Changes

Jump to navigation Jump to search
सुधार जारी
Line 1: Line 1:  
{{ToBeEdited}}
 
{{ToBeEdited}}
   −
प्रायश्चित्त एक ऐसा धार्मिक-अनुशासनात्मक प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से व्यक्ति अपने पापों, दोषों एवं अपराधों का प्रायश्चित करता है और आत्म-शुद्धि प्राप्त करता है। प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रों में प्रायश्चित्त को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है, क्योंकि यह न केवल व्यक्तित्व की व्यक्तिगत सुधारी प्रक्रिया है, बल्कि सामाजिक सामंजस्य और न्याय की स्थापना का भी माध्यम है।
+
प्रायश्चित्त (संस्कृतः प्रायश्चित्तः) एक धार्मिक-अनुशासनात्मक प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से व्यक्ति अपने पापों, दोषों एवं अपराधों का शोधन और आत्म-शुद्धि प्राप्त करता है। प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रों में प्रायश्चित्त को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान दिया है, क्योंकि यह न केवल व्यक्तित्व की व्यक्तिगत सुधार प्रक्रिया है, अपितु सामाजिक सामंजस्य और न्याय स्थापना का भी माध्यम है। प्रायश्चित्त हेतु जप, तप, हवन, दान, उपवास, तीर्थयात्रा, प्राजापत्य, चांद्रायण आदि व्रत इसकी प्रमुख विधियाँ हैं। इन सबका विधान मानसिक शुद्धि एवं पाप की निवृत्ति के लिए किया गया है।
   −
== परिचय॥ Introduction==
+
==परिचय॥ Introduction==
संस्कृत में प्रायश्चित्त शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गई है - प्रायः तुष्टं चित्तं यत्र तत् प्रायश्चित्तम्। अर्थात् जिसके करने से चित्त तुष्ट हो जाए, वही प्रायश्चित्त कहलाता है। इस शब्द का मूल भाव यही है कि जब मनुष्य किसी पाप, अपराध या अनुचित कर्म के कारण ग्लानि और अपराधबोध का अनुभव करता है, तब वह अपने अंदर की शुद्धि और मानसिक शांति के लिए जो कृत्य करता है, वही प्रायश्चित्त है। ग्लानि की भावना प्रायश्चित्त की मूल प्रेरणा है- यही भावना व्यक्ति को क्षमा मांगने, सुधार करने और आत्मशुद्धि की दिशा में अग्रसर करती है।<ref>शोधकर्त्री- नीरा अरोरा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/78182 संस्कृत वांग्मय में प्रायश्चित्त विधान] (२०१३, शोधकेन्द्र- स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग, जम्मू विश्वविद्यालय (पृ० ३) </ref><blockquote>अकुर्वन् विहितं कर्म निन्दितं च समाचरन्। प्रसक्तश्चेन्द्रियार्थेषु प्रायश्चित्तीयते नरः॥ (मनुस्मृति 11/44)</blockquote>'''भाषार्थ -''' जो व्यक्ति शास्त्रविहित कर्मों का पालन नहीं करता और निन्दित या निषिद्ध कर्म करता है, या जो इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होकर पतन की ओर बढ़ता है, उसे प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध होना चाहिए।
+
