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| | राजनीति-शास्त्र के विद्वानों ने राज्य के सात अंगों का विवेचन किया है। सप्तांगों को सर्वप्रथम मनु एवं कौटिल्य ने परिभाषित किया है। कुछ प्राचीन धर्मसूत्रों में राजा, अमात्य, कोश आदि अंगों का विवेचन हुआ है पर सप्तांगों का पूर्ण स्वरूप और परिभाषा के अभाव में उसे महत्त्व न देना ही उचित होगा। प्रायः सभी राजनीति-शास्त्रज्ञों ने सात अंगों को बताया है - स्वामी, अमात्य, जनपद या राष्ट्र, दुर्ग, कोश, दण्ड और मित्र। भारतीय ज्ञान परंपरा में सभी प्राणियों का शरण-स्थल राजधर्म है, महाभारत के अनुसार राजधर्म के सहारे ही जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति सम्भव होना बताया गया है -<ref>डॉ० पाण्डुरंग वामन काणे, [https://ia801504.us.archive.org/22/items/in.ernet.dli.2015.306909/2015.306909.Dharmshastra-Ka.pdf धर्मशास्त्र का इतिहास- तृतीय खण्ड], सन् 1992, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० 585)।</ref><blockquote>सर्वे धर्मा राजधर्म प्रधानाः सर्वे वर्णाः पाल्यमाना भवन्ति। सर्वस्त्यागो राजधर्मेषु राजंस्त्यागं धर्मं चाहुरग्र्यं पुराणम्॥ (महाभारत )<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-158 महाभारत] , शांतिपर्व-राजधर्मानुशासन पर्व , अध्याय - 58, श्लोक- 33।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' सभी धर्मों में राजधर्म ही प्रधान है; क्योंकि उसके द्वारा सभी वर्णों का पालन होता है। राजन्! राजधर्मों में सभी प्रकार के त्याग का समावेश है और ॠषिगण त्याग को सर्वश्रेष्ठ एवं प्राचीन धर्म बताते हैं। राजा राजधर्म का पालन करते हुए ही राज्य को नियन्त्रित करता है। राजा के कार्यों और उसके द्वारा स्थापित व्यवस्था पद्धति के आधार पर सप्तांगों का विवेचन किया गया है। मानव समाज के विकास और उत्कर्ष में राज्य का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। राज्य त्रिवर्ग धर्म, अर्थ और काम प्राप्ति का साधन है। <ref>डॉ० अमित शर्मा, [https://davccfbd.ac.in/wp-content/uploads/2024/04/Perianth-Vol-6_compressed-1-1.pdf प्राचीन संस्कृत नीतिग्रन्थों में राज्य का 'सप्तांग सिद्धान्त'], सन अक्टूबर 2022, पेरियनथ ए रेफरीड रिसर्च जर्नल ऑफ ह्युमैनिटीज एण्ड सोशल साइंसेश, वोलियम-06 (पृ० 24)।</ref>आचार्य मनु ने इस विषय में कहा है कि - <blockquote>नमोऽस्तु राज्यवृक्षाय षाड्गुण्याय प्रशाखिने। सामादिचारुपुष्पाय त्रिवर्ग फलदायिने॥ (मनुस्मृति- 7.3)</blockquote>अर्थात उस राज्य को नमस्कार है, जिसकी शाखाएँ षाड्गुण्य (सन्धि, विग्रह, यान, आसन, संश्रय और द्वैधीभाव) हैं, जिसके पुष्प (साम, दान, भेद और दण्ड) हैं, तथा फूल त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) हैं। कौटिल्य की द्वारा बताये राज्य के सप्तांग सिद्धान्त - कौटिल्य से पूर्व मनु, शुक्र तथा भीष्म ने भी सप्तांग सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।<ref>सोनाली नरवरे, [https://sanskritarticle.com/wp-content/uploads/35-57-Sonali.Narware.pdf प्राचीन भारत में शासन पद्धतिः पंचतंत्र एवं कौटिल्य के सप्तांग सिद्धान्त की तुलना], सन २०२४, नेशनल जर्नल ऑफ हिन्दी एण्ड संस्कृत रिसर्च (पृ० १२७)।</ref> | | राजनीति-शास्त्र के विद्वानों ने राज्य के सात अंगों का विवेचन किया है। सप्तांगों को सर्वप्रथम मनु एवं कौटिल्य ने परिभाषित किया है। कुछ प्राचीन धर्मसूत्रों में राजा, अमात्य, कोश आदि अंगों का विवेचन हुआ है पर सप्तांगों का पूर्ण स्वरूप और परिभाषा के अभाव में उसे महत्त्व न देना ही उचित होगा। प्रायः सभी राजनीति-शास्त्रज्ञों ने सात अंगों को बताया है - स्वामी, अमात्य, जनपद या राष्ट्र, दुर्ग, कोश, दण्ड और मित्र। भारतीय ज्ञान परंपरा में सभी प्राणियों का शरण-स्थल राजधर्म है, महाभारत के अनुसार राजधर्म के सहारे ही जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति सम्भव होना बताया गया है -<ref>डॉ० पाण्डुरंग वामन काणे, [https://ia801504.us.archive.org/22/items/in.ernet.dli.2015.306909/2015.306909.Dharmshastra-Ka.pdf धर्मशास्त्र का इतिहास- तृतीय खण्ड], सन् 1992, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० 585)।