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देवालय वास्तु (संस्कृतः देवालयवास्तु) अर्थात देवता का निवास स्थान, इस भूलोक में देवता जिस भवन में निवास करते हैं, उस भवन को वास्तुशास्त्र में देवालय तथा प्रासाद कहा गया है। देवालय, राजगृह एवं भवनादि निर्माण में वास्तुशास्त्र का उपयोग वैदिक काल से देखने को प्राप्त होता है।   
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देवालय वास्तु (संस्कृतः देवालयवास्तु) अर्थात देवता का निवास स्थान, इस भूलोक में देवता जिस भवन में निवास करते हैं, उस भवन को वास्तुशास्त्र में देवालय तथा प्रासाद कहा गया है। देवालय, राजगृह एवं भवनादि निर्माण में [[Vastu Shastra (वास्तु शास्त्र)|वास्तुशास्त्र]] का उपयोग वैदिक काल से देखने को प्राप्त होता है।   
    
==परिचय॥ Introduction==
 
==परिचय॥ Introduction==
देवताओं का निवास स्थान देवालय कहलाता है। देवालय शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख शतपथब्राह्मण में प्राप्त होता है। इसको और भी पर्याय नामों से जानते हैं - प्रासाद, देवायतन, देवालय, देवनिकेतन, देवदरबार, देवकुल, देवागार, देवरा, देवकोष्ठक, देवस्थान, देवगृह, ईश्वरालय, मन्दिर इत्यादि।<ref>डॉ० ब्रह्मानन्द मिश्र, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/95467/1/Block-1.pdf प्रासाद, ग्राम एवं नगर-वास्तु], सन २०२३, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० १९)।</ref> इसी प्रकार मन्दिर शब्द संस्कृत भाषा के मन्द शब्द में किरच प्रत्यय लगाकर बना है - <blockquote>मन्द्यते सुप्यते अत्र इति मन्दिरम्।</blockquote>
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सनातन परंपरा में स्थित देवालय वास्तु भारतीय वास्तु-शास्त्र एवं वास्तु-कला का सर्वस्व है।<ref>डॉ० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, [http://14.139.58.199:8080/jspui/bitstream/123456789/14614/1/38000.pdf हिन्दू-प्रासाद], वास्तु-वाङ्मय प्रकाशन-शाला, लखनऊ (पृ० २५)।</ref> देवताओं का निवास स्थान देवालय कहलाता है। देवालय शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में प्राप्त होता है। इसको और भी पर्याय नामों से जानते हैं - प्रासाद, देवायतन, देवालय, देवनिकेतन, देवदरबार, देवकुल, देवागार, देवरा, देवकोष्ठक, देवस्थान, देवगृह, ईश्वरालय, मन्दिर इत्यादि।<ref>डॉ० ब्रह्मानन्द मिश्र, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/95467/1/Block-1.pdf प्रासाद, ग्राम एवं नगर-वास्तु], सन २०२३, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० १९)।</ref> इसी प्रकार मन्दिर शब्द संस्कृत भाषा के मन्द शब्द में किरच प्रत्यय के योग से व्युत्पन्न है -<blockquote>मन्द्यते सुप्यते अत्र इति मन्दिरम्।</blockquote>
 
मन्दिर शब्द शिथिल व विश्रान्ति का वाचक होने से मूलतः गृह के लिए प्रयुक्त होता था, किन्तु कालान्तर में अर्थान्तरित होकर देवगृह के लिए रूढ हो गया। देवालय निर्माण के आरम्भ से लेकर बाद तक, देवप्रतिष्ठा तक सात कर्म होते हैं। जिन्हें विधि के अनुसार पूर्ण करना चाहिये।<ref>डॉ द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, [https://ia601404.us.archive.org/15/items/in.ernet.dli.2015.406384/2015.406384.Prasad-Nivesh_text.pdf प्रासाद-निवेश], सन १९६८, वास्तु-वाङ्मय-प्रकाशन शाला, लखनऊ (पृ० १३)।</ref> ये कर्म हैं -<blockquote>कूर्म्मसंस्थापने द्वारे पद्माख्यायां तु पौरुषे। घटे ध्वजे प्रतिष्ठायां एवं पुण्याहसप्तकम्॥ (प्रासादमण्डनम्)</blockquote>कूर्मस्थापना, द्वार स्थापना, पद्मशिला स्थापना, प्रासाद पुरुष की स्थापना, कलश, ध्वजा रोहण तथा देव प्रतिष्ठा ये प्रमुख सात कर्म होते हैं। अग्निपुराण में कहा गया है -  <blockquote>प्रासादं पुरुषं मत्वा पूजयेद् मन्त्रवित्तमः। एवमेव हरिः साक्षात् प्रासादत्वेन संस्थितः॥ (अग्निपुराण) </blockquote>मन्दिर का स्वरूप लेटे हुए पुरुष के समान कल्पित किया जाता है। जिसमें गोपुर पैर, सभामण्डप उदरभाग तथा गर्भगृह मुख्यभाग होता है। मोहनजोदड़ॊ, हड़प्पा, लोथल आदि स्थानों की खनन के साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि देवालय निर्माण की व्यवस्था उस समय भी व्याप्त थी।   
 
मन्दिर शब्द शिथिल व विश्रान्ति का वाचक होने से मूलतः गृह के लिए प्रयुक्त होता था, किन्तु कालान्तर में अर्थान्तरित होकर देवगृह के लिए रूढ हो गया। देवालय निर्माण के आरम्भ से लेकर बाद तक, देवप्रतिष्ठा तक सात कर्म होते हैं। जिन्हें विधि के अनुसार पूर्ण करना चाहिये।<ref>डॉ द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, [https://ia601404.us.archive.org/15/items/in.ernet.dli.2015.406384/2015.406384.Prasad-Nivesh_text.pdf प्रासाद-निवेश], सन १९६८, वास्तु-वाङ्मय-प्रकाशन शाला, लखनऊ (पृ० १३)।</ref> ये कर्म हैं -<blockquote>कूर्म्मसंस्थापने द्वारे पद्माख्यायां तु पौरुषे। घटे ध्वजे प्रतिष्ठायां एवं पुण्याहसप्तकम्॥ (प्रासादमण्डनम्)</blockquote>कूर्मस्थापना, द्वार स्थापना, पद्मशिला स्थापना, प्रासाद पुरुष की स्थापना, कलश, ध्वजा रोहण तथा देव प्रतिष्ठा ये प्रमुख सात कर्म होते हैं। अग्निपुराण में कहा गया है -  <blockquote>प्रासादं पुरुषं मत्वा पूजयेद् मन्त्रवित्तमः। एवमेव हरिः साक्षात् प्रासादत्वेन संस्थितः॥ (अग्निपुराण) </blockquote>मन्दिर का स्वरूप लेटे हुए पुरुष के समान कल्पित किया जाता है। जिसमें गोपुर पैर, सभामण्डप उदरभाग तथा गर्भगृह मुख्यभाग होता है। मोहनजोदड़ॊ, हड़प्पा, लोथल आदि स्थानों की खनन के साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि देवालय निर्माण की व्यवस्था उस समय भी व्याप्त थी।   
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#प्रमुख द्वार की ऊँचाई-चौडाई की दोगुनी तथा भवन की ऊँचाई की चौथाई (१/४) होनी चाहिए।
 
#प्रमुख द्वार की ऊँचाई-चौडाई की दोगुनी तथा भवन की ऊँचाई की चौथाई (१/४) होनी चाहिए।
 
#प्रमुख मूर्ति की ऊँचाई द्वार की ऊँचाई की १/८ हो।
 
#प्रमुख मूर्ति की ऊँचाई द्वार की ऊँचाई की १/८ हो।
#मूर्ति और उसके आधार (Pedestal) में २/३:१/३ का अनुपात हो।
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# मूर्ति और उसके आधार (Pedestal) में २/३:१/३ का अनुपात हो।
    
देवगढ (ललित पुर) एवं मुंडेश्वरी (बिहार) में गुप्तकाल के मंदिर (६०० ई०) में उपर्युक्त बातों का ध्यान रखा गया है। उत्तर भारत के अधिकतर मंदिरों का निर्माण समरांगणसूत्रधार (१०५० ई०) तथा अपराजित पृच्छा (१२०० ई०) के आधार पर हुआ है। समरांगणसूत्रधार के अनुसार जगती (Platform terrace) प्रमुख प्रासाद की चौडाई से १/३ अधिक चौडा होना चाहिए तथा इसकी ऊँचाई निम्नलिखित अनुपात में होनी चाहिए -<ref>श्वेता उप्पल, [https://www.ncert.nic.in/pdf/publication/otherpublications/sanskrit_vangmay.pdf संस्कृत वाङ्मय में विज्ञान का इतिहास-अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी], सन २०१८, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद, दिल्ली (पृ० १०८)।</ref>  
 
देवगढ (ललित पुर) एवं मुंडेश्वरी (बिहार) में गुप्तकाल के मंदिर (६०० ई०) में उपर्युक्त बातों का ध्यान रखा गया है। उत्तर भारत के अधिकतर मंदिरों का निर्माण समरांगणसूत्रधार (१०५० ई०) तथा अपराजित पृच्छा (१२०० ई०) के आधार पर हुआ है। समरांगणसूत्रधार के अनुसार जगती (Platform terrace) प्रमुख प्रासाद की चौडाई से १/३ अधिक चौडा होना चाहिए तथा इसकी ऊँचाई निम्नलिखित अनुपात में होनी चाहिए -<ref>श्वेता उप्पल, [https://www.ncert.nic.in/pdf/publication/otherpublications/sanskrit_vangmay.pdf संस्कृत वाङ्मय में विज्ञान का इतिहास-अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी], सन २०१८, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद, दिल्ली (पृ० १०८)।</ref>  
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!जगती की ऊँचाई
 
!जगती की ऊँचाई
 
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| १५ फुट तक
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|मंदिर की ऊँचाई का आधा (१/२)
 
|मंदिर की ऊँचाई का आधा (१/२)
 
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अपराजित पृच्छ द्वारा दिया गया पीठ (Socle) एवं प्रासाद (Entire edifice) की ऊँचाइयों का अनुपात अधिक व्यावहारिक है।
 
अपराजित पृच्छ द्वारा दिया गया पीठ (Socle) एवं प्रासाद (Entire edifice) की ऊँचाइयों का अनुपात अधिक व्यावहारिक है।
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===देवालय निर्माण का स्थान॥ Place of temple construction ===  
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===देवालय निर्माण का स्थान॥ Place of temple construction===  
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वास्तुशास्त्र में देवालय निर्माण को सर्वाधिक महत्व प्राप्त है। मयमतम्, मानसार, ब्रह्मांडपुराण, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, अग्निपुराण आदि में देवालय वास्तु के विस्तृत विवरण मिलते हैं। देवालय का निर्माण दिशाओं, मापन, अनुपात, स्थल चयन और ऊर्जा प्रवाह के संतुलन पर आधारित होते हैं। देवालय का निर्माण शास्त्रों में बताए गये स्थानों पर ही करना चाहिए। जैसा कि प्रासादमण्डन ग्रन्थ में प्राप्त होता है -  <blockquote>नद्यां सिद्धाश्रमे तीर्थे पुरे ग्रामे च गह्वरे। वापी-वाटी तडागादी स्थाने कार्यं सुरालयम्॥ (प्रासादमण्डनम्) </blockquote>'''भाषार्थ -''' नदी के तट पर, सिद्धपुरुषों के निर्वाण स्थान, तीर्थ भूमि, शहर, गांव, पर्वत की गुफाओं में, बावडी, उपवन और तालाब आदि स्थलों पर मन्दिर का निर्माण करना चाहिए। बृहत्संहिता में वराहमिहिर जी लिखते है -<blockquote>कृत्वा प्रभूतं सलिलमारामान् विनिवेश्य च। देवतायतनं कुर्याद् यशोधर्माभिवृद्धये॥ (बृहत्संहिता) </blockquote>'''भाषार्थ -''' अपने यश और धर्म की अभिवृद्धि चाहने वाले मनुष्य को जल से युक्त जलाशय का निर्माण, वृक्षारोपण व वाटिका आदि बनवाकर देव-मन्दिर का निर्माण करना चाहिए।  
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वास्तुशास्त्र में देवालय निर्माण को सर्वाधिक महत्व प्राप्त है। मयमतम्, मानसार, ब्रह्मांडपुराण, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, अग्निपुराण आदि में देवालय वास्तु के विस्तृत विवरण मिलते हैं। देवालय का निर्माण दिशाओं, मापन, अनुपात, स्थल चयन और ऊर्जा प्रवाह के संतुलन पर आधारित होते हैं। देवालय का निर्माण शास्त्रों में बताए गये स्थानों पर ही करना चाहिए। जैसा कि प्रासादमण्डन ग्रन्थ में प्राप्त होता है -  <blockquote>नद्यां सिद्धाश्रमे तीर्थे पुरे ग्रामे च गह्वरे। वापी-वाटी तडागादी स्थाने कार्यं सुरालयम्॥ (प्रासादमण्डनम्) </blockquote>'''भाषार्थ -''' नदी के तट पर, सिद्धपुरुषों के निर्वाण स्थान, [[Tirtha kshetra (तीर्थ क्षेत्र)|तीर्थ भूमि]], शहर, गांव, पर्वत की गुफाओं में, बावडी, उपवन और तालाब आदि स्थलों पर मन्दिर का निर्माण करना चाहिए। बृहत्संहिता में [[Varahamihira (वराहमिहिर)|वराहमिहिर]] जी लिखते है -<blockquote>कृत्वा प्रभूतं सलिलमारामान् विनिवेश्य च। देवतायतनं कुर्याद् यशोधर्माभिवृद्धये॥ (बृहत्संहिता) </blockquote>'''भाषार्थ -''' अपने यश और धर्म की अभिवृद्धि चाहने वाले मनुष्य को जल से युक्त जलाशय का निर्माण, वृक्षारोपण व वाटिका आदि बनवाकर देव-मन्दिर का निर्माण करना चाहिए।  
    
