Difference between revisions of "नव साम्यवाद के लक्षण और स्वरूप"
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सन १९५६ में हंगेरी में स्टालिन के सोवियेट शासन के विरोध में सशस्त्र आंदोलन हुआ था उसे असफल बनाने के लिये स्टालिन प्रणीत साम्यवाद ने अमानुष प्रकार के प्रयास किये थे । उसके परिणाम स्वरूप युरोप में एवं विश्वभर में भी साम्यवाद बहुत बदनाम हुआ । साम्यवाद के समर्थक रहे युरोपीय चिंतकों को उस कारण से साम्यवाद की प्रगति अवरुद्ध होने का भय था । साम्यवाद की प्रतिष्ठा को जो हानि पहुंची थी उसके परिणाम स्वरूप युरोप में साम्यवादी आन्दोलन की हानि न हो इस विचार से जिसकी बदनामी हुई है वह साम्यवाद अलग है और हम उसके समर्थक नहीं हैं यह बात पश्चिमी जगत को दिखाने के लिये उन्हें कोई अलग प्रकार के साम्यवादी आन्दोलन की आवश्यकता प्रतीत हुई । कार्ल मार्क्स की समाजिक वर्ग व्यवस्था, मझदूर आन्दोलन, मझदूरों का सामाजिक क्रांति में सहभाग, मार्क्स प्रणीत सामाजिक न्याय इत्यादि साम्यवादी विचारों की अपेक्षा, किंबहुना <nowiki>'शास्त्रीय मार्क्सवाद' (classical Marxism) (जो कई कारणों से राजकीय दृष्टि से असफल रहा था ) की अपेक्षा वे कुछ अलग और नया तर्क दे रहे हैं यह बात प्रथम युरोप को और बाद में शेष विश्व को दिखाने के लिये एवं पारंपरिक मार्क्सवाद को कालानुरूप बनाने के लिये, तत्कालीन समाज को सुसंगत हो सके ऐसा 'नया पर्याय' वे विश्व को दे रहे हैं ऐसा आभास पैदा करने के लिये 'न्यू लेफ्ट' नाम से राजकीय ‘पर्याय'' की स्थापना की गई. सामान्य रूप से राजकीय एवं आर्थिक विषयों की (मार्क्स के मतानुसार संस्कृति और सामाजिक रिती और परंपरा जैसी सामाजिक संरचना का आधार आर्थिक व्यवस्था ही होती है) चर्चा करने वाले पारंपरिक मार्क्सवाद को प्रथम संस्कृति और दैनंदिन जीवन के विषय में विश्लेषणात्मक एवं आलोचनात्मक लेखन करने के लिये सक्षम बनाया गया । फिर उसी के आधार पर वर्तमान प्रस्थापित संस्कृति के मूलभूत विचारों पर 'सामाजिक नियंत्रण' प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील समाज में से कुछ वंश, धर्म, सामाजिक संस्था, शिक्षा व्यवस्था, कुटुंब और विवाहसंस्था, कला, मनोरंजन क्षेत्र, स्त्री पुरुष संबंध, लैंगिकता, कानून व्यवस्था इत्यादि 'संस्कृति दर्शक' विषयों पर आलोचनात्मक लेखन करने की एवं उसीके आधार पर 'सामाजिक, सांस्कृतिक, राजकीय क्रांति को सफल बनाने की सोच रखने वाले नव साम्यवादी 'पाश्चिमात्य बुद्धिवाद'का प्रारंभ इस 'न्यू लेफ्ट'के साथ हुआ । इस संगठन के कुछ घटक पारंपरिक मार्क्सवाद से अलग हो गये और मझदूर आन्दोलन तथा वर्ग संघर्ष से अपने आपको अलग कर उन्होंने 'संस्कृति' से संबंधित विषयों पर विशेष आलोचना के साथ वैकल्पिक संस्कृति एवं समाज व्यवस्था निर्माण करने का कार्य प्रारंभ किया । तो कुछ घटक मझदूर आन्दोलन और वर्ग संघर्ष को अधिक आक्रमक और अराजक ऐसे '</nowiki>माओवादी हिंसक मार्ग की और ले गये। | सन १९५६ में हंगेरी में स्टालिन के सोवियेट शासन के विरोध में सशस्त्र आंदोलन हुआ था उसे असफल बनाने के लिये स्टालिन प्रणीत साम्यवाद ने अमानुष प्रकार के प्रयास किये थे । उसके परिणाम स्वरूप युरोप में एवं विश्वभर में भी साम्यवाद बहुत बदनाम हुआ । साम्यवाद के समर्थक रहे युरोपीय चिंतकों को उस कारण से साम्यवाद की प्रगति अवरुद्ध होने का भय था । साम्यवाद की प्रतिष्ठा को जो हानि पहुंची थी उसके परिणाम स्वरूप युरोप में साम्यवादी आन्दोलन की हानि न हो इस विचार से जिसकी बदनामी हुई है वह साम्यवाद अलग है और हम उसके समर्थक नहीं हैं यह बात पश्चिमी जगत को दिखाने के लिये उन्हें कोई अलग प्रकार के साम्यवादी आन्दोलन की आवश्यकता प्रतीत हुई । कार्ल मार्क्स की समाजिक वर्ग व्यवस्था, मझदूर आन्दोलन, मझदूरों का सामाजिक क्रांति में सहभाग, मार्क्स प्रणीत सामाजिक न्याय इत्यादि साम्यवादी विचारों की अपेक्षा, किंबहुना <nowiki>'शास्त्रीय मार्क्सवाद' (classical Marxism) (जो कई कारणों से राजकीय दृष्टि से असफल रहा था ) की अपेक्षा वे कुछ अलग और नया तर्क दे रहे हैं यह बात प्रथम युरोप को और बाद में शेष विश्व को दिखाने के लिये एवं पारंपरिक मार्क्सवाद को कालानुरूप बनाने के लिये, तत्कालीन समाज को सुसंगत हो सके ऐसा 'नया पर्याय' वे विश्व को दे रहे हैं ऐसा आभास पैदा करने के लिये 'न्यू लेफ्ट' नाम से राजकीय ‘पर्याय'' की स्थापना की गई. सामान्य रूप से राजकीय एवं आर्थिक विषयों की (मार्क्स के मतानुसार संस्कृति और सामाजिक रिती और परंपरा जैसी सामाजिक संरचना का आधार आर्थिक व्यवस्था ही होती है) चर्चा करने वाले पारंपरिक मार्क्सवाद को प्रथम संस्कृति और दैनंदिन जीवन के विषय में विश्लेषणात्मक एवं आलोचनात्मक लेखन करने के लिये सक्षम बनाया गया । फिर उसी के आधार पर वर्तमान प्रस्थापित संस्कृति के मूलभूत विचारों पर 'सामाजिक नियंत्रण' प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील समाज में से कुछ वंश, धर्म, सामाजिक संस्था, शिक्षा व्यवस्था, कुटुंब और विवाहसंस्था, कला, मनोरंजन क्षेत्र, स्त्री पुरुष संबंध, लैंगिकता, कानून व्यवस्था इत्यादि 'संस्कृति दर्शक' विषयों पर आलोचनात्मक लेखन करने की एवं उसीके आधार पर 'सामाजिक, सांस्कृतिक, राजकीय क्रांति को सफल बनाने की सोच रखने वाले नव साम्यवादी 'पाश्चिमात्य बुद्धिवाद'का प्रारंभ इस 'न्यू लेफ्ट'के साथ हुआ । इस संगठन के कुछ घटक पारंपरिक मार्क्सवाद से अलग हो गये और मझदूर आन्दोलन तथा वर्ग संघर्ष से अपने आपको अलग कर उन्होंने 'संस्कृति' से संबंधित विषयों पर विशेष आलोचना के साथ वैकल्पिक संस्कृति एवं समाज व्यवस्था निर्माण करने का कार्य प्रारंभ किया । तो कुछ घटक मझदूर आन्दोलन और वर्ग संघर्ष को अधिक आक्रमक और अराजक ऐसे '</nowiki>माओवादी हिंसक मार्ग की और ले गये। | ||
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'''१. हर्बर्ट माक्र्युज''' ''' :''' न्यू लेफ्ट का जनक । जर्मन साम्यवादी विचारक । फ्रेंकफर्ट स्कूल ऑफ क्रिटिकल थियरी से संबंधित । 'संस्कृति, आधुनिक तंत्रज्ञान, मनोरंजन ये सब सामाजिक नियंत्रण के नये माध्यम हैं इस विचार को लेकर लेखन कार्य किया है। | '''१. हर्बर्ट माक्र्युज''' ''' :''' न्यू लेफ्ट का जनक । जर्मन साम्यवादी विचारक । फ्रेंकफर्ट स्कूल ऑफ क्रिटिकल थियरी से संबंधित । 'संस्कृति, आधुनिक तंत्रज्ञान, मनोरंजन ये सब सामाजिक नियंत्रण के नये माध्यम हैं इस विचार को लेकर लेखन कार्य किया है। | ||
