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तीसरा आयाम है दोहन का । प्रकृति से सबकुछ प्राप्त होता है। परन्तु मनुष्य को उतना ही लेना चाहिये जितना उसके लिये आवश्यक है। भारत के सभी नीतिशास्त्र कहते हैं कि अपनी आवश्यकता से अधिक लेता है वह चोर है। मनुष्य को प्रकृति पर अधिकार धन, बल, सत्ता, बुद्धि आदि से प्राप्त नहीं होता है, केवल आवश्यकता के अनुपात में ही प्राप्त होता है। इसे दोहन का सिद्धान्त कहते हैं। अधिकार जमा कर आवश्यकता से अधिक लेने को शोषण कहते हैं। प्रकृति का शोषण करने से सर्वत्र दुःख फैलता है और अभाव निर्माण होता है। दोहन करने से सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और सुख मिलता है। आज पश्चिम अपने स्वामित्वभाव से प्रेरित होकर प्रकृति का शोषण करता है, उसे दुःखी करता है और स्वयं भी दुःखी होता है। पश्चिम के ऐसे व्यवहार से गैरपश्चिमी जगत को भी दुःखी होना पडता है। शोषण बन्द नहीं करना अपितु अन्य उपाय ही करते रहना कदापि परिणामकारी होने वाला नहीं है। पश्चिम को यही मान्य नहीं है। | तीसरा आयाम है दोहन का । प्रकृति से सबकुछ प्राप्त होता है। परन्तु मनुष्य को उतना ही लेना चाहिये जितना उसके लिये आवश्यक है। भारत के सभी नीतिशास्त्र कहते हैं कि अपनी आवश्यकता से अधिक लेता है वह चोर है। मनुष्य को प्रकृति पर अधिकार धन, बल, सत्ता, बुद्धि आदि से प्राप्त नहीं होता है, केवल आवश्यकता के अनुपात में ही प्राप्त होता है। इसे दोहन का सिद्धान्त कहते हैं। अधिकार जमा कर आवश्यकता से अधिक लेने को शोषण कहते हैं। प्रकृति का शोषण करने से सर्वत्र दुःख फैलता है और अभाव निर्माण होता है। दोहन करने से सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और सुख मिलता है। आज पश्चिम अपने स्वामित्वभाव से प्रेरित होकर प्रकृति का शोषण करता है, उसे दुःखी करता है और स्वयं भी दुःखी होता है। पश्चिम के ऐसे व्यवहार से गैरपश्चिमी जगत को भी दुःखी होना पडता है। शोषण बन्द नहीं करना अपितु अन्य उपाय ही करते रहना कदापि परिणामकारी होने वाला नहीं है। पश्चिम को यही मान्य नहीं है। | ||
− | चौथा आयाम है रक्षण करना । भारत का कहना है कि अपने से छोटे हैं उनका बडों ने रक्षण करना चाहिये । उनका रक्षण नहीं किया तो वे | + | चौथा आयाम है रक्षण करना । भारत का कहना है कि अपने से छोटे हैं उनका बडों ने रक्षण करना चाहिये । उनका रक्षण नहीं किया तो वे सदा भय और आशंका से ग्रस्त रहेंगे। इससे उनके मनोभावों का असन्तुलन होगा। प्रकृति भी यदि भयभीत और आशंकित रहती है तो सिकुड जाती है। उससे प्राप्त होने वाले पदार्थों की गुणवत्ता कम हो जाती है, उनकी पोषकता, सुख देने की क्षमता, उनका रस कम हो जाता है । मनुष्य को उपभोग के बाद भी आनन्द और तृप्ति का अनुभव नहीं होता इसका कारण भी यही है। |
परन्तु जीवन को भौतिक दृष्टि से ही देखने के कारण पश्चिम को प्रकृति को आत्मतत्त्व का ही आविष्कार मानने की कल्पना भी नहीं आती। जब तक यह मूल बात में परिवर्तन होता नहीं तब तक दुःख और अभाव दूर नहीं हो सकते यह बात पश्चिम को भारत से ही सीखनी होगी। अपनी पश्चिमाभिमुखता दर कर भारत को भी शिक्षक की भूमिका अपनानी होगी। | परन्तु जीवन को भौतिक दृष्टि से ही देखने के कारण पश्चिम को प्रकृति को आत्मतत्त्व का ही आविष्कार मानने की कल्पना भी नहीं आती। जब तक यह मूल बात में परिवर्तन होता नहीं तब तक दुःख और अभाव दूर नहीं हो सकते यह बात पश्चिम को भारत से ही सीखनी होगी। अपनी पश्चिमाभिमुखता दर कर भारत को भी शिक्षक की भूमिका अपनानी होगी। | ||