</ref><blockquote>सर्वे धर्मा राजधर्म प्रधानाः सर्वे वर्णाः पाल्यमाना भवन्ति। सर्वस्त्यागो राजधर्मेषु राजंस्त्यागं धर्मं चाहुरग्र्यं पुराणम्॥ (महाभारत )<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-158 महाभारत] , शांतिपर्व-राजधर्मानुशासन पर्व , अध्याय - 58, श्लोक- 33।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' सभी धर्मों में राजधर्म ही प्रधान है; क्योंकि उसके द्वारा सभी वर्णों का पालन होता है। राजन्! राजधर्मों में सभी प्रकार के त्याग का समावेश है और ॠषिगण त्याग को सर्वश्रेष्ठ एवं प्राचीन धर्म बताते हैं। राजा राजधर्म का पालन करते हुए ही राज्य को नियन्त्रित करता है। राजा के कार्यों और उसके द्वारा स्थापित व्यवस्था पद्धति के आधार पर सप्तांगों का विवेचन किया गया है। मानव समाज के विकास और उत्कर्ष में राज्य का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। राज्य त्रिवर्ग धर्म, अर्थ और काम प्राप्ति का साधन है। <ref>डॉ० अमित शर्मा, [https://davccfbd.ac.in/wp-content/uploads/2024/04/Perianth-Vol-6_compressed-1-1.pdf प्राचीन संस्कृत नीतिग्रन्थों में राज्य का 'सप्तांग सिद्धान्त'], सन अक्टूबर 2022, पेरियनथ ए रेफरीड रिसर्च जर्नल ऑफ ह्युमैनिटीज एण्ड सोशल साइंसेश, वोलियम-06 (पृ० 24)।</ref>आचार्य मनु ने इस विषय में कहा है कि - <blockquote>नमोऽस्तु राज्यवृक्षाय षाड्गुण्याय प्रशाखिने। सामादिचारुपुष्पाय त्रिवर्ग फलदायिने॥ (मनुस्मृति- 7.3)</blockquote>अर्थात उस राज्य को नमस्कार है, जिसकी शाखाएँ षाड्गुण्य (सन्धि, विग्रह, यान, आसन, संश्रय और द्वैधीभाव) हैं, जिसके पुष्प (साम, दान, भेद और दण्ड) हैं, तथा फूल त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) हैं। कौटिल्य की द्वारा बताये राज्य के सप्तांग सिद्धान्त - कौटिल्य से पूर्व मनु, शुक्र तथा भीष्म ने भी सप्तांग सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।<ref>सोनाली नरवरे, [https://sanskritarticle.com/wp-content/uploads/35-57-Sonali.Narware.pdf प्राचीन भारत में शासन पद्धतिः पंचतंत्र एवं कौटिल्य के सप्तांग सिद्धान्त की तुलना], सन २०२४, नेशनल जर्नल ऑफ हिन्दी एण्ड संस्कृत रिसर्च (पृ० १२७)।</ref> |
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| − | ==शुक्रनीति में सप्तांग-सिद्धान्त == | + | ==शुक्रनीति में सप्तांग-सिद्धान्त॥ Saptanga Siddhanta in Shukra Niti== |
| | शुक्रनीति में आचार्य शुक्र ने राज्यांगों का विशद विवेचन किया है। राज्य को सप्तांग राज्य से सम्बोधित करते हुए आचार्य शुक्र कहते हैं कि - <blockquote>स्वाम्यमात्यसुहृत्कोश राष्ट्र दुर्ग बलानि च। सप्तांगमुच्यते राज्यं तत्र मूर्धा नृपः स्मृतः॥ (शुक्रनीति १/६१)<ref name=":0">[https://ia601509.us.archive.org/11/items/in.ernet.dli.2015.343255/2015.343255.99999990232043.pdf शुक्रनीति - भाषा टीका सहित], श्रीवेंकटेश्वर प्रेस-मुम्बई, अध्याय-१, श्लोक-६१ (पृ० ६)।</ref></blockquote> | | शुक्रनीति में आचार्य शुक्र ने राज्यांगों का विशद विवेचन किया है। राज्य को सप्तांग राज्य से सम्बोधित करते हुए आचार्य शुक्र कहते हैं कि - <blockquote>स्वाम्यमात्यसुहृत्कोश राष्ट्र दुर्ग बलानि च। सप्तांगमुच्यते राज्यं तत्र मूर्धा नृपः स्मृतः॥ (शुक्रनीति १/६१)<ref name=":0">[https://ia601509.us.archive.org/11/items/in.ernet.dli.2015.343255/2015.343255.99999990232043.pdf शुक्रनीति - भाषा टीका सहित], श्रीवेंकटेश्वर प्रेस-मुम्बई, अध्याय-१, श्लोक-६१ (पृ० ६)।</ref></blockquote> |
