Difference between revisions of "Shadgunya (षाड्गुण्य)"
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− | षाड्गुण्य भारतीय राजनीति का मौलिक सिद्धांत है, जिसमें राजा को संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय गुणों को ग्रहण करने का परामर्श दिया गया है। षाड्गुण्य का शाब्दिक अर्थ है - छः गुणों का समुच्चय। जो राजा षाड्गुण्य [[Niti Shastra (नीति शास्त्र)|नीति]] का उचित प्रयोग करता है वह सफलता प्राप्त करता है। षाड्गुण्य का वर्णन मनुस्मृति, [[Mahabharat (महाभारत)|महाभारत]], अग्निपुराण, हरिवंशपुराण, कौटिल्य के अर्थशास्त्र, पंचतन्त्र आदि कई ग्रन्थों में मिलता है। | + | षाड्गुण्य भारतीय राजनीति का मौलिक सिद्धांत है, मनु और कौटिल्य ने राज्य के परराष्ट्रीय संबंधों के लिए षाड्गुण्य नीति बतलाया है जिसके अनुसार राज्य के दूसरे देशों के साथ अपने संबंध किस परिस्थिति में कैसा रखना चाहिए। उन्होंने परराष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के 6 प्रकार बताये हैं जिसमें राजा को संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय गुणों को ग्रहण करने का परामर्श दिया गया है। षाड्गुण्य का शाब्दिक अर्थ है - छः गुणों का समुच्चय। जो राजा षाड्गुण्य [[Niti Shastra (नीति शास्त्र)|नीति]] का उचित प्रयोग करता है वह सफलता प्राप्त करता है। षाड्गुण्य का वर्णन मनुस्मृति, [[Mahabharat (महाभारत)|महाभारत]], अग्निपुराण, हरिवंशपुराण, कौटिल्य के अर्थशास्त्र, पंचतन्त्र आदि कई ग्रन्थों में मिलता है। वर्तमान समय में, यह नीति रक्षा और सुरक्षा की समकालीन चुनौतियों के समाधान के लिए उपयोगी हो सकती है। |
− | == | + | ==परिचय॥ Introduction== |
− | षाड्गुण्य | + | प्राचीन भारतीय चिन्तकों ने राजनीतिशास्त्र से सम्बद्ध विविध विषयों का सांगोपांग एवं अतिसूक्ष्म दृष्टि से विवेचन किया है। षाड्गुण्य एक प्राचीन भारतीय अवधारणा है, जिसका अर्थ है छह गुणों का संग्रह। जिसमें वह राजा को संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय गुणों को ग्रहण करने का परामर्श देते है। इसी के माध्यम से राजा सूचनायें एकत्र करता था ललितासहस्रनामस्तोत्र में भी देवी को षाड्गुण्य-परिपूरिता नाम के द्वारा सम्बोधित किया गया है। आचार्य कौटिल्य ने अन्तर्राष्ट्रीय एवं अन्तर्राज्य सम्बन्धों के सन्दर्भ में परराष्ट्र नीति अथवा सुरक्षा नीति के संचालन के लिए षाड्गुण्य नीति को आधार माना है -<blockquote>एवं षड्भिर्गुणैरेतैः स्थितः प्रकृतिमण्डले। पर्येषेत क्षयात स्थान, स्थानात् वृद्धिं च कर्मसु॥ (अर्थशास्त्र ७/६)</blockquote>अर्थात राजा अपने प्रकृतिमण्डल में स्थित षाड्गुण्य-नीति द्वारा क्षीणता से स्थिरता की ओर वृद्धि की अवस्था में जाने की चेष्टा करें। इस नीति के अन्तर्गत प्राचीन छह कूटनीतिक सिद्धान्त शामिल हैं, जो राजा या राष्ट्र को अपनी रक्षा और विस्तार के लिए अपनाने होते हैं - |
− | + | #'''संधि (Alliance):''' शत्रु से मित्रता स्थापित करना। | |
+ | #'''विग्रह (Hostility):''' शत्रुता को अपनाना। | ||
+ | #'''आसन (Neutrality):''' तटस्थ रहना। | ||
+ | #'''यान (March):''' युद्ध की तैयारी करना। | ||
+ | #'''संश्रय (Seeking shelter):''' दूसरे राज्य से सहयोग मांगना। | ||
+ | #'''द्वैधीभाव (Dual policy):''' दोहरी नीति अपनाना। | ||
− | + | अग्नि पुराण में षाड्गुण्य नीति के सिद्धांतों का वर्णन युद्धकालीन और शांति कालीन परिस्थितियों में कूटनीतिक उपायों के संदर्भ में किया गया है। यह नीति बताती है कि राज्य को अपने संसाधनों, जनबल और शत्रु की स्थिति का आकलन करके नीति का चयन करना चाहिए एवं देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप षाड्गुण्य नीति में परिवर्तन कर लेना चाहिये। | |
− | ==स्मृतिशास्त्र एवं | + | ==परिभाषा॥ Definition== |
+ | अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के सन्दर्भ में षड्गुण का सिद्धांत बहुत महत्वपूर्ण है। यहाँ गुण का अर्थ है रस्सी अर्थात शत्रु को बाँधने या जकडने के छह साधन। षड्गुणों का उल्लेख करते हुए आचार्य ने कहा है - <blockquote>सन्धि-विग्रह-आसन-यान-संश्रय-द्वैधीभावाः षाड्गुण्यम्। (6.1.2)</blockquote>ये ही छः गुण हैं - संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय। संधि का अर्थ है - शमः सन्धिः अर्थात शान्ति ही सन्धि है। कौटिल्य पुनः कहते हैं - <blockquote>पणबन्धः सन्धिः। (6.1.6)</blockquote>अर्थात कुछ शर्तें आपस में निश्चित करके विवाद को सुलझाना। राजनीतिक विचारकों ने अनेक प्रकार की संधियों का निरूपण किया है। अनेक बार सन्धि बलवान शत्रु को भूमि, सोना या सेना देकर सन्धि करनी पडती है। | ||