संस्कृत में प्रायश्चित्त शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गई है - प्रायः तुष्टं चित्तं यत्र तत् प्रायश्चित्तम्। अर्थात् जिसके करने से चित्त तुष्ट हो जाए, वही प्रायश्चित्त कहलाता है। इस शब्द का मूल भाव यही है कि जब मानव किसी पाप, अपराध या अनुचित कर्म के कारण ग्लानि और अपराधबोध का अनुभव करता है, तब वह अपने अंदर की शुद्धि और मानसिक शांति के लिए जो कृत्य करता है, वही प्रायश्चित्त है। ग्लानि की भावना प्रायश्चित्त की मूल प्रेरणा है- यही भावना व्यक्ति को क्षमा मांगने, सुधार करने और आत्मशुद्धि की दिशा में अग्रसर करती है।<ref>शोधकर्त्री- नीरा अरोरा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/78182 संस्कृत वांग्मय में प्रायश्चित्त विधान] (२०१३, शोधकेन्द्र- स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग, जम्मू विश्वविद्यालय (पृ० ३) </ref><blockquote>अकुर्वन् विहितं कर्म निन्दितं च समाचरन्। प्रसक्तश्चेन्द्रियार्थेषु प्रायश्चित्तीयते नरः॥ (मनुस्मृति 11/44)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%8F%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय-११, श्लोक- ४४।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' जो व्यक्ति शास्त्रविहित कर्मों का पालन नहीं करता और निन्दित या निषिद्ध कर्म करता है, या जो इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होकर पतन की ओर बढ़ता है, उसे प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध होना चाहिए। प्रायश्चित व्यवस्था के अनुसार मनुष्य प्रायश्चित तभी कर सकता है जब वह दुष्कृत्य के लिए मन में पश्चात्ताप का अनुभव करें -  <blockquote>प्रायश्चित्तन्तु तस्यैव कर्त्तव्यं नेतरस्य तु। जातानुतापस्य भवेत्प्रायश्चित्तं यथोदितम्॥ (वृद्ध हारीतस्मृति, ६.२१५)<ref>स्मृति सन्दर्भः-द्वितीय भाग, [https://archive.org/details/smriti-sandarbha-gurumandal-series/Smriti%20Sandarbha%20Part%202%20-%20Gurumandal%20Series%201952/page/n607/mode/2up वृद्ध हारीतस्मृति], अध्याय- ६, श्लोक- २१५, गुरुमण्डल ग्रन्थालय, कलकत्ता (पृ० ११४८)।</ref> </blockquote>इस प्रकार प्रायश्चित्त में मनुष्य की इच्छा तथा अनिच्छा का अत्यधिक महत्व है। स्मार्त व्यवस्था है कि व्यक्ति से प्रायश्चित्त बलपूर्वक नहीं करवाया जा सकता - 
   −
याज्ञवल्क्यस्मृति में कहा गया है - <blockquote>विहितस्याननुष्ठानान्निन्दितस्य च सेवनात्। अनिग्रहाच्चेन्द्रियाणां नरः पतनमृच्छति। तस्मात् तेनेह कर्तव्यं प्रायश्चित्तं विशुद्धये॥ (याज्ञवल्क्यस्मृति</blockquote>'''भाषार्थ -''' जो व्यक्ति विहित कर्मों का पालन नहीं करता, निन्दित कर्मों का सेवन करता है और अपनी इन्द्रियों का संयम नहीं रखता, वह अधोगति को प्राप्त होता है। इसलिए उसे अपने पतन से उद्धार और शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त करना आवश्यक है।
+
*व्यक्ति का मन जितना अपने दुष्कर्मों को घृणित समझता है, उसका शरीर उतना पापमुक्त होता जाता है।
 +
*मनु के अनुसार, महापातक तथा अन्य दुष्कर्मों के अपराधी व्यक्ति सम्यक तप से पाप मुक्त हो सकते हैं।
 +
*वाणी या शरीर से हुए पाप तप द्वारा नष्ट हो जाते हैं।
 +
*अनजाने में हुए पापों का शोधन वैदिक मंत्रों के जप तथा प्रार्थना द्वारा होता है।
   −
==परिभाषा॥ Definition==
+
जो पाप ज्ञान पूर्वक किये गए हैं, उनका शोधन केवल प्रायश्चित्त कर्म द्वारा संभव है।<ref>शोधार्थिनी- नन्दिता मिश्रा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/551162 मनु तथा याज्ञवल्क्य स्मृतियों में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधान का तुलनात्मक अध्ययन] (२००८), शोधकेन्द्र- संस्कृत तथा प्राकृत भाषा विभगा, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ (पृ० १०५)।</ref> याज्ञवल्क्यस्मृति में कहा गया है - <blockquote>विहितस्याननुष्ठानान्निन्दितस्य च सेवनात्। अनिग्रहाच्चेन्द्रियाणां नरः पतनमृच्छति॥
