Difference between revisions of "आलेख"

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search
(re-categorising)
m (Text replacement - "बच्चो" to "बच्चों")
Tags: Mobile edit Mobile web edit
 
(6 intermediate revisions by the same user not shown)
Line 1: Line 1:
{{ToBeEdited}}
 
__NOINDEX__
 
 
{{One source}}
 
{{One source}}
  
=== अध्याय १६ ===
+
=== आलेख १ - अर्थकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम ===
 
+
* भगवान ने हाथ काम करने के लिये दिये हैं इसलिये हाथ से काम करना अनिवार्य है और अच्छा है<ref>धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३, अध्याय १६): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>; इस बात को स्वीकार करना चाहिये।
=== पर्व ५ ===
 
 
 
==== विविध ====
 
प्रथम पर्व के प्रकाश में दूसरे, दूसरे के प्रकाश में तीसरे इस प्रकार क्रमशः पर्यों की रचना हुई है । यह पाँचवा पर्व एक दृष्टि से समापन पर्व है ।
 
 
 
इस पर्व में कुछ आलेख दिये गये हैं समस्त शिक्षाविचार को सूत्ररूप में प्रस्तुत करते हैं । इनका प्रयोग स्वतन्त्ररूप में भी किया जा सकता है । इनके आधार पर स्थान स्थान पर चर्चा की जा सकती है ।
 
 
 
साथ ही जिनके माध्यम से इस ग्रन्थ के अनेक विषयों में व्यापक सहभागिता प्राप्त करने का प्रयास हुआ उन प्रश्नावलियों को भी एक साथ रखा गया है । विभिन्न समूहों में इन विषयों पर चर्चा के प्रवर्तन हेतु इनका उपयोग सुलभ बने इस दृष्टि से यह प्रयास किया है।
 
 
 
इस पर्व का, और इस ग्रन्थ का समापन एक सर्वसामान्य प्रश्नोत्तरी से होता है । ये प्रश्न ऐसे हैं जिनकी सर्वत्र चर्चा होती है और सब अपनी अपनी द्रष्टि से उनके उत्तर खोजते हैं । यहाँ धार्मिक शैक्षिक दृष्टि से इन प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास किया गया है । अपेक्षा यह है कि शिक्षा के विषय में केवल चिन्ता करने के स्थान पर हम यथासम्भव, यथाशीघ्र प्रत्यक्ष परिवर्तन करने का प्रारम्भ करें ।
 
 
 
=== अनुक्रमणिका ===
 
१६. आलेख
 
 
 
१७. धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
१८. प्रश्नावलि एक सर्वसामान्य प्रश्नोत्तरी
 
 
 
अध्याय १६
 
 
 
=== आलेख १ ===
 
 
 
==== अर्थकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम ====
 
* भगवान ने हाथ काम करने के लिये दिये हैं इसलिये हाथ से काम करना अनिवार्य है और अच्छा है इस बात का स्वीकार करना चाहिये।
 
 
* घर में और विद्यालय में शिशुअवस्था से ही हाथ से काम करना सिखाना चाहिये ।
 
* घर में और विद्यालय में शिशुअवस्था से ही हाथ से काम करना सिखाना चाहिये ।
* हाथ से काम करने वाला न करने वाले से श्रेष्ठ है ऐसा मानस बनना चाहिये ।  
+
* हाथ से काम करने वाला, न करने वाले से श्रेष्ठ है ऐसा मानस बनना चाहिये ।  
* काम करने वाले हाथ में ही लक्ष्मी, सरस्वती और लक्ष्मीपति का वास है यह तथ्य समझना चाहिये।  
+
* काम करने वाले हाथ में ही लक्ष्मी, सरस्वती और लक्ष्मीपति का वास है, यह तथ्य समझना चाहिये।  
 
* श्रेष्ठ समाज समृद्ध समाज होता है। समाज को समृद्ध बनाने हेतु अर्थकरी शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिये।  
 
* श्रेष्ठ समाज समृद्ध समाज होता है। समाज को समृद्ध बनाने हेतु अर्थकरी शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिये।  
* समृद्धि, धर्म और संस्कृति के अविरोधी होनी चाहिये । धर्म अर्थ से श्रेष्ठ माना जाना चाहिये।  
+
* समृद्धि, धर्म और संस्कृति की अविरोधी होनी चाहिये । धर्म अर्थ से श्रेष्ठ माना जाना चाहिये।  
* भौतिक पदार्थों के उत्पादन पर आधारित समृद्धि होनी चाहिये । अनेक सांस्कृतिक बातें अर्थ से परे होनी चाहिये ।  
+
* भौतिक पदार्थों के उत्पादन पर आधारित समृद्धि होनी चाहिये। अनेक सांस्कृतिक बातें अर्थ से परे होनी चाहिये ।  
 
* समाज में केवल गृहस्थ को ही अर्थार्जन करने का अधिकार है, शेष तीनों आश्रम गृहस्थ के आश्रित है।  
 
