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| | प्राचीन भारतीय राजधर्मशास्त्रज्ञों ने राज्य से ही धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति बतलाई है। किसी भी राज्य के निर्माण एवं पोषण हेतु सात अवयवों की चर्चा राजशास्त्र प्रणेताओं ने की है, जिसे सप्तांग कहते हैं। ये सप्तांग इस प्रकार हैं - राजा, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दण्ड और मित्र। धर्मशास्त्रों, अर्थशास्त्रों तथा नीतिशास्त्रों में राज्य के इन्हीं सात अंगों का उल्लेख मिलता है। राज्य के अस्तित्व और आधारभूत विकास के लिए इन सात अंगों का ज्ञान अति आवश्यक हैं। | | प्राचीन भारतीय राजधर्मशास्त्रज्ञों ने राज्य से ही धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति बतलाई है। किसी भी राज्य के निर्माण एवं पोषण हेतु सात अवयवों की चर्चा राजशास्त्र प्रणेताओं ने की है, जिसे सप्तांग कहते हैं। ये सप्तांग इस प्रकार हैं - राजा, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दण्ड और मित्र। धर्मशास्त्रों, अर्थशास्त्रों तथा नीतिशास्त्रों में राज्य के इन्हीं सात अंगों का उल्लेख मिलता है। राज्य के अस्तित्व और आधारभूत विकास के लिए इन सात अंगों का ज्ञान अति आवश्यक हैं। |
| | ==परिचय॥ Introduction== | | ==परिचय॥ Introduction== |
| − | राजनीति-शास्त्र के विद्वानों ने राज्य के सात अंगों का विवेचन किया है। सप्तांगों को सर्वप्रथम मनु एवं कौटिल्य ने परिभाषित किया है। कुछ प्राचीन धर्मसूत्रों में राजा, अमात्य, कोश आदि अंगों का विवेचन हुआ है पर सप्तांगों का पूर्ण स्वरूप और परिभाषा के अभाव में उसे महत्त्व न देना ही उचित होगा। प्रायः सभी राजनीति-शास्त्रज्ञों ने सात अंगों को बताया है - स्वामी, अमात्य, जनपद या राष्ट्र, दुर्ग, कोश, दण्ड और मित्र। भारतीय ज्ञान परंपरा में सभी प्राणियों का शरण-स्थल राजधर्म है, महाभारत के अनुसार राजधर्म के सहारे ही जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति सम्भव होना बताया गया है -<ref>डॉ० पाण्डुरंग वामन काणे, [https://ia801504.us.archive.org/22/items/in.ernet.dli.2015.306909/2015.306909.Dharmshastra-Ka.pdf धर्मशास्त्र का इतिहास- तृतीय खण्ड], सन् 1992, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० 585)।</ref><blockquote>सर्वे धर्मा राजधर्म प्रधानाः सर्वे वर्णाः पाल्यमाना भवन्ति। सर्वस्त्यागो राजधर्मेषु राजंस्त्यागं धर्मं चाहुरग्र्यं पुराणम्॥ (महाभारत )<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-158 महाभारत] , शांतिपर्व-राजधर्मानुशासन पर्व , अध्याय - 58, श्लोक- 33।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' सभी धर्मों में राजधर्म ही प्रधान है; क्योंकि उसके द्वारा सभी वर्णों का पालन होता है। राजन्! राजधर्मों में सभी प्रकार के त्याग का समावेश है और ॠषिगण त्याग को सर्वश्रेष्ठ एवं प्राचीन धर्म बताते हैं। राजा राजधर्म का पालन करते हुए ही राज्य को नियन्त्रित करता है। राजा के कार्यों और उसके द्वारा स्थापित व्यवस्था पद्धति के आधार पर सप्तांगों का विवेचन किया गया है। मानव समाज के विकास और उत्कर्ष में राज्य का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। राज्य त्रिवर्ग धर्म, अर्थ और काम प्राप्ति का साधन है। <ref>डॉ० अमित शर्मा, [https://davccfbd.ac.in/wp-content/uploads/2024/04/Perianth-Vol-6_compressed-1-1.pdf प्राचीन संस्कृत नीतिग्रन्थों में राज्य का 'सप्तांग सिद्धान्त'], सन अक्टूबर 2022, पेरियनथ ए रेफरीड रिसर्च जर्नल ऑफ ह्युमैनिटीज एण्ड सोशल साइंसेश, वोलियम-06 (पृ० 24)।