Line 1: |
Line 1: |
− | यह कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा से संबद्ध है। इसमें २ अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में ३ खण्ड (वल्ली) हैं। इसमें काव्यात्मक मनोरम शैली में गूढ दार्शनिक तत्त्वों का विवेचन है। अपनी रोचकता के कारण यह सुविख्यात है। इसमें सुप्रसिद्ध यम और नचिकेता (नचिकेतस्) की कथा है। | + | यह कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा से संबद्ध है। इसमें २ अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में ३ खण्ड (वल्ली) हैं। इसमें काव्यात्मक मनोरम शैली में गूढ दार्शनिक तत्त्वों का विवेचन है। अपनी रोचकता के कारण यह सुविख्यात है। इसमें सुप्रसिद्ध यम और नचिकेता (नचिकेतस्) के संवादरूप से ब्रह्मविद्याका विस्तृत वर्णन है। |
| | | |
− | == परिचय == | + | ==परिचय== |
| उद्दालक ऋषि के पुत्र वाजश्रवस सर्वमेध (विश्ववेदस् ) यज्ञ के अन्त में ऋत्विजों को जीर्ण-शीर्ण गायें दक्षिणा में दे रहे थे। नचिकेता (नचिकेतस्) उनका पुत्र था। उसको पिता के इस कृत्य पर ग्लानि हुई। उसने कहा- पिताजी मुझे किसको दोगे। पिता ने क्रोध में कहा - यम को।<ref>कपिलदेव द्विवेदी, [https://archive.org/details/vedicsahityaevamsanskritidr.kapildevdwivedi/page/n193/mode/1up वैदिक साहित्य एवं संस्कृति], सन् २०००, विश्वविद्यालय प्रकाशन (पृ० १७५)</ref> | | उद्दालक ऋषि के पुत्र वाजश्रवस सर्वमेध (विश्ववेदस् ) यज्ञ के अन्त में ऋत्विजों को जीर्ण-शीर्ण गायें दक्षिणा में दे रहे थे। नचिकेता (नचिकेतस्) उनका पुत्र था। उसको पिता के इस कृत्य पर ग्लानि हुई। उसने कहा- पिताजी मुझे किसको दोगे। पिता ने क्रोध में कहा - यम को।<ref>कपिलदेव द्विवेदी, [https://archive.org/details/vedicsahityaevamsanskritidr.kapildevdwivedi/page/n193/mode/1up वैदिक साहित्य एवं संस्कृति], सन् २०००, विश्वविद्यालय प्रकाशन (पृ० १७५)</ref> |
| | | |
− | == परिभाषा == | + | ==परिभाषा== |
| | | |
− | == कठ उपनिषद् == | + | ==कठ उपनिषद्== |
| | | |
− | == दार्शनिक महत्त्व के सन्दर्भ == | + | ==यम-नचिकेता संवाद== |
| + | {{Main|Yama Nachiketa Samvada (यमनचिकेतसोः संवादः)}}पिता पुत्र संवाद - |
| | | |
− | # संसार अनित्य है। संसार के भोग-विलास क्षणिक हैं। धन से आत्मिक शान्ति नहीं मिलती। न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः। (१, १, २७) | + | यमलोक में नचिकेता का गमन एवं यमराज का वरप्रदान - <ref>[https://ia801502.us.archive.org/18/items/Works_of_Sankaracharya_with_Hindi_Translation/Kathopanishad%20Sankara%20Bhashya%20with%20Hindi%20Translation%20-%20Gita%20Press%201951.pdf कठोपनिषद्] , सानुवाद शांकरभाष्य, सन् २००८, गीताप्रेस गोरखपुर।</ref> |
| + | |
| + | # प्रथम वर - पितृपरितोष (स्वर्गस्वरूपप्रदर्शन) |
| + | # द्वितीय वर - स्वर्गसाधनभूत अग्निविद्या (नाचिकेत अग्निचयनका फल) |
| + | # तृतीय वर - आत्मरहस्य (नाचिकेत की स्थिरता) |
| + | |
| + | ==दार्शनिक महत्त्व के सन्दर्भ== |
| + | |
| + | #संसार अनित्य है। संसार के भोग-विलास क्षणिक हैं। धन से आत्मिक शान्ति नहीं मिलती। न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः। (१, १, २७) |
