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| − | न्याय व्यवस्था भारतीय ज्ञान परंपरा में धर्मशास्त्रों के आधार पर स्थिर थी, जिसमें नैतिकता, विधि, कर्तव्य और लोक-कल्याण की भावना विद्यमान थी। न्यायिक प्रशासन राजा के अधीन था, लेकिन निर्णय श्रुति, स्मृति एवं सदाचार के अनुसार किए जाते थे। | + | न्याय-व्यवस्था प्राचीन काल में राजा-केंद्रित और कठोर दण्ड-नीति पर आधारित थी, जिसमें नैतिकता, विधि, कर्तव्य और लोक-कल्याण की भावना विद्यमान थी। राजा ही सर्वोच्च न्यायाधीश माना जाता था और वह धर्म, राज्यहित तथा नीति के अनुसार न्याय करता था। राजा के दैनिक कार्यों में न्याय-प्रक्रिया के लिए निश्चित समय निर्धारित रहता था। लेकिन निर्णय श्रुति, स्मृति, सदाचार, देश, काल और परिस्थिति के अनुसार ही किए जाते थे। |
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| − | == परिचय॥ Introduction == | + | ==परिचय॥ Introduction== |
| − | प्राचीन भारत की न्याय व्यवस्था में धर्म सर्वोच्च था। राजा भी धर्म के बंधन में बंधा हुआ था और उसका शासन शासकीय नियमों के साथ धार्मिक नियमों के पालन पर आधारित था। धर्मसूत्रों में राजा को धर्म का अंग माना गया है, जो न्याय के अंतिम अधिकारी होते हुए भी उनसे ऊपर नहीं था। राजा को अधिकार था कि वह नियम बनाए, किंतु वह ऐसा नियम नहीं बना सकता था जो धर्म के विरुद्ध हो। | + | प्राचीन भारत की न्याय व्यवस्था में धर्म सर्वोच्च था। [[Raja Dharma (राजधर्मः)|राजा]] भी धर्म के बंधन में बंधा हुआ था और उसका शासन शासकीय नियमों के साथ धार्मिक नियमों के पालन पर आधारित था। धर्मसूत्रों में राजा को धर्म का अंग माना गया है, जो न्याय के अंतिम अधिकारी होते हुए भी उनसे ऊपर नहीं था। राजा को अधिकार था कि वह नियम बनाए, किंतु वह ऐसा नियम नहीं बना सकता था जो धर्म के विरुद्ध हो। कौटिलीय [[Arthashastra (अर्थशास्त्रम्)|अर्थशास्त्र]] में न्याय व्यवस्था के संदर्भ में चार स्रोत बताये गये हैं - <blockquote>धर्मश्च व्यवहारश्च चरित्रं राजशासनम्। चतुष्पादव्यवहारोऽयं पश्चिमः पूर्वबाधकः॥ (अर्थशास्त्र)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D_%E0%A5%A9/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A7 अर्थशास्त्रम्], अधिकरण- ०३, अध्याय- ०१, श्लोक - ०२।</ref></blockquote>धर्म, व्यवहार, चरित्र और [[Raja Dharma (राजधर्मः)|राजशासन]] - इन चार की भूमिका के विषय में मतभेद दिखाई देता है। उस समय न्याय विभाग और शासन विभाग पृथक थे। न्यायाधीश पुरोहित, मंत्री, और ज्ञानी व्यक्ति होते थे जिनका न्याय संचालन में स्वतंत्र स्थान था। वे न्यायालय की सभा में अपने निर्णय देते थे, जिसमें समाज के स्वतंत्र सदस्य भी सहभाग करते थे। न्याय प्रक्रिया सरल और निष्पक्ष थी, जिसमें याचिका प्रस्तुत कर वाद न्यायालय में लाया जाता था। न्यायाधीश दोनों पक्षों की प्रस्तुतियां सुनकर विधिपूर्वक फैसला करते थे, किन्तु राजा के समक्ष अदालत में अंतिम निर्णय होता था। इस प्रकार प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था में धर्म के साथ न्याय का अनिवार्य समन्वय रहता था। राजा की सीमित सत्ता के साथ न्यायपालिका स्वतंत्र और नैतिकता पर आधारित होती थी, जो समाज में व्यवस्था और शांति बनाए रखने का कार्य करती थी।<ref>शोधकर्ता- संजय सिंह, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/301525 प्राचीन भारत में राजकीय न्याय-व्यवस्था], सन २०१३, शोधकेन्द्र- इतिहास विभाग, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी (पृ० ७६)।</ref> |
