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− | + | अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के सन्दर्भ में षड्गुण का सिद्धांत बहुत महत्वपूर्ण है। यहाँ गुण का अर्थ है रस्सी अर्थात शत्रु को बाँधने या जकडने के छह साधन। षड्गुणों का उल्लेख करते हुए आचार्य ने कहा है - <blockquote>सन्धि-विग्रह-आसन-यान-संश्रय-द्वैधीभावाः षाड्गुण्यम्। (6.1.2)</blockquote>ये ही छः गुण हैं - संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय। संधि का अर्थ है - | |
− | == उद्धरण == | + | शमः सन्धिः अर्थात शान्ति ही सन्धि है। कौटिल्य पुनः कहते हैं - <blockquote>पणबन्धः सन्धिः। (6.1.6)</blockquote>अर्थात कुछ शर्तें आपस में निश्चित करके विवाद को सुलझाना। राजनीतिक विचारकों ने अनेक प्रकार की संधियों का निरूपण किया है। अनेक बार सन्धि बलवान शत्रु को भूमि, सोना या सेना देकर सन्धि करनी पडती है। |
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+ | विग्रह की परिभाषा - अपकारो विग्रहः। (6.1.7) अर्थात नाना प्रकार से शत्रु की हानि करना। | ||
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+ | शत्रु से राजा अपने को शक्तिशाली अनुभव करता है, तो बुद्धिमान राजा को सन्धि कर लेनी चाहिए, यदि अपने को शक्तिसम्पन्न समझे तो विग्रह कर लेना चाहिए। यदि विजिगीषु यह समझता है कि न शत्रु मेरा कुछ कर सकता है, और न मैं शत्रु को कुछ हानि पहुंचा सकता हूँ, तो ऐसी स्थिति में आसन का सहारा लेना चाहिए। अपनी शक्ति, देश, काल आदि गुणों के अधिक होने और परिस्थिति अनुकूल होने पर यान कर देना चाहिए। शक्तिहीन राजा को सदैव संश्रय का ही सहारा लेना चाहिए। यदि कहीं से सहायता की आशा हो तो द्वैधीभाव को अपनाना चाहिए। (नीतिवाक्यामृतम्, समुद्देश्य २९, वार्ता-४२) [[Manusmrti (मनुस्मृतिः)|मनुस्मृति]] में लिखा है कि राजा को इन छः गुणों के विषय में निरन्तर विचार करना चाहिये -<blockquote>सन्धिञ्च विग्रहञ्चौव यनमासनमेव च। द्वैधीभावं संश्रयं च षद्गुणांश्चिन्तयेत्सदा॥ (मनु स्मृति 7.160)</blockquote>संधि का अर्थ है सुलह कर लेना, शांति कर लेना। विग्रह का अर्थ है विरोध अथवा शत्रुता। इसकी परिणति युद्ध में होती है। यान का अर्थ है शत्रु की ओर सेना का कूच करना। आसन का अर्थ है बैठे रहना अर्थात् शत्रु की किसी चाल का तुरन्त जवाब न देना। द्वैधीभाव का अर्थ है दोहरी चाल चलना और संश्रय का अर्थ है किसी शक्तिशाली राजा का आश्रय लेना। राजनीति परक शास्त्रों में इस बात की बहुत चर्चा मिलती है कि कब किस गुण का प्रयोग करना चाहिये। | ||
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+ | ==स्मृतिशास्त्र एवं धर्मशास्त्र== | ||
+ | स्मृतियाँ आर्ष भारतीय मनीषा के दिव्य चमत्कारिक प्रातिभ ज्ञान का अवबोध कराती हैं। स्मृतियों का क्षेत्र व्यापक विशाल एवं विस्तृत है और इनमें मानव जीवन से जुडी सभी बातों का विवेचन है। विषय-सामग्री की दृष्टि से स्मृतियों के विषय को आचार, व्यवहार एवं प्रायश्चित इन तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है जिसमें व्यहार के अन्तर्गत राजशास्त्र का वर्णन प्राप्त होता है। | ||
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+ | * स्मृतियों में राजशास्त्र का विवेचन इसे धर्मशास्त्र का अंग मानकर किया गया है इसीलिए राजशास्त्र को राजधर्म की संज्ञा प्रदान की गई। | ||
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षाड्गुण्य भारतीय राजनीति का मौलिक सिद्धांत है, जिसमें राजा को संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय गुणों को ग्रहण करने का परामर्श दिया गया है। षाड्गुण्य का शाब्दिक अर्थ है - छः गुणों का समुच्चय। जो राजा षाड्गुण्य नीति का उचित प्रयोग करता है वह सफलता प्राप्त करता है। षाड्गुण्य का वर्णन मनुस्मृति, महाभारत, अग्निपुराण, हरिवंशपुराण, कौटिल्य के अर्थशास्त्र, पंचतन्त्र आदि कई ग्रन्थों में मिलता है।
परिचय