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स्पर्धा से संघर्ष और संघर्ष से हिंसा अनिवार्य है। सीधी मारामारी, सशस्त्र संग्राम, खुली लूट आदि से बचने के लिये कुछ उपाय करने की आवश्यकता होती है। सभ्य भी दिखना है । प्राणों की रक्षा भी करनी है । इसलिये पश्चिम ने सामाजिक करार का सिद्धान्त बनाया है। व्यक्ति केन्द्री जीवन होने पर भी व्यक्ति की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति दूसरे व्यक्तियों से ही होती है। इससे एक आपसी लेनदेन का व्यवहार बनता है । लेनदेन के व्यवहार में स्वयं को घाटा न हो इसका ध्यान हर व्यक्ति की चिन्ता का विषय होता है। इस दृष्टि से कानून बनाये जाते हैं, कानून का पालन करना सबके लिये अनिवार्य बनाया जाता है, पालन नहीं करने पर मुकद्दमा चलता है, न्याय होता है और दण्ड दिया जाता है। व्यक्ति के हितों की रक्षा के लिये यह सारी व्यवस्था की जाती है न कि समाजहित के लिये ।। | स्पर्धा से संघर्ष और संघर्ष से हिंसा अनिवार्य है। सीधी मारामारी, सशस्त्र संग्राम, खुली लूट आदि से बचने के लिये कुछ उपाय करने की आवश्यकता होती है। सभ्य भी दिखना है । प्राणों की रक्षा भी करनी है । इसलिये पश्चिम ने सामाजिक करार का सिद्धान्त बनाया है। व्यक्ति केन्द्री जीवन होने पर भी व्यक्ति की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति दूसरे व्यक्तियों से ही होती है। इससे एक आपसी लेनदेन का व्यवहार बनता है । लेनदेन के व्यवहार में स्वयं को घाटा न हो इसका ध्यान हर व्यक्ति की चिन्ता का विषय होता है। इस दृष्टि से कानून बनाये जाते हैं, कानून का पालन करना सबके लिये अनिवार्य बनाया जाता है, पालन नहीं करने पर मुकद्दमा चलता है, न्याय होता है और दण्ड दिया जाता है। व्यक्ति के हितों की रक्षा के लिये यह सारी व्यवस्था की जाती है न कि समाजहित के लिये ।। | ||
− | लेनदेन का यह व्यवहार तो अनिवार्य है परन्तु इसमें हर व्यक्ति की विशिष्ट मानसिकता बनती है। लेनदेन के व्यवहार में लेना और देना बराबर हो यह न्यायसंगत है, परन्तु हर व्यक्ति चाहता है कि उसे कम से कम देना | + | लेनदेन का यह व्यवहार तो अनिवार्य है परन्तु इसमें हर व्यक्ति की विशिष्ट मानसिकता बनती है। लेनदेन के व्यवहार में लेना और देना बराबर हो यह न्यायसंगत है, परन्तु हर व्यक्ति चाहता है कि उसे कम से कम देना पड़े और अधिक से अधिक मिले । यदि उसका बस चले तो सब कुछ ले और कुछ भी न दे, परन्तु यह तो सम्भव नहीं है । इसलिये कम से कम देने और अधिक से अधिक लेने की युक्तिप्रयुक्ति चलती है। लेनदेन के सौदे यदि घाटे के बनने लगे तो व्यक्ति चाहता है कि करार ही भंग कर दिया जाय, नुकसान भरपाई कर दी जाय और नया करार कर दिया जाय । सारे सामाजिक सम्बन्ध करार के आधार पर ही बनते हैं और भंग भी होते हैं। इसमें भावुकता को कदाचित ही कोई स्थान होता है, अतः सम्बन्ध बिगडते नहीं है, केवल भंग होते हैं समाप्त होते हैं। |
पतिपत्नी का सम्बन्ध करार है, मातापिता और सन्तानों का सम्बन्ध करार है, शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध करार है, व्यापारी और ग्राहक का सम्बन्ध करार है, मालिक और नौकर का सम्बन्ध करार है तथा शासक और प्रजा का सम्बन्ध भी करार है। | पतिपत्नी का सम्बन्ध करार है, मातापिता और सन्तानों का सम्बन्ध करार है, शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध करार है, व्यापारी और ग्राहक का सम्बन्ध करार है, मालिक और नौकर का सम्बन्ध करार है तथा शासक और प्रजा का सम्बन्ध भी करार है। | ||
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# समाजरचना के पश्चिम के सिद्धान्तों का त्याग करना | # समाजरचना के पश्चिम के सिद्धान्तों का त्याग करना | ||
# स्त्री के सन्दर्भ में पुरुष और पुरष के सन्दर्भ में स्त्री के बारे में पुनर्विचार करना | # स्त्री के सन्दर्भ में पुरुष और पुरष के सन्दर्भ में स्त्री के बारे में पुनर्विचार करना | ||
− | विश्वविद्यालयों के सामाजिक अध्ययन के विभागों में, बौद्धिक समूहों में, धर्मसभाओं में इस विषय का ऊहापोह करना होगा । पश्चिम की संकल्पना को नकारने के लिये जितना बौद्धिक पुरुषार्थ करना पड़ेगा उससे भी अधिक मनोवैज्ञानिक परिश्रम करना | + | विश्वविद्यालयों के सामाजिक अध्ययन के विभागों में, बौद्धिक समूहों में, धर्मसभाओं में इस विषय का ऊहापोह करना होगा । पश्चिम की संकल्पना को नकारने के लिये जितना बौद्धिक पुरुषार्थ करना पड़ेगा उससे भी अधिक मनोवैज्ञानिक परिश्रम करना पड़ेगा, जितना पुरुष वर्ग को उतना ही स्त्री वर्ग को चिन्तन करना पड़ेगा । यह मामला मनःस्थिति और परिस्थिति दोनों क्षेत्रों में उलझा हुआ है। उसे सुलझाने के लिये पर्याप्त धैर्य चिन्तन, अपनी परम्परा के गौरव, आत्मविश्वास और हीनताबोध से मुक्ति की आवश्यकता रहेगी। |
