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| | == परिचय॥ Introduction== | | == परिचय॥ Introduction== |
| − | वैदिक एवं संस्कृत साहित्य में समुद्र, नदी, झील, तालाब, कूप आदि के रूप में जल व्यवस्था का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। वनस्पति और जीव-जन्तु दोनों ही वर्गों के समुदायों को अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए जल अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्व है। पञ्च महाभूतों में पृथ्वी के उपरान्त जल तत्व हमारे जीवन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्राणियों के रक्त में ८० प्रतिशत मात्रा जल की होती है किन्तु वनस्पति में ये मात्रा अधिक होती है। दोनों ही वर्गों के लिए जल जीवन का आधार है। जीव-जन्तु और पशु-पक्षी जल पीकर तथा वनस्पति जडो द्वारा जल ग्रहण कर जीवित रहते हैं।<ref>मृत्युञ्जय कुमार तिवारी, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/95272/1/Unit-3.pdf जल व्यवस्था], सन २०२३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २२०)।</ref> जलविज्ञानीय चक्र की विभिन्न प्रक्रियाओं जैसे कि वाष्पीकरण, संक्षेपण, वर्षा, धारा प्रवाह आदि के समय जल का क्षय नहीं होता है अपितु एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित हो जाता है। अमरकोष के अनुसार आप, अम्भ, वारि, तोय, सलिल, जल, अमृत, पय, उदक इत्यादि जल के ही पर्यायवाची शब्द हैं।<ref>अमरकोष, प्रथमकाण्ड, (पृ० १०६)।</ref> | + | वैदिक एवं संस्कृत साहित्य में समुद्र, नदी, झील, तालाब, कूप आदि के रूप में जल व्यवस्था का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। वनस्पति और जीव-जन्तु दोनों ही वर्गों के समुदायों को अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए जल अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्व है। पञ्च महाभूतों में पृथ्वी के उपरान्त जल तत्व हमारे जीवन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्राणियों के रक्त में ८० प्रतिशत मात्रा जल की होती है किन्तु वनस्पति में ये मात्रा अधिक होती है। दोनों ही वर्गों के लिए जल जीवन का आधार है। जीव-जन्तु और पशु-पक्षी जल पीकर तथा वनस्पति मूल द्वारा जल ग्रहण कर जीवित रहते हैं।<ref>मृत्युञ्जय कुमार तिवारी, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/95272/1/Unit-3.pdf जल व्यवस्था], सन २०२३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २२०)।</ref> जलविज्ञानीय चक्र की विभिन्न प्रक्रियाओं जैसे कि वाष्पीकरण, संक्षेपण, वर्षा, धारा प्रवाह आदि के समय जल का क्षय नहीं होता है अपितु एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित हो जाता है। अमरकोष के अनुसार आप, अम्भ, वारि, तोय, सलिल, जल, अमृत, पय, उदक इत्यादि जल के ही पर्यायवाची शब्द हैं।<ref>अमरकोष, प्रथमकाण्ड, (पृ० १०६)।</ref> |
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| | ==जलव्यवस्था की वैदिक अवधारणा== | | ==जलव्यवस्था की वैदिक अवधारणा== |