षाड्गुण्य मनु का मौलिक सिद्धान्त है, जिसमें वह राजा को संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय गुणों को ग्रहण करने का परामर्श देते है। इसी के माध्यम से राजा सूचनायें एकत्र करता था ललितासहस्रनामस्तोत्र में भी देवी को षाड्गुण्य-परिपूरिता नाम के द्वारा सम्बोधित किया गया है। आचार्य कौटिल्य ने अन्तर्राष्ट्रीय एवं अन्तर्राज्य सम्बन्धों के सन्दर्भ में परराष्ट्र नीति अथवा सुरक्षा नीति के संचालन के लिए षाड्गुण्य नीति को आधार माना है -
एवं षड्भिर्गुणैरेतैः स्थितः प्रकृतिमण्डले। पर्येषेत क्षयात स्थान, स्थानात् वृद्धिं च कर्मसु॥ (अर्थशास्त्र ७/६)
अर्थात राजा अपने प्रकृतिमण्डल में स्थित षाड्गुण्य-नीति द्वारा क्षीणता से स्थिरता से वृद्धि की अवस्था में जाने की चेष्टा करें। उन्होंने इस नीति के अन्तर्गत प्राचीन छः सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया, जो कि इस प्रकार हैं - सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय। उनके अनुसार देश, काल एवं परिस्थिति के अनुरूप षाड्गुण्य नीति में परिवर्तन कर लेना चाहिये।
परिभाषा
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के सन्दर्भ में षड्गुण का सिद्धांत बहुत महत्वपूर्ण है। यहाँ गुण का अर्थ है रस्सी अर्थात शत्रु को बाँधने या जकडने के छह साधन। षड्गुणों का उल्लेख करते हुए आचार्य ने कहा है -
सन्धि-विग्रह-आसन-यान-संश्रय-द्वैधीभावाः षाड्गुण्यम्। (6.1.2)
ये ही छः गुण हैं - संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय। संधि का अर्थ है - शमः सन्धिः अर्थात शान्ति ही सन्धि है। कौटिल्य पुनः कहते हैं -
पणबन्धः सन्धिः। (6.1.6)
अर्थात कुछ शर्तें आपस में निश्चित करके विवाद को सुलझाना। राजनीतिक विचारकों ने अनेक प्रकार की संधियों का निरूपण किया है। अनेक बार सन्धि बलवान शत्रु को भूमि, सोना या सेना देकर सन्धि करनी पडती है।
विग्रह की परिभाषा - अपकारो विग्रहः। (6.1.7) अर्थात नाना प्रकार से शत्रु की हानि करना।
षाड्गुण्य नीति का महत्व
शत्रु से राजा अपने को शक्तिशाली अनुभव करता है, तो बुद्धिमान राजा को सन्धि कर लेनी चाहिए, यदि अपने को शक्तिसम्पन्न समझे तो विग्रह कर लेना चाहिए। यदि विजिगीषु यह समझता है कि न शत्रु मेरा कुछ कर सकता है, और न मैं शत्रु को कुछ हानि पहुंचा सकता हूँ, तो ऐसी स्थिति में आसन का सहारा लेना चाहिए। अपनी शक्ति, देश, काल आदि गुणों के अधिक होने और परिस्थिति अनुकूल होने पर यान कर देना चाहिए। शक्तिहीन राजा को सदैव संश्रय का ही सहारा लेना चाहिए। यदि कहीं से सहायता की आशा हो तो द्वैधीभाव को अपनाना चाहिए। (नीतिवाक्यामृतम्, समुद्देश्य २९, वार्ता-४२) मनुस्मृति में लिखा है कि राजा को इन छः गुणों के विषय में निरन्तर विचार करना चाहिये -
सन्धिञ्च विग्रहञ्चौव यनमासनमेव च। द्वैधीभावं संश्रयं च षद्गुणांश्चिन्तयेत्सदा॥ (मनु स्मृति 7.160)
संधि का अर्थ है सुलह कर लेना, शांति कर लेना। विग्रह का अर्थ है विरोध अथवा शत्रुता। इसकी परिणति युद्ध में होती है। यान का अर्थ है शत्रु की ओर सेना का कूच करना। आसन का अर्थ है बैठे रहना अर्थात् शत्रु की किसी चाल का तुरन्त जवाब न देना। द्वैधीभाव का अर्थ है दोहरी चाल चलना और संश्रय का अर्थ है किसी शक्तिशाली राजा का आश्रय लेना। राजनीति परक शास्त्रों में इस बात की बहुत चर्चा मिलती है कि कब किस गुण का प्रयोग करना चाहिये।
स्मृतिशास्त्र एवं धर्मशास्त्र
स्मृतियाँ आर्ष भारतीय मनीषा के दिव्य चमत्कारिक प्रातिभ ज्ञान का अवबोध कराती हैं। स्मृतियों का क्षेत्र व्यापक विशाल एवं विस्तृत है और इनमें मानव जीवन से जुडी सभी बातों का विवेचन है। विषय-सामग्री की दृष्टि से स्मृतियों के विषय को आचार, व्यवहार एवं प्रायश्चित इन तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है जिसमें व्यहार के अन्तर्गत राजशास्त्र का वर्णन प्राप्त होता है।
- स्मृतियों में राजशास्त्र का विवेचन इसे धर्मशास्त्र का अंग मानकर किया गया है इसीलिए राजशास्त्र को राजधर्म की संज्ञा प्रदान की गई।
- स्मृतिकारों ने राजधर्म को महत्ता प्रदान करते हुए इसके अन्तर्गत सामान्यतः समस्त भौतिक ज्ञान-विज्ञान का और विशेषतः राज्य और राजा के कर्तव्यों का समावेश किया।