहिए। फूल चढ़ाते समय ऊपर से नीचे की ओर डालें परंतु दोनों हथेलियां उपर की ओर खुली रखकर फूल चढ़ाएँ। फूल यदि देवता या किसी व्यक्ति के पैरों में चढ़ाना हो तो उपरोक्त विधि से चढ़ाए परंतु यदि सिर पर चढ़ाना हो तो उपर से शीश पर फूल रखें। फूल फेंककर कभी न चढाएँ। मूर्ति या प्रतिमा को चढ़ाने के लिए लिये गए फूल नीचे गिरे हुए, अन्य किसी के द्वारा उपयोग किए हुए या सूंघे हुए नहीं होने चाहिए। सुगंधीदार फूल ही सही फूल माने जाते हैं। इसीलिए | + | फूल दानों हाथों से चढ़ाना चाहिए। फूल चढ़ाते समय ऊपर से नीचे की ओर डालें परंतु दोनों हथेलियां उपर की ओर खुली रखकर फूल चढ़ाएँ। फूल यदि देवता या किसी व्यक्ति के पैरों में चढ़ाना हो तो उपरोक्त विधि से चढ़ाए परंतु यदि सिर पर चढ़ाना हो तो उपर से शीश पर फूल रखें। फूल फेंककर कभी न चढाएँ। मूर्ति या प्रतिमा को चढ़ाने के लिए लिये गए फूल नीचे गिरे हुए, अन्य किसी के द्वारा उपयोग किए हुए या सूंघे हुए नहीं होने चाहिए। सुगंधीदार फूल ही सही फूल माने जाते हैं। इसीलिए सदा ऐसे फूल ही चढ़ाएँ। |
सुगंधहीन क्रोटन्स या केकटस के फूल न चढ़ाएँ। फूल पर कूड़ा न लगा हो यह देखें। फूल की केवल डॅडी ही रखें। डंड़ी के अतिरिक्त भाग निकाल दें। खंडित फूल न चढ़ाएँ। खिले हुए फूल चढ़ाएँ। | सुगंधहीन क्रोटन्स या केकटस के फूल न चढ़ाएँ। फूल पर कूड़ा न लगा हो यह देखें। फूल की केवल डॅडी ही रखें। डंड़ी के अतिरिक्त भाग निकाल दें। खंडित फूल न चढ़ाएँ। खिले हुए फूल चढ़ाएँ। | ||
Line 138: | Line 138: | ||
कीर्तन भक्तियोग का एक प्रकार है। भगवान के गुणों का गान करना ही कीर्तन है। कीर्तन किसी वस्तु को भगवान से माँगना या स्वयं के उद्धार के लिए या स्वयं के प्रति दया करने की याचना नहीं है। यह प्रेमपूर्वक किया गया प्रभुस्मरण है। इसीलिए भगवान के अनेक कार्यों एवं उसके अनुसार प्रभु के नामों का गान करना ही कीर्तन करना है। | कीर्तन भक्तियोग का एक प्रकार है। भगवान के गुणों का गान करना ही कीर्तन है। कीर्तन किसी वस्तु को भगवान से माँगना या स्वयं के उद्धार के लिए या स्वयं के प्रति दया करने की याचना नहीं है। यह प्रेमपूर्वक किया गया प्रभुस्मरण है। इसीलिए भगवान के अनेक कार्यों एवं उसके अनुसार प्रभु के नामों का गान करना ही कीर्तन करना है। | ||
− | कीर्तन | + | कीर्तन सदा संगीतमय ही होता है। जोर से गाना, समूह में गाना, करतलध्वनि के साथ गाना, वाजिंत्रों के साथ गाना, गातेगाते नृत्य करना कीर्तन है। गाँवों में कीर्तन करते करते प्रभातफेरी करने का रिवाज है। उत्सव में या आम समय में मंदिरों में कीर्तन होता है। हरिकथा में भी कीर्तन होता हैं। कीर्तन से वातावरण सुंदर बनता है एवं मनोभाव भी सात्त्विक बनता है। विद्यालय में कभीकभार दस या पंद्रह मिनट के लिए कीर्तन का कार्यक्रम रखना चाहिए। कीर्तन के नमूने संगीत पुस्तिका में दिए गए हैं। |
=== जप करना === | === जप करना === | ||
Line 144: | Line 144: | ||
# माला जपते समय उसे ढंककर रखें। (सीखते समय खुली रखें) | # माला जपते समय उसे ढंककर रखें। (सीखते समय खुली रखें) | ||
# प्रारंभ में माला छोटी लें एवं एक ही माला जपें। प्रथम ११ मनकोंवाली, फिर ५१ मनकोंवाली एवं उसके बाद १०८ मनकों की माला जपें। संपूर्ण माला १०८ मनकों की होती हैं। | # प्रारंभ में माला छोटी लें एवं एक ही माला जपें। प्रथम ११ मनकोंवाली, फिर ५१ मनकोंवाली एवं उसके बाद १०८ मनकों की माला जपें। संपूर्ण माला १०८ मनकों की होती हैं। | ||
− | # एक साथ संपूर्ण माला जपी जा सके | + | # एक साथ संपूर्ण माला जपी जा सके अतः छोटी माला ही चुनें। बड़ी माला लेकर जप अधूरा न छोड़ें। |