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| − | उस समय न्याय विभाग और शासन विभाग पृथक थे। न्यायाधीश पुरोहित, मंत्री, और ज्ञानी व्यक्ति होते थे जिनका न्याय संचालन में स्वतंत्र स्थान था। वे न्यायालय की सभा में अपने निर्णय देते थे, जिसमें समाज के स्वतंत्र सदस्य भी सहभाग करते थे। न्याय प्रक्रिया सरल और निष्पक्ष थी, जिसमें याचिका प्रस्तुत कर वाद न्यायालय में लाया जाता था। न्यायाधीश दोनों पक्षों की प्रस्तुतियां सुनकर विधिपूर्वक फैसला करते थे, किन्तु राजा के समक्ष अदालत में अंतिम निर्णय होता था। इस प्रकार प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था में धर्म के साथ न्याय का अनिवार्य समन्वय रहता था। राजा की सीमित सत्ता के साथ न्यायपालिका स्वतंत्र और नैतिकता पर आधारित होती थी, जो समाज में व्यवस्था और शांति बनाए रखने का कार्य करती थी।<ref>शोधकर्ता- संजय सिंह, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/301525 प्राचीन भारत में राजकीय न्याय-व्यवस्था], सन २०१३, शोधकेन्द्र- इतिहास विभाग, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी (पृ० ७६)।</ref> | + | ==स्मृतियों में न्याय व्यवस्था॥ Judicial system in Smritis== |
| | + | मनु के मतानुसार संसार में परम शुद्ध एवं सज्जन मनुष्य दुर्लभ हैं। मानव जीवन के छः मुख्य शत्रु अरिषड्वर्ग - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मात्सर्य- व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप कर वैमनस्य उत्पन्न करते हैं। ऐसे वैमनस्यजनित विवादों के समाधान हेतु न्यायपालिका की स्थापना हुई। नारद जी कहते हैं कि - <blockquote>कामात् क्रोधाच्च लोभाच्च त्रिभ्यो यस्मात् प्रवर्त्तते। त्रियोनिः कीर्त्त्यते तेन त्रयमेतद् विवादकृत्॥ (नारद स्मृति)</blockquote>सभी प्रकार के विवादों के मूल अथवा उत्पत्ति स्थल तीन हैं - काम, क्रोध और लोभ। इन तीनों के कारण ही किसी विवाद का जन्म होता है। इसलिये विवाद को त्रियोनि कहा जाता है। |
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| | + | स्मृति युग की न्याय प्रणाली अत्यंत सुव्यवस्थित एवं संस्थागत थी। उस समय राजा न केवल राज्य के शासक थे, बल्कि न्यायिक प्राधिकारी भी। न्यायिक निर्णय लेना उनके दैनन्दिन कर्तव्यों में था। न्यायिक व्यवस्था में विकेन्द्रीकरण था; छोटे स्तर के न्यायालयों से लेकर उच्च न्यायालय तक व्यवस्था स्थापित थी। ग्राम स्तर के न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध नगर स्तर के न्यायालय में अपील की अनुमति थी। नगर न्यायालय के निर्णय से असंतुष्ट होने पर राजा के समक्ष पुनः अपील की जाती थी, किन्तु राजा के निर्णय के विरुद्ध पुनः कोई अपील नहीं होती थी। |
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| | + | न्यायालय को स्मृतिकारों ने धर्मसभा के रूप में अभिहित किया है, जबकि न्यायाधीश को धर्मस्थ अथवा प्राड्विवाक कहा गया है। न्यायाधीश के पक्षपात या अन्याय होने पर प्रजा का अधिकार सुनिश्चित करते हुए राजा के समक्ष पुनरावेदन का प्रावधान था। यह अंतिम न्यायालय था, जिसे आज के सर्वोच्च न्यायालय के समकक्ष माना जा सकता है। |
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| | + | यदि न्यायाधीश अप्रासंगिक निर्णय देता तो उसे दण्डित भी किया जाता था; न्याय व्यवस्था में निष्पक्षता एवं उत्तरदायित्व को उच्चतम स्तर पर रखा गया था। वशिष्ठ स्मृति में न्यायालय के स्थान पर सदः शब्द का प्रयोग मिलता है, जहाँ राजमंत्री न्यायिक कार्यों का निरीक्षण करता था। कात्यायन ने न्यायिक परिषद के लिए धर्माधिकरण शब्द उपयुक्त समझा है। स्मृतिचन्द्रिका में उल्लेख है -<blockquote>धर्मशास्त्र विचारेण मूलसार विवेचनम्। यत्राधिक्रियते स्थाने धर्माधिकरणं स्मृतम्॥ (कात्यायन स्मृति)</blockquote>इस प्रकार स्मृति युग की न्यायव्यवस्था धर्म, नीति और नैतिकता के आधार पर सही एवं व्यवस्थित न्याय पर विश्वास रखती थी तथा प्रशासनिक दक्षता सुनिश्चित करती थी। प्राचीन भारतीय शासन-व्यवस्था में न्याय का सर्वोच्च अधिकारी स्वयं राजा होता था। उसे धर्म का रक्षक और दण्ड देने वाला कहा गया है। राजा के दैनिक कार्यों में न्याय-प्रक्रिया के लिए निश्चित समय निर्धारित रहता था। भीष्म के अनुसार, न्याय करते समय राजा को अपने निकट तत्वदर्शी और विद्वान पुरुषों को रखना आवश्यक है। अनुशासन पर्व में यह भी उल्लेख है कि राजा को अपराधी के आरोपों, देश-काल की परिस्थितियों, न्याय और अन्याय की सीमाओं आदि का विचार अनेक ज्ञानी और तत्वदर्शी पुरुषों के साथ परामर्श कर करना चाहिए। तत्पश्चात शास्त्रीय विधि के अनुसार ही दण्ड देना उचित है। इस सिद्धांत से यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारत के आचार्य केवल एक व्यक्ति के निर्णय को अंतिम नहीं मानते थे। वैदिक युग में ‘सभा’ राष्ट्र की मुख्य न्यायिक संस्था के रूप में कार्य करती थी और महाभारत काल में भी उसका यह अधिकार अक्षुण्ण बना रहा।<ref>डॉ० प्रेम कुमारी दीक्षित, [https://ia601903.us.archive.org/10/items/wg081/WG081-1970-MahabharatMeinRajVyavastha.pdf महाभारत में राज्य व्यवस्था], सन १९७०, अर्चना प्रकाशन, लखनऊ (पृ० २१६)।</ref> |
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| | + | ===न्यायपालिका का स्वरूप=== |
| | + | स्मृतिकारों ने न्यायिक संस्था को अत्यंत सुव्यवस्थित एवं विधिसंमत रूप में प्रतिपादित किया है। शंख स्मृति और बृहस्पति स्मृति दोनों में न्याय-सभा या न्यायालय के स्वरूप का विस्तारपूर्वक वर्णन प्राप्त होता है। मुनि शंख ने न्यायालय को धर्मस्थान कहा है, जो राजभवन के पूर्व दिशा में स्थित होता था। इसके निकट अग्नि और जल की विशेष व्यवस्था रहती थी, क्योंकि अग्नि को दिव्य साक्षी और जल को संकल्प-प्रतीक के रूप में माना जाता था। बृहस्पति स्मृति में न्याय-भवन को विभिन्न प्रकार के पुष्पों, मूर्तियों, देवमूर्तियों एवं चित्रों से सुसज्जित बताया गया है -<blockquote>माल्यधूपासनोपेतां बीजरत्नसमन्विताम्। प्रतिमालेख्यदेवैश्च युक्तां अग्न्यम्बुना तथा॥ (बृहस्पति स्मृति)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/-------%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A4%83 बृहस्पति स्मृतिः], व्यवहार काण्ड, अध्याय-०१, श्लोक-४६।</ref></blockquote>यहाँ अग्नि, जल, धूप और बीज आदि की उपस्थिति आवश्यक मानी जाती थी। यह वातावरण न्यायाधीश और अभियुक्त दोनों को मानसिक शान्ति प्रदान करता थे, जिससे न्याय निष्पक्ष एवं पवित्र रूप में होते थे ।<ref>श्रीमती त्रिशला देवी, डॉ० जय कुमार जैन, स्मृतियों में निरूपित अपराध, न्याय व दण्ड-व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में संस्कृत रूपकों का अनुशीलन, सन् २०१६, काव इन्टरनेशनल जर्नल ऑफ आर्ट्स, ह्युमैनिटीज एण्ड सोशल साइंस (पृ० ११२)।</ref> |
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| | + | ===न्यायालय के प्रकार=== |
| | + | विवादों के समाधान के लिए बहुस्तरीय न्यायालय होते थे, जिसमें ये न्याय-प्रक्रिया के पाँच सोपान प्रमुख हैं -<ref name=":0" /> |
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| | + | #'''कुल -''' यह ग्राम पंचायत थी। कुल के सदस्य अपने विवादों का समाधान यहाँ पाते थे। पुराने वैदिक युग में भी इसे कुलपा कहा जाता था। |
| | + | #'''श्रेणी -''' कुछ समान व्यवसाय या जाति के लोगों का संघ था, जैसे- अध्यापक, श्रमिक, चिकित्सक तथा व्यापारी आदि। इनके विवादों का निर्णय इनके प्रमुख द्वारा यहां किया जाता था। |
| | + | #'''गण -''' कुछ मतों के अनुसार कुलों का संघ गण था तथा एक ही जाति अथवा सम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व करने वाला श्रेष्ठ पुरुष। |
