Difference between revisions of "Sculpture Art (मूर्ति कला)"
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| − | मूर्ति कला (संस्कृतः मूर्तिकला) | + | मूर्ति कला (संस्कृतः मूर्तिकला) भारतीय वास्तु शास्त्र का एक प्रोज्ज्वल अंग है। स्वर्ण, रजत, ताम्र, कांस्य, पीतल, अष्टधातु आदि को उनके स्वभाव के अनुसार उभारकर एवं गढकर उत्पन्न की हुई आकृति को मूर्ति कहते हैं। सैन्धव-सभ्यता के अवशेषों में अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।<ref>डॉ० बृजभूषण श्रीवास्तव, प्राचीन भारतीय प्रतिमा-विज्ञान एवं मूर्ति-कला, सन २०२२, विश्वविद्यालय प्रकाशन (पृ० १३)।</ref> |
| − | == परिचय == | + | ==परिचय== |
प्रतिमा का प्रयोग वस्तुतः उन्हीं मूर्तियों के लिए किया जाता है। प्रतिमा शब्द का प्रयोग देवताओं, देवियों, महात्माओं या स्वर्गवासी पूर्वजों आदि की आकृतियों के लिए ही किया जाता है। मूर्ति-निर्माण और प्रतिमा-निर्माण की क्रिया में कलाकार की शिल्पगत अभिव्यक्ति दो रूपों में ही व्यक्त होती है -<ref>डॉ० नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी, [https://www.scribd.com/doc/153803479/Prachina-Bhartiya-Murti-Vigyan-Dr-Neelkanth-Purushottam-Joshi प्राचीन भारतीय मूर्ति विज्ञान], सन २०००, बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद, पटना (पृ० ९)।</ref> | प्रतिमा का प्रयोग वस्तुतः उन्हीं मूर्तियों के लिए किया जाता है। प्रतिमा शब्द का प्रयोग देवताओं, देवियों, महात्माओं या स्वर्गवासी पूर्वजों आदि की आकृतियों के लिए ही किया जाता है। मूर्ति-निर्माण और प्रतिमा-निर्माण की क्रिया में कलाकार की शिल्पगत अभिव्यक्ति दो रूपों में ही व्यक्त होती है -<ref>डॉ० नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी, [https://www.scribd.com/doc/153803479/Prachina-Bhartiya-Murti-Vigyan-Dr-Neelkanth-Purushottam-Joshi प्राचीन भारतीय मूर्ति विज्ञान], सन २०००, बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद, पटना (पृ० ९)।</ref> | ||
*प्रतिमा निर्माण के लिए निश्चित नियमों और लक्षणों का विधान होता है फलतः कलाकार प्रतिमा निर्माण में पूर्ण स्वतन्त्र नहीं होता है। साथ ही उसके आन्तरिक कला-बोध का अभिव्यक्तिकरण भी उसमें पूर्ण-रूपेण संभव नहीं है। | *प्रतिमा निर्माण के लिए निश्चित नियमों और लक्षणों का विधान होता है फलतः कलाकार प्रतिमा निर्माण में पूर्ण स्वतन्त्र नहीं होता है। साथ ही उसके आन्तरिक कला-बोध का अभिव्यक्तिकरण भी उसमें पूर्ण-रूपेण संभव नहीं है। | ||
*मूर्ति-निर्माण में कलाकार स्वतंत्र होता है और उसकी समस्त शिल्पगत दक्षता उसमें प्रस्फुटित होती है। धर्म अथवा दर्शन से संबंधित होने के कारण प्रतिमा का स्वरूप प्रतीकात्मक भी हो सकता है। | *मूर्ति-निर्माण में कलाकार स्वतंत्र होता है और उसकी समस्त शिल्पगत दक्षता उसमें प्रस्फुटित होती है। धर्म अथवा दर्शन से संबंधित होने के कारण प्रतिमा का स्वरूप प्रतीकात्मक भी हो सकता है। | ||