* समाज में केवल गृहस्थ को ही अर्थार्जन करने का अधिकार है, शेष तीनों आश्रम गृहस्थ के आश्रित है।  
* हर गृहस्थ को अर्थार्जन करना ही चाहिये । परन्तु शिक्षक, वैद्य, पुरोहित, न्यायाधीश भिक्षावृत्ति से और राजा तथा अमात्य वर्ग चाकरी वृत्ति (नौकरी) से अर्थार्जन करेंगे।  
+
* हर गृहस्थ को अर्थार्जन करना ही चाहिये। परन्तु शिक्षक, वैद्य, पुरोहित, न्यायाधीश भिक्षावृत्ति से और राजा तथा अमात्य वर्ग चाकरी वृत्ति (नौकरी) से अर्थार्जन करेंगे।  
 
* देश की प्राकृतिक सम्पदा, मनुष्य के हाथों की कारीगरी की कुशलता और मनुष्य की बुद्धि की निर्माणक्षमता आर्थिक समृद्धि के मूल आधार हैं।  
 
* देश की प्राकृतिक सम्पदा, मनुष्य के हाथों की कारीगरी की कुशलता और मनुष्य की बुद्धि की निर्माणक्षमता आर्थिक समृद्धि के मूल आधार हैं।  
 
* अर्थकरी शिक्षा उत्पादन केन्द्रों में, वाणिज्य के केन्द्रों में और शासन के केन्द्रों में दी जानी चाहिये।  
 
* अर्थकरी शिक्षा उत्पादन केन्द्रों में, वाणिज्य के केन्द्रों में और शासन के केन्द्रों में दी जानी चाहिये।  
 
* देश की अर्थनीति विश्वविद्यालयों में बननी चाहिये, उसका क्रियान्वयन राज्य द्वारा होना चाहिये और उसका पालन प्रजा द्वारा होना चाहिये।
 
* देश की अर्थनीति विश्वविद्यालयों में बननी चाहिये, उसका क्रियान्वयन राज्य द्वारा होना चाहिये और उसका पालन प्रजा द्वारा होना चाहिये।
  
=== आलेख २ ===
+
=== आलेख २ - कामकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम ===
 
 
==== कामकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम ====
 
 
* काम का अर्थ केवल जातीयता नहीं है । सृजन के मूल संकल्प के रूप में वह सृष्टि में प्रथम उत्पन्न हुआ है । उसका आदरपूर्वक स्वीकार करना चाहिये ।  
 
* काम का अर्थ केवल जातीयता नहीं है । सृजन के मूल संकल्प के रूप में वह सृष्टि में प्रथम उत्पन्न हुआ है । उसका आदरपूर्वक स्वीकार करना चाहिये ।  
 
* काम अनन्तकोटि कामना अर्थात् इच्छाओं का रूप धारण कर मनुष्य के मन में प्रतिष्ठित हुआ है। काम की शिक्षा मुख्य रूप से मन की शिक्षा है।  
 
* काम अनन्तकोटि कामना अर्थात् इच्छाओं का रूप धारण कर मनुष्य के मन में प्रतिष्ठित हुआ है। काम की शिक्षा मुख्य रूप से मन की शिक्षा है।  
* कामनायें उपभोग करने से कभी शान्त नहीं होतीं। कामनायें कभी समाप्त नहीं होतीं । कामनाओं को संयमित करना ही मनुष्य का लक्ष्य होना चाहिये । इसीको मनःसंयम कहते हैं।  
+
* कामनायें उपभोग करने से कभी शान्त नहीं होतीं। कामनायें कभी समाप्त नहीं होतीं । कामनाओं को संयमित करना ही मनुष्य का लक्ष्य होना चाहिये । इसी को मनःसंयम कहते हैं।  
 
* सन्तोष मनःसंयम का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है। सन्तोष से ही सुख, शान्ति, प्रसन्नता प्राप्त हो सकते हैं।  
 
* सन्तोष मनःसंयम का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है। सन्तोष से ही सुख, शान्ति, प्रसन्नता प्राप्त हो सकते हैं।  
 
* मनःसंयम हेतु ध्यान, जप, सत्संग, सेवा, स्वाध्याय, ॐकार उच्चारण और सात्त्विक आहार अनिवार्य है।  
 
* मनःसंयम हेतु ध्यान, जप, सत्संग, सेवा, स्वाध्याय, ॐकार उच्चारण और सात्त्विक आहार अनिवार्य है।  
Line 55: Line 27:
 
* काम हमारा नियन्त्रण न करे अपितु हमारे नियन्त्रण में रहे तो वह बडी शक्ति है जो अनेक असम्भव बातों को सम्भव बनाती है।
 
* काम हमारा नियन्त्रण न करे अपितु हमारे नियन्त्रण में रहे तो वह बडी शक्ति है जो अनेक असम्भव बातों को सम्भव बनाती है।
  
=== आलेख ३ ===
+
=== आलेख ३ -धर्मकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम ===
 
+
* धर्म केवल सम्प्रदाय नहीं है। सम्प्रदाय धर्म का एक अंग है। धर्म विश्वनियम है, विश्वव्यवस्था है । वह सृष्टि को और प्रजा को धारण करता है।  
==== धर्मकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम ====
 
* धर्म केवल सम्प्रदाय नहीं है । सम्प्रदाय धर्म का एक अंग है। धर्म विश्वनियम है, विश्वव्यवस्था है । वह सृष्टि को और प्रजा को धारण करता है।  
 