निबन्धों एवं टीकाओं ने प्रायश्चित्त की व्युत्पत्ति प्रायः (अर्थात तप) एवं चित्त (अर्थात संकल्प या दृढ विश्वास) से की है -<ref>डॉ० पाण्डुरंग वामन काणे, [https://archive.org/details/03.-dharma-shastra-ka-itihas-tatha-anya-smritiyan/03.Dharma%20Shastra%20Ka%20Itihas%20of%20Dr.%20Pandurang%20Vaman%20Kane%20Vol.%203%20-%20Uttar%20Pradesh%20Hindi%20Sansthan%20Lucknow-Reduced/page/n51/mode/1up धर्मशास्त्र का इतिहास भाग-3], सन २००३, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० १०४४)।</ref> <blockquote>प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चित्तं निश्चय उच्यते। तपोनिश्चयसंयोगात्प्रायश्चित्तमिति स्मृतम्॥ (गौतमस्मृति ११.१)</blockquote>इसका सम्बन्ध तप करने के संकल्प से है या विश्वास से है कि इससे पापमोचन होगा।
     −
== प्रायश्चित्त का स्वरूप॥ Prayashchitta ka Svaroop==
+
तस्मात् तेनेह कर्तव्यं प्रायश्चित्तं विशुद्धये। एवमस्यान्तरात्मा च लोकश्चैव प्रसीदति॥
धर्मशास्त्रों में प्रायश्चित्त वह कृत्य माना गया है जिसके करने से मनुष्य के पाप नष्ट होते हैं और उसकी आत्मा शुद्ध होती है। प्रायश्चित्त केवल पापमोचन का उपाय नहीं, अपितु आत्मसंयम का साधन भी है।
     −
धर्मशास्त्रों में स्मृतियों को तीन मुख्य भागों में बांटा गया है - आचार, व्यवहार, तथा प्रायश्चित्त। इनके विधि-विधान, नियम, और दृष्टांत क्रमशः विभिन्न शास्त्रों में वर्णित हैं। प्रायश्चित्त-प्रकरण में दोषमोचन, तप, और सामाजिक पुनरुत्थान के प्रमाण मिलते हैं।<ref name=":0" />
+
प्रायश्चित्तमकुर्वाणाः पापेषु निरता नराः। अपश्चात्तापिनः कष्टान् नरकान् यान्ति दारुणान्॥ (याज्ञवल्क्यस्मृति ३.२२१)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D याज्ञवल्क्यस्मृति], प्रायश्चित्त प्रकरण, अध्याय-०३, श्लोक- २१९-२२१।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' जो व्यक्ति विहित कर्मों का पालन नहीं करता, निन्दित कर्मों का सेवन करता है और अपनी इन्द्रियों का संयम नहीं रखता, वह अधोगति को प्राप्त होता है। इसलिए उसे अपने पतन से उद्धार और शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त करना आवश्यक है।
   −
अकामतः कृतं पापं वेदाभ्यासेन शुद्ध्यति। कामतस्तु कृतं मोहत्प्रायश्चित्तै पृथग्विधैः॥ (मनुस्मृति ११.४६)
+
==परिभाषा॥ Definition==
 +
निबन्धों एवं टीकाओं ने प्रायश्चित्त की व्युत्पत्ति प्रायः (अर्थात तप) एवं चित्त (अर्थात संकल्प या दृढ विश्वास) से की है -<ref name=":1">डॉ० पाण्डुरंग वामन काणे, [https://archive.org/details/03.-dharma-shastra-ka-itihas-tatha-anya-smritiyan/03.Dharma%20Shastra%20Ka%20Itihas%20of%20Dr.%20Pandurang%20Vaman%20Kane%20Vol.%203%20-%20Uttar%20Pradesh%20Hindi%20Sansthan%20Lucknow-Reduced/page/n51/mode/1up धर्मशास्त्र का इतिहास भाग-3], सन २००३, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० १०४४)।</ref> <blockquote>प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चित्तं निश्चय उच्यते। तपोनिश्चयसंयोगात्प्रायश्चित्तमिति स्मृतम्॥ (गौतमस्मृति ११.१)</blockquote>इसका सम्बन्ध तप करने के संकल्प से है या विश्वास से है कि इससे पापमोचन होगा।<ref>शोधार्थी- सुशीला कुमारी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/109471 स्मृति शास्त्र में प्रायश्चित्त-विधान एक अनुशीलनात्मक अध्ययन] (२०१०), शोधकेन्द्र- पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ (पृ० २६)।</ref>