| − | वेदों में जल की ४ अवस्थाएं वर्णित हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में बताया गया है कि आत्मा-रूप मूल तत्त्व ने जिस जल को (अप्-तत्त्व को) उत्पन्न किया, वह चार अवस्थाओं में चार नामों से चार लोकों में व्याप्त है। जैसा कि -<ref>पं० श्री गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी, [https://ia800709.us.archive.org/20/items/VaidikaVishvaAurBharatiyaSanskriti/Vaidika-Vishva-aur-Bharatiya-Sanskriti.pdf वैदिक विज्ञान और भारतीय संस्कृति], सन २०००, बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना (पृ० १०६)।</ref><blockquote>आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीन्नान्यत्किञ्चन मिषत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति। स इमांल्लोकानसृजत अम्भो मरीचिर्भर आपः। अदोऽम्भः परेण दिवम् द्यौः प्रतिष्ठाः अन्तरिक्षं मरीचयः, पृथिवी भरः, या अधस्तात्ता आपः। स ईंक्षतेमे नु लोका लोकपालान्नु सृजा इति सोऽद्भ्य एव पुरुषं समुद्धृत्यामूर्च्छयत्। (ऐतरेय ब्राह्मण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%90%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6%E0%A5%8D ऐतरेयोपनिषद्], अध्याय - १, खण्ड - १।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' अम्भ, मरीचि, भर् और आप् रूप में इन चार अवस्थाओं एवं नामों के द्वारा चार लोकों में व्याप्त है। अम्भः इनमें वह है, जो सूर्य-मण्डल से (द्युलोक से) भी ऊर्ध्व-प्रदेश में महः, जनः आदि लोकों में व्याप्त है। अन्तरिक्ष में जो जल व्याप्त है, वह मरीचि-रूप है।
| + | भारतीय ज्ञान परंपरा में प्राप्त प्राचीन ग्रन्थों में जलाशय के निर्माण की विधि, जलाशय के प्रकार, जलाशय दान, कुंड निर्माण, सोख गर्तों का निर्माण, नहर एवं बाँध निर्माण आदि का वर्णन है। ऋग्वेद में प्राचीन जल व्यवस्था के कई सूत्र प्राप्त होते हैं - <blockquote>या आपो दिव्या उनन वा स्रवन्ति खनित्रिमा उत वा या स्वयंजा। समुद्रार्था या शुचयः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु॥ (ऋग्वेद)</blockquote>इस मन्त्र में यह वर्णन है कि जो दिव्य (शुद्ध) जल है या जो खोदने से प्राप्त होता है, या जो स्वयं उत्पन्न होता या समुद्री जल या जो जल शुद्धिकरण करने वाला है वह हमारी रक्षा करे। इस मंत्र के आधार पर जल का विभाजन इस प्रकार करते हैं - |
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| | + | # '''दिव्य जल -''' वर्षा के द्वारा जो जल आकाश से प्राप्त होता है। |
| | + | # '''स्रवन्ति जल -''' नदियों, झरनों आदि में बहता हुआ जल। |
| | + | # '''खनित्रिमा जल -''' जो जल भूमि को खोदकर प्राप्त किया जाता है। |
| | + | # '''स्वयंजा जल -''' वह जल जो स्वयं भूमि से फूत कर निकलता है। |
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| | + | इसके अतिरिक्त ऋग्वेद में जलाशय या जल संचयन से संबंधित वर्णन भी प्राप्त होते हैं जैसे - पुष्करिणी, ह्रद, अवट, पोखरा, गर्त, वापी, द्रोण आदि। ऐतरेय ब्राह्मण में बताया गया है कि आत्मा-रूप मूल तत्त्व ने जिस जल को (अप्-तत्त्व को) उत्पन्न किया, वह चार अवस्थाओं में चार नामों से चार लोकों में व्याप्त है। जैसा कि -<ref>पं० श्री गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी, [https://ia800709.us.archive.org/20/items/VaidikaVishvaAurBharatiyaSanskriti/Vaidika-Vishva-aur-Bharatiya-Sanskriti.pdf वैदिक विज्ञान और भारतीय संस्कृति], सन २०००, बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना (पृ० १०६)।