Difference between revisions of "Achara (आचार)"

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(नया लेख प्रारंभ - आचार)
 
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== परिचय॥ Introduction ==
 
== परिचय॥ Introduction ==
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आचार मानवता का पोषक, रक्षक और सुख का परम आधार है। पुराणों में कहा गया है कि यदि कोई मनुष्य वेदों का ज्ञान रखता हो, विभिन्न शास्त्रों को जानता हो, फिर भी यदि उसके जीवन में आचार का सम्यक् पालन नहीं है, तो वेद या शास्त्रों का ज्ञान उसे पूर्ण फल नहीं दे सकता। प्राचीन ऋषियों और परम्पराओं ने मनुष्य के आचरण के लिए अनेक विधियाँ निश्चित की हैं, और यह विशेष रूप से बताया गया है कि मनुष्य को किन-किन नियमों का पालन करना चाहिए।
  
== परिभाषा ==
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आचार वह मार्ग है जो मनुष्य के अंतःकरण को शुद्ध करता है। कोई भी वस्तु उसके लिए अमंगलकारी नहीं बनती और न ही कोई बाधा उत्पन्न होती है। जो व्यक्ति आचार का पालन करता है, उसे स्वाभाविक रूप से सत्य-ज्ञान प्राप्त होता है। महर्षियों और धर्मग्रंथों ने आचार को धर्म का मूल अंग माना है और संत-महात्माओं ने भी सदैव यही कहा है कि आचार ही मनुष्य का वास्तविक श्रृंगार है। पुराणों के अनुसार आचार का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत है। जैसे -
  
== उद्धरण ==
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सूर्योदय से पूर्व जागरण, प्रातः स्नान, संध्या, तप, वेद-स्वाध्याय, देव-सेवा, गो-सेवा, अतिथि-सत्कार, मृदु-वाणी, गुरु-सेवा, सत्य-पालन, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, दान, करुणा, विनम्रता, धर्मपालन इत्यादि - ये सभी सदाचार के अंग माने गए हैं।
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धर्मशास्त्र परंपरा में वेद और स्मृतियों के साथ-साथ सामाजिक आचार को भी धर्म के विषय में प्रमाण माना जाता है। भारतीय चिन्तन धारा ने जाति, कुल, ग्राम, देश आदि के अपने आचार व रीति रिवाजों को धर्म माना है। यह व्यवस्था धर्मशास्त्र को जीवन्तता प्रदान करती है। मनु ने धर्म के निम्नलिखित स्रोत बताये हैं - <blockquote>वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम्॥ (मनु स्मृति)</blockquote>'''भाषार्थ -''' वेद, स्मृति, सदाचार तथा स्वयं का प्रिय - ये धर्म के चार स्रोत हैं। यदि अपने कार्य अकार्य के विषय में जानना हो तो इनसे जाना जा सकता है।
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==आचार की दार्शनिक संरचना॥ Philosophical Structure of Achara==
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आचार से आशय उस श्रेष्ठ आचरण से है जिसे व्यक्ति अपने जीवन में अपनाता है। यह धर्म, नैतिकता और सामाजिक दृष्टि से ऐसा आचरण है जिसे सभी लोग अनुसरण योग्य मानते हैं। आचार का निर्धारण समाज की समष्टि-हित भावना को ध्यान में रखकर किया जाता है; इसलिए यह सदैव शोभनीय और लोक-हितकारी होता है।
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आचार को ही लोकाचार, शिष्टाचार तथा सदाचार जैसे नामों से भी अभिहित किया जाता है। यह सामान्यतः व्यक्ति के चरित्र, उसके आचरण, उसकी योग्यता और उसकी शील-संपन्नता का परिचायक होता है। आचार मनुष्य के व्यवहार का वह रूप है जो समाज में उसके व्यक्तित्व को आदर और प्रतिष्ठा प्रदान करता है। अखंड रूप से देखें तो आचार वही होता है, जिससे स्वयं व्यक्ति और समाज - दोनों का हित साधित होता है।<ref name=":0" />
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स्मृतियों के अनुसार जब कोई व्यक्ति किसी देश या समुदाय के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश करता है, तो उसे वहाँ की परम्पराओं, आचारों, सामाजिक व्यवहार तथा कुल-सम्बन्धी मर्यादाओं का उसी प्रकार पालन करना चाहिए। जैसे कहा गया है -
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'''‘यत्रस्नेहेऽपि य आचारो व्यवहारः कुलस्थितिः।'''
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'''तत्रैव परिवर्त्योऽसौ यथा वपुषि वाससु॥’'''
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अर्थात् जिस स्थान में जिस प्रकार का आचार-विचार और सामाजिक आचरण प्रचलित हो, वहाँ पहुँचकर व्यक्ति को वही मर्यादाएँ अपनानी चाहिए, जैसे शरीर पर वस्त्र बदलने पर उसके अनुसार रूप-रंग और उपयुक्तता का ध्यान रखा जाता है।
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==परिभाषा==
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भारतीय आचार-शास्त्र में उचित आचरण को आचार तथा अनुचित आचरण को अनाचार कहा गया है। वृहत्त् संस्कृताभिधान वाचस्पत्य के अनुसार ‘आचार’ की व्युत्पत्ति का विवेचन करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि आचार को दो रूपों सदाचार एवं कदाचार में वर्गीकृत किया जाता है - <ref name=":0">शोध छात्रा - मासुमा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/455720 वैदिक परम्परा में आचार मीमांसा एक अध्ययन], सन २०२२, शोधकेन्द्र - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० १७)।</ref>
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आचरणै अनुष्ठाने स च अनुष्ठान निवृत्त्यात्मक भावाभावरूपः। तत्र सदाचारः वेदस्मृत्यादि विहित तत्र नित्य निषिद्धश्च कदाचार इति भेदात् द्विविधः वाचस्पत्यम्।
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==उद्धरण==
 