| + | प्रतिमा-निर्माण की कला सदैव वास्तुकला से प्रभावित रही है। प्रतिमा निर्माण का प्रयोजन उपासना रहा अतएव विविध उपासना-प्रकारों में से प्रतिमा-निर्माण में विविध द्रव्यों में प्रायः सभी भौतिक द्रव्य एवं धातुयें तथा रत्नज तथा जैसे मृत्तिका, काष्ठ, चन्दन, पाषाण, लौह, ताम्र, स्वर्ण, माणिक्य आदि भी परिकल्पित किये गये। इस दृष्टि से भारतवर्ष के प्रतिमा-निर्माण की द्रव्यजा एवं चित्रजा कला-Iconoplastic Art of India - संसार के स्थापत्य में एक अद्वितीय स्थान रखती है।<ref>डॉ० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.401129/page/n174/mode/1up प्रतिमा-विज्ञान],सन १९५६, वास्तु-वाङ्मय-प्रकाशन-शाला, लखनऊ (पृ० १७४)।</ref> | ||
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| − | प्रतिमा का शाब्दिक अर्थ प्रतिरूप होता है अर्थात समान आकृति। पाणिनि ने भी अपने सूत्र 'इवप्रतिकृतौ' में समरूप आकृति के लिए प्रतिकृति शब्द का प्रयोग किया है। प्रतिमा विज्ञान के लिए अंग्रेजी में Iconography शब्द प्रयुक्त होता है। Icon शब्द का तात्पर्य उस देवता अथवा ऋषि के रूप है जो कला में चित्रित किया जाता है। ग्रीक भाषा में इसके लिए 'इकन' (Eiken) शब्द प्रयोग हुआ है। इसी अर्थ से समानता रखते हुए भारतीय अर्चा, विग्रह, तनु तथा रूप शब्द हैं। पांचरात्र संहिता में तो <nowiki>''क्रिया''</nowiki> मोक्ष का मार्ग माना गया है इसीलिए शासक मोक्ष निमित्त मन्दिरों का निर्माण किया करते थे।<ref>डॉ० वासुदेव उपाध्याय, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.445223/page/n2/mode/1up प्राचीन भारतीय मूर्ति-विज्ञान], सन १९७०, चौखम्बा संस्कृत सीरीज ऑफिस, वाराणसी (पृ० २१)।</ref> | + | प्रतिमा का शाब्दिक अर्थ प्रतिरूप होता है अर्थात समान आकृति। पाणिनि ने भी अपने सूत्र 'इवप्रतिकृतौ' में समरूप आकृति के लिए प्रतिकृति शब्द का प्रयोग किया है। प्रतिमा विज्ञान के लिए अंग्रेजी में Iconography शब्द प्रयुक्त होता है। Icon शब्द का तात्पर्य उस देवता अथवा ऋषि के रूप है जो कला में चित्रित किया जाता है। ग्रीक भाषा में इसके लिए 'इकन' (Eiken) शब्द प्रयोग हुआ है। इसी अर्थ से समानता रखते हुए भारतीय अर्चा, विग्रह, तनु तथा रूप शब्द हैं। पांचरात्र संहिता में तो <nowiki>''क्रिया''</nowiki> मोक्ष का मार्ग माना गया है इसीलिए शासक मोक्ष निमित्त मन्दिरों का निर्माण किया करते थे।<ref>डॉ० वासुदेव उपाध्याय, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.445223/page/n2/mode/1up प्राचीन भारतीय मूर्ति-विज्ञान], सन १९७०, चौखम्बा संस्कृत सीरीज ऑफिस, वाराणसी (पृ० २१)।</ref> |