# मंत्र जब तक याद न हो जाए तबतक जोर से बोलकर जपें। इसके बाद बिना आवाज किए जप करें। | # मंत्र जब तक याद न हो जाए तबतक जोर से बोलकर जपें। इसके बाद बिना आवाज किए जप करें। | ||
# मंत्र शांति से बोलें, उतावली न करें। | # मंत्र शांति से बोलें, उतावली न करें। | ||
Line 169: | Line 169: | ||
==== ध्यान में लेने योग्य बातें ==== | ==== ध्यान में लेने योग्य बातें ==== | ||
− | # सेवा केवल कहने या सूचना देने की बात नहीं है अपितु करने की बात है। करने के साथ ही वह भावना का विषय है। | + | # सेवा केवल कहने या सूचना देने की बात नहीं है अपितु करने की बात है। करने के साथ ही वह भावना का विषय है। अतः भावना जागृत करने का प्रयास करना चाहिए। |
− | # इनमें से आधे से अधिक बातें तो घर में ही करने योग्य हैं। विद्यालय में इन्हें सिखाकर घर में करने की प्रेरणा देना चाहिए। इसके विषय में बारबार प्रश्न पूछे जाने चाहिए। मातापिता के साथ इस विषय में वार्तालाप करना चाहिए एवं मातापिता इन सभी कार्यों को घर में | + | # इनमें से आधे से अधिक बातें तो घर में ही करने योग्य हैं। विद्यालय में इन्हें सिखाकर घर में करने की प्रेरणा देना चाहिए। इसके विषय में बारबार प्रश्न पूछे जाने चाहिए। मातापिता के साथ इस विषय में वार्तालाप करना चाहिए एवं मातापिता इन सभी कार्यों को घर में बच्चोंं से करवाएँ, ऐसा आग्रह करना। |
− | # सेवा से ही चित्तशुद्धि होती है। सेवा से ही मानवता का विकास होता है। सेवा से ही घर परिवार एवं समाज टिका रहता है। | + | # सेवा से ही चित्तशुद्धि होती है। सेवा से ही मानवता का विकास होता है। सेवा से ही घर परिवार एवं समाज टिका रहता है। अतः इसका महत्व समझकर सेवा करना सिखाएँ। |
=== मंत्रपाठ === | === मंत्रपाठ === | ||
Line 195: | Line 195: | ||
=== ॐकार === | === ॐकार === | ||
− | ॐकार सर्व योग का सार है। सर्व वाणी का सार है। सर्व संगीत का सार है। योगसूत्र में कहा गया है कि "तस्य वाचकः प्रणवः<nowiki>''</nowiki>। ईश्वर का नाम ॐकार है। | + | ॐकार सर्व योग का सार है। सर्व वाणी का सार है। सर्व संगीत का सार है। योगसूत्र में कहा गया है कि "तस्य वाचकः प्रणवः<nowiki>''</nowiki>। ईश्वर का नाम ॐकार है। अतः ॐकार का उच्चारण योग्य एवं सही रीति से करना अत्यंत आवश्यक है। ॐकार का उच्चारण इस प्रकार करना चाहिये: |
# अनुकूल आसन पर सीधे एवं स्थिर बैठकर आँखें बंद करें | # अनुकूल आसन पर सीधे एवं स्थिर बैठकर आँखें बंद करें | ||
# दोनों हाथ चिन् मुद्रा, चिन्मय मुद्रा या ब्रह्मांजलि मुद्रा में रखें या घुटनों पर रखें | # दोनों हाथ चिन् मुद्रा, चिन्मय मुद्रा या ब्रह्मांजलि मुद्रा में रखें या घुटनों पर रखें | ||
Line 206: | Line 206: | ||
# पूर्ण श्वास भरें एवं आँखें खोलें। यह ॐकार का एक आवर्तन हुआ। इस प्रकार एक साथ कम से कम तीन बार ॐकार का उच्चारण कहे। जब सामूहिक ॐकार का उच्चारण होता हो तब यदि सबकी लंबाई अलग अलग हो तो सबका पूर्ण होने तक प्रतीक्षा करें। इसके पश्चात् सभी एक साथ प्रारम्भ करें। सबका एक स्वर हो इसका ध्यान रखें। | # पूर्ण श्वास भरें एवं आँखें खोलें। यह ॐकार का एक आवर्तन हुआ। इस प्रकार एक साथ कम से कम तीन बार ॐकार का उच्चारण कहे। जब सामूहिक ॐकार का उच्चारण होता हो तब यदि सबकी लंबाई अलग अलग हो तो सबका पूर्ण होने तक प्रतीक्षा करें। इसके पश्चात् सभी एक साथ प्रारम्भ करें। सबका एक स्वर हो इसका ध्यान रखें। | ||
# मंत्र में हो या स्वतंत्र, जहाँ भी ॐ होता है वह 'सा' स्वर में ही बोला जाता है। | # मंत्र में हो या स्वतंत्र, जहाँ भी ॐ होता है वह 'सा' स्वर में ही बोला जाता है। | ||
+ | [[Yoga and Its Four Paths|यह लेख]] भी देखें। | ||