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Revision as of 04:21, 30 November 2025

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आचार (संस्कृतः आचारः) को धर्म का मूलाधार, मानव-चरित्र का दर्पण, समाज-व्यवस्था का नियामक तथा आध्यात्मिक विकास का साधन बताया गया है। स्मृतियों में यह स्पष्ट रूप से व्यक्त है कि आचार केवल किसी व्यक्ति के बाहरी कर्मों का समूह नहीं, अपितु उसके चरित्र, सद्बुद्धि, समाजबोध और आत्मानुशासन का सम्मिलित रूप है।

परिचय॥ Introduction

आचार मानवता का पोषक, रक्षक और सुख का परम आधार है। पुराणों में कहा गया है कि यदि कोई मनुष्य वेदों का ज्ञान रखता हो, विभिन्न शास्त्रों को जानता हो, फिर भी यदि उसके जीवन में आचार का सम्यक् पालन नहीं है, तो वेद या शास्त्रों का ज्ञान उसे पूर्ण फल नहीं दे सकता। प्राचीन ऋषियों और परम्पराओं ने मनुष्य के आचरण के लिए अनेक विधियाँ निश्चित की हैं, और यह विशेष रूप से बताया गया है कि मनुष्य को किन-किन नियमों का पालन करना चाहिए।

आचार वह मार्ग है जो मनुष्य के अंतःकरण को शुद्ध करता है। कोई भी वस्तु उसके लिए अमंगलकारी नहीं बनती और न ही कोई बाधा उत्पन्न होती है। जो व्यक्ति आचार का पालन करता है, उसे स्वाभाविक रूप से सत्य-ज्ञान प्राप्त होता है। महर्षियों और धर्मग्रंथों ने आचार को धर्म का मूल अंग माना है और संत-महात्माओं ने भी सदैव यही कहा है कि आचार ही मनुष्य का वास्तविक श्रृंगार है। पुराणों के अनुसार आचार का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत है। जैसे -

सूर्योदय से पूर्व जागरण, प्रातः स्नान, संध्या, तप, वेद-स्वाध्याय, देव-सेवा, गो-सेवा, अतिथि-सत्कार, मृदु-वाणी, गुरु-सेवा, सत्य-पालन, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, दान, करुणा, विनम्रता, धर्मपालन इत्यादि - ये सभी सदाचार के अंग माने गए हैं।

धर्मशास्त्र परंपरा में वेद और स्मृतियों के साथ-साथ सामाजिक आचार को भी धर्म के विषय में प्रमाण माना जाता है। भारतीय चिन्तन धारा ने जाति, कुल, ग्राम, देश आदि के अपने आचार व रीति रिवाजों को धर्म माना है। यह व्यवस्था धर्मशास्त्र को जीवन्तता प्रदान करती है। मनु ने धर्म के निम्नलिखित स्रोत बताये हैं -

वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम्॥ (मनु स्मृति)

भाषार्थ - वेद, स्मृति, सदाचार तथा स्वयं का प्रिय - ये धर्म के चार स्रोत हैं। यदि अपने कार्य अकार्य के विषय में जानना हो तो इनसे जाना जा सकता है।

आचार की दार्शनिक संरचना॥ Philosophical Structure of Achara

आचार से आशय उस श्रेष्ठ आचरण से है जिसे व्यक्ति अपने जीवन में अपनाता है। यह धर्म, नैतिकता और सामाजिक दृष्टि से ऐसा आचरण है जिसे सभी लोग अनुसरण योग्य मानते हैं। आचार का निर्धारण समाज की समष्टि-हित भावना को ध्यान में रखकर किया जाता है; इसलिए यह सदैव शोभनीय और लोक-हितकारी होता है।

आचार को ही लोकाचार, शिष्टाचार तथा सदाचार जैसे नामों से भी अभिहित किया जाता है। यह सामान्यतः व्यक्ति के चरित्र, उसके आचरण, उसकी योग्यता और उसकी शील-संपन्नता का परिचायक होता है। आचार मनुष्य के व्यवहार का वह रूप है जो समाज में उसके व्यक्तित्व को आदर और प्रतिष्ठा प्रदान करता है। अखंड रूप से देखें तो आचार वही होता है, जिससे स्वयं व्यक्ति और समाज - दोनों का हित साधित होता है।[1]

स्मृतियों के अनुसार जब कोई व्यक्ति किसी देश या समुदाय के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश करता है, तो उसे वहाँ की परम्पराओं, आचारों, सामाजिक व्यवहार तथा कुल-सम्बन्धी मर्यादाओं का उसी प्रकार पालन करना चाहिए। जैसे कहा गया है -

‘यत्रस्नेहेऽपि य आचारो व्यवहारः कुलस्थितिः।

तत्रैव परिवर्त्योऽसौ यथा वपुषि वाससु॥’

अर्थात् जिस स्थान में जिस प्रकार का आचार-विचार और सामाजिक आचरण प्रचलित हो, वहाँ पहुँचकर व्यक्ति को वही मर्यादाएँ अपनानी चाहिए, जैसे शरीर पर वस्त्र बदलने पर उसके अनुसार रूप-रंग और उपयुक्तता का ध्यान रखा जाता है।

परिभाषा

भारतीय आचार-शास्त्र में उचित आचरण को आचार तथा अनुचित आचरण को अनाचार कहा गया है। वृहत्त् संस्कृताभिधान वाचस्पत्य के अनुसार ‘आचार’ की व्युत्पत्ति का विवेचन करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि आचार को दो रूपों सदाचार एवं कदाचार में वर्गीकृत किया जाता है - [1]

आचरणै अनुष्ठाने स च अनुष्ठान निवृत्त्यात्मक भावाभावरूपः। तत्र सदाचारः वेदस्मृत्यादि विहित तत्र नित्य निषिद्धश्च कदाचार इति भेदात् द्विविधः वाचस्पत्यम्।

उद्धरण

  1. 1.0 1.1 शोध छात्रा - मासुमा, वैदिक परम्परा में आचार मीमांसा एक अध्ययन, सन २०२२, शोधकेन्द्र - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० १७)।