Difference between revisions of "Graha (ग्रह)"
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कक्षा सर्वाऽपि दिविषदां चक्रलिप्तांकितास्ता। वृत्ते लघ्व्योर्लघुनि महति स्युर्महत्यश्च लिप्ताः॥</blockquote>अर्थात अपनी-अपनी कक्षा में सभी ग्रह समान योजन गति से चलते हैं परन्तु जिन ग्रहों की कक्षा परिधि स्वल्प होती है उनकी परिक्रमा योजन मानों में अल्प होने से अल्प काल में पूर्ण हो जाती है। किन्तु जिन ग्रहों की कक्षा परिधि जितनी अधिक होती है, योजनमान भी उतना ही अधिक होने से समान गति होते हुए भी 360० अंश का चक्र भ्रमण करने में उन्हैं अधिक समय लगता है। अर्थात परिणाम स्वरूप दूरस्थ ग्रह अपेक्षा कृत अंशात्मकमान में मंदगति वाले प्रतीत होते हैं। ग्रहों के बिम्बमान भी कक्षाओं की स्थिति से प्रमाणित होते हैं। वासराधिपति, वर्षेश, मासेश और होरेश आदि के साधन में भी ग्रहकक्षा की उपयोगिता होती है। | कक्षा सर्वाऽपि दिविषदां चक्रलिप्तांकितास्ता। वृत्ते लघ्व्योर्लघुनि महति स्युर्महत्यश्च लिप्ताः॥</blockquote>अर्थात अपनी-अपनी कक्षा में सभी ग्रह समान योजन गति से चलते हैं परन्तु जिन ग्रहों की कक्षा परिधि स्वल्प होती है उनकी परिक्रमा योजन मानों में अल्प होने से अल्प काल में पूर्ण हो जाती है। किन्तु जिन ग्रहों की कक्षा परिधि जितनी अधिक होती है, योजनमान भी उतना ही अधिक होने से समान गति होते हुए भी 360० अंश का चक्र भ्रमण करने में उन्हैं अधिक समय लगता है। अर्थात परिणाम स्वरूप दूरस्थ ग्रह अपेक्षा कृत अंशात्मकमान में मंदगति वाले प्रतीत होते हैं। ग्रहों के बिम्बमान भी कक्षाओं की स्थिति से प्रमाणित होते हैं। वासराधिपति, वर्षेश, मासेश और होरेश आदि के साधन में भी ग्रहकक्षा की उपयोगिता होती है। | ||
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+ | ==ग्रह ऊर्जा और मानव जीवन== | ||
+ | ग्रहों की ऊर्जा और उनके मानव जीवन पर प्रभाव को प्राचीन भारतीय शास्त्रों में गहराई से समझा गया है। ज्योतिष शास्त्र में ग्रहों को जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रभाव डालने वाले ऊर्जा स्रोतों के रूप में देखा जाता है। यहाँ कुछ शास्त्रीय उद्धरणों के साथ ग्रहों की ऊर्जा और उनके मानव जीवन पर प्रभाव की व्याख्या की जा रही है - <blockquote>ग्रहाः शमयन्ति दुरितानि, ग्रहाः प्रजासुखावहाः। (बृहत्संहिता अध्याय 2, श्लोक 3)</blockquote>ग्रह मनुष्यों के दुखों को शांत करते हैं, और सुख देने वाले होते हैं।" यह उद्धरण ग्रहों की ऊर्जा को शांतिदायक और सुखप्रद के रूप में दर्शाता है, जो जीवन में संतुलन और शांति लाती है।<blockquote>सप्तग्रहा सूर्यादयः प्रजाः सकलाः सप्तबलेन। (बृहत्पाराशर होरा शास्त्र, अध्याय 3, श्लोक 7)</blockquote>सप्त (सात) ग्रह सूर्यादि (सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि) अपनी ऊर्जा से सभी प्राणियों को प्रभावित करते हैं। यह उद्धरण स्पष्ट करता है कि कैसे ये ग्रह मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करते हैं।<blockquote>सोमं प्राणमथो ज्योतिः सूयं चक्षुरुच्यते। (मनुस्मृति, अध्याय 3, श्लोक 96)</blockquote>चंद्रमा प्राण है और सूर्य ज्योति (आत्मा) है। यह उद्धरण चंद्रमा और सूर्य की ऊर्जा को जीवन शक्ति और आत्मा के रूप में दर्शाता है, जो मानव जीवन को संचालित करते हैं। | ||
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+ | सर्वेषामेव ग्रहाणां प्रभवः सूर्य एव हि। (सूर्य सिद्धांत) | ||
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+ | सभी ग्रहों की ऊर्जा का स्रोत सूर्य ही है। यह सूर्य की प्रमुखता और उसकी ऊर्जा के प्रभाव को दर्शाता है, जो सभी ग्रहों की ऊर्जा का केंद्र है। | ||
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+ | '''ग्रहों की ऊर्जा का मानव जीवन पर प्रभाव''' | ||
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+ | '''1. सूर्य (सोलर एनर्जी) -''' सूर्य जीवन का स्रोत है और इसे आत्मा, शक्ति, और स्वास्थ्य का प्रतीक माना जाता है। इसकी ऊर्जा व्यक्ति के आत्मविश्वास, नेतृत्व, और उर्जा स्तर को प्रभावित करती है। | ||