+ | |||
+ | विग्रह की परिभाषा - अपकारो विग्रहः। (6.1.7) अर्थात नाना प्रकार से शत्रु की हानि करना। | ||
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+ | ==प्राचीन ग्रंथ और षाड्गुण्य नीति॥ Prachina Granth aur Shadgunya Niti== | ||
+ | भारतीय राजनीति | ||
+ | |||
+ | ===रामायण-षाड्गुण्य नीति॥ Ramayana-Shadgunya Niti=== | ||
+ | अयोध्याकाण्ड के सौंवे अध्याय में श्रीरामचन्द्र जी भरत से कहते हैं कि षाड्गुण्य नीति का उपयोग-अनुपयोग अच्छे से जानकर उनका प्रयोग करो। बाल्मीकि रामायण में हमें मूलतः सन्धि और विग्रह दो प्रकार का ही वर्णन देखने को मिलता है - <ref>डॉ० दीपिका शर्मा, [https://www.granthaalayahpublication.org/Arts-Journal/ShodhKosh/article/view/2388/2132 षाड्गुण्य की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि], सन-मार्च 2024, शोधकोश: जर्नल ऑफ विजुअल एंड परफॉर्मिंग आर्ट्स (पृ० 524)।</ref><blockquote>इन्द्रियाणां जयं बुद्ध्वा षाड्गुण्यं दैवमानुषम्। कृत्यं विंशतिवर्गं च तथा प्रकृतिमण्डलम्॥ | ||
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+ | यात्रा दण्डविधानं च द्वियोनी सन्धिविग्रहौ। किञ्चिदेतान् महाप्राज्ञ यथावदनुमन्यसे॥ (अयोध्याकाण्ड, १००वां सर्ग, 69.70 श्लोक)</blockquote>भाषार्थ - आसन योनि-विग्रह हैं। अर्थात प्रथम दो द्वैधीभाव और समाश्रय योनि-संधि हैं और यान सन्धि मूलक हैं और अंतिम दो विग्रह मूलक हैं। | ||
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+ | ===महाभारत-षाड्गुण्य नीति॥ Mahabharata-Shadgunya Niti === | ||
+ | शांतिपर्व में पितामह भीष्म जी युधिष्ठिर को कहते हैं कि राजनीति के छः गुण होते हैं - सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय। राजा इन सबके गुण-दोष पर सदा ध्यान रखना चाहिए - | ||
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+ | 1. सन्धि शत्रु यदि अपने से शक्तिशाली हो, तो उससे मेल कर लेना सन्धि कहलाता है। यह तीन प्रकार का होता है - <blockquote>सन्धिश्च त्रिविधाभिख्यो हीनमध्यस्तथोत्तमः। भयसत्कारवित्ताख्यः कार्त्स्येन परिवर्णितः॥ (म० भा० 12. 59. 37)</blockquote>भय के कारण की गयी सन्धि हीन सन्धि, सत्कार के कारण की गयी सन्धि मध्यम सन्धि और वित्त-ग्रहण द्वारा की गयी सन्धि उत्तम सन्धि कहलाती है। | ||
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+ | 2. विग्रह-यदि दोनों पक्ष समान शक्तिशाली हों, तो युद्ध जारी रखना विग्रह कहलाता है। यह दो प्रकार का होताहै - स्वयं किसी शत्रु पर आक्रमण करना या अपने मित्र पक्ष पर आक्रमण होने पर उस मित्र की रक्षा के लिए आक्रमणकारी पर आक्रमण करना। इसके संबंध में कहा गया है - | ||
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+ | एवं मे वर्तमानस्य स्वसु तेष्वितरेषु च। भेदो न भविता लोके भेदमूलो हि विग्रहः॥ (म० भा० 2. 4. 28) | ||
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+ | 3. यान - शत्रु यदि दुर्बल हो तो उस अवस्था में उस पर आक्रमण करना यान कहलाता है। | ||
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+ | 4. आसन - शत्रु की ओर से आक्रमण होने पर अपने दुर्ग आदि में छिपाये रखना आसन कहलाता है। | ||
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+ | 5. द्वैधीभाव - शत्रु यदि मध्य श्रेणी का हो, तो द्वैधीभाव का आश्रय लेना चाहिए अर्थात ऊपर से कुछ और व्यवहार तथा भीतर से कुछ और व्यवहार। जैसे आधी सेना को आत्मरक्षार्थ अपने पास रखना और शेष के द्वारा अन्नादि भंडार पर आक्रमण कर देना आदि। | ||
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+ | 6. समाश्रय - कोई प्रबल शत्रु अपने ऊपर चढाई कर दे और उसका प्रतिकार करने में असमर्थ समझने पर आक्रमणकारी से भी प्रबल राजा का आश्रय लेकर आत्मरक्षा करना समाश्रय कहलाता है - | ||
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+ | उच्छ्रितानाश्रयेत् स्फीतान्नरेन्द्रानचलोपमान्। श्रयेच्छायामविज्ञातां गुप्तं शरणमाश्रयेत् ॥ (म० भा० 12. 120. 12) | ||
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+ | ===शुक्रनीति - षाड्गुण्य सिद्धांत ॥ Shukraniti - Shadgunya Siddhanta=== | ||
+ | आचार्य के अनुसार सन्धि, विग्रह, यान, आसन, समाश्रय और द्वैधीभाव इन छह गुणों का बोध राजा को होना चाहिये - | ||
