Difference between revisions of "Sculpture Art (मूर्ति कला)"

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इनके अतिरिक्त भी कई और मुद्राएँ हैं जो विशेष मूर्तियों में प्रयुक्त होती हैं, जैसे वराह की मुद्रा को 'आलिंग्य' मुद्रा कहते हैं। इसमें बाँया पैर उठा हुआ, कटि कुछ तिरछी, सिर उठा हुआ, नीचा हाथ अभय मुद्रा में होता है।<ref name=":1" />
 
इनके अतिरिक्त भी कई और मुद्राएँ हैं जो विशेष मूर्तियों में प्रयुक्त होती हैं, जैसे वराह की मुद्रा को 'आलिंग्य' मुद्रा कहते हैं। इसमें बाँया पैर उठा हुआ, कटि कुछ तिरछी, सिर उठा हुआ, नीचा हाथ अभय मुद्रा में होता है।<ref name=":1" />
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'''आभूषण एवं वस्त्र'''
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देवताओं की पहचान उनके आभूषणों एवं वस्त्रों के द्वारा भी की जा सकती है। भारतीय-स्थापत्य में प्रतिमाओं को विविध आभूषणों एवं वस्त्रों से भी सुशोभित करने की परम्परा है। वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में उल्लेख किया है - <blockquote>देशानुरूपभूषणवेषालंकारमूर्तिभिः कार्या। प्रतिमा लक्षणयुक्ता सन्निहिता वृद्धिदा भवति॥ (बृहत्संहिता)</blockquote>देश -काल के अनुसार समाज में आभूषणों एवं वस्त्रों की जो मनुष्यों में भूषा-पद्धतियाँ प्रचलित थीं, उन्हीं के अनुरूप देवों की मूर्तियों में भी उनकी परिकल्पना की जाने लगी।
  
 
==वास्तु एवं प्रतिमा निर्माण॥ Architecture and sculpture==
 
==वास्तु एवं प्रतिमा निर्माण॥ Architecture and sculpture==

Revision as of 16:30, 22 July 2025

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मूर्ति कला (संस्कृतम्: मूर्तिकला) भारतीय वास्तुशास्त्र एवं कलाविज्ञान का एक प्रमुख तथा अविभाज्य अंग है, जो केवल शिल्पकला न होकर धार्मिक, सांस्कृतिक एवं दार्शनिक भावों की मूर्त अभिव्यक्ति है। स्वर्ण, रजत, ताम्र, कांस्य, पीतल, धातुओं एवं मृत्तिका आदि से सुगढ़ित एवं उन्नत रूप में निर्मित आकृतियाँ 'मूर्ति' कहलाती हैं। मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, समराङ्गण सूत्रधार एवं शिल्परत्न आदि में इसका का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। सिन्धु-सरस्वती सभ्यता के नगरों से प्राप्त नृत्यांगना, योगी एवं पशुपति जैसी प्रतिमाएँ भारतीय मूर्तिकला की प्राचीन परंपरा एवं कलासंपन्नता का प्रमाण हैं। ये मूर्तियाँ न केवल उपासना की हेतु थीं, अपितु तत्कालीन जीवन, सौन्दर्यबोध तथा आध्यात्मिक दृष्टिकोण की सजीव प्रस्तुति भी हैं।[1]

परिचय॥ Introduction

मन्दिर हो या महल, स्तम्भ हो या मन्दिर की थर, शिखर तथा तोरणद्वार सभी में कुछ न कुछ तराशा जाता है। शिल्प में जो भावना और कल्पना है, वही मूर्तिकला है। श्री कुमार द्वारा रचित शिल्प-रत्न, मूर्ति-विद्या से संबंधित संस्कृत ग्रंथ है।[2] मूर्ति-निर्माण और प्रतिमा-निर्माण की क्रिया में कलाकार की शिल्पगत अभिव्यक्ति दो रूपों में ही व्यक्त होती है -[3]

  • प्रतिमा निर्माण के लिए निश्चित नियमों और लक्षणों का विधान होता है फलतः कलाकार प्रतिमा निर्माण में पूर्ण स्वतन्त्र नहीं होता है। साथ ही उसके आन्तरिक कला-बोध का अभिव्यक्तिकरण भी उसमें पूर्ण-रूपेण संभव नहीं है।
  • मूर्ति-निर्माण में कलाकार स्वतंत्र होता है और उसकी समस्त शिल्पगत दक्षता उसमें प्रस्फुटित होती है। धर्म अथवा दर्शन से संबंधित होने के कारण प्रतिमा का स्वरूप प्रतीकात्मक भी हो सकता है।