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+ | '''2. चंद्रमा (लूनर एनर्जी) -''' चंद्रमा को मन, भावनाएँ, और मानसिक शांति का प्रतीक माना जाता है। इसकी ऊर्जा मनुष्य की मानसिक स्थिति, भावनात्मक संतुलन, और रचनात्मकता को प्रभावित करती है। | ||
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+ | '''3. मंगल (मार्टियन एनर्जी) -''' मंगल ग्रह को साहस, शक्ति, और ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है। इसकी ऊर्जा व्यक्ति के साहसिक कार्यों, प्रतिस्पर्धात्मकता, और जीवन की चुनौतियों से लड़ने की क्षमता को प्रभावित करती है। | ||
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+ | '''4. शुक्र (वीनस एनर्जी) -''' शुक्र ग्रह को प्रेम, सौंदर्य, और वैभव का प्रतीक माना जाता है। इसकी ऊर्जा व्यक्ति के संबंधों, सौंदर्य की समझ, और भौतिक सुख-सुविधाओं को प्रभावित करती है। | ||
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+ | '''5. शनि (सैटर्न एनर्जी) -''' शनि ग्रह को अनुशासन, जिम्मेदारी, और कर्म का प्रतीक माना जाता है। इसकी ऊर्जा व्यक्ति के जीवन में धैर्य, प्रतिबद्धता, और कर्मफल को प्रभावित करती है। | ||
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+ | ग्रहों की ऊर्जा का मानव जीवन पर गहरा प्रभाव होता है, जो व्यक्ति के व्यक्तित्व, स्वास्थ्य, मानसिक स्थिति, और जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करती है। यह प्रभाव शास्त्रीय ज्योतिष शास्त्र में विस्तृत रूप से वर्णित किया गया है और आज भी यह अध्ययन का एक महत्वपूर्ण विषय है। | ||
==भारतीय ज्योतिष एवं छाया ग्रह== | ==भारतीय ज्योतिष एवं छाया ग्रह== | ||
+ | भारतीय ज्योतिष में छाया ग्रहों का महत्वपूर्ण स्थान है। ये छाया ग्रह हैं '''राहु''' और '''केतु''', जिन्हें नवग्रहों में शामिल किया जाता है। यद्यपि ये ग्रह खगोलीय पिंड नहीं हैं, लेकिन भारतीय ज्योतिष में इनके प्रभावों को महत्वपूर्ण माना गया है। राहु और केतु चंद्रमा की कक्षाओं के उत्तरी और दक्षिणी बिंदु होते हैं और इन्हें आमतौर पर "छाया ग्रह" कहा जाता है क्योंकि इनका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं होता है।<blockquote>राहु: शिरो राक्षसस्य केतुश्चापि तु पच्छगः। (बृहत्पाराशर होराशास्त्र, अध्याय 2, श्लोक 5)</blockquote>राहु राक्षस का सिर है और केतु उसका धड़ है। यह कथा समुद्र मंथन से जुड़ी है, जिसमें राहु और केतु को अमृत का पान करने पर भगवान विष्णु ने इन दो भागों में विभाजित कर दिया था।<blockquote>राहु: क्रूरतमो ज्ञेयः केतुश्च महातपाः। (फलदीपिका,3-25)</blockquote>राहु को क्रूर और केतु को तपस्वी के रूप में समझा जाता है। यह उद्धरण राहु और केतु की प्रकृति को दर्शाता है, जहाँ राहु को भौतिक इच्छाओं का प्रतीक और केतु को आध्यात्मिकता का प्रतीक माना गया है। | ||
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+ | भारतीय ज्योतिष में राहु और केतु का अध्ययन महत्वपूर्ण है क्योंकि ये छाया ग्रह व्यक्ति के जीवन के भौतिक और आध्यात्मिक पहलुओं को प्रभावित करते हैं। इनका प्रभाव गहरा और जटिल हो सकता है, इसलिए ज्योतिष शास्त्र में इन्हें विशेष महत्व दिया गया है। | ||
==ग्रहों का वैज्ञानिक विवेचन== | ==ग्रहों का वैज्ञानिक विवेचन== |
Latest revision as of 18:11, 8 August 2024
भारतीय ज्योतिष में सात प्रमुख ग्रहों के अतिरिक्त राहु व केतु को दो छाया ग्रहों के रूप में मान्यता प्राप्त है। आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा नैपच्यून, प्लूटो आदि को भी ग्रह की मान्यता दी गई है। किन्तु भारतीय ज्योतिष में राशियों के साथ इनका सामंजस्य नहीं स्थापित किया जा सका है एवं राशियों के साथ संयोग से ही ग्रह भू-वासियों को प्रभावित करते है और उसी के आधार पर ही भारतीय होरा शास्त्र भी शुभाशुभत्व का विवेचन प्रदान करता है। इस प्रकार इस लेख में ग्रहों के शुभाशुभ प्रभाव, प्राच्य और पाश्चात्य मतों का समीक्षण, एवं भारतीय ज्योतिष में प्रतिपादित नवग्रहों के वैशिष्ट्य का वर्णन किया जा रहा है।
परिचय
सूर्य या किसी अन्य तारे के चारों ओर परिक्रमा करने वाले खगोलपिंडों को ग्रह कहते हैं। अंतर्राष्ट्रीय खगोलीयसंघ के अनुसार हमारे सौर मण्डल में आठ ही ग्रह हैं। प्राचीन खगोलशास्त्रियों ने तारों और ग्रहों के बीच में अंतर इस प्रकार से किया कि रात में आकाश में चमकने वाले अधिकतर पिंड हमेशा पूरब दिशा से उठते हैं, एक निश्चित गति को प्राप्त करते हैं। इन पिंडों को तारा कहा जाता है। याज्ञवल्क्यस्मृति में नौ ग्रहों का स्पष्ट वर्णन है,जैसे -
सूर्यः सोमो महीपुत्रः सोमपुत्रो बृहस्पतिः। शुक्रः शनैश्चरो राहुः केतुश्चेति ग्रहाः स्मृताः॥ (या० स्मृ०)[1]
उक्त श्लोक से सात वारों और नौ ग्रहों का अनुमान सहज ही हो जाता है। महर्षि पाराशर जी ने ग्रहों को जन्म रहित परमात्मा का अवतार माना है –
अवताराण्यनेकानि अजस्य परमात्मनः । जीवानां कर्मफलदो ग्रहरूपो जनार्दनः॥
लोमश संहिता में ईश्वर और ग्रहों में अभेद संबंध बताया है -
दैत्यानां बलनाशाय देवानां बलवृद्धये । धर्मसंस्थापनार्थाय ग्रहा जाता इमे क्रमात् ॥
रामावतारः सूर्यस्य चंद्रस्य यदुनायकः । नृसिंहो भूमिपुत्रस्य बौद्धः सोमसुतस्य च॥
वामनो विबुधेज्यस्य भार्गवो भार्गवस्य च । कूर्मो भास्करपुत्रस्य सैंहिकेयस्य सूकरः॥
केतोर्मीनावतारश्च ये चान्ये तेपि खेटजाः । परमात्मांशमधिकं येषु ते खेचराभिधाः॥(लो० सं०)[2]
परिभाषा
गृह्यते इति ग्रहः एवं गच्छतीति ग्रहः।
ग्रह समानार्थक नाम
ग्रह को विविध विद्वानों ने भिन्न - भिन्न नामों से भी अभिव्यक्त किया है। जैसे - (शब्द कल्प0 द्वि0 काण्ड पृ० २८३।
- खग - खे आकाशे गच्छति इति खगः। इस व्युत्पत्ति के अनुसार आकाश में जाता है इसलिए ग्रह अर्थ में इसका प्रयोग हुआ।
- खेट - खे आकाशे अटति। उदाहरणार्थ - यस्मिन् राशौ स्थितः खेटस्तेन तं परिपूरयेत्।
- खेचर - खे चरतीति खेचरः। उदाहरणार्थ - खेचराद्य सर्वे।
इसी प्रकार अंबरायण - आकाश में घूमता है, अभुज, व्योमचारी, आकाशचर, पुष्करालय , विष्णुपदायन आदि नाम ग्रह के पर्याय रूप में प्रयुक्त होते हैं।
भारतीय ज्योतिष में सात प्रमुख ग्रहों के अतिरिक्त राहु व केतु को दो छाया ग्रहों के रूप में मान्यता प्राप्त है। आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा नैपच्यून, प्लूटो आदि को मान्यता दी गई है। किन्तु भारतीय ज्योतिष में राशियों के साथ इनका सामंजस्य नहीं स्थापित किया जा सका है। ग्रहों और राशियों के संयोग से ही भू-वासियों को प्रभावित करता है और उसी के आधार पर भारतीय होरा शास्त्र शुभाशुभत्व प्रदान करता है। जैसा कि हम जानते हैं कि 30० अंश की राशि का भोगकाल होता है। इसी क्रम से 360० अंशों को 12 राशियों में विभाजित किया गया है जिसके फलस्वरूप सूर्य और चंद्रमा को छोड़कर प्रत्येक ग्रह को दो राशियों का अधिपति ग्रह माना गया है।
ग्रह एवं उपग्रह
उपग्रह
ग्रहस्य समीपं उपग्रहम् - ग्रहों का उपग्रह होता है। वस्तुतः उपग्रहों की चर्चा अर्वाचीन ज्योतिर्विदों ने की है। उपग्रह ऐसी खगोलीय वस्तु को कहा जाता है जो किसी ग्रह, क्षुद्रग्रह या अन्य वस्तु के आस-पास परिक्रमा करता हो। जुलाई 2009 तक हमारे सौर मण्डल में 336 वस्तुओं को इस श्रेणी में पाया गया था, जिसमें से 168 ग्रहों की, 6 बौने ग्रहों की, 104 क्षुद्रग्रहों की और 58 वरुण (नैपच्यून) से आगे पाई जाने वाली बड़ी वस्तुओं की परिक्रमा कर रहे थे। हमारे सौर मण्डल से बाहर मिले ग्रहों के आस-पास अभी कोई उपग्रह नहीं मिला है लेकिन वैज्ञानिकों का विश्वास है की ऐसे उपग्रह भी बड़ी संख्या में जरूर मौजूद होंगे।
जो उपग्रह बड़े होते हैं वे अपने अधिक गुरुत्वाकर्षण की वजह से अंदर खिचकर गोल आकार के हो जाते हैं, जबकि छोटे चंद्रमा टेढ़े-मेढ़े भी होते हैं।
ग्रहों की संख्या
विभिन्न विद्वानों ने ग्रहों की संख्या भिन्न - भिन्न मानी गई है।
सूर्यः सोमस्तथा भौमो बुधजीव सितार्कजाः । राहु केतुरिति प्रोक्ता ग्रहा लोक हितावहाः॥ (म० पु० - १० )
पाश्चात्य खगोल शास्त्री चन्द्र को पृथ्वी का एक उपग्रह मानते हैं। उनके अनुसार ग्रह नौ (९) हैं - पृथ्वी , बुध , शुक्र , मंगल , गुरु , शनि , यूरेनस , नेपच्यून , प्लूटो। पाश्चात्य दृष्टि राहु और केतु को ग्रह स्वीकार नहीं करते हैं, और सूर्य और चन्द्र भी उनके लिये ग्रह की श्रेणी में आते हैं। राहु - केतु छाया ग्रह या छाया पिण्ड माने गए हैं।