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+ | सन्धिं च विग्रहं यानमासनं च समाश्रयम्। द्वैधीभावं च संविद्यान्मंत्रस्यैतांस्तु षड्गुणान्॥ (शुक्रनीति 4.7.234) | ||
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+ | 1. संधि - अतिशक्तिशाली शत्रु भी जिस काम से मित्र बन जाय, उसे सन्धि कहते हैं - | ||
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+ | याभिः क्रियाभिर्बलवान् मित्रतां याति वै रिपुः। सा क्रिया सन्धिरित्युक्ता विमृशेत् तां तु यत्नतः॥ (शुक्रनीति 4.7.239) | ||
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+ | 2. विग्रह - जिस काम से शत्रु पीडित होकर अधीनता स्वीकारा कर ले, उसे विग्रह कहते हैं - | ||
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+ | विकर्षितः सन् वाघीनो भवेच्छत्रुस्तु येन वै। कर्मणा विग्रहस्तं तु चिन्तयेन्मन्त्रिभिर्नृपः॥ (शुक्रनीति 4.7.239) जो राजा विपत्ति में घिरकर दूसरों से पीडित होते हुए भी पुनः यदि अपना अभ्युदय चाहता है तो देश, काल और उपयुक्त बल मिलते ही युद्ध प्रारंभ कर देना चाहिए। कमजोर सैन्यबल वाले दुर्बल राजा को प्रबल शक्तिशाली वीर राजा के साथ युद्ध कदापि नहीं करना चाहिए। | ||
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+ | 3. यान - अपनी मनोवांछित वस्तु की सिद्धि के लिए तथा शत्रुओं के विनाशार्थ चढाई को यान कहते हैं - शत्रुनाशार्थगमनं यानं स्वाभीष्टसिद्धये। (शुक्रनीति, 4. 7. 237) आँख की तरह राजा दोनों ओर काम करें। यान पांच प्रकार का होता है - विगृह्य सन्धाय तथा सम्भूयाथ प्रसंगतः। उपेक्षया च निपुणैर्यानं पञ्चविधं स्मृतम्॥ विगृह्ययान, संधाययान, संभूययान, प्रसंगयान तथा उपेक्षायान इस प्रकार से यान पाँच प्रकार का होता है। | ||
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+ | 4. आसन - स्वरक्षणं शत्रुनाशो भवेत् स्थानात् तदासनम्। (शुक्रनीति 4. 7. 237) जहां पडे रहने से आत्मरक्षा एवं शत्रु विनाश की संभावनाहो, उसे आसन कहते हैं। जहां से शत्रु सेना पर तोप, गोली आदि चलाकर उसे छिन्न-भिन्न किया जा सके, वहां सेना के साथ राजा के टिकने को आसन कहते हैं। साथ ही घास, अनाज, पानी, प्रकृति, आवश्यक सामग्री तथा शत्रुसेना के लिए अन्य उपयोगी वस्तुओं को घेरा डालकर बहुत दिनों तक चारों ओर से राजा के द्वारा रोककर शत्रु तक न पहुंचने देना आदि कार्य आसन द्वारा ही संभव है - | ||
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+ | यन्त्रास्त्रैः शत्रुसेनाया भेदो येभ्यः प्रजायते। स्थलेभ्यस्तेषु सन्तिष्ठेत् ससैन्यो ह्यासनं हि तत्॥ तृणान्नजलसम्भारा ये चान्ये शत्रुपोषकाः। सम्यनिरुध्य तान् यत्नात् परितश्चिरमासनात्॥ (शुक्रनीति 4. 7. 285-286) | ||
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+ | 5. द्वैधीभाव - अपनी सेना को टुकडियों में बांटकर रखने की स्थिति को द्वैधीभाव कहते हैं - द्वैधीभावः स्वसैन्यानां स्थापनं गुल्मगुल्मतः। (शुक्रनीति 4. 7. 238) समयानुसार कार्य करने वाला राजा शत्रुसंकट से बचने का जब तक कोई उपाय निश्चित न कर ले, तब तक कौवे की एक आंख की तरह अलक्षित होता हुआ व्यवहार करे - अनिश्चितोपायकार्य्यः समयानुचरो नृपः। द्वैधीभाव वर्तेत काकाक्षिवदलक्षितम्। प्रदर्शयेदन्यकार्यमन्यमालम्बयेच्च वा॥ (शुक्रनीति 4. 7. 291) | ||
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+ | 6. आश्रय शक्तिहीन जिस शक्तिशाली की शरण में जाकर शक्तिसम्पन्न बन जाता है, उस प्रबल राजा को आश्रय कहते हैं - यैर्गुप्तो बलवान भूयाद् दुर्बलोऽपि स आश्रयः। (शुक्रनीति 4. 7. 238) जब किसी शक्तिशाली राजा द्वारा राज्य विनष्ट की स्थिति में आ जाए तो किसी कुलीन, दृढ-प्रतिज्ञ,शक्तिशाली अन्य राजा की शरण लेनी चाहिए। उच्छिद्यमानो बलिना निरूपाय प्रतिक्रियः। कुलोद्भवं सत्यमार्य्यामाश्रयेत बलोत्कटम् ॥ (शुक्रनीति 4. 7. 289) | ||
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+ | === कामन्दक नीतिसार-षाड्गुण्य नीति॥ Kamandaka Nitisara- Shadgunya Niti === | ||
+ | आचार्य कामन्दक ने षाड्गुण्य के अन्तर्गत सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव एवं समाश्रय की गणना की है। | ||
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+ | ==षाड्गुण्य नीति का महत्व॥ Importance of Shadgunya Niti== | ||