</ref><blockquote>आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीन्नान्यत्किञ्चन मिषत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति। स इमांल्लोकानसृजत अम्भो मरीचिर्भर आपः। अदोऽम्भः परेण दिवम् द्यौः प्रतिष्ठाः अन्तरिक्षं मरीचयः, पृथिवी भरः, या अधस्तात्ता आपः। स ईंक्षतेमे नु लोका लोकपालान्नु सृजा इति सोऽद्भ्य एव पुरुषं समुद्धृत्यामूर्च्छयत्। (ऐतरेय ब्राह्मण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%90%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6%E0%A5%8D ऐतरेयोपनिषद्], अध्याय - १, खण्ड - १।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' अम्भ, मरीचि, भर् और आप् रूप में इन चार अवस्थाओं एवं नामों के द्वारा चार लोकों में व्याप्त है। अम्भः इनमें वह है, जो सूर्य-मण्डल से (द्युलोक से) भी ऊर्ध्व-प्रदेश में महः, जनः आदि लोकों में व्याप्त है। अन्तरिक्ष में जो जल व्याप्त है, वह मरीचि-रूप है। |
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| | ===अपः सूक्त एवं नासदीय सूक्त में जल=== | | ===अपः सूक्त एवं नासदीय सूक्त में जल=== |
| − | <blockquote>'''आपो हिष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे ॥1॥''' | + | <blockquote>आपो हिष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे ॥1॥ |
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| − | '''यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः ॥2॥'''
| + | यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः ॥2॥ |
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| − | '''तस्मा अरंग माम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः ॥3॥'''
| + | तस्मा अरंग माम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः ॥3॥ |
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| − | '''शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्रवन्तु नः ॥4॥'''
| + | शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्रवन्तु नः ॥4॥ |
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| − | '''ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम्। अपो याचामि भेषजम् ॥5॥'''
| + | ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम्। अपो याचामि भेषजम् ॥5॥ |
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| − | '''अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विष्वानि भेषजा। अग्निं च विश्वभुवम् ॥6॥'''
| + | अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विष्वानि भेषजा। अग्निं च विश्वभुवम् ॥6॥ |
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| − | '''आप: पृणीत भेषजं वरूथं तन्वेsमम। ज्योक्च सूर्यं दृशे ॥7॥'''
| + | आप: पृणीत भेषजं वरूथं तन्वेsमम। ज्योक्च सूर्यं दृशे ॥7॥ |
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| − | '''इदमाप: प्र वहत यत्किं च दुरितं मयि। यद्वाहमभिदुद्रोह यदवा शेप उतान्रूतम॥8॥'''
| + | इदमाप: प्र वहत यत्किं च दुरितं मयि। यद्वाहमभिदुद्रोह यदवा शेप उतान्रूतम॥8॥ |