− | '''२. मिशेल फुको :''' फ्रेंच तत्त्वज्ञ । वर्तमान स्थिति में संपूर्ण विश्व के विद्यापीठों में इस प्रकार के 'ज्ञान का सब से बडा आकर्षण बिंदु' । व्यक्तिगत जीवन और लेखन पूर्ण रूप से अराजकता वादी । 'सत्ता और ज्ञान' (power and knowledge) इन के संबंध के विषय में किया गया सैद्धांतिक लेखन वर्तमान शिक्षा में विशेष रूप से समाविष्ट है । साम्यवाद का अनुनय करने वाले विश्व भर के विद्यार्थियों का प्रिय लेखक एवं तत्त्वज्ञ । धर्म, कुटुंब व्यवस्था, विवाहसंस्था, शिक्षा एवं राजकीय व्यवस्थाओं में निहित पारंपरिक नैतिक मूल्यों की विध्वंसक आलोचना कर के, परंपरा का अनुसरण कर जो कुछ भी समाज, नीति इत्यादि सिद्ध हुए हैं उन सब को तिरस्कृत कर, पराकाष्ठा का संघर्ष कर के सत्ता प्राप्त कर, 'सांस्कृतिक क्रांति' को सफल करने का संदेश देने वाला लेखन । बुद्धिशील एवं आन्दोलन तथा सशस्त्र क्रांति में प्रत्यक्ष सहभागी होने वालों को समान रूप से संमोहित कर सके ऐसा स्फोटक और मानवी संस्कृति और सभ्यता को पूर्ण रूप से नकार कर तथाकथित 'शोषित' | + | '''२. मिशेल फुको :''' फ्रेंच तत्त्वज्ञ । वर्तमान स्थिति में संपूर्ण विश्व के विद्यापीठों में इस प्रकार के 'ज्ञान का सब से बडा आकर्षण बिंदु' । व्यक्तिगत जीवन और लेखन पूर्ण रूप से अराजकता वादी । 'सत्ता और ज्ञान' (power and knowledge) इन के संबंध के विषय में किया गया सैद्धांतिक लेखन वर्तमान शिक्षा में विशेष रूप से समाविष्ट है । साम्यवाद का अनुनय करने वाले विश्व भर के विद्यार्थियों का प्रिय लेखक एवं तत्त्वज्ञ । धर्म, [[Family_Structure_(कुटुंब_व्यवस्था)|कुटुंब व्यवस्था]], विवाहसंस्था, शिक्षा एवं राजकीय व्यवस्थाओं में निहित पारंपरिक नैतिक मूल्यों की विध्वंसक आलोचना कर के, परंपरा का अनुसरण कर जो कुछ भी समाज, नीति इत्यादि सिद्ध हुए हैं उन सब को तिरस्कृत कर, पराकाष्ठा का संघर्ष कर के सत्ता प्राप्त कर, 'सांस्कृतिक क्रांति' को सफल करने का संदेश देने वाला लेखन । बुद्धिशील एवं आन्दोलन तथा सशस्त्र क्रांति में प्रत्यक्ष सहभागी होने वालों को समान रूप से संमोहित कर सके ऐसा स्फोटक और मानवी संस्कृति और सभ्यता को पूर्ण रूप से नकार कर तथाकथित 'शोषित' लोगोंं की सहायता से 'पर्यायी संस्कृति, सभ्यता, राजकीय व्यवस्था तथा समाज का निर्माण करना यह व्यक्तिस्वातंत्र्यवादी युवा मानस को आदर्श और बुद्धिप्रमाण्यवादी लगने वाला लेखन । |
'नैतिकता को समाज का आदर्श बनाया जाने का अर्थ है बहुसंख्यकों के नैतिकता / अनैतिकता के निकष संपूर्ण समाज पर थोपना' । | 'नैतिकता को समाज का आदर्श बनाया जाने का अर्थ है बहुसंख्यकों के नैतिकता / अनैतिकता के निकष संपूर्ण समाज पर थोपना' । | ||
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मिशेल फुको के संस्कृति विषयक आलोचनात्मक विचार प्रमुख रूप से उसने स्वयं जिसका अनुभव किया हुआ था वह एकेश्वरवादी प्रतिगामी कॅथोलिक इसाई संस्कृति, पराकोटि की पूंजीवादी औद्योगिक अर्थव्यवस्था और उसके सामाजिक, सांस्कृतिक नियंत्रक रीतिरिवाज के विरोध में होनेवाले प्रतिकार के परिणाम रूप हैं । एकेश्वरवादी, रूढीवादी कॅथोलिक सामाजिक रितिरिवाजों का विरोध करके ही व्यक्तिस्वातंत्र्य अबाधित रखना यह एकमेव मार्ग ही फुको तथा 'पाश्चिमात्य सांस्कृतिक उदारमतवाद' के पुरस्कर्ता तत्त्वज्ञों को उपलब्ध था इसीलिये प्रत्येक संस्कृति मूलक आदर्शों का उसने विरोध किया । | मिशेल फुको के संस्कृति विषयक आलोचनात्मक विचार प्रमुख रूप से उसने स्वयं जिसका अनुभव किया हुआ था वह एकेश्वरवादी प्रतिगामी कॅथोलिक इसाई संस्कृति, पराकोटि की पूंजीवादी औद्योगिक अर्थव्यवस्था और उसके सामाजिक, सांस्कृतिक नियंत्रक रीतिरिवाज के विरोध में होनेवाले प्रतिकार के परिणाम रूप हैं । एकेश्वरवादी, रूढीवादी कॅथोलिक सामाजिक रितिरिवाजों का विरोध करके ही व्यक्तिस्वातंत्र्य अबाधित रखना यह एकमेव मार्ग ही फुको तथा 'पाश्चिमात्य सांस्कृतिक उदारमतवाद' के पुरस्कर्ता तत्त्वज्ञों को उपलब्ध था इसीलिये प्रत्येक संस्कृति मूलक आदर्शों का उसने विरोध किया । | ||
− | + | धार्मिक संस्कृति के संदर्भ में भी यही प्रतिकार का तर्क लागू करना यह कम बुद्धि का लक्षण सिद्ध होगा क्यों कि सनातन धार्मिक संस्कृति मूलतः 'वैविध्यपूर्ण' और बहुलवादी (pluralistic) है । इसलिये फुको तथा अन्य विचारकों के सांस्कृतिक क्रांति के विचार धार्मिक समाज को तथा संस्कृति को 'सुधारणावादी'वृत्ति से लागू करने का मार्ग वैचारिक एवं बौद्धिक उलझनों का प्रारंभ करने वाला होगा। | |
'''३. रेमंड विलिअम्स :''' वेल्श ब्रिटिश लेखक, माजी सैनिक (द्वितीय महायुद्ध): न्यू लेफ्ट से संबंधित एक अत्यंत प्रभावी विचारवान के रूप से प्रसिद्ध । संचार माध्यम एवं साहित्य का साम्यवादी वैचारिक क्रांति के साथ मेल बिठाने वाला तत्त्वज्ञ. उनका 'कल्चर एंड सोसाइटी' नामक संस्कृतिका विश्लेषण करनेवाला पुस्तक अत्यंत प्रसिद्ध था । उसका एक प्रमुख चिंतन इस प्रकार था : । | '''३. रेमंड विलिअम्स :''' वेल्श ब्रिटिश लेखक, माजी सैनिक (द्वितीय महायुद्ध): न्यू लेफ्ट से संबंधित एक अत्यंत प्रभावी विचारवान के रूप से प्रसिद्ध । संचार माध्यम एवं साहित्य का साम्यवादी वैचारिक क्रांति के साथ मेल बिठाने वाला तत्त्वज्ञ. उनका 'कल्चर एंड सोसाइटी' नामक संस्कृतिका विश्लेषण करनेवाला पुस्तक अत्यंत प्रसिद्ध था । उसका एक प्रमुख चिंतन इस प्रकार था : । | ||
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उपरोक्त तीन पद्धतियों में से 'सामाजिक स्वरूप की संस्कृति वास्तविकता से सामीप्य रखनेवाली और प्रत्यक्ष जीवन की संस्कृति होने के कारण से उसके आकलन को विलिअम्स अधिक महत्त्व देता है। | उपरोक्त तीन पद्धतियों में से 'सामाजिक स्वरूप की संस्कृति वास्तविकता से सामीप्य रखनेवाली और प्रत्यक्ष जीवन की संस्कृति होने के कारण से उसके आकलन को विलिअम्स अधिक महत्त्व देता है। | ||
− | अनेक | + | अनेक धार्मिक बुद्धिवान लोग धार्मिक समाज में भी विलिअम्स के लेखन का संदर्भ खोजने का प्रयास करते हैं और उसके द्वारा विलिअम्स के विचारों का मॉडेल धार्मिक सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति को लागू करते हैं । परंतु ऐसा करते समय एक मूलभूत वास्तव वे भूल जाते हैं कि धार्मिक समाज और संस्कृति किसी भी एक संप्रदाय अथवा विचार से नियंत्रित नहीं है। एकेश्वरवादी अब्राहमिक धर्म के अनुसार धार्मिक संस्कृति 'धर्म' को संस्थागत (institutionalized religion) मानने की आग्रही नहीं है । इसलिये सांस्कृतिक नियंत्रण के प्रतिकार का तर्क हमारे यहां लागू नहीं होता है । और यदि ऐसा किया जाता है तो उसके परिणाम स्वरूप अनेक विध संभ्रम निर्माण होते हैं इतना सीधा तर्क ये लोग मानते नहीं हैं कारण इस प्रकार के बौद्धिक व्यायाम का प्रमुख उद्देश्य सामाजिक अथवा सांस्कृतिक तत्त्वज्ञान को जन्म देने का न होकर केवल उस प्रकार की बौद्धिकता का बुरखा ओढकर प्रत्यक्ष राजनीति करना और कम होती जा रही अपनी राजकीय उपयोगिता को उस प्रकार से शैक्षिक और सांस्कृतिक आधार दे कर सत्ता की राजनीति में सहभागी होने के लिये अपना स्थान निर्मित करते रहना यही एक शुद्ध राजकीय हेतु इसमें से स्पष्ट होता है। |
४. स्टुअर्ट हॉल : वर्तमान में संपूर्ण भारत में कई प्रमुख केंद्रीय तथा प्रांतीय विद्यापीठों की शिक्षा में मानव्य विद्याशाखा (Humanities) अथवा सामाजिक विज्ञान (social sciences) एवं कला शाखा अंतर्गत एक नयी विद्याशाखा के अंतर्गत एक विषय (Discipline, subject) पढाया जाता है । उनमें से कई प्रमुख विद्यापीठ इस प्रकार है : | ४. स्टुअर्ट हॉल : वर्तमान में संपूर्ण भारत में कई प्रमुख केंद्रीय तथा प्रांतीय विद्यापीठों की शिक्षा में मानव्य विद्याशाखा (Humanities) अथवा सामाजिक विज्ञान (social sciences) एवं कला शाखा अंतर्गत एक नयी विद्याशाखा के अंतर्गत एक विषय (Discipline, subject) पढाया जाता है । उनमें से कई प्रमुख विद्यापीठ इस प्रकार है : | ||
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इस विद्याशाखा का संस्थापक स्टुअर्ट हॉल - (रेमंड विलिअम्स और रिचार्ड होगात के साथ ) मुलतः जमैकन था। संपूर्ण जीवन और करिअर ब्रिटन में हआ । वहां के शैक्षिक, राजकीय, सांस्कृतिक, सामाजिक समीकरण और स्थिति में उसने अपने लेखन से परिवर्तन किया । बर्मिंधम सेंटर ऑफ कल्चरल स्टडीझ की स्थापना की। | इस विद्याशाखा का संस्थापक स्टुअर्ट हॉल - (रेमंड विलिअम्स और रिचार्ड होगात के साथ ) मुलतः जमैकन था। संपूर्ण जीवन और करिअर ब्रिटन में हआ । वहां के शैक्षिक, राजकीय, सांस्कृतिक, सामाजिक समीकरण और स्थिति में उसने अपने लेखन से परिवर्तन किया । बर्मिंधम सेंटर ऑफ कल्चरल स्टडीझ की स्थापना की। | ||