==References== | ==References== | ||
<references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५): पर्व ३: अध्याय २६, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे[[Category:Education Series]] | <references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५): पर्व ३: अध्याय २६, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे[[Category:Education Series]] | ||
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मनुष्य केन्द्री रचना का स्वरूप
ऐसा कहते हैं कि भगवान जब सृष्टि की रचना करने लगे तब प्रथम पंचमहाभूत बनाये। फिर क्रमशः वनस्पति सृष्टि और प्राणीसृष्टि बनाई। प्राणीसृष्टि में प्रथम एककोशीय जीव का निर्माण हुआ और क्रमशः जटिल रचना निर्माण होती गई। जब तक मनुष्य को नहीं बनाया था तब तक भगवान को सन्तोष नहीं हो रहा था । अन्त में जब मनुष्य को बनाया तब भगवान प्रसन्न हुए। उन्होंने मनुष्य को अपने पास बुलाया और कहा कि तुम मेरे श्रेष्ठ सर्जन हो । मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। यह सारी सृष्टि तुम्हारे लिये हैं। तुम उसका यथेच्छ उपभोग करो और सुखपूर्वक जीवनयापन करो।
तब से मनुष्य भगवान की कृपा के अनुसार सृष्टि का उपभोग कर रहा है।
वह अपने आपको सृष्टि का मालिक मानता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश सृष्टि पर दिखाई देनेवाले सारे प्राणी, जीवजन्तु और वनस्पति उसकी सेवा के लिये ही हैं। इस सृष्टि के साथ उसके व्यवहार का स्वरूप कुछ इस प्रकार का है...
- वह जीवजन्तु, पशुपक्षी, प्राणियों को अपना आहार बनाता है।
- अपने वस्त्रों के लिये, पादत्राण, बस्ता आदि के लिये प्राणियों के खाल का उपयोग करता है। ये सब मरे हुए प्राणियों की खाल से ही बनते हों यह आवश्यक नहीं है। प्राणियों को मार कर भी खाल प्राप्त की जा सकती है।
- सौन्दर्य प्रसाधन बनाने हेतु प्राणियों पर प्रयोग किये जाते हैं। उदाहरण के लिये त्वचा पर लगानेवाले क्रीम आदि का प्रयोग खरगोश की आंखो में लगाकर किया जाता है, भले ही खरगोश अन्धे हो जाय ।
- पशु और पक्षी पालन उन्हें मारकर खा जाने के लिये ही होता है । पशुओं का माँस अधिक स्वादिष्ट लगे इस दृष्टि से उन्हें मारने के भी विविध तरीके अपनाये जाते हैं जिनसे पशुओं को अतिशय यातना सहन करनी पड़ती है।
- अपनी अनन्त कामनाओं की पूर्ति हेतु अमर्याद उपभोग की जीवनशैली उसने अपनाई है। इस उपभोग हेतु सारे प्राकृतिक संसाधनों का वह अधिकतम उपयोग करता है। ऐसा उपयोग करने में वह प्रकृति के सन्तुलन को बिगाडता है और पर्यावरण के प्रदूषण का संकट खडा होता है।
- वह अधिक भोगसामग्री चाहिये इसलिये रासायनिक खाद, कीटनाशक आदि बनाता है जिससे वायु, जल और भूमि का प्रदूषण होता है। इस प्रदूषण के निवारण हेतु जो उपाय किये जाते हैं उनसे और अधिक प्रदूषण होता है। यह चक्र चलता ही रहता है और प्रदूषण मुक्त सृष्टि की सम्भावना ही समाप्त हो जाती है।
- अपनी कल्पनाशील बुद्धि का प्रयोग कर, विज्ञान के ज्ञान के सहारे उसने असंख्य यन्त्र बनाये। इन यन्त्रों पर उसे गर्व भी है। यन्त्रों को बनाने में वह अनेक प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध उपयोग करता है । इन यन्त्रों के प्रयोग के परिणाम स्वरूप प्रकृति का सन्तुलन भारी मात्रा में नष्ट हो जाता है।
- प्राकृतिक संसाधनों के प्रयोग का ही एक प्रकार पेट्रोलियम का उपयोग है। भूमि तल से इतना अधिक पेट्रोल निकाला जाता है कि भूमि के अन्दर का भी सन्तुलन खराब होता है। उस पेट्रोल को साफ करने में, उसका प्रयोग कर वाहन चलाने में तथा उसके कचरे का निकाल करने में अत्यधिक प्रदूषण होता है। मनुष्य को इसकी कोई चिन्ता नहीं है।