वास्तुशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ समरांगण सूत्रधार में स्थापत्य में प्रमाण, स्थानों (पीठों) की मर्यादा, देवताओं की स्थापना और स्थपतियों द्वारा यथोचित रूप से लक्ष्मी (समृद्धि) की प्राप्ति हेतु भवन निर्माण का निर्देश दिया गया है -

प्रमाणे स्थापिता देवाः पूजार्हाश्च भवन्ति हि। प्रमाणं पीठानामिदमभिहितं ब्रह्ममुरजि। तत्पुरारीणामत्रापरदिविषदां यच्च नियतम्॥ ततो विप्रादीनामपि निगदितं यत्तदखिलं। यथौचित्यायोज्यं श्रियमभिलषद्भिः स्थपतिभिः॥ (समरांगण सूत्रधार)

भाषार्थ - जो देवता उचित प्रमाण (नाप, माप, नियम) के अनुसार स्थापित किए गए हैं, वे ही पूजा के योग्य होते हैं। देवताओं के पीठ (आसन/स्थान/आधार) के माप का जो प्रमाण है, वह ब्रह्मा और मुरजि (शिल्पज्ञान में पारंगत दिव्य ऋषि) द्वारा बताया गया है। यह प्रमाण शिवादि देवताओं एवं अन्य देवगणों के लिए भी निश्चित किया गया है। जो स्थपति (शिल्पकार, वास्तुकार) समुचित समृद्धि (श्री) की अभिलाषा रखते हैं, उन्हें यह प्रमाण युक्तिपूर्वक अनुप्रयुक्त करना चाहिए।

प्रतिमा-निर्माण की कला सदैव वास्तुकला से प्रभावित रही है। प्रतिमा निर्माण का प्रयोजन उपासना रहा अतएव विविध उपासना-प्रकारों में से प्रतिमा-निर्माण में विविध द्रव्यों में प्रायः सभी भौतिक द्रव्य एवं धातुयें तथा रत्नज तथा जैसे मृत्तिका, काष्ठ, चन्दन, पाषाण, लौह, ताम्र, स्वर्ण, माणिक्य आदि भी परिकल्पित किये गये। इस दृष्टि से भारतवर्ष के प्रतिमा-निर्माण की द्रव्यजा एवं चित्रजा कला-Iconoplastic Art of India - संसार के स्थापत्य में एक अद्वितीय स्थान रखती है।[4]

कला एवं मूर्ति निर्माण॥ art and sculpture

कला मानव संस्कृति की उपज है। समस्त कलाओं का आपस में घनिष्ठ संबंध है। मनुष्य की भाव अभिव्यक्ति के अनेक माध्यम हैं। कोई अपने विचार लिखकर प्रकट करता है, तो कोई बोलकर, अभिनय आदि के माध्यम से एवं अन्य चित्र के माध्यम से अपने विचारों एवं भावों की अभिव्यक्ति करते हैं। कलाओं का वर्गीकरण किया जाए तो प्रमुख दो भागों में विभक्त किया जा सकता है -

  1. ललित कला
  2. उपयोगी कला

ललित कला के अन्तर्गत चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला, संगीत एवं स़ाहित्य- ये पाँच कलायें आती हैं।[5] पुराणों में मूर्ति विज्ञान का वर्णन वास्तुशास्त्र के समान ही किया गया है -[6]

  • मत्स्य पुराण के दस अध्यायों में प्रतिमाओं के निर्माण आदि का वर्णन है। मूर्ति के पूर्व प्रतीक का पूजन होता था जैसे शालिग्राम, शिवलिंग आदि।
  • अग्नि पुराण के सोलह अध्यायों में देवालयवास्तु का विधान जिनमें से तेरह अध्यायों में केवल प्रतिमा निर्माण का ही वर्णन है।