− | शास्त्रीय मार्क्सिझम की लोकप्रिय विचारधारा कि 'पूजीवादी अर्थव्यवस्था' हर तरह की सामाजिक विषमता का मूलभूत कारण है, उसको अधिक व्यापक बनाकर तथा 'सांस्कृतिक आपखुदशाही' (cultural hegemony) सर्वसामान्य | + | शास्त्रीय मार्क्सिझम की लोकप्रिय विचारधारा कि 'पूजीवादी अर्थव्यवस्था' हर तरह की सामाजिक विषमता का मूलभूत कारण है, उसको अधिक व्यापक बनाकर तथा 'सांस्कृतिक आपखुदशाही' (cultural hegemony) सर्वसामान्य लोगोंं की हर प्रकार की दुरवस्था का मूल कारण है इस विचारधारा का अनुसरण कर के, प्रस्थापित संस्कृति को नकार कर 'सब कल्चर (sub culture) अथवा 'युथ कल्चर (youth culture) का आक्रमक पुरस्कार करने का मार्ग लेकर एक वैकल्पिक सामाजिक, सांस्कृतिक, राजकीय व्यवस्था निर्माण करने का ध्येय लेकर इस विद्याशाखा की स्थापना की गई थी । अपनी अपनी सभ्यता के अनुसार जो भी शाश्वत, चिरंतन, वैश्विक सांस्कृतिक मूल्य सर्वत्र आधारभूत माने जाते हैं वे सब इन सांस्कृतिक आपखुदवादी समाज नियंत्रकों ने अल्पसामाजिक समूदायों की संस्कृति को नदारद करने के लिये उन पर थोपे हुए मूल्य हैं इस धारणा को प्रखर मान्यता दे कर, जीवन के सभी स्तर के सत्ताकेंद्रों को पहचानकर उनका निरंतर प्रतिकार करते रहना और प्रभावी संस्कृति को दरकिनार कर, युवाओं तथा अल्पसंख्य समूदायों के नवोदित, तात्कालिक, अल्पकालीन एवं विद्रोही रीति रिवाजों को शक्ति प्रदान करते रहने की कार्यपद्धति के पुरस्कर्ता एवं इस विद्याशाखा के प्रति आत्मीयता का अनुभव करनेवाले लेखकों का 'प्रतिकारवादी' लेखन इस विद्याशाखा के अंतर्गत उपलब्ध करवाने की यह कार्यपद्धति है। 'कल्चरल स्टडीझ' विद्यमान संस्कृति का अध्ययन करता नहीं है, बल्कि एक संस्कृति का निर्माण करता हैं'इस निकष पर आधारित विद्यमान संस्कृति से संबंध नकारने वाला लेखन पाठ्यक्रममें उपलब्ध करवाया जाता है । 'सभी शाश्वत मूल्य प्रस्थापित की श्रेणी में आते हैं और तत्कालीन, समकालीन संस्कृति पारंपरिक संस्कृतिका प्रतिकार करनेवाली होती होती है । इसलिये उसका पुरस्कार करना और हर तरह की समकालीनता को मान्यता देते रहना यह सांस्कृतिक सता के केंद्रों को समाप्त करने का एकमेव मार्ग है। 'एक मनुष्य की राष्ट्र की संकल्पना का अर्थ है दूसरे मनुष्य का दोजख 'इस आशय की शिक्षा सभी विद्यार्थी पिछले तीस वर्षों से धार्मिक विश्वविद्यालयों की उपरोक्त विद्याशाखा के माध्यम से ले रहे हैं । मार्क्सवाद की परंपरा उसके मूल स्वरूप में कायम रखना ही नहीं तो उसे और अधिक विकसित करने की कार्यपद्धति के आधार पर प्रतिदिन की कक्षाकक्ष शिक्षा में उपरोक्त एवं उनके जैसे सभी समकालीन लेखकों का साहित्य आज के विद्यार्थियों को पढाया जाता है । प्रतिदिन कम से कम ५ से छः घण्टे विद्यार्थी इन विचारों के तथा उन्हें प्रस्तुत करने वाले शिक्षकों के संपर्क में रहते हैं, वही पुस्तकें पढते हैं (इस विषय की असंख्य पुस्तकें इंटरनेट पर विनामूल्य उपलब्ध हैं) और उसी के आधार पर परीक्षा देते हैं । पश्चिम के विश्व की वास्तविकता का अनुभव ले कर उस विषय में किया गया आलोचनात्मक लेखन भारत जैसे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परंपरा का जतन करने के साथ साथ अपने संपूर्ण विश्व में अपना अलग वैशिष्ट्य कायम रखने वाले देश को सांस्कृतिक द्रष्टि से समाप्त कर वहां फिर एक बार पाश्चात्य विश्व का प्रभाव निर्माण करना यही उनका ध्येय है। |
− | हॉल अपने लेखन में कहता है कि इस विद्याशाखा के विश्वभर के विद्यार्थियों ने केवल इस तात्विक और सैद्धांतिक प्रावीण्य प्राप्त करने का लक्ष्य न रखते हुए यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि इस विद्याशाखा की सही सफलता उसकी व्यावहारिक कृतिशीलता में है । अर्थात विद्यार्थियों का ध्येय केवल सैद्धांतिक प्रावीण्य (Theoretical Fluency) प्राप्त करना नहीं, बल्कि पूरे विश्व में जीवन से संबंधित प्रत्येक विषय में 'विकल्प' प्रस्थापित करने का होना चाहिये । इसी हेतु से यह विद्याशाखा 'समकालीन सांस्कृतिक' रीतिरिवाजों को अतिशय महत्त्व देती है। उनके मतानुसार 'समकालीन संस्कृति मुख्य रूप से युवा और किशोरवयीन लडके लडकियों के माध्यम से प्रकट होती है । यह प्रकटीकरण मूलतः पारंपरिक और शाश्वत, कालातीत ऐसे मूल्य एवं आदर्शों के विपरीत स्वरूप का ही होता है । इसलिये किसी भी सभ्यता में सर्वमान्य रीति रिवाजों का पुरस्कार करनेवालों के मतानुसार सर्वसामान्य रूप से युवानों की संस्कृति मूल्यहीन होती है, कम से कम ऐसा माना तो जाता ही है। दो पीढियों के | + | हॉल अपने लेखन में कहता है कि इस विद्याशाखा के विश्वभर के विद्यार्थियों ने केवल इस तात्विक और सैद्धांतिक प्रावीण्य प्राप्त करने का लक्ष्य न रखते हुए यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि इस विद्याशाखा की सही सफलता उसकी व्यावहारिक कृतिशीलता में है । अर्थात विद्यार्थियों का ध्येय केवल सैद्धांतिक प्रावीण्य (Theoretical Fluency) प्राप्त करना नहीं, बल्कि पूरे विश्व में जीवन से संबंधित प्रत्येक विषय में 'विकल्प' प्रस्थापित करने का होना चाहिये । इसी हेतु से यह विद्याशाखा 'समकालीन सांस्कृतिक' रीतिरिवाजों को अतिशय महत्त्व देती है। उनके मतानुसार 'समकालीन संस्कृति मुख्य रूप से युवा और किशोरवयीन लडके लडकियों के माध्यम से प्रकट होती है । यह प्रकटीकरण मूलतः पारंपरिक और शाश्वत, कालातीत ऐसे मूल्य एवं आदर्शों के विपरीत स्वरूप का ही होता है । इसलिये किसी भी सभ्यता में सर्वमान्य रीति रिवाजों का पुरस्कार करनेवालों के मतानुसार सर्वसामान्य रूप से युवानों की संस्कृति मूल्यहीन होती है, कम से कम ऐसा माना तो जाता ही है। दो पीढियों के मध्य की इसी विचार भिन्नता का फायदा ऊठाकर यह विचारधारा 'युथ कल्चर' माननेवालों को सोच समझ कर 'दमनकारी प्रस्थापित संस्कृति का प्रतिकार करने के लिये उकसाया जाता है और सौहार्द, रचनात्मकता, प्रेम, आदरभाव, त्याग और सेवा जैसे मूल्यों के आधार पर परस्पर संबंधित पीढियाँ , समुदाय, समाज, कुटुंब के सदस्य, सगे संबंधी इत्यादि के मध्य सत्ता संघर्ष का बीज डालकर 'साधक' सत्य से 'बाधक' अवस्था प्रति ले जाते हैं। |
इस विद्याशाखा को 'कल्चरल स्टडीझ' नाम देने के पीछे एक विशेष सैद्धांतिक कारण है ।महाविद्यालयीन विद्यार्थियों में, युवकों में साम्यवादी विचारों की लोकप्रियता बढाने का अवसर समविचारी प्राध्यापकों को देने वाली विद्याशाखा का नाम 'कल्चरल' अर्थात 'सांस्कृतिक' रखने का कारण समज लेना अत्यंत आवश्यक है । विश्व की सभी सभ्यताओं के एवं देशों के सामाजिक और सांस्कृतिक तथ्यों का अध्ययन करने वाले पारंपरिक सामाजिक शास्त्र याने 'समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, मानववंश शास्त्र, इतिहास और राज्यशास्त्र'। इन सभी विद्याशाखाओं के अंतर्गत सामान्यतः किये गये १५०० जितने सामाजिक अनुसंधानों में पाश्चात्य बुद्धिजीवियों का तथा 'क्लासिकल मार्क्सिझम, का वर्चस्व रहा था । सभी सामाजिक, राजकीय सिद्धांतों को शास्त्रीय स्वरूप के मार्क्सवाद का आधार था । एकांगी स्वरूप के 'पूंजीवादी औद्योगिकता'के तर्क के आधार पर संपूर्ण विश्व में रहे 'वैविध्यपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक तथ्यों का अध्ययन एवं अनुसंधान' ऐसा इन विचारों का स्वरूप होने के परिणाम स्वरूप 'मार्क्सप्रणीत विचारों की अपरिहार्यता निर्माण हुई और वैचारिक अभिसरण की