</ref>आचार्य मनु ने इस विषय में कहा है कि - <blockquote>नमोऽस्तु राज्यवृक्षाय षाड्गुण्याय प्रशाखिने। सामादिचारुपुष्पाय त्रिवर्ग फलदायिने॥ (मनुस्मृति- 7.3)</blockquote>अर्थात उस राज्य को नमस्कार है, जिसकी शाखाएँ षाड्गुण्य (सन्धि, विग्रह, यान, आसन, संश्रय और द्वैधीभाव) हैं, जिसके पुष्प (साम, दान, भेद और दण्ड) हैं, तथा फूल त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) हैं। नीति ग्रन्थों में | + | राजनीति-शास्त्र के विद्वानों ने राज्य के सात अंगों का विवेचन किया है। सप्तांगों को सर्वप्रथम मनु एवं कौटिल्य ने परिभाषित किया है। कुछ प्राचीन धर्मसूत्रों में राजा, अमात्य, कोश आदि अंगों का विवेचन हुआ है पर सप्तांगों का पूर्ण स्वरूप और परिभाषा के अभाव में उसे महत्त्व न देना ही उचित होगा। प्रायः सभी राजनीति-शास्त्रज्ञों ने सात अंगों को बताया है - स्वामी, अमात्य, जनपद या राष्ट्र, दुर्ग, कोश, दण्ड और मित्र। भारतीय ज्ञान परंपरा में सभी प्राणियों का शरण-स्थल राजधर्म है, महाभारत के अनुसार राजधर्म के सहारे ही जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति सम्भव होना बताया गया है -<ref>डॉ० पाण्डुरंग वामन काणे, [https://ia801504.us.archive.org/22/items/in.ernet.dli.2015.306909/2015.306909.Dharmshastra-Ka.pdf धर्मशास्त्र का इतिहास- तृतीय खण्ड], सन् 1992, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० 585)।</ref><blockquote>सर्वे धर्मा राजधर्म प्रधानाः सर्वे वर्णाः पाल्यमाना भवन्ति। सर्वस्त्यागो राजधर्मेषु राजंस्त्यागं धर्मं चाहुरग्र्यं पुराणम्॥ (महाभारत )<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-158 महाभारत] , शांतिपर्व-राजधर्मानुशासन पर्व , अध्याय - 58, श्लोक- 33।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' सभी धर्मों में राजधर्म ही प्रधान है; क्योंकि उसके द्वारा सभी वर्णों का पालन होता है। राजन्! राजधर्मों में सभी प्रकार के त्याग का समावेश है और ॠषिगण त्याग को सर्वश्रेष्ठ एवं प्राचीन धर्म बताते हैं। राजा राजधर्म का पालन करते हुए ही राज्य को नियन्त्रित करता है। राजा के कार्यों और उसके द्वारा स्थापित व्यवस्था पद्धति के आधार पर सप्तांगों का विवेचन किया गया है। मानव समाज के विकास और उत्कर्ष में राज्य का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। राज्य त्रिवर्ग धर्म, अर्थ और काम प्राप्ति का साधन है। <ref>डॉ० अमित शर्मा, [https://davccfbd.ac.in/wp-content/uploads/2024/04/Perianth-Vol-6_compressed-1-1.pdf प्राचीन संस्कृत नीतिग्रन्थों में राज्य का 'सप्तांग सिद्धान्त'], सन अक्टूबर 2022, पेरियनथ ए रेफरीड रिसर्च जर्नल ऑफ ह्युमैनिटीज एण्ड सोशल साइंसेश, वोलियम-06 (पृ० 24)।</ref>आचार्य मनु ने इस विषय में कहा है कि - <blockquote>नमोऽस्तु राज्यवृक्षाय षाड्गुण्याय प्रशाखिने। सामादिचारुपुष्पाय त्रिवर्ग फलदायिने॥ (मनुस्मृति- 7.3)</blockquote>अर्थात उस राज्य को नमस्कार है, जिसकी शाखाएँ षाड्गुण्य (सन्धि, विग्रह, यान, आसन, संश्रय और द्वैधीभाव) हैं, जिसके पुष्प (साम, दान, भेद और दण्ड) हैं, तथा फूल त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) हैं। कौटिल्य की द्वारा बताये राज्य के सप्तांग सिद्धान्त - कौटिल्य से पूर्व मनु, शुक्र तथा भीष्म ने भी सप्तांग सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।<ref>सोनाली नरवरे, [https://sanskritarticle.com/wp-content/uploads/35-57-Sonali.Narware.pdf प्राचीन भारत में शासन पद्धतिः पंचतंत्र एवं कौटिल्य के सप्तांग सिद्धान्त की तुलना], सन २०२४, नेशनल जर्नल ऑफ हिन्दी एण्ड संस्कृत रिसर्च (पृ० १२७)।</ref> |
