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− | उपनिषद का शाब्दिक अर्थ है श्रद्धायुक्त गुरु के चरणों में बैठना (उप+नि+षद्)। उपनिषद् वेदों के अंतिम भाग होने से इन्हैं वेदान्त भी कहा जाता है। उपनिषदों की संख्या के बारे में कई तर्क हैं लेकिन सर्वसंमत 108 या 111 उपनिषद मानी गई है। जिनमें 13 प्रमुख उपनिषद हैं। | + | उपनिषद का शाब्दिक अर्थ है श्रद्धायुक्त गुरु के चरणों में बैठना (उप+नि+षद्)। उपनिषद् वेदों के अंतिम भाग होने से इन्हैं वेदान्त भी कहा जाता है। उपनिषदों की संख्या के बारे में कई तर्क हैं लेकिन सर्वसंमत 108 या 111 उपनिषद मानी गई है। मुक्तिकोपनिषद् में दस प्रमुख उपनिषदों को सूचीबद्ध किया गया है, जिन पर श्री आदि शंकराचार्य जी ने अपने भाष्य लिखे हैं और जिन्हैं मुख्य एवं प्राचीन माना जाता है। |
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− | == परिचय == | + | ==परिचय== |
| मुख्य उपनिषद इस प्रकार हैं – | | मुख्य उपनिषद इस प्रकार हैं – |
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| उपनिषद् नाम वाले जो ग्रन्थ छपे हुए मिलते हैं , उनकी संख्या लगभग २०० से ऊपर जाती है। मुक्तिकोपनिषद् में १०८ नाम गिनाए गए हैं। उपनिषदों के ऊपर सबसे प्राचीन भाष्य शंकराचार्य (७८८-८२०) का ही है। भाष्य के लिये उन्होंने केवल १० उपनिषदें चुनी हैं। अपने किये हुए भाष्य के अतिरिक्त अन्य उपनिषदों का उल्लेख उन्होंने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में किया है। रामानुज ने (१०१७-११३७) शंकराचार्य के उपरान्त द अन्य उपनिषद् भी चुनी हैं। इन दोनों आचार्यों द्वारा चुने गए ऐतरेय , बृहदारण्यक , छान्दोग्य , ईश, जाबाल , कैवल्य , कठ , केन , माण्डुक्य , महानारायण , मुण्डक , प्रश्न , श्वेताश्वतर और तैत्तिरीय - ये चौदह उपनिषदें हैं। | | उपनिषद् नाम वाले जो ग्रन्थ छपे हुए मिलते हैं , उनकी संख्या लगभग २०० से ऊपर जाती है। मुक्तिकोपनिषद् में १०८ नाम गिनाए गए हैं। उपनिषदों के ऊपर सबसे प्राचीन भाष्य शंकराचार्य (७८८-८२०) का ही है। भाष्य के लिये उन्होंने केवल १० उपनिषदें चुनी हैं। अपने किये हुए भाष्य के अतिरिक्त अन्य उपनिषदों का उल्लेख उन्होंने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में किया है। रामानुज ने (१०१७-११३७) शंकराचार्य के उपरान्त द अन्य उपनिषद् भी चुनी हैं। इन दोनों आचार्यों द्वारा चुने गए ऐतरेय , बृहदारण्यक , छान्दोग्य , ईश, जाबाल , कैवल्य , कठ , केन , माण्डुक्य , महानारायण , मुण्डक , प्रश्न , श्वेताश्वतर और तैत्तिरीय - ये चौदह उपनिषदें हैं। |
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− | शंकराचार्य जी के द्वारा जिन दश उपनिषदों पर अपना भाष्य लिखा है। वे प्राचीनतम और प्रामाणिक माने जाते हैं। उनकी संख्या इस प्रकार है- | + | शंकराचार्य जी के द्वारा जिन दश उपनिषदों पर अपना भाष्य लिखा है। वे प्राचीनतम और प्रामाणिक माने जाते हैं। उनकी संख्या इस प्रकार है- <blockquote>ईश-केन-कठ-प्रश्न-मुण्ड-माण्डूक्य-तित्तिरः। ऐतरेयं च छान्दोग्यं बृहदारण्यकं तथा॥(मुक्तिकोपनिषद् 1. 30) </blockquote>१० मुख्य उपनिषद् , जिन पर आदि शंकराचार्य जी ने टिप्पणी की है - |
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− | ईश-केन-कठ-प्रश्न-मुण्ड-माण्डुक्य-तित्तिरः। ऐतरेयं च छान्दोग्यं बृहदारण्यक दश॥
| + | #ईशावास्योपनिषद् (शुक्ल यजुर्वेद) |
| + | #केनोपनिषद् (साम वेद) |
| + | #कठोपनिषद् (यजुर्वेद) |
| + | #प्रश्नोपनिषद् ॥ (अथर्व वेद) |
| + | #मुण्डकोपनिषद् ॥ (अथर्व वेद) |
| + | #माण्डूक्योपनिषद् ॥ (अथर्व वेद) |
| + | #तैत्तियोपनिषद् ॥ (यजुर्वेद) |
| + | #ऐतरेयोपनिषद् ॥ (ऋग्वेद) |
| + | #छान्दोग्योपनिषद्॥ (साम वेद) |
| + | #बृहदारण्यकोपनिषद् (यजुर्वेद) |
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− | === ईशावास्योपनिषद्<ref name=":0">शोध गंगा , शोधकर्त्री - श्री पार्वती सेवग, उपनिषदों की पृष्ठभूमि में जीवन-आकांक्षाओं के मनोवैज्ञानिक , दार्शनिक व शैक्षिक परिप्रेक्ष्यों का विश्लेषणात्मक अध्ययन , सन् २००९ , महाराजा गंगासिंह विश्वविद्यालय , बीकानेर, प्रथमाध्याय (पृ० ९)</ref> === | + | इन दस उपनिषदों के अलावा कौषीतकि, श्वेताश्वतर और मैत्रायणीय उपनिषदों को भी प्राचीन माना जाता है क्योंकि इन तीनों में से पहले दो उपनिषदों का उल्लेख शंकराचार्य ने अपने ब्रह्मसूत्र भाष्य और दशोपनिषद् भाष्य में किया है; हालांकि उनके द्वारा इन पर कोई टीका उपलब्ध नहीं है। |
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| + | == प्रमुख उपनिषद् == |
| + | उपनिषदों की शृंघला में सर्वप्रथम उपनिषद् ईशावास्योपनिषद् है। |
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| