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| | == देवालय निर्माण के आधारभूत सिद्धान्त == | | == देवालय निर्माण के आधारभूत सिद्धान्त == |
| | + | प्रासादों या मंदिरों के निर्माण में ईंटों एवं पाषाणों का प्रयोग किया जाता था। इनके प्रमुख भागों-मंडप, शिखर, कदलीकरण, अधिष्ठान (Base), पीठ, उपपीठ आदि का विभिन्न ग्रन्थों में उल्लेख प्राप्त होता है। वराहमिहिर रचित बृहत्संहिता के अनुसार -<ref>आचार्य वराह मिहिर, व्याख्याकार- पं० अच्युतानन्द झा, [https://archive.org/details/brihat-samhita-/%E0%A4%AC%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE%20Brihat%20samhita%C2%A0_3/page/n137/mode/1up बृहत्संहिता-विमला हिन्दीव्याख्यायुता], अध्याय - ५६, प्रासादलक्षण, सन २०१४, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी (पृ० १२७)।</ref> |
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| | + | #मंदिर की ऊंचाई उसकी चौडाई से दोगुनी होनी चाहिए। |
| | + | #कटि तक का भाग कुल ऊँचाई का एक-तिहाई (१/३) होना चाहिए। |
| | + | #मंदिर के प्रमुख भाग की आंतरिक चौडाई मंदिर के बाह्यभाग की चौडाई से आधी (१/२) होनी चाहिए। |
| | + | #प्रमुख द्वार की ऊँचाई-चौडाई की दोगुनी तथा भवन की ऊँचाई की चौथाई (१/४) होनी चाहिए। |
| | + | #प्रमुख मूर्ति की ऊँचाई द्वार की ऊँचाई की १/८ हो। |
| | + | #मूर्ति और उसके आधार (Pedestal) में २/३:१/३ का अनुपात हो। |
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| | + | देवगढ (ललित पुर) एवं मुंडेश्वरी (बिहार) में गुप्तकाल के मंदिर (६०० ई०) में उपर्युक्त बातों का ध्यान रखा गया है। उत्तर भारत के अधिकतर मंदिरों का निर्माण समरांगणसूत्रधार (१०५० ई०) तथा अपराजित पृच्छा (१२०० ई०) के आधार पर हुआ है। समरांगणसूत्रधार के अनुसार जगती (Platform terrace) प्रमुख प्रासाद की चौडाई से १/३ अधिक चौडा होना चाहिए तथा इसकी ऊँचाई निम्नलिखित अनुपात में होनी चाहिए -<ref>श्वेता उप्पल, [https://www.ncert.nic.in/pdf/publication/otherpublications/sanskrit_vangmay.pdf संस्कृत वाङ्मय में विज्ञान का इतिहास-अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी], सन २०१८, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद, दिल्ली (पृ० १०८)।</ref> |
| | + | {| class="wikitable" |
| | + | |+ |
| | + | !मंदिर की ऊँचाई |
| | + | !जगती की ऊँचाई |
| | + | |- |
| | + | |१५ फुट तक |
| | + | |मंदिर की ऊँचाई का आधा (१/२) |
| | + | |- |
| | + | |१६-३० फुट तक |
| | + | |मंदिर की ऊँचाई का तिहाई (१/३) |
| | + | |- |
| | + | |३१-७५ फुट तक |
| | + | |मंदिर की ऊँचाई का चौथाई (१/४) |
| | + | |} |
| | + | अपराजित पृच्छ द्वारा दिया गया पीठ (Socle) एवं प्रासाद (Entire edifice) की ऊँचाइयों का अनुपात अधिक व्यावहारिक है। |
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| | ===भूमि निरूपण=== | | ===भूमि निरूपण=== |
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| | देववास्तु के अनुसार भारत के मंदिरों को साधारणतया तीन शैलियों में वर्गीकृत किया गया है -<ref>देवेन्द्र नाथ ओझा, [https://www.researchgate.net/publication/369142874_Daiv_Vastu_Ki_Vividha_Shailiyon_Ka_Vimarsh_deva_vastu_ki_vividha_sailiyom_ka_vimarsa देव वास्तु की विविध शैलियों का विमर्श], सन २०२०, सेंट्रल संस्कृत यूनिवर्सिटी, उत्तराखण्ड (पृ० ९६)।</ref> | | देववास्तु के अनुसार भारत के मंदिरों को साधारणतया तीन शैलियों में वर्गीकृत किया गया है -<ref>देवेन्द्र नाथ ओझा, [https://www.researchgate.net/publication/369142874_Daiv_Vastu_Ki_Vividha_Shailiyon_Ka_Vimarsh_deva_vastu_ki_vividha_sailiyom_ka_vimarsa देव वास्तु की विविध शैलियों का विमर्श], सन २०२०, सेंट्रल संस्कृत यूनिवर्सिटी, उत्तराखण्ड (पृ० ९६)।</ref> |
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| − | # उत्तर भारत के मंदिर - नागर शैली | + | #उत्तर भारत के मंदिर - नागर शैली |
| | #मध्यवर्ती भारत के मंदिर - चालुक्य अथवा बेसर-शैली | | #मध्यवर्ती भारत के मंदिर - चालुक्य अथवा बेसर-शैली |
| | #दक्षिण भारत के मंदिर - द्राविड़ शैली | | #दक्षिण भारत के मंदिर - द्राविड़ शैली |