- प्लास्टिक की खोज प्रकृति के स्वास्थ्य की हानि के लिये बडा भारी कारण है। प्लास्टिक ने असंख्य रूप धारण किये हैं । सिन्थेटिक पदार्थों की पूरी दुनिया बस गई है। चारों ओर से प्लास्टिक ने विश्व को ऐसा घेर लिया है कि अब उससे छुटकारा पाना अतिशय कठिन हो गया है। प्लास्टिक ने खानेपीने की वस्तुओं और औषधों को भी नहीं छोडा है । प्लास्टिक का प्रभाव पर्यावरण पर तो अतिशय विपरीत होता ही है, मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी विपरीत होता है।
- सारे प्राकृतिक संसाधनों का आवश्यकता से कहीं अधिक उपयोग करना भी आज के मनुष्य का स्वभाव बन गया है । प्रकृति मनुष्य के लिये ही बनी है ऐसी समझ बनने के कारण ऐसा अधिक उपयोग और अपव्यय करने में उसे संकोच अथवा अपराधबोध नहीं होता।
- प्रकृति के प्रति मनुष्य का कोई दायित्व होता है इसकी उसे कल्पना तक नहीं आती। उसने प्राकृतिक संसाधनों का अविवेकपूर्ण प्रयोग कर अपने ही स्वास्थ्य के लिये भारी संकट मोल लिया है। परन्तु उस संकट के निवारण हेतु इन संसाधनों का प्रयोग कम करना चाहिये ऐसा उसकी समझ में नहीं आता है। परिणाम स्वरूप वह जो भी उपाय करता है उससे संकट कम होने के स्थान पर और बढ़ जाता है।
- प्रकृति को सुखदुःख होते हैं। सुखी होने से वह मनुष्य को भी सुख देती है और दुःखी होने से मनुष्य के लिये भी दुःख का कारण बनती है यह बात मनुष्य की समझ में नहीं आती। अतः वह प्रकृति को दुःखी करता ही रहता है और स्वयं भी दुःखी होता है । इस दुःख के निवारण हेतु वह जो उपाय करता है उनका कोई परिणाम नहीं होता क्योंकि असली उपाय वह जानता ही नहीं है।
- प्रकृति को लेकर उसके द्वारा किया जाने वाला व्यवहार उसे हास्यास्पद बनाता है। उदाहरण के लिये वह बडा घर चाहता है तो खेतों में खेती करना छोड कर वह मकान बनाता है। उसे वाहन चलाने हैं इसलिये सडक बनाता है और उसे हेतु से वृक्ष काटता है। यन्त्रसामग्री बनाने हेतु, कागज बनाने हेतु, फर्नीचर बनाने हेतु वृक्ष काटता है। इससे वातावरण में गर्मी बढती है। वह बिजली से चलने वाले पंखे, फ्रीज, एसी का प्रयोग करता है तो गर्मी, और बढती है। इस प्रकार गर्मी, एसी और अधिक गर्मी का विनाशक चक्र चलता रहता है और पर्यावरण की स्थिति अधिकाधिक बिगडती जाती है।
- इतने अधिक संकटों से घिर जाने के बाद भी मनुष्य को प्रकृति के बारे में अलग से विचार करने की अपना व्यवहार बदलने की इच्छा नहीं होती। इसका अर्थ यह है कि मनुष्य को अपनी कामनाओं को पूर्ण करने के आडे और किसी भी बात का विचार करना सूझता ही नहीं है।
पश्चिम के प्रकृति विषयक इस दृष्टिकोण और व्यवहार के बारे में भारत की सोच कैसी है इसका विचार करना उपयोगी होगा।
प्रथम तो भारत में प्रकृति की भी स्वतन्त्र सत्ता मानी गई है। मनुष्य के ही समान सृष्टि के छोटे बडे सभी पदार्थ आत्मतत्त्व का ही आविष्कार है। उनकी भी स्वतन्त्रता सत्ता है और मनुष्य का कर्तव्य है कि उन सबकी स्वतन्त्रता सत्ता का सम्मान करे । भगवानने मनुष्य को अपनी सभी कृतियों में सर्वश्रेष्ठ बनाया है और श्रेष्ठ होने के नाते अपने से छोटों की रक्षा करने का दायित्व भी उसे दिया है। भारत की दृष्टि कहती है कि मनुष्य के प्रकृति के साथ के सम्बन्ध के चार आयाम हैं।
पहला आयाम है आत्मीयता । प्रकृति के सभी पदार्थों के साथ आत्मीयता का, स्नेह का, सम्बन्ध अपेक्षित है । ऐसे प्रेमपूर्ण सम्बन्ध के परिणाम स्वरूप सृष्टि में भी प्रेमपूर्ण वातावरण बनता है। सबका अन्तःकरण प्रेम से प्रसन्न रहता है। इससे हिंसा कम होती है। हिंसा कम होने से भय कम होता है और सुरक्षा का भाव बढ़ता है।
दूसरा आयाम है कृतज्ञता का । मनुष्य का जीवन प्रकृति के बिना असम्भव है। उसकी सभी आवश्यकतायें प्रकृति के द्वारा ही पूर्ण होती हैं इसलिये प्रकृति के प्रति कृतज्ञ रहना उसका धर्म है । कृतज्ञता का व्यवहार आदर और सम्मान का होता है। मनुष्य की ओर से आदर और सम्मान पाकर प्रकृति सुख का अनुभव करती है। सुख का अनुभव करनेवाली प्रकृति मनुष्य को भी सुख देती है। सुख देने से जो सुख मिलता है वह और किसी भौतिक पदार्थ से नहीं मिलता।