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| − | '''आपो अद्यान्वचारिद्गां रसेन समगस्महि। पयस्वानग्न आ गहि तं मा सं सृज वर्चसा॥9॥'''</blockquote>'''भाषार्थ -''' हे जल! आपकी उपस्थिति से वायुमंडल बहुत तरोताजा है, और यह हमें उत्साह और शक्ति प्रदान करता है। आपका शुद्ध सार हमें प्रसन्न करता है, इसके लिए हम आपको आदर देते हैं। हे जल! आप अपना यह शुभ सार, कृपया हमारे साथ साझा करें, जिस प्रकार एक मां की इच्छा होती है कि वह अपने बच्चों को सर्वश्रेष्ठतम प्रदान करे। हे जल! जब आपका उत्साही सार किसी दुखी प्राणी को प्राप्त होता है, तो वह उसे जीवंत कर देता है। हे जल! इसलिए आप हमारे जीवन दाता हैं। हे जल! जब हम आपका सेवन करते हैं तो उसमें शुभ दिव्यता होने की कामना करते हैं। जो शुभकामनाएँ आप में विद्यमान हैं, उसका हमारे अंदर संचरण हो। हे जल! आपकी दिव्यता कृषि भूमियों में भी संचरित हो!। हे जल, मेरा आग्रह है कि आप फसलों का समुचित पोषण करें। हे जल, सोमा ने मूझे बताया कि जल में दुनिया की सभी औषधीय जड़ी बूटियाँ और अग्नि, जो दुनिया को सुख-समृद्धि प्रदान करती है, भी मौजूद है। हे जल, आप में औषधीय जड़ी बूटियाँ प्रचुर मात्रा में समायी हुई हैं; कृपया मेरे शरीर की रक्षा करें, ताकि मैं सूर्य को लंबे समय तक देख सकूं (अर्थात मैं लंबे समय तक जीवित रह सकूँ। हे जल, मुझ में जो भी दुष्ट प्रवृतियाँ हैं, कृपया उन्हें दूर करें, और मेरे मस्तिष्क में विद्यमान समस्त विकारों को दूर करें और मेरे अंतर्मन में जो भी बुराइयाँ हैं उन्हें दूर करें। हे जल, आप जो उत्साही सार से भरे हुए हैं, मैं आपकी शरण में आया हूँ, मैं आप में गहराई से सम्माहित हूं (अर्थात स्नान) से घिरा हुआ है (अग्नि सिद्धांत) जो अग्नि (कर) मुझमें चमक पैदा करे।
| + | आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि। पयस्वानग्न आ गहि तं मा सं सृज वर्चसा॥9॥ (ऋग्वेद)</blockquote>'''भाषार्थ -''' हे जल! आपकी उपस्थिति से वायुमंडल बहुत तरोताजा है, और यह हमें उत्साह और शक्ति प्रदान करता है। आपका शुद्ध सार हमें प्रसन्न करता है, इसके लिए हम आपको आदर देते हैं। हे जल! आप अपना यह शुभ सार, कृपया हमारे साथ साझा करें, जिस प्रकार एक मां की इच्छा होती है कि वह अपने बच्चों को सर्वश्रेष्ठतम प्रदान करे। हे जल! जब आपका उत्साही सार किसी दुखी प्राणी को प्राप्त होता है, तो वह उसे जीवंत कर देता है। हे जल! इसलिए आप हमारे जीवन दाता हैं। हे जल! जब हम आपका सेवन करते हैं तो उसमें शुभ दिव्यता होने की कामना करते हैं। जो शुभकामनाएँ आप में विद्यमान हैं, उसका हमारे अंदर संचरण हो। हे जल! आपकी दिव्यता कृषि भूमियों में भी संचरित हो!। हे जल, मेरा आग्रह है कि आप फसलों का समुचित पोषण करें। हे जल, सोमा ने मूझे बताया कि जल में दुनिया की सभी औषधीय जड़ी बूटियाँ और अग्नि, जो दुनिया को सुख-समृद्धि प्रदान करती है, भी मौजूद है। हे जल, आप में औषधीय जड़ी बूटियाँ प्रचुर मात्रा में समायी हुई हैं; कृपया मेरे शरीर की रक्षा करें, ताकि मैं सूर्य को लंबे समय तक देख सकूं (अर्थात मैं लंबे समय तक जीवित रह सकूँ। हे जल, मुझ में जो भी दुष्ट प्रवृतियाँ हैं, कृपया उन्हें दूर करें, और मेरे मस्तिष्क में विद्यमान समस्त विकारों को दूर करें और मेरे अंतर्मन में जो भी बुराइयाँ हैं उन्हें दूर करें। हे जल, आप जो उत्साही सार से भरे हुए हैं, मैं आपकी शरण में आया हूँ, मैं आप में गहराई से सम्माहित हूं (अर्थात स्नान) से घिरा हुआ है (अग्नि सिद्धांत) जो अग्नि (कर) मुझमें चमक पैदा करे। |
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| | ===पञ्चमहाभूतों में जल का स्थान=== | | ===पञ्चमहाभूतों में जल का स्थान=== |
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| | कूप, कुण्ड, तालाब, सरोवर आदि। | | कूप, कुण्ड, तालाब, सरोवर आदि। |
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| − | '''पुष्करिणी'''
| + | ===पुष्करिणी=== |
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| | पुष्करिणी छोटा गोलाकार पोखर था जिसका व्यास १५० से ३०० फीट तक हो सकता था। | | पुष्करिणी छोटा गोलाकार पोखर था जिसका व्यास १५० से ३०० फीट तक हो सकता था। |
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| − | '''तड़ाग'''
| + | ===तड़ाग === |
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| | तडाग चौकोर आकार का पोखर था जिसकी लम्बाई ३०० से ४५० फीट तक होती थी। | | तडाग चौकोर आकार का पोखर था जिसकी लम्बाई ३०० से ४५० फीट तक होती थी। |
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| − | '''ह्रद'''
| + | ===ह्रद=== |
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| | मत्स्यपुराण में इस प्रसंग में पांचवें वर्ग की चर्चा की गयी है, इसे ह्रद नाम दिया गया है। जिसमें साधारणतः पानी कभी नहीं सूखता हो। | | मत्स्यपुराण में इस प्रसंग में पांचवें वर्ग की चर्चा की गयी है, इसे ह्रद नाम दिया गया है। जिसमें साधारणतः पानी कभी नहीं सूखता हो। |
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| | ===हड़प्पा, लोथल, धोलावीरा में जल निकास=== | | ===हड़प्पा, लोथल, धोलावीरा में जल निकास=== |
| − | सिंधु सभ्यता के बहुत से स्थलों से उन्नत जल प्रबंधन के साक्ष्य हमें प्राप्त होते हैं। सिन्धु सभ्यता के समस्त नगरों में उन्नत जल प्रबंधन की व्यवस्था थी किन्तु तकनीकी निर्माण के दृष्टिकोण से मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानागार, लोथल का डाकयार्ड और धौलावीरा शहर की बनावट का यहाँ उल्लेख आवश्यक हो जाता है - | + | सिंधु सभ्यता के बहुत से स्थलों से उन्नत जल प्रबंधन के साक्ष्य हमें प्राप्त होते हैं। इस सभ्यता के समस्त नगरों में उन्नत जल प्रबंधन की व्यवस्था थी किन्तु तकनीकी निर्माण के दृष्टिकोण से मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानागार, लोथल का डाकयार्ड और धौलावीरा शहर की बनावट का यहाँ उल्लेख आवश्यक हो जाता है - |
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| − | मोहनजोदड़ो से एक बृहत स्नानागार प्राप्त हुआ जिसकी लंबाई १२ मीटर, चौड़ाई ७ मीटर और गहराई २.४ मीटर थी। स्नानागार के जलाशय में उतरने के लिए इसके उत्तरी और दक्षिणी छोर पर सीढियाँ बनी हुई हैं। पूरी बृहत स्नानागार की संरचना पक्की ईंटों से निर्मित हैं और इस पर विटूमिन से पलस्तर किया गया है। जलाशय के पश्चिमी हिस्से में जल निकास हेतु नालियाँ भी प्राप्त हुई है। इस जलाशय में जलापूर्ति का माध्यम निकट ही स्थित एक कुआ था। | + | *मोहनजोदड़ो से एक बृहत स्नानागार प्राप्त हुआ जिसकी लंबाई १२ मीटर, चौड़ाई ७ मीटर और गहराई २.४ मीटर थी। स्नानागार के जलाशय में उतरने के लिए इसके उत्तरी और दक्षिणी छोर पर सीढियाँ बनी हुई हैं। पूरी बृहत स्नानागार की संरचना पक्की ईंटों से निर्मित हैं और इस पर विटूमिन से पलस्तर किया गया है। जलाशय के पश्चिमी हिस्से में जल निकास हेतु नालियाँ भी प्राप्त हुई है। इस जलाशय में जलापूर्ति का माध्यम निकट ही स्थित एक कुआ था। |