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+ | शत्रु से राजा अपने को शक्तिशाली अनुभव करता है, तो बुद्धिमान राजा को सन्धि कर लेनी चाहिए, यदि अपने को शक्तिसम्पन्न समझे तो विग्रह कर लेना चाहिए। यदि विजिगीषु यह समझता है कि न शत्रु मेरा कुछ कर सकता है, और न मैं शत्रु को कुछ हानि पहुंचा सकता हूँ, तो ऐसी स्थिति में आसन का सहारा लेना चाहिए। अपनी शक्ति, देश, काल आदि गुणों के अधिक होने और परिस्थिति अनुकूल होने पर यान कर देना चाहिए। शक्तिहीन राजा को सदैव संश्रय का ही सहारा लेना चाहिए। यदि कहीं से सहायता की आशा हो तो द्वैधीभाव को अपनाना चाहिए।<ref>डॉ० विजय प्रताप मल्ल, [https://uou.ac.in/sites/default/files/slm/VAC-05.pdf आधुनिक राजनीति विचारक], इकाई-1.मनु, सन-2023, उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी (पृ० 12)।</ref> (नीतिवाक्यामृतम्, समुद्देश्य २९, वार्ता-४२) [[Manusmrti (मनुस्मृतिः)|मनुस्मृति]] में लिखा है कि राजा को इन छः गुणों के विषय में निरन्तर विचार करना चाहिये -<blockquote>सन्धिञ्च विग्रहञ्चौव यनमासनमेव च। द्वैधीभावं संश्रयं च षद्गुणांश्चिन्तयेत्सदा॥ (मनु स्मृति 7.160)</blockquote>संधि का अर्थ है सुलह कर लेना, शांति कर लेना। विग्रह का अर्थ है विरोध अथवा शत्रुता। इसकी परिणति युद्ध में होती है। यान का अर्थ है शत्रु की ओर सेना का कूच करना। आसन का अर्थ है बैठे रहना अर्थात् शत्रु की किसी चाल का तुरन्त जवाब न देना। द्वैधीभाव का अर्थ है दोहरी चाल चलना और संश्रय का अर्थ है किसी शक्तिशाली राजा का आश्रय लेना। राजनीति परक शास्त्रों में इस बात की बहुत चर्चा मिलती है कि कब किस गुण का प्रयोग करना चाहिये।<ref>डॉ० शोभाराम सोलंकी, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय राजनयिक संबंधों में कौटिल्य के षाड्गुण्य नीति की उपयोगिता-एक अध्ययन, एन एस एस- नवीन शोध संसार (पृ० 267)।</ref> | ||
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+ | *राज्य की सीमाओं की रक्षा। | ||
+ | *आंतरिक और बाहरी सुरक्षा सुनिश्चित करना। | ||
+ | *कूटनीति और रणनीति निर्णयों के माध्यम से राष्ट्रीय हितों की पूर्ति। | ||
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+ | ==स्मृतिशास्त्र एवं धर्मशास्त्र॥ Smrtishastra and Dharmashaast== | ||
स्मृतियाँ आर्ष भारतीय मनीषा के दिव्य चमत्कारिक प्रातिभ ज्ञान का अवबोध कराती हैं। स्मृतियों का क्षेत्र व्यापक विशाल एवं विस्तृत है और इनमें मानव जीवन से जुडी सभी बातों का विवेचन है। विषय-सामग्री की दृष्टि से स्मृतियों के विषय को आचार, व्यवहार एवं प्रायश्चित इन तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है जिसमें व्यहार के अन्तर्गत राजशास्त्र का वर्णन प्राप्त होता है। | स्मृतियाँ आर्ष भारतीय मनीषा के दिव्य चमत्कारिक प्रातिभ ज्ञान का अवबोध कराती हैं। स्मृतियों का क्षेत्र व्यापक विशाल एवं विस्तृत है और इनमें मानव जीवन से जुडी सभी बातों का विवेचन है। विषय-सामग्री की दृष्टि से स्मृतियों के विषय को आचार, व्यवहार एवं प्रायश्चित इन तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है जिसमें व्यहार के अन्तर्गत राजशास्त्र का वर्णन प्राप्त होता है। | ||
− | * स्मृतियों में राजशास्त्र का विवेचन इसे धर्मशास्त्र का अंग मानकर किया गया है इसीलिए राजशास्त्र को राजधर्म की संज्ञा प्रदान की गई। | + | *स्मृतियों में राजशास्त्र का विवेचन इसे धर्मशास्त्र का अंग मानकर किया गया है इसीलिए राजशास्त्र को राजधर्म की संज्ञा प्रदान की गई। |
− | * स्मृतिकारों ने राजधर्म को महत्ता प्रदान करते हुए इसके अन्तर्गत सामान्यतः समस्त भौतिक ज्ञान-विज्ञान का और विशेषतः राज्य और राजा के कर्तव्यों का समावेश किया। | + | *स्मृतिकारों ने राजधर्म को महत्ता प्रदान करते हुए इसके अन्तर्गत सामान्यतः समस्त भौतिक ज्ञान-विज्ञान का और विशेषतः राज्य और राजा के कर्तव्यों का समावेश किया। |
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+ | ==राष्ट्रीय सुरक्षा एवं षाड्गुण्य नीति॥ Rashtriya Suraksha evam Shadgunya Niti== | ||
+ | षाड्गुण्य नीति राष्ट्रीय सुरक्षा में अपना महत्वपूर्ण योगदान देती है। इस नीति के सिद्धान्तों के अनुसार राष्ट्रीय सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए सरकार को सशक्त और निर्णायक कदम उठाने चाहिये। अग्नि पुराण में कहा गया है कि किसी भी सैन्य अभियान से पहले शत्रु की कमजोरी और अपनी शक्ति का गहन आकलन करना चाहिए - | ||
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+ | *खुफिया तंत्र (Intelligence) और साइबर सुरक्षा के क्षेत्र में यह नीति प्रासंगिक है। | ||