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| | *जिस प्रकार मन इन्द्रियों को किसी कार्य में प्रवृत्त करता है उसी प्रकार राज्य में यदि बल अथवा सेना न हो तो वह अरक्षित रहता है और कोई भी कार्य नहीं कर सकता। इसलिये बल को मन बतलाया है। | | *जिस प्रकार मन इन्द्रियों को किसी कार्य में प्रवृत्त करता है उसी प्रकार राज्य में यदि बल अथवा सेना न हो तो वह अरक्षित रहता है और कोई भी कार्य नहीं कर सकता। इसलिये बल को मन बतलाया है। |
| | *कोष की तुलना मुख से की है, जिस प्रकार मुख से किया गया भोजन शरीर के सभी अंगों को शक्ति प्रदान कर उन्हें पुष्ट बनाता है, उसी प्रकार राजकोष में धन संचित होने से सभी अंगों की पुष्टि होती है। | | *कोष की तुलना मुख से की है, जिस प्रकार मुख से किया गया भोजन शरीर के सभी अंगों को शक्ति प्रदान कर उन्हें पुष्ट बनाता है, उसी प्रकार राजकोष में धन संचित होने से सभी अंगों की पुष्टि होती है। |
| − | * मन्त्री की उपमा नेत्रों से इसलिये दी गई है, क्योंकि राज्य का प्रायः समस्त व्यवहार मन्त्रियों की देखरेख तथा परामर्श से ही चलता है। | + | *मन्त्री की उपमा नेत्रों से इसलिये दी गई है, क्योंकि राज्य का प्रायः समस्त व्यवहार मन्त्रियों की देखरेख तथा परामर्श से ही चलता है। |
| | *दुर्ग की तुलना हाथ से इसलिये की है, क्योंकि जब शरीर पर कोई प्रहार करता है, तो हाथ ही सर्वप्रथम प्रहार को निष्फल करते हैं अथवा रोकते हैं, ठीक उसी प्रकार राज्य पर होने वाले आक्रमाण का प्रथम प्रहार दुर्ग को ही सहन करना पडता है। | | *दुर्ग की तुलना हाथ से इसलिये की है, क्योंकि जब शरीर पर कोई प्रहार करता है, तो हाथ ही सर्वप्रथम प्रहार को निष्फल करते हैं अथवा रोकते हैं, ठीक उसी प्रकार राज्य पर होने वाले आक्रमाण का प्रथम प्रहार दुर्ग को ही सहन करना पडता है। |
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| | इस प्रकार आचार्य शुक्र द्वारा समुचित रूप से राज्य की तुलना मानव शरीर एवं उसके अंगों से की गई है। आचार्य मनु द्वारा राज्यांगों के महत्व के अनुसार ही उनके क्रम निर्धारित किया गया है। | | इस प्रकार आचार्य शुक्र द्वारा समुचित रूप से राज्य की तुलना मानव शरीर एवं उसके अंगों से की गई है। आचार्य मनु द्वारा राज्यांगों के महत्व के अनुसार ही उनके क्रम निर्धारित किया गया है। |
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| − | ==महाभारत में सप्तांग सिद्धान्त== | + | ==महाभारत में सप्तांग सिद्धान्त॥ Saptanga Siddhanta in Mahabharata== |
| | प्राचीन भारतीय राजनीति में वैदिक साहित्य में राष्ट्र का विशद विकास क्रम प्राप्त होता है। परवर्ती काल में यही राष्ट्र की संकल्पना विकसित, व्यवस्थित तथा संघटित राज्य के रूप में सप्तांग सिद्धान्त के रूप में स्थापित हुआ है। महाभारत में राज्य के राष्ट्रांग स्वरूप के साथ-साथ अष्टांग स्वरूप का भी उल्लेख प्राप्त होता है - <blockquote>सदाप्रकृति चाष्टांगं शरीरमिह यद् विदुः। राज्यस्य दण्डमेवांगं दण्डः प्रभव एव च॥ (शान्तिपर्व १२१/४७)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-121 महाभारत], शान्तिपर्व, अध्याय-121, श्लोक-47।</ref></blockquote>महाभारत में राजा को इन सातों अंगों वाले राज्य के परिपालन का उपदेश दिया गया है - <blockquote>राज्ञा सप्तैव रक्ष्याणि तानि चैव निबोध मे। आत्मामात्यश्च कोशश्च दण्डो मित्राणि चैव हि॥ | | प्राचीन भारतीय राजनीति में वैदिक साहित्य में राष्ट्र का विशद विकास क्रम प्राप्त होता है। परवर्ती काल में यही राष्ट्र की संकल्पना विकसित, व्यवस्थित तथा संघटित राज्य के रूप में सप्तांग सिद्धान्त के रूप में स्थापित हुआ है। महाभारत में राज्य के राष्ट्रांग स्वरूप के साथ-साथ अष्टांग स्वरूप का भी उल्लेख प्राप्त होता है - <blockquote>सदाप्रकृति चाष्टांगं शरीरमिह यद् विदुः। राज्यस्य दण्डमेवांगं दण्डः प्रभव एव च॥ (शान्तिपर्व १२१/४७)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-121 महाभारत], शान्तिपर्व, अध्याय-121, श्लोक-47।</ref></blockquote>महाभारत में राजा को इन सातों अंगों वाले राज्य के परिपालन का उपदेश दिया गया है - <blockquote>राज्ञा सप्तैव रक्ष्याणि तानि चैव निबोध मे। आत्मामात्यश्च कोशश्च दण्डो मित्राणि चैव हि॥ |