| | + | *जल प्रबन्धन का दूसरा प्रमाण मिलता है लोथल के डाकयार्ड से, इसके उत्खननकर्ता एस०आर०राव थे उन्होंने इसका माप २१४x१६ मीटर ऊंचाई तथा गहराई ४.१५ मीटर माना है। इस डाकयार्ड के उत्तरी दीवार में १२ मीटर चौड़ा प्रवेश द्वार भी था। एस०आर० राव का मानना है कि यह प्रवेश द्वार एक नहर के माध्यम से भोगवा नदी से जुड़ा था और इसी नदी के जल से ही इसे जलापूर्ति भी होती है। इसमें उतरने के लिए सँकरी सीढियों का भी निर्माण किया गया था। डाकयार्ड के दक्षिणी भाग में जल निकासी हेतु एक नलिका मार्ग भी बना है, इसके दोनों तरफ सोख्ता गर्ते भी पाये गये हैं। विद्वानों के बीच इसके डाकयार्ड होने या जलाशय होने को लेकर पर्याप्त मतभेद है। जल प्रबन्धन के दृष्टिकोण से चाहे यह डाकयार्ड हो या जलाशय दोनों ही दृष्टि से यह एक उत्कृष्ट जल संरचना है। |
| | + | *सिंधु सभ्यता से तीसरा महत्त्वपूर्ण जल प्रबंधकीय साक्ष्य हमें धौलावीरा शहर के बनावट के अन्तर्गत प्राप्त होता है। धौलावीरा शहर के कच्छ के रन्न में स्थित था जो जल की अभाव वाला क्षेत्र था। इस क्षेत्र में वर्ष भर बहने वाली नदियों और प्राकृतिक झीलों का अभाव पाया जाता है। इसलिये यह आवश्यक हो जाता है यहाँ के निवासी उन्नत जल प्रबन्धन करे जो उन्होंने किया भी। सिन्धु निवासियों ने धौलावीरा शहर का बसाव मानहर और मानसर दो वर्षाकालिक नालियों के मध्य किया। ये दोनों नाले वर्षाकाल में छोटी नदियों की भाँति हो जाते थे। सिन्धु निवासियों ने तकनीकी सूझबूझ का परिचय देते हुए दोनों नाले के वर्षाकालीन जल का प्रयोग अपनी आवश्यकता के लिए किया। |
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| − | जल प्रबन्धन का दूसरा प्रमाण मिलता है लोथल के डाकयार्ड से, इसके उत्खननकर्ता एस०आर०राव थे उन्होंने इसका माप २१४x१६ मीटर ऊंचाई तथा गहराई ४.१५ मीटर माना है। इस डाकयार्ड के उत्तरी दीवार में १२ मीटर चौड़ा प्रवेश द्वार भी था। एस०आर० राव का मानना है कि यह प्रवेश द्वार एक नहर के माध्यम से भोगवा नदी से जुड़ा था और इसी नदी के जल से ही इसे जलापूर्ति भी होती है। इसमें उतरने के लिए सँकरी सीढियों का भी निर्माण किया गया था। डाकयार्ड के दक्षिणी भाग में जल निकासी हेतु एक नलिका मार्ग भी बना है, इसके दोनों तरफ सोख्ता गर्ते भी पाये गये हैं। विद्वानों के बीच इसके डाकयार्ड होने या जलाशय होने को लेकर पर्याप्त मतभेद है। जल प्रबन्धन के दृष्टिकोण से चाहे यह डाकयार्ड हो या जलाशय दोनों ही दृष्टि से यह एक उत्कृष्ट जल संरचना है।
| + | [[File:धोलावीरा में परिष्कृत जलाशय।.jpg|thumb|धोलावीरा में परिष्कृत जलाशय, प्राचीन सिंधु घाटी सभ्यता में हाइड्रोलिक सीवेज सिस्टम्स का प्रमाण।]] |
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| − | सिंधु सभ्यता से तीसरा महत्त्वपूर्ण जल प्रबंधकीय साक्ष्य हमें धौलावीरा शहर के बनावट के अन्तर्गत प्राप्त होता है। धौलावीरा शहर के कच्छ के रन्न में स्थित था जो जल की अभाव वाला क्षेत्र था। इस क्षेत्र में वर्ष भर बहने वाली नदियों और प्राकृतिक झीलों का अभाव पाया जाता है। इसलिये यह आवश्यक हो जाता है यहाँ के निवासी उन्नत जल प्रबन्धन करे जो उन्होंने किया भी। सिन्धु निवासियों ने धौलावीरा शहर का बसाव मानहर और मानसर दो वर्षाकालिक नालियों के मध्य किया। ये दोनों नाले वर्षाकाल में छोटी नदियों की भाँति हो जाते थे। सिन्धु निवासियों ने तकनीकी सूझबूझ का परिचय देते हुए दोनों नाले के वर्षाकालीन जल का प्रयोग अपनी आवश्यकता के लिए किया।