प्रतिमा को अन्य शब्दों से भी परिभाषित किया जाता है -

  • बेरा - प्रतिमा या चित्र।
  • मूर्ति - निश्चित आकार व भौतिक सीमा में रूप।
  • बिम्ब - प्रतिबिम्ब, किसी वास्तविक की छायाप्रति।
  • विग्रह - विस्तार स्वरूप।
  • प्रतीक - रूप आदि।

मूर्त-निर्माण और प्रतिमा निर्माण की क्रिया में कलाकार की शिल्पगत अभिव्यक्ति दो रूपों में ही व्यक्त होती है। प्रतिमा निर्माण के लिए निश्चित नियमों और लक्षणों का विधान होता इस कारण कलाकार पूर्णतः स्वतंत्र नहीं होता है, इसके विपरीत मूर्ति-निर्माण में कलाकार पूर्ण स्वतंत्र होता है। प्रतिमा किसी देवी-देवता का प्रतीक होती है जबकि मूर्ति प्रत्यक्ष होती है।

सिंधु सभ्यता एवं मूर्ति कला॥ Indus Civilization and Sculpture Art

भारतीय मूर्तिकला का विषय हमेशा से ही मानव का रूप लिये होते थे जो मानव को सत्य की शिक्षा देने के लिए होते थे। अधिकतर मूर्ति का प्रयोग देवी-देवताओं के कल्पित रूप को आकार देने के लिए किया जाता था। भारतीय मूर्ति कला की शैलियाँ निम्न हैं - [7]

  • सिन्धु घाटी सभ्यता की मूर्ति कला
  • मौर्य मूर्ति कला
  • मौर्यान्तर मूर्तिकला
  • गान्धार कला की मूर्ति कला
  • मथुरा कला की मूर्तिकला

हड़प्पा मूर्तिकला॥ Harappan Sculpture

हड़प्पा सभ्यता के शिल्पवैभव में मृणमूर्ति, धातुमूर्ति तथा प्रस्तरमूर्ति – तीनों प्रकार की मूर्तिकला विकसित अवस्था में प्राप्त होती है। मृणमूर्तियाँ विशेष रूप से लाल मृत्तिका तथा क्वार्ट्ज चूर्ण मिश्रित कुशलकाचित मृत्तिका (कांचली मिट्टी) से निर्मित थीं। इनमें मुख्यतः सङ्क्षघनादकाएँ (सीटियाँ), क्रीड़ोपकरणानि (झुनझुने, खिलौने), वृषभादि पशु-मूर्तियाँ प्रमुख हैं।

धातुमूर्ति-निर्माण हेतु ताम्र तथा कांस्य का प्रचुर प्रयोग किया गया। मोहनजोदड़ो स्थित योगी प्रतिमा, जो सेलखड़ी प्रस्तर से निर्मित है, अर्धनिमीलित नेत्र, संक्षिप्त ललाट एवं सुव्यवस्थित दाढ़ी द्वारा विशिष्ट सौंदर्यबोध का परिचायक है।

इसी प्रकार मोहनजोदड़ो से प्राप्त ताम्रनिर्मिता नर्तकी मूर्ति अपने स्वाभाविक लयबद्ध भाव एवं नारी सौंदर्य की प्रतीकात्मकता के कारण अद्वितीय मानी जाती है। महाराष्ट्र स्थित दायमाबाद से प्राप्त बैलगाड़ी चलाते हुए गाड़ीवान की मूर्ति भी धातु-निर्माणकला का अद्भुत उदाहरण है।

मौर्य मूर्तिकला॥ Mauryan Sculpture

मौर्यकालीन मूर्तिकला भारतीय कला-परंपरा की परिष्कृत एवं उत्कर्ष-प्राप्त अवस्था को अभिव्यक्त करती है। इस युग की विशिष्टता इसके प्रस्तर स्तंभों की एकाश्म निर्माण-प्रणाली, उनमें प्रदर्शित अद्वितीय ओपयुक्त पॉलिश तथा मूर्तियों की भावसंपन्न अभिव्यक्ति में निहित है। यद्यपि इस काल से प्राप्त मूर्तियाँ मुख्यतः पत्थर व मृत्तिका से निर्मित हैं, धातु-प्रतिमाओं की अनुपस्थिति लक्षित होती है।