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| + | वास्तु शास्त्र में धार्मिक वास्तु के अंतर्गत देवालय व्यवस्था के अन्तर्गत प्रतिमा निर्माण का विधान बताया गया है। क्योंकि जबतक देवालय में प्रतिमा प्रतिष्ठित ना हो, तब तक वह देवालय नहीं कहलाता है। प्रतिमा शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में इस प्रकार दी गई है -<ref>डॉ० पारस राम शास्त्री, वास्तू पीयूष, सन २०१३, संस्कृत शोध संस्थान, जम्मू (पृ० ५२)।</ref><blockquote>प्रतिमीयते इति प्रतिमा - प्रति इ मा + अङ्ग टाप।</blockquote>प्रतिमा-विज्ञान के अन्य आधारभूत सिद्धान्त (Canons) जैसे प्रतिमा-मान-विज्ञान (Iconometry) प्रतिमा-विधान (Iconography) अर्थात प्रतिमा के अंगोंपांग के विभिन्न मान एवं माप-दण्ड (Standards of measurements) के साथ-साथ प्रतिमा-भूषा के लिए इस देश में जो भूषा-विन्यास कला (Decorative Art) का प्रगल्भप्रकर्ष देखने को मिलता है। भारत में मूर्तिकला एवं वास्तुशिल्प की जड़े बहुत गहराई तक फैली हुई है।<ref>डॉ० अर्चना रानी, पिंकी वर्मा, [https://anubooks.com/uploads/session_pdf/16627156758.pdf भारतीय मूर्तिशिल्प इतिहासः एक दृष्टि], सन २०१८, SJIF Scientific Journal Impact Factor (पृ० २)।</ref> | ||
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Revision as of 22:08, 16 July 2025
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मूर्ति कला (संस्कृतः मूर्तिकला) भारतीय वास्तु शास्त्र का एक प्रोज्ज्वल अंग है। स्वर्ण, रजत, ताम्र, कांस्य, पीतल, अष्टधातु आदि को उनके स्वभाव के अनुसार उभारकर एवं गढकर उत्पन्न की हुई आकृति को मूर्ति कहते हैं। सैन्धव-सभ्यता के अवशेषों में अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।[1]
परिचय
प्रतिमा का प्रयोग वस्तुतः उन्हीं मूर्तियों के लिए किया जाता है। प्रतिमा शब्द का प्रयोग देवताओं, देवियों, महात्माओं या स्वर्गवासी पूर्वजों आदि की आकृतियों के लिए ही किया जाता है। मूर्ति-निर्माण और प्रतिमा-निर्माण की क्रिया में कलाकार की शिल्पगत अभिव्यक्ति दो रूपों में ही व्यक्त होती है -[2]
- प्रतिमा निर्माण के लिए निश्चित नियमों और लक्षणों का विधान होता है फलतः कलाकार प्रतिमा निर्माण में पूर्ण स्वतन्त्र नहीं होता है। साथ ही उसके आन्तरिक कला-बोध का अभिव्यक्तिकरण भी उसमें पूर्ण-रूपेण संभव नहीं है।
- मूर्ति-निर्माण में कलाकार स्वतंत्र होता है और उसकी समस्त शिल्पगत दक्षता उसमें प्रस्फुटित होती है। धर्म अथवा दर्शन से संबंधित होने के कारण प्रतिमा का स्वरूप प्रतीकात्मक भी हो सकता है।
प्रतिमा-निर्माण की कला सदैव वास्तुकला से प्रभावित रही है। प्रतिमा निर्माण का प्रयोजन उपासना रहा अतएव विविध उपासना-प्रकारों में से प्रतिमा-निर्माण में विविध द्रव्यों में प्रायः सभी भौतिक द्रव्य एवं धातुयें तथा रत्नज तथा जैसे मृत्तिका, काष्ठ, चन्दन, पाषाण, लौह, ताम्र, स्वर्ण, माणिक्य आदि भी परिकल्पित किये गये। इस दृष्टि से भारतवर्ष के प्रतिमा-निर्माण की द्रव्यजा एवं चित्रजा कला-Iconoplastic Art of India - संसार के स्थापत्य में एक अद्वितीय स्थान रखती है।[3]
सिंधु सभ्यता एवं मूर्ति कला