==References== | ==References== |
Latest revision as of 19:26, 16 January 2021
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उद्देश्य
- योग द्वारा शरीर, प्राण, मन, बुद्धि एवं चित्त ऐसे पाँचों स्तर का विकास करना [1]। अर्थात् शरीर सुदृढ एवं स्वस्थ करना । चेतातंत्र शुद्ध करना, प्राणों मे संतुलन और लय को बनाना, मन की एकाग्रता को बढाना, बुद्धि विवेकशील बनाना एवं चित्त शुद्ध बनाना । शरीर, प्राण, मन, बुद्धी चित्त मे सुसंगती तथा परस्पर पोषकत्व स्थापित करना ।
- वर्तमान समय में सारा संसार योग के महत्व का स्वीकार कर रहा है। योग मूलतः भारत की ही विद्या है। अतः योग को विद्यालय के शिक्षणक्रम का एक महत्वपूर्ण भाग बनना ।
- योग शारीरिक शिक्षण का भाग नहीं है। उसका संबंध केवल शारीरिक स्वास्थ्य या भौतिक विज्ञान के साथ ही नहीं है अपितु सभी विषयों के साथ है। योग एक संपूर्ण जीवन, विज्ञान, एवं संपूर्ण शास्त्र है। इस दृष्टिकोण का भी विद्यालयों के योग अभ्यासक्रम में अंतर्भाव करना।
- योग से एक जीवनदृष्टि प्राप्त होती है। यह जीवनदृष्टि आदिकाल से भारत में स्वीकृत है। यही जीवनदृष्टि एवं इससे रचित जीवन व्यवहार के कारण ही भारत का अस्तित्व युगों से प्रवाही रूप मे टिका हुआ है। यह जीवनदृष्टि हमारे छात्रों को प्राप्त हो एवं उनकी जीवनरचना भी उस तरह की बने ।
ऐसे उद्देश्य योग के शिक्षण क्रम में अंतर्भाव से प्राप्त हो ।
आलंबन
- योग प्रदर्शन, सूचना या मूल्यांकन का विषय नहीं है। वह तो व्यवस्था, वातावरण, व्यवहार एवं भावना इत्यादि से संबंधित है।
- योग अभ्यास का विषय है। अतः अधिक सीखने के स्थान पर अधिक अभ्यास के स्वरूप में होना चाहिए।
- योग अनेक नामों से पहचाना जाता है। जैसे हटयोग, कर्मयोग, प्रेमयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, इत्यादि। जिसे हम योगदर्शन कहते हैं वह है - राजयोग या पातंजल योग। अतः पातंजल योगसूत्र इसका मुख्य आधार है।
- योग के आठ अंग हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि। इनमें यम, नियम आगे आनेवाले अभ्यास की आधारभूमि व संदर्भ बिन्दु निश्चित करते हैं। ये जीवनदृष्टि के विकास के मूल आधार हैं। अतः इन दोनों का सर्वाधिक महत्व है। शेष अंगों का गंभीर अभ्यास कम से कम बारह वर्ष की आयु के बाद ही हो सकता है। अतः यहाँ इन सभी अंगों की योग्य पूर्वतैयारी को ही महत्व दिया गया है।
- पातंजल योग को आधार बनाकर योग के अन्य प्रकारों को भी सम्मिलित करने का प्रयास किया गया है; क्योंकि जीवनव्यवहार में उनका भी महत्वपूर्ण स्थान है।
- इस समन्वित दृष्टि से सोचकर योग का कक्षा १, २ के लिए इस प्रकार से पाठ्यक्रम तैयार किया गया है।
पाठ्यक्रम
श्वसन
यह प्राणायाम की पूर्व तैयारी है। श्वसन मानव के पूर्ण जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। अतः श्वसन योग्य रूप से ठीक तरह से हो इस तरह श्वासप्रश्वास की आदत डालनी चाहिए। इस दृष्टि से निम्न बातें सीखना आवश्यक है:
- दीर्घश्वसन,
- श्वास बाहर निकालना,
- श्वास भरना,
- श्वासप्रश्वास कि क्रिया सीने मे से करना
- किस नासिका से श्वास अंदर जा रहा है यह देखना,
- स्थिर बैठकर श्वासोच्छ्वास करना,
- श्वसन से संबंधित अच्छी आदतें बनाना,
- समश्वसन,
- भ्रामरी प्राणायाम।
शुद्धिक्रिया
१. हाथपैर धोना एवं पोंछना, २. दांत साफ करना एवं कुल्ला करना, ३. स्नान करना, ४. नासिका स्वच्छ करना, ५. आँखें स्वच्छ करना। (इन सभी कार्यों का समावेश शारीरिक शिक्षण के पाठ्यक्रम में किया गया है। इनके विषय में विस्तृत विचार भी वहीं किया गया है।)