   −
भाषार्थ - अनजाने में किये गये पापों का शमन वेदवचनों के पाठ से होता है और जानबूझकर किये गये पाप विभिन्न प्रयाश्चित्तों से ही नष्ट किये जाते हैं।
+
==प्रायश्चित्त का स्वरूप॥ Prayashchitta ka Svaroop==
 +
धर्मशास्त्रों में प्रायश्चित्त वह कृत्य माना गया है जिसके करने से मनुष्य के पाप नष्ट होते हैं और उसकी आत्मा शुद्ध होती है। प्रायश्चित्त केवल पापमोचन का उपाय नहीं, अपितु आत्मसंयम का साधन भी है।<ref>डॉ० शिखा शर्मा, [https://ia800804.us.archive.org/35/items/PramukhDharmaSutronEvamSmritiyonMeinPrayashchitVidhanShikhaSharma/Pramukh%20Dharma%20Sutron%20Evam%20Smritiyon%20Mein%20Prayashchit%20Vidhan%20-%20Shikha%20Sharma.pdf प्रमुख धर्मसूत्रों एवं स्मृतियों में प्रायश्चित विधान] (२००७), न्यू भारतीय बुक कार्पोरेशन, दिल्ली (पृ० १७)।</ref> धर्मशास्त्रों में स्मृतियों को तीन मुख्य भागों में बांटा गया है - आचार, व्यवहार, तथा प्रायश्चित्त। इनके विधि-विधान, नियम, और दृष्टांत क्रमशः विभिन्न शास्त्रों में वर्णित हैं। प्रायश्चित्त-प्रकरण में दोषमोचन, तप, और सामाजिक पुनरुत्थान के प्रमाण मिलते हैं।<ref name=":0" /><blockquote>अकामतः कृतं पापं वेदाभ्यासेन शुद्ध्यति। कामतस्तु कृतं मोहत्प्रायश्चित्तै पृथग्विधैः॥ (मनुस्मृति ११.४६)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%8F%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय- ११, श्लोक- ४६।</ref></blockquote>भाषार्थ - अनजाने में किये गये पापों का शमन वेदवचनों के पाठ से होता है और जानबूझकर किये गये पाप विभिन्न प्रयाश्चित्तों से ही नष्ट किये जाते हैं। हरीत कहते हैं कि - <blockquote>प्रयत्नादेवापचितत्सुं कर्म नाशयतीति प्रायश्चित्तमिति। यत्तपः प्रभृतिकं कर्म उपचितं संचतशुभं पापं नाशयतीति। कृततत्कर्मभिः कर्तुः प्रयत्नाद्वा। शुद्धत्वादेव तत्प्रायश्चित्तम्। तथा च पुनर्य हारितः। यथा क्षारोपस्वेदन्यादनप्रक्षालनादिभिःवासांसि शुद्ध्यन्ति एवं तपोदानन्यैः पापकृतः शुद्धिमुपयन्ति। (प्रायश्चित्त तत्त्व पृ. ४६७, प्राय. विवेक पृ. ३)<ref name=":3">डॉ० शिखा शर्मा, [https://archive.org/details/PramukhDharmaSutronEvamSmritiyonMeinPrayashchitVidhanShikhaSharma/page/58/mode/1up प्रमुख धर्मसूत्रों एवं स्मृतियों में प्रायश्चित्त विधान] (२००७), न्यू भारतीय बुक कार्पोरेशन, दिल्ली (पृ १८)।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' मनुष्य के प्रयत्न से भी संचित (जमा हुए) पाप नष्ट हो जाते हैं, यही प्रायश्चित्त का तात्पर्य है। तप आदि श्रेष्ठ कर्म संचित पापों को नष्ट कर देते हैं। कृत (अर्थात् किए जाने वाले) कर्मों में प्रयत्न ही मुख्य है, क्योंकि शुद्धता प्रयत्न से ही प्राप्त होती है और जैसे शरीर पर एकत्रित मल को स्नान आदि क्रियाओं से स्वच्छ किया जाता है, उसी प्रकार तप, दान आदि साधनों द्वारा पापकृत कर्म करने वाला व्यक्ति शुद्धि को प्राप्त होता है।<ref name=":3" />
    