- नवीनतम शोध के अनुसार प्लूटो अब ग्रह नहीं रहा।
- ग्रहों की संख्या कितनी है ? ज्योतिष आचार्यों में भी यह एक मतभेद का विषय रहा है। वराहमिहिर के मत से सूर्य , चन्द्रमा , मंगल , बृहस्पति , बुध , शुक्र , शनि ये सात ग्रह हैं। राहु - केतु पात विशेष हैं ग्रह नहीं। वराह का मत ग्रहण कर शारदातिलक में भी सात ग्रहों का उल्लेख है।
सूर्य सिद्धान्त और सिद्धान्त शिरोमणि ग्रन्थ में खगोल की सात ग्रह कक्षाएँ निरूपित की गई है। राहु और केतु की कक्षाओं का कोई भी उल्लेख नहीं मिलता है।
छाया ग्रह - ग्रहों में मुख्य रूप से नव ग्रह ही माने जाते हैं। नवग्रहों में सूर्य और चन्द्रमा ये दो प्रकाशक ग्रह हैं। मंगल, बुध, शुक्र तथा शनि तारा ग्रह हैं। यह पाँचों ग्रह भी चमकते हैं और प्रकाश देते हैं। राहु और केतु यह दोनों तमों ग्रह कहलाते है क्योंकि इनका न पिण्ड है न प्रकाश। इसलिये इन्हैं छाया ग्रह कहा जाता है क्योंकि यह मात्र छाया स्वरूप हैं। जिसका अर्थ है नाश करना , प्रकाश के पुञ्ज को बाधित करना।
राहु व केतु ग्रह
छाया शब्द का विस्तृत वर्णन के पश्चात् यह माना जा सकता है कि यद्यपि छायाऐं और भी हैं तथापि भारतीय ज्योतिष शास्त्र में राहु व केतु ही प्रमुख रूप से छाया ग्रह कहे गये हैं -
- राहु - ज्योतिष शास्त्र में सूर्य किरण के सम्पर्क भाव से उत्पन्न पृथ्वी की छाया रूप राहु माना जा सकता है। राहु अन्धकार स्वरूप सिंहिका का पुत्र है। राहु एक राक्षस का नाम भी है। नवग्रहों में से आठवां ग्रह राहु है।[3] आंग्ल भाषा में राहु को Ascending node of the moon, dragon's head आदि कहते हैं।
- केतु - केतु वह अवरोही शिरोबिन्दु है जहाँ ग्रह मार्ग व सूर्य मार्ग परस्पर मिलते हैं। केतु सैंहिकेय राक्षस का कबन्ध कहा जाता है। यह नवग्रहों में से एक है। पुच्छल तारा, उज्ज्वल, ध्वजा, पताका आदि अर्थों में भी इसका प्रयोग किया जाता है। केतु को आंग्ल भाषा में Descending node of the moon, Dragon's Tail, Comet, Metear , Star आदि शब्दों में प्रयोग किया जाता है।
ग्रहों एवं उपग्रहों का महत्व
समस्त ज्योतिष का मूलाधार ग्रह ही है, जिसके आधार पर हम ज्योतिष में कहे गए फलादेश आदि कर्तव्य करते हैं। स्कन्धत्रय में सिद्धांत स्कन्ध का मूल आधार ग्रह ही हैं। ग्रहों का उपग्रह होता है।
ग्रहस्य समीपं उपग्रहम् ।
वस्तुतः उपग्रहों की चर्चा अर्वाचीन ज्योतिर्विदों ने की हैं। चंद्रमा का कोई उपग्रह नहीं होता। ग्रहों का प्रभाव मानव जीवन पर भी पड़ता है, जिसका उदाहरण हम सूर्य एवं चंद्रमा से प्रत्यक्ष रूप में प्राप्त कर सकते हैं। ग्रहों का महत्व न की केवल मानव जीवन के लिए अपितु समस्त चराचर प्राणियों के लिए है।
क्षुद्र एवं वामनग्रह
क्षुद्र ग्रह - पथरीले और धातुओं के ऐसे पिंड हैं जो सूर्य की परिक्रमा करते हैं लेकिन इतने लघु हैं कि इन्हैं ग्रह नहीं कहा जा सकता। इन्हैं लघु ग्रह या क्षुद्र ग्रह कहते हैं।
उल्का - जो क्षुद्र ग्रह पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी के वातावरण में उससे आकर टकरा जाते हैं, उसे उल्का कहते हैं।
खगोल विज्ञान के अंतर्गत आकाश से जुड़ा एक भाग क्षुद्र एवं वामन ग्रह भी हैं, जिसको हम यहां देखते हैं –
क्षुद्र ग्रह (Asteroids)
पथरीले और धातुओं के ऐसे पिंड हैं जो सूर्य की परिक्रमा करते हैं लेकिन इतने लघु हैं कि इन्हैं ग्रह नहीं कहा जा सकता। इन्हैं लघु ग्रह या क्षुद्र ग्रह या ग्रहिका कहते हैं। हमारी सौर प्रणाली में लगभग 100,000 क्षुद्रग्रह हैं लेकिन उनमें से अधिकतर इतने छोटे हैं कि उन्हैं पृथ्वी से नहीं देखा जा सकता। प्रत्येक क्षुद्रग्रह की अपनी कक्षा होती है, जिसमें ये सूर्य के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं,
यम (प्लूटो)
हमारे सौर मण्डल के इस नौवें ग्रह की खोज भी नेपच्यून की ही तरह सन् 1930 में हुई। यूरेनस की कक्षा में गति एवं स्थिति की गड़बड़ी ने ही पुनः वैज्ञानिकों को यह विचार करने को विवश किया कि नेपचून के परे भी कोई पिंड हो सकता है।