तीसरा आयाम है दोहन का । प्रकृति से सबकुछ प्राप्त होता है। परन्तु मनुष्य को उतना ही लेना चाहिये जितना उसके लिये आवश्यक है। भारत के सभी नीतिशास्त्र कहते हैं कि अपनी आवश्यकता से अधिक लेता है वह चोर है। मनुष्य को प्रकृति पर अधिकार धन, बल, सत्ता, बुद्धि आदि से प्राप्त नहीं होता है, केवल आवश्यकता के अनुपात में ही प्राप्त होता है। इसे दोहन का सिद्धान्त कहते हैं। अधिकार जमा कर आवश्यकता से अधिक लेने को शोषण कहते हैं। प्रकृति का शोषण करने से सर्वत्र दुःख फैलता है और अभाव निर्माण होता है। दोहन करने से सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और सुख मिलता है। आज पश्चिम अपने स्वामित्वभाव से प्रेरित होकर प्रकृति का शोषण करता है, उसे दुःखी करता है और स्वयं भी दुःखी होता है। पश्चिम के ऐसे व्यवहार से गैरपश्चिमी जगत को भी दुःखी होना पडता है। शोषण बन्द नहीं करना अपितु अन्य उपाय ही करते रहना कदापि परिणामकारी होने वाला नहीं है। पश्चिम को यही मान्य नहीं है।
चौथा आयाम है रक्षण करना । भारत का कहना है कि अपने से छोटे हैं उनका बडों ने रक्षण करना चाहिये । उनका रक्षण नहीं किया तो वे सदा भय और आशंका से ग्रस्त रहेंगे। इससे उनके मनोभावों का असन्तुलन होगा। प्रकृति भी यदि भयभीत और आशंकित रहती है तो सिकुड जाती है। उससे प्राप्त होने वाले पदार्थों की गुणवत्ता कम हो जाती है, उनकी पोषकता, सुख देने की क्षमता, उनका रस कम हो जाता है । मनुष्य को उपभोग के बाद भी आनन्द और तृप्ति का अनुभव नहीं होता इसका कारण भी यही है।
परन्तु जीवन को भौतिक दृष्टि से ही देखने के कारण पश्चिम को प्रकृति को आत्मतत्त्व का ही आविष्कार मानने की कल्पना भी नहीं आती। जब तक यह मूल बात में परिवर्तन होता नहीं तब तक दुःख और अभाव दूर नहीं हो सकते यह बात पश्चिम को भारत से ही सीखनी होगी। अपनी पश्चिमाभिमुखता दर कर भारत को भी शिक्षक की भूमिका अपनानी होगी।
व्यक्तिकेन्द्री रचना का स्वरूप
पश्चिम का स्वभाव ही है कि वह उपभोग और अधिकार के क्षेत्र को सिकुडता ही जाता है। विश्व का अधिकार क्षेत्र मनुष्यकेन्द्री बनाने के बाद क्रम आता है उसे व्यक्तिकेन्द्री बनाने का।
इस सृष्टि में मनुष्य को मनुष्येत्तर पदार्थों के साथ रहना है। इसकी व्यवस्था बिठाने के लिये उसने मनुष्येतर सृष्टि को मनुष्य का दास माना और अपना स्वामित्व प्रस्थापित किया। अब मनुष्यों के जगत की बारी है। मनुष्यों के जगत में उसने व्यक्तिकेन्द्री रचना बनाई । एक एक व्यक्ति स्वतन्त्र है । स्वतन्त्रता का अर्थ उसने कामनाओं की पूर्ति के और उपभोग के अधिकार के सन्दर्भ में बिठाया । अर्थात् हरेक यक्ति को अपनी अमर्याद कामनाओं की पूर्ति का और स्वच्छन्द उपभोग का अधिकार है।
हर व्यक्ति प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग का अधिकार केवल अपने लिये कैसे अधिक से अधिक प्राप्त हो इसका विचार करता है। इसके लिये अपनी बुद्धि, सत्ता, क्षमताओं का उपयोग करता है। जब हर व्यक्ति अपना ही अमर्याद अधिकार मानेगा तो उसका स्वाभाविक परिणाम संघर्ष ही होगा। डार्विन ने इसे ही 'सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट' - योग्यतम की जीवित रहने की सम्भावना कहा है। भौतिक जगत का यह सिद्धान्त पश्चिम सामाजिक जीवन को भी लागू करता है। पश्चिम के लिये संघर्ष जीवन का एक अनिवार्य अंग बन गया है। जीवन भी संघर्षपूर्ण हैं और सम्बन्ध भी । संघर्षपूर्ण जीवन युद्ध का मैदान है जिसमें हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध ही मोर्चा बाँधता है। हर व्यक्ति को जीतना है, और दूसरे को पराजित किये बिना जीता नहीं जाता । संघर्ष में जीतने के लिये व्यक्ति अपनी क्षमता बढाता है, साथ ही दूसरों को दुर्बल बनाने के हथकंडे भी अपनाता है। युद्ध में सबकुछ जायज है यह उसकी नीति है।