आचार (पूजा)
हम पूजा भक्ति एवं आदर दर्शाने के लिए करते हैं। पूजा के साथ हमारे हृदय के भाव एवं आचार भी होते हैं। भाव बनाना एवं आचार सीखना पड़ता है। इस दृष्टि से निम्न बातों का समावेश किया गया है।
१. नमस्कार या प्रणाम करना : हाथ जोड़कर, हाथ जोड़कर एवं शीश झुकाकर, झुककर चरनस्पर्श करना एवं साष्टांग प्रणाम, २. फूल चढ़ाना, ३. चंदन घिसकर लेप तैयार करना, ४. यज्ञ में आहुति देना, ५. नैवेद्य चढ़ाना।
जप करना
जप एकाग्रता के लिए अच्छा उपाय है। श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं,
'यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि'। सभी यज्ञों में जपयज्ञ मैं हूँ।
अर्थात् जप सबसे बड़ा यज्ञ है। लोकभाषा में इसे माला जपना भी कहते हैं।
कीर्तन करना
कीर्तन अर्थात् प्रार्थना या भजन नहीं अपितु भगवान के गुणों का स्मरण। कीर्तन भगवान के संगीतमय नाम स्मरण को कहते हैं। कीर्तन से भगवाननाम के पवित्र स्पंदन सुना कर सभी जीवो तथा परिवेश को लाभान्वित किया जाता है ।
सेवा
सेवा भाव एवं कृति दोनों का समन्वय है। किसी भी प्रकार के प्रतिफल की अपेक्षारहित, निःस्वार्थभाव से किसी अन्य के लिए किया गया कार्य सेवा है। छात्र निम्न प्रकार से सेवा कर सकते हैं:
१. वृक्षसेवा, २. गोसेवा, ३. गुरुसेवा, ४. अतिथिसेवा, ५. वृद्धसेवा, ६. मातापिता की सेवा, ७. बडों की सेवा, ८. देवसेवा, ९. प्राणीसेवा, १०. विद्यालयसेवा, ११. पुस्तक/बस्तासेवा, १२. समाजसेवा
१३़ मित्रसेवा
मंत्रपाठ
विभिन्न प्रकार के मंत्रों का पाठ करना, मन की एकाग्रता एवं वाणी की शुद्धि के लिए आवश्यक है। इसके संगीतमय पक्ष का समावेश संगीत के पाठ्यक्रम में किया गया है। पाठ करने योग्य मंत्रों की सूची स्वतंत्र पुस्तिका में दी गई है।
स्तोत्र या स्तुति
प्रार्थना, कीर्तन, भावना इत्यादि को स्तोत्र के रूप में गाया जा सकता है । ऐसे अनेक स्तोत्र भारत की सभी भाषाओं में सर्वत्र प्रचलित हैं। जनसमाज में उनका विशिष्ट स्थान है। अतः छात्रों को इनका परिचय भी होना चाहिए। सीखने योग्य स्तोत्रों की सूची स्वतंत्र पुस्तिका में दी गई है।
आसन
आसन, प्राणायाम आदि बारह वर्ष की आयु के बाद किए जाते हैं। यहाँ केवल निर्दोष एवं सभी के लिए करने योग्य आसनों की सूची दी गई है।
१. वज्रासन, २. पद्मासन, ३. ताड़ासन, ४. शशांकासन, ५. ध्रुवासन
यद्यपि हटप्रदीपिका मे योग आसन और प्राणायाम का अभ्यास 12 साल के पश्चात बताया गया है किंतु सांप्रत काल में शारीरिक लचीलापन बनाए रखने के लिए छात्रों को 8 साल के पश्चात व्यायाम जैसा कई आसनों का अभ्यास करना उपायुक्त तथा महत्वपूर्ण है ।
सद्गुण एवं सदाचार
सदगुण
१. सत्य बोलना, २. सहनशीलता बनाए रखना, ३. एकबार निश्चित किया गया कार्य पूर्ण करना, ४. संयम बनाए रखना। (अपनी बारी आने तक प्रतीक्षा करना, बनी हुई हर वस्तु खाना, अन्य किसी की कोई वस्तु नहीं लेना।)
सदाचार
- पंक्ति बनाए रखना।
- दाहिने हाथ से भोजन करना। थाली में जितना भोजन लिया हो सब खा लेना एवं चारों तरफ भोजन नहीं गिराना। प्याले में लिया हुआ जल पी लेना; गिराना नहीं।
- एल्युमिनियम या प्लास्टिक के बर्तन में भोजन नहीं करना।
- कापी के पन्ने नहीं फाडना।
- कपड़े धोये हुए, स्वच्छ एवं सुघड़ ही पहनना।
- किसी की निंदा नहीं करना।
- बस्ते मे अनावश्यक वस्तुएँ भरकर नहीं लाना।
- समय पालन करना।
- पुस्तकें सम्हालकर रखना। उनमें आड़ीटेढ़ी लकीरें बनाकर उसे गंदा नहीं करना।
- कूड़ा सदा कूड़ेदान में ही डालना।
- शौच के लिए शौचालय का ही उपयोग करना एवं उपयोग के बाद वहाँ पानी डालकर स्वच्छता बनाए रखना।