वरुण और यम ग्रह के अन्वेषण के ही अनुरूप यम की कक्षा से बाहर एक और ग्रह हो सकता है। कुछ भारतीयों एवं कुछ पाश्चात्य ज्योतिर्विदों की स्पष्ट अवधारणा है कि दसवां ग्रह अवश्य है, मात्र दूरी अधिक होने के कारण उसकी खोज करना कठिन है। आज भी वैज्ञानिक इस दसवें ग्रह एवं अन्य ग्रहों, उपग्रहों के अन्वेषण में निरंतर अध्ययन एवं अनुसंधान कार्य में संलग्न हैं।
ग्रहों की गति
ग्रहों की शीघ्र से स्वल्प गति क्रम के आधार पर ग्रह कक्षा का निर्माण होता है।
सप्तविंशति शुक्रः स्यादेकविंशद् बुधस्तथा । त्रिपक्षं भूमिपुत्रस्तु मासमेकं तु भास्करः॥
गुरुस्त्रिदशमासांश्च त्रिंशन्मासान् शनैश्चरः । राहुकेतू सार्धवर्षं ग्रहसंख्या विगद्यते॥
तथा सपादद्विदिनं राशौ तिष्ठति चंद्रमा । ग्रहाणां राशिजो भोगः एवमुक्तो विचक्षणैः॥
ग्रह-गण दिन और रात्रि पृथ्वी के चारों ओर भ्रमण करते हैं। इनमें से शनि सबसे दूरस्थ ग्रह है। इस कारण पृथ्वी की एक परिक्रमा अर्थात् बारह राशियों का भ्रमण, शनि दस हजार सात सौ उनसठ (१०७५९) दिनों में करता है जो लगभग (३०) तीस वर्ष होता है।
शनि से निकटवर्ती ग्रह बृहस्पति है, अतः बृहस्पति को उपरोक्त एक भ्रमण में (४३३२) चार हजार तीन सौ बत्तीस दिन लगते हैं, जो लगभग बारह वर्ष होता है।
बृहस्पति से समीपस्थ मंगल ग्रह है, इसको बारह राशियों के एक भ्रमण में लगभग ६८७ दिन लगते हैं।
मंगल से सपीपवर्ती पृथ्वी है जो (३६५) तीन सौ पैंसठ दिनों में बारह राशियों की परिक्रमा करती है। इसी एक भ्रमण का नाम वर्ष है।
इससे समीपवर्ती शुक्र है जिसका एक भ्रमण लगभग २२५ दिन में होता है।
उसके बाद बुध का स्थान है जिसको भ्रमण करने में लगभग ८८ दिन लगते हैं ।
सबसे समिपवर्ती चन्द्रमा है जो सम्पूर्ण राशिमाला को २७ दिन ८ , ३-४ घण्टों में भ्रमण करता है।
पृथ्वी अथवा सूर्य चलायमान है?
पृथ्वी चलती है या सूर्य चलता है। इसके समाधान स्वरूप में जैसे हम जहाज नौका आदि में यात्रा करते हैं तो दृश्यमान पदार्थ वृक्ष आदि जहाज आदि के आभासी गति स्वरूप चलायमान प्रतीत होते हैं। इसी प्रकार यद्यपि सूर्य स्थिर है पर पृथ्वी की आभासी गति स्वरूप से वह चलायमान प्रतीत होता है।
सूर्य केन्द्रीय सिद्धांत ॥ Heliocentric Theory
वृत्तीय कक्षाएं ॥ Circular Orbits
दीर्घवृत्तीय कक्षा ॥ Elliptic Orbit
आनुभविक नियमों ॥ Empirical Laws
गुरुत्वाकर्षण नियम ॥ (Universal Law Of Gravitation)
ग्रहीय गति ॥ (Planetary Motion)
केन्द्रीय बल ॥ (Central Forces)
ग्रह कक्षा – प्राच्य एवं पाश्चात्य
ग्रह जिस नियत पथ में विद्यमान रहकर भ्रमण करते हैं उस पथ को हम ग्रहकक्षा कहते हैं। यद्यपि सभी ग्रहों का राश्यादि मान हमें क्रान्तिवृत्त में प्राप्त होता है परन्तु सभी ग्रह अपनी-अपनी स्वतन्त्र कक्षा में भ्रमण करते हैं। जिन्हैं हम ग्रह विमण्डल (ग्रह का भ्रमण वृत्त) के नाम से जानते हैं। जैसे - चन्द्र का भ्रमणपथ चन्द्र विमण्डल, भौम का भ्रमण पथ भौम विमण्डल, उसी प्रकार सभी ग्रहों के भ्रमण पथ की संज्ञा जाननी चाहिए।
ग्रहाणां कक्षा ग्रहकक्षा - अर्थात ग्रह जिस पथ पर विचरण करते हैं, वह उनकी कक्षा होती है। ग्रह कक्षा का स्पष्ट उल्लेख तो वैदिक साहित्य में नहीं है, किन्तु तैत्तिरीय ब्राह्मण के कई मन्त्रों से सिद्ध होता है कि पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्यौ, सूर्य और चन्द्रमा ये क्रमशः ऊपर-ऊपर हैं। तैत्तिरीय संहिता के निम्न मन्त्र से ग्रहकक्षा के ऊपर पर्याप्त प्रकाश पडता है -
यथाग्निः पृथिव्यां समनमदेवं मह्यं भद्रा, सन्नतयः सन्नमन्तु वायवे समनमदन्तरिक्षाय समनमद् यथा वायुरन्तरिक्षेण सूर्याय समनभद् दिवा समनमद् यथा सूर्यो दिवा चन्द्रमसे समनमन्नक्षत्रेभ्यः समनमद् यथा चन्द्रमा नक्षत्रैर्वरुणाय समनमत्। (तै०सं० 7. 5. 23)
अर्थात् - सूर्य आकाश की, चंद्रमा नक्षत्र-मण्डल की, वायु अंतरिक्ष की परिक्रमा करते हैं और अग्निदेव पृथ्वी पर निवास करते हैं। सारांश यह है कि सूर्य, चंद्र और नक्षत्र क्रमशः ऊपर-ऊपर की कक्षा वाले हैं। वैदिक काल की वैदिक ज्योतिष गणना या मान्यता में दक्षिण व उत्तर ध्रुवों से बद्ध भचक्र वायु द्वारा भ्रमण करता हुआ स्वीकार किया गया है। सूर्य प्रदक्षिणा की गति उत्तरायण तथा दक्षिणायन दो भागों में विभक्त है। यह कहा जा सकता है कि ईसापूर्व 500-400 में भारतीय ज्योतिष में ग्रहों के भ्रमण के संबंध में मुख्यतः दो ही सिद्धान्त प्रचलन में थे -