| # श्रेय और प्रेय दो मार्ग हैं। सामान्य जन जीवनयापन के लिए प्रेय मार्ग (भौतिक सुख) को अपनाते हैं, परंतु विद्वान् व्यक्ति श्रेयमार्ग (अध्यात्म मार्ग) को ही अपनाते हैं। श्रेयमार्ग आत्मिक शान्ति और मोक्ष का साधन है। श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते , प्रेयो मन्दो योगक्षेमौ वृणीते। (१,२,२) | | # श्रेय और प्रेय दो मार्ग हैं। सामान्य जन जीवनयापन के लिए प्रेय मार्ग (भौतिक सुख) को अपनाते हैं, परंतु विद्वान् व्यक्ति श्रेयमार्ग (अध्यात्म मार्ग) को ही अपनाते हैं। श्रेयमार्ग आत्मिक शान्ति और मोक्ष का साधन है। श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते , प्रेयो मन्दो योगक्षेमौ वृणीते। (१,२,२) |
− | # ओम् सारे वेदों और शास्त्रों का सार है। ओम् (ईश्वर, ब्रह्म) के लिए ही सारे जप-तप आदि किए जाते हैं। वही संसार में सबसे बडा सहारा (आलम्बन) है। सर्वे वेदा यत्पदम् आमनन्ति - तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीमि-ओम् इत्येतत्। (१,२, १५) एतदालम्बनं श्रेष्ठम् , एतदालम्बनं परम् । (१,२,१७) | + | #ओम् सारे वेदों और शास्त्रों का सार है। ओम् (ईश्वर, ब्रह्म) के लिए ही सारे जप-तप आदि किए जाते हैं। वही संसार में सबसे बडा सहारा (आलम्बन) है। सर्वे वेदा यत्पदम् आमनन्ति - तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीमि-ओम् इत्येतत्। (१,२, १५) एतदालम्बनं श्रेष्ठम् , एतदालम्बनं परम् । (१,२,१७) |
− | # आत्मा अजर और अमर है, न कभी उत्पन्न होता है और न कभी मरता है। यह सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान् से महान् है। इसको ज्ञानी ही जान पाते हैं। यह प्रत्येक जीव के अन्दर विद्यमान है। न जायते म्रियते वा विपश्चित् । (१,२,१८ से २०) अणोरणीयान् महतो महीयान्०। (१,२,२०) | + | #आत्मा अजर और अमर है, न कभी उत्पन्न होता है और न कभी मरता है। यह सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान् से महान् है। इसको ज्ञानी ही जान पाते हैं। यह प्रत्येक जीव के अन्दर विद्यमान है। न जायते म्रियते वा विपश्चित् । (१,२,१८ से २०) अणोरणीयान् महतो महीयान्०। (१,२,२०) |
− | # यह आत्मा ज्ञान-विज्ञान-मेधा आदि से प्राप्य नहीं है। आत्म-समर्पण से ही प्राप्य है। भक्त पर उसकी कृपा होती है और उसे आत्मदर्शन होता है। नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यः,,,,,,,,,यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः०। (१,२,२२) | + | #यह आत्मा ज्ञान-विज्ञान-मेधा आदि से प्राप्य नहीं है। आत्म-समर्पण से ही प्राप्य है। भक्त पर उसकी कृपा होती है और उसे आत्मदर्शन होता है। नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यः,,,,,,,,,यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः०। (१,२,२२) |
− | # जो मनुष्य ज्ञान (विवेक) को सारथि बनाता है, और मन को लगाम। वही परम पद को प्राप्त करता है। | + | #जो मनुष्य ज्ञान (विवेक) को सारथि बनाता है, और मन को लगाम। वही परम पद को प्राप्त करता है। |
| | | |
− | == सारांश == | + | ==सारांश== |
| | | |
− | == उद्धरण == | + | ==उद्धरण== |
| + | <references /> |