प्रक्रिया में स्थिरता आई । परिणामतः जाने अनजाने 'उदारवाद'का पुरस्कार करनेवाला मार्क्सवाद कालांतर में 'सैद्धांतिक साँचे' में अटक जाने के कारण संकुचित हो गया और वैश्विक स्तर पर की भिन्न संस्कृति, और समाज के वास्तविक आकलन की प्रक्रिया में कालबाह्य सिद्ध होने लगा । मार्क्सवाद की अपरिहार्यता से कालबाह्यता तक की उसकी यात्रा की परिणति उसके समाप्त होने में न हो इस लिये तथा उसकी उपयोगिता कायम रखने के लिये उसे कालानुरूप, समाज, स्थान, व्यक्ति, समूह, और देश काल सापेक्ष बनाकर एक ऐसी विद्याशाखा में मार्क्सवाद का समावेश किया गया जो कि मार्क्सवाद के प्रति संपूर्ण निष्ठा, केवल अनुनय की 'सापेक्षता'की पद्धति से कार्य करने का अवसर देगी । जिस में बाह्य रूप से तो 'वैचारिक सापेक्षता अथवा उदारता' का स्वीकार हुआ होगा परंतु मूल साम्यवादी रचना अबाधित ही रहेगी । इस प्रकार का उपर से शैक्षिक परंतु वास्तव में राजकीय कार्य करना केवल शिक्षा के, प्रबोधन के माध्यम से ही हो सकता है, वही परिणामकारक है यही बात सामने रखकर इस विद्याशाखा का जन्म हुआ । पूर्व प्रस्थापित सामाजिक शास्त्रों के एकांगी और प्रवंचक 'वस्तुनिष्ठ'वैचारिकता के परिणामहीन होने से साम्यवाद की जो हानि हुई थी उसकी भरपाई करने के लिये 'नये पर्याय'का निर्माण कर वैकल्पिक राजकीय सत्ता की राजनीति में सहभागी होने के उद्देश्य से पूरक सामाजिक परिस्थिति अनिवार्य होने से, उसे सहज स्वीकार्य ऐसा नाम कल्चरल स्टडीझ' (सांस्कृतिक अध्ययन') दिया गया । | इस विद्याशाखा को 'कल्चरल स्टडीझ' नाम देने के पीछे एक विशेष सैद्धांतिक कारण है ।महाविद्यालयीन विद्यार्थियों में, युवकों में साम्यवादी विचारों की लोकप्रियता बढाने का अवसर समविचारी प्राध्यापकों को देने वाली विद्याशाखा का नाम 'कल्चरल' अर्थात 'सांस्कृतिक' रखने का कारण समज लेना अत्यंत आवश्यक है । विश्व की सभी सभ्यताओं के एवं देशों के सामाजिक और सांस्कृतिक तथ्यों का अध्ययन करने वाले पारंपरिक सामाजिक शास्त्र याने 'समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, मानववंश शास्त्र, इतिहास और राज्यशास्त्र'। इन सभी विद्याशाखाओं के अंतर्गत सामान्यतः किये गये १५०० जितने सामाजिक अनुसंधानों में पाश्चात्य बुद्धिजीवियों का तथा 'क्लासिकल मार्क्सिझम, का वर्चस्व रहा था । सभी सामाजिक, राजकीय सिद्धांतों को शास्त्रीय स्वरूप के मार्क्सवाद का आधार था । एकांगी स्वरूप के 'पूंजीवादी औद्योगिकता'के तर्क के आधार पर संपूर्ण विश्व में रहे 'वैविध्यपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक तथ्यों का अध्ययन एवं अनुसंधान' ऐसा इन विचारों का स्वरूप होने के परिणाम स्वरूप 'मार्क्सप्रणीत विचारों की अपरिहार्यता निर्माण हुई और वैचारिक अभिसरण की प्रक्रिया में स्थिरता आई । परिणामतः जाने अनजाने 'उदारवाद'का पुरस्कार करनेवाला मार्क्सवाद कालांतर में 'सैद्धांतिक साँचे' में अटक जाने के कारण संकुचित हो गया और वैश्विक स्तर पर की भिन्न संस्कृति, और समाज के वास्तविक आकलन की प्रक्रिया में कालबाह्य सिद्ध होने लगा । मार्क्सवाद की अपरिहार्यता से कालबाह्यता तक की उसकी यात्रा की परिणति उसके समाप्त होने में न हो इस लिये तथा उसकी उपयोगिता कायम रखने के लिये उसे कालानुरूप, समाज, स्थान, व्यक्ति, समूह, और देश काल सापेक्ष बनाकर एक ऐसी विद्याशाखा में मार्क्सवाद का समावेश किया गया जो कि मार्क्सवाद के प्रति संपूर्ण निष्ठा, केवल अनुनय की 'सापेक्षता'की पद्धति से कार्य करने का अवसर देगी । जिस में बाह्य रूप से तो 'वैचारिक सापेक्षता अथवा उदारता' का स्वीकार हुआ होगा परंतु मूल साम्यवादी रचना अबाधित ही रहेगी । इस प्रकार का उपर से शैक्षिक परंतु वास्तव में राजकीय कार्य करना केवल शिक्षा के, प्रबोधन के माध्यम से ही हो सकता है, वही परिणामकारक है यही बात सामने रखकर इस विद्याशाखा का जन्म हुआ । पूर्व प्रस्थापित सामाजिक शास्त्रों के एकांगी और प्रवंचक 'वस्तुनिष्ठ'वैचारिकता के परिणामहीन होने से साम्यवाद की जो हानि हुई थी उसकी भरपाई करने के लिये 'नये पर्याय'का निर्माण कर वैकल्पिक राजकीय सत्ता की राजनीति में सहभागी होने के उद्देश्य से पूरक सामाजिक परिस्थिति अनिवार्य होने से, उसे सहज स्वीकार्य ऐसा नाम कल्चरल स्टडीझ' (सांस्कृतिक अध्ययन') दिया गया । | ||
− | संपूर्ण रूप से साम्यवादी, मार्क्सवादी संरचना रखनेवाली कल्चरल स्टडीझ की विद्याशाखा पूरे विश्व के जो भी देशों के विश्वविद्यालय अथवा संशोधन केंद्रों में सीखाई जाती है, उन सभी देशों में 'वहाँ के 'राष्ट्रवाद' को सिर से पाँव तक छेद कर, मार्क्सवाद के, साम्यवाद के गृहितों को, तर्कों को बुद्धिप्रमाण्यवादी, तर्कशुद्ध वैज्ञानिक ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त करा कर 'शैक्षिक पाठ्यक्रम' के रूप में अध्ययन के लिये उपलब्ध करवाया जाता हैं । १९१० से १९३० के दौरान इटली की 'कम्युनिस्ट पार्टी' के अध्यक्ष अन्तोनिओ ग्रामची ( -पींपळे ऋवशीलळ) के क्लासिकल मार्क्सिझम की पुनर्रचना पर लेखन तथा लुइस अल्थुझर के 'संरचनावाद' के आधार पर विकसित यह विद्याशाखा माने बहुसंख्य देशों में राजकीय दृष्टि से असफल सिद्ध हुई साम्यवादी विचारधारा को एक बार फिर से खडा होने के लिये निर्माण किया हआ रंगमंच है। ग्रामची के मतानुसार 'कारीगर और कृषिमझदूरों ने सांप्रदायिक (फासीस्ट) | + | संपूर्ण रूप से साम्यवादी, मार्क्सवादी संरचना रखनेवाली कल्चरल स्टडीझ की विद्याशाखा पूरे विश्व के जो भी देशों के विश्वविद्यालय अथवा संशोधन केंद्रों में सीखाई जाती है, उन सभी देशों में 'वहाँ के 'राष्ट्रवाद' को सिर से पाँव तक छेद कर, मार्क्सवाद के, साम्यवाद के गृहितों को, तर्कों को बुद्धिप्रमाण्यवादी, तर्कशुद्ध वैज्ञानिक ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त करा कर 'शैक्षिक पाठ्यक्रम' के रूप में अध्ययन के लिये उपलब्ध करवाया जाता हैं । १९१० से १९३० के दौरान इटली की 'कम्युनिस्ट पार्टी' के अध्यक्ष अन्तोनिओ ग्रामची ( -पींपळे ऋवशीलळ) के क्लासिकल मार्क्सिझम की पुनर्रचना पर लेखन तथा लुइस अल्थुझर के 'संरचनावाद' के आधार पर विकसित यह विद्याशाखा माने बहुसंख्य देशों में राजकीय दृष्टि से असफल सिद्ध हुई साम्यवादी विचारधारा को एक बार फिर से खडा होने के लिये निर्माण किया हआ रंगमंच है। ग्रामची के मतानुसार 'कारीगर और कृषिमझदूरों ने सांप्रदायिक (फासीस्ट) लोगोंं को मत नहीं देना चाहिये । बुद्धिनिष्ठ साम्यवादी विचारों के प्रति सामान्य लोगोंं की पसंद निर्माण करने के लिये योजनाबद्ध पद्धति से कार्य करना पड़ेगा क्लासिकल मार्क्सिझम के अनुसार सामाजिक वर्गव्यवस्था आर्थिक स्थिति के अनुसार परिभाषित होती है इसलिये मार्क्स ने वर्ग विग्रह को क्रांति का कारण और ध्येय माना । परंतु ग्रामची ने मार्क्स के वर्ग विग्रह के तर्क को अधिक व्यापक बना कर ‘राजकीय एवं सामाजिक संघर्ष का क्षेत्र आर्थिकता न हो कर संस्कृति हैं' ऐसा विचार प्रस्तुत किया । उसके मतानुसार पूंजीवादी सामाजिक और राजकीय नियंत्रण करने के लिये केवल पुलिस, केद, दमन और लश्कर के ही पाशवी माध्यमों का प्रयोग करते हैं ऐसा नहीं है । बल्कि पूंजीवादी जो सामाजिक अथवा राजकीय नियंत्रण करते हैं उसके प्रति सामान्य लोगोंं की सम्मति प्राप्त करने का माध्यम 'संस्कृति' है । इस प्रकार के 'संस्कृतिजन्यराजकीय, आर्थिक नियंत्रण को ग्रामची 'सांस्कृतिक आपखुदशाही' कहता है । इसलिये 'संघर्ष का, क्रांति का आधार आर्थिक वर्ग व्यवस्था अथवा राजकीय व्यवस्था नहीं, परंतु सांस्कृतिक आधार पर क्रांति करने से ही साम्यवादी व्यवस्था का लक्ष्य प्राप्त हो सकता है। ' कल्चरल स्टडीझ का संपूर्ण लेखन इसी 'प्रतिकारवादी'तर्क पर आधारित रहा है। |