| | + | #'''मनोनीत/अधिकृत न्यायाधीश -''' राजा द्वारा नियुक्त न्यायाधीश - यह उच्च न्यायालय जैसा था, जहाँ राजा या उसके अधिकृत न्यायाधीश न्याय करते थे। |
| | + | #'''स्वयं राजा -''' न्याय व्यवस्था में राजा का स्थान सर्वोच्च होता था। |
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| | + | छोटे से बड़े न्यायालय का क्रम इस प्रकार है - कुल → श्रेणी → पूग/गण → राजा द्वारा नियुक्त न्यायाधीश → राजा। कई ग्रंथों में गण एवं पूग को भिन्न माना गया है, किन्तु नारद स्मृति में पूग के स्थान पर गण का उल्लेख है - <blockquote>कुलानि श्रेणयश्चैव गणाश्चाधिकृतो नृपः। प्रतिष्ठा व्यवहाराणां गुर्वेभ्यस्तूत्तरोत्तरम्॥ |
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| | + | नृपेणाधिकृताः पूगाः श्रेणयोऽथ कुलानि च। पूर्वं पूर्वं गुरुं ज्ञेयं व्यवहारविधौ नृणाम्॥ (नारद स्मृति)<ref name=":0">डॉ० राम कुमार वर्मा <nowiki>''शास्त्री''</nowiki>, [https://archive.org/details/narada_smriti_hindi_traslation/page/n4/mode/1up नारद स्मृति-हिन्दी अनुवाद सहित], अध्याय-१, श्लोक ७-८, डायनेमिक पब्लिकेशंस (इण्डिया) लिमिटेड (पृ० १७)।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' इनमें पूर्व से ऊपर-ऊपर वरीय हैं, अर्थात कुल से श्रेणी, श्रेणी से गण, गण से अधिकृत न्यायाधीश तथा उससे ऊपर राजा हैं। प्रत्येक ऊपर वाला न्यायाधिकरण नीचे वाली न्यायिक संस्था के निर्णय पर पुनः विचार करने में एवं उसके निर्णय को निरस्त करने में सक्षम हैं। |
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| | + | आज कल भी न्याय-व्यवस्था के पांच स्तर हैं- कनिष्ठ न्यायाधीश (सब जज), वरिष्ठ न्यायाधीश (सीनियर जज), मण्डल न्यायाधीश (सेशन जज), उच्च न्यायालय (हाई कोर्ट) तथा सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट)। राजा का स्थान आज के राष्ट्राध्यक्ष के समकक्ष समझना चाहिये। आज जिस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को पलटने-क्षमायाचना को स्वीकार करने आदि का अधिकार राष्ट्रपति को है, नारद वही स्थिति राजा की घोषित करते हैं।<ref name=":0" /> |
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| | + | '''बृहस्पति स्मृति में न्याय सभा के भेद''' |
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| | + | प्रतिष्ठितापुरे ग्रामे चला नाम प्रतिष्ठिता। मुद्रिताध्यक्ष संयुक्ता राजयुक्ता च शासिता॥ (बृहस्पति स्मृति) |
| | + | #'''प्रतिष्ठिता''' - ग्राम या नगर में नियमित सभा जो छोटे विवादों का निराकरण करती थी। |
| | + | #'''अप्रतिष्ठिता (स्थलान्तरण न्यायालय)''' - यह न्यायालय स्थान-स्थान जाकर कार्य करता था, जैसे जंगल या दूरस्थ स्थल। इसे आधुनिक लोक अदालत के सदृश माना जा सकता है। |
| | + | #'''मुद्रिता''' - ग्रामसभा या स्थानीय अदालतों द्वारा न सुलझाए गए विषय बड़ी न्याय सभा में भेजे जाते थे। राजस्व का भुगतान करना पड़ता था; इसलिए इसे मुद्रिता कहा गया। |
| | + | #'''शासिता/शास्त्रित''' - जहाँ राजा स्वयं या सर्वोच्च न्यायाधीश बैठकर निर्णय देता था, जिसे आज के सर्वोच्च न्यायालय के समान माना जाता है। |
| | + | स्मृतियों में ग्राम पंचायत को दण्ड देने का अधिकार भी दिया गया है। स्थानीय विवादों का निवारण ग्राम या गण के प्रमुख करते थे और राजा उनके निर्णयों को स्वीकार करता था - वनवासियों के न्यायालय वन में, सैनिकों के न्यायालय सेना में, व्यापारियों के न्यायालय उनके मंडल या संगठन में, ये न्यायालय स्थायी एवं अस्थायी दोनों प्रकार के होते थे।<blockquote>वे त्वरण्यचरास्तेषामरण्ये करणं भवेत्। सेनायां सैनिकानान्त सार्थेषु वाणिजां तथा॥ (स्मृति चन्द्रिका)</blockquote>ग्राम पंचायत का काम दण्ड देना भी था। स्थानीय विवादों का समाधान ग्राम या गणों के प्रमुख किया करते थे। राजा उनके निर्णय को स्वीकार करते थे। न्यायपालिका का स्वरूप, संगठन तथा कार्यक्षेत्र स्मृतियों के आधार पर इस प्रकार था - |