+ | *एक राज्य की समृद्धि उसकी अर्थव्यवस्था और रक्षा पर निर्भर करती है आत्मनिर्भर भारत अभियान को इसी सिद्धांत का आधुनिक स्वरूप माना जा सकता है। | ||
+ | *राजा को अपनी सैन्य शक्ति को विकसित करते रहना चाहिए, जिससे शत्रु के मन में भय बना रहे। भारत की परमाणु नीति (No First Use) इसी सिद्धांत पर आधारित है। | ||
+ | |||
+ | षाड्गुण्य नीति आधुनिक अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और परंपरागत सैन्य रणनीति के समन्वय का आदर्श उदाहरण है। यह नीति यह बताती है कि कैसे धर्म और अर्थ को संतुलित किया जा सकता है। | ||
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+ | ==निष्कर्ष॥ Conclusion== | ||
+ | षाड्गुण्य नीति भारतीय सैन्य और कूटनीतिक परंपराओं की आधारशिला है। यह नीति न केवल राष्ट्रीय रक्षा और सुरक्षा में अपितु अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भी मार्गदर्शन प्रदान करती है। अग्नि पुराण और अन्य प्राचीन ग्रंथों में दिए गए सिद्धांत आज भी प्रासंगिक हैं और भारत की रणनीतिक सोच को समृद्ध करते हैं। | ||
+ | |||
+ | *आधुनिक नीतियों में प्राचीन भारतीय दर्शन के सम्मिलन से भारत वैश्विक मंच पर अपनी अलग पहचान बना सकता है। | ||
+ | *भारतीय परंपराओं और कौटिल्य के विचारों का वैज्ञानिक और रणनीतिक अध्ययन भविष्य की नीतियों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है। | ||
+ | |||
+ | अतः इस नीति का अध्ययन और अनुसरण वर्तमान समय में वैश्विक चुनौतियों का समाधान खोजने और भारत को एक सशक्त और आत्मनिर्भर राष्ट्र बनाने में सहायक हो सकता है। सोमदेवसूरि ने भी अत्यन्त विस्तृत वैज्ञानिक तथा कूटनीतिक रूप से षाड्गुण्य नीति की व्याख्या की है। इन्होंने वैदेशिक सम्बन्धों को अनुकूल बनाने के लिए, अपने राज्य की सुरक्षा के लिए तथा राज्य में सुख और समृद्धि के लिए इन नीतियों का प्रयोग आवश्यक माना है।<ref>अंजू देवी, [https://shisrrj.com/paper/SHISRRJ22534.pdf नीतिवाक्यामृतम् में वर्णित षाड्गुण्यः एक परिचय], सन - मई-जून-2022, पत्रिका-शोधशौर्यम्, इंटरनेशनल साइंटिफिक रेफरीड रिसर्च जर्नल (पृ० 29)।</ref> | ||
− | == | + | ==उद्धरण॥ References== |
[[Category:Hindi Articles]] | [[Category:Hindi Articles]] | ||
[[Category:Arthashastra]] | [[Category:Arthashastra]] | ||
+ | <references /> |
Latest revision as of 15:47, 3 December 2024
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षाड्गुण्य भारतीय राजनीति का मौलिक सिद्धांत है, मनु और कौटिल्य ने राज्य के परराष्ट्रीय संबंधों के लिए षाड्गुण्य नीति बतलाया है जिसके अनुसार राज्य के दूसरे देशों के साथ अपने संबंध किस परिस्थिति में कैसा रखना चाहिए। उन्होंने परराष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के 6 प्रकार बताये हैं जिसमें राजा को संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय गुणों को ग्रहण करने का परामर्श दिया गया है। षाड्गुण्य का शाब्दिक अर्थ है - छः गुणों का समुच्चय। जो राजा षाड्गुण्य नीति का उचित प्रयोग करता है वह सफलता प्राप्त करता है। षाड्गुण्य का वर्णन मनुस्मृति, महाभारत, अग्निपुराण, हरिवंशपुराण, कौटिल्य के अर्थशास्त्र, पंचतन्त्र आदि कई ग्रन्थों में मिलता है। वर्तमान समय में, यह नीति रक्षा और सुरक्षा की समकालीन चुनौतियों के समाधान के लिए उपयोगी हो सकती है।
परिचय॥ Introduction
प्राचीन भारतीय चिन्तकों ने राजनीतिशास्त्र से सम्बद्ध विविध विषयों का सांगोपांग एवं अतिसूक्ष्म दृष्टि से विवेचन किया है। षाड्गुण्य एक प्राचीन भारतीय अवधारणा है, जिसका अर्थ है छह गुणों का संग्रह। जिसमें वह राजा को संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय गुणों को ग्रहण करने का परामर्श देते है। इसी के माध्यम से राजा सूचनायें एकत्र करता था ललितासहस्रनामस्तोत्र में भी देवी को षाड्गुण्य-परिपूरिता नाम के द्वारा सम्बोधित किया गया है। आचार्य कौटिल्य ने अन्तर्राष्ट्रीय एवं अन्तर्राज्य सम्बन्धों के सन्दर्भ में परराष्ट्र नीति अथवा सुरक्षा नीति के संचालन के लिए षाड्गुण्य नीति को आधार माना है -
एवं षड्भिर्गुणैरेतैः स्थितः प्रकृतिमण्डले। पर्येषेत क्षयात स्थान, स्थानात् वृद्धिं च कर्मसु॥ (अर्थशास्त्र ७/६)
अर्थात राजा अपने प्रकृतिमण्डल में स्थित षाड्गुण्य-नीति द्वारा क्षीणता से स्थिरता की ओर वृद्धि की अवस्था में जाने की चेष्टा करें। इस नीति के अन्तर्गत प्राचीन छह कूटनीतिक सिद्धान्त शामिल हैं, जो राजा या राष्ट्र को अपनी रक्षा और विस्तार के लिए अपनाने होते हैं -