मृणमूर्तियाँ प्रायः चिपकवा तकनीक या साँचे की विधि से निर्मित हैं, जिनमें मानव, पशु-पक्षी तथा क्रीड़ा-वस्तुओं का निरूपण प्रमुख है। इनका आशय मुख्यतः लौकिक एवं अलौकिक से रहित, सामाजिक-सांसारिक प्रयोजनों से प्रेरित है। प्रस्तर-निर्मित मूर्तियाँ, जो सामान्यतः शासकाधीन प्रतिष्ठानों द्वारा निर्मित प्रतीत होती हैं, किसी विशिष्ट देवता की नहीं हैं – इस प्रकार इस युग की मूर्तिकला को 'नैष्ठिक लौकिकता' का प्रतिनिधि माना जा सकता है।

मौर्यकालीन शिल्प-निर्माण में प्रयुक्त चुनार के चिकने बलुआ पत्थर एवं पारखम के चित्तीदार शिलाखंडों की उल्लेखनीय उपस्थिति है। पाटलिपुत्र, तक्षशिला, सारनाथ, कौशाम्बी आदि क्षेत्रों से प्राप्त मूर्तियाँ इस शिल्प-परंपरा की व्यापकता को प्रमाणित करती हैं। अशोककाल को इस कालखंड की कलात्मक पराकाष्ठा का काल माना जाता है, जिसके उत्कृष्ठ उदाहरण दीदारगंज यक्षिणी, पारखम पुरुष-मूर्ति, एवं सारनाथ के स्तंभ-शीर्ष पर प्रतिष्ठित चारमुखी सिंह हैं – जिनमें से अंतिम को भारत का राजचिह्न स्वीकार किया गया है

कुषाण मूर्तिकला॥ Kushana Sculpture

कुषाणकालीन मूर्तिकला भारतीय शिल्पपरंपरा का एक विशिष्ट संक्रमणकालीन चरण है, जिसकी आरंभिक भूमिका ईसा की प्रथम शताब्दी से मानी जाती है। इस युग में मूर्तियों के निर्माण के साथ ही साथ प्रतिमा-संकल्पना का भी विकास हुआ, जहाँ मूर्तियाँ केवल आकार की दृष्टि से नहीं, अपितु दैवीय भावनाओं के मूर्त-आलेख के रूप में प्रतिष्ठित की जाने लगीं।

इस काल की मूर्तिकला में प्रतीकात्मकता (Symbolism) प्रधान तत्व के रूप में उभरकर सामने आती है। देवताओं को प्रत्यक्षतः न दिखाकर उनके चिन्हों – जैसे अशोकचक्र, पद्म, वज्र, वृक्ष, सिंहासन आदि के माध्यम से उनकी उपस्थिति को धार्मिक अनुभूति में अवतरित किया गया। यह प्रवृत्ति विशेषतः प्रारंभिक बौद्ध मूर्तिकला में देखी जाती है, जहाँ बुद्ध को पदचिन्ह, बोधिवृक्ष या सिंहासन के माध्यम से दर्शाया गया। इसी कालखण्ड में भारत की दो अन्य महान मूर्तिकला शैलियाँ – गांधार शैली एवं मथुरा शैली – का समवर्ती उत्कर्ष हुआ।

मूर्ति एवं प्रतिमा॥ murti evam pratima

प्रतिमा का शाब्दिक अर्थ प्रतिरूप होता है अर्थात समान आकृति। पाणिनि ने भी अपने सूत्र 'इवप्रतिकृतौ' में समरूप आकृति के लिए प्रतिकृति शब्द का प्रयोग किया है। प्रतिमा विज्ञान के लिए अंग्रेजी में Iconography शब्द प्रयुक्त होता है। Icon शब्द का तात्पर्य उस देवता अथवा ऋषि के रूप है जो कला में चित्रित किया जाता है। ग्रीक भाषा में इसके लिए 'इकन' (Eiken) शब्द प्रयोग हुआ है। इसी अर्थ से समानता रखते हुए भारतीय अर्चा, विग्रह, तनु तथा रूप शब्द हैं। पांचरात्र संहिता में तो ''क्रिया'' मोक्ष का मार्ग माना गया है इसीलिए शासक मोक्ष निमित्त मन्दिरों का निर्माण किया करते थे।[8]

सामान्यरूप से मूर्ति को उसके वाहन, आयुध, मुद्रा, अलंकरण और भुजाओं की संख्या से पहचाना जाता है -