− | अंत में यही कहना है कि उपरोक्त जानकारी तो थोडासा हिस्सा ही है । १९५७ में | + | अंत में यही कहना है कि उपरोक्त जानकारी तो थोडासा हिस्सा ही है । १९५७ में आरम्भ हुई 'कल्चरल स्टडीझ' विद्याशाखा वर्तमान में विश्व के प्रमुख विश्वविद्यालयों की 'आंतरविद्याशाखा' स्तर की सब से अधिक लोकप्रिय शाखा मानी जाती है । उसमें कार्यरत वर्तमान बुद्धिवादियों की सूची बहुत लम्बी है । वैश्विक स्तर पर कुल मिला कर ३२ देशों के सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों में यह विषय पढा और पढाया जाता है । इन विश्वविद्यालयों में इस विद्याशाखा में कार्यरत प्राध्यापक, विचारक सदां परस्पर संपर्क में रहते हैं । उनका नेटवर्क बहुत सक्रिय है। परस्पर विचार विमर्श निरंतर चलता रहता है । अपनी कारकिर्द को परदेश गमन का स्पर्श हो कर वह अधिकाधिक विकसित हो ऐसी महत्त्वाकांक्षा के साथ अनेक प्राध्यापक लोग 'कल्चरल स्टडीझ के 'ट्रेंड'का अनुसरण कर के कुछ भी वैचारिक स्पष्टता के बिना ही इस विद्याशाखा के अंतर्गत अनुसन्धान करते हैं और विद्यार्थियों को भी उसके लिये प्रोत्साहित करते हैं । विशेष रूप से कुछ सीमित स्वरूप में इस विषय की 'वैल्कपिक' रचना का तर्क कुशलतापूर्वक भारत देश के संदर्भ में प्रस्तुत हो सकता है। |
− | साम्यवाद के 'सामाजिक वर्ग विग्रह के तर्क एवं सिद्धांत पर आधारित तथा सशस्त्र अथवा आंदोलनात्मक प्रतिकार की कार्य पद्धति पर आधारित 'कल्चरल स्टडीझ' नामक विद्याशाखा अथवा विषय भारत में पढाया जाना अपने आप में दुर्भाग्य की बात है। भारत पहले ही सेंकडों वर्षों से मुगल अथवा ब्रिटिश साम्राज्य के आधिपत्य में रहने के कारण अपना स्वत्व एवं अस्मिता बड़े पैमाने पर गँवा बैठा है । ऐसे आघातों के कारण दुर्बल मानसिकता प्राप्त देश में ऐसा विषय पढाने का अर्थ है वैविध्यपूर्ण | + | साम्यवाद के 'सामाजिक वर्ग विग्रह के तर्क एवं सिद्धांत पर आधारित तथा सशस्त्र अथवा आंदोलनात्मक प्रतिकार की कार्य पद्धति पर आधारित 'कल्चरल स्टडीझ' नामक विद्याशाखा अथवा विषय भारत में पढाया जाना अपने आप में दुर्भाग्य की बात है। भारत पहले ही सेंकडों वर्षों से मुगल अथवा ब्रिटिश साम्राज्य के आधिपत्य में रहने के कारण अपना स्वत्व एवं अस्मिता बड़े पैमाने पर गँवा बैठा है । ऐसे आघातों के कारण दुर्बल मानसिकता प्राप्त देश में ऐसा विषय पढाने का अर्थ है वैविध्यपूर्ण धार्मिक समाज को राष्ट्रीयता की भावना से एक करने वाले विचारों के स्थान पर देश विघातक विचारों की सहायता से देश के युवकों की उर्जा और उत्साह नष्ट करना । सामाजिक सौहार्दपूर्ण वातावरण नष्ट करना, प्रत्येक समुदाय को एक दूसरे के विरुद्ध, व्यक्ति को व्यक्ति विरुद्ध, युवा पीढी को अपनी पूर्व पीढी विरुद्ध, स्त्रियों को पुरुषों के विरुद्ध, व्यक्ति को अपने परिवार एवं समाज विरुद्ध, नागरिकों को सरकार विरुद्ध, कर्मचारियों को अपनी अपनी कम्पनी के विरुद्ध, देश के लोगोंं को अपने देश विरुद्ध निरंतर संघर्षमय रखने का प्रशिक्षण देनेवाली यह शिक्षा के माध्यम से निर्माण की गई व्यवस्था है । उसका उद्देश्य भारत के वैशिष्ट्यपूर्ण विविधतायुक्त समाज को एकत्व के संस्कारों द्वारा संगठित कर देश की शक्ति बढाने के कार्य में बाधा उत्पन्न करना है । तथा उसके परिणामस्वरूप विभाजित और असंगठित समाज का, युवा, महिला, दलित, अल्पसंख्यांक, मझदूर, शोषित, पीडित वर्ग का, कुलमिलाकर 'सामाजिक विषमता का लाभ उठाकर, सदियों के राजकीय एवं सांस्कृतिक पारतंत्र्य के बाद फिर से विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाने का प्रयत्न कर रहे भारत को फिर एक बार स्वविस्मृति की गर्ता में धकेलने का यह कारस्थान शिक्षा के माध्यम से हो रहा है यह बडे दुर्भाग्य की बात है। |
− | युरोपीय एवं अमेरिकन विश्वविद्यालयों के साथ संबंधित वामपंथी विचारक कल्चरल स्टडीझ के 'वैकल्पिक संस्कृति' के तर्क के आधार पर वास्तव में 'साम्यवादी व्यवस्था' के विकल्प का ही समर्थन करते हैं। क्यों कि उन | + | युरोपीय एवं अमेरिकन विश्वविद्यालयों के साथ संबंधित वामपंथी विचारक कल्चरल स्टडीझ के 'वैकल्पिक संस्कृति' के तर्क के आधार पर वास्तव में 'साम्यवादी व्यवस्था' के विकल्प का ही समर्थन करते हैं। क्यों कि उन लोगोंं का प्रमुख ध्येय स्थानिक संस्कृति को प्रवाहित रखने का न हो कर चीन की माओवादी 'सांस्कृतिक क्रांति' की धार्मिक आवृत्ति साकार करना है । जो भारत के साथ हो रहा है वह विश्व के किसी भी देश के साथ हो सकता है। |
==References== | ==References== | ||
− | <references /> | + | <references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे |
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Latest revision as of 20:09, 15 January 2021
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सन १९५६ में हंगेरी में स्टालिन के सोवियेट शासन के विरोध में सशस्त्र आंदोलन हुआ था उसे असफल बनाने के लिये स्टालिन प्रणीत साम्यवाद ने अमानुष प्रकार के प्रयास किये थे । उसके परिणाम स्वरूप युरोप में एवं विश्वभर में भी साम्यवाद बहुत बदनाम हुआ । साम्यवाद के समर्थक रहे युरोपीय चिंतकों को उस कारण से साम्यवाद की प्रगति अवरुद्ध होने का भय था । साम्यवाद की प्रतिष्ठा को जो हानि पहुंची थी उसके परिणाम स्वरूप युरोप में साम्यवादी आन्दोलन की हानि न हो इस विचार से जिसकी बदनामी हुई है वह साम्यवाद अलग है और हम उसके समर्थक नहीं हैं यह बात पश्चिमी जगत को दिखाने के लिये उन्हें कोई अलग प्रकार के साम्यवादी आन्दोलन की आवश्यकता प्रतीत हुई । कार्ल मार्क्स की समाजिक वर्ग व्यवस्था, मझदूर आन्दोलन, मझदूरों का सामाजिक क्रांति में सहभाग, मार्क्स प्रणीत सामाजिक न्याय इत्यादि साम्यवादी विचारों की अपेक्षा, किंबहुना 'शास्त्रीय मार्क्सवाद' (classical Marxism) (जो कई कारणों से राजकीय दृष्टि से असफल रहा था ) की अपेक्षा वे कुछ अलग और नया तर्क दे रहे हैं यह बात प्रथम युरोप को और बाद में शेष विश्व को दिखाने के लिये एवं पारंपरिक मार्क्सवाद को कालानुरूप बनाने के लिये, तत्कालीन समाज को सुसंगत हो सके ऐसा 'नया पर्याय' वे विश्व को दे रहे हैं ऐसा आभास पैदा करने के लिये 'न्यू लेफ्ट' नाम से राजकीय ‘पर्याय'' की स्थापना की गई. सामान्य रूप से राजकीय एवं आर्थिक विषयों की (मार्क्स के मतानुसार संस्कृति और सामाजिक रिती और परंपरा जैसी सामाजिक संरचना का आधार आर्थिक व्यवस्था ही होती है) चर्चा करने वाले पारंपरिक मार्क्सवाद को प्रथम संस्कृति और दैनंदिन जीवन के विषय में विश्लेषणात्मक एवं आलोचनात्मक लेखन करने के लिये सक्षम बनाया गया । फिर उसी के आधार पर वर्तमान प्रस्थापित संस्कृति के मूलभूत विचारों पर 'सामाजिक नियंत्रण' प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील समाज में से कुछ वंश, धर्म, सामाजिक संस्था, शिक्षा व्यवस्था, कुटुंब और विवाहसंस्था, कला, मनोरंजन क्षेत्र, स्त्री पुरुष संबंध, लैंगिकता, कानून व्यवस्था इत्यादि 'संस्कृति दर्शक' विषयों पर आलोचनात्मक लेखन करने की एवं उसीके आधार पर 'सामाजिक, सांस्कृतिक, राजकीय क्रांति को सफल बनाने की सोच रखने वाले नव साम्यवादी 'पाश्चिमात्य बुद्धिवाद'का प्रारंभ इस 'न्यू लेफ्ट'के साथ हुआ । इस संगठन के कुछ घटक पारंपरिक मार्क्सवाद से अलग हो गये और मझदूर आन्दोलन तथा वर्ग संघर्ष से अपने आपको अलग कर उन्होंने 'संस्कृति' से संबंधित विषयों पर विशेष आलोचना के साथ वैकल्पिक संस्कृति एवं समाज व्यवस्था निर्माण करने का कार्य प्रारंभ किया । तो कुछ घटक मझदूर आन्दोलन और वर्ग संघर्ष को अधिक आक्रमक और अराजक ऐसे 'माओवादी हिंसक मार्ग की और ले गये।