 
* सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही सृष्टि को धारण करने वाले धर्म की उत्पत्ति हुई है। यह सृष्टिधर्म है । इसके ही अनुसरण में समष्टि को धारण करने वाले समष्टि धर्म की उत्पत्ति हुई है।  
 
* सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही सृष्टि को धारण करने वाले धर्म की उत्पत्ति हुई है। यह सृष्टिधर्म है । इसके ही अनुसरण में समष्टि को धारण करने वाले समष्टि धर्म की उत्पत्ति हुई है।  
 
* बने रहने के लिये, अभ्युदय प्राप्त करने के लिये, कल्याण को प्राप्त करने के लिये मनुष्य को धर्म का पालन करना अनिवार्य है।  
 
* बने रहने के लिये, अभ्युदय प्राप्त करने के लिये, कल्याण को प्राप्त करने के लिये मनुष्य को धर्म का पालन करना अनिवार्य है।  
 
* धर्म की रक्षा करने से ही धर्म हमारी रक्षा करता है । धर्म के पालन से ही धर्म की रक्षा होती है।  
 
* धर्म की रक्षा करने से ही धर्म हमारी रक्षा करता है । धर्म के पालन से ही धर्म की रक्षा होती है।  
* समष्टि धर्म का एक आयाम कर्तव्यपालन है । समष्टि की धारणा हेतु हर व्यक्ति को अपनी अपनी भूमिका अनुसार कर्तव्य प्राप्त हुए हैं। ये कर्तव्य ही उसका धर्म है। जैसे कि पुत्रधर्म, शिक्षकधर्म, राजधर्म, व्यवसायधर्म आदि।  
+
* समष्टि धर्म का एक आयाम कर्तव्यपालन है। समष्टि की धारणा हेतु हर व्यक्ति को अपनी अपनी भूमिका अनुसार कर्तव्य प्राप्त हुए हैं। ये कर्तव्य ही उसका धर्म है। जैसे कि पुत्रधर्म, शिक्षकधर्म, राजधर्म, व्यवसायधर्म आदि।  
 
* धर्म का एक अर्थ स्वभाव है। स्वभाव जन्मजात होता है। स्वभाव के अनुसार स्वधर्म होता है। हर व्यक्ति को अपने धर्म का ही पालन करना चाहिये, पराये धर्म का नहीं।  
 
* धर्म का एक अर्थ स्वभाव है। स्वभाव जन्मजात होता है। स्वभाव के अनुसार स्वधर्म होता है। हर व्यक्ति को अपने धर्म का ही पालन करना चाहिये, पराये धर्म का नहीं।  
 
* धर्म का एक अर्थ न्याय, नीति और सदाचार का पालन करना है। धर्म का एक आयाम सम्प्रदाय है।  
 
* धर्म का एक अर्थ न्याय, नीति और सदाचार का पालन करना है। धर्म का एक आयाम सम्प्रदाय है।  
Line 70: Line 40:
 
* इन सभी बातों की शिक्षा हर स्तर पर अनिवार्य बननी चाहिये । तभी समाज का भला होगा।
 
* इन सभी बातों की शिक्षा हर स्तर पर अनिवार्य बननी चाहिये । तभी समाज का भला होगा।
  
=== आलेख ४ ===
+
=== आलेख ४-भवननिर्माण के मूल सूत्र ===
 
 
==== भवननिर्माण के मूल सूत्र ====
 
 
* विद्यालय की पहचान भवन से नहीं, शिक्षा से होनी चाहिये । भवन साधन है, साध्य नहीं।  
 
* विद्यालय की पहचान भवन से नहीं, शिक्षा से होनी चाहिये । भवन साधन है, साध्य नहीं।  
 
* विद्यालय का भवन ज्ञान और विद्या को प्रकट करनेवाला होना चाहिये, प्रासाद, दुकान या कार्यालय नहीं लगना चाहिये।  
 
* विद्यालय का भवन ज्ञान और विद्या को प्रकट करनेवाला होना चाहिये, प्रासाद, दुकान या कार्यालय नहीं लगना चाहिये।  
 
* विद्यालय का भवन शैक्षिक गतिविधियों के अनुरूप होना चाहिये, आवास के अनुकूल नहीं।  
 
* विद्यालय का भवन शैक्षिक गतिविधियों के अनुरूप होना चाहिये, आवास के अनुकूल नहीं।  
* स्वच्छता और पवित्रता विद्यालय भवन के मूल आधार बनने चाहिये ।
+
* स्वच्छता और पवित्रता विद्यालय भवन के मूल आधार बनने चाहिये।
* विद्यालय का भवन प्राकृतिक पदार्थों से बनना चाहिये । रेत, चूना, मिट्टी, पथ्थर, लकडी प्राकृतिक पदार्थ हैं जबकि सिमेण्ट, लोहा, सनमाइका कृत्रिम । कृत्रिम पदार्थ पर्यावरण का प्रदूषण करते हैं।  
+
* विद्यालय का भवन प्राकृतिक पदार्थों से बनना चाहिये। रेत, चूना, मिट्टी, पत्थर, लकडी प्राकृतिक पदार्थ हैं जबकि सिमेण्ट, लोहा, सनमाइका कृत्रिम । कृत्रिम पदार्थ पर्यावरण का प्रदूषण करते हैं।  
* विद्यालय के भवन में तापमान नियन्त्रण की प्राकृतिक व्यवस्था होनी चाहिये । भवन की वास्तुकला ऐसी होनी चाहिये कि दिन में भी विद्युत प्रकाश की आवश्यकता न रहे और ग्रीष्म ऋतु में भी पंखों की आवश्यकता न पडे।
+
* विद्यालय के भवन में तापमान नियन्त्रण की प्राकृतिक व्यवस्था होनी चाहिये । भवन की वास्तुकला ऐसी होनी चाहिये कि दिन में भी विद्युत प्रकाश की आवश्यकता न रहे और ग्रीष्म ऋतु में भी पंखों की आवश्यकता न पड़े।
 