- अवकाश के समय में ही कक्षा से बाहर जाना।
- पुस्तक, भोजन का डिब्बा, कोई व्यक्ति या प्राणी को पैर से नहीं छूना। यदि गलती से इनमें किसीको भी पैर लग जाए तो क्षमा माँग लेना।
- बिना कारण के व्यर्थ नहीं दौडना , नहीं चिल्लाना एवं न ही धक्कामुक्की करना।
ध्यान
१. स्थिर होकर शांति से आँखें बंद करके बैठना, २. आँखें बंद करके सुनना, ३. आँखें बंद करके स्मरण करना।
ॐ कार
हमारे शरीर में जो रक्त परिभ्रमण करता है उसकी शुद्धि श्वास में लिए जानेवाले प्राणवायु से होती है। यदि लंबी एवं गहरी श्वास न लें तो फेफड़े पूर्णरुप से श्वास न भरने के कारण पूर्ण रूप से रक्तशुद्धि नहीं हो पाएगी। इसी तरह यदि पूर्ण रूप से बाहर न निकले तो अशुद्ध हवा शरीर के अंदर ही रहने के कारण स्वास्थ्य खराब होने की सम्भावना बढ़ जाती है। इसीलिए दीर्घश्वसन अर्थात् लंबा एवं गहरा श्वासोच्छवास करना चाहिए।
कैसे करें।
सर्वप्रथम पालथी लगाकर सीधे एवं स्थिर होकर बैठें।
श्वसन
गहरा उच्छ्वास करें। अब गरदन को हिलाए बिना जोर से गहरा श्वास भरें। छाती को फूलने दें। इसी तरह संपूर्ण श्वास बाहर निकाल दें।
इस प्रकार दीर्घश्वसन अर्थात् लंबा गहरा उच्छवास करते समय शरीर में तनाव न लाएँ। शक्ति से ज्यादा जोर न लगाएँ। आराम से करें। थकान न लगे इसका ख्याल रखें। थकने से पहले दीर्घश्वसन पूर्ण करें।
दीर्घश्वसन करते समय केवल जमीन पर न बैठें। कुर्सी या बेन्च पर पैर लटकाकर न बैठें। परंतु जमीन पर दरी या आसन बिछाकर ही बैठें। भोजन के तुरंत बाद श्वसन का अभ्यास न करें। श्वसन के अभ्यास से पूर्व दोनों नासिकाओं को स्वच्छ कर लें। श्वसन अभ्यास करते समय आसपास धुंआ या जोर से पंखा चलता हुआ नहीं होना चाहिए। बहुत गर्म या बहुत ठंडी हवा भी नहीं होनी चाहिए। एक मास या दो मास तक ऐसा अभ्यास करने से इसकी आदत बन जाती है। इसके बाद यदि दीर्घश्वसन न करें तो भी लंबा एवं गहरा श्वासोच्छवास ही होता है। प्रतिदिन घर में पाँच या दस मिनट तक दीर्घश्वसन का अभ्यास करना चाहिए।
शुद्धिक्रिया
इसका निरूपण शारीरिक शिक्षण विभाग में किया गया है।
आचार
नमस्कार
- दोनों हाथ जोड़कर: हथेली के मूल से अंगुलियों के छोर तक पूर्णरूप से दोनों हाथ जोडें। अंगूठा एवं ऊँगलियाँ एकसाथ रखें। जुड़े हुए हाथों को सीने के पास ले जाएँ। अंगूठा सीने के मध्यभाग को स्पर्श करे इस तरह हाथों की मुद्रा बनाए रखें। इसी नमस्कार की मुद्रा के साथ 'नमस्कार' भी बोलें।
- दो हाथ जोड़कर शीश झुकाकर : उपरोक्त विधि से दोनों हाथ जोड़े एवं पीठ को सीधा रखकर शीश को आगे की ओर झुकाएँ।
- झुककर : कमर से नीचे आगे की ओर झुककर दोनों हाथ से जमीन को स्पर्श कर सीधे खड़े होकर हाथ जोड़कर नमस्कार करें।
- चरणस्पर्श करना : कमर से आगे की ओर झुककर सामने खड़े व्यक्ति के पैर के अंगूठे को दोनों हाथों से स्पर्श करें एवं पुनः सीधे खड़े होकर हाथ जोड़कर नमस्कार करें।
- साष्टांग नमस्कार : जमीन पर सीधे लेटकर कपाल (मस्तक), नाक, दोनों कंधे, दोनों हाथ एवं दोनों घुटने जमीन से स्पर्श करें ऐसी मुद्रा में आकर पुनः सीधे खड़े होकर दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार करें।
ध्यान में रखने योग्य बातें
- नमस्कार करनेवाले या नमस्कार स्वीकार करनेवाले का शरीर अस्वच्छ हो तो चरण स्पर्श या साष्टांग प्रणाम न करें।
- जूता या चप्पल पहनकर, जूठे हाथों से, सामने कोई भोजन कर रहा हो तब, जूता पहना हो तब या घर की चौखट पर खड़ा हो तब नमस्कार नहीं करना चाहिए।
- अन्य किसी के साथ बातों में मग्न हों, ध्यान साधना में लीन हो या पूजा करते हों तब भी नमस्कार नहीं करना चाहिए।
फूल चढ़ाना