वैकल्पिक संस्कृति के पुरस्कर्ता रहे इन विचारकों (Stuart Hall, Raymond Williams, Richard Hoggart) ने सन १९६० से १९८० के दौरान इंग्लेंड के युवानों के विद्रोही एवं परंपरा को संपूर्णतः नकार देने वाले तत्कालीन सांस्कृतिक विद्रोह को तात्विक समर्थन दिया और हिप्पि संस्कृति, पंक सबकल्चर, टेडी बॉईझ, मॉड रॉकर्स, राम्गे, स्किनहेड्झ, पोप एवं अन्य संगीत का, वेशभूषा, केशभूषा, कला, व्यसनाधीनता तथा ऐसे ही अन्य पारंपरिक सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों के विरुद्ध विद्रोह घोषित करने वाले युथ कल्चर का ,प्रस्थापित दमनकारी संस्कृति के प्रतिकार के साधन के रूपमें जोरदार समर्थन किया ।
न्यू लेफ्ट के कुछ चिंतक और उनके लेखन के कुछ बिंदु इस प्रकार हैं:
१. हर्बर्ट माक्र्युज : न्यू लेफ्ट का जनक । जर्मन साम्यवादी विचारक । फ्रेंकफर्ट स्कूल ऑफ क्रिटिकल थियरी से संबंधित । 'संस्कृति, आधुनिक तंत्रज्ञान, मनोरंजन ये सब सामाजिक नियंत्रण के नये माध्यम हैं इस विचार को लेकर लेखन कार्य किया है।
२. मिशेल फुको : फ्रेंच तत्त्वज्ञ । वर्तमान स्थिति में संपूर्ण विश्व के विद्यापीठों में इस प्रकार के 'ज्ञान का सब से बडा आकर्षण बिंदु' । व्यक्तिगत जीवन और लेखन पूर्ण रूप से अराजकता वादी । 'सत्ता और ज्ञान' (power and knowledge) इन के संबंध के विषय में किया गया सैद्धांतिक लेखन वर्तमान शिक्षा में विशेष रूप से समाविष्ट है । साम्यवाद का अनुनय करने वाले विश्व भर के विद्यार्थियों का प्रिय लेखक एवं तत्त्वज्ञ । धर्म, कुटुंब व्यवस्था, विवाहसंस्था, शिक्षा एवं राजकीय व्यवस्थाओं में निहित पारंपरिक नैतिक मूल्यों की विध्वंसक आलोचना कर के, परंपरा का अनुसरण कर जो कुछ भी समाज, नीति इत्यादि सिद्ध हुए हैं उन सब को तिरस्कृत कर, पराकाष्ठा का संघर्ष कर के सत्ता प्राप्त कर, 'सांस्कृतिक क्रांति' को सफल करने का संदेश देने वाला लेखन । बुद्धिशील एवं आन्दोलन तथा सशस्त्र क्रांति में प्रत्यक्ष सहभागी होने वालों को समान रूप से संमोहित कर सके ऐसा स्फोटक और मानवी संस्कृति और सभ्यता को पूर्ण रूप से नकार कर तथाकथित 'शोषित' लोगोंं की सहायता से 'पर्यायी संस्कृति, सभ्यता, राजकीय व्यवस्था तथा समाज का निर्माण करना यह व्यक्तिस्वातंत्र्यवादी युवा मानस को आदर्श और बुद्धिप्रमाण्यवादी लगने वाला लेखन ।
'नैतिकता को समाज का आदर्श बनाया जाने का अर्थ है बहुसंख्यकों के नैतिकता / अनैतिकता के निकष संपूर्ण समाज पर थोपना' ।
हम कौन हैं इसका शोध लेने का हमारा ध्येय नहीं है, किंबहुना हम जो हैं उसे नकारना ही हमारा ध्येय है ।
फुको के एक शिक्षक अल्थुझर का भी इसी प्रकार का लेखन एक नयी विद्याशाखा के माध्यम से भाततके कई प्रमुख विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा द्वारा उपलब्ध करवाया गया है। 'संस्कृति विषयक ज्ञान और क्या सामान्य है या नहीं है इसको नियंत्रित करनेवाले किसी भी समाज के बहुसंख्यक ही होते हैं इसलिये बहसंख्यकों के सांस्कृतिक नियंत्रण का प्रतिकार करते रहना और 'सामान्य' समजे जाने वाले जो भी व्यवहार, सामाजिक, सांस्कृतिक आविष्कार होंगे उनका 'विकल्प'निरंतर देते रहना ऐसे विचारों का पुरस्कार उन विद्याशाखाओं में फुको के लेखन का अध्ययन करने वाला प्रत्येक विद्यार्थी करता हुआ दिखाई देता है(इस विद्याशाखा के विषय में आगे बात होगी)।
मिशेल फुको के संस्कृति विषयक आलोचनात्मक विचार प्रमुख रूप से उसने स्वयं जिसका अनुभव किया हुआ था वह एकेश्वरवादी प्रतिगामी कॅथोलिक इसाई संस्कृति, पराकोटि की पूंजीवादी औद्योगिक अर्थव्यवस्था और उसके सामाजिक, सांस्कृतिक नियंत्रक रीतिरिवाज के विरोध में होनेवाले प्रतिकार के परिणाम रूप हैं । एकेश्वरवादी, रूढीवादी कॅथोलिक सामाजिक रितिरिवाजों का विरोध करके ही व्यक्तिस्वातंत्र्य अबाधित रखना यह एकमेव मार्ग ही फुको तथा 'पाश्चिमात्य सांस्कृतिक उदारमतवाद' के पुरस्कर्ता तत्त्वज्ञों को उपलब्ध था इसीलिये प्रत्येक संस्कृति मूलक आदर्शों का उसने विरोध किया ।
धार्मिक संस्कृति के संदर्भ में भी यही प्रतिकार का तर्क लागू करना यह कम बुद्धि का लक्षण सिद्ध होगा क्यों कि सनातन धार्मिक संस्कृति मूलतः 'वैविध्यपूर्ण' और बहुलवादी (pluralistic) है । इसलिये फुको तथा अन्य विचारकों के सांस्कृतिक क्रांति के विचार धार्मिक समाज को तथा संस्कृति को 'सुधारणावादी'वृत्ति से लागू करने का मार्ग वैचारिक एवं बौद्धिक उलझनों का प्रारंभ करने वाला होगा।
३. रेमंड विलिअम्स : वेल्श ब्रिटिश लेखक, माजी सैनिक (द्वितीय महायुद्ध): न्यू लेफ्ट से संबंधित एक अत्यंत प्रभावी विचारवान के रूप से प्रसिद्ध । संचार माध्यम एवं साहित्य का साम्यवादी वैचारिक क्रांति के साथ मेल बिठाने वाला तत्त्वज्ञ. उनका 'कल्चर एंड सोसाइटी' नामक संस्कृतिका विश्लेषण करनेवाला पुस्तक अत्यंत प्रसिद्ध था । उसका एक प्रमुख चिंतन इस प्रकार था : ।
'संस्कृति का अस्तित्व तीन प्रकार से अनुभूत होता है। ये हैं आदर्श, मूल्यव्यवस्था, साहित्यिक और सामाजिक पद्धति। उसमें से किसी एक पद्धति का विश्लेषण याने संपूर्ण संस्कृति का आकलन यह निष्कर्ष गलत है । ये तीनों पद्धतियों के परस्पर सम्बन्धों के अभ्यास का अर्थ है 'संस्कृति जीवन का संपूर्ण मार्ग है' ऐसा प्रतिपादन (culture is a whole way of life) |
उपरोक्त तीन पद्धतियों में से 'सामाजिक स्वरूप की संस्कृति वास्तविकता से सामीप्य रखनेवाली और प्रत्यक्ष जीवन की संस्कृति होने के कारण से उसके आकलन को विलिअम्स अधिक महत्त्व देता है।
अनेक धार्मिक बुद्धिवान लोग धार्मिक समाज में भी विलिअम्स के लेखन का संदर्भ खोजने का प्रयास करते हैं और उसके द्वारा विलिअम्स के विचारों का मॉडेल धार्मिक सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति को लागू करते हैं । परंतु ऐसा करते समय एक मूलभूत वास्तव वे भूल जाते हैं कि धार्मिक समाज और संस्कृति किसी भी एक संप्रदाय अथवा विचार से नियंत्रित नहीं है। एकेश्वरवादी अब्राहमिक धर्म के अनुसार धार्मिक संस्कृति 'धर्म' को संस्थागत (institutionalized religion) मानने की आग्रही नहीं है । इसलिये सांस्कृतिक नियंत्रण के प्रतिकार का तर्क हमारे यहां लागू नहीं होता है । और यदि ऐसा किया जाता है तो उसके परिणाम स्वरूप अनेक विध संभ्रम निर्माण होते हैं इतना सीधा तर्क ये लोग मानते नहीं हैं कारण इस प्रकार के बौद्धिक व्यायाम का प्रमुख उद्देश्य सामाजिक अथवा सांस्कृतिक तत्त्वज्ञान को जन्म देने का न होकर केवल उस प्रकार की बौद्धिकता का बुरखा ओढकर प्रत्यक्ष राजनीति करना और कम होती जा रही अपनी राजकीय उपयोगिता को उस प्रकार से शैक्षिक और सांस्कृतिक आधार दे कर सत्ता की राजनीति में सहभागी होने के लिये अपना स्थान निर्मित करते रहना यही एक शुद्ध राजकीय हेतु इसमें से स्पष्ट होता है।
४. स्टुअर्ट हॉल : वर्तमान में संपूर्ण भारत में कई प्रमुख केंद्रीय तथा प्रांतीय विद्यापीठों की शिक्षा में मानव्य विद्याशाखा (Humanities) अथवा सामाजिक विज्ञान (social sciences) एवं कला शाखा अंतर्गत एक नयी विद्याशाखा के अंतर्गत एक विषय (Discipline, subject) पढाया जाता है । उनमें से कई प्रमुख विद्यापीठ इस प्रकार है :
क्राइस्ट युनिवर्सिटी, बेंगलुरु
डीपार्टमेंट ऑफ कल्चर एंड मिडिया स्टडीझ, सेंट्रल युनिवर्सिटी ऑफ राजस्थान , बांद्रासिंद्री, राजस्थान