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| | आचार्य मनु के अनुसार प्रत्येक अंग अगले अंग से श्रेष्ठ है तथा एक अंग में विकार आने से दूसरे अंग में विकार होता है अतः प्रत्येक अंग एक दूसरे के लिए आवश्यक होता है। प्रत्येक अंग विशेषता से युक्त होता है तथा राज्य संचालन में समान रूप से प्रयोग होता है - <blockquote>सप्तांगस्येह राज्यस्य विष्टब्धस्य त्रिदण्डवत्। अन्योन्यगुणवैशेष्यान्न किंचिदतिरिच्यते॥ (मनु स्मृति ९/२९६)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय- ०९, श्लोक - २९६।</ref></blockquote>अर्थात स्वामी, अमात्य, सुहृत, कोश राष्ट्र, दुर्ग और बल से सप्तांग राज्य के रूप में वर्णित है। | | आचार्य मनु के अनुसार प्रत्येक अंग अगले अंग से श्रेष्ठ है तथा एक अंग में विकार आने से दूसरे अंग में विकार होता है अतः प्रत्येक अंग एक दूसरे के लिए आवश्यक होता है। प्रत्येक अंग विशेषता से युक्त होता है तथा राज्य संचालन में समान रूप से प्रयोग होता है - <blockquote>सप्तांगस्येह राज्यस्य विष्टब्धस्य त्रिदण्डवत्। अन्योन्यगुणवैशेष्यान्न किंचिदतिरिच्यते॥ (मनु स्मृति ९/२९६)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय- ०९, श्लोक - २९६।</ref></blockquote>अर्थात स्वामी, अमात्य, सुहृत, कोश राष्ट्र, दुर्ग और बल से सप्तांग राज्य के रूप में वर्णित है। |
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| − | == कौटिल्य - सप्तांग सिद्धान्त== | + | ==कौटिल्य- सप्तांग सिद्धान्त॥ Saptanga theory of Kautilya== |
| − | कौटिल्य को भारतीय राजनीतिक विचारों का जनक माना जाता है। कौटिल्य ने राज्य के सात अंगों का वर्णन किया है तथा राज्य के सभी अंगों की तुलना शरीर के अंगों से की है। | + | कौटिल्य को भारतीय राजनीतिक विचारों का जनक माना जाता है। कौटिल्य ने राज्य के सात अंगों का वर्णन किया है तथा राज्य के सभी अंगों की तुलना शरीर के अंगों से की है। राज्य के आंगिक स्वरूप के विषय में कौटिल्य द्वारा प्रस्तुत सूची अन्य सभी ग्रन्थों की अपेक्षा स्पष्ट है - <ref>शोधकर्ता - प्रीतम कुमार यादव, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/180537 धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों में प्रतिबिम्बित प्रशासन व्यवस्था], सन २००३, वीर बहादुर सिंह पूर्वाञ्चल विश्वविद्यालय, जौनपुर (पृ० ४३)।</ref><blockquote>स्वाम्यमात्यजनपददुर्गकोशदण्डौमित्राणि प्रकृतयः। (कौटिल्य अर्थशास्त्र)</blockquote>स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दण्ड और मित्र - ये राज्य की सप्त प्रकृतियाँ हैं जिन्हें कौटिल्य ने राज्य का अवयव भी कहा है। |
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| | ===स्वामी या राजा॥ King=== | | ===स्वामी या राजा॥ King=== |
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| | राज्य के सात अंगों में दूसरा है अमात्य जिसे सचिव या मंत्री भी कहा जाता है। सचिवों को दो भागों में विभक्त किया गया है - | | राज्य के सात अंगों में दूसरा है अमात्य जिसे सचिव या मंत्री भी कहा जाता है। सचिवों को दो भागों में विभक्त किया गया है - |
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| − | # जो सम्मति देने वाले थे। | + | #जो सम्मति देने वाले थे। |
| − | # जो निर्णीत बात को क्रियान्वित करते थे। | + | #जो निर्णीत बात को क्रियान्वित करते थे। |