- संधि (Alliance): शत्रु से मित्रता स्थापित करना।
- विग्रह (Hostility): शत्रुता को अपनाना।
- आसन (Neutrality): तटस्थ रहना।
- यान (March): युद्ध की तैयारी करना।
- संश्रय (Seeking shelter): दूसरे राज्य से सहयोग मांगना।
- द्वैधीभाव (Dual policy): दोहरी नीति अपनाना।
अग्नि पुराण में षाड्गुण्य नीति के सिद्धांतों का वर्णन युद्धकालीन और शांति कालीन परिस्थितियों में कूटनीतिक उपायों के संदर्भ में किया गया है। यह नीति बताती है कि राज्य को अपने संसाधनों, जनबल और शत्रु की स्थिति का आकलन करके नीति का चयन करना चाहिए एवं देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप षाड्गुण्य नीति में परिवर्तन कर लेना चाहिये।
परिभाषा॥ Definition
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के सन्दर्भ में षड्गुण का सिद्धांत बहुत महत्वपूर्ण है। यहाँ गुण का अर्थ है रस्सी अर्थात शत्रु को बाँधने या जकडने के छह साधन। षड्गुणों का उल्लेख करते हुए आचार्य ने कहा है -
सन्धि-विग्रह-आसन-यान-संश्रय-द्वैधीभावाः षाड्गुण्यम्। (6.1.2)
ये ही छः गुण हैं - संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय। संधि का अर्थ है - शमः सन्धिः अर्थात शान्ति ही सन्धि है। कौटिल्य पुनः कहते हैं -
पणबन्धः सन्धिः। (6.1.6)
अर्थात कुछ शर्तें आपस में निश्चित करके विवाद को सुलझाना। राजनीतिक विचारकों ने अनेक प्रकार की संधियों का निरूपण किया है। अनेक बार सन्धि बलवान शत्रु को भूमि, सोना या सेना देकर सन्धि करनी पडती है।
विग्रह की परिभाषा - अपकारो विग्रहः। (6.1.7) अर्थात नाना प्रकार से शत्रु की हानि करना।
प्राचीन ग्रंथ और षाड्गुण्य नीति॥ Prachina Granth aur Shadgunya Niti
भारतीय राजनीति
रामायण-षाड्गुण्य नीति॥ Ramayana-Shadgunya Niti
अयोध्याकाण्ड के सौंवे अध्याय में श्रीरामचन्द्र जी भरत से कहते हैं कि षाड्गुण्य नीति का उपयोग-अनुपयोग अच्छे से जानकर उनका प्रयोग करो। बाल्मीकि रामायण में हमें मूलतः सन्धि और विग्रह दो प्रकार का ही वर्णन देखने को मिलता है - [1]
इन्द्रियाणां जयं बुद्ध्वा षाड्गुण्यं दैवमानुषम्। कृत्यं विंशतिवर्गं च तथा प्रकृतिमण्डलम्॥ यात्रा दण्डविधानं च द्वियोनी सन्धिविग्रहौ। किञ्चिदेतान् महाप्राज्ञ यथावदनुमन्यसे॥ (अयोध्याकाण्ड, १००वां सर्ग, 69.70 श्लोक)
भाषार्थ - आसन योनि-विग्रह हैं। अर्थात प्रथम दो द्वैधीभाव और समाश्रय योनि-संधि हैं और यान सन्धि मूलक हैं और अंतिम दो विग्रह मूलक हैं।
महाभारत-षाड्गुण्य नीति॥ Mahabharata-Shadgunya Niti
शांतिपर्व में पितामह भीष्म जी युधिष्ठिर को कहते हैं कि राजनीति के छः गुण होते हैं - सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय। राजा इन सबके गुण-दोष पर सदा ध्यान रखना चाहिए -
1. सन्धि शत्रु यदि अपने से शक्तिशाली हो, तो उससे मेल कर लेना सन्धि कहलाता है। यह तीन प्रकार का होता है -
सन्धिश्च त्रिविधाभिख्यो हीनमध्यस्तथोत्तमः। भयसत्कारवित्ताख्यः कार्त्स्येन परिवर्णितः॥ (म० भा० 12. 59. 37)
भय के कारण की गयी सन्धि हीन सन्धि, सत्कार के कारण की गयी सन्धि मध्यम सन्धि और वित्त-ग्रहण द्वारा की गयी सन्धि उत्तम सन्धि कहलाती है।
2. विग्रह-यदि दोनों पक्ष समान शक्तिशाली हों, तो युद्ध जारी रखना विग्रह कहलाता है। यह दो प्रकार का होताहै - स्वयं किसी शत्रु पर आक्रमण करना या अपने मित्र पक्ष पर आक्रमण होने पर उस मित्र की रक्षा के लिए आक्रमणकारी पर आक्रमण करना। इसके संबंध में कहा गया है -
एवं मे वर्तमानस्य स्वसु तेष्वितरेषु च। भेदो न भविता लोके भेदमूलो हि विग्रहः॥ (म० भा० 2. 4. 28)
3. यान - शत्रु यदि दुर्बल हो तो उस अवस्था में उस पर आक्रमण करना यान कहलाता है।
4. आसन - शत्रु की ओर से आक्रमण होने पर अपने दुर्ग आदि में छिपाये रखना आसन कहलाता है।
5. द्वैधीभाव - शत्रु यदि मध्य श्रेणी का हो, तो द्वैधीभाव का आश्रय लेना चाहिए अर्थात ऊपर से कुछ और व्यवहार तथा भीतर से कुछ और व्यवहार। जैसे आधी सेना को आत्मरक्षार्थ अपने पास रखना और शेष के द्वारा अन्नादि भंडार पर आक्रमण कर देना आदि।
6. समाश्रय - कोई प्रबल शत्रु अपने ऊपर चढाई कर दे और उसका प्रतिकार करने में असमर्थ समझने पर आक्रमणकारी से भी प्रबल राजा का आश्रय लेकर आत्मरक्षा करना समाश्रय कहलाता है -
उच्छ्रितानाश्रयेत् स्फीतान्नरेन्द्रानचलोपमान्। श्रयेच्छायामविज्ञातां गुप्तं शरणमाश्रयेत् ॥ (म० भा० 12. 120. 12)
शुक्रनीति - षाड्गुण्य सिद्धांत ॥ Shukraniti - Shadgunya Siddhanta