नॉर्थेस्टर्न हिल युनिवर्सिटी (NEHU), शिलोंग
तेजपुर युनिवर्सिटी, आसाम
सेंट्रल युनिवर्सिटी ऑफ झारखंड
आसाम युनिवर्सिटी, सिल्चर
टाटा इंस्टिट्युट ऑफ सोशल सायंसीस , स्कूल ऑफ मिडिया एंड कल्चरल स्टडीझ, मुम्बई
सावित्रीबाई फुले ,पुणे युनिवर्सिटी
ध इंग्लीश एंड फोरेन लेंग्वेझीझ युनिवर्सिटी , हैदराबाद
डीपार्टमेंट ऑफ इंग्लिश एंड कल्चरल स्टडीझ पंजाब युनिवर्सिटी , चंडीगढ़
केरला कलामंडलम डीम्ड युनिवर्सिटी फॉर आर्ट एंड कल्चर, थ्रीसुर, केरला
जवाहरलाल नेहरु युनिवर्सिटी
दिल्ही युनिवर्सिटी
जोधपुर युनिवर्सिटी
इसके अतिरिक्त सभी आई आईटी केंद्र जहां ' ह्यमेनिटिझ' का पर्याय उपलब्ध है वहां यह विषय उपलब्ध है । संपूर्ण देश में कला शाखा एवं मिडिया केंद्रों में जहां अंग्रेजी साहित्य, इतिहास, समाजशास्त्र, मानववंशशास्त्र (एंथ्रोपोलोजी), अर्थशास्त्र इत्यादि विषयों के पाठ्यक्रमों में इस नयी विद्याशाखा का समावेश किया जाता है अथवा उपरोक्त और इसी प्रकार का लेखन करने वाले अन्य कई प्रमुख विचारकों का लेखन पाठ्यक्रम में उपलब्ध करवाया जाता है । इस विद्याशाखा का नाम है 'कल्चरल स्टडीझ'
इस विद्याशाखा का संस्थापक स्टुअर्ट हॉल - (रेमंड विलिअम्स और रिचार्ड होगात के साथ ) मुलतः जमैकन था। संपूर्ण जीवन और करिअर ब्रिटन में हआ । वहां के शैक्षिक, राजकीय, सांस्कृतिक, सामाजिक समीकरण और स्थिति में उसने अपने लेखन से परिवर्तन किया । बर्मिंधम सेंटर ऑफ कल्चरल स्टडीझ की स्थापना की।
शास्त्रीय मार्क्सिझम की लोकप्रिय विचारधारा कि 'पूजीवादी अर्थव्यवस्था' हर तरह की सामाजिक विषमता का मूलभूत कारण है, उसको अधिक व्यापक बनाकर तथा 'सांस्कृतिक आपखुदशाही' (cultural hegemony) सर्वसामान्य लोगोंं की हर प्रकार की दुरवस्था का मूल कारण है इस विचारधारा का अनुसरण कर के, प्रस्थापित संस्कृति को नकार कर 'सब कल्चर (sub culture) अथवा 'युथ कल्चर (youth culture) का आक्रमक पुरस्कार करने का मार्ग लेकर एक वैकल्पिक सामाजिक, सांस्कृतिक, राजकीय व्यवस्था निर्माण करने का ध्येय लेकर इस विद्याशाखा की स्थापना की गई थी । अपनी अपनी सभ्यता के अनुसार जो भी शाश्वत, चिरंतन, वैश्विक सांस्कृतिक मूल्य सर्वत्र आधारभूत माने जाते हैं वे सब इन सांस्कृतिक आपखुदवादी समाज नियंत्रकों ने अल्पसामाजिक समूदायों की संस्कृति को नदारद करने के लिये उन पर थोपे हुए मूल्य हैं इस धारणा को प्रखर मान्यता दे कर, जीवन के सभी स्तर के सत्ताकेंद्रों को पहचानकर उनका निरंतर प्रतिकार करते रहना और प्रभावी संस्कृति को दरकिनार कर, युवाओं तथा अल्पसंख्य समूदायों के नवोदित, तात्कालिक, अल्पकालीन एवं विद्रोही रीति रिवाजों को शक्ति प्रदान करते रहने की कार्यपद्धति के पुरस्कर्ता एवं इस विद्याशाखा के प्रति आत्मीयता का अनुभव करनेवाले लेखकों का 'प्रतिकारवादी' लेखन इस विद्याशाखा के अंतर्गत उपलब्ध करवाने की यह कार्यपद्धति है। 'कल्चरल स्टडीझ' विद्यमान संस्कृति का अध्ययन करता नहीं है, बल्कि एक संस्कृति का निर्माण करता हैं'इस निकष पर आधारित विद्यमान संस्कृति से संबंध नकारने वाला लेखन पाठ्यक्रममें उपलब्ध करवाया जाता है । 'सभी शाश्वत मूल्य प्रस्थापित की श्रेणी में आते हैं और तत्कालीन, समकालीन संस्कृति पारंपरिक संस्कृतिका प्रतिकार करनेवाली होती होती है । इसलिये उसका पुरस्कार करना और हर तरह की समकालीनता को मान्यता देते रहना यह सांस्कृतिक सता के केंद्रों को समाप्त करने का एकमेव मार्ग है। 'एक मनुष्य की राष्ट्र की संकल्पना का अर्थ है दूसरे मनुष्य का दोजख 'इस आशय की शिक्षा सभी विद्यार्थी पिछले तीस वर्षों से धार्मिक विश्वविद्यालयों की उपरोक्त विद्याशाखा के माध्यम से ले रहे हैं । मार्क्सवाद की परंपरा उसके मूल स्वरूप में कायम रखना ही नहीं तो उसे और अधिक विकसित करने की कार्यपद्धति के आधार पर प्रतिदिन की कक्षाकक्ष शिक्षा में उपरोक्त एवं उनके जैसे सभी समकालीन लेखकों का साहित्य आज के विद्यार्थियों को पढाया जाता है । प्रतिदिन कम से कम ५ से छः घण्टे विद्यार्थी इन विचारों के तथा उन्हें प्रस्तुत करने वाले शिक्षकों के संपर्क में रहते हैं, वही पुस्तकें पढते हैं (इस विषय की असंख्य पुस्तकें इंटरनेट पर विनामूल्य उपलब्ध हैं) और उसी के आधार पर परीक्षा देते हैं । पश्चिम के विश्व की वास्तविकता का अनुभव ले कर उस विषय में किया गया आलोचनात्मक लेखन भारत जैसे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परंपरा का जतन करने के साथ साथ अपने संपूर्ण विश्व में अपना अलग वैशिष्ट्य कायम रखने वाले देश को सांस्कृतिक द्रष्टि से समाप्त कर वहां फिर एक बार पाश्चात्य विश्व का प्रभाव निर्माण करना यही उनका ध्येय है।
हॉल अपने लेखन में कहता है कि इस विद्याशाखा के विश्वभर के विद्यार्थियों ने केवल इस तात्विक और सैद्धांतिक प्रावीण्य प्राप्त करने का लक्ष्य न रखते हुए यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि इस विद्याशाखा की सही सफलता उसकी व्यावहारिक कृतिशीलता में है । अर्थात विद्यार्थियों का ध्येय केवल सैद्धांतिक प्रावीण्य (Theoretical Fluency) प्राप्त करना नहीं, बल्कि पूरे विश्व में जीवन से संबंधित प्रत्येक विषय में 'विकल्प' प्रस्थापित करने का होना चाहिये । इसी हेतु से यह विद्याशाखा 'समकालीन सांस्कृतिक' रीतिरिवाजों को अतिशय महत्त्व देती है। उनके मतानुसार 'समकालीन संस्कृति मुख्य रूप से युवा और किशोरवयीन लडके लडकियों के माध्यम से प्रकट होती है । यह प्रकटीकरण मूलतः पारंपरिक और शाश्वत, कालातीत ऐसे मूल्य एवं आदर्शों के विपरीत स्वरूप का ही होता है । इसलिये किसी भी सभ्यता में सर्वमान्य रीति रिवाजों का पुरस्कार करनेवालों के मतानुसार सर्वसामान्य रूप से युवानों की संस्कृति मूल्यहीन होती है, कम से कम ऐसा माना तो जाता ही है। दो पीढियों के मध्य की इसी विचार भिन्नता का फायदा ऊठाकर यह विचारधारा 'युथ कल्चर' माननेवालों को सोच समझ कर 'दमनकारी प्रस्थापित संस्कृति का प्रतिकार करने के लिये उकसाया जाता है और सौहार्द, रचनात्मकता, प्रेम, आदरभाव, त्याग और सेवा जैसे मूल्यों के आधार पर परस्पर संबंधित पीढियाँ , समुदाय, समाज, कुटुंब के सदस्य, सगे संबंधी इत्यादि के मध्य सत्ता संघर्ष का बीज डालकर 'साधक' सत्य से 'बाधक' अवस्था प्रति ले जाते हैं।
इस विद्याशाखा को 'कल्चरल स्टडीझ' नाम देने के पीछे एक विशेष सैद्धांतिक कारण है ।महाविद्यालयीन विद्यार्थियों में, युवकों में साम्यवादी विचारों की लोकप्रियता बढाने का अवसर समविचारी प्राध्यापकों को देने वाली विद्याशाखा का नाम 'कल्चरल' अर्थात 'सांस्कृतिक' रखने का कारण समज लेना अत्यंत आवश्यक है । विश्व की सभी सभ्यताओं के एवं देशों के सामाजिक और सांस्कृतिक तथ्यों का अध्ययन करने वाले पारंपरिक सामाजिक शास्त्र याने 'समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, मानववंश शास्त्र, इतिहास और राज्यशास्त्र'। इन सभी विद्याशाखाओं के अंतर्गत सामान्यतः किये गये १५०० जितने सामाजिक अनुसंधानों में पाश्चात्य बुद्धिजीवियों का तथा 'क्लासिकल मार्क्सिझम, का वर्चस्व रहा था । सभी सामाजिक, राजकीय सिद्धांतों को शास्त्रीय स्वरूप के मार्क्सवाद का आधार था । एकांगी स्वरूप के 'पूंजीवादी औद्योगिकता'के तर्क के आधार पर संपूर्ण विश्व में रहे 'वैविध्यपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक तथ्यों का अध्ययन एवं अनुसंधान' ऐसा इन विचारों का स्वरूप होने के परिणाम स्वरूप 'मार्क्सप्रणीत विचारों की अपरिहार्यता निर्माण हुई और वैचारिक अभिसरण की