कुछ भी प्राप्त करने के लिये संघर्ष करना पडता है इस मूल धारणा के कारण विकास हेतु स्पर्धा अनिवार्य बन गई है। स्पर्धा का तत्त्व इतना प्रतिष्ठित हो गया है कि हम आज के युग को स्पर्धा का युग कहने लगे हैं । संघर्ष हेतु स्पर्धा और स्पर्धा के लिये संघर्ष का सिलसिला चल पडा है। इसका प्रभाव मानसिकता पर बहुत गहरा हुआ है। हों न हों सर्वत्र सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होने के भगीरथ प्रयास चल रहे है। प्रथम क्रमांक, प्रथम दस स्थान, प्रथम एक सौ स्थान आदि की भाषा इतनी सहज हो गई है कि अब उसमें कुछ भी नया या असाधारण नहीं लगता । विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिये, नौकरी में नियुक्ति के लिये, किसी भी विषय का पुरस्कार प्राप्त करने के लिये, अपने उत्पाद की बिक्री के लिये गलाकाट स्पर्धा में उतरना पड़ता है। सर्वश्रेष्ठ स्थान बनाने के लिये स्पर्धा में भी बने रहना पड़ता है। स्पर्धा में जीतना युद्ध में जीतने से भी अधिक महत्त्व रखता है।
स्पर्धा का मानसिक स्थिति पर बहुत विपरीत प्रभाव होता है। मानसिक स्वस्थता, शान्ति, आश्वस्ति, सन्तुष्टि आदि का लेशमात्र अनुभव नहीं होता है। इसके परिणामस्वरूप अनेक प्रकार की शारीरिक बिमारियाँ उत्पन्न होती हैं । मधुमेह उच्च रक्तचाप, हृदयविकार, यहाँ तक कि कर्करोग जैसी असाध्य या दुःसाध्य बिमारियाँ इसी श्रेणी में आती हैं। हम देख ही रहे हैं कि इनकी व्याप्ति विश्वभर में हो गई है। निरन्तर तनाव, उत्तेजना, निराशा, हताशा अनिद्रा, पागलपन आदि इसके परिणाम हैं। यह आत्मघात के ही विभिन्न स्तर है। विश्व इस स्थिति में पहुँच गया है परन्तु इसके स्रोत से बेखबर है। कुछ लोग जानते हैं परन्तु वे उपाय नहीं करते क्योंकि वे इस स्थिति के लाभार्थी होते हैं। कुछ लोग जानते हैं परन्तु उपाय नहीं कर पाते । कुल मिलाकर इस चक्र में फँसा विश्व मुक्त होने के लिये कुछ नहीं कर सकता।
स्पर्धा से संघर्ष और संघर्ष से हिंसा अनिवार्य है। सीधी मारामारी, सशस्त्र संग्राम, खुली लूट आदि से बचने के लिये कुछ उपाय करने की आवश्यकता होती है। सभ्य भी दिखना है । प्राणों की रक्षा भी करनी है । इसलिये पश्चिम ने सामाजिक करार का सिद्धान्त बनाया है। व्यक्ति केन्द्री जीवन होने पर भी व्यक्ति की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति दूसरे व्यक्तियों से ही होती है। इससे एक आपसी लेनदेन का व्यवहार बनता है । लेनदेन के व्यवहार में स्वयं को घाटा न हो इसका ध्यान हर व्यक्ति की चिन्ता का विषय होता है। इस दृष्टि से कानून बनाये जाते हैं, कानून का पालन करना सबके लिये अनिवार्य बनाया जाता है, पालन नहीं करने पर मुकद्दमा चलता है, न्याय होता है और दण्ड दिया जाता है। व्यक्ति के हितों की रक्षा के लिये यह सारी व्यवस्था की जाती है न कि समाजहित के लिये ।।
लेनदेन का यह व्यवहार तो अनिवार्य है परन्तु इसमें हर व्यक्ति की विशिष्ट मानसिकता बनती है। लेनदेन के व्यवहार में लेना और देना बराबर हो यह न्यायसंगत है, परन्तु हर व्यक्ति चाहता है कि उसे कम से कम देना पड़े और अधिक से अधिक मिले । यदि उसका बस चले तो सब कुछ ले और कुछ भी न दे, परन्तु यह तो सम्भव नहीं है । इसलिये कम से कम देने और अधिक से अधिक लेने की युक्तिप्रयुक्ति चलती है। लेनदेन के सौदे यदि घाटे के बनने लगे तो व्यक्ति चाहता है कि करार ही भंग कर दिया जाय, नुकसान भरपाई कर दी जाय और नया करार कर दिया जाय । सारे सामाजिक सम्बन्ध करार के आधार पर ही बनते हैं और भंग भी होते हैं। इसमें भावुकता को कदाचित ही कोई स्थान होता है, अतः सम्बन्ध बिगडते नहीं है, केवल भंग होते हैं समाप्त होते हैं।
पतिपत्नी का सम्बन्ध करार है, मातापिता और सन्तानों का सम्बन्ध करार है, शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध करार है, व्यापारी और ग्राहक का सम्बन्ध करार है, मालिक और नौकर का सम्बन्ध करार है तथा शासक और प्रजा का सम्बन्ध भी करार है।