| + | ===मंदिरों में कूप–सरोवर–जलमंडप की योजना=== |
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| − | [[File:धोलावीरा में परिष्कृत जलाशय।.jpg|thumb|धोलावीरा में परिष्कृत जलाशय, प्राचीन सिंधु घाटी सभ्यता में हाइड्रोलिक सीवेज सिस्टम्स का प्रमाण।]] | + | जल जीवन का आधार है और इसके बिना संसार की कोई भी गतिविधि संभव नहीं। जलाशयों की स्थापना केवल भौतिक उपयोग के लिए नहीं, किन्तु एक आध्यात्मिक कार्य भी मानी गई है। वास्तुशास्त्र के अनुसार मंदिर परिसर में स्थित कूप, तड़ाग, सरोवर आदि का निर्माण अत्यंत पुण्यदायी और यज्ञों के तुल्य माना गया है - <blockquote>पानीयमेतत्सकलं त्रैलोक्यं सचराचरम्। विकारः सलिलस्येदं स्थावरं जङ्गमं तथा॥ |
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| | + | कूपः प्रवृत्तपानीयस्त्वर्धं हरति दुष्कृतम्। कूपकृत्स्वर्गमासाद्य देवभोगान्समश्नुते॥ |
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| | + | दशकूप समा वापी तथा च परिकीर्तिता। कृत्वा तडागं च तथा वारुणं लोकमश्नुते॥ (विष्णुधर्मोत्तर पुराण)</blockquote>मंदिरों के समीप जलाशयों की स्थापना का धार्मिक, पर्यावरणीय और सांस्कृतिक उद्देश्य रहा है। ये न केवल जल संग्रहण के साधन हैं, बल्कि आध्यात्मिक ऊर्जा के भी स्रोत होते हैं। इस प्रकार जल की शुद्धता, उपयोगिता और आध्यात्मिक महत्ता देवालय वास्तु के एक अभिन्न अंग के रूप में प्रतिष्ठित है। |
| | + | |
| | + | == रामायण एवं महाभारत में जल व्यवस्था == |
| | + | हमारे महाकाव्यों में भी जल संरचनाओं का वर्णन प्राप्त होता है। रामायण में 'पंपासर' एवं 'पंचाप्सरोतटाक' नामक दो तालाबों का वर्णन मिलता है। राजा भरत के आदेश से अयोध्या एवं शृंगवेरपुर के बीच में कम जल वाले झरनों का जल रोककर, बाँध निर्मित करने को कहा गया है जिससे वे विविध आकारों वाले जलाशयों में परिणत हो गये थे - <blockquote>अथ भूमि प्रदेशज्ञाः सूत्र कर्म विशारदाः। स्व कर्म अभिरताः शूराः खनका यन्त्रकाः तथा॥ |
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| | + | कूप काराः सुधा कारा वम्श कर्म कृतः तथा। समर्था ये च द्रष्टारः पुरतः ते प्रतस्थिरे॥ (बाल्मीकि रामायण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%97%E0%A4%83_%E0%A5%AE%E0%A5%A6 बाल्मीकि रामायण], अयोध्याकाण्ड, सर्ग ८०, श्लोक - १-२।</ref></blockquote>राजा का प्रमुख कर्त्तव्य तालाब और नहरों का निर्माण करवाना भी था। जलाशय, कूप, बाँध, नहरें, झील आदि कृत्रिम रूप से जल प्राप्ति के साधन थे। इन जल संरचनाओं के निर्माणकर्ता अभियांत्रिकों को रामायण में यंत्रकार कहा गया है। |
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| − | ===मंदिरों में कूप–सरोवर–जलमंडप की योजना===
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| − | ==आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जलसंरचना== | + | ==आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जलसंरचना == |
| − | '''वर्षाजल-संग्रह (Rainwater Harvesting) और वास्तु''' | + | '''वर्षाजल-संग्रह और वास्तु॥ Rainwater Harvesting and Vastu''' |
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| | '''जल पुनःचक्रण प्रणाली''' | | '''जल पुनःचक्रण प्रणाली''' |