* विद्यालय के भवन में सादगी होनी चाहिये, वैभव नहीं, सौन्दर्य होना चाहिये, विलासिता नहीं।  
 
* विद्यालय के भवन में सादगी होनी चाहिये, वैभव नहीं, सौन्दर्य होना चाहिये, विलासिता नहीं।  
 
* भवन निर्माण के धार्मिक शास्त्र के अनुसार भवन बनना चाहिये । वास्तुशास्त्र का भी अनुसरण करना चाहिये।  
 
* भवन निर्माण के धार्मिक शास्त्र के अनुसार भवन बनना चाहिये । वास्तुशास्त्र का भी अनुसरण करना चाहिये।  
Line 85: Line 53:
 
* विद्यालय के भवन को मिट्टी युक्त आँगन या मैदान होना चाहिये सब कुछ पथ्थर से बन्द नहीं कर देना चाहिये।
 
* विद्यालय के भवन को मिट्टी युक्त आँगन या मैदान होना चाहिये सब कुछ पथ्थर से बन्द नहीं कर देना चाहिये।
  
=== आलेख ५ ===
+
=== आलेख ५-स्पर्धा होनी चाहिये या नहीं ===
 
 
==== स्पर्धा होनी चाहिये या नहीं ====
 
 
* हम स्पर्धा को पुरुषार्थ का प्रेरक तत्त्व मानते हैं परन्तु यह सत्य नहीं है । स्पर्धा संघर्ष की और, संघर्ष हिंसा की ओर तथा हिंसा विनाश की ओर ले जाती है। इसलिये स्पर्धा का त्याग करना चाहिये।  
 
* हम स्पर्धा को पुरुषार्थ का प्रेरक तत्त्व मानते हैं परन्तु यह सत्य नहीं है । स्पर्धा संघर्ष की और, संघर्ष हिंसा की ओर तथा हिंसा विनाश की ओर ले जाती है। इसलिये स्पर्धा का त्याग करना चाहिये।  
* विद्यालयों में स्पर्धा का तत्त्व बहुत लोकप्रिय और प्रतिष्ठित बन गया है । स्पर्धा का अर्थ नहीं समझने वाले बच्चों के लिये भी स्पर्धा का आयोजन होता है । इसका सर्वथा त्याग करना चाहिये।  
+
* विद्यालयों में स्पर्धा का तत्त्व बहुत लोकप्रिय और प्रतिष्ठित बन गया है । स्पर्धा का अर्थ नहीं समझने वाले बच्चोंं के लिये भी स्पर्धा का आयोजन होता है । इसका सर्वथा त्याग करना चाहिये।  
* स्पर्धा सर्वश्रेष्ठ बनने के लिये होती है, श्रेष्ठ बनने के लिये नहीं । व्यक्ति को श्रेष्ठ बनना चाहिये, सर्वश्रेष्ठ नहीं। '
+
* स्पर्धा सर्वश्रेष्ठ बनने के लिये होती है, श्रेष्ठ बनने के लिये नहीं । '''व्यक्ति को श्रेष्ठ बनना चाहिये, सर्वश्रेष्ठ नहीं।'''
 
* 'स्वस्थ स्पर्धा' यह शब्दसमूह निरर्थक है, आकाश कुसुम या शशशृंग की तरह । आकाश में कभी फूल नहीं खिलता और खरगोश को कभी सिंग नहीं होते उसी प्रकार स्पर्धा कभी स्वस्थ नहीं होती।  
 
* 'स्वस्थ स्पर्धा' यह शब्दसमूह निरर्थक है, आकाश कुसुम या शशशृंग की तरह । आकाश में कभी फूल नहीं खिलता और खरगोश को कभी सिंग नहीं होते उसी प्रकार स्पर्धा कभी स्वस्थ नहीं होती।  
 
* खेलों में स्पर्धा होती है तब खेलना महत्त्वपूर्ण नहीं रहता जीतना महत्त्वपूर्ण बन जाता है। पढ़ाई में स्पर्धा होती है तब पढना महत्त्वपूर्ण नहीं रहता जीतना महत्वपूर्ण बन जाता है । जीतने का सिद्धान्त होता है किसी भी प्रकार से दूसरों को हराना ।  
 
* खेलों में स्पर्धा होती है तब खेलना महत्त्वपूर्ण नहीं रहता जीतना महत्त्वपूर्ण बन जाता है। पढ़ाई में स्पर्धा होती है तब पढना महत्त्वपूर्ण नहीं रहता जीतना महत्वपूर्ण बन जाता है । जीतने का सिद्धान्त होता है किसी भी प्रकार से दूसरों को हराना ।  
Line 98: Line 64:
 