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| − | ==शुक्रनीति में सप्तांग-सिद्धान्त== | + | ==शुक्रनीति में सप्तांग-सिद्धान्त == |
| | शुक्रनीति में आचार्य शुक्र ने राज्यांगों का विशद विवेचन किया है। राज्य को सप्तांग राज्य से सम्बोधित करते हुए आचार्य शुक्र कहते हैं कि - <blockquote>स्वाम्यमात्यसुहृत्कोश राष्ट्र दुर्ग बलानि च। सप्तांगमुच्यते राज्यं तत्र मूर्धा नृपः स्मृतः॥ (शुक्रनीति १/६१)<ref name=":0">[https://ia601509.us.archive.org/11/items/in.ernet.dli.2015.343255/2015.343255.99999990232043.pdf शुक्रनीति - भाषा टीका सहित], श्रीवेंकटेश्वर प्रेस-मुम्बई, अध्याय-१, श्लोक-६१ (पृ० ६)।</ref></blockquote> | | शुक्रनीति में आचार्य शुक्र ने राज्यांगों का विशद विवेचन किया है। राज्य को सप्तांग राज्य से सम्बोधित करते हुए आचार्य शुक्र कहते हैं कि - <blockquote>स्वाम्यमात्यसुहृत्कोश राष्ट्र दुर्ग बलानि च। सप्तांगमुच्यते राज्यं तत्र मूर्धा नृपः स्मृतः॥ (शुक्रनीति १/६१)<ref name=":0">[https://ia601509.us.archive.org/11/items/in.ernet.dli.2015.343255/2015.343255.99999990232043.pdf शुक्रनीति - भाषा टीका सहित], श्रीवेंकटेश्वर प्रेस-मुम्बई, अध्याय-१, श्लोक-६१ (पृ० ६)।</ref></blockquote> |
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| | *जिस प्रकार मन इन्द्रियों को किसी कार्य में प्रवृत्त करता है उसी प्रकार राज्य में यदि बल अथवा सेना न हो तो वह अरक्षित रहता है और कोई भी कार्य नहीं कर सकता। इसलिये बल को मन बतलाया है। | | *जिस प्रकार मन इन्द्रियों को किसी कार्य में प्रवृत्त करता है उसी प्रकार राज्य में यदि बल अथवा सेना न हो तो वह अरक्षित रहता है और कोई भी कार्य नहीं कर सकता। इसलिये बल को मन बतलाया है। |
| | *कोष की तुलना मुख से की है, जिस प्रकार मुख से किया गया भोजन शरीर के सभी अंगों को शक्ति प्रदान कर उन्हें पुष्ट बनाता है, उसी प्रकार राजकोष में धन संचित होने से सभी अंगों की पुष्टि होती है। | | *कोष की तुलना मुख से की है, जिस प्रकार मुख से किया गया भोजन शरीर के सभी अंगों को शक्ति प्रदान कर उन्हें पुष्ट बनाता है, उसी प्रकार राजकोष में धन संचित होने से सभी अंगों की पुष्टि होती है। |
| − | *मन्त्री की उपमा नेत्रों से इसलिये दी गई है, क्योंकि राज्य का प्रायः समस्त व्यवहार मन्त्रियों की देखरेख तथा परामर्श से ही चलता है। | + | * मन्त्री की उपमा नेत्रों से इसलिये दी गई है, क्योंकि राज्य का प्रायः समस्त व्यवहार मन्त्रियों की देखरेख तथा परामर्श से ही चलता है। |
| | *दुर्ग की तुलना हाथ से इसलिये की है, क्योंकि जब शरीर पर कोई प्रहार करता है, तो हाथ ही सर्वप्रथम प्रहार को निष्फल करते हैं अथवा रोकते हैं, ठीक उसी प्रकार राज्य पर होने वाले आक्रमाण का प्रथम प्रहार दुर्ग को ही सहन करना पडता है। | | *दुर्ग की तुलना हाथ से इसलिये की है, क्योंकि जब शरीर पर कोई प्रहार करता है, तो हाथ ही सर्वप्रथम प्रहार को निष्फल करते हैं अथवा रोकते हैं, ठीक उसी प्रकार राज्य पर होने वाले आक्रमाण का प्रथम प्रहार दुर्ग को ही सहन करना पडता है। |