==प्रायश्चित्त के प्रकार॥ Types of Prayashchitta==
 
==प्रायश्चित्त के प्रकार॥ Types of Prayashchitta==
 +
धर्मशास्त्र में विहित पापों के वर्गीकरण पापकर्मों की अधिकता अल्पता अथवा कितना अधिक व कम हानिप्रद है, इसके आधार पर किया गया है। मनु ने पापों का वर्गीकरण इस प्रकार किया है -
 +
*'''महापातक -''' ब्रह्महत्या, सुरापान, स्तेय (चोरी), गुरु पत्नी गमन और महापापियों का संसर्ग (इन चार प्रकार के पापकर्मों में लिप्त व्यक्ति के साथ संबंध रखने वाला)।
 +
*'''उपपातक -''' गोवध, अयाज्य याजन, परस्त्रीगमन, आत्मविक्रय, गुरु,माता और पिता सेवा शुश्रूषा त्याग आदि इन सब पाप कर्मों को मनु ने उपपातक के रूप में माना है। <ref>मनु स्मृति, अध्याय ११, श्लोक ५९-६६।</ref>
 +
*'''जातिभ्रंशकर -''' ज्ञानी को पीडित करना, नहीं सूँघने योग्य वस्तु को सूँघना, मद्य को सूंघना, कुटिलता और अप्राकृतिक मैथुन करना, ये प्रत्येक कर्म जातिभ्रष्ट करने वाले होते हैं।<ref>मनु स्मृति, अध्याय ११, श्लोक ६७।</ref>
 +
*'''संकरीकरण -''' मनु के अनुसार जो कर्म वर्ण संकर उत्पन्न करते है, वे कर्म इस प्रकार हैं - गधा,कुत्ता, मृग, हाथी, बकरी, भेड, मछली, सांप और भैंसा इनमें से प्रत्येक को मारना भी मनुष्य को संकरीकरण कारक पाप कहलाता है।<ref>मनु स्मृति, अध्याय ११, श्लोक ६८।</ref>
 +
*'''अपात्रीकरण -''' मनु के अनुसार जिस व्यक्ति से दान नहीं लेना चाहिए उससे दान लेना, उससे व्यापार करना, अयोग्य की सेवा करना और असत्य बोलना, ये सभी कर्म मनुष्य को अपात्र बनाते हैं।<ref>मनु स्मृति, अध्याय ११, श्लोक ६९।</ref>
 +
*'''मलिनीकरण -''' मनु के अनुसार मलिनीकरण कारक कर्म इस प्रकार हैं। जैसे कि कृमि, कीट तथा पक्षियों का वध करना,  मद्य (शराब) के साथ लाये पदार्थों का भोजन, फल, फूल और लकड़ी को चुराना, ये सभी कर्म मनुष्य को मलिन करने वाले माने गए हैं।<ref>मनु स्मृति, अध्याय ११, श्लोक ७०।</ref>
 +
{| class="wikitable"
 +
!श्रेणी<ref name=":2">डॉ० हिमा गुप्ता, [https://www.exoticindiaart.com/book/details/atonement-law-in-ancient-india-uaf610/ प्राचीन भारत में प्रायश्चित्त विधान], ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली (पृ० ४९)।</ref>
 +
!विषय/विवरण<ref name=":2" />
 +
|-
 +
|अनुष्ठेय साधन
 +
|कृच्छ्रादि विधि, प्रत्याम्नाय
 +
|-
 +
|विशेष प्रायश्चित्त
 +
|अतिपातक, महापातक जैसे - ब्रह्महत्या, सुरापान, सुवर्ण हरण, गुरु अंगना गमन, महापातकी के साथ निवास, अनुपातक
 +
|-
 +
|सामान्य प्रायश्चित्त
 +
| प्राणी वध - क्षत्र वध, शूद्र वध, अवकृष्ट वध, स्त्री वध, गर्भ वध, गोवध, वृक्षादि छेदन
 +
|-
 +
|निषिद्ध भक्षण प्रायश्चित्त
 +
|जाति दुष्ट भक्षण - मांस भक्षण, वर्जित शाकादी भक्षण, शरीर मल भक्षण
 +
|-
 +
|क्रिया दुष्ट भक्षण प्रायश्चित्त
 +
|संसर्ग दुष्ट भक्षण, काल दुष्ट भक्षण, भाव दुष्ट भक्षण, परिग्रह दुष्ट भक्षण
 +
|-
 +
| स्त्री गमन प्रायश्चित्त
 +
