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सूर्योदय से पूर्व जागरण, प्रातः स्नान, संध्या, तप, वेद-स्वाध्याय, देव-सेवा, गो-सेवा, अतिथि-सत्कार, मृदु-वाणी, गुरु-सेवा, सत्य-पालन, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, दान, करुणा, विनम्रता, धर्मपालन इत्यादि - ये सभी सदाचार के अंग माने गए हैं।
 
सूर्योदय से पूर्व जागरण, प्रातः स्नान, संध्या, तप, वेद-स्वाध्याय, देव-सेवा, गो-सेवा, अतिथि-सत्कार, मृदु-वाणी, गुरु-सेवा, सत्य-पालन, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, दान, करुणा, विनम्रता, धर्मपालन इत्यादि - ये सभी सदाचार के अंग माने गए हैं।
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धर्मशास्त्र परंपरा में वेद और स्मृतियों के साथ-साथ सामाजिक आचार को भी धर्म के विषय में प्रमाण माना जाता है। भारतीय चिन्तन धारा ने जाति, कुल, ग्राम, देश आदि के अपने आचार व रीति रिवाजों को धर्म माना है। यह व्यवस्था धर्मशास्त्र को जीवन्तता प्रदान करती है। मनु ने धर्म के निम्नलिखित स्रोत बताये हैं - <blockquote>वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम्॥ (मनु स्मृति)</blockquote>'''भाषार्थ -''' वेद, स्मृति, सदाचार तथा स्वयं का प्रिय - ये धर्म के चार स्रोत हैं। यदि अपने कार्य अकार्य के विषय में जानना हो तो इनसे जाना जा सकता है।
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धर्मशास्त्र परंपरा में वेद और स्मृतियों के साथ-साथ सामाजिक आचार को भी धर्म के विषय में प्रमाण माना जाता है। भारतीय चिन्तन धारा ने जाति, कुल, ग्राम, देश आदि के अपने आचार व रीति रिवाजों को धर्म माना है। यह व्यवस्था धर्मशास्त्र को जीवन्तता प्रदान करती है। मनु ने धर्म के निम्नलिखित स्रोत बताये हैं - <blockquote>वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम्॥ (मनु स्मृति २.१२ )<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय- २, श्लोक- १२।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' वेद, स्मृति, सदाचार तथा स्वयं का प्रिय - ये धर्म के चार स्रोत हैं। यदि अपने कार्य अकार्य के विषय में जानना हो तो इनसे जाना जा सकता है।
    
==आचार की दार्शनिक संरचना॥ Philosophical Structure of Achara==
 
==आचार की दार्शनिक संरचना॥ Philosophical Structure of Achara==
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आचार को ही लोकाचार, शिष्टाचार तथा सदाचार जैसे नामों से भी अभिहित किया जाता है। यह सामान्यतः व्यक्ति के चरित्र, उसके आचरण, उसकी योग्यता और उसकी शील-संपन्नता का परिचायक होता है। आचार मनुष्य के व्यवहार का वह रूप है जो समाज में उसके व्यक्तित्व को आदर और प्रतिष्ठा प्रदान करता है। अखंड रूप से देखें तो आचार वही होता है, जिससे स्वयं व्यक्ति और समाज - दोनों का हित साधित होता है।<ref name=":0" />
 
