| | अर्जेण्टीना में १९७७ ईस्वी में आयोजित युनाइटेड नेशन्स की इण्टरनेशनल कॉन्फ्रेंस में भूगर्भ जल के बारे में विचारणा हुई थी। इसमें बताया गया था कि विश्व में जल की ९५ प्रतिशत राशि समुद्रों एवं महासागरों में है। ४ प्रतिशत हिम बर्फ एवं स्थायी भूमि के स्वरूप में हैं। केवल १ प्रतिशत जल राशि ही भूगर्भ जल के रूप में प्राप्त होता है।<ref name=":1">टंकेश्वरी पटेल, [https://www.researchgate.net/publication/339378721_brhatsanhita_mem_bhugarbha_jalavidya बृहत्संहिता में भूगर्भ जलविद्या], सन् २०१५, देव संस्कृति इण्टरडिस्किप्लिनरी इण्टरनेशनल जर्नल (पृ० २६)।</ref> | | अर्जेण्टीना में १९७७ ईस्वी में आयोजित युनाइटेड नेशन्स की इण्टरनेशनल कॉन्फ्रेंस में भूगर्भ जल के बारे में विचारणा हुई थी। इसमें बताया गया था कि विश्व में जल की ९५ प्रतिशत राशि समुद्रों एवं महासागरों में है। ४ प्रतिशत हिम बर्फ एवं स्थायी भूमि के स्वरूप में हैं। केवल १ प्रतिशत जल राशि ही भूगर्भ जल के रूप में प्राप्त होता है।<ref name=":1">टंकेश्वरी पटेल, [https://www.researchgate.net/publication/339378721_brhatsanhita_mem_bhugarbha_jalavidya बृहत्संहिता में भूगर्भ जलविद्या], सन् २०१५, देव संस्कृति इण्टरडिस्किप्लिनरी इण्टरनेशनल जर्नल (पृ० २६)।</ref> |
| | + | भूगर्भ से प्राप्त जल पूर्व के समय में वापी (कुआं) अथवा तडाग (तालाब) में संचित होता था तथा इसका उपयोग दैनिक कार्यों हेतु किया जाता था। कुए ही मुख्य रूप से जल प्राप्ति के साधन होते थे। इन कूपों का जल विभिन्न कारणों से दूषित हो जाता था अथवा कुछ स्थानों पर जल का स्वाद उपयुक्त नहीं होता था। इसलिये इस दूषित जल से जलजनित रोगों की सम्भावना रहती थी। अतएव आचार्यों ने भारतीय शास्त्रों में इनके शुद्धार्थ औषधियों के प्रक्षेपण का विधान किया है। कूप में डालने के लिए द्रव्यों का वर्णन करते हुए वराहमिहिर कहते हैं - <blockquote>अञ्जनमुस्तोशीरैः सराजकोशातकामलक चूर्णैः। कतकफलसमायुक्तैर्योगः कूपे प्रदातव्यः॥ (बृहत्संहिता)<ref>बलदेवप्रसाद मिश्र, [https://archive.org/details/brihat-samhita-/%E0%A4%AC%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE%20Brihat%20Samhita%20B.P%20Mishra/page/n293/mode/1up बृहत्संहिता] अनुवाद सहित, अध्याय-५४, श्लोक-१२१, सन १९५४, लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर प्रेस, मुंबई (पृ० २७४)।</ref></blockquote>अर्थात अञ्जन, मोथा, खश, राजकोशातक, आँवला, कतक का फल इन सभी का चूर्ण बनाकर कुएं में डालना चाहिए। इन औषधि से क्या लाभ होता है यह स्पष्ट करते हुए लिखा है कि - <blockquote>कलुषं कटुकं लवणं विरसं सलिलं यदि वाशुभगन्धि भवेत्। तदनेन भवत्यमलं सुरसं सुसुगन्धिगुणैरपरैश्च युतम्॥ (बृहत्संहिता)<ref>बलदेवप्रसाद मिश्र, [https://archive.org/details/brihat-samhita-/%E0%A4%AC%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE%20Brihat%20Samhita%20B.P%20Mishra/page/n293/mode/1up बृहत्संहिता] अनुवाद सहित, अध्याय-५४, श्लोक-१२२, सन १९५४, लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर प्रेस, मुंबई (पृ० २७४)।</ref></blockquote>इन द्रव्यों के प्रयोग से गन्दला, कडुआ, खारा, बेस्वाद या दुर्गन्ध वाला जल निर्मल, मधुर, सुगन्धित और अनेक गुणों से युक्त हो जाता है। |