वाहन या आसन वस्तु

जिस वस्तु या वाहन पर किसी आकृति को बैठा या खड़ा दिखाया जाता है, उसे आसन या वस्तु कहते हैं। भारतीय मूर्तियाँ चौकी, सिंहासन, चटाई, गज, मृग अथवा व्याघ्र, चर्म, कमल, पद्मपत्र, सुमेरु, पशु (हाथी, सिंह,अश्व, वृषभ, महिष, मृग, मेढा, शूकर, गर्दभ, शार्दूल आदि) पक्षी - (मयूर, हंस, उल्लूक, गरुड आदि) जलचर - (मकर, मीन, कच्छप आदि) इत्यादि पर बैठी या खडी दिखायी जाती हैं।[9]

आयुध

प्रतिमाओं के गुण अथवा शक्ति प्रदर्शित करने के लिए उनके हाथों का उपयोग किया गया है तथा हाथों की संख्या भी बढाई गयी है। इन हाथों में जो वस्तुएँ दिखाते हैं वे किसी शक्ति, क्रिया या गुण की प्रतीक होती है। शिल्पशास्त्र के ग्रन्थों के अनुसार देवताओं के ३६ आयुध हैं, जैसे - चक्र, त्रिशूल, वज्र, धनुष, कृपाण, गदा, अंकुश, बाण, छुरी, दण्ड, शक्ति (नोंकदार तलवार), मूसल, परशु (फरसा), भाला (कुन्त), रिष्टिका (कटार), खट्वांग (मूठदार डण्डा), भुशुण्डी (छोटा नोंकदार डण्डा), कर्तिका (कैंची), कपाल, सूची (सूजा), खेट (ढाल), पाश (फंदा०, सर्प, हल, मुद्गर, शंख, शृंग (बजाने वाला), घण्टा, शत्रु का सिर, खोपडी, माला, पुस्तक, कमण्डल, कमल, पानपत्र और योगमुद्रा आदि।[9]

मुद्रा

मूर्तियाँ आसन, शयन और स्थान तीन प्रकार की बनायी जाती हैं। वैष्णव सम्प्रदाय में योग, भोग, वीरा और अभिचारिका मुद्रा में भी प्रतिमाएँ बनायी जाती हैं। अधिकांश खडी हुई मूर्तियों की मुख्य मुद्रायें होती हैं -[9]

  • समपाद दोनों पैर बराबर मिलाकर खडे हुए।
  • अभंग कुछ तिरछे खडे हुए।
  • त्रिभंग मस्तक, कमर और पैर तीनों में तिरछापन।
  • अतिभंग जिसमें शरीर के सभी अवयवों में तिरछापन हो।

इनके अतिरिक्त भी कई और मुद्राएँ हैं जो विशेष मूर्तियों में प्रयुक्त होती हैं, जैसे वराह की मुद्रा को 'आलिंग्य' मुद्रा कहते हैं। इसमें बाँया पैर उठा हुआ, कटि कुछ तिरछी, सिर उठा हुआ, नीचा हाथ अभय मुद्रा में होता है।[9]

आभूषण एवं वस्त्र

देवताओं की पहचान उनके आभूषणों एवं वस्त्रों के द्वारा भी की जा सकती है। भारतीय-स्थापत्य में प्रतिमाओं को विविध आभूषणों एवं वस्त्रों से भी सुशोभित करने की परम्परा है। वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में उल्लेख किया है -

देशानुरूपभूषणवेषालंकारमूर्तिभिः कार्या। प्रतिमा लक्षणयुक्ता सन्निहिता वृद्धिदा भवति॥ (बृहत्संहिता)

देश -काल के अनुसार समाज में आभूषणों एवं वस्त्रों की जो मनुष्यों में भूषा-पद्धतियाँ प्रचलित थीं, उन्हीं के अनुरूप देवों की मूर्तियों में भी उनकी परिकल्पना की जाने लगी।

वास्तु एवं प्रतिमा निर्माण॥ Architecture and sculpture

वास्तु शास्त्र में धार्मिक वास्तु के अंतर्गत देवालय व्यवस्था के अन्तर्गत प्रतिमा निर्माण का विधान बताया गया है। क्योंकि जबतक देवालय में प्रतिमा प्रतिष्ठित ना हो, तब तक वह देवालय नहीं कहलाता है। प्रतिमा शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में इस प्रकार दी गई है -[10]