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| | आचार्य मनु के अनुसार प्रत्येक अंग अगले अंग से श्रेष्ठ है तथा एक अंग में विकार आने से दूसरे अंग में विकार होता है अतः प्रत्येक अंग एक दूसरे के लिए आवश्यक होता है। प्रत्येक अंग विशेषता से युक्त होता है तथा राज्य संचालन में समान रूप से प्रयोग होता है - <blockquote>सप्तांगस्येह राज्यस्य विष्टब्धस्य त्रिदण्डवत्। अन्योन्यगुणवैशेष्यान्न किंचिदतिरिच्यते॥ (मनु स्मृति ९/२९६)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय- ०९, श्लोक - २९६।</ref></blockquote>अर्थात स्वामी, अमात्य, सुहृत, कोश राष्ट्र, दुर्ग और बल से सप्तांग राज्य के रूप में वर्णित है। | | आचार्य मनु के अनुसार प्रत्येक अंग अगले अंग से श्रेष्ठ है तथा एक अंग में विकार आने से दूसरे अंग में विकार होता है अतः प्रत्येक अंग एक दूसरे के लिए आवश्यक होता है। प्रत्येक अंग विशेषता से युक्त होता है तथा राज्य संचालन में समान रूप से प्रयोग होता है - <blockquote>सप्तांगस्येह राज्यस्य विष्टब्धस्य त्रिदण्डवत्। अन्योन्यगुणवैशेष्यान्न किंचिदतिरिच्यते॥ (मनु स्मृति ९/२९६)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय- ०९, श्लोक - २९६।</ref></blockquote>अर्थात स्वामी, अमात्य, सुहृत, कोश राष्ट्र, दुर्ग और बल से सप्तांग राज्य के रूप में वर्णित है। |
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| − | ==कौटिल्य - सप्तांग सिद्धान्त== | + | == कौटिल्य - सप्तांग सिद्धान्त== |
| | कौटिल्य को भारतीय राजनीतिक विचारों का जनक माना जाता है। कौटिल्य ने राज्य के सात अंगों का वर्णन किया है तथा राज्य के सभी अंगों की तुलना शरीर के अंगों से की है। | | कौटिल्य को भारतीय राजनीतिक विचारों का जनक माना जाता है। कौटिल्य ने राज्य के सात अंगों का वर्णन किया है तथा राज्य के सभी अंगों की तुलना शरीर के अंगों से की है। |
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| | ===अमात्य या मंत्री॥ Minister=== | | ===अमात्य या मंत्री॥ Minister=== |
| | + | राज्य के सात अंगों में दूसरा है अमात्य जिसे सचिव या मंत्री भी कहा जाता है। सचिवों को दो भागों में विभक्त किया गया है - |
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| | + | # जो सम्मति देने वाले थे। |
| | + | # जो निर्णीत बात को क्रियान्वित करते थे। |
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| | + | कौटिल्य ने अमात्यों की नियुक्ति के लिए धर्म, अर्थ, काम एवं भय के अवसरों में प्रलोभन आदि से परीक्षा लेने की सम्मति दी है। मंत्रियों में सत्यता एवं विश्वासपात्रता की जांच सभी प्रकार की परीक्षाओं के सम्मिलित रूप में आवश्यक मानी है।<ref>डॉ० सुषमा जोशी, मंत्री परिषद, [https://sanskritarticle.com/wp-content/uploads/18-53-Dr.Sushma.Joshi_.pdf युद्ध व्यवस्था, दूत व्यवस्था, सैन्य प्रशासन-मंत्री परिषद], सन २०२४, नेशनल जर्नल ऑफ हिन्दी एण्ड संस्कृत रिसर्च (पृ० ६१)।</ref> |
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| | शुक्रनीति में अमात्य को चक्षु कहा गया है। अमात्य को मंत्री, सचिव आदि पर्याय के द्वारा परामर्शदाता विचारक के रूप में राजा का नेत्र कहा गया है। अमात्य या सचिव का उल्लेख हमें वैदिक वांग्मय में भी प्राप्त होता है। ऋग्वेद में अमात्य के लिये अमवान् (ऋ० 4. 4. 1) अर्थात सदा साथ-साथ रहने वाला' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। | | शुक्रनीति में अमात्य को चक्षु कहा गया है। अमात्य को मंत्री, सचिव आदि पर्याय के द्वारा परामर्शदाता विचारक के रूप में राजा का नेत्र कहा गया है। अमात्य या सचिव का उल्लेख हमें वैदिक वांग्मय में भी प्राप्त होता है। ऋग्वेद में अमात्य के लिये अमवान् (ऋ० 4. 4. 1) अर्थात सदा साथ-साथ रहने वाला' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। |
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| | #'''वन दुर्ग -''' जिसके चारों ओर वन तथा जंगल हो। | | #'''वन दुर्ग -''' जिसके चारों ओर वन तथा जंगल हो। |