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| | + | *सबसे बड़ा न्यायालय धर्मसभा था, जहाँ राजा, ब्राह्मण, मंत्रज्ञ और मंत्रियों की सहायता से विवादों का निर्णय करता था। राजा को धर्मध्यक्ष या धर्मस्थ कहा जाता था। |
| | + | *धर्मसभा के नीचे एक अन्य न्यायालय भी था, संभवतः सभ्य धर्मसभा। यहाँ वेदज्ञ तीन ब्राह्मण एवं राजा द्वारा अधिकृत एक विद्वान ब्राह्मण मिलकर चार न्यायाधीश बनाते थे। |
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| | + | राज्य प्रशासन को छोटे-छोटे इकाइयों जैसे ग्राम में विभाजित किया गया था, जहाँ ग्रामिक, दशी, विंशती, शती, सहस्त्राधिपति जैसे अधिकारी न्यायिक कार्य करते थे। उनके निर्णयों को राज्याभिषेक की मान्यता प्राप्त थी।<ref>डॉ० पाण्डुरंग वामन काणे, [https://archive.org/details/GaMX_dharma-shastra-ka-itihas-part-2-of-dr.-panduranga-vamana-kane-hindi-trans-by-arj/page/n144/mode/1up धर्मशास्त्र का इतिहास-भाग २], सन १९९२, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० ७०४)।</ref> |
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| | + | ===न्यायिक सभा के अंग=== |
| | + | स्मृतिचन्द्रिका में पितामह स्मृति से यह उल्लेख मिलता है कि न्यायिक सभा के आठ प्रमुख अंग होते थे - <blockquote>नृपाधिकृतसभ्याश्च स्मृतिर्गणकलेखकौ। हेमाग्न्यम्बुस्वपुरुषास्साधनाङ्गानि वै दश॥ |
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| | + | एतद्दशाङ्गं करणं यस्यामध्यास्य पार्थिवः। न्यायात्पश्येत्कृतमतिः सा सभाऽध्वरसंमिता॥ (स्मृति चन्द्रिका)<ref>श्रीदेवण भट्ट, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.486481/page/44/mode/1up स्मृति चन्द्रिका-व्यवहार काण्ड], सन १९१४, गवर्मेन्ट ओरियन्टल लाइब्रेरी, मैसूर (पृ० ४५)।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' राजा द्वारा न्याय-कार्य के लिए संगठित की गई सभा और उसकी कार्यप्रणाली, जिसमें विभिन्न अधिकार प्राप्त गणक-लेखक आदि दस अंग सम्मिलित होते हैं, जो न्याय के निर्णय में सहायता करते हैं - |
| | + | #'''लेखक –''' जो कार्यवाही का लेख्य तैयार करता था। |
| | + | #'''गणक –''' जो हिसाब और लेखा देखता था। |
| | + | #'''शास्त्र –''' जो धर्मग्रंथ या विधिशास्त्र होता था। |
| | + | #'''साध्यपाल –''' न्यायालय के अनुशासन और सुरक्षा के लिए उत्तरदायी। |
| | + | #'''सभासद –''' विषयों की समीक्षा या परामर्श देने वाले सदस्य। |
| | + | #'''हिरण्य या स्वर्ण –''' आर्थिक लेनदेन हेतु निधि या द्रव्य। |
| | + | #'''अग्नि –''' प्रतिज्ञा के लिए साक्षी। |
| | + | #'''जल –''' संकल्पार्थ प्रयोग किया जाने वाला तत्त्व। |
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| | + | बृहस्पति स्मृति ने इन अंगों की संख्या दस बताई है, जिनमें अतिरिक्त रूप से राजा (दण्डदाता) और स्वपुरुष (प्रवर्तनाधिकारी) सम्मिलित हैं। |
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| | + | ===न्यायाधीश के गुण=== |
| | + | न्यायाधीश के लिए निष्पक्षता, धर्मज्ञान और विवेक सर्वोपरि आवश्यक माना गया। वशिष्ठ स्मृति में निष्काम व्यक्ति को शिष्ट कहा गया है, और उसे ही न्याय का प्रमाण माना गया है। न्यायाधीश को धर्मशास्त्र, श्रुति और स्मृति का गहन ज्ञान अपेक्षित था। मनुस्मृति में निर्देश है कि जब राजा स्वयं न्यायाधीश के रूप में बैठे तो उसे सत्य, अर्थ, आत्मा, साक्षी, देश, रूप और काल का विचार कर निर्णय देना चाहिए -<blockquote>सत्यमर्थं च संपश्येदात्मानमथ साक्षिणः। देशं रूपं च कालं च व्यवहारविधौ स्थितः॥ (मनुस्मृति 8.45)</blockquote> |