भारतीय मूर्तिकला का विषय हमेशा से ही मानव का रूप लिये होते थे जो मानव को सत्य की शिक्षा देने के लिए होते थे। अधिकतर मूर्ति का प्रयोग देवी-देवताओं के कल्पित रूप को आकार देने के लिए किया जाता था। भारतीय मूर्ति कला की शैलियाँ निम्न हैं - [4]
- सिन्धु घाटी सभ्यता की मूर्ति कला
- मौर्य मूर्ति कला
- मौर्यान्तर मूर्तिकला
- गान्धार कला की मूर्ति कला
- मथुरा कला की मूर्तिकला
मूर्ति एवं प्रतिमा
प्रतिमा का शाब्दिक अर्थ प्रतिरूप होता है अर्थात समान आकृति। पाणिनि ने भी अपने सूत्र 'इवप्रतिकृतौ' में समरूप आकृति के लिए प्रतिकृति शब्द का प्रयोग किया है। प्रतिमा विज्ञान के लिए अंग्रेजी में Iconography शब्द प्रयुक्त होता है। Icon शब्द का तात्पर्य उस देवता अथवा ऋषि के रूप है जो कला में चित्रित किया जाता है। ग्रीक भाषा में इसके लिए 'इकन' (Eiken) शब्द प्रयोग हुआ है। इसी अर्थ से समानता रखते हुए भारतीय अर्चा, विग्रह, तनु तथा रूप शब्द हैं। पांचरात्र संहिता में तो ''क्रिया'' मोक्ष का मार्ग माना गया है इसीलिए शासक मोक्ष निमित्त मन्दिरों का निर्माण किया करते थे।[5]
वास्तु एवं प्रतिमा निर्माण
वास्तु शास्त्र में धार्मिक वास्तु के अंतर्गत देवालय व्यवस्था के अन्तर्गत प्रतिमा निर्माण का विधान बताया गया है। क्योंकि जबतक देवालय में प्रतिमा प्रतिष्ठित ना हो, तब तक वह देवालय नहीं कहलाता है। प्रतिमा शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में इस प्रकार दी गई है -[6]
प्रतिमीयते इति प्रतिमा - प्रति इ मा + अङ्ग टाप।
प्रतिमा-विज्ञान के अन्य आधारभूत सिद्धान्त (Canons) जैसे प्रतिमा-मान-विज्ञान (Iconometry) प्रतिमा-विधान (Iconography) अर्थात प्रतिमा के अंगोंपांग के विभिन्न मान एवं माप-दण्ड (Standards of measurements) के साथ-साथ प्रतिमा-भूषा के लिए इस देश में जो भूषा-विन्यास कला (Decorative Art) का प्रगल्भप्रकर्ष देखने को मिलता है। भारत में मूर्तिकला एवं वास्तुशिल्प की जड़े बहुत गहराई तक फैली हुई है।[7]
उद्धरण
- ↑ डॉ० बृजभूषण श्रीवास्तव, प्राचीन भारतीय प्रतिमा-विज्ञान एवं मूर्ति-कला, सन २०२२, विश्वविद्यालय प्रकाशन (पृ० १३)।
- ↑ डॉ० नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी, प्राचीन भारतीय मूर्ति विज्ञान, सन २०००, बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद, पटना (पृ० ९)।
- ↑ डॉ० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, प्रतिमा-विज्ञान,सन १९५६, वास्तु-वाङ्मय-प्रकाशन-शाला, लखनऊ (पृ० १७४)।
- ↑ डॉ० अलका सोती, मूर्ति कला, एस० बी० डी० महिला महाविद्यालय, धामपुर (पृ० ०२)।
- ↑ डॉ० वासुदेव उपाध्याय, प्राचीन भारतीय मूर्ति-विज्ञान, सन १९७०, चौखम्बा संस्कृत सीरीज ऑफिस, वाराणसी (पृ० २१)।
- ↑ डॉ० पारस राम शास्त्री, वास्तू पीयूष, सन २०१३, संस्कृत शोध संस्थान, जम्मू (पृ० ५२)।
- ↑ डॉ० अर्चना रानी, पिंकी वर्मा, भारतीय मूर्तिशिल्प इतिहासः एक दृष्टि, सन २०१८, SJIF Scientific Journal Impact Factor (पृ० २)।