- प्रथम सिद्धान्त के अनुसार पृथ्वी केन्द्र थी तथा वायु के कारण ग्रहों का भ्रमण होता था।
- दूसरे सिद्धान्त के अनुसार सुमेरू को केन्द्र मानकर स्वाभाविक रूप से ग्रहों का भ्रमण मानते थे।
ज्योतिष शास्त्र का मूल आधार ग्रह है। सभी ग्रह अपनी - अपनी कक्षा में स्व-स्व गति अनुसार भ्रमण करते हैं। प्राच्य मत में ज्योतिर्विदों ने एवं पाश्चात्य मत में वैज्ञानिकों ने ग्रहकक्षा को अलग - अलग प्रकार से कहा है। सूर्य सिद्धांत के अनुसार कक्षा क्रम -
ब्रह्माण्ड मध्ये परिधिर्व्योम कक्षाऽभिधीयते। तन्मध्ये भ्रमणं भानामधोsधः क्रमशस्तथा॥ मंदामरेज्य भूपुत्र सूर्य शुक्रेन्दुजेन्दवः। परिभ्रमन्त्यधोsधः स्थाः सिद्धा विद्याधरा घनाः॥
अर्थात ब्रह्माण्ड की भीतरी (परिधि) खकक्षा या आकाश कक्षा कही गई है। उसके मध्य में अधोधः (एक दूसरे के नीचे) क्रम से नक्षत्रादि भ्रमण करते हैं। नक्षत्रों के नीचे क्रमशः शनि, गुरु, भौम, सूर्य, शुक्र, बुध और चंद्रमा की कक्षाएं हैं जिनमें वे भ्रमण करते हैं। और ग्रहों के नीचे क्रमशः सिद्ध, विद्याधर और घन (मेघ) हैं। सुगमता के लिए ग्रह कक्षाक्रम –
शनि की कक्षा
बृहस्पति की कक्षा
मंगल की कक्षा
सूर्य की कक्षा
शुक्र की कक्षा
बुध की कक्षा
चंद्र की कक्षा
सिद्ध
विद्याधर
मेघ
पृथ्वी (भू)
प्राच्य एवं पाश्चात्य मत के अनुसार ग्रह कक्षा का विचार दो प्रकार से किया जाता है –
1. भू केंद्रिक 2. सूर्य केंद्रिक
भू-केंद्रिक कक्षा का व्यवहार भारतीय ज्योतिष शास्त्र के प्राचीन ग्रंथों में किया गया है। यद्यपि इसे भू – केंद्रिक कहा जाता है किन्तु ग्रहों की कक्षाओं के मध्य केंद्र में पृथ्वी नहीं है। इसी प्रकार सूर्य केंद्रिक कक्षा में ग्रहों की कक्षाओं के केंद्र में सूर्य नहीं है।
सूर्य केंद्रिक कक्षा इस प्रकार है –
प्लूटो
नेपच्यून
यूरेनस
शनि
बृहस्पति
मंगल
चंद्र
पृथ्वी
शुक्र
बुध
सूर्य
इस प्रकार प्राच्य ग्रहों में तथा प्राचीन ग्रहों में भी कुछ अंतर है उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार से है –
प्राचीनमत | आधुनिकमत | ||||
---|---|---|---|---|---|
सूर्य | - | ग्रह | सूर्य | - | तारा |
चन्द्र | - | ग्रह | चन्द्र | - | उपग्रह |
मंगल | - | तारा ग्रह | मंगल | - | ग्रह |
बुध | - | तारा ग्रह | बुध | - | ग्रह |
गुरू | - | तारा ग्रह | गुरू | - | ग्रह |
शुक्र | - | तारा ग्रह | शुक्र | - | ग्रह |
शनि | - | तारा ग्रह | पृथ्वी | - | ग्रह |
राहु | - | पात ग्रह | यूरेनस | - | ग्रह |
केतु | - | पात ग्रह | प्लूटो | - | ग्रह |
राहु | - | पात |
प्राच्य मत में पाश्चात्य मत में
शनि की कक्षा प्लूटो
बृहस्पति की कक्षा नेपच्यून
मंगल की कक्षा यूरेनस
सूर्य की कक्षा शनि
शुक्र की कक्षा बृहस्पति
बुध की कक्षा मंगल
चंद्र की कक्षा चंद्र
सिद्ध पृथ्वी
विद्याधर शुक्र
मेघ बुध
पृथ्वी सूर्य
वराहमिहिर जी के अनुसार ग्रह कक्षा –
चंद्रादूर्ध्वं बुधसितरविकुज जीवार्कजास्ततो भानि। प्राग्गतयस्तुल्यजवा ग्रहास्तु सर्वे स्वमण्डलगाः॥
तैलिकचक्रस्य यथा विवरमराणां घनं भवति नाभ्याम्। नेभ्यां स्यान्महदेवं स्थितानि राश्यन्तराण्यूर्ध्वम्॥
पर्येति शशी शीघ्रं स्वल्पं नक्षत्रमण्डलमधः स्थः। ऊर्ध्वस्थस्तुल्य जवो विचरति तथा न महदर्कसुतः॥
अर्थ – चंद्रमा से ऊपर – ऊपर बुध, शुक्र, रवि, मंगल, गुरू तथा सूर्यपुत्र शनि की कक्षायें है तथा उसके आगे तारागण है। सभी ग्रह अपनी – अपनी कक्षा मण्डल में पूर्व की ओर समान गति से भ्रमण करते हैं। नक्षत्र मण्डल के नीचे चंद्रमा छोटी कक्षा में स्थित होने के कारण सबसे शीघ्रता से भ्रमण करता है तथा शनि सबके ऊपर स्थित होने के कारण उसकी सबसे बड़ी कक्षा में होने से वह सबसे धीमी गति से चलता है।
ग्रह कक्षा की उपयोगिता