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| | कौटिल्य ने अमात्यों की नियुक्ति के लिए धर्म, अर्थ, काम एवं भय के अवसरों में प्रलोभन आदि से परीक्षा लेने की सम्मति दी है। मंत्रियों में सत्यता एवं विश्वासपात्रता की जांच सभी प्रकार की परीक्षाओं के सम्मिलित रूप में आवश्यक मानी है।<ref>डॉ० सुषमा जोशी, मंत्री परिषद, [https://sanskritarticle.com/wp-content/uploads/18-53-Dr.Sushma.Joshi_.pdf युद्ध व्यवस्था, दूत व्यवस्था, सैन्य प्रशासन-मंत्री परिषद], सन २०२४, नेशनल जर्नल ऑफ हिन्दी एण्ड संस्कृत रिसर्च (पृ० ६१)।</ref> | | कौटिल्य ने अमात्यों की नियुक्ति के लिए धर्म, अर्थ, काम एवं भय के अवसरों में प्रलोभन आदि से परीक्षा लेने की सम्मति दी है। मंत्रियों में सत्यता एवं विश्वासपात्रता की जांच सभी प्रकार की परीक्षाओं के सम्मिलित रूप में आवश्यक मानी है।<ref>डॉ० सुषमा जोशी, मंत्री परिषद, [https://sanskritarticle.com/wp-content/uploads/18-53-Dr.Sushma.Joshi_.pdf युद्ध व्यवस्था, दूत व्यवस्था, सैन्य प्रशासन-मंत्री परिषद], सन २०२४, नेशनल जर्नल ऑफ हिन्दी एण्ड संस्कृत रिसर्च (पृ० ६१)।</ref> |
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| | <blockquote>सहायसाध्य राजत्वं चक्रमेकं न वर्त्तते। कुर्वीत सचिवांस्तस्मात्तेषां च शृणुयान्मतम्॥ (अर्थशास्त्र 1.7.15)<ref name=":1">प्रो० उदयवीर शास्त्री, [https://archive.org/details/KautilyaKaArthshastra-Hindi-Kautilya/page/n35/mode/1up कौटलीय अर्थशास्त्र-हिन्दी अनुवाद सहित], सन १९२५, अमृतप्रेस, लाहौर (पृ० ३६)।</ref></blockquote>कौटिल्य ने अमात्य व मन्त्री में अन्तर किया है। आचार्य कौटिल्य राजा को योग्य अमात्यों को नियुक्त करके शासन-व्यवस्था संचालित करने का निर्देश करते हैं। उनके अनुसार राजा योग्य पुरुषों को देश, काल तथा कार्य आदि का परीक्षण करके अमात्य नियुक्त करें तथा मन्त्री के रूप में सर्वगुणसम्पन्न व्यक्ति को ही नियुक्त करें - <blockquote>विभज्यामात्यभिवं देशकालौ च कर्म च। अमात्याः सर्व एवैते कार्याः स्युर्न तु मन्त्रिणः॥ (अर्थशास्त्र 1.3.7.3)<ref>प्रो० उदयवीर शास्त्री, [https://archive.org/details/KautilyaKaArthshastra-Hindi-Kautilya/page/n38/mode/1up कौटलीय अर्थशास्त्र-हिन्दी अनुवाद सहित], सन १९२५, अमृतप्रेस, लाहौर, विनयाधिकार, अध्याय- 08, श्लोक-33 (पृ० ३६)।</ref></blockquote>महाभारत के अनुसार कुलीन, विद्वान, सर्वशास्त्रनिपुण, कृतज्ञ, बलवान, जितेन्द्रिय, स्वदेशवासी, स्वामिभक्त आदि गुणों से युक्त पुरुष को अमात्य बनाना चाहिये। | | <blockquote>सहायसाध्य राजत्वं चक्रमेकं न वर्त्तते। कुर्वीत सचिवांस्तस्मात्तेषां च शृणुयान्मतम्॥ (अर्थशास्त्र 1.7.15)<ref name=":1">प्रो० उदयवीर शास्त्री, [https://archive.org/details/KautilyaKaArthshastra-Hindi-Kautilya/page/n35/mode/1up कौटलीय अर्थशास्त्र-हिन्दी अनुवाद सहित], सन १९२५, अमृतप्रेस, लाहौर (पृ० ३६)।</ref></blockquote>कौटिल्य ने अमात्य व मन्त्री में अन्तर किया है। आचार्य कौटिल्य राजा को योग्य अमात्यों को नियुक्त करके शासन-व्यवस्था संचालित करने का निर्देश करते हैं। उनके अनुसार राजा योग्य पुरुषों को देश, काल तथा कार्य आदि का परीक्षण करके अमात्य नियुक्त करें तथा मन्त्री के रूप में सर्वगुणसम्पन्न व्यक्ति को ही नियुक्त करें - <blockquote>विभज्यामात्यभिवं देशकालौ च कर्म च। अमात्याः सर्व एवैते कार्याः स्युर्न तु मन्त्रिणः॥ (अर्थशास्त्र 1.3.7.3)<ref>प्रो० उदयवीर शास्त्री, [https://archive.org/details/KautilyaKaArthshastra-Hindi-Kautilya/page/n38/mode/1up कौटलीय अर्थशास्त्र-हिन्दी अनुवाद सहित], सन १९२५, अमृतप्रेस, लाहौर, विनयाधिकार, अध्याय- 08, श्लोक-33 (पृ० ३६)।</ref></blockquote>महाभारत के अनुसार कुलीन, विद्वान, सर्वशास्त्रनिपुण, कृतज्ञ, बलवान, जितेन्द्रिय, स्वदेशवासी, स्वामिभक्त आदि गुणों से युक्त पुरुष को अमात्य बनाना चाहिये। |
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| − | ===जनपद॥ District=== | + | ===जनपद॥ District === |