* आज असम्भव लगता है तो भी विद्यालय से स्पर्धा का निष्कासन करने की आकांक्षा रखनी चाहिये और उसके लिये पुरुषार्थ करना चाहिये ।
 
* आज असम्भव लगता है तो भी विद्यालय से स्पर्धा का निष्कासन करने की आकांक्षा रखनी चाहिये और उसके लिये पुरुषार्थ करना चाहिये ।
  
=== आलेख ६ ===
+
=== आलेख ६-परीक्षा के सम्बन्ध में पुनर्विचार ===
 
 
==== परीक्षा के सम्बन्ध में पुनर्विचार ====
 
 
* परीक्षा शिक्षा का एकमेव अथवा मुख्य अंग नहीं है । परीक्षा में उत्तीर्ण होना एकमेव लक्ष्य नहीं है।  
 
* परीक्षा शिक्षा का एकमेव अथवा मुख्य अंग नहीं है । परीक्षा में उत्तीर्ण होना एकमेव लक्ष्य नहीं है।  
 
* परीक्षा आवश्यकता पड़ने पर ही ली जानी चाहिये, स्वाभाविक क्रम में नहीं। अध्ययन परीक्षा के लिये नही ज्ञान के लिए होना चाहिये ।  
 
* परीक्षा आवश्यकता पड़ने पर ही ली जानी चाहिये, स्वाभाविक क्रम में नहीं। अध्ययन परीक्षा के लिये नही ज्ञान के लिए होना चाहिये ।  
* विद्यार्थी को ज्ञान प्राप्त हुआ है कि नहीं वह शिक्षक, मातापिता और समाज उसके व्यवहार से सहज ही जान सकते हैं, परीक्षा एक कृत्रिम व्यवस्था है।  
+
* विद्यार्थी को ज्ञान प्राप्त हुआ है कि नहीं, वह शिक्षक, मातापिता और समाज उसके व्यवहार से सहज ही जान सकते हैं, परीक्षा एक कृत्रिम व्यवस्था है।  
 
* नौकरी है इसलिये स्पर्धा है, स्पर्धा है इसलिये परीक्षा है । यहाँ ज्ञान या कौशल का कोई सम्बन्ध नहीं है।  
 
* नौकरी है इसलिये स्पर्धा है, स्पर्धा है इसलिये परीक्षा है । यहाँ ज्ञान या कौशल का कोई सम्बन्ध नहीं है।  
* येनकेन प्रकारेण परीक्षा में उत्तीर्ण होना है तब अनेक प्रकार के दूषण पनपते हैं । ज्ञान  
+
* येनकेन प्रकारेण परीक्षा में उत्तीर्ण होना है तब अनेक प्रकार के दूषण पनपते हैं । ज्ञान और चरित्र से उसका कोई लेनादेना नहीं होता ।  
* और चरित्र से उसका कोई लेनादेना नहीं होता ।  
 
 
* परीक्षा शिक्षा के तन्त्र पर इतनी हावी हो गई है कि अब सब परीक्षार्थी ही हैं, विद्यार्थी नहीं । हमें विद्यार्थी चाहिये, परीक्षार्थी नहीं।  
 
* परीक्षा शिक्षा के तन्त्र पर इतनी हावी हो गई है कि अब सब परीक्षार्थी ही हैं, विद्यार्थी नहीं । हमें विद्यार्थी चाहिये, परीक्षार्थी नहीं।  
* परीक्षा को अर्थपूर्ण बनाने के लिये उसे उद्देश्य के साथ जोडना चाहिये, पाठ्यक्रम  
+
* परीक्षा को अर्थपूर्ण बनाने के लिये उसे उद्देश्य के साथ जोडना चाहिये, पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों के साथ नहीं । उद्देश्य के साथ जोडने पर परीक्षा का वर्तमान स्वरूप सर्वथा अप्रस्तुत बन जायेगा।  
* और पाठ्यपुस्तकों के साथ नहीं । उद्देश्य के साथ जोडने पर परीक्षा का वर्तमान स्वरूप सर्वथा अप्रस्तुत बन जायेगा।  
 
 
* परीक्षा का वर्तमान स्वरूप अत्यन्त कृत्रिम है। उसका यथाशीघ्र त्याग करना चाहिये।  
 
* परीक्षा का वर्तमान स्वरूप अत्यन्त कृत्रिम है। उसका यथाशीघ्र त्याग करना चाहिये।  
 
* जो पढाता है वही मूल्यांकन कर सकता है यह शैक्षिक नियम है । आज जो पढाता है वह अविश्वसनीय बन गया है इसलिये जो पढाता नहीं और विद्यार्थी को जानता नहीं वह परीक्षा लेता है यह मूल्य और स्वाभाविकता दोनों का हास है।  
 
* जो पढाता है वही मूल्यांकन कर सकता है यह शैक्षिक नियम है । आज जो पढाता है वह अविश्वसनीय बन गया है इसलिये जो पढाता नहीं और विद्यार्थी को जानता नहीं वह परीक्षा लेता है यह मूल्य और स्वाभाविकता दोनों का हास है।  
Line 142: Line 104:
  