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| | + | नारद स्मृति में कहा गया है कि - <blockquote>आन्वीक्षिक्यादिकुशलः श्रुतिस्मृतिपरायणः । प्राङ्विवाकस्तथा शल्यमुद्धरेत् व्यवहारतः॥ (नारद स्मृति)</blockquote>न्यायाधीश को अठारह प्रकार के विवादों और उनके उपभेदों की जानकारी, तर्कशास्त्र (अन्वीक्षिकी), वेद एवं स्मृतियों में प्रवीण होना चाहिए। उसे शल्य-चिकित्सक की भांति अवैध या अनुचित बातों को निकाल देने की क्षमता होनी चाहिए। आपस्तम्ब धर्मसूत्र के अनुसार न्यायाधीश को विद्या, कुलीनता, वंश, चतुराई तथा धर्मबुद्धि से संपन्न होना चाहिए। |
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| | + | ===न्यायपालिका की स्वाधीनता=== |
| | + | मनु ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को अत्यधिक महत्त्व दिया। उनके मत में न्याय व्यवस्था को कार्यपालिका एवं विधिपालिका के अनुचित प्रभाव से मुक्त होना चाहिए। राज्य में अधिकांश न्यायिक कार्य स्थानीय अदालतों में ही संपन्न होते थे और न्यायाधीशों की नियुक्ति संबद्ध सामाजिक संस्थाओं - जाति, गण, श्रेणी एवं कुल - द्वारा की जाती थी। ये न्यायालय अपने-अपने जाति धर्म, गण धर्म, श्रेणी धर्म, कुल धर्म एवं देश धर्म के अनुसार निर्णय देने में स्वतंत्र थे। डा. श्यामलाल पाण्डेय के मत में मनु की न्यायपालिका पूर्णतः स्वायत्त संस्था थी, जिसने शासन के अन्य शाखाओं के कुप्रभावों से स्वयं को पूर्णतः मुक्त रखा। |
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| | + | ===न्याय व्यवस्था एवं विवाद निर्णय=== |
| | + | प्राचीन राजनीति तथा धर्म से सम्बन्धित ग्रन्थों से उस युग की विधि तथा न्याय-व्यवस्था के संगठन का बृहद परिचय प्राप्त होता है - मनु, याज्ञवल्क्य, वसिष्ठ, नारद, गौतम, शुक्र, पराशर, कामन्दक और कौटिल्य आदि ऋषियों और मनीषियों ने अपने ग्रन्थों में विस्तार से विधि और न्याय-व्यवस्था का विवेचन किया है। प्राचीन धर्मशास्त्रों के अनुसार विवादों के निर्णय जिन विशेष नियमों एवं कानून के आधार पर होते थे, उनको पाँच भागों में विभक्त किया जा सकता है - |
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| | + | #वेदादि धर्मशास्त्रों के निर्देश |
| | + | #देश, जाति एवं कुल रीतियाँ |
| | + | #विभिन्न वर्गों के अपने रीति-रिवाज |
| | + | #तर्क |
| | + | #त्रैविध वृद्धों की सम्मतियाँ |
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| | + | प्राचीन न्याय व्यवस्था में साक्षी का भी बहुत महत्व था, यह लिखित और मौखिक दोनों प्रकार का हो सकता था। मनु ने न्यायिक क्षेत्र का स्पष्ट विभाजन किया है। उन्होंने मुकदमों को अठारह भेदों में वर्गीकृत किया है, जिन्हें 'अष्टादश व्यवहारपद' कहा जाता है। इनमें अनुबंध, व्यापार, विवाद, ऋण, दाय, साक्ष्य, दुराचार, उपनिधि, द्रोह आदि प्रमुख विषय सम्मिलित हैं। इन व्यवहारपदों से यह स्पष्ट होता है कि स्मृति-युग में न्यायपालिका केवल दण्ड-विधान करने वाली संस्था नहीं थी, बल्कि सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक जीवन के सभी आयामों को नियंत्रित एवं संरक्षित रखने वाली समग्र व्यवस्था थी।<ref>डॉ० शशि कश्यप, [https://dn721806.ca.archive.org/0/items/wg075/WG075-2001-DharamShastromMeinNyayaVyavasthaKaSwaroop.pdf धर्मशास्त्रों में न्यायव्यवस्था का स्वरूप], सन २०००, न्यू भारतीय बुक कार्पोरेशन, दिल्ली (पृ० ३३)।</ref> |
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| | + | == अर्थशास्त्र में न्याय व्यवस्था== |
| | + | कौटिल्य के समय की न्याय-व्यवस्था राजा-केंद्रित और कठोर दण्ड-नीति पर आधारित थी। उस काल में न्याय की गति तीव्र थी तथा अनुशासन को सर्वोच्च स्थान दिया जाता था। राजा ही सर्वोच्च न्यायाधीश माना जाता था और वह धर्म, राज्यहित तथा नीति के अनुसार न्याय करता था। उस काल की न्याय-प्रणाली राज्य की स्थिरता बनाए रखने और भ्रष्टाचार को रोकने का प्रभावी माध्यम मानी जाती थी। |