आचार्य के अनुसार सन्धि, विग्रह, यान, आसन, समाश्रय और द्वैधीभाव इन छह गुणों का बोध राजा को होना चाहिये -
सन्धिं च विग्रहं यानमासनं च समाश्रयम्। द्वैधीभावं च संविद्यान्मंत्रस्यैतांस्तु षड्गुणान्॥ (शुक्रनीति 4.7.234)
1. संधि - अतिशक्तिशाली शत्रु भी जिस काम से मित्र बन जाय, उसे सन्धि कहते हैं -
याभिः क्रियाभिर्बलवान् मित्रतां याति वै रिपुः। सा क्रिया सन्धिरित्युक्ता विमृशेत् तां तु यत्नतः॥ (शुक्रनीति 4.7.239)
2. विग्रह - जिस काम से शत्रु पीडित होकर अधीनता स्वीकारा कर ले, उसे विग्रह कहते हैं -
विकर्षितः सन् वाघीनो भवेच्छत्रुस्तु येन वै। कर्मणा विग्रहस्तं तु चिन्तयेन्मन्त्रिभिर्नृपः॥ (शुक्रनीति 4.7.239) जो राजा विपत्ति में घिरकर दूसरों से पीडित होते हुए भी पुनः यदि अपना अभ्युदय चाहता है तो देश, काल और उपयुक्त बल मिलते ही युद्ध प्रारंभ कर देना चाहिए। कमजोर सैन्यबल वाले दुर्बल राजा को प्रबल शक्तिशाली वीर राजा के साथ युद्ध कदापि नहीं करना चाहिए।
3. यान - अपनी मनोवांछित वस्तु की सिद्धि के लिए तथा शत्रुओं के विनाशार्थ चढाई को यान कहते हैं - शत्रुनाशार्थगमनं यानं स्वाभीष्टसिद्धये। (शुक्रनीति, 4. 7. 237) आँख की तरह राजा दोनों ओर काम करें। यान पांच प्रकार का होता है - विगृह्य सन्धाय तथा सम्भूयाथ प्रसंगतः। उपेक्षया च निपुणैर्यानं पञ्चविधं स्मृतम्॥ विगृह्ययान, संधाययान, संभूययान, प्रसंगयान तथा उपेक्षायान इस प्रकार से यान पाँच प्रकार का होता है।
4. आसन - स्वरक्षणं शत्रुनाशो भवेत् स्थानात् तदासनम्। (शुक्रनीति 4. 7. 237) जहां पडे रहने से आत्मरक्षा एवं शत्रु विनाश की संभावनाहो, उसे आसन कहते हैं। जहां से शत्रु सेना पर तोप, गोली आदि चलाकर उसे छिन्न-भिन्न किया जा सके, वहां सेना के साथ राजा के टिकने को आसन कहते हैं। साथ ही घास, अनाज, पानी, प्रकृति, आवश्यक सामग्री तथा शत्रुसेना के लिए अन्य उपयोगी वस्तुओं को घेरा डालकर बहुत दिनों तक चारों ओर से राजा के द्वारा रोककर शत्रु तक न पहुंचने देना आदि कार्य आसन द्वारा ही संभव है -
यन्त्रास्त्रैः शत्रुसेनाया भेदो येभ्यः प्रजायते। स्थलेभ्यस्तेषु सन्तिष्ठेत् ससैन्यो ह्यासनं हि तत्॥ तृणान्नजलसम्भारा ये चान्ये शत्रुपोषकाः। सम्यनिरुध्य तान् यत्नात् परितश्चिरमासनात्॥ (शुक्रनीति 4. 7. 285-286)
5. द्वैधीभाव - अपनी सेना को टुकडियों में बांटकर रखने की स्थिति को द्वैधीभाव कहते हैं - द्वैधीभावः स्वसैन्यानां स्थापनं गुल्मगुल्मतः। (शुक्रनीति 4. 7. 238) समयानुसार कार्य करने वाला राजा शत्रुसंकट से बचने का जब तक कोई उपाय निश्चित न कर ले, तब तक कौवे की एक आंख की तरह अलक्षित होता हुआ व्यवहार करे - अनिश्चितोपायकार्य्यः समयानुचरो नृपः। द्वैधीभाव वर्तेत काकाक्षिवदलक्षितम्। प्रदर्शयेदन्यकार्यमन्यमालम्बयेच्च वा॥ (शुक्रनीति 4. 7. 291)
6. आश्रय शक्तिहीन जिस शक्तिशाली की शरण में जाकर शक्तिसम्पन्न बन जाता है, उस प्रबल राजा को आश्रय कहते हैं - यैर्गुप्तो बलवान भूयाद् दुर्बलोऽपि स आश्रयः। (शुक्रनीति 4. 7. 238) जब किसी शक्तिशाली राजा द्वारा राज्य विनष्ट की स्थिति में आ जाए तो किसी कुलीन, दृढ-प्रतिज्ञ,शक्तिशाली अन्य राजा की शरण लेनी चाहिए। उच्छिद्यमानो बलिना निरूपाय प्रतिक्रियः। कुलोद्भवं सत्यमार्य्यामाश्रयेत बलोत्कटम् ॥ (शुक्रनीति 4. 7. 289)
कामन्दक नीतिसार-षाड्गुण्य नीति॥ Kamandaka Nitisara- Shadgunya Niti
आचार्य कामन्दक ने षाड्गुण्य के अन्तर्गत सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव एवं समाश्रय की गणना की है।
षाड्गुण्य नीति का महत्व॥ Importance of Shadgunya Niti
शत्रु से राजा अपने को शक्तिशाली अनुभव करता है, तो बुद्धिमान राजा को सन्धि कर लेनी चाहिए, यदि अपने को शक्तिसम्पन्न समझे तो विग्रह कर लेना चाहिए। यदि विजिगीषु यह समझता है कि न शत्रु मेरा कुछ कर सकता है, और न मैं शत्रु को कुछ हानि पहुंचा सकता हूँ, तो ऐसी स्थिति में आसन का सहारा लेना चाहिए। अपनी शक्ति, देश, काल आदि गुणों के अधिक होने और परिस्थिति अनुकूल होने पर यान कर देना चाहिए। शक्तिहीन राजा को सदैव संश्रय का ही सहारा लेना चाहिए। यदि कहीं से सहायता की आशा हो तो द्वैधीभाव को अपनाना चाहिए।[2] (नीतिवाक्यामृतम्, समुद्देश्य २९, वार्ता-४२) मनुस्मृति में लिखा है कि राजा को इन छः गुणों के विषय में निरन्तर विचार करना चाहिये -
सन्धिञ्च विग्रहञ्चौव यनमासनमेव च। द्वैधीभावं संश्रयं च षद्गुणांश्चिन्तयेत्सदा॥ (मनु स्मृति 7.160)