 
==References==
 
==References==
<references />धार्मिक शिक्षा : धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३), पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
+
<references />
[[Category:Education Series]]
+
 
[[Category:Dharmik Shiksha Granthmala(धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
+
[[Category:ग्रंथमाला 3 पर्व 5: विविध]]
[[Category:धार्मिक शिक्षा : धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम]]
 

Latest revision as of 22:45, 12 December 2020

आलेख १ - अर्थकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम

  • भगवान ने हाथ काम करने के लिये दिये हैं इसलिये हाथ से काम करना अनिवार्य है और अच्छा है[1]; इस बात को स्वीकार करना चाहिये।
  • घर में और विद्यालय में शिशुअवस्था से ही हाथ से काम करना सिखाना चाहिये ।
  • हाथ से काम करने वाला, न करने वाले से श्रेष्ठ है ऐसा मानस बनना चाहिये ।
  • काम करने वाले हाथ में ही लक्ष्मी, सरस्वती और लक्ष्मीपति का वास है, यह तथ्य समझना चाहिये।
  • श्रेष्ठ समाज समृद्ध समाज होता है। समाज को समृद्ध बनाने हेतु अर्थकरी शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिये।
  • समृद्धि, धर्म और संस्कृति की अविरोधी होनी चाहिये । धर्म अर्थ से श्रेष्ठ माना जाना चाहिये।
  • भौतिक पदार्थों के उत्पादन पर आधारित समृद्धि होनी चाहिये। अनेक सांस्कृतिक बातें अर्थ से परे होनी चाहिये ।
  • समाज में केवल गृहस्थ को ही अर्थार्जन करने का अधिकार है, शेष तीनों आश्रम गृहस्थ के आश्रित है।
  • हर गृहस्थ को अर्थार्जन करना ही चाहिये। परन्तु शिक्षक, वैद्य, पुरोहित, न्यायाधीश भिक्षावृत्ति से और राजा तथा अमात्य वर्ग चाकरी वृत्ति (नौकरी) से अर्थार्जन करेंगे।
  • देश की प्राकृतिक सम्पदा, मनुष्य के हाथों की कारीगरी की कुशलता और मनुष्य की बुद्धि की निर्माणक्षमता आर्थिक समृद्धि के मूल आधार हैं।
  • अर्थकरी शिक्षा उत्पादन केन्द्रों में, वाणिज्य के केन्द्रों में और शासन के केन्द्रों में दी जानी चाहिये।
  • देश की अर्थनीति विश्वविद्यालयों में बननी चाहिये, उसका क्रियान्वयन राज्य द्वारा होना चाहिये और उसका पालन प्रजा द्वारा होना चाहिये।

आलेख २ - कामकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम

  • काम का अर्थ केवल जातीयता नहीं है । सृजन के मूल संकल्प के रूप में वह सृष्टि में प्रथम उत्पन्न हुआ है । उसका आदरपूर्वक स्वीकार करना चाहिये ।
  • काम अनन्तकोटि कामना अर्थात् इच्छाओं का रूप धारण कर मनुष्य के मन में प्रतिष्ठित हुआ है। काम की शिक्षा मुख्य रूप से मन की शिक्षा है।
  • कामनायें उपभोग करने से कभी शान्त नहीं होतीं। कामनायें कभी समाप्त नहीं होतीं । कामनाओं को संयमित करना ही मनुष्य का लक्ष्य होना चाहिये । इसी को मनःसंयम कहते हैं।
  • सन्तोष मनःसंयम का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है। सन्तोष से ही सुख, शान्ति, प्रसन्नता प्राप्त हो सकते हैं।
  • मनःसंयम हेतु ध्यान, जप, सत्संग, सेवा, स्वाध्याय, ॐकार उच्चारण और सात्त्विक आहार अनिवार्य है।
  • काम वस्तुओं की प्राप्ति हेतु प्रेरित करता है, येनकेन प्रकारेण उन्हें प्राप्त करने हेतु उकसाता है । उसमें बह नहीं जाना कामसाधना है ।
  • काम अनेक वस्तुओं के सृजन हेतु भी प्रेरित करता है। वस्तुओं के सृजन में कौशल, गति और उत्कृष्टता प्राप्त करना कामसाधना है।
  • काम सृजन को प्रेरित करता है । उसका सुसंस्कृत रूप कला है । कामतुष्टि विकसित होकर सौन्दर्यबोध और प्रसन्नता में परिणत होती है। काम प्रेम बन जाता है। यह काम साधना का श्रेष्ठ रूप है।
  • काम का एक अर्थ जातीयता है । वह शारीरिक स्तर पर सम्भोग, प्राणिक स्तर पर मैथुन, मानसिक स्तर पर आसक्ति, बौद्धिक स्तर पर आत्मीयता प्रेरित कर्तव्य, चित्त के स्तर पर प्रसन्नता और आत्मिक स्तर पर प्रेम के रूप में व्यक्त होता है। काम की शरीर से आत्मा तक की यात्रा कामसाधना है।
  • काम हमारा नियन्त्रण न करे अपितु हमारे नियन्त्रण में रहे तो वह बडी शक्ति है जो अनेक असम्भव बातों को सम्भव बनाती है।