===स्थल चयन एवं भूमिपूजन॥ Bhumi Nirupana===
 
===स्थल चयन एवं भूमिपूजन॥ Bhumi Nirupana===
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देववास्तु के अनुसार भारत के मंदिरों को साधारणतया तीन शैलियों में वर्गीकृत किया गया है -<ref>देवेन्द्र नाथ ओझा, [https://www.researchgate.net/publication/369142874_Daiv_Vastu_Ki_Vividha_Shailiyon_Ka_Vimarsh_deva_vastu_ki_vividha_sailiyom_ka_vimarsa देव वास्तु की विविध शैलियों का विमर्श], सन २०२०, सेंट्रल संस्कृत यूनिवर्सिटी, उत्तराखण्ड (पृ० ९६)।</ref>  
 
देववास्तु के अनुसार भारत के मंदिरों को साधारणतया तीन शैलियों में वर्गीकृत किया गया है -<ref>देवेन्द्र नाथ ओझा, [https://www.researchgate.net/publication/369142874_Daiv_Vastu_Ki_Vividha_Shailiyon_Ka_Vimarsh_deva_vastu_ki_vividha_sailiyom_ka_vimarsa देव वास्तु की विविध शैलियों का विमर्श], सन २०२०, सेंट्रल संस्कृत यूनिवर्सिटी, उत्तराखण्ड (पृ० ९६)।</ref>  
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#उत्तर भारत के मंदिर - नागर शैली
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# उत्तर भारत के मंदिर - नागर शैली
 
#मध्यवर्ती भारत के मंदिर - चालुक्य अथवा बेसर-शैली
 
#मध्यवर्ती भारत के मंदिर - चालुक्य अथवा बेसर-शैली
 
#दक्षिण भारत के मंदिर - द्राविड़ शैली
 
#दक्षिण भारत के मंदिर - द्राविड़ शैली
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!नागर
 
!नागर
 
!द्राविड
 
!द्राविड
! वेशर
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!वेशर
 
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|हिमालय से विंध्य
 
|हिमालय से विंध्य
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#मूल या आधार - जिस पर सम्पूर्ण भवन खड़ा किया जाता है।
 
#मूल या आधार - जिस पर सम्पूर्ण भवन खड़ा किया जाता है।
#मसूरक - नींव और दीवारों के बीच का भाग।
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# मसूरक - नींव और दीवारों के बीच का भाग।
 
#जंघा - दीवारें (विशेष रूप से गर्भगृह आदि की दीवारें)।
 
#जंघा - दीवारें (विशेष रूप से गर्भगृह आदि की दीवारें)।
 
#कपोत- कार्निस।
 
#कपोत- कार्निस।
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|शिखर सामान्यतः एक-मंजिले
 
|शिखर सामान्यतः एक-मंजिले
| शिखर सामान्यतः बहु-मंजिले
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|शिखर सामान्यतः बहु-मंजिले
 
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|गर्भगृह के सामने मण्डप आवश्यक नहीं, प्रायः शिखरविहीन मण्डप, चावडी या चौलित्री के रूप में स्तंभ युक्त महाकक्ष
 
|गर्भगृह के सामने मण्डप आवश्यक नहीं, प्रायः शिखरविहीन मण्डप, चावडी या चौलित्री के रूप में स्तंभ युक्त महाकक्ष
 
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|द्वार के रूप में सामान्यतः तोरण द्वार
 
|द्वार के रूप में सामान्यतः तोरण द्वार
 
|द्वार के रूप में सामान्यतः विशाल गोपुरम्
 
|द्वार के रूप में सामान्यतः विशाल गोपुरम्
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|मंदिर का सामान्य परिसर
 
|मंदिर का सामान्य परिसर
|मंदिर का विशाल प्रांगण
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| मंदिर का विशाल प्रांगण
 
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