Difference between revisions of "Mundaka Upanishad (मुण्डक उपनिषद्)"

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Revision as of 19:08, 8 March 2024

यह उपनिषद् अथर्ववेदकी शौनक शाखामें है। 'मुण्डक' शब्द से तात्पर्य मुंडा हुआ सिर है। इस उपनिषद् के उपदेश मुंडे हुए सिर के समान आत्मा के ऊपर पडे अज्ञानता के पर्दे को हटा देते हैं। इस उपनिषद् में तीन अध्याय हैं जो दो खण्डों में विभाजित होते हैं, एवं मुण्डकोपनिषद् में लगभग साठ मन्त्र (श्लोक) हैं। इस उपनिषद् में ब्रह्मा ने अपने ज्येष्ठपुत्र अथर्वा (अथर्वन्) को ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया है।

परिचय

मुण्डकोपनिषद् अथर्ववेदके मन्त्रभागके अन्तर्गत है। इसमें तीन मुण्डक हैं और एक-एक मुण्डकके दो-दो खण्ड हैं। उपनिषद् के प्रारंभ में ग्रन्थोक्त विद्याकी आचार्यपरम्परा दी गयी है। वहाँ बताया है कि यह विद्या ब्रह्माजी से अथर्वाको प्राप्त हुई और अथर्वासे क्रमशः अंगी और भारद्वाजके द्वारा अंगिराको प्राप्त हुई। उन अंगिरा मुनिके पास महागृहस्थ शौनकने विधिवत् आकर पूछा कि भगवन् ! ऐसी कौन-सी वस्तु है जिस एकके जान लेनेपर सब कुछ जान लिया जाता है? महर्षि शौनकका यह प्रश्न प्राणिमात्रके लिये बडा कुतूहलजनक है ? क्योंकि सभी जीव अधिक से अधिक वस्तुओंका ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं। मुण्डक का लाक्षणिक अर्थ संन्यासी से है। संन्यासी का शिरोमुण्डन उसके सर्वत्याग का संसूचक है। केशरूप अज्ञान के निराकरण से मनुष्य ब्रह्मज्ञान के योग्य होता है। अतः मुण्डकोपनिषद् उन शिरोमुण्डनसम्पन्न संन्यासियों को लक्ष्य करके रची गयी है, जो राग-द्वैष आदि से मुक्त हैं और ब्रह्मविद्या की प्राप्ति के प्रति निष्ठावान् हैं। उपनिषद् के उपसंहार में कहा गया है कि जिन्होंने विधिपूर्वक 'शिरोव्रत' का अनुष्ठान किया है, उन्हीं को इस ब्रह्मविद्या का उपदेश देना चाहियए। नारायण आदि टीकाकारों की मान्यता है कि अथर्ववेदीय उपनिषदों में मूर्धन्य या शीर्षस्थानीय (मुण्डभूत) होने से इसका नाम मुण्डकोपनिषद् है।

मुण्डक उपनिषद् - शान्ति पाठ

ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः। स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाँसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः॥

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ (मुण्डक उपनिषद्)[1]

भाषार्थ - वेद की संहिताओं में बहुत से ऐसे मन्त्र हैं जिनसे एक से अधिक देवताओं की स्तुतियाँ की गयीं हैं। वेद के अध्ययन में अपनी शाखा के मन्त्र अथवा ब्राह्मण भाग के अध्ययन को श्रेष्ठ माना गया है। इस दृष्टि से शान्ति पाठ के रूप में यह मन्त्र भाग भी स्वशाखा अर्थात् ये दोनों मन्त्र अथर्ववेद की शौनक शाखा की संहिता में भी देखे जा सकते हैं।

प्रथम मन्त्र में प्रार्थना की गयी है कि - गुरुके यहाँ अध्ययन करनेवाले शिष्य अपने गुरु, सहपाठी तथा मानवमात्रका कल्याण-चिन्तन करते हुए देवताओंसे प्रार्थना करते हैं कि 'हे देवगण! हम अपने कानोंसे शुभ-कल्याणकारी वचन ही सुने। निन्दा, चुगली, गाली या दूसरी-दूसरी पापकी बातें हमारे कानों में न पडें और हमारा अपना जीवन यजन-परायण हो- हम सदा भगवान् की आराधनामें ही लगे रहें। न केवल कानोंसे सुनें, नेत्रोंसे भी हम सदा कल्याणका ही दर्शन करें॥[2]