ग्रह कक्षा ज्ञान के बिना ग्रह की गति, स्थिति, परिमाण, मान आदि का अच्छी तरह ज्ञान नहीं हो सकता है। भूपृष्ठ से ग्रह की दूरी ग्रहकक्षा का व्यासादि या ग्रह सम्बन्धी अन्य कोई भी गणित ग्रहकक्षा के ज्ञान के बिना सम्भव नहीं हो सकता है। अतः इनके स्पष्ट ज्ञान के लिये आचार्यों ने सभी ग्रहों की कक्षाओं का निरूपण अपने-अपने सिद्धान्त ग्रन्थों में किया है -
- ग्रहों की कक्षा के द्वारा ही किसी भी ग्रह की गति की न्यूनाधिकता भी सिद्ध होती है।
- पृथ्वी के समीप रहने पर ग्रह गति अधिक एवं दूर रहने पर अल्प हो जाती है।
- छोटे एवं बडे सभी वृत्तों में अंश प्रमाण समान(३६०) ही होते हैं।
यद्यपि सभी ग्रह अपनी-अपनी कक्षा में योजनात्मक मान से समान गति से चलते हैं परन्तु कोणीय मान से यह अन्तर उत्पन्न होता है। जैसा श्री भास्कराचार्य जी ने कहा है -
समा गतिस्तु योजनैर्नभः सदां सदा भवेत्। कलादिकल्पना वशान्मृदुद्रुता च सा स्मृता॥ कक्षा सर्वाऽपि दिविषदां चक्रलिप्तांकितास्ता। वृत्ते लघ्व्योर्लघुनि महति स्युर्महत्यश्च लिप्ताः॥
अर्थात अपनी-अपनी कक्षा में सभी ग्रह समान योजन गति से चलते हैं परन्तु जिन ग्रहों की कक्षा परिधि स्वल्प होती है उनकी परिक्रमा योजन मानों में अल्प होने से अल्प काल में पूर्ण हो जाती है। किन्तु जिन ग्रहों की कक्षा परिधि जितनी अधिक होती है, योजनमान भी उतना ही अधिक होने से समान गति होते हुए भी 360० अंश का चक्र भ्रमण करने में उन्हैं अधिक समय लगता है। अर्थात परिणाम स्वरूप दूरस्थ ग्रह अपेक्षा कृत अंशात्मकमान में मंदगति वाले प्रतीत होते हैं। ग्रहों के बिम्बमान भी कक्षाओं की स्थिति से प्रमाणित होते हैं। वासराधिपति, वर्षेश, मासेश और होरेश आदि के साधन में भी ग्रहकक्षा की उपयोगिता होती है।
ग्रह ऊर्जा और मानव जीवन
ग्रहों की ऊर्जा और उनके मानव जीवन पर प्रभाव को प्राचीन भारतीय शास्त्रों में गहराई से समझा गया है। ज्योतिष शास्त्र में ग्रहों को जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रभाव डालने वाले ऊर्जा स्रोतों के रूप में देखा जाता है। यहाँ कुछ शास्त्रीय उद्धरणों के साथ ग्रहों की ऊर्जा और उनके मानव जीवन पर प्रभाव की व्याख्या की जा रही है -
ग्रहाः शमयन्ति दुरितानि, ग्रहाः प्रजासुखावहाः। (बृहत्संहिता अध्याय 2, श्लोक 3)
ग्रह मनुष्यों के दुखों को शांत करते हैं, और सुख देने वाले होते हैं।" यह उद्धरण ग्रहों की ऊर्जा को शांतिदायक और सुखप्रद के रूप में दर्शाता है, जो जीवन में संतुलन और शांति लाती है।
सप्तग्रहा सूर्यादयः प्रजाः सकलाः सप्तबलेन। (बृहत्पाराशर होरा शास्त्र, अध्याय 3, श्लोक 7)
सप्त (सात) ग्रह सूर्यादि (सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि) अपनी ऊर्जा से सभी प्राणियों को प्रभावित करते हैं। यह उद्धरण स्पष्ट करता है कि कैसे ये ग्रह मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करते हैं।
सोमं प्राणमथो ज्योतिः सूयं चक्षुरुच्यते। (मनुस्मृति, अध्याय 3, श्लोक 96)
चंद्रमा प्राण है और सूर्य ज्योति (आत्मा) है। यह उद्धरण चंद्रमा और सूर्य की ऊर्जा को जीवन शक्ति और आत्मा के रूप में दर्शाता है, जो मानव जीवन को संचालित करते हैं।
सर्वेषामेव ग्रहाणां प्रभवः सूर्य एव हि। (सूर्य सिद्धांत)
सभी ग्रहों की ऊर्जा का स्रोत सूर्य ही है। यह सूर्य की प्रमुखता और उसकी ऊर्जा के प्रभाव को दर्शाता है, जो सभी ग्रहों की ऊर्जा का केंद्र है।
ग्रहों की ऊर्जा का मानव जीवन पर प्रभाव
1. सूर्य (सोलर एनर्जी) - सूर्य जीवन का स्रोत है और इसे आत्मा, शक्ति, और स्वास्थ्य का प्रतीक माना जाता है। इसकी ऊर्जा व्यक्ति के आत्मविश्वास, नेतृत्व, और उर्जा स्तर को प्रभावित करती है।
2. चंद्रमा (लूनर एनर्जी) - चंद्रमा को मन, भावनाएँ, और मानसिक शांति का प्रतीक माना जाता है। इसकी ऊर्जा मनुष्य की मानसिक स्थिति, भावनात्मक संतुलन, और रचनात्मकता को प्रभावित करती है।
3. मंगल (मार्टियन एनर्जी) - मंगल ग्रह को साहस, शक्ति, और ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है। इसकी ऊर्जा व्यक्ति के साहसिक कार्यों, प्रतिस्पर्धात्मकता, और जीवन की चुनौतियों से लड़ने की क्षमता को प्रभावित करती है।
4. शुक्र (वीनस एनर्जी) - शुक्र ग्रह को प्रेम, सौंदर्य, और वैभव का प्रतीक माना जाता है। इसकी ऊर्जा व्यक्ति के संबंधों, सौंदर्य की समझ, और भौतिक सुख-सुविधाओं को प्रभावित करती है।