फूल दानों हाथों से चढ़ाना चाहिए। फूल चढ़ाते समय ऊपर से नीचे की ओर डालें परंतु दोनों हथेलियां उपर की ओर खुली रखकर फूल चढ़ाएँ। फूल यदि देवता या किसी व्यक्ति के पैरों में चढ़ाना हो तो उपरोक्त विधि से चढ़ाए परंतु यदि सिर पर चढ़ाना हो तो उपर से शीश पर फूल रखें। फूल फेंककर कभी न चढाएँ। मूर्ति या प्रतिमा को चढ़ाने के लिए लिये गए फूल नीचे गिरे हुए, अन्य किसी के द्वारा उपयोग किए हुए या सूंघे हुए नहीं होने चाहिए। सुगंधीदार फूल ही सही फूल माने जाते हैं। इसीलिए सदा ऐसे फूल ही चढ़ाएँ।
सुगंधहीन क्रोटन्स या केकटस के फूल न चढ़ाएँ। फूल पर कूड़ा न लगा हो यह देखें। फूल की केवल डॅडी ही रखें। डंड़ी के अतिरिक्त भाग निकाल दें। खंडित फूल न चढ़ाएँ। खिले हुए फूल चढ़ाएँ।
कली न चढ़ाएँ । (कली पोधे या पेड़ से कभी न तोड़ें) ताजे फूल चढ़ाने से पहले बासी फूल उतार लें। मूर्ति, प्रतिमा या चित्र को स्वच्छ करें। आसपास का स्थान एवं चीजवस्तुएँ स्वच्छ करें एवं इसके बाद ही फूल चढ़ाएँ। जैसे स्नान से पूर्व इत्र नहीं लगाया जाता वैसे ही मूर्ति या चित्र को स्वच्छ करने से पूर्व फूल नहीं चढ़ाया जाता।
चंदन घिसना
शीतलता के लिए चंदन का लेप किया जाता है। यह मानव भी कर सकते हैं। भगवान की मूर्ति को भी कर सकते हैं। इसके लिए एक छोटा चकले के समान गोल पत्थर धोकर स्वच्छ करके चंदन की लकड़ी को भी धोकर उसपर रगड़ें। थोड़ा पानी डालकर रगड़ने पर लकड़ी घिसेगी एवं चंदन का लेप तैयार होगा। सूख जाने पर पुनः पानी की कुछ बूंदे पत्थर पर डालकर चंदन की लकड़ी रगड़ें। आवश्यक मात्रा में लेप तैयार हो जाने पर लेप को हाथ से पोंछकर कटोरी में ले लें। आवश्यकता से अधिक पानी न डालें।
यज्ञ में आहुति देना
यज्ञ में दी जानेवाली आहुति के द्रव्य को चुटकी में पकड़ें। मध्य की दो ऊँगली एवं अंगूठे से पकड़ें। यज्ञ में आहुति देते समय हथेली आकाश की ओर रहे इस प्रकार रखें, एवं नीचे की ओर छोड़े। हथेली उल्टी दिशा में न रखें या आहुति न फैंकें।
नैवेद्य चढ़ाना
नैवेद्य अर्थात् स्नान, फूल, धूप, होने के बाद भगवान को भोजन करवाना। जो नैवेद्य या प्रसाद चढ़ाना है उसे कटोरी, प्लेट या थाली में रखकर भगवान के सामने रखें। रखने से पहले उस स्थान को पानी छिड़ककर स्वच्छ करें। थाली या कटोरी रखने के बाद हाथ में पानी लेकर कटोरी या थाली के चारों ओर बाएं से दाँयी ओर घुमाएँ। अब बाँया हाथ मुख के सामने रखकर दायें हाथ से अर्पण की मुद्रा बनाकर निम्न मंत्र का उच्चारण करे। ॐ प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा, समानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा। एक बार उच्चारण करने के बाद दाँयी हथेली में पानी लेकर छोड़ें एवं मंत्र बोलें। इसके बाद पुनः पानी छोड़ें एवं सबको प्रसाद बाँटें।
कीर्तन करना
कीर्तन भक्तियोग का एक प्रकार है। भगवान के गुणों का गान करना ही कीर्तन है। कीर्तन किसी वस्तु को भगवान से माँगना या स्वयं के उद्धार के लिए या स्वयं के प्रति दया करने की याचना नहीं है। यह प्रेमपूर्वक किया गया प्रभुस्मरण है। इसीलिए भगवान के अनेक कार्यों एवं उसके अनुसार प्रभु के नामों का गान करना ही कीर्तन करना है।
कीर्तन सदा संगीतमय ही होता है। जोर से गाना, समूह में गाना, करतलध्वनि के साथ गाना, वाजिंत्रों के साथ गाना, गातेगाते नृत्य करना कीर्तन है। गाँवों में कीर्तन करते करते प्रभातफेरी करने का रिवाज है। उत्सव में या आम समय में मंदिरों में कीर्तन होता है। हरिकथा में भी कीर्तन होता हैं। कीर्तन से वातावरण सुंदर बनता है एवं मनोभाव भी सात्त्विक बनता है। विद्यालय में कभीकभार दस या पंद्रह मिनट के लिए कीर्तन का कार्यक्रम रखना चाहिए। कीर्तन के नमूने संगीत पुस्तिका में दिए गए हैं।