| | कौटिल्य ने जनपद की तुलना पैर से की है। जनपद का अर्थ है "जनयुक्त भूमि" कौटिल्य ने जनसंख्या तथा भू-भाग दोनों को जनपद माना है। कौटिल्य ने दस गाँवों के समूह में संग्रहण, दो सौ गाँवों के समूह के बीच सार्वत्रिक, चार सौ गाँवों के समूह के बीच एक द्रोणमुख तथा आठ सौ गाँवों में एक स्थानीय अधिकारी की स्थापना करने की बात कही है। | | कौटिल्य ने जनपद की तुलना पैर से की है। जनपद का अर्थ है "जनयुक्त भूमि" कौटिल्य ने जनसंख्या तथा भू-भाग दोनों को जनपद माना है। कौटिल्य ने दस गाँवों के समूह में संग्रहण, दो सौ गाँवों के समूह के बीच सार्वत्रिक, चार सौ गाँवों के समूह के बीच एक द्रोणमुख तथा आठ सौ गाँवों में एक स्थानीय अधिकारी की स्थापना करने की बात कही है। |
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| Line 56: |
Line 56: |
| | कौटिल्य ने जनपद के लिये कहा है, कि जनपद की जलवायु अच्छी होनी चाहिये, उसमें पशुओं के लिये चारागाह हो, कम परिश्रम में अधिक अन्न उत्पन्न हो सके, उद्यमी कृषक रहते हों, योग्य पुरुषों का निवास हो तथा जहाँ के निवासी राजभक्त एवं चरित्रवान हों। | | कौटिल्य ने जनपद के लिये कहा है, कि जनपद की जलवायु अच्छी होनी चाहिये, उसमें पशुओं के लिये चारागाह हो, कम परिश्रम में अधिक अन्न उत्पन्न हो सके, उद्यमी कृषक रहते हों, योग्य पुरुषों का निवास हो तथा जहाँ के निवासी राजभक्त एवं चरित्रवान हों। |
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| − | ===दुर्ग॥ Durg=== | + | === दुर्ग॥ Durg=== |
| | दुर्ग राज्य का महत्वपूर्ण अंग था। मनुस्मृति में तथा महाभारत के शान्तिपर्व में दुर्ग को पुर कहा गया है। दुर्ग का शाब्दिक अर्थ किला है, किन्तु अर्थशास्त्र में इसका वर्णन दुर्गीकृत राजधानी से है। दुर्ग निवेश प्रकरण में कौटिल्य ने विशेषतायें बताई हैं कि दुर्ग का निर्माण नगर के केन्द्र भाग में किया जाना चाहिये तथा प्रत्येक वर्ण तथा कारीगरों के निवास के लिये नगर में अलग-अलग व्यवस्था होनी चाहिये। दुर्ग की तुलना बाँहों या भुजाओं से की है तथा उन्होंने चार प्रकार के दुर्गों की चर्चा की है -<ref name=":1" /> | | दुर्ग राज्य का महत्वपूर्ण अंग था। मनुस्मृति में तथा महाभारत के शान्तिपर्व में दुर्ग को पुर कहा गया है। दुर्ग का शाब्दिक अर्थ किला है, किन्तु अर्थशास्त्र में इसका वर्णन दुर्गीकृत राजधानी से है। दुर्ग निवेश प्रकरण में कौटिल्य ने विशेषतायें बताई हैं कि दुर्ग का निर्माण नगर के केन्द्र भाग में किया जाना चाहिये तथा प्रत्येक वर्ण तथा कारीगरों के निवास के लिये नगर में अलग-अलग व्यवस्था होनी चाहिये। दुर्ग की तुलना बाँहों या भुजाओं से की है तथा उन्होंने चार प्रकार के दुर्गों की चर्चा की है -<ref name=":1" /> |
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| | #'''वन दुर्ग -''' जिसके चारों ओर वन तथा जंगल हो। | | #'''वन दुर्ग -''' जिसके चारों ओर वन तथा जंगल हो। |
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| − | === कोष॥ Treasury=== | + | ===कोष॥ Treasury=== |
| | कोष की तुलना कौटिल्य ने मुख से की है। उन्होंने कोष को राज्य का मुख्य अंग इसलिये माना है क्योंकि उनके अनुसार कोष से ही कोई भी राज्य वृद्धि करता है तथा शक्तिशाली बने रहने के लिए कोष के द्वारा ही अपनी सेना का भरण-पोषण करता है। उन्होंने कोष में वृद्धि का मार्ग कर आरोपण बताया है जिसमें प्रजा को अनाज का छठा, व्यापार का दसवाँ तथा पशु धन के लाभ का पचासवाँ भाग राजा को कर के रूप में देना होता है। क्योंकि -<ref name=":1" /> | | कोष की तुलना कौटिल्य ने मुख से की है। उन्होंने कोष को राज्य का मुख्य अंग इसलिये माना है क्योंकि उनके अनुसार कोष से ही कोई भी राज्य वृद्धि करता है तथा शक्तिशाली बने रहने के लिए कोष के द्वारा ही अपनी सेना का भरण-पोषण करता है। उन्होंने कोष में वृद्धि का मार्ग कर आरोपण बताया है जिसमें प्रजा को अनाज का छठा, व्यापार का दसवाँ तथा पशु धन के लाभ का पचासवाँ भाग राजा को कर के रूप में देना होता है। क्योंकि -<ref name=":1" /> |