5. शनि (सैटर्न एनर्जी) - शनि ग्रह को अनुशासन, जिम्मेदारी, और कर्म का प्रतीक माना जाता है। इसकी ऊर्जा व्यक्ति के जीवन में धैर्य, प्रतिबद्धता, और कर्मफल को प्रभावित करती है।
ग्रहों की ऊर्जा का मानव जीवन पर गहरा प्रभाव होता है, जो व्यक्ति के व्यक्तित्व, स्वास्थ्य, मानसिक स्थिति, और जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करती है। यह प्रभाव शास्त्रीय ज्योतिष शास्त्र में विस्तृत रूप से वर्णित किया गया है और आज भी यह अध्ययन का एक महत्वपूर्ण विषय है।
भारतीय ज्योतिष एवं छाया ग्रह
भारतीय ज्योतिष में छाया ग्रहों का महत्वपूर्ण स्थान है। ये छाया ग्रह हैं राहु और केतु, जिन्हें नवग्रहों में शामिल किया जाता है। यद्यपि ये ग्रह खगोलीय पिंड नहीं हैं, लेकिन भारतीय ज्योतिष में इनके प्रभावों को महत्वपूर्ण माना गया है। राहु और केतु चंद्रमा की कक्षाओं के उत्तरी और दक्षिणी बिंदु होते हैं और इन्हें आमतौर पर "छाया ग्रह" कहा जाता है क्योंकि इनका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं होता है।
राहु: शिरो राक्षसस्य केतुश्चापि तु पच्छगः। (बृहत्पाराशर होराशास्त्र, अध्याय 2, श्लोक 5)
राहु राक्षस का सिर है और केतु उसका धड़ है। यह कथा समुद्र मंथन से जुड़ी है, जिसमें राहु और केतु को अमृत का पान करने पर भगवान विष्णु ने इन दो भागों में विभाजित कर दिया था।
राहु: क्रूरतमो ज्ञेयः केतुश्च महातपाः। (फलदीपिका,3-25)
राहु को क्रूर और केतु को तपस्वी के रूप में समझा जाता है। यह उद्धरण राहु और केतु की प्रकृति को दर्शाता है, जहाँ राहु को भौतिक इच्छाओं का प्रतीक और केतु को आध्यात्मिकता का प्रतीक माना गया है।
भारतीय ज्योतिष में राहु और केतु का अध्ययन महत्वपूर्ण है क्योंकि ये छाया ग्रह व्यक्ति के जीवन के भौतिक और आध्यात्मिक पहलुओं को प्रभावित करते हैं। इनका प्रभाव गहरा और जटिल हो सकता है, इसलिए ज्योतिष शास्त्र में इन्हें विशेष महत्व दिया गया है।
ग्रहों का वैज्ञानिक विवेचन
भारतीय ज्योतिष में ग्रहों की संख्या 9 मानी जाती है। सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु। यद्यपि कुल ग्रहों की संख्या 9 ही नहीं हैं, अपितु इससे और भी अधिक ग्रहों की संख्या हो सकती हैं, जो हमें ज्ञात नहीं परंतु ज्योतिष शास्त्र में मूल रूप से ये नवग्रह को स्थान दिया गया है, अतः इससे संबंधित विषयों को हम यहां देखते हैं।
सूर्य और चंद्र तारा तथा उपग्रह हैं इसी प्रकार राहु और केतु छाया ग्रह हैं। छाया ग्रह अर्थात सूर्य तथा चंद्र के (पृथ्वी से देखने पर) पथों के मिलन के दो बिंदु हैं। मंगल, बुध, गुरु, शुक्र व शनि यह पांच ग्रह हैं , लेकिन ग्रंथों में कहीं – कहीं इन्हें पंच तारा ग्रह भी कहा गया है।
भारतीय फलित ज्योतिष में प्लूटो आदि को ग्रहों का स्थान नहीं दिया गया है। इसमें प्रमुख कारण है उनकी दूरी, प्रकाश की कमी या धीमा होना नहीं है, क्योंकि अन्य ग्रहों की तुलना में शनि बहुत दूर और धीमा ग्रह होते हुए भी अनुपात में अधिक प्रभावशाली है। राहु – केतु तो हैं ही नहीं फिर भी प्रभावित करते हैं।
सारांश
ज्योतिष शास्त्र में ग्रह मूलाधार हैं, जिसके माध्यम से सम्पूर्ण ज्योतिष शास्त्र अपने सिद्धांतों को कहता है। सभी ग्रह अपने – अपने कक्षाओं में भ्रमण करते है। उनके भ्रमण पथ का नाम ही ग्रह कक्षा है। अपनी – अपनी गति के अनुसार ग्रह अपने – अपने कक्षा पथ में भ्रमण करते हैं। सर्वाधिक तीव्र गति वाला ग्रह चंद्रमा, एवं सबसे न्यून गति वाला ग्रह शनि होता है। इसलिए शनि की कक्षा सबसे बड़ी है और चंद्रमा की सबसे छोटी है।
भूकेंद्रिक एवं सूर्यकेंद्रिक गणना के आधार पर प्राच्य एवं पाश्चात्य मत में ग्रहों के कक्षाओं का वर्णन किया गया है।
उद्धरण
- ↑ वासुदेव शर्म, याज्ञवल्क्य स्मृति, मिताक्षरा व्याख्या टिप्पणी आदि सहित, सन् 1909, निर्णय सागर प्रेस मुम्बई, अध्याय-12, श्लोक- 296 (पृ० 94)
- ↑ रामदीन पंडित, बृहद्दैवज्ञरंजन, सन् 1999, खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन , बंबई (पृ० ८४)।
- ↑ श्री नवल जी, विशाल शब्द सागर, सन् 1950, आदीश बुक डिपो (पृ० 1178)।