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| − | ===कोष॥ Treasury=== | + | === कोष॥ Treasury=== |
| | कोष की तुलना कौटिल्य ने मुख से की है। उन्होंने कोष को राज्य का मुख्य अंग इसलिये माना है क्योंकि उनके अनुसार कोष से ही कोई भी राज्य वृद्धि करता है तथा शक्तिशाली बने रहने के लिए कोष के द्वारा ही अपनी सेना का भरण-पोषण करता है। उन्होंने कोष में वृद्धि का मार्ग कर आरोपण बताया है जिसमें प्रजा को अनाज का छठा, व्यापार का दसवाँ तथा पशु धन के लाभ का पचासवाँ भाग राजा को कर के रूप में देना होता है। क्योंकि -<ref name=":1" /> | | कोष की तुलना कौटिल्य ने मुख से की है। उन्होंने कोष को राज्य का मुख्य अंग इसलिये माना है क्योंकि उनके अनुसार कोष से ही कोई भी राज्य वृद्धि करता है तथा शक्तिशाली बने रहने के लिए कोष के द्वारा ही अपनी सेना का भरण-पोषण करता है। उन्होंने कोष में वृद्धि का मार्ग कर आरोपण बताया है जिसमें प्रजा को अनाज का छठा, व्यापार का दसवाँ तथा पशु धन के लाभ का पचासवाँ भाग राजा को कर के रूप में देना होता है। क्योंकि -<ref name=":1" /> |
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| | *धर्म तथा काम संबंधी संपूर्ण कार्य कोष के माध्यम से ही संपन्न होते हैं। | | *धर्म तथा काम संबंधी संपूर्ण कार्य कोष के माध्यम से ही संपन्न होते हैं। |
| − | * सेना की स्थिति कोष पर ही निर्भर करती है, कोष के अभावमें सेना दूसरे के पास चली जाती एवं स्वामी की हत्या भी कर देती है। | + | *सेना की स्थिति कोष पर ही निर्भर करती है, कोष के अभावमें सेना दूसरे के पास चली जाती एवं स्वामी की हत्या भी कर देती है। |
| | *कोष के द्वारा सभी प्रकार के संकट का निर्वाह होता है। | | *कोष के द्वारा सभी प्रकार के संकट का निर्वाह होता है। |
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| | राजा को धर्म और न्यायपूर्वक अर्जित कोष अर्थात धन का संग्रह करना चाहिये, कोष स्वर्ण, रजत, बहुमूल्य रत्नों, मणियों एवं मुद्राओं आदि से परिपूर्ण होना चाहिये, ऐसा कोष अकालादि विपत्तियों का सामना करने में समर्थ होता है। | | राजा को धर्म और न्यायपूर्वक अर्जित कोष अर्थात धन का संग्रह करना चाहिये, कोष स्वर्ण, रजत, बहुमूल्य रत्नों, मणियों एवं मुद्राओं आदि से परिपूर्ण होना चाहिये, ऐसा कोष अकालादि विपत्तियों का सामना करने में समर्थ होता है। |
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| − | ===दण्ड या सैन्य बल ॥ Penalty=== | + | ===दण्ड या सैन्य बल ॥ Penalty === |
| | कौटिल्य ने सेना की तुलना मस्तिष्क से की है। उन्होंने सेना के चार प्रकार बताये हैं - हस्ति सेना, अश्व सेना, रथ सेना तथा पैदल सेना। उनके अनुसार सेना ऐसी होनी चाहिये जो साहसी हो, बलशाली हो तथा जिसके हर सैनिक के हृदय में देशप्रेम तथा वीरगति को प्राप्त हो जाने पर जिसके परिवार को उस पर अभिमान हो। दण्ड से तात्पर्य भी सेना से ही है। कौटिल्य ने सेना की कुछ विशेषताओं का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है -<ref name=":1" /> | | कौटिल्य ने सेना की तुलना मस्तिष्क से की है। उन्होंने सेना के चार प्रकार बताये हैं - हस्ति सेना, अश्व सेना, रथ सेना तथा पैदल सेना। उनके अनुसार सेना ऐसी होनी चाहिये जो साहसी हो, बलशाली हो तथा जिसके हर सैनिक के हृदय में देशप्रेम तथा वीरगति को प्राप्त हो जाने पर जिसके परिवार को उस पर अभिमान हो। दण्ड से तात्पर्य भी सेना से ही है। कौटिल्य ने सेना की कुछ विशेषताओं का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है -<ref name=":1" /> |
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