आचार को ही लोकाचार, शिष्टाचार तथा सदाचार जैसे नामों से भी अभिहित किया जाता है। यह सामान्यतः व्यक्ति के चरित्र, उसके आचरण, उसकी योग्यता और उसकी शील-संपन्नता का परिचायक होता है। आचार मनुष्य के व्यवहार का वह रूप है जो समाज में उसके व्यक्तित्व को आदर और प्रतिष्ठा प्रदान करता है। अखंड रूप से देखें तो आचार वही होता है, जिससे स्वयं व्यक्ति और समाज - दोनों का हित साधित होता है।<ref name=":0" />
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स्मृतियों के अनुसार जब कोई व्यक्ति किसी देश या समुदाय के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश करता है, तो उसे वहाँ की परम्पराओं, आचारों, सामाजिक व्यवहार तथा कुल-सम्बन्धी मर्यादाओं का उसी प्रकार पालन करना चाहिए। जैसे कहा गया है -  
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स्मृतियों के अनुसार जब कोई व्यक्ति किसी देश या समुदाय के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश करता है, तो उसे वहाँ की परम्पराओं, आचारों, सामाजिक व्यवहार तथा कुल-सम्बन्धी मर्यादाओं का उसी प्रकार पालन करना चाहिए - <blockquote>यस्मिन्देशे य आचारो व्यवहारः कुलस्थितिः । तथैव परिपाल्योऽसौ यदा वशं उपागतः॥ (याज्ञवल्क्य स्मृति १.३४३)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%86%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83/%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D याज्ञवल्क्य स्मृति], आचाराध्याय, श्लोक 343।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' जिस स्थान में जिस प्रकार का आचार-विचार और सामाजिक आचरण प्रचलित हो, वहाँ पहुँचकर व्यक्ति को वही मर्यादाएँ अपनानी चाहिए, जैसे शरीर पर वस्त्र बदलने पर उसके अनुसार रूप-रंग और उपयुक्तता का ध्यान रखा जाता है।
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'''‘यत्रस्नेहेऽपि य आचारो व्यवहारः कुलस्थितिः।'''
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==परिभाषा==
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भारतीय आचार-शास्त्र में उचित आचरण को आचार तथा अनुचित आचरण को अनाचार कहा गया है। वृहत्त् संस्कृताभिधान वाचस्पत्य के अनुसार ‘आचार’ की व्युत्पत्ति का विवेचन करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि आचार को दो रूपों सदाचार एवं कदाचार में वर्गीकृत किया जाता है - <ref name=":0">शोध छात्रा - मासुमा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/455720 वैदिक परम्परा में आचार मीमांसा एक अध्ययन], सन २०२२, शोधकेन्द्र - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० १७)।</ref>
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'''तत्रैव परिवर्त्योऽसौ यथा वपुषि वाससु॥’'''
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आचरणै अनुष्ठाने स च अनुष्ठान निवृत्त्यात्मक भावाभावरूपः। तत्र सदाचारः वेदस्मृत्यादि विहित तत्र नित्य निषिद्धश्च कदाचार इति भेदात् द्विविधः वाचस्पत्यम्।
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अर्थात् जिस स्थान में जिस प्रकार का आचार-विचार और सामाजिक आचरण प्रचलित हो, वहाँ पहुँचकर व्यक्ति को वही मर्यादाएँ अपनानी चाहिए, जैसे शरीर पर वस्त्र बदलने पर उसके अनुसार रूप-रंग और उपयुक्तता का ध्यान रखा जाता है।
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== स्मृति ग्रन्थों में आचार ==
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'''नैतिक आचार'''
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==परिभाषा==
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'''सामाजिक आचार'''
भारतीय आचार-शास्त्र में उचित आचरण को आचार तथा अनुचित आचरण को अनाचार कहा गया है। वृहत्त् संस्कृताभिधान वाचस्पत्य के अनुसार ‘आचार’ की व्युत्पत्ति का विवेचन करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि आचार को दो रूपों सदाचार एवं कदाचार में वर्गीकृत किया जाता है - <ref name=":0">शोध छात्रा - मासुमा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/455720 वैदिक परम्परा में आचार मीमांसा एक अध्ययन], सन २०२२, शोधकेन्द्र - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० १७)।</ref>
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आचरणै अनुष्ठाने स च अनुष्ठान निवृत्त्यात्मक भावाभावरूपः। तत्र सदाचारः वेदस्मृत्यादि विहित तत्र नित्य निषिद्धश्च कदाचार इति भेदात् द्विविधः वाचस्पत्यम्।
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'''पारिवारिक आचार'''
    
==उद्धरण==
 
==उद्धरण==
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