द्वितीय मन्त्र में यह प्रार्थना की गयी है कि - यशस्वी इन्द्र हमारा कल्याण करें, सभी प्रकार के ऐश्वर्य से युक्त पूषन् हमारा कल्याण करें। जिनके चक्र परिधि को कोई हिंसित नहीं कर सकता, ऐसे तार्क्ष्य, हमारा कल्याण करें। बृहस्पति हमारा कल्याण करें।

मुण्डक उपनिषद् के उपदेष्टा

इस उपनिषद् में ही आचार्य परम्परा का उल्लेख है। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी जो देवताओं में सर्वप्रथम उत्पन्न हैं, सब लोगों की रक्षा करने वाले हैं, उन्होंने यह विद्या अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को प्रदान किया। अथर्वा से क्रमशः अंगी ऋषि ने भारद्वाज सत्यवह और फिर भरद्वाज गोत्रीय सत्यवह ने यह विद्या अंगिरा को प्रदान की। अंगिरा से यह विद्या पर से अवर को प्राप्त हुई।

अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्माथर्वा तां पुरोवाचांगिरे ब्रह्मविद्याम्। स भारद्वाजाय सत्यवहाय प्राह भारद्वाजो गिरसे परावराम्॥ (१,१,२)

उपर्युक्त मन्त्र में इस विद्या को प्राप्त करने की परम्परा का उल्लेख है। ऋषि अंगिरस ने शौनक नामक परमाचार्य को इस विद्या का अधिकारी समझकर, उनके शिष्य रूप में प्रश्न करने पर इस उपनिषद् का उपदेश किया है। उनका प्रश्न था -

कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति। (१,३,३)

भगवन् नु का तात्पर्य 'निश्चयपूर्वक' किसके जान लिए जाने पर यह सब कुछ ज्ञात हो जाता है? व्यवस्थित और सुझारू रूप से इस प्रश्न के उत्तर के रूप में इस विद्या का यहाँ उपदेश किया गया है। इसमें मुख्यतः ब्रह्म के स्वरूप और उसकी प्राप्ति के साधनों का उल्लेख भी है।

प्रथम मुण्डक का विवेच्य विषय

वर्ण्यविषय

मुण्डकोपनिषद् के प्रारम्भ में ग्रन्थोक्त विद्या की आचार्य-परम्परा का वर्णन है। बताया गया है कि यह विद्या ब्रह्माजी से ऋषि अथर्वा को प्राप्त हुई और फिर अथर्वा से क्रमशः अंगिरस्, भारद्वाज, सत्यवाह और अंगिरा ऋषि को प्राप्त हुई। अंगिरा ऋषि ने अधिकारी शिष्य जानकर महागृहस्थ शौनक को उनके प्रश्न के उत्तर में इस उपनिषद् का उपदेश दिया। उनका प्रश्न है -

कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति। (१,३,३)

अर्थात् हे भगवन् निश्चय से किसके जान लिए जाने पर यह सब कुछ विशेषरूप से ज्ञात हो जाता है? मुण्डकोपनिषद् का प्रतिपाद्य विषय व्यवस्थित, गम्भीर और उत्कृष्ट है। इसमें मुख्यरूप से ब्रह्म के स्वरूप और उसकी प्राप्ति के साधनों का विवेचन है। इसमें याज्ञिक कर्मकाण्ड की महत्ता और ज्ञान की अपेक्षा उसकी हीनता भी बतायी गयी है।

  1. परा और अपरा विद्या - चारों वेद और वेदांग अपरा विद्या हैं। ब्रह्मविद्या ही परा विद्या है, जिससे अक्षर ब्रह्म का ज्ञान होता है। (१,१,३ और ४)
  2. सृष्टि-उत्पत्ति - जैसे मकडी अपना जाल बनाती है और फिर खा लेती है, उसी प्रकार परमात्मा से सृष्टि होती है उसी में लीन हो जाती है।
  3. कर्मकांड हीन है - ब्रह्मविद्या की अपेक्षा यज्ञ आदि कर्मकांड हीन हैं। इसका फल अस्थायी है। इससे जीव पुनः जन्म-मृत्यु के बन्धन में आता है।
  4. परमात्मा अशरीरी है - परमात्मा अमूर्त है, दिव्य है, अनादि है, प्राण और मन से रहित है। वह संसार के अन्दर और बाहर सर्वत्र है।
  5. जीवन का लक्ष्य ब्रह्म है - प्रणव (ओम्) को धनुष बनाओ, जीवात्मा को बाण और ब्रह्म को लक्ष्य। एकाग्रचित्त होकर लक्ष्य ब्रह्म को बींधो। प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा, ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते। अप्रमत्तेन वेद्धव्यं, शरवत् तन्मयो भवेत् ॥ (२,२,४)
  6. ब्रह्म की ज्योति से ही सूर्य आदि में प्रकाश - सूर्य चन्द्र तारा आदि में अपना प्रकाश नहीं है। उसी ब्रह्म के प्रकाश से सबमें प्रकाश है। तमेव भान्तमनु भाति सर्वं, तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥ (२,२, १०)
  7. सत्य और तप से ब्रह्मप्राप्ति - सत्य तप और ब्रह्मचर्य से ब्रह्म की प्राप्ति होती है। निष्पाप व्यक्ति ही हृदयस्थ उस ब्रह्म को देख पाते हैं।
  8. सत्य की विजय होती है - सत्य से ही देवयान प्राप्त होता है। सत्य से ही परम पद की प्राप्ति होती है। सत्यमेव जयते, नानृतम्०। (३,१,६)
  9. त्रैतवाद - ऋग्वेद (१,१६४,२०) और अथर्ववेद (९,९,२०) में वर्णित त्रैतवाद का प्रतिपादक 'द्वा सुपर्णा०' मंत्र इस उपनिषद् में भी आया है। प्रकृतिरूपी वृक्ष पर दो पक्षी (जीवात्मा, परमात्मा) बैठे हैं। उनमें से एक कर्मफल का भोक्ता है और दूसरा केवल द्रष्टा एवं साक्षी है। (३,१,१)
  10. ब्रह्म समुद्रवत् है - तत्त्वज्ञानी पुरुष ब्रह्म में इसी प्रकार लीन हो जाता है, जैसे नदियाँ अपना नाम और रूप छोडकर समुद्र में लुप्त हो जाती हैं। यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेsस्तं गच्छन्ति०। (3,2,8) 'वेदान्त' शब्द का सर्वप्रथम प्रयेग 'वेदान्त-विज्ञान-सुनिश्चितार्थाः' (३,२,६) इसी उपनिषद् में है। अनेक श्लोक और भाव कठ और मुण्डक में समानरूप से प्राप्त होते हैं।[3]
  11. ब्रह्माण्ड का कारण
  12. कार्य-कारण सिद्धांत
  13. ब्रह्म एवं आत्मा की प्रकृति
  14. जीव तथा ब्रह्म की तादात्म्यता
  15. ब्रह्म एवं आत्मानुभूति के साधन

सारांश

मुण्डकोपनिषद् में गुरु अंगिरस ने तपस्वी शौनक को ऐसा ज्ञान, जिसे जानने के पश्चात् कुछ भी जानने को शेष नहीं रहता है, उसके ज्ञान का उपदेश दिया है।

  1. प्रथम अध्याय - में उपदेशों की महानता तथा प्रथम खण्ड में उपदेशों का निम्न ज्ञान, मुण्डन तथा लौकिक क्रियाओं की व्याख्या की गई है।
  2. दूसरा अध्याय - अध्याय में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के कारण के रूप में ब्रह्म को स्थापित करने तथा जीव एवं जगत् के कार्य-कारण सिध्दांत से संबंधित है।
  3. तीसरा अध्याय - आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के साधनों तथा माध्यमों और मोक्ष के लिये आत्म-ज्ञान के महत्व पर चर्चा करता है।

निष्कर्षतः उपनिषद् में बताया गया है कि यह उपदेश हजारों वर्ष पूर्व गुरु अंगिरस ने महर्षि शौनक को दिए थे। हालांकि ये उपदेश पुरातन हैं, किन्तु सत्य की खोज करने वालों के लिए ये आज भी संगत तथा लाभप्रद हैं। इस उपनिषद् की वर्णन-शैली अत्यन्त उदात्त, हृदयकारिणी और स्पष्ट है। इसकी भाषा सरल है, यद्यपि उसमें कोई छान्दस प्रयोग भी हैं। सुन्दर उपमाओं और दृष्टान्तों की छटा इसमें दिखायी देती है। तत्त्वज्ञान के प्रतिपादन का प्रारम्भ संवादपद्धति के माध्यम से किया गया है। इस दर्शन में सांख्य-दर्शन के कई तथ्यों के संकेत उपलब्ध होते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता पर मुण्डकोपनिषद् का विशेष प्रभाव माना जाता है।[4]

उद्धरण

  1. मुण्डक उपनिषद्
  2. हनुमानप्रसाद पोद्दार, कल्याण उपनिषद् विशेषांक - मुण्डकोपनिषद्, गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० २५४)।
  3. डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, वैदिक साहित्य एवं संस्कृति, सन् २००, विश्वविद्यालय प्रकाशन (पृ० १७७)।
  4. अचार्य श्री बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास - वेद खण्ड, सन् १९९६, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान (पृ० ५०८)।