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| | + | इसके विपरीत, आधुनिक भारत की न्याय-व्यवस्था संविधान पर आधारित है, जिसमें नागरिकों के अधिकारों की रक्षा, निष्पक्ष न्याय और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को मुख्य स्थान दिया गया है। शोध से यह स्पष्ट होता है कि जहाँ कौटिल्य की व्यवस्था प्रशासनिक पारदर्शिता और त्वरित न्याय सुनिश्चित करती थी, वहीं वर्तमान व्यवस्था मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक आदर्शों पर अधिक केंद्रित है। फिर भी न्याय में होने वाला विलंब, अधिक व्यय और जटिल प्रक्रियाएँ इसकी प्रमुख कठिनाइयाँ हैं। |
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| | + | इस तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि दोनों व्यवस्थाएँ समाज में विधि, व्यवस्था और न्याय की स्थापना के लिए बनी थीं, परंतु उनके उद्देश्य और दृष्टिकोण समय तथा परिस्थिति के अनुसार भिन्न रहे हैं। यदि वर्तमान न्याय-प्रणाली कौटिल्य के व्यावहारिक और परिणाममुखी सिद्धांतों को अपनाए, तो यह अधिक प्रभावी और जनहितकारी बन सकती है।<ref>शोधार्थी- पवन सोनल, [https://ijsrem.com/download/%E0%A4%95%E0%A5%8C%E0%A4%9F%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AF-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0-%E0%A4%94/ कौटिल्य का अर्थशास्त्र और आधुनिक न्याय व्यवस्था], सन् २०२५, इण्टरनेशनल जर्नल साइंटिफिक रिसर्च इन इंजीनियरिंग एण्ड मैनेजमेण्ट (पृ० १)।</ref> |
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| | + | ==न्याय व्यवस्था की उपयोगिता== |
| | + | स्मृतियों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि उस काल में प्रजा को न्याय दिलाने के लिए एक सुव्यवस्थित और त्वरित न्याय प्रणाली विद्यमान थी। स्मृतियों में यह उल्लेख मिलता है कि यदि न्यायाधीश उचित न्याय नहीं करता था, तो उसे दण्डित किया जाता था। इससे न्याय की निष्पक्षता और उत्तरदायित्व दोनों सुनिश्चित होते थे। स्मृतिकालीन न्याय व्यवस्था सुगम और जनसुलभ थी। गांव, वन और नगर—सभी स्तरों पर विवादों के निपटारे हेतु स्थानीय निकाय होते थे, जिससे लोगों को शीघ्र न्याय प्राप्त होता था। इसके विपरीत वर्तमान में न्यायिक प्रक्रिया अत्यधिक जटिल और विलंबकारी बन चुकी है। पीड़ित व्यक्ति को न्याय पाने के लिए वर्षों तक न्यायालयों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। |
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| | + | स्मृति परंपरा के अनुरूप यदि आज ग्राम और विभागीय स्तर पर स्थायी या अस्थायी न्यायालयों की स्थापना की जाए तो त्वरित न्याय की प्राप्ति संभव है। उच्च न्यायालयों पर भार कम होगा और न्याय में गति आएगी। विभागीय विवादों के निपटारे हेतु विशेष न्यायालय बनने से कार्यकुशलता और निष्पक्षता दोनों बढ़ेंगी। स्मृतियों की परम्परा के अनुसार घटनास्थल पर जाकर न्याय देने की व्यवस्था आज भी प्रासंगिक है। इससे न केवल शीघ्र न्याय होगा, बल्कि साक्ष्यों की सत्यता भी प्रत्यक्ष रूप से परखी जा सकेगी। साथ ही, गलत निर्णय करने वाले न्यायाधीश को दण्डित करने की व्यवस्था न्याय की गरिमा को बनाए रखेगी। |
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| | + | इस प्रकार स्मृतिकालीन न्याय व्यवस्था के सिद्धांत वर्तमान में भी उपयोगी हैं, और उन्हें अपनाकर हम एक त्वरित, सुलभ और निष्पक्ष न्याय प्रणाली की स्थापना कर सकते हैं। |
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| | + | ==निष्कर्ष॥ Conclusion== |