प्रतिमीयते इति प्रतिमा - प्रति इ मा + अङ्ग टाप।

प्रतिमा-विज्ञान के अन्य आधारभूत सिद्धान्त (Canons) जैसे प्रतिमा-मान-विज्ञान (Iconometry) प्रतिमा-विधान (Iconography) अर्थात प्रतिमा के अंगोंपांग के विभिन्न मान एवं माप-दण्ड (Standards of measurements) के साथ-साथ प्रतिमा-भूषा के लिए इस देश में जो भूषा-विन्यास कला (Decorative Art) का प्रगल्भप्रकर्ष देखने को मिलता है। भारत में मूर्तिकला एवं वास्तुशिल्प की जड़े बहुत गहराई तक फैली हुई है।[5]

निष्कर्ष॥ Conclusion

भारतीय वास्तुशिल्प, चित्रकला, मूर्तिशिल्प एवं शिल्पविज्ञान की उद्भववेला भारतीय सभ्यता के इतिहास की अतीव प्राचीनता एवं गहनता में निहित प्रतीत होती है। इसमें किञ्चिदपि सन्देह नहीं कि भारतीय मूर्तिकला का प्रसार अत्यन्त प्राचीन काल से ही सुनिश्चित रूप में प्रचलित रहा है। यदि भारतीय मूर्तिशिल्प का सम्यक् परीक्षण किया जाए, तो स्पष्ट हो जाता है कि इसमें चित्रण के उपादान रूप में वृक्ष-लता, जीव-जंतु एवं अनेकों देवदेवियों के स्वरूपों का समावेश अत्यन्त विशिष्ट ढंग से हुआ है। सिन्धु-घाटी सभ्यता के मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा स्थलों से प्राप्त विशाल मूर्तियाँ उक्त परंपरा की सशक्त प्रमाणिकता प्रदान करती हैं। इसके अतिरिक्त काञ्चीपुरम, मदुरै, रामेश्वरम आदि स्थानों से प्राप्त मूर्तिशिल्प भी इस दृष्टि से उत्तम प्रमाण हैं।

उद्धरण॥ references

  1. डॉ० बृजभूषण श्रीवास्तव, प्राचीन भारतीय प्रतिमा-विज्ञान एवं मूर्ति-कला, सन २०२२, विश्वविद्यालय प्रकाशन (पृ० १३)।
  2. श्रीकुमार, शिल्परत्नम्, सन १९२९, अनन्तशयनसंस्कृतग्रन्थावलि, त्रिवेण्ड्रम।
  3. डॉ० नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी, प्राचीन भारतीय मूर्ति विज्ञान, सन २०००, बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद, पटना (पृ० ९)।
  4. डॉ० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, प्रतिमा-विज्ञान,सन १९५६, वास्तु-वाङ्मय-प्रकाशन-शाला, लखनऊ (पृ० १७४)।
  5. 5.0 5.1 डॉ० अर्चना रानी, पिंकी वर्मा, भारतीय मूर्तिशिल्प इतिहासः एक दृष्टि, सन २०१८, SJIF Scientific Journal Impact Factor (पृ० २)।
  6. डॉ० जिनेन्द्र जैन, प्रतिमा विज्ञान के अध्ययन के स्रोत, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक, मध्य प्रदेश (पृ० ३)।
  7. डॉ० अलका सोती, मूर्ति कला, एस० बी० डी० महिला महाविद्यालय, धामपुर (पृ० ०२)।
  8. डॉ० वासुदेव उपाध्याय, प्राचीन भारतीय मूर्ति-विज्ञान, सन १९७०, चौखम्बा संस्कृत सीरीज ऑफिस, वाराणसी (पृ० २१)।
  9. 9.0 9.1 9.2 9.3 पत्रिका - वास्तुशास्त्रविमर्श, डॉ० सर्वेन्द्र कुमार, वास्तुशास्त्र सम्मत प्रतिमा-विज्ञान, सन २०१४, श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली (पृ० १५३)
  10. डॉ० पारस राम शास्त्री, वास्तू पीयूष, सन २०१३, संस्कृत शोध संस्थान, जम्मू (पृ० ५२)।