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| | राजा को धर्म और न्यायपूर्वक अर्जित कोष अर्थात धन का संग्रह करना चाहिये, कोष स्वर्ण, रजत, बहुमूल्य रत्नों, मणियों एवं मुद्राओं आदि से परिपूर्ण होना चाहिये, ऐसा कोष अकालादि विपत्तियों का सामना करने में समर्थ होता है। | | राजा को धर्म और न्यायपूर्वक अर्जित कोष अर्थात धन का संग्रह करना चाहिये, कोष स्वर्ण, रजत, बहुमूल्य रत्नों, मणियों एवं मुद्राओं आदि से परिपूर्ण होना चाहिये, ऐसा कोष अकालादि विपत्तियों का सामना करने में समर्थ होता है। |
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| − | ===दण्ड या सैन्य बल ॥ Penalty === | + | ===दण्ड या सैन्य बल ॥ Penalty=== |
| | कौटिल्य ने सेना की तुलना मस्तिष्क से की है। उन्होंने सेना के चार प्रकार बताये हैं - हस्ति सेना, अश्व सेना, रथ सेना तथा पैदल सेना। उनके अनुसार सेना ऐसी होनी चाहिये जो साहसी हो, बलशाली हो तथा जिसके हर सैनिक के हृदय में देशप्रेम तथा वीरगति को प्राप्त हो जाने पर जिसके परिवार को उस पर अभिमान हो। दण्ड से तात्पर्य भी सेना से ही है। कौटिल्य ने सेना की कुछ विशेषताओं का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है -<ref name=":1" /> | | कौटिल्य ने सेना की तुलना मस्तिष्क से की है। उन्होंने सेना के चार प्रकार बताये हैं - हस्ति सेना, अश्व सेना, रथ सेना तथा पैदल सेना। उनके अनुसार सेना ऐसी होनी चाहिये जो साहसी हो, बलशाली हो तथा जिसके हर सैनिक के हृदय में देशप्रेम तथा वीरगति को प्राप्त हो जाने पर जिसके परिवार को उस पर अभिमान हो। दण्ड से तात्पर्य भी सेना से ही है। कौटिल्य ने सेना की कुछ विशेषताओं का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है -<ref name=":1" /> |
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| | *सेना को सदा राजा के अधीन रहना चाहिये। | | *सेना को सदा राजा के अधीन रहना चाहिये। |
| − | *सैनिकों के परिवार का भरण-पोषण राज्य का कर्तव्य है। | + | * सैनिकों के परिवार का भरण-पोषण राज्य का कर्तव्य है। |
| | *शत्रु पर चढाई आदि के समय सैनिकों की सुख-सुविधा के लिये आवश्यक भोग्य वस्तुयें उपलब्ध कराना आवश्यक है। | | *शत्रु पर चढाई आदि के समय सैनिकों की सुख-सुविधा के लिये आवश्यक भोग्य वस्तुयें उपलब्ध कराना आवश्यक है। |
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| | *मित्र तथा शत्रु में भेद बताते हुये कहा है कि शत्रु वह है, जो लोभी, अन्यायी, व्यसनी एवं दुराचारी होता है। मित्र इन दुर्गुणों से रहित होता है। | | *मित्र तथा शत्रु में भेद बताते हुये कहा है कि शत्रु वह है, जो लोभी, अन्यायी, व्यसनी एवं दुराचारी होता है। मित्र इन दुर्गुणों से रहित होता है। |
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| − | ==सप्तांग सिद्धान्त का महत्व== | + | ==सप्तांग सिद्धान्त का महत्व॥ Importance of Saptanga Siddhanta== |
| | राज्य का सप्तांग सिद्धान्त प्राचीन भारतीय राजनीति-शास्त्र में राज्य की संरचना, स्थिरता और समृद्धि को समझने का एक महत्वपूर्ण साधन है। सप्तांग सिद्धान्त में सभी अंगों के बीच समन्वय और संतुलन पर जोर दिया जाता है। ये सभी अंग मिलकर राज्य को स्थिर और समृद्ध बनाते हैं।<ref>आशीष कुमार, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/105069/1/Block-2.pdf संस्कृत साहित्य में राष्ट्रीयता और राष्ट्र की अवधारणा], सन 2024, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० 76)।</ref> | | राज्य का सप्तांग सिद्धान्त प्राचीन भारतीय राजनीति-शास्त्र में राज्य की संरचना, स्थिरता और समृद्धि को समझने का एक महत्वपूर्ण साधन है। सप्तांग सिद्धान्त में सभी अंगों के बीच समन्वय और संतुलन पर जोर दिया जाता है। ये सभी अंग मिलकर राज्य को स्थिर और समृद्ध बनाते हैं।<ref>आशीष कुमार, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/105069/1/Block-2.pdf संस्कृत साहित्य में राष्ट्रीयता और राष्ट्र की अवधारणा], सन 2024, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० 76)।</ref> |