प्रक्रिया में स्थिरता आई । परिणामतः जाने अनजाने 'उदारवाद'का पुरस्कार करनेवाला मार्क्सवाद कालांतर में 'सैद्धांतिक साँचे' में अटक जाने के कारण संकुचित हो गया और वैश्विक स्तर पर की भिन्न संस्कृति, और समाज के वास्तविक आकलन की प्रक्रिया में कालबाह्य सिद्ध होने लगा । मार्क्सवाद की अपरिहार्यता से कालबाह्यता तक की उसकी यात्रा की परिणति उसके समाप्त होने में न हो इस लिये तथा उसकी उपयोगिता कायम रखने के लिये उसे कालानुरूप, समाज, स्थान, व्यक्ति, समूह, और देश काल सापेक्ष बनाकर एक ऐसी विद्याशाखा में मार्क्सवाद का समावेश किया गया जो कि मार्क्सवाद के प्रति संपूर्ण निष्ठा, केवल अनुनय की 'सापेक्षता'की पद्धति से कार्य करने का अवसर देगी । जिस में बाह्य रूप से तो 'वैचारिक सापेक्षता अथवा उदारता' का स्वीकार हुआ होगा परंतु मूल साम्यवादी रचना अबाधित ही रहेगी । इस प्रकार का उपर से शैक्षिक परंतु वास्तव में राजकीय कार्य करना केवल शिक्षा के, प्रबोधन के माध्यम से ही हो सकता है, वही परिणामकारक है यही बात सामने रखकर इस विद्याशाखा का जन्म हुआ । पूर्व प्रस्थापित सामाजिक शास्त्रों के एकांगी और प्रवंचक 'वस्तुनिष्ठ'वैचारिकता के परिणामहीन होने से साम्यवाद की जो हानि हुई थी उसकी भरपाई करने के लिये 'नये पर्याय'का निर्माण कर वैकल्पिक राजकीय सत्ता की राजनीति में सहभागी होने के उद्देश्य से पूरक सामाजिक परिस्थिति अनिवार्य होने से, उसे सहज स्वीकार्य ऐसा नाम कल्चरल स्टडीझ' (सांस्कृतिक अध्ययन') दिया गया ।
संपूर्ण रूप से साम्यवादी, मार्क्सवादी संरचना रखनेवाली कल्चरल स्टडीझ की विद्याशाखा पूरे विश्व के जो भी देशों के विश्वविद्यालय अथवा संशोधन केंद्रों में सीखाई जाती है, उन सभी देशों में 'वहाँ के 'राष्ट्रवाद' को सिर से पाँव तक छेद कर, मार्क्सवाद के, साम्यवाद के गृहितों को, तर्कों को बुद्धिप्रमाण्यवादी, तर्कशुद्ध वैज्ञानिक ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त करा कर 'शैक्षिक पाठ्यक्रम' के रूप में अध्ययन के लिये उपलब्ध करवाया जाता हैं । १९१० से १९३० के दौरान इटली की 'कम्युनिस्ट पार्टी' के अध्यक्ष अन्तोनिओ ग्रामची ( -पींपळे ऋवशीलळ) के क्लासिकल मार्क्सिझम की पुनर्रचना पर लेखन तथा लुइस अल्थुझर के 'संरचनावाद' के आधार पर विकसित यह विद्याशाखा माने बहुसंख्य देशों में राजकीय दृष्टि से असफल सिद्ध हुई साम्यवादी विचारधारा को एक बार फिर से खडा होने के लिये निर्माण किया हआ रंगमंच है। ग्रामची के मतानुसार 'कारीगर और कृषिमझदूरों ने सांप्रदायिक (फासीस्ट) लोगोंं को मत नहीं देना चाहिये । बुद्धिनिष्ठ साम्यवादी विचारों के प्रति सामान्य लोगोंं की पसंद निर्माण करने के लिये योजनाबद्ध पद्धति से कार्य करना पड़ेगा क्लासिकल मार्क्सिझम के अनुसार सामाजिक वर्गव्यवस्था आर्थिक स्थिति के अनुसार परिभाषित होती है इसलिये मार्क्स ने वर्ग विग्रह को क्रांति का कारण और ध्येय माना । परंतु ग्रामची ने मार्क्स के वर्ग विग्रह के तर्क को अधिक व्यापक बना कर ‘राजकीय एवं सामाजिक संघर्ष का क्षेत्र आर्थिकता न हो कर संस्कृति हैं' ऐसा विचार प्रस्तुत किया । उसके मतानुसार पूंजीवादी सामाजिक और राजकीय नियंत्रण करने के लिये केवल पुलिस, केद, दमन और लश्कर के ही पाशवी माध्यमों का प्रयोग करते हैं ऐसा नहीं है । बल्कि पूंजीवादी जो सामाजिक अथवा राजकीय नियंत्रण करते हैं उसके प्रति सामान्य लोगोंं की सम्मति प्राप्त करने का माध्यम 'संस्कृति' है । इस प्रकार के 'संस्कृतिजन्यराजकीय, आर्थिक नियंत्रण को ग्रामची 'सांस्कृतिक आपखुदशाही' कहता है । इसलिये 'संघर्ष का, क्रांति का आधार आर्थिक वर्ग व्यवस्था अथवा राजकीय व्यवस्था नहीं, परंतु सांस्कृतिक आधार पर क्रांति करने से ही साम्यवादी व्यवस्था का लक्ष्य प्राप्त हो सकता है। ' कल्चरल स्टडीझ का संपूर्ण लेखन इसी 'प्रतिकारवादी'तर्क पर आधारित रहा है।
अंत में यही कहना है कि उपरोक्त जानकारी तो थोडासा हिस्सा ही है । १९५७ में आरम्भ हुई 'कल्चरल स्टडीझ' विद्याशाखा वर्तमान में विश्व के प्रमुख विश्वविद्यालयों की 'आंतरविद्याशाखा' स्तर की सब से अधिक लोकप्रिय शाखा मानी जाती है । उसमें कार्यरत वर्तमान बुद्धिवादियों की सूची बहुत लम्बी है । वैश्विक स्तर पर कुल मिला कर ३२ देशों के सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों में यह विषय पढा और पढाया जाता है । इन विश्वविद्यालयों में इस विद्याशाखा में कार्यरत प्राध्यापक, विचारक सदां परस्पर संपर्क में रहते हैं । उनका नेटवर्क बहुत सक्रिय है। परस्पर विचार विमर्श निरंतर चलता रहता है । अपनी कारकिर्द को परदेश गमन का स्पर्श हो कर वह अधिकाधिक विकसित हो ऐसी महत्त्वाकांक्षा के साथ अनेक प्राध्यापक लोग 'कल्चरल स्टडीझ के 'ट्रेंड'का अनुसरण कर के कुछ भी वैचारिक स्पष्टता के बिना ही इस विद्याशाखा के अंतर्गत अनुसन्धान करते हैं और विद्यार्थियों को भी उसके लिये प्रोत्साहित करते हैं । विशेष रूप से कुछ सीमित स्वरूप में इस विषय की 'वैल्कपिक' रचना का तर्क कुशलतापूर्वक भारत देश के संदर्भ में प्रस्तुत हो सकता है।
साम्यवाद के 'सामाजिक वर्ग विग्रह के तर्क एवं सिद्धांत पर आधारित तथा सशस्त्र अथवा आंदोलनात्मक प्रतिकार की कार्य पद्धति पर आधारित 'कल्चरल स्टडीझ' नामक विद्याशाखा अथवा विषय भारत में पढाया जाना अपने आप में दुर्भाग्य की बात है। भारत पहले ही सेंकडों वर्षों से मुगल अथवा ब्रिटिश साम्राज्य के आधिपत्य में रहने के कारण अपना स्वत्व एवं अस्मिता बड़े पैमाने पर गँवा बैठा है । ऐसे आघातों के कारण दुर्बल मानसिकता प्राप्त देश में ऐसा विषय पढाने का अर्थ है वैविध्यपूर्ण धार्मिक समाज को राष्ट्रीयता की भावना से एक करने वाले विचारों के स्थान पर देश विघातक विचारों की सहायता से देश के युवकों की उर्जा और उत्साह नष्ट करना । सामाजिक सौहार्दपूर्ण वातावरण नष्ट करना, प्रत्येक समुदाय को एक दूसरे के विरुद्ध, व्यक्ति को व्यक्ति विरुद्ध, युवा पीढी को अपनी पूर्व पीढी विरुद्ध, स्त्रियों को पुरुषों के विरुद्ध, व्यक्ति को अपने परिवार एवं समाज विरुद्ध, नागरिकों को सरकार विरुद्ध, कर्मचारियों को अपनी अपनी कम्पनी के विरुद्ध, देश के लोगोंं को अपने देश विरुद्ध निरंतर संघर्षमय रखने का प्रशिक्षण देनेवाली यह शिक्षा के माध्यम से निर्माण की गई व्यवस्था है । उसका उद्देश्य भारत के वैशिष्ट्यपूर्ण विविधतायुक्त समाज को एकत्व के संस्कारों द्वारा संगठित कर देश की शक्ति बढाने के कार्य में बाधा उत्पन्न करना है । तथा उसके परिणामस्वरूप विभाजित और असंगठित समाज का, युवा, महिला, दलित, अल्पसंख्यांक, मझदूर, शोषित, पीडित वर्ग का, कुलमिलाकर 'सामाजिक विषमता का लाभ उठाकर, सदियों के राजकीय एवं सांस्कृतिक पारतंत्र्य के बाद फिर से विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाने का प्रयत्न कर रहे भारत को फिर एक बार स्वविस्मृति की गर्ता में धकेलने का यह कारस्थान शिक्षा के माध्यम से हो रहा है यह बडे दुर्भाग्य की बात है।
युरोपीय एवं अमेरिकन विश्वविद्यालयों के साथ संबंधित वामपंथी विचारक कल्चरल स्टडीझ के 'वैकल्पिक संस्कृति' के तर्क के आधार पर वास्तव में 'साम्यवादी व्यवस्था' के विकल्प का ही समर्थन करते हैं। क्यों कि उन लोगोंं का प्रमुख ध्येय स्थानिक संस्कृति को प्रवाहित रखने का न हो कर चीन की माओवादी 'सांस्कृतिक क्रांति' की धार्मिक आवृत्ति साकार करना है । जो भारत के साथ हो रहा है वह विश्व के किसी भी देश के साथ हो सकता है।
References
धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे