Line 8: |
Line 8: |
| == यन्त्र-प्रमुख ग्रन्थ == | | == यन्त्र-प्रमुख ग्रन्थ == |
| इस तरह सूर्यसिद्धांत या आर्यभट्ट के काल से आरंभ कर लगभग 15 वीं शताब्दी तक मुख्यतया शंकुयंत्र , घटीयंत्र , नलिका यंत्र , यष्टि यंत्र , चापयंत्र , तुरीय यंत्र , फलक यंत्र , दिगंश यंत्र एवं स्वयंवह यंत्र का ही प्रयोग दिखाई देता है। इस काल के कुछ स्वतंत्र वेध ग्रंथ भी उपलब्ध होते हैं, जिनमें यंत्रों के निर्माण एवं प्रयोग विधि का सुस्पष्ट समावेश है , कुछ ग्रंथों में तो वर्णित यंत्रों के निर्माण एवं प्रयोग विधि का सुस्पष्ट समावेश है, कुछ ग्रंथों में तो वर्णित यंत्रों द्वारा साधित गणितीय तथ्य भी निर्दिष्ट हैं। उनमें से कुछ प्रमुख वेध ग्रंथो का परिचय इस प्रकार हैं।<ref>बलदेव उपाध्याय, [https://archive.org/details/SanskritVangmayaKaBrihatItihas/Sanskrit%20Vangmaya%20Ka%20Brihat%20Itihas%20XVl-Jyotisha/page/n147/mode/1up?view=theater संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास-ज्योतिष खण्ड], उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान (पृ० १८४)।</ref> | | इस तरह सूर्यसिद्धांत या आर्यभट्ट के काल से आरंभ कर लगभग 15 वीं शताब्दी तक मुख्यतया शंकुयंत्र , घटीयंत्र , नलिका यंत्र , यष्टि यंत्र , चापयंत्र , तुरीय यंत्र , फलक यंत्र , दिगंश यंत्र एवं स्वयंवह यंत्र का ही प्रयोग दिखाई देता है। इस काल के कुछ स्वतंत्र वेध ग्रंथ भी उपलब्ध होते हैं, जिनमें यंत्रों के निर्माण एवं प्रयोग विधि का सुस्पष्ट समावेश है , कुछ ग्रंथों में तो वर्णित यंत्रों के निर्माण एवं प्रयोग विधि का सुस्पष्ट समावेश है, कुछ ग्रंथों में तो वर्णित यंत्रों द्वारा साधित गणितीय तथ्य भी निर्दिष्ट हैं। उनमें से कुछ प्रमुख वेध ग्रंथो का परिचय इस प्रकार हैं।<ref>बलदेव उपाध्याय, [https://archive.org/details/SanskritVangmayaKaBrihatItihas/Sanskrit%20Vangmaya%20Ka%20Brihat%20Itihas%20XVl-Jyotisha/page/n147/mode/1up?view=theater संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास-ज्योतिष खण्ड], उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान (पृ० १८४)।</ref> |
| + | |
| + | '''यन्त्र -''' जिन अवयवों के द्वारा ग्रहों का वेध किया जाता है, उसे यन्त्र कहते हैं। |
| + | |
| + | '''शंकु यन्त्र -''' पलभा मापक यन्त्र का नाम शंकु है। इससे दिक्, देश तथा काल का ज्ञान भी सम्यक् रूप से किया जा सकता है। |
| + | |
| + | '''दिगंश यन्त्र -''' गोल एवं वर्तुलाकार तीन भित्तियों के रूप में यह यन्त्र ग्रहों की दिशा व दशा जानने के लिये बनाया गया है। |
| + | |
| + | '''क्रान्ति यन्त्र -''' सूर्य की स्थिति जानने के लिये इस यन्त्र का उपयोग होता है। |
| | | |
| '''यंत्रराज - '''1292 शक में महेंद्रसूरी द्वारा विरचित यह ग्रंथ अत्यंत प्रसिद्ध हैं, इसमें यंत्रराज नामक यंत्र के निर्माण एवं प्रयोग विधि का उल्लेख है। ग्रंथारंभ में वर्णित उद्धरणों द्वारा प्रतीत होता है कि इनके समय में यवनों ने वेध के क्षेत्र में अच्छी उन्नति प्राप्त कर ली थी। | | '''यंत्रराज - '''1292 शक में महेंद्रसूरी द्वारा विरचित यह ग्रंथ अत्यंत प्रसिद्ध हैं, इसमें यंत्रराज नामक यंत्र के निर्माण एवं प्रयोग विधि का उल्लेख है। ग्रंथारंभ में वर्णित उद्धरणों द्वारा प्रतीत होता है कि इनके समय में यवनों ने वेध के क्षेत्र में अच्छी उन्नति प्राप्त कर ली थी। |
| | | |
| '''यंत्रशिरोमणि - '''1537 शालीवाहन शक में भी श्री विश्रामपंडित द्वारा विरचित इस ग्रंथ में यंत्रों का वर्णन एवं क्रांति तथा द्युज्यापिंडों के साधनार्थ सारणियां दी गईं हैं। इनसे पूर्व के ग्रंथो में पद्मनाभ विरचित नलिकायंत्राध्याय एवं ध्रुवभ्रमयंत्र, चक्रधर दैवज्ञ विरचित यंत्रचिंतामणि , ग्रहलाघव गणेश दैवज्ञ विरचित प्रतोदयंत्र , पूर्णानन्द सरस्वती रचित नलिकाबंध , इत्यादि प्रमुख हैं। | | '''यंत्रशिरोमणि - '''1537 शालीवाहन शक में भी श्री विश्रामपंडित द्वारा विरचित इस ग्रंथ में यंत्रों का वर्णन एवं क्रांति तथा द्युज्यापिंडों के साधनार्थ सारणियां दी गईं हैं। इनसे पूर्व के ग्रंथो में पद्मनाभ विरचित नलिकायंत्राध्याय एवं ध्रुवभ्रमयंत्र, चक्रधर दैवज्ञ विरचित यंत्रचिंतामणि , ग्रहलाघव गणेश दैवज्ञ विरचित प्रतोदयंत्र , पूर्णानन्द सरस्वती रचित नलिकाबंध , इत्यादि प्रमुख हैं। |
| + | {| class="wikitable" |
| + | |+ |
| + | ! खगोलविद और उनकी अवधि |
| + | !ग्रन्थ नाम |
| + | !यन्त्र एवं उनका मूल नाम |
| + | !यन्त्रों का समतुल्य नाम |
| + | |- |
| + | |आर्ष प्रोक्त |
| + | |सूर्यसिद्धान्त |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |आर्यभट्ट |
| + | |आर्यभट्ट सिद्धान्त |
| + | आर्यभटीय |
| + | |चक्र यंत्र |
| + | गोला यंत्र |
| + | |डिस्क यंत्र |
| + | गोलाकार यंत्र |
| + | |- |
| + | |वराहमिहिर |
| + | |पंच सिद्धान्तिका |
| + | बृहत्संहिता |
| + | |
| + | बृहज्जातक |
| + | |चक्र यंत्र |
| + | |अंगूठी यंत्र |
| + | |- |
| + | |ब्रह्मगुप्त |
| + | |ब्रह्मस्फुट सिद्धांत |
| + | खण्डनखण्डखाद्य |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |लल्ला |
| + | |शिष्यधी वृद्धिदतन्त्रम् |
| + | |गोल यंत्र |
| + | भगना यंत्र |
| + | |
| + | चक्र यंत्र |
| + | |
| + | धनु यंत्र |
| + | |
| + | घटी यंत्र |
| + | |
| + | शकट यंत्र |
| + | |
| + | कर्तरी यंत्र |
| + | |
| + | शलाका यंत्र |
| + | |
| + | यष्टि यंत्र |
| + | |गोलाकार यंत्र |
| + | अंगूठी यंत्र |
| + | |
| + | डिस्क यंत्र |
| + | |
| + | धनुष एवं बाण यंत्र |
| + | |
| + | समय पोत |
| + | |
| + | दो धुरी वाली छडें |
| + | |
| + | सिजोर यंत्र |
| + | |
| + | सुई यंत्र |
| + | |
| + | छडी यंत्र |
| + | |- |
| + | |श्रीपति |
| + | |ज्योतिष रत्नमाला |
| + | सिद्धान्त शेखर |
| + | |शलाका यंत्र |
| + | |सुई यंत्र |
| + | |- |
| + | | भास्कराचार्य |
| + | |सिद्धान्तशिरोमणि |
| + | लीलावती |
| + | |
| + | बीजगणित |
| + | |
| + | करणकुतूहल |
| + | |चक्र यंत्र |
| + | चाप यंत्र |
| + | |
| + | यष्टि यंत्र |
| + | |
| + | गोल यंत्र |
| + | |डिस्क यंत्र |
| + | अर्धवृत्ताकार छडी यंत्र |
| + | |
| + | गोलाकार इंस्ट्र० |
| + | |- |
| + | |गणेश दयवाण्य |
| + | |ग्रहलाघव |
| + | सुधीरंजनी |
| + | |
| + | तर्जनीयंतरम |
| + | |जालतनालिक यंत्र |
| + | |स्टार प्रोजिशनिंग यंत्र |
| + | |} |
| + | |
| + | ==प्राच्य एवं अर्वाचीन यन्त्र== |
| + | ज्योतिष शास्त्र के अन्तर्गत वेध-यन्त्र द्वारा वेध करने की प्रक्रिया अतिप्राचीन काल से रही है। ज्योतिष शास्त्र के प्राचीन व अर्वाचीन आचार्यों ने विविध यन्त्रों का उपयोग अपने-अपने कालखण्डों में विधिवत् किया है। अतः प्राचीन काल खण्ड में वेध के लिये प्रयोग किये गये यन्त्र को प्राचीन तथा अर्वाचीन वाले वर्तमान यन्त्र के रूप में जाने जाते हैं - |
| + | |
| + | ===प्राचीन यंत्र=== |
| + | भारतीय ज्योतिष शास्त्र में ग्रहवेध हेतु यन्त्रों की परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है। ज्योतिष शास्त्र के प्राचीन व अर्वाचीन आचार्यों ने विविध यन्त्रों का उपयोग अपने-अपने कालखण्डों में विधिवत् किया है। यन्त्रों के अन्तर्गत आरम्भ काल से १५ वीं तथा १६ वीं सदी के समय तक में अनुमानतः निम्नलिखित प्राचीनयंत्रों के नाम आते हैं, जो प्राप्य हैं - |
| + | |
| + | शंकु यन्त्र, कपाल यन्त्र, मिश्र यन्त्र, दक्षिणोत्तर भित्ति यन्त्र, अष्टमांश यन्त्र, गोल यन्त्र एवं धूपघटिका यन्त्र, मयूर यन्त्र, बृहद् सम्राट् यन्त्र, लघुसम्राट यन्त्र, नाडीवलय यन्त्र, क्रान्ति यन्त्र, जयप्रकाश यन्त्र, षष्ठांश यन्त्र, दिगंश यन्त्र, तुरीय, द्वादश राशिवलय, धूपघटिका, यन्त्रराज, उन्नतांश, गोल, राम यन्त्र, ध्रुवदर्शक यन्त्र एवं चक्र यन्त्र। |
| + | |
| + | इनके अतिरिक्त भी कई यन्त्र होंगे जो अप्राप्य हैं तथा वर्तमान में उपयोग में नहीं है अथवा ग्रन्थों या वेधशालाओं में द्रष्टव्य नहीं होता है। |
| + | |
| + | ===आधुनिक यंत्र=== |
| + | आधुनिक यन्त्रों में निम्न यन्त्रों के नाम आते हैं - आधुनिक कम्पास यन्त्र, आधुनिक नलिका यन्त्र, आधुनिक तारा मण्डप, आधुनिक ग्लोब यन्त्र, आधुनिक बायनाकूल व चित्रालग्नमापक यन्त्र, आधुनिक टेलिस्कोप यन्त्र। इसके अतिरिक्त भी कई अत्याधुनिक यन्त्र भी हैं जो ग्रहों की जानकारी अथवा अन्तरिक्ष की जानकारी में नासा द्वारा प्रयोग किये जाते हैं। उन सबका यहाँ उल्लेख करना सम्भव नहीं है। |
| + | |
| + | '''ज्योतिषीय यंत्र निर्माण (पाषण-यंत्र)''' |
| + | |
| + | #सम्राट यन्त्र, राशि-वलय यंत्र, क्रान्ति-यंत्र, दिगंश-यन्त्र, चक्र-यन्त्र, षष्ठांश यंत्र, कपाली-यंत्र, ज्योतिष यंत्र निर्माण |
| + | #ध्रुव-दर्शक यंत्र, कान्तिवृत्त यंत्र, उन्नतांश यंत्र, याम्योत्तर वृत्त यंत्र, राशि यंत्र, धूपघटिका यंत्र |
| + | #उक्त यंत्रों के मांडल यंत्र - पीतल, ताम्बा एवं लकडी आदि से निर्माण किया जाता है। |
| + | खगोलशास्त्री लल्ल ने अपने शिष्यधीवृद्धिदतन्त्रम् ग्रन्थ में वाद्यतंत्र का वर्णन किया है - |
| + | |
| + | गोलो भगणश्चक्रं धनघटी शंकशकटकर्तयः। पीष्टक पालशलाका द्वादशयन्त्राणिसह यष्टया॥ (शिष्यधी वृद्धिद) |
| + | |
| + | ==सारांश== |
| + | त्रिस्कन्ध ज्योतिष महार्णव के पारंगत विद्वान् मनीषियों में ज्योतिर्विज्ञान के प्राक्तन और प्रमुख साधन और उपकरण प्रधान यन्त्र मण्डल के उपयोग का महत्त्व सर्वविदित है। जैसा कि कहा गया है - <blockquote>दिनगतकालावयवा ज्ञातुमशक्या विना यन्त्रैः।</blockquote>पञ्चांगीय विषयों की गणितीय सत्यता का बोध यन्त्रों के बिना असम्भव है। ज्योतिषशास्त्र में दृग्गणितैक्य का ही अस्तित्व है, अतः आचार्यों ने अनवरत गणितीय सत्यता का समर्थन करते हुए यन्त्रों की उपयोगिता पर एक मत से उद्बोधन दिया है - <ref>डॉ० विनोद कुमार शर्मा, यन्त्र मन्दिर (वेधशाला), हंसा प्रकाशन, जयपुर (पृ० १३)।</ref><blockquote>तन्त्रभ्रंशे प्रतिदिनमेव विज्ञाय धीमता यत्नः। कार्यस्तस्मिन् यस्मिन् दृग्गणितैक्यं सदा भवति॥</blockquote>अतः गणितागत ग्रहों का राश्यादिमान यथावत् निर्दिष्ट समय और स्थान पर खगोल में प्रत्यक्ष प्राप्त हो, वही गणित दृग्गणितैक्य सिद्धान्त का प्रतिपादन करती है एवं दृष्टा गणितकर्ता द्वारा अपनी गणित के मान को यन्त्रों द्वारा वेध आदि करके मिलान करने पर दृष्टि और गणितीय विषय एक मिले तो उस गणित को सही तथा संहिता व होराशास्त्र के विश्लेषण में उपयोगार्थ मान्य समझा जा सकता है। |
| + | |
| + | भारत में लोगों ने ईसा पूर्व से ही खगोलीय उपकरणों का उपयोग करना शुरू कर दिया था। इस अवधि के दौरान खगोलीय गणनाओं के लिये सूर्य सिद्धान्त ग्रन्थ देखा जाता रहा है। भास्कराचार्य भारत के प्रमुख गणितज्ञ और खगोलशास्त्री थे, जिन्होंने सिद्धान्त शिरोमणि नामक ग्रन्थ लिखा था। |
| | | |
− | == उद्धरण == | + | ==उद्धरण== |
| + | <references /> |
| + | [[Category:Hindi Articles]] |
| + | [[Category:Jyotisha]] |