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| | राज्य का सप्तांग सिद्धान्त राज्य के आधुनिक सिद्धान्त से मेल नहीं खाता है और भिन्न है। आधुनिक सिद्धान्त के अनुसार राज्य के चार तत्व होते हैं। जैसे - जनसंख्या (population), भू-भाग (Territory), सरकार (Government) एवं संप्रभुता (Sovereignty)। प्रो० गार्नर ने आज्ञाकारिता (Obedience) को पांचवा तत्व माना है। किन्तु यह आलोचना पूर्णतः सही नहीं है। कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित सप्तांग सिद्धान्त के अन्तर्गत उल्लिखित जनपद में आधुनिक राज्य केदो तत्व जनसंख्या तथा भू-भाग सम्मिलित हैं। स्वामी, अमात्य तथा सेना मिलकर शासन का संगठन करते हैं और सम्प्रभुता राजा में पायी जाती है। इस प्रकार, राज्य के आधुनिक चारों तत्वों की उपस्थिति कौटिल्य के सप्तांग सिद्धान्त में पायी जाती ह्हैं। इनके अतिरिक्त कौटिल्य ने दुर्ग, कोष तथा मित्र का भी राज्य के आवश्यक तत्वों के रूप में उल्लेख किया है। | | राज्य का सप्तांग सिद्धान्त राज्य के आधुनिक सिद्धान्त से मेल नहीं खाता है और भिन्न है। आधुनिक सिद्धान्त के अनुसार राज्य के चार तत्व होते हैं। जैसे - जनसंख्या (population), भू-भाग (Territory), सरकार (Government) एवं संप्रभुता (Sovereignty)। प्रो० गार्नर ने आज्ञाकारिता (Obedience) को पांचवा तत्व माना है। किन्तु यह आलोचना पूर्णतः सही नहीं है। कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित सप्तांग सिद्धान्त के अन्तर्गत उल्लिखित जनपद में आधुनिक राज्य केदो तत्व जनसंख्या तथा भू-भाग सम्मिलित हैं। स्वामी, अमात्य तथा सेना मिलकर शासन का संगठन करते हैं और सम्प्रभुता राजा में पायी जाती है। इस प्रकार, राज्य के आधुनिक चारों तत्वों की उपस्थिति कौटिल्य के सप्तांग सिद्धान्त में पायी जाती ह्हैं। इनके अतिरिक्त कौटिल्य ने दुर्ग, कोष तथा मित्र का भी राज्य के आवश्यक तत्वों के रूप में उल्लेख किया है। |
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| − | ==निष्कर्श== | + | ==निष्कर्ष॥ Conclusion== |
| | प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतक को मनु के योगदान का महत्व इस तथ्य से स्वतः स्पष्ट है कि मनु ने यूनान में राजनीतिक विचारकों द्वारा राजनीतिक दर्शन के सूत्रपात में भी शताब्दियों पूर्व राज्य की प्रकृति, सम्प्रभुता, शासन के स्वरूप, राज्य-सत्ता पर नियन्त्रण की आवश्यकता और उसकी विधियों न्याय व दण्ड व्यवस्था पर राष्ट्र संबंधों के सैद्धान्तिक व व्यावहारिक पक्षों, [[Tax System in Ancient India|कर प्रणाली]] तथा राज्य, समाज व व्यक्ति के संबंधों जैसे विषयों का व्यवस्थित विवेचन किया।<ref>डॉ० विक्रम सिंह, [https://inspirajournals.com/uploads/Issues/693991799.pdf मनु के राज्य का सप्तांग सिद्धान्त की अवधारणा], सन जनवरी-मार्च 2023, इन्टरनेशनल जर्नल ऑफ एजुकेशन, मॉडर्न मैनेजमेंट अप्लाईड साइंश एण्ड सोशल साइंश (पृ० 93)। </ref> | | प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतक को मनु के योगदान का महत्व इस तथ्य से स्वतः स्पष्ट है कि मनु ने यूनान में राजनीतिक विचारकों द्वारा राजनीतिक दर्शन के सूत्रपात में भी शताब्दियों पूर्व राज्य की प्रकृति, सम्प्रभुता, शासन के स्वरूप, राज्य-सत्ता पर नियन्त्रण की आवश्यकता और उसकी विधियों न्याय व दण्ड व्यवस्था पर राष्ट्र संबंधों के सैद्धान्तिक व व्यावहारिक पक्षों, [[Tax System in Ancient India|कर प्रणाली]] तथा राज्य, समाज व व्यक्ति के संबंधों जैसे विषयों का व्यवस्थित विवेचन किया।<ref>डॉ० विक्रम सिंह, [https://inspirajournals.com/uploads/Issues/693991799.pdf मनु के राज्य का सप्तांग सिद्धान्त की अवधारणा], सन जनवरी-मार्च 2023, इन्टरनेशनल जर्नल ऑफ एजुकेशन, मॉडर्न मैनेजमेंट अप्लाईड साइंश एण्ड सोशल साइंश (पृ० 93)। </ref> |
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| − | ==उद्धरण== | + | ==उद्धरण॥ References== |
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| | [[Category:Arthashastra]] | | [[Category:Arthashastra]] |
| | <references /> | | <references /> |