|पारदार्य, अवकीरण, गृहस्थ व्रत लोप, कन्या संदूषण, परिवेदन, परिवेदनापवाद
 +
|-
 +
|स्तेय एवं विकर्म प्रायश्चित्त
 +
|स्तेय अपवाद, ऋणानाम अपाकरण, विकर्म वृत्ति, अपण्य विक्रय, अपत्य विक्रय
 +
|-
 +
|आचार एवं अध्ययन
 +
|व्रात्यता, अनाहित अग्निता, भृतक अध्यापन, नास्तिकता, वेद व्रत लोप, अयाज्य याजन, वेद विप्लावन, अत्याज्य त्याज्य, असत प्रतिग्रह
 +
|}
 +
'''प्रायश्चित विषयक ग्रंथ'''
   −
*अतिपातक
+
यहाँ प्रायश्चित्त विषयक प्राचीन ग्रंथों का सार रूप में सारिणी प्रस्तुत है -<ref name=":1" />
*महापातक
+
{| class="wikitable"
*अनुपातक
+
!श्रेणी
*उपपातक
+
!ग्रंथ/स्रोत का नाम
*जातिभ्रंशकर
+
!विवरण/अध्याय एवं श्लोक
 +
|-
 +
|प्रमुख धर्मसूत्र
 +
|गौतमधर्मसूत्र
 +
|२८ अध्यायों में से १० अध्याय प्रायश्चित्त पर
 +
|-
 +
|
 +
|वसिष्ठ धर्मसूत्र
 +
|मुद्रित ३० अध्यायों में से ९ अध्याय (२०-२८ तक) प्रायश्चित्त सम्बन्धी
 +
|-
 +
|प्रमुख स्मृतियाँ
 +
|मनु स्मृति
 +
|ग्यारहवें अध्याय के ४४ से लेकर २६५ तक (कुल २२२ श्लोक) प्रायश्चित्तों के विषय में
 +
|-
 +
|
 +
|याज्ञवल्क्य स्मृति
 +
|अध्याय ३ के १००९ श्लोकों में से १२२ श्लोक (३।२०५-३२७)
 +
|-
 +
|
 +
|अंगिरा स्मृति
 +
|१६८ श्लोक केवल प्रायश्चित्त सम्बन्धी
 +
|-
 +
|
 +
|अत्रि स्मृति
 +
|१ से ८ तक के अध्याय
 +
|-
 +
|
 +
|देवल स्मृति
 +
|९० श्लोक प्रायश्चित्त सम्बन्धी
 +
|-
 +
|
 +
|बृह‌द् यम स्मृति
 +
|१८२ श्लोक प्रायश्चित्त सम्बंधी
 +
|-
 +
|
 +
|शातातपस्मृति
 +
|२७४ श्लोक प्रायश्चित्त सम्बन्धी
 +
|-
 +
|पुराण
 +
|अग्नि पुराण
 +
|अध्याय १६८-१७४
 +
|-
 +
|
 +
|गरुड पुराण
 +
|५२ श्लोक
 +
|-
 +
|
 +
|कूर्म पुराण
 +
|उत्तरार्ध ३०-३४
 +
|-
 +
|
 +
|वराह पुराण
 +
|१३१-१३६ श्लोक
 +
|-
 +
|
 +
|ब्रह्माण्ड पुराण
 +
|उपसंहार पाद, अध्याय ९
 +
|-
 +
|
 +
|विष्णुधर्मोत्तर
 +
|२/७३, ३-२३४-२३७ श्लोक
 +
|-
 +
|टीका एवं निबन्ध
 +
|मिताक्षरा, अपरार्क, पराशरमाधवीय
 +
|विस्तार के साथ प्रायश्चित्त का उल्लेख
 +
|-
 +
|
 +
|मदनपारिजात
 +
|पृ० ६९१-९९४
 +
|-
 +
|विशिष्ट निबन्ध ग्रंथ
 +
|हेमाद्रि का चतुर्वर्ग चिन्तामणि (प्रायश्चित्त खण्ड)
 +
|प्रामाणिकता अभी स्थापित नहीं
 +
|-
 +
|
 +
|प्रायश्चित्तप्रकरण (भवदेव द्वारा प्रणीत)
 +
|
 +
|-
 +
|
 +
|प्रायश्चित्तविवेक, प्रायश्चित्ततत्व, स्मृतिमुक्ताफल
 +
|प्रायश्चित्त संबंधी विभिन्न प्रकरण
 +
|-
 +
|
 +
|प्रायश्चित्तसार (नृसिंहप्रसाद का भाग)
 +
|
 +
|-
 +
|
 +
|प्रायश्चित्तमयूख (नीलकंठ), प्रायश्चित्तप्रकाश, प्रायश्चित्तेन्दुशेखर (नागोजिभट्ट लिखित)
 +
|
 +
|-
 +
|विस्तृत ग्रंथ
 +
|प्रायश्चित्तविवेक, पराशरमाधवीय (२, भाग १ एवं २), प्रायश्चित्तप्रकाश
 +
|विस्तार के साथ प्रायश्चित्तों का वर्णन
 +
|}
 +