संधि का अर्थ है सुलह कर लेना, शांति कर लेना। विग्रह का अर्थ है विरोध अथवा शत्रुता। इसकी परिणति युद्ध में होती है। यान का अर्थ है शत्रु की ओर सेना का कूच करना। आसन का अर्थ है बैठे रहना अर्थात् शत्रु की किसी चाल का तुरन्त जवाब न देना। द्वैधीभाव का अर्थ है दोहरी चाल चलना और संश्रय का अर्थ है किसी शक्तिशाली राजा का आश्रय लेना। राजनीति परक शास्त्रों में इस बात की बहुत चर्चा मिलती है कि कब किस गुण का प्रयोग करना चाहिये।[3]
- राज्य की सीमाओं की रक्षा।
- आंतरिक और बाहरी सुरक्षा सुनिश्चित करना।
- कूटनीति और रणनीति निर्णयों के माध्यम से राष्ट्रीय हितों की पूर्ति।
स्मृतिशास्त्र एवं धर्मशास्त्र॥ Smrtishastra and Dharmashaast
स्मृतियाँ आर्ष भारतीय मनीषा के दिव्य चमत्कारिक प्रातिभ ज्ञान का अवबोध कराती हैं। स्मृतियों का क्षेत्र व्यापक विशाल एवं विस्तृत है और इनमें मानव जीवन से जुडी सभी बातों का विवेचन है। विषय-सामग्री की दृष्टि से स्मृतियों के विषय को आचार, व्यवहार एवं प्रायश्चित इन तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है जिसमें व्यहार के अन्तर्गत राजशास्त्र का वर्णन प्राप्त होता है।
- स्मृतियों में राजशास्त्र का विवेचन इसे धर्मशास्त्र का अंग मानकर किया गया है इसीलिए राजशास्त्र को राजधर्म की संज्ञा प्रदान की गई।
- स्मृतिकारों ने राजधर्म को महत्ता प्रदान करते हुए इसके अन्तर्गत सामान्यतः समस्त भौतिक ज्ञान-विज्ञान का और विशेषतः राज्य और राजा के कर्तव्यों का समावेश किया।
राष्ट्रीय सुरक्षा एवं षाड्गुण्य नीति॥ Rashtriya Suraksha evam Shadgunya Niti
षाड्गुण्य नीति राष्ट्रीय सुरक्षा में अपना महत्वपूर्ण योगदान देती है। इस नीति के सिद्धान्तों के अनुसार राष्ट्रीय सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए सरकार को सशक्त और निर्णायक कदम उठाने चाहिये। अग्नि पुराण में कहा गया है कि किसी भी सैन्य अभियान से पहले शत्रु की कमजोरी और अपनी शक्ति का गहन आकलन करना चाहिए -
- खुफिया तंत्र (Intelligence) और साइबर सुरक्षा के क्षेत्र में यह नीति प्रासंगिक है।
- एक राज्य की समृद्धि उसकी अर्थव्यवस्था और रक्षा पर निर्भर करती है आत्मनिर्भर भारत अभियान को इसी सिद्धांत का आधुनिक स्वरूप माना जा सकता है।
- राजा को अपनी सैन्य शक्ति को विकसित करते रहना चाहिए, जिससे शत्रु के मन में भय बना रहे। भारत की परमाणु नीति (No First Use) इसी सिद्धांत पर आधारित है।
षाड्गुण्य नीति आधुनिक अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और परंपरागत सैन्य रणनीति के समन्वय का आदर्श उदाहरण है। यह नीति यह बताती है कि कैसे धर्म और अर्थ को संतुलित किया जा सकता है।
निष्कर्ष॥ Conclusion
षाड्गुण्य नीति भारतीय सैन्य और कूटनीतिक परंपराओं की आधारशिला है। यह नीति न केवल राष्ट्रीय रक्षा और सुरक्षा में अपितु अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भी मार्गदर्शन प्रदान करती है। अग्नि पुराण और अन्य प्राचीन ग्रंथों में दिए गए सिद्धांत आज भी प्रासंगिक हैं और भारत की रणनीतिक सोच को समृद्ध करते हैं।
- आधुनिक नीतियों में प्राचीन भारतीय दर्शन के सम्मिलन से भारत वैश्विक मंच पर अपनी अलग पहचान बना सकता है।
- भारतीय परंपराओं और कौटिल्य के विचारों का वैज्ञानिक और रणनीतिक अध्ययन भविष्य की नीतियों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है।
अतः इस नीति का अध्ययन और अनुसरण वर्तमान समय में वैश्विक चुनौतियों का समाधान खोजने और भारत को एक सशक्त और आत्मनिर्भर राष्ट्र बनाने में सहायक हो सकता है। सोमदेवसूरि ने भी अत्यन्त विस्तृत वैज्ञानिक तथा कूटनीतिक रूप से षाड्गुण्य नीति की व्याख्या की है। इन्होंने वैदेशिक सम्बन्धों को अनुकूल बनाने के लिए, अपने राज्य की सुरक्षा के लिए तथा राज्य में सुख और समृद्धि के लिए इन नीतियों का प्रयोग आवश्यक माना है।[4]
उद्धरण॥ References
- ↑ डॉ० दीपिका शर्मा, षाड्गुण्य की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, सन-मार्च 2024, शोधकोश: जर्नल ऑफ विजुअल एंड परफॉर्मिंग आर्ट्स (पृ० 524)।
- ↑ डॉ० विजय प्रताप मल्ल, आधुनिक राजनीति विचारक, इकाई-1.मनु, सन-2023, उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी (पृ० 12)।
- ↑ डॉ० शोभाराम सोलंकी, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय राजनयिक संबंधों में कौटिल्य के षाड्गुण्य नीति की उपयोगिता-एक अध्ययन, एन एस एस- नवीन शोध संसार (पृ० 267)।
- ↑ अंजू देवी, नीतिवाक्यामृतम् में वर्णित षाड्गुण्यः एक परिचय, सन - मई-जून-2022, पत्रिका-शोधशौर्यम्, इंटरनेशनल साइंटिफिक रेफरीड रिसर्च जर्नल (पृ० 29)।