आलेख ३ -धर्मकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम

  • धर्म केवल सम्प्रदाय नहीं है। सम्प्रदाय धर्म का एक अंग है। धर्म विश्वनियम है, विश्वव्यवस्था है । वह सृष्टि को और प्रजा को धारण करता है।
  • सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही सृष्टि को धारण करने वाले धर्म की उत्पत्ति हुई है। यह सृष्टिधर्म है । इसके ही अनुसरण में समष्टि को धारण करने वाले समष्टि धर्म की उत्पत्ति हुई है।
  • बने रहने के लिये, अभ्युदय प्राप्त करने के लिये, कल्याण को प्राप्त करने के लिये मनुष्य को धर्म का पालन करना अनिवार्य है।
  • धर्म की रक्षा करने से ही धर्म हमारी रक्षा करता है । धर्म के पालन से ही धर्म की रक्षा होती है।
  • समष्टि धर्म का एक आयाम कर्तव्यपालन है। समष्टि की धारणा हेतु हर व्यक्ति को अपनी अपनी भूमिका अनुसार कर्तव्य प्राप्त हुए हैं। ये कर्तव्य ही उसका धर्म है। जैसे कि पुत्रधर्म, शिक्षकधर्म, राजधर्म, व्यवसायधर्म आदि।
  • धर्म का एक अर्थ स्वभाव है। स्वभाव जन्मजात होता है। स्वभाव के अनुसार स्वधर्म होता है। हर व्यक्ति को अपने धर्म का ही पालन करना चाहिये, पराये धर्म का नहीं।
  • धर्म का एक अर्थ न्याय, नीति और सदाचार का पालन करना है। धर्म का एक आयाम सम्प्रदाय है।
  • धर्म का एक आयाम संप्रदाय है। हर व्यक्ति को अपने संप्रदाय के इष्ट, ग्रन्थ, पूजापद्धति, शैली आदि का पालन करना चाहिए और अन्य सम्प्रदायों का द्वेष नहीं अपितु आदर करना चाहिए।
  • दूसरों का हित करना सबसे बड़ा धर्म है और दूसरों का अहित करना सबसे बड़ा अधर्म है।
  • धर्म समाज के अनुकूल नहीं, समाज धर्म के अनुकूल होना चाहिये । समाज के हर व्यवस्था धर्म के अनुकूल, धर्म के अविरोधी होनी चाहिये ।
  • इन सभी बातों की शिक्षा हर स्तर पर अनिवार्य बननी चाहिये । तभी समाज का भला होगा।

आलेख ४-भवननिर्माण के मूल सूत्र

  • विद्यालय की पहचान भवन से नहीं, शिक्षा से होनी चाहिये । भवन साधन है, साध्य नहीं।
  • विद्यालय का भवन ज्ञान और विद्या को प्रकट करनेवाला होना चाहिये, प्रासाद, दुकान या कार्यालय नहीं लगना चाहिये।
  • विद्यालय का भवन शैक्षिक गतिविधियों के अनुरूप होना चाहिये, आवास के अनुकूल नहीं।
  • स्वच्छता और पवित्रता विद्यालय भवन के मूल आधार बनने चाहिये।
  • विद्यालय का भवन प्राकृतिक पदार्थों से बनना चाहिये। रेत, चूना, मिट्टी, पत्थर, लकडी प्राकृतिक पदार्थ हैं जबकि सिमेण्ट, लोहा, सनमाइका कृत्रिम । कृत्रिम पदार्थ पर्यावरण का प्रदूषण करते हैं।
  • विद्यालय के भवन में तापमान नियन्त्रण की प्राकृतिक व्यवस्था होनी चाहिये । भवन की वास्तुकला ऐसी होनी चाहिये कि दिन में भी विद्युत प्रकाश की आवश्यकता न रहे और ग्रीष्म ऋतु में भी पंखों की आवश्यकता न पड़े।
  • विद्यालय के भवन में सादगी होनी चाहिये, वैभव नहीं, सौन्दर्य होना चाहिये, विलासिता नहीं।
  • भवन निर्माण के धार्मिक शास्त्र के अनुसार भवन बनना चाहिये । वास्तुशास्त्र का भी अनुसरण करना चाहिये।
  • धार्मिक भवनों की खिडकियाँ भूतल से ढाई या तीन फीट की ऊँचाई पर नहीं होती अधिक से अधिक एक फूट की ऊँचाई पर ही होती हैं क्योंकि सबका भूमि पर बैठना ही अपेक्षित होता है।
  • विद्यालय भवन में वर्षा के पानी का संग्रह करने की व्यवस्था तो होनी ही चाहिये परन्तु गन्दे पानी की निकास की व्यवस्था भूमि के उपर होनी चाहिये ।
  • विद्यालय के भवन को मिट्टी युक्त आँगन या मैदान होना चाहिये सब कुछ पथ्थर से बन्द नहीं कर देना चाहिये।