संसद, न्यायालय, वकील, पुलीस, कैदखाने के आधार पर यह करार की व्यवस्था चलती है। यही 'रूल ऑफ लॉ" - कानून का राज्य है जिसे आदर्श व्यवस्था का नाम दिया जाता है। वास्तव में यह मनुष्य को कृपण, अमानवीय, स्वार्थी, असुरक्षित बना देती है।
मनुष्य केन्द्री रचना में जिस प्रकार मनुष्य प्रकृति को अपने उपभोग का साधन मानता है उस प्रकार व्यक्तिकेन्द्री रचना में व्यक्ति अन्य व्यक्तियों को अपनी कामना की पूर्ति का साधन मानता है। यह उपयोगितावाद का सिद्धान्त है जो पदार्थों और मनुष्यों को समान रूप से लागू होता है। व्यक्ति के स्वार्थ की पूर्ति के लिये दूसरा मनुष्य जितना उपयोगी है उतना ही और जब तक उपयोगी है, तब तक ही उसका मूल्य है और तब तक ही उसके साथ सम्बन्ध है, निष्ठा, मैत्री, वफादारी, श्रद्धा आदि सब उसमें ही समाहित हैं।
मनुष्यकेन्द्री और व्यक्तिकेन्द्री के साथ साथ पश्चिम पुरुषकेन्द्री भी है । यह आश्चर्य की बात है, अथवा नहीं भी है कि आदम की पसली को लेकर भगवानने ईव को बनाया इसलिये स्त्री पुरुष का ही एक हिस्सा है, उसका स्वतन्त्र अस्तिव नहीं है । पुरुष के लिये स्त्री भोग्य है, एक पदार्थ है। उन्नीसवीं शताब्दी तक स्त्री को मताधिकार भी नहीं था।
उन्नीसवीं शताब्दी में जिस प्रकार औद्योगिक क्राति हुई उसी प्रकार से सामाजिक क्षेत्र में स्त्रीमुक्ति, स्त्रीस्वतन्त्रता, स्त्री पुरुष समानता के लिये भी आन्दोलन हुए। परिणामस्वरूप आज पश्चिम में स्त्री और पुरुष समान हैं, एक दूसरे से स्वतन्त्र हैं और उनके समान अधिकार हैं । भारत के समान स्त्री और पुरुष एकदूसरे के पूरक नहीं है।
समाज व्यक्ति के लिये है, कानून व्यक्ति के लिये है, व्यवस्थायें व्यक्ति के लिये हैं। सारी दुनिया मेरे लिये हैं मैं दुनिया के लिये नहीं हूँ ऐसा विचार करता है।
पश्चिम की इस सोच को भारत बहुत आश्चर्य और खेदपूर्वक देखता है। इस व्यवस्था के पीछे नासमझी के अलावा और कुछ नहीं है ऐसी ही भारत की सोच है। भारत का विचार पश्चिम के विचार से सर्वथा दूसरी दिशा का है। भारत के लिये समाज करार के नहीं अपितु एकात्मता के सिद्धान्त पर बनी रचना है । वह आत्मतत्त्व का विश्वरूप है। यहाँ सारे सम्बन्ध आत्मीयता के हैं । व्यक्ति 'मेरे लिये समाज' के स्थान पर 'समाज के लिये मैं', 'मेरे लिये अन्य व्यक्ति' के स्थान पर 'अन्य व्यक्तियों के लिये मैं' की सोच रखता है। यहाँ पति और पत्नी व्यक्ति के रूप में अपूर्ण हैं और दोनों मिलकर ही पूर्ण बनते हैं। विवाह यहां करार नहीं है, संस्कार हैं। मातापिता और सन्ताने परम्परा बनाये रखने वाली शृंखला की कड़ियाँ हैं और एकदूसरे से अभिन्न है। सम्पूर्ण समाज, अपने सभी आयामों में परिवारभावना से सम्बन्धित है। यहाँ संघर्ष नहीं, समन्वय मूल बात है। विश्वास, परस्पर पूरकता, परस्परावलम्बन, दूसरे का विचार प्रथम करना ये सामाजिक मूल्य हैं। यहाँ समृद्धि और संस्कृति एक साथ रहते हैं। संस्कृतिनिष्ठा सबके लिये समान रूप से अनिवार्य बात है।
पश्चिम को सुखी, स्वस्थ, समृद्ध और सुसंस्कृत बनने के लिये भारत की समाजव्यवस्था के मूल सिद्धान्तों को समझने की आवश्यकता है। इसकी चर्चा स्वतन्त्र रूप से करने की आवश्यकता है।
स्त्री के प्रति देखने का दृष्टिकोण
इक्कीसवीं शताब्दी की विश्व के अनेक देशों की स्त्रियों को तथा विशेष रूप से भारत के पुरुषों को यह जानकर हैरानी हो सकती है कि बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के वर्षों तक यूरोप में ऐसा माना जाता था कि स्त्री में आत्मा नहीं है, स्त्री एक पदार्थ है और अन्य पदार्थों की तरह पुरुष के लिये भोग्य वस्तु है। उन्नीसवीं शताब्दी में औद्योगिक क्रान्ति के साथ साथ ही सामाजिक नवजागृति आई और स्त्रियों की मुक्ति - दासता से मुक्ति - का प्रश्न महत्त्वपूर्ण बन गया।
विडम्बना यह है कि स्त्री हेय है, निम्न स्तर की है पुरुष के सामने गौण है, उसमें बुद्धि नहीं है, वह अबला है, आश्रिता है ऐसा भारत की स्त्रियों के लिये कहा गया और स्त्रीमुक्ति का आन्दोलन धार्मिक समाज पर थोपा गया । भारत में स्त्रियों को दासता से मुक्त करने हेतु स्त्रीशिक्षा का प्रारम्भ किया गया, स्त्रीपुरुष सम्बन्ध ठीक करने हेतु अनेक कानून बनाये गये और भारत के सामाजिक जीवन में भारी उथलपुथल हो गई।