प्रायश्चित्त-सम्बन्धी साहित्य बहुत विशाल है, क्योंकि प्राचीन समय में प्रायश्चित्तों का जन-साधारण में बहुत महत्व था। यह सारांश प्रायश्चित्त से संबंधित प्रमुख ग्रंथों, स्मृतियों, पुराणों, टीकाओं और निबन्धों का एक समेकित दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। इनमें अध्याय और श्लोकों के संदर्भ भी दिए गए हैं, जिससे अध्ययन और संदर्भ में सुलभता होती है।<ref name=":1" />
 +
*गौतमधर्मसूत्र के २८ अध्यायों मे से दस अध्याय प्रायश्चित्तों पर ही हैं।
 +
*वसिष्ठ धर्मसूत्र के मुद्रित ३० अध्यायों में से ९ अध्याय (२०-२८ तक) प्रायश्चित्त सम्बन्धी हैं।
 +
*मनु के ग्यारहवें अध्याय के ४४ से लेकर २६५ (कुल २२२) श्लोक प्रायश्चित्तों के विषय में ही हैं।
 +
*याज्ञवल्क्य स्मृति के अध्याय ३ के १००९ श्लोकों में १२२ श्लोक (३।२०५-३२७) इसी विषय के हैं।
 +
*अंगिरा स्मृति के १६८ श्लोक, अत्रि के १ से ८ तक के अध्याय, देवल के ९० श्लोक, बृह‌द् यम के १८२ श्लोक, शातातपस्मृति के २७४ श्लोक केवल प्रायश्चित्त-सम्बन्धी हैं।
 +
*बहुत-सी स्मृतियाँ एवं कतिपय पुराण, जैस- अग्नि (अध्याय १६८-१७४), गरुड (५२), कूर्म (उत्तरार्ध ३०-३४), वराह (१३१-१३६), ब्रह्माण्ड (उपसंहार पाद, अध्याय ९), विष्णुधर्मोत्तर (२/७३, ३-२३४-२३७) बहुत से श्लोकों में प्रायश्चितों का वर्णन करते हैं।
 +
*टीकामों में मिताक्षरा, अपरार्क, पराशरमाधवीय आदि एवं  निबन्धों में मदनपारिजात (पृ० ६९१-९९४) आदि ने विस्तार के साथ प्रायश्चित्तों का उल्लेख किया है।
 +
*कुछ विशिष्ट निबन्ध ग्रंथ प्रायश्चित्तों को लेकर लिखे गये हैं, जैसे - हेमाद्रि का ग्रन्थ - चतुर्वर्ग चिन्तामणि- प्रायश्चित्त खण्ड (जिसके विषय में अभी प्रामाणिकता नहीं स्थापित की जा सकी है), प्रायश्चित्तप्रकरण (भवदेव द्वारा प्रणीत), प्रायश्चित्तविवेक, प्रायश्चित्ततत्व, स्मृतिमुक्ताफल (प्रायश्वित्त वाला प्रकरण), प्रायश्चित्तसार (नृसिंहप्रसाद का भाग), प्रायश्चित्तमयूख, प्रायश्चित्तप्रकाश, प्रायश्चित्तेन्दुशेखर (नागोजिभट्ट लिखित)। प्रायश्चित्तों के विषय में विस्तार के साथ वर्णन निम्न ग्रन्थों में मिलता है, प्रायश्चित्तविवेक, पराशरमाधवीय (२, भाग १ एवं २) एवं प्रायश्चित्तप्रकाश।
   −
टीकाओं में मिताक्षरा, अपरार्क, पराशरमाधवीय आदि एवं निबन्धों में मदनपरिजात आदि ने विस्तार के साथ प्रायश्चित्तों को लेकर लिखे गये हैं -  
+
टीकाओं में मिताक्षरा, अपरार्क, पराशरमाधवीय आदि एवं निबन्धों में मदनपरिजात आदि ग्रन्थ विस्तार के साथ प्रायश्चित्तों को लेकर लिखे गये हैं -  
   −
*हेमाद्रि का ग्रन्थ
+
*हेमाद्रि का ग्रन्थ, प्रायश्चित्त प्रकरण, प्रायश्चित्तविवेक, प्रायश्चित्त तत्त्व, स्मृति मुक्ताफल, प्रायश्चित्तसार, प्रायशित्तमयूख, प्रायश्चित्त प्रकाश, प्रायश्चित्तेन्दु शेखर, प्रायश्चित्तविवेक (शूलपाणि), प्रायश्चित्तमयूख (नीलकंठ), प्रायश्चित्तसार (दलपति), प्रायश्चित्तेंदुशेखर (नागेश)।
*प्रायश्चित्त प्रकरण
  −
*प्रायश्चित्तविवेक
  −
*प्रायश्चित्त तत्त्व
  −
*स्मृति मुक्ताफल
  −
*प्रायश्चित्तसार
  −
*प्रायशित्तमयूख
  −
*प्रायश्चित्त प्रकाश
  −
*प्रायश्चित्तेन्दु शेखर
      
प्रायश्चित्तों के विषय में विस्तार के साथ वर्णन निम्न पुस्तकों में मिलता है - प्रायश्चित्त विवेक, पराशरमाधवीय (२, भाग १ एवं २) एवं प्रायश्चित्त प्रकाश।
 
प्रायश्चित्तों के विषय में विस्तार के साथ वर्णन निम्न पुस्तकों में मिलता है - प्रायश्चित्त विवेक, पराशरमाधवीय (२, भाग १ एवं २) एवं प्रायश्चित्त प्रकाश।
 +
 +
==प्रायश्चित्त की विधियाँ॥ Prayaschitta ki vidhiyan==
 +
प्रायश्चित्त की विभिन्न विधियाँ अपराध की प्रकृति, दोष की गंभीरता, व्यक्ति की सामाजिक स्थिति, आयु और समय के अनुसार भिन्न-भिन्न होती हैं। धर्मशास्त्रों में उल्लिखित मुख्य विधियाँ इस प्रकार हैं -
 +
 +
*'''जप -''' मंत्रों का निरंतर उच्चारण और आत्म-चिंतन द्वारा मन और चित्त की शुद्धि करना, जो दोषों के मानसिक प्रभाव को कम करता है।
 +
*'''तप -''' शारीरिक, मानसिक और संयमित तपस्या के द्वारा पाप का निवारण। इसमें नियमित उपवास, कष्ट सहन करना और असहज परिस्थितियों में रहना शामिल है।
 +
*'''स्नान -''' पवित्र जल या अन्य धार्मिक तीर्थों में स्नान करना जिससे दोष शारीरिक रूप से धुल जाता है। यह आत्मिक शुद्धि का प्रतीक माना गया है।
 +
*'''हवन/यज्ञ -''' अग्नि के पवित्र अनुष्ठान द्वारा दोषों का संहार और देवताओं से क्षमा याचना। ये विधियाँ सामूहिक या व्यक्तिगत रूप से की जाती हैं।
 +
*'''दान -''' निर्धनों को वस्त्र, भोजन, धन आदि दान करना, जिससे पाप का प्रायश्चित्त होता है।
 +
*'''उपवास -''' दोष के आधार पर विशेष दिन उपवास रखना, जिससे शरीर का संयम व आत्मनियंत्रण बढ़ता है।
 +
*'''तीर्थयात्रा -''' पवित्र स्थानों की यात्रा कर वहां अनुष्ठान करना, जिससे आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार की शुद्धि होती है।
 +
 +
इस प्रकार से धर्मशास्त्रों में प्रत्येक प्रकार के पाप के लिए उपर्युक्त प्रायश्चित्त विधि निर्धारित है और उसी को विधिवत करना आवश्यक है, जिससे पाप की छाया समाप्त हो सके। इसके साथ ही प्रायश्चित्त की सफलता के लिए सर्वप्रथम पश्चात्ताप का होना अनिवार्य माना गया है।<ref>शोधार्थी- सुशीला कुमारी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/109471 स्मृति शास्त्र में प्रायश्चित्त-विधान एक अनुशीलनात्मक अध्ययन] (२०१०), शोधकेन्द्र- पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ (पृ० ३५)।</ref>
    
==प्रायश्चित्त की आवश्यकता॥ importance of Prayaschitta==
 
==प्रायश्चित्त की आवश्यकता॥ importance of Prayaschitta==
Line 56: Line 202:     
==निष्कर्ष॥ Conclusion==
 
==निष्कर्ष॥ Conclusion==
 +
दण्ड विधान में प्रायश्चित्त संबंधी प्रावधानों का उल्लेख किया गया है। कतिपय पाप कार्य ऐसे हैं जिनके लिए प्रायश्चित्त एवं दण्ड दोनों की व्यवस्था है। अतः अपराध एवं उससे संबंधित दण्ड पाप तथा उसके लिए निर्धारित प्रायश्चित्त आवश्यक है।<ref>ममता तिवारी, [https://www.allresearchjournal.com/archives/2016/vol2issue8/PartL/6-10-351-596.pdf पराशरस्मृति दण्डविधान प्रायश्चित्त], सन २०१६, इण्टरनेशनल जर्नल ऑफ़ अप्लाइड रिसर्च (पृ० ८४२)।</ref>
 +
 +
*पातकी को अपने पाप का पश्चात्ताप होना चाहिए और परिषद् के समक्ष उपस्थित होना जरूरी है।
 +
*महापातक मामलों में राजा की अनिवार्य उपस्थिति होती है।
 +
*वर्ण, आयु, लिंग व परिस्थिति के अनुसार प्रायश्चित्त की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है।
 +
*बालकों के लिए उनके आयु एवं अभिभावकों के अनुसार प्रायश्चित्त निष्पादित किया जाता है।
 +
*प्रायश्चित्त प्रारंभ करने से पूर्व स्नान एवं पंचगव्य का सेवन आवश्यक है।
 +
*देरी करना उचित नहीं।
 +
प्रायश्चित्त का उद्देश्य न केवल पाप की शुद्धि है, बल्कि मनोवृत्ति और आचरण के सुधार के माध्यम से व्यक्ति को धार्मिक और सामाजिक रूप से पुनः स्वस्थ्य और स्वीकृत बनाना भी है। इस प्रकार प्रायश्चित्त साधन की व्यवस्थाओं में धार्मिक रीति-रिवाजों के साथ-साथ सामाजिक और नैतिक कर्तव्यों का समावेश होता है, जो व्यक्ति के पापों के अनुसार उचित प्रायश्चित्त की प्रक्रिया को सुनिश्चित करता है।
 +
 
==उद्धरण॥ References==
 
==उद्धरण॥ References==
 
[[Category:Hindi Articles]]
 
[[Category:Hindi Articles]]
 
[[Category:हिंदी भाषा के लेख]]
 
[[Category:हिंदी भाषा के लेख]]
 
<references />
 
<references />
1,239

edits

Navigation menu