जप करना
- माला पकड़ना सीखें। माला का मनका मध्यमा (दूसरी अंगुली) एवं अंगूठे से पकड़े। एक मंत्र बोलकर एक मनका आगे बढ़ायें। माला पूर्ण होने पर पुनः वापस जाएँ। मेरू न लाँधे ।
- माला जपते समय उसे ढंककर रखें। (सीखते समय खुली रखें)
- प्रारंभ में माला छोटी लें एवं एक ही माला जपें। प्रथम ११ मनकोंवाली, फिर ५१ मनकोंवाली एवं उसके बाद १०८ मनकों की माला जपें। संपूर्ण माला १०८ मनकों की होती हैं।
- एक साथ संपूर्ण माला जपी जा सके अतः छोटी माला ही चुनें। बड़ी माला लेकर जप अधूरा न छोड़ें।
- मंत्र जब तक याद न हो जाए तबतक जोर से बोलकर जपें। इसके बाद बिना आवाज किए जप करें।
- मंत्र शांति से बोलें, उतावली न करें।
- जप के दौरान जब तक माला पूर्ण न हो तब तक आँखें बंद रखें, मध्य में न खोलें, बैठक भी न बदलें एवं मौन रहें।
- शुरुआत से अंत तक एकसमान गति से माला पूर्ण करें।
- माला के मनके तुलसी के, रुद्राक्ष के या स्फटिक के हों यह ध्यान रखें। प्लास्टिक के मनकों वाली माला न लें। इसी प्रकार माला का गुंथन नायलोन या प्लास्टिक के धागों से न हुआ हो इसका भी ख्याल रखें।
- प्रतिदिन एक ही समय, एक ही स्थान पर एक ही प्रकार से जप करें।
- जप का मंत्र अपनी रुचि के अनुसार निश्चित कर लें। एक बार निश्चित करने के बाद मंत्र न बदलें।
- जप विद्यालय में सीखने के बाद घर पर करें।
सेवा
- वृक्ष सेवा : क्यारे एवं पौधों की स्वच्छता रखना, उसकी सुरक्षा एवं संभाल रखना तथा खाद-पानी देना।
- गुरु सेवा : गुरु का आसन स्वच्छ रखना, आसन बिछाना, 'श्री गुरुभ्यो नमः' कहकर हाथ जोड़कर शीश झुकाकर प्रणाम करना, जब तक गुरु खड़े हों तब तक नहीं बैठना। गुरु से ऊँचे आसन पर नहीं बैठना। गुरु को पानी वगैरह लाकर देना।
- छात्र सेवा : पानी देना, परोसना, जूते चप्पल व्यवस्थित रखना, नाश्ते के डिब्बे व्यवस्थित रखना, आसन चौकी आदि व्यवस्थित रखना।
- विद्यालय सेवा : फर्नीचर, खिडकी, दरवाजे वगैरह स्वच्छ करना। कूड़ा बीनना।
- अतिथि सेवा : पानी देना, उनका सामान एवं चीजवस्तुएँ व्यवस्थित रखना, उनसे बातें करना।
- वृद्ध सेवा : उनसे बातें करना, खेलना, पैर दबाना, उनकी वस्तुएँ ठिकाने से रखना, उन्हें पंखा झेलना, उन्हें पानी वगैरह लाकर देना, उनके साथ सैर पर जाना, उनके साथ मंदिर जाना इत्यादि।
- मातापिता की सेवा : उनके पैर छूना, उन्हें पानी, अखबार वगैरह लाकर देना, उनका कहा मानना, उनके सामने ऊँची आवाज में नहीं बोलना, उनके कार्य में सहायता करना।
- बड़ों की सेवा : बड़ों के सामने चिल्लाकर नहीं बोलना, वे काम करते हों तो उन्हें खलल नहीं पहुँचाना, वे जहाँ बैठे हों वहाँ आवाज नहीं करना। उनके मध्य से नहीं दौड़ना। उनकी वस्तुओं को नहीं बिखेरना।
- देव सेवा : पूजा, प्रार्थना, प्रणाम करना, भजन, कीर्तन एवं वंदना करना।
- प्राणी सेवा : गाय, कुत्ते को रोटी देना, पक्षियों को दाना डालना, उन्हें किसी तरह की चोट न हो इसका ख्याल रखना, चोट लगी हो तो इलाज करना।
- पुस्तक / बस्ते की सेवा : पुस्तक या बस्ता गंदा नहीं होने देना, उसमें व्यर्थ की वस्तुएँ नहीं भरना। पुस्तक में टेढ़ीमेढ़ी लकीरें नहीं खींचना। गंदी जगह पर नहीं रखना; उसे पैर नहीं लगाना एवं योग्य स्थान पर रखना।
- समाज सेवा : सार्वजनिक स्थानों पर गंदगी नहीं करना, जहाँतहाँ कूड़ा नहीं फैंकना। थूकना नहीं, मंदिर या पुस्तकालय में शोर नहीं मचाना, पेडपौधों के पत्ते या फूल नहीं तोड़ना।
ध्यान में लेने योग्य बातें
- सेवा केवल कहने या सूचना देने की बात नहीं है अपितु करने की बात है। करने के साथ ही वह भावना का विषय है। अतः भावना जागृत करने का प्रयास करना चाहिए।
- इनमें से आधे से अधिक बातें तो घर में ही करने योग्य हैं। विद्यालय में इन्हें सिखाकर घर में करने की प्रेरणा देना चाहिए। इसके विषय में बारबार प्रश्न पूछे जाने चाहिए। मातापिता के साथ इस विषय में वार्तालाप करना चाहिए एवं मातापिता इन सभी कार्यों को घर में बच्चोंं से करवाएँ, ऐसा आग्रह करना।
- सेवा से ही चित्तशुद्धि होती है। सेवा से ही मानवता का विकास होता है। सेवा से ही घर परिवार एवं समाज टिका रहता है। अतः इसका महत्व समझकर सेवा करना सिखाएँ।
मंत्रपाठ
- मंत्र संगीत पुस्तिका में दिए गए हैं।
- मंत्रगान की पद्धति को स्वरित पद्धति कहते हैं। अर्थात् मंद्र सप्तक का 'नि' एवं मध्यसप्तक के 'सा' एवं 'रे' इन तीन स्वरों में ही वैदिक मंत्रों का गान होता है। इस सही पद्धति से ही मंत्र गाना चाहिए।
- मंत्रगान करते समय सीधे बैठना चाहिए। अच्छे आसन पर पालथी लगाकर बैठकर सस्वर दमदार आवाज में मंत्र का पाठ करना चाहिए। इसके लिए श्वसन प्रक्रिया सही एवं स्वास्थ्य अच्छा होना चाहिए। मंत्रपाठ अकेले या समूह में भी किया जा सकता है। सामूहिक मंत्रपाठ करते समय सभी एक स्वर में बोलें यह आवश्यक है।
स्तोत्र या स्तुति
१. प्रज्ञावर्धन स्तोत्र, २. गणपतिस्तोत्र, ३. एकात्मतास्तोत्र
स्तोत्र स्वतंत्र पुस्तिका में दिए गए हैं। स्तोत्र भी शुद्ध एवं स्पष्ट उच्चारण से एवं सस्वर गाना चाहिए। निश्चित छंद में ही गाना चाहिए। भावशुद्धि एवं वाणीशुद्धि के लिए यह आवश्यक है।
आसन
- आसन करते समय पेट खाली होना चाहिए।
- कपड़े चुस्त नहीं होने चाहिए।
- आसन बिछाकर उस पर बैठकर ही आसन करना चाहिए।
- आसन व्यायाम के समान नियमित ही करना चाहिए परन्तु योगपद्धति शारीरिक पद्धति से अलग है यह समझना चाहिये।
- आसन में प्रत्येक स्थिति सही हो उस पर ध्यान देना चाहिए।
- ६. आसन करने की पद्धति स्वतंत्र पुस्तिका में दी गई हैं।
सद्गुण एवं सदाचार
यही नैतिक शिक्षण है। यही सदाचार है। यही संस्कार है। यही सभी मनुष्यों के साथ मिलकर रहने की सही पद्धति है। यही योग के आठ अंगों में से दो अंग यम और नियम है। इसके बाद में विस्तार से कुछ भी समझाने की आवश्यकता नहीं है। सब कुछ स्वयं स्पष्ट ही है।
ॐकार
ॐकार सर्व योग का सार है। सर्व वाणी का सार है। सर्व संगीत का सार है। योगसूत्र में कहा गया है कि "तस्य वाचकः प्रणवः''। ईश्वर का नाम ॐकार है। अतः ॐकार का उच्चारण योग्य एवं सही रीति से करना अत्यंत आवश्यक है। ॐकार का उच्चारण इस प्रकार करना चाहिये:
- अनुकूल आसन पर सीधे एवं स्थिर बैठकर आँखें बंद करें
- दोनों हाथ चिन् मुद्रा, चिन्मय मुद्रा या ब्रह्मांजलि मुद्रा में रखें या घुटनों पर रखें
- सीधे, तनावरहित एवं शिथिल होकर बैठें
- पूर्ण उच्छ्वास करें
- फेंफड़ों में श्वास भरें
- स्थिर, दृढ एवं उच्च स्वर में ॐकार का उच्चारण करें
- श्वास की लंबाई के दो तृतीयांश भाग में "ओ" एवं एक तृतीयांश भाग में "म" का उच्चारण करें
- सरलता से जितना हो सके उतना लंबा ॐकार का उच्चारण करें
- पूर्ण श्वास भरें एवं आँखें खोलें। यह ॐकार का एक आवर्तन हुआ। इस प्रकार एक साथ कम से कम तीन बार ॐकार का उच्चारण कहे। जब सामूहिक ॐकार का उच्चारण होता हो तब यदि सबकी लंबाई अलग अलग हो तो सबका पूर्ण होने तक प्रतीक्षा करें। इसके पश्चात् सभी एक साथ प्रारम्भ करें। सबका एक स्वर हो इसका ध्यान रखें।
- मंत्र में हो या स्वतंत्र, जहाँ भी ॐ होता है वह 'सा' स्वर में ही बोला जाता है।
यह लेख भी देखें।
References
- ↑ प्रारम्भिक पाठ्यक्रम एवं आचार्य अभिभावक निर्देशिका :अध्याय १, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखिका: श्रीमती इंदुमती काटदरे