उन्नीसवीं शताब्दी से इक्कीसवीं शताब्दी तक आते आते अब स्त्री की स्थिति में भारी अन्तर आ गया है यह बात सत्य है। परन्तु यह स्थिति आश्वस्त करने वाली है ऐसा हम नहीं कह सकते । अब स्त्री दासी, भोग्या या आत्माहीन पदार्थ नहीं रही। परन्तु वह स्त्री भी नहीं रही। अब वह एक व्यक्ति है, एक मनुष्य है, एक सत्ता है परन्तु स्त्री के व्यक्ति, मनुष्य, सत्ता होने के मापदण्ड पुरुष के हैं। वह स्त्री के शरीर धारण करते हुए पुरुष बन गई है । उसे वे सारे अधिकार प्राप्त हुए हैं जो पुरुष के हैं। उसे स्त्री के अधिकार नहीं मिले हैं। वही शिक्षा, वही अवसर, वही व्यवसाय, वही सुविधायें स्त्री को प्राप्त है जो पुरुष को है।
स्त्री के लिये कुछ स्त्रीत्व के अनुकूल विशेष बातें होती हैं इसकी ओर ध्यान नहीं गया है । मानक पुरुष ही है और स्त्री को अपने आपको उन मानकों पर सिद्ध करना है।
पश्चिम भौतिक पद्धति से चीजों को देखता है इसलिये स्त्री और पुरुष में केवल जैविक और मैथुनिक अन्तर ही देखता है। शेष सारी बातें समान हैं ऐसा मानता है । स्त्रीत्व और पुरुषत्व परस्पर पूरक है, दोनों मिलकर एक बनते हैं, स्त्री के बिना पुरुष और पुरुष के बिना स्त्री अपूर्ण है, आदि सब उनकी कल्पना में भी नहीं आते । इसलिये स्त्री का विकास स्त्री की तरह और पुरुष का विकास पुरुष की तरह होना चाहिये ऐसा उनके मन में बैठता नहीं है। दोनों को पश्चिम एक ही साँचे में ढालता है । इसे ही वह समानता और स्वतन्त्रता कहता है।
इस आधार पर जब परिवार, व्यवसाय, समाज, कानून, आदि की रचना होती है तब वह यान्त्रिक और शिथिल बनती है। उसमें भावात्मक सम्बन्ध निर्माण नहीं होते । इस स्थिति में सभ्यता का विकास भले ही हो जाय, संस्कृति का नहीं होता। बिना संस्कृति के सभ्यता बिना देवप्रतिमा के भव्य मन्दिर जैसी होती है।।
पश्चिम को यदि विनाश से बचना है, सुसंस्कृत होना है, स्वस्थ और समृद्ध समाज बनना है, सुख और शान्ति का अनुभव करना है तो उसे अपने सामाजिक जीवन के बारे में भारत से अनेक बातें सीखनी होंगी। परन्तु पश्चिम भारत से सीखे उससे पूर्व भारत को भी ये बातें पुनः सीखनी होंगी। जब से भारत में पश्चिम की शिक्षा प्रतिष्ठित हुई है, भारत ने अपनी अनेक अमूल्य बातों का त्याग कर पश्चिम की निकृष्ट बातों को अपनाया है, उन्हें प्रतिष्ठा दी है, आधुनिक मानकर उनका सम्मान किया है। अब भारत को अपने आप के विषय में पुनर्विचार करना होगा।
इस दृष्टि से पश्चिम की स्त्री का आदर्श छोडना होगा, उसे जो महिमा मण्डित किया जाता है उसके बारे में चिंतन करना होगा । पश्चिम की स्त्री की अवधारणा भारत में कभी नहीं रही है। एक ही परमात्मतत्त्व स्त्रीधारा और पुरुषधारा के रूप में विभाजित हुआ है और दोनो मिलकर ही एक बनते हैं ऐसा प्रारम्भ काल से ही भारत में माना जाता रहा है।
स्त्री विषयक पश्चिम की अवधारणा को नकारने के कुछ निहितार्थ हैं।
- परिवार विषयक संकल्पना को छोड़ना
- विवाह विषयक कानूनों को बदलना
- समाजरचना के पश्चिम के सिद्धान्तों का त्याग करना
- स्त्री के सन्दर्भ में पुरुष और पुरष के सन्दर्भ में स्त्री के बारे में पुनर्विचार करना
विश्वविद्यालयों के सामाजिक अध्ययन के विभागों में, बौद्धिक समूहों में, धर्मसभाओं में इस विषय का ऊहापोह करना होगा । पश्चिम की संकल्पना को नकारने के लिये जितना बौद्धिक पुरुषार्थ करना पड़ेगा उससे भी अधिक मनोवैज्ञानिक परिश्रम करना पड़ेगा, जितना पुरुष वर्ग को उतना ही स्त्री वर्ग को चिन्तन करना पड़ेगा । यह मामला मनःस्थिति और परिस्थिति दोनों क्षेत्रों में उलझा हुआ है। उसे सुलझाने के लिये पर्याप्त धैर्य चिन्तन, अपनी परम्परा के गौरव, आत्मविश्वास और हीनताबोध से मुक्ति की आवश्यकता रहेगी।
References
धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५): पर्व ३: अध्याय २६, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे