Difference between revisions of "Prayaschitta (प्रायश्चित्त)"
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| − | प्रायश्चित्त एक | + | प्रायश्चित्त (संस्कृतः प्रायश्चित्तः) एक धार्मिक-अनुशासनात्मक प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से व्यक्ति अपने पापों, दोषों एवं अपराधों का शोधन करता और आत्म-शुद्धि प्राप्त करता है। प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रों में प्रायश्चित्त को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है, क्योंकि यह न केवल व्यक्तित्व की व्यक्तिगत सुधार प्रक्रिया है, अपितु सामाजिक सामंजस्य और न्याय की स्थापना का भी माध्यम है। प्रायश्चित्त की जप, तप, हवन, दान, उपवास, तीर्थयात्रा, प्राजापत्य, चांद्रायण, कृच्छृ, सांतपन आदि व्रत इसकी प्रमुख विधियाँ हैं। इन सबका विधान मानसिक शुद्धि एवं पाप की निवृत्ति के लिए किया गया है। |
==परिचय॥ Introduction== | ==परिचय॥ Introduction== | ||
संस्कृत में प्रायश्चित्त शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गई है - प्रायः तुष्टं चित्तं यत्र तत् प्रायश्चित्तम्। अर्थात् जिसके करने से चित्त तुष्ट हो जाए, वही प्रायश्चित्त कहलाता है। इस शब्द का मूल भाव यही है कि जब मनुष्य किसी पाप, अपराध या अनुचित कर्म के कारण ग्लानि और अपराधबोध का अनुभव करता है, तब वह अपने अंदर की शुद्धि और मानसिक शांति के लिए जो कृत्य करता है, वही प्रायश्चित्त है। ग्लानि की भावना प्रायश्चित्त की मूल प्रेरणा है- यही भावना व्यक्ति को क्षमा मांगने, सुधार करने और आत्मशुद्धि की दिशा में अग्रसर करती है।<ref>शोधकर्त्री- नीरा अरोरा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/78182 संस्कृत वांग्मय में प्रायश्चित्त विधान] (२०१३, शोधकेन्द्र- स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग, जम्मू विश्वविद्यालय (पृ० ३) </ref><blockquote>अकुर्वन् विहितं कर्म निन्दितं च समाचरन्। प्रसक्तश्चेन्द्रियार्थेषु प्रायश्चित्तीयते नरः॥ (मनुस्मृति 11/44)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%8F%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय-११, श्लोक- ४४।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' जो व्यक्ति शास्त्रविहित कर्मों का पालन नहीं करता और निन्दित या निषिद्ध कर्म करता है, या जो इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होकर पतन की ओर बढ़ता है, उसे प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध होना चाहिए। | संस्कृत में प्रायश्चित्त शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गई है - प्रायः तुष्टं चित्तं यत्र तत् प्रायश्चित्तम्। अर्थात् जिसके करने से चित्त तुष्ट हो जाए, वही प्रायश्चित्त कहलाता है। इस शब्द का मूल भाव यही है कि जब मनुष्य किसी पाप, अपराध या अनुचित कर्म के कारण ग्लानि और अपराधबोध का अनुभव करता है, तब वह अपने अंदर की शुद्धि और मानसिक शांति के लिए जो कृत्य करता है, वही प्रायश्चित्त है। ग्लानि की भावना प्रायश्चित्त की मूल प्रेरणा है- यही भावना व्यक्ति को क्षमा मांगने, सुधार करने और आत्मशुद्धि की दिशा में अग्रसर करती है।<ref>शोधकर्त्री- नीरा अरोरा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/78182 संस्कृत वांग्मय में प्रायश्चित्त विधान] (२०१३, शोधकेन्द्र- स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग, जम्मू विश्वविद्यालय (पृ० ३) </ref><blockquote>अकुर्वन् विहितं कर्म निन्दितं च समाचरन्। प्रसक्तश्चेन्द्रियार्थेषु प्रायश्चित्तीयते नरः॥ (मनुस्मृति 11/44)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%8F%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय-११, श्लोक- ४४।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' जो व्यक्ति शास्त्रविहित कर्मों का पालन नहीं करता और निन्दित या निषिद्ध कर्म करता है, या जो इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होकर पतन की ओर बढ़ता है, उसे प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध होना चाहिए। | ||
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| + | प्रायश्चित व्यवस्था के अनुसार मनुष्य प्रायश्चित तभी कर सकता है जब वह दुष्कृत्य के लिए मन में पश्चात्ताप का अनुभव करे - <blockquote>प्रायश्चित्तन्तु तस्यैव कर्त्तव्यं नेतरस्य तु। जातानुतापस्य भवेत्प्रायश्चित्तं यथोदितम्॥ (वृद्ध हारीतस्मृति, ६.२१५)<ref>स्मृति सन्दर्भः-द्वितीय भाग, [https://archive.org/details/smriti-sandarbha-gurumandal-series/Smriti%20Sandarbha%20Part%202%20-%20Gurumandal%20Series%201952/page/n607/mode/2up वृद्ध हारीतस्मृति], अध्याय- ६, श्लोक- २१५, गुरुमण्डल ग्रन्थालय, कलकत्ता (पृ० ११४८)।</ref> </blockquote>इस प्रकार प्रायश्चित्त में मनुष्य की इच्छा तथा अनिच्छा का अत्यधिक महत्व है। स्मार्त व्यवस्था है कि व्यक्ति से प्रायश्चित्त बलपूर्वक नहीं करवाया जा सकता - | ||
*व्यक्ति का मन जितना अपने दुष्कर्मों को घृणित समझता है, उसका शरीर उतना पापमुक्त होता जाता है। | *व्यक्ति का मन जितना अपने दुष्कर्मों को घृणित समझता है, उसका शरीर उतना पापमुक्त होता जाता है। | ||
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*अनजाने में हुए पापों का शोधन वैदिक मंत्रों के जप तथा प्रार्थना द्वारा होता है। | *अनजाने में हुए पापों का शोधन वैदिक मंत्रों के जप तथा प्रार्थना द्वारा होता है। | ||
| − | जो पाप ज्ञान पूर्वक किये गए हैं, उनका शोधन केवल प्रायश्चित्त कर्म द्वारा संभव है।<ref>शोधार्थिनी- नन्दिता मिश्रा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/551162 मनु तथा याज्ञवल्क्य स्मृतियों में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधान का तुलनात्मक अध्ययन] (२००८), शोधकेन्द्र- संस्कृत तथा प्राकृत भाषा विभगा, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ (पृ० १०५)।</ref> याज्ञवल्क्यस्मृति में कहा गया है - <blockquote>विहितस्याननुष्ठानान्निन्दितस्य च सेवनात्। अनिग्रहाच्चेन्द्रियाणां नरः | + | जो पाप ज्ञान पूर्वक किये गए हैं, उनका शोधन केवल प्रायश्चित्त कर्म द्वारा संभव है।<ref>शोधार्थिनी- नन्दिता मिश्रा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/551162 मनु तथा याज्ञवल्क्य स्मृतियों में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधान का तुलनात्मक अध्ययन] (२००८), शोधकेन्द्र- संस्कृत तथा प्राकृत भाषा विभगा, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ (पृ० १०५)।</ref> याज्ञवल्क्यस्मृति में कहा गया है - <blockquote>विहितस्याननुष्ठानान्निन्दितस्य च सेवनात्। अनिग्रहाच्चेन्द्रियाणां नरः पतनमृच्छति॥ |
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| + | तस्मात् तेनेह कर्तव्यं प्रायश्चित्तं विशुद्धये। एवमस्यान्तरात्मा च लोकश्चैव प्रसीदति॥ | ||
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| + | प्रायश्चित्तमकुर्वाणाः पापेषु निरता नराः। अपश्चात्तापिनः कष्टान् नरकान् यान्ति दारुणान्॥ (याज्ञवल्क्यस्मृति)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D याज्ञवल्क्यस्मृति], प्रायश्चित्त प्रकरण, अध्याय-०३, श्लोक- २१९-२२१।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' जो व्यक्ति विहित कर्मों का पालन नहीं करता, निन्दित कर्मों का सेवन करता है और अपनी इन्द्रियों का संयम नहीं रखता, वह अधोगति को प्राप्त होता है। इसलिए उसे अपने पतन से उद्धार और शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त करना आवश्यक है। | ||
==परिभाषा॥ Definition== | ==परिभाषा॥ Definition== | ||
निबन्धों एवं टीकाओं ने प्रायश्चित्त की व्युत्पत्ति प्रायः (अर्थात तप) एवं चित्त (अर्थात संकल्प या दृढ विश्वास) से की है -<ref>डॉ० पाण्डुरंग वामन काणे, [https://archive.org/details/03.-dharma-shastra-ka-itihas-tatha-anya-smritiyan/03.Dharma%20Shastra%20Ka%20Itihas%20of%20Dr.%20Pandurang%20Vaman%20Kane%20Vol.%203%20-%20Uttar%20Pradesh%20Hindi%20Sansthan%20Lucknow-Reduced/page/n51/mode/1up धर्मशास्त्र का इतिहास भाग-3], सन २००३, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० १०४४)।</ref> <blockquote>प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चित्तं निश्चय उच्यते। तपोनिश्चयसंयोगात्प्रायश्चित्तमिति स्मृतम्॥ (गौतमस्मृति ११.१)</blockquote>इसका सम्बन्ध तप करने के संकल्प से है या विश्वास से है कि इससे पापमोचन होगा।<ref>शोधार्थी- सुशीला कुमारी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/109471 स्मृति शास्त्र में प्रायश्चित्त-विधान एक अनुशीलनात्मक अध्ययन] (२०१०), शोधकेन्द्र- पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ (पृ० २६)।</ref> | निबन्धों एवं टीकाओं ने प्रायश्चित्त की व्युत्पत्ति प्रायः (अर्थात तप) एवं चित्त (अर्थात संकल्प या दृढ विश्वास) से की है -<ref>डॉ० पाण्डुरंग वामन काणे, [https://archive.org/details/03.-dharma-shastra-ka-itihas-tatha-anya-smritiyan/03.Dharma%20Shastra%20Ka%20Itihas%20of%20Dr.%20Pandurang%20Vaman%20Kane%20Vol.%203%20-%20Uttar%20Pradesh%20Hindi%20Sansthan%20Lucknow-Reduced/page/n51/mode/1up धर्मशास्त्र का इतिहास भाग-3], सन २००३, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० १०४४)।</ref> <blockquote>प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चित्तं निश्चय उच्यते। तपोनिश्चयसंयोगात्प्रायश्चित्तमिति स्मृतम्॥ (गौतमस्मृति ११.१)</blockquote>इसका सम्बन्ध तप करने के संकल्प से है या विश्वास से है कि इससे पापमोचन होगा।<ref>शोधार्थी- सुशीला कुमारी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/109471 स्मृति शास्त्र में प्रायश्चित्त-विधान एक अनुशीलनात्मक अध्ययन] (२०१०), शोधकेन्द्र- पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ (पृ० २६)।</ref> | ||
| − | ==प्रायश्चित्त का स्वरूप॥ Prayashchitta ka Svaroop == | + | ==प्रायश्चित्त का स्वरूप॥ Prayashchitta ka Svaroop== |
धर्मशास्त्रों में प्रायश्चित्त वह कृत्य माना गया है जिसके करने से मनुष्य के पाप नष्ट होते हैं और उसकी आत्मा शुद्ध होती है। प्रायश्चित्त केवल पापमोचन का उपाय नहीं, अपितु आत्मसंयम का साधन भी है।<ref>डॉ० शिखा शर्मा, [https://ia800804.us.archive.org/35/items/PramukhDharmaSutronEvamSmritiyonMeinPrayashchitVidhanShikhaSharma/Pramukh%20Dharma%20Sutron%20Evam%20Smritiyon%20Mein%20Prayashchit%20Vidhan%20-%20Shikha%20Sharma.pdf प्रमुख धर्मसूत्रों एवं स्मृतियों में प्रायश्चित विधान] (२००७), न्यू भारतीय बुक कार्पोरेशन, दिल्ली (पृ० १७)।</ref> | धर्मशास्त्रों में प्रायश्चित्त वह कृत्य माना गया है जिसके करने से मनुष्य के पाप नष्ट होते हैं और उसकी आत्मा शुद्ध होती है। प्रायश्चित्त केवल पापमोचन का उपाय नहीं, अपितु आत्मसंयम का साधन भी है।<ref>डॉ० शिखा शर्मा, [https://ia800804.us.archive.org/35/items/PramukhDharmaSutronEvamSmritiyonMeinPrayashchitVidhanShikhaSharma/Pramukh%20Dharma%20Sutron%20Evam%20Smritiyon%20Mein%20Prayashchit%20Vidhan%20-%20Shikha%20Sharma.pdf प्रमुख धर्मसूत्रों एवं स्मृतियों में प्रायश्चित विधान] (२००७), न्यू भारतीय बुक कार्पोरेशन, दिल्ली (पृ० १७)।</ref> | ||
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प्रायश्चित्तों के विषय में विस्तार के साथ वर्णन निम्न पुस्तकों में मिलता है - प्रायश्चित्त विवेक, पराशरमाधवीय (२, भाग १ एवं २) एवं प्रायश्चित्त प्रकाश। | प्रायश्चित्तों के विषय में विस्तार के साथ वर्णन निम्न पुस्तकों में मिलता है - प्रायश्चित्त विवेक, पराशरमाधवीय (२, भाग १ एवं २) एवं प्रायश्चित्त प्रकाश। | ||
| − | == प्रायश्चित्त की | + | ==प्रायश्चित्त की विधियाँ॥== |
प्रायश्चित्त की विभिन्न विधियाँ अपराध की प्रकृति, दोष की गंभीरता, व्यक्ति की सामाजिक स्थिति, आयु और समय के अनुसार भिन्न-भिन्न होती हैं। धर्मशास्त्रों में उल्लिखित मुख्य विधियाँ इस प्रकार हैं - | प्रायश्चित्त की विभिन्न विधियाँ अपराध की प्रकृति, दोष की गंभीरता, व्यक्ति की सामाजिक स्थिति, आयु और समय के अनुसार भिन्न-भिन्न होती हैं। धर्मशास्त्रों में उल्लिखित मुख्य विधियाँ इस प्रकार हैं - | ||
| − | * '''जप -''' मंत्रों का निरंतर उच्चारण और आत्म-चिंतन द्वारा मन और चित्त की शुद्धि करना, जो दोषों के मानसिक प्रभाव को कम करता है। | + | *'''जप -''' मंत्रों का निरंतर उच्चारण और आत्म-चिंतन द्वारा मन और चित्त की शुद्धि करना, जो दोषों के मानसिक प्रभाव को कम करता है। |
| − | * '''तप -''' शारीरिक, मानसिक और संयमित तपस्या के द्वारा पाप का निवारण। इसमें नियमित उपवास, कष्ट सहन करना और असहज परिस्थितियों में रहना शामिल है। | + | *'''तप -''' शारीरिक, मानसिक और संयमित तपस्या के द्वारा पाप का निवारण। इसमें नियमित उपवास, कष्ट सहन करना और असहज परिस्थितियों में रहना शामिल है। |
| − | * '''स्नान -''' पवित्र जल या अन्य धार्मिक तीर्थों में स्नान करना जिससे दोष शारीरिक रूप से धुल जाता है। यह आत्मिक शुद्धि का प्रतीक माना गया है। | + | *'''स्नान -''' पवित्र जल या अन्य धार्मिक तीर्थों में स्नान करना जिससे दोष शारीरिक रूप से धुल जाता है। यह आत्मिक शुद्धि का प्रतीक माना गया है। |
| − | * '''हवन/यज्ञ -''' अग्नि के पवित्र अनुष्ठान द्वारा दोषों का संहार और देवताओं से क्षमा याचना। ये विधियाँ सामूहिक या व्यक्तिगत रूप से की जाती हैं। | + | *'''हवन/यज्ञ -''' अग्नि के पवित्र अनुष्ठान द्वारा दोषों का संहार और देवताओं से क्षमा याचना। ये विधियाँ सामूहिक या व्यक्तिगत रूप से की जाती हैं। |
| − | * '''दान -''' निर्धनों को वस्त्र, भोजन, धन आदि दान करना, जिससे पाप का प्रायश्चित्त होता है। | + | *'''दान -''' निर्धनों को वस्त्र, भोजन, धन आदि दान करना, जिससे पाप का प्रायश्चित्त होता है। |
| − | * '''उपवास -''' दोष के आधार पर विशेष दिन उपवास रखना, जिससे शरीर का संयम व आत्मनियंत्रण बढ़ता है। | + | *'''उपवास -''' दोष के आधार पर विशेष दिन उपवास रखना, जिससे शरीर का संयम व आत्मनियंत्रण बढ़ता है। |
| − | * '''तीर्थयात्रा -''' पवित्र स्थानों की यात्रा कर वहां अनुष्ठान करना, जिससे आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार की शुद्धि होती है। | + | *'''तीर्थयात्रा -''' पवित्र स्थानों की यात्रा कर वहां अनुष्ठान करना, जिससे आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार की शुद्धि होती है। |
इस प्रकार से धर्मशास्त्रों में प्रत्येक प्रकार के पाप के लिए उपर्युक्त प्रायश्चित्त विधि निर्धारित है और उसी को विधिवत करना आवश्यक है, जिससे पाप की छाया समाप्त हो सके। इसके साथ ही प्रायश्चित्त की सफलता के लिए सर्वप्रथम पश्चात्ताप का होना अनिवार्य माना गया है।<ref>शोधार्थी- सुशीला कुमारी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/109471 स्मृति शास्त्र में प्रायश्चित्त-विधान एक अनुशीलनात्मक अध्ययन] (२०१०), शोधकेन्द्र- पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ (पृ० ३५)।</ref> | इस प्रकार से धर्मशास्त्रों में प्रत्येक प्रकार के पाप के लिए उपर्युक्त प्रायश्चित्त विधि निर्धारित है और उसी को विधिवत करना आवश्यक है, जिससे पाप की छाया समाप्त हो सके। इसके साथ ही प्रायश्चित्त की सफलता के लिए सर्वप्रथम पश्चात्ताप का होना अनिवार्य माना गया है।<ref>शोधार्थी- सुशीला कुमारी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/109471 स्मृति शास्त्र में प्रायश्चित्त-विधान एक अनुशीलनात्मक अध्ययन] (२०१०), शोधकेन्द्र- पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ (पृ० ३५)।</ref> | ||
| − | == प्रायश्चित्त की आवश्यकता॥ importance of Prayaschitta== | + | ==प्रायश्चित्त की आवश्यकता॥ importance of Prayaschitta== |
मनु और याज्ञवल्क्य दोनों के अनुसार प्रायश्चित्त की आवश्यकता तब होती है जब - | मनु और याज्ञवल्क्य दोनों के अनुसार प्रायश्चित्त की आवश्यकता तब होती है जब - | ||
| − | *शास्त्रविहित नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्मों का त्याग किया जाए। | + | * शास्त्रविहित नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्मों का त्याग किया जाए। |
*निषिद्ध कर्मों का सेवन किया जाए, जैसे मांस, मद्य, धूम्रपान, अशुद्ध आहार या अनुचित संगति। | *निषिद्ध कर्मों का सेवन किया जाए, जैसे मांस, मद्य, धूम्रपान, अशुद्ध आहार या अनुचित संगति। | ||
*इन्द्रियों (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) के विषयों में अत्यधिक आसक्ति हो। | *इन्द्रियों (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) के विषयों में अत्यधिक आसक्ति हो। | ||
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धर्मशास्त्रों में ऐसे अपराधों की व्यवस्था है, जिनके लिए राजदण्ड और प्रायश्चित्त दोनों का विधान मिलता है, जैसे - हत्या, चोरी, सपिण्ड से संबंध आदि। इसका कारण यह है कि राजदण्ड केवल भौतिक नियंत्रण करता है, जबकि प्रायश्चित्त मानसिक शुद्धि और सामाजिक पुनर्स्थापना की दिशा में कार्य करता है। इसीलिए दोनों आवश्यक माने गए हैं।<ref name=":0">डॉ. राजबली पाण्डेय, [https://dn790006.ca.archive.org/0/items/in.ernet.dli.2015.540544/2015.540544.Hindu-Dharm.pdf हिन्दू धर्मकोश] (१९८८), उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन महात्मा गाँधी मार्ग, लखनऊ (पृ० ४३०)।</ref> | धर्मशास्त्रों में ऐसे अपराधों की व्यवस्था है, जिनके लिए राजदण्ड और प्रायश्चित्त दोनों का विधान मिलता है, जैसे - हत्या, चोरी, सपिण्ड से संबंध आदि। इसका कारण यह है कि राजदण्ड केवल भौतिक नियंत्रण करता है, जबकि प्रायश्चित्त मानसिक शुद्धि और सामाजिक पुनर्स्थापना की दिशा में कार्य करता है। इसीलिए दोनों आवश्यक माने गए हैं।<ref name=":0">डॉ. राजबली पाण्डेय, [https://dn790006.ca.archive.org/0/items/in.ernet.dli.2015.540544/2015.540544.Hindu-Dharm.pdf हिन्दू धर्मकोश] (१९८८), उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन महात्मा गाँधी मार्ग, लखनऊ (पृ० ४३०)।</ref> | ||
| − | ==निष्कर्ष॥ Conclusion== | + | == निष्कर्ष॥ Conclusion== |
दण्ड विधान प्रायश्चित्त संबंधी प्रावधानों का उल्लेख किया गया है। कतिपय पाप कार्य ऐसे हैं जिनके लिए प्रायश्चित्त एवं दण्ड दोनों की व्यवस्था है। अतः अपराध एवं उससे संबंधित दण्ड पाप तथा उसके लिए निर्धारित प्रायश्चित्त आवश्यक है।<ref>ममता तिवारी, [https://www.allresearchjournal.com/archives/2016/vol2issue8/PartL/6-10-351-596.pdf पराशरस्मृति दण्डविधान प्रायश्चित्त], सन २०१६, इण्टरनेशनल जर्नल ऑफ़ अप्लाइड रिसर्च (पृ० ८४२)।</ref> | दण्ड विधान प्रायश्चित्त संबंधी प्रावधानों का उल्लेख किया गया है। कतिपय पाप कार्य ऐसे हैं जिनके लिए प्रायश्चित्त एवं दण्ड दोनों की व्यवस्था है। अतः अपराध एवं उससे संबंधित दण्ड पाप तथा उसके लिए निर्धारित प्रायश्चित्त आवश्यक है।<ref>ममता तिवारी, [https://www.allresearchjournal.com/archives/2016/vol2issue8/PartL/6-10-351-596.pdf पराशरस्मृति दण्डविधान प्रायश्चित्त], सन २०१६, इण्टरनेशनल जर्नल ऑफ़ अप्लाइड रिसर्च (पृ० ८४२)।</ref> | ||
Revision as of 15:56, 14 November 2025
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प्रायश्चित्त (संस्कृतः प्रायश्चित्तः) एक धार्मिक-अनुशासनात्मक प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से व्यक्ति अपने पापों, दोषों एवं अपराधों का शोधन करता और आत्म-शुद्धि प्राप्त करता है। प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रों में प्रायश्चित्त को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है, क्योंकि यह न केवल व्यक्तित्व की व्यक्तिगत सुधार प्रक्रिया है, अपितु सामाजिक सामंजस्य और न्याय की स्थापना का भी माध्यम है। प्रायश्चित्त की जप, तप, हवन, दान, उपवास, तीर्थयात्रा, प्राजापत्य, चांद्रायण, कृच्छृ, सांतपन आदि व्रत इसकी प्रमुख विधियाँ हैं। इन सबका विधान मानसिक शुद्धि एवं पाप की निवृत्ति के लिए किया गया है।
परिचय॥ Introduction
संस्कृत में प्रायश्चित्त शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गई है - प्रायः तुष्टं चित्तं यत्र तत् प्रायश्चित्तम्। अर्थात् जिसके करने से चित्त तुष्ट हो जाए, वही प्रायश्चित्त कहलाता है। इस शब्द का मूल भाव यही है कि जब मनुष्य किसी पाप, अपराध या अनुचित कर्म के कारण ग्लानि और अपराधबोध का अनुभव करता है, तब वह अपने अंदर की शुद्धि और मानसिक शांति के लिए जो कृत्य करता है, वही प्रायश्चित्त है। ग्लानि की भावना प्रायश्चित्त की मूल प्रेरणा है- यही भावना व्यक्ति को क्षमा मांगने, सुधार करने और आत्मशुद्धि की दिशा में अग्रसर करती है।[1]
अकुर्वन् विहितं कर्म निन्दितं च समाचरन्। प्रसक्तश्चेन्द्रियार्थेषु प्रायश्चित्तीयते नरः॥ (मनुस्मृति 11/44)[2]
भाषार्थ - जो व्यक्ति शास्त्रविहित कर्मों का पालन नहीं करता और निन्दित या निषिद्ध कर्म करता है, या जो इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होकर पतन की ओर बढ़ता है, उसे प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध होना चाहिए। प्रायश्चित व्यवस्था के अनुसार मनुष्य प्रायश्चित तभी कर सकता है जब वह दुष्कृत्य के लिए मन में पश्चात्ताप का अनुभव करे -
प्रायश्चित्तन्तु तस्यैव कर्त्तव्यं नेतरस्य तु। जातानुतापस्य भवेत्प्रायश्चित्तं यथोदितम्॥ (वृद्ध हारीतस्मृति, ६.२१५)[3]
इस प्रकार प्रायश्चित्त में मनुष्य की इच्छा तथा अनिच्छा का अत्यधिक महत्व है। स्मार्त व्यवस्था है कि व्यक्ति से प्रायश्चित्त बलपूर्वक नहीं करवाया जा सकता -
- व्यक्ति का मन जितना अपने दुष्कर्मों को घृणित समझता है, उसका शरीर उतना पापमुक्त होता जाता है।
- मनु के अनुसार, महापातक तथा अन्य दुष्कर्मों के अपराधी व्यक्ति सम्यक् तप से पाप से मुक्त हो सकते हैं।
- वाणी या शरीर से हुए पाप तप द्वारा नष्ट हो जाते हैं।
- अनजाने में हुए पापों का शोधन वैदिक मंत्रों के जप तथा प्रार्थना द्वारा होता है।
जो पाप ज्ञान पूर्वक किये गए हैं, उनका शोधन केवल प्रायश्चित्त कर्म द्वारा संभव है।[4] याज्ञवल्क्यस्मृति में कहा गया है -
विहितस्याननुष्ठानान्निन्दितस्य च सेवनात्। अनिग्रहाच्चेन्द्रियाणां नरः पतनमृच्छति॥
तस्मात् तेनेह कर्तव्यं प्रायश्चित्तं विशुद्धये। एवमस्यान्तरात्मा च लोकश्चैव प्रसीदति॥
प्रायश्चित्तमकुर्वाणाः पापेषु निरता नराः। अपश्चात्तापिनः कष्टान् नरकान् यान्ति दारुणान्॥ (याज्ञवल्क्यस्मृति)[5]
भाषार्थ - जो व्यक्ति विहित कर्मों का पालन नहीं करता, निन्दित कर्मों का सेवन करता है और अपनी इन्द्रियों का संयम नहीं रखता, वह अधोगति को प्राप्त होता है। इसलिए उसे अपने पतन से उद्धार और शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त करना आवश्यक है।
परिभाषा॥ Definition
निबन्धों एवं टीकाओं ने प्रायश्चित्त की व्युत्पत्ति प्रायः (अर्थात तप) एवं चित्त (अर्थात संकल्प या दृढ विश्वास) से की है -[6]
प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चित्तं निश्चय उच्यते। तपोनिश्चयसंयोगात्प्रायश्चित्तमिति स्मृतम्॥ (गौतमस्मृति ११.१)
इसका सम्बन्ध तप करने के संकल्प से है या विश्वास से है कि इससे पापमोचन होगा।[7]
प्रायश्चित्त का स्वरूप॥ Prayashchitta ka Svaroop
धर्मशास्त्रों में प्रायश्चित्त वह कृत्य माना गया है जिसके करने से मनुष्य के पाप नष्ट होते हैं और उसकी आत्मा शुद्ध होती है। प्रायश्चित्त केवल पापमोचन का उपाय नहीं, अपितु आत्मसंयम का साधन भी है।[8]
धर्मशास्त्रों में स्मृतियों को तीन मुख्य भागों में बांटा गया है - आचार, व्यवहार, तथा प्रायश्चित्त। इनके विधि-विधान, नियम, और दृष्टांत क्रमशः विभिन्न शास्त्रों में वर्णित हैं। प्रायश्चित्त-प्रकरण में दोषमोचन, तप, और सामाजिक पुनरुत्थान के प्रमाण मिलते हैं।[9]
अकामतः कृतं पापं वेदाभ्यासेन शुद्ध्यति। कामतस्तु कृतं मोहत्प्रायश्चित्तै पृथग्विधैः॥ (मनुस्मृति ११.४६)
भाषार्थ - अनजाने में किये गये पापों का शमन वेदवचनों के पाठ से होता है और जानबूझकर किये गये पाप विभिन्न प्रयाश्चित्तों से ही नष्ट किये जाते हैं।
प्रायश्चित्त के प्रकार॥ Types of Prayashchitta
- अतिपातक
- महापातक
- अनुपातक
- उपपातक
- जातिभ्रंशकर
टीकाओं में मिताक्षरा, अपरार्क, पराशरमाधवीय आदि एवं निबन्धों में मदनपरिजात आदि ने विस्तार के साथ प्रायश्चित्तों को लेकर लिखे गये हैं -
- हेमाद्रि का ग्रन्थ
- प्रायश्चित्त प्रकरण
- प्रायश्चित्तविवेक
- प्रायश्चित्त तत्त्व
- स्मृति मुक्ताफल
- प्रायश्चित्तसार
- प्रायशित्तमयूख
- प्रायश्चित्त प्रकाश
- प्रायश्चित्तेन्दु शेखर
- प्रायश्चित्तविवेक (शूलपाणि)
- प्रायश्चित्तमयूख (नीलकंठ),
- प्रायश्चित्तसार (दलपति),
- प्रायश्चित्तेंदुशेखर (नागेश)।
प्रायश्चित्तों के विषय में विस्तार के साथ वर्णन निम्न पुस्तकों में मिलता है - प्रायश्चित्त विवेक, पराशरमाधवीय (२, भाग १ एवं २) एवं प्रायश्चित्त प्रकाश।
प्रायश्चित्त की विधियाँ॥
प्रायश्चित्त की विभिन्न विधियाँ अपराध की प्रकृति, दोष की गंभीरता, व्यक्ति की सामाजिक स्थिति, आयु और समय के अनुसार भिन्न-भिन्न होती हैं। धर्मशास्त्रों में उल्लिखित मुख्य विधियाँ इस प्रकार हैं -
- जप - मंत्रों का निरंतर उच्चारण और आत्म-चिंतन द्वारा मन और चित्त की शुद्धि करना, जो दोषों के मानसिक प्रभाव को कम करता है।
- तप - शारीरिक, मानसिक और संयमित तपस्या के द्वारा पाप का निवारण। इसमें नियमित उपवास, कष्ट सहन करना और असहज परिस्थितियों में रहना शामिल है।
- स्नान - पवित्र जल या अन्य धार्मिक तीर्थों में स्नान करना जिससे दोष शारीरिक रूप से धुल जाता है। यह आत्मिक शुद्धि का प्रतीक माना गया है।
- हवन/यज्ञ - अग्नि के पवित्र अनुष्ठान द्वारा दोषों का संहार और देवताओं से क्षमा याचना। ये विधियाँ सामूहिक या व्यक्तिगत रूप से की जाती हैं।
- दान - निर्धनों को वस्त्र, भोजन, धन आदि दान करना, जिससे पाप का प्रायश्चित्त होता है।
- उपवास - दोष के आधार पर विशेष दिन उपवास रखना, जिससे शरीर का संयम व आत्मनियंत्रण बढ़ता है।
- तीर्थयात्रा - पवित्र स्थानों की यात्रा कर वहां अनुष्ठान करना, जिससे आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार की शुद्धि होती है।
इस प्रकार से धर्मशास्त्रों में प्रत्येक प्रकार के पाप के लिए उपर्युक्त प्रायश्चित्त विधि निर्धारित है और उसी को विधिवत करना आवश्यक है, जिससे पाप की छाया समाप्त हो सके। इसके साथ ही प्रायश्चित्त की सफलता के लिए सर्वप्रथम पश्चात्ताप का होना अनिवार्य माना गया है।[10]
प्रायश्चित्त की आवश्यकता॥ importance of Prayaschitta
मनु और याज्ञवल्क्य दोनों के अनुसार प्रायश्चित्त की आवश्यकता तब होती है जब -
- शास्त्रविहित नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्मों का त्याग किया जाए।
- निषिद्ध कर्मों का सेवन किया जाए, जैसे मांस, मद्य, धूम्रपान, अशुद्ध आहार या अनुचित संगति।
- इन्द्रियों (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) के विषयों में अत्यधिक आसक्ति हो।
इन सभी स्थितियों में मनुष्य के आचरण में पतन होता है, जिससे उसका चित्त अशुद्ध हो जाता है। इस प्रकार, आत्मशुद्धि और मानसिक संतुलन के लिए शास्त्र विहित प्रायश्चित्त-अनुष्ठान अनिवार्य कहा गया है।[11]
राजदण्ड एवं प्रायश्चित्त का संबंध
धर्मशास्त्रों में ऐसे अपराधों की व्यवस्था है, जिनके लिए राजदण्ड और प्रायश्चित्त दोनों का विधान मिलता है, जैसे - हत्या, चोरी, सपिण्ड से संबंध आदि। इसका कारण यह है कि राजदण्ड केवल भौतिक नियंत्रण करता है, जबकि प्रायश्चित्त मानसिक शुद्धि और सामाजिक पुनर्स्थापना की दिशा में कार्य करता है। इसीलिए दोनों आवश्यक माने गए हैं।[9]
निष्कर्ष॥ Conclusion
दण्ड विधान प्रायश्चित्त संबंधी प्रावधानों का उल्लेख किया गया है। कतिपय पाप कार्य ऐसे हैं जिनके लिए प्रायश्चित्त एवं दण्ड दोनों की व्यवस्था है। अतः अपराध एवं उससे संबंधित दण्ड पाप तथा उसके लिए निर्धारित प्रायश्चित्त आवश्यक है।[12]
- पातकी को अपने पाप का पश्चात्ताप होना चाहिए और परिषद् के समक्ष उपस्थित होना जरूरी है।
- महापातक मामलों में राजा की अनिवार्य उपस्थिति होती है।
- वर्ण, आयु, लिंग व परिस्थिति के अनुसार प्रायश्चित्त की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है।
- बालकों के लिए उनके आयु एवं अभिभावकों के अनुसार प्रायश्चित्त निष्पादित किया जाता है।
- प्रायश्चित्त प्रारंभ करने से पूर्व स्नान एवं पंचगव्य का सेवन आवश्यक है।
- देरी करना उचित नहीं।
उद्धरण॥ References
- ↑ शोधकर्त्री- नीरा अरोरा, संस्कृत वांग्मय में प्रायश्चित्त विधान (२०१३, शोधकेन्द्र- स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग, जम्मू विश्वविद्यालय (पृ० ३)
- ↑ मनु स्मृति, अध्याय-११, श्लोक- ४४।
- ↑ स्मृति सन्दर्भः-द्वितीय भाग, वृद्ध हारीतस्मृति, अध्याय- ६, श्लोक- २१५, गुरुमण्डल ग्रन्थालय, कलकत्ता (पृ० ११४८)।
- ↑ शोधार्थिनी- नन्दिता मिश्रा, मनु तथा याज्ञवल्क्य स्मृतियों में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधान का तुलनात्मक अध्ययन (२००८), शोधकेन्द्र- संस्कृत तथा प्राकृत भाषा विभगा, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ (पृ० १०५)।
- ↑ याज्ञवल्क्यस्मृति, प्रायश्चित्त प्रकरण, अध्याय-०३, श्लोक- २१९-२२१।
- ↑ डॉ० पाण्डुरंग वामन काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास भाग-3, सन २००३, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० १०४४)।
- ↑ शोधार्थी- सुशीला कुमारी, स्मृति शास्त्र में प्रायश्चित्त-विधान एक अनुशीलनात्मक अध्ययन (२०१०), शोधकेन्द्र- पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ (पृ० २६)।
- ↑ डॉ० शिखा शर्मा, प्रमुख धर्मसूत्रों एवं स्मृतियों में प्रायश्चित विधान (२००७), न्यू भारतीय बुक कार्पोरेशन, दिल्ली (पृ० १७)।
- ↑ 9.0 9.1 डॉ. राजबली पाण्डेय, हिन्दू धर्मकोश (१९८८), उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन महात्मा गाँधी मार्ग, लखनऊ (पृ० ४३०)।
- ↑ शोधार्थी- सुशीला कुमारी, स्मृति शास्त्र में प्रायश्चित्त-विधान एक अनुशीलनात्मक अध्ययन (२०१०), शोधकेन्द्र- पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ (पृ० ३५)।
- ↑ राजेन्द्र शुक्ला, छः प्रकार के कर्म (2024), इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० 156)।
- ↑ ममता तिवारी, पराशरस्मृति दण्डविधान प्रायश्चित्त, सन २०१६, इण्टरनेशनल जर्नल ऑफ़ अप्लाइड रिसर्च (पृ० ८४२)।