| | + | प्राचीन भारतीय न्याय एवं शासन व्यवस्था एक सफल सामाजिक-राजनैतिक प्रयोग थी, जिसमें समय के साथ न्याय प्रणाली का क्रमिक और व्यवस्थित विकास हुआ। उस समय लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा स्पष्ट रूप से प्रकट होती थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र का प्रभाव प्राचीन नाट्यकृति मृच्छकटिक में भी दिखाई देता है, जहाँ न्यायालय के व्यवहारिक रूप का उल्लेख है। इस युग में धार्मिक विधि, राज्यविधि, सदाचार और परम्पराओं के नवीन प्रतिमान स्थापित होने लगे थे। कौटिल्य ने ‘धर्मस्थीय’ और ‘कण्टकशोधन’ नामक न्यायालयों की स्थापना की, जो आधुनिक न्याय-व्यवस्था की नींव बने। दण्ड विधान का तार्किक और कठोर स्वरूप समाज में भय का ऐसा वातावरण निर्मित करता था, जिससे अपराधों पर प्रभावी नियंत्रण संभव हो पाया |
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| − | == निष्कर्ष ==
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| | प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था की विशेषता थी उसकी स्वतंत्रता, निष्पक्षता और व्यवस्थित प्रक्रिया। राजा भी कानून के अधीन होता था और न्यायपालिका स्वतंत्र होती थी। न्यायाधीशों का पदानुक्रम स्पष्ट था और वे केवल नियमों के अनुसार ही निर्णय देते थे। उच्च न्यायालय के पास कनिष्ठ न्यायालय के निर्णय को समीक्षा करने का अधिकार था, जो आज की न्याय प्रक्रिया के समान है। | | प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था की विशेषता थी उसकी स्वतंत्रता, निष्पक्षता और व्यवस्थित प्रक्रिया। राजा भी कानून के अधीन होता था और न्यायपालिका स्वतंत्र होती थी। न्यायाधीशों का पदानुक्रम स्पष्ट था और वे केवल नियमों के अनुसार ही निर्णय देते थे। उच्च न्यायालय के पास कनिष्ठ न्यायालय के निर्णय को समीक्षा करने का अधिकार था, जो आज की न्याय प्रक्रिया के समान है। |
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| − | * समाज की व्यवस्था के लिए 'परिषद' नामक संस्था बनी थी, जहाँ धर्म-संशय के निर्णय होते थे। यह सिद्ध करता है कि प्राचीन भारत में न्याय प्रक्रिया में वैज्ञानिकता, व्यावहारिकता और नैतिकता का संगम था। | + | *समाज की व्यवस्था के लिए 'परिषद' नामक संस्था बनी थी, जहाँ धर्म-संशय के निर्णय होते थे। यह सिद्ध करता है कि प्राचीन भारत में न्याय प्रक्रिया में वैज्ञानिकता, व्यावहारिकता और नैतिकता का संगम था। |
| − | * न्याय प्रणाली का उद्देश्य था सत्य का ज्ञान करना और न्याय पूर्वक विवादों का निवारण करना। इसके लिए न्यायालयों की एक विकेंद्रीकृत प्रणाली थी, जिसमें ग्राम, नगर, और राजा के न्यायालय शामिल थे। राजा के निर्णय के बाद कोई पुनः अपील नहीं होती थी। | + | *न्याय प्रणाली का उद्देश्य था सत्य का ज्ञान करना और न्याय पूर्वक विवादों का निवारण करना। इसके लिए न्यायालयों की एक विकेंद्रीकृत प्रणाली थी, जिसमें ग्राम, नगर, और राजा के न्यायालय शामिल थे। राजा के निर्णय के बाद कोई पुनः अपील नहीं होती थी। |
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| | अतः कहा जा सकता है कि प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था आधुनिक न्यायपालिका की एक आदर्श रूपरेखा प्रस्तुत करती है, जिसमें सामाजिक न्याय, नैतिकता, और नियमों का पालन सर्वोपरि था। | | अतः कहा जा सकता है कि प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था आधुनिक न्यायपालिका की एक आदर्श रूपरेखा प्रस्तुत करती है, जिसमें सामाजिक न्याय, नैतिकता, और नियमों का पालन सर्वोपरि था। |
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| − | == उद्धरण == | + | ==उद्धरण॥ References== |
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| | + | <references /> |