आलेख ५-स्पर्धा होनी चाहिये या नहीं

  • हम स्पर्धा को पुरुषार्थ का प्रेरक तत्त्व मानते हैं परन्तु यह सत्य नहीं है । स्पर्धा संघर्ष की और, संघर्ष हिंसा की ओर तथा हिंसा विनाश की ओर ले जाती है। इसलिये स्पर्धा का त्याग करना चाहिये।
  • विद्यालयों में स्पर्धा का तत्त्व बहुत लोकप्रिय और प्रतिष्ठित बन गया है । स्पर्धा का अर्थ नहीं समझने वाले बच्चोंं के लिये भी स्पर्धा का आयोजन होता है । इसका सर्वथा त्याग करना चाहिये।
  • स्पर्धा सर्वश्रेष्ठ बनने के लिये होती है, श्रेष्ठ बनने के लिये नहीं । व्यक्ति को श्रेष्ठ बनना चाहिये, सर्वश्रेष्ठ नहीं।
  • 'स्वस्थ स्पर्धा' यह शब्दसमूह निरर्थक है, आकाश कुसुम या शशशृंग की तरह । आकाश में कभी फूल नहीं खिलता और खरगोश को कभी सिंग नहीं होते उसी प्रकार स्पर्धा कभी स्वस्थ नहीं होती।
  • खेलों में स्पर्धा होती है तब खेलना महत्त्वपूर्ण नहीं रहता जीतना महत्त्वपूर्ण बन जाता है। पढ़ाई में स्पर्धा होती है तब पढना महत्त्वपूर्ण नहीं रहता जीतना महत्वपूर्ण बन जाता है । जीतने का सिद्धान्त होता है किसी भी प्रकार से दूसरों को हराना ।
  • स्पर्धा से मुख्य विषय से ध्यान हटकर उसके फल पर केन्द्रित हो जाता है । फल नहीं मिला तो मुख्य विषय अप्रस्तुत बन जाता है।
  • स्पर्धा जीत और पुरस्कार इतने सहज हो गये हैं कि अब छोटे बड़े सब के लिये पुरस्कार नहीं तो जीत का महत्त्व नहीं, जीत नहीं तो स्पर्धा निरर्थक और स्पर्धा नहीं तो काम करने का कोई प्रयोजन नहीं । इस प्रकार स्पर्धा अनिष्टों का मूल है।
  • हमें संघर्ष नहीं, समन्वय चाहिये । स्पर्धा संघर्ष की जननी है इसलिये उसका त्याग करना चाहिये।
  • आज असम्भव लगता है तो भी विद्यालय से स्पर्धा का निष्कासन करने की आकांक्षा रखनी चाहिये और उसके लिये पुरुषार्थ करना चाहिये ।

आलेख ६-परीक्षा के सम्बन्ध में पुनर्विचार

  • परीक्षा शिक्षा का एकमेव अथवा मुख्य अंग नहीं है । परीक्षा में उत्तीर्ण होना एकमेव लक्ष्य नहीं है।
  • परीक्षा आवश्यकता पड़ने पर ही ली जानी चाहिये, स्वाभाविक क्रम में नहीं। अध्ययन परीक्षा के लिये नही ज्ञान के लिए होना चाहिये ।
  • विद्यार्थी को ज्ञान प्राप्त हुआ है कि नहीं, वह शिक्षक, मातापिता और समाज उसके व्यवहार से सहज ही जान सकते हैं, परीक्षा एक कृत्रिम व्यवस्था है।
  • नौकरी है इसलिये स्पर्धा है, स्पर्धा है इसलिये परीक्षा है । यहाँ ज्ञान या कौशल का कोई सम्बन्ध नहीं है।
  • येनकेन प्रकारेण परीक्षा में उत्तीर्ण होना है तब अनेक प्रकार के दूषण पनपते हैं । ज्ञान और चरित्र से उसका कोई लेनादेना नहीं होता ।
  • परीक्षा शिक्षा के तन्त्र पर इतनी हावी हो गई है कि अब सब परीक्षार्थी ही हैं, विद्यार्थी नहीं । हमें विद्यार्थी चाहिये, परीक्षार्थी नहीं।
  • परीक्षा को अर्थपूर्ण बनाने के लिये उसे उद्देश्य के साथ जोडना चाहिये, पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों के साथ नहीं । उद्देश्य के साथ जोडने पर परीक्षा का वर्तमान स्वरूप सर्वथा अप्रस्तुत बन जायेगा।
  • परीक्षा का वर्तमान स्वरूप अत्यन्त कृत्रिम है। उसका यथाशीघ्र त्याग करना चाहिये।
  • जो पढाता है वही मूल्यांकन कर सकता है यह शैक्षिक नियम है । आज जो पढाता है वह अविश्वसनीय बन गया है इसलिये जो पढाता नहीं और विद्यार्थी को जानता नहीं वह परीक्षा लेता है यह मूल्य और स्वाभाविकता दोनों का हास है।
  • परीक्षा के सम्बन्ध में पुनर्विचार कर उसे सार्थक बनाने की अत्यन्त आवश्यकता है।
Capture7 .png
Capture11 .png
Capture9 .png
Capture17 .png
Capture18 .png
Capture21 .png
Capture22 .png
Capture24 .png
Capture25 .png
Capture26 .png
Capture27 .png
Capture28 .png
Capture30 .png
Capture31 .png
Capture32 .png
Capture33 .png

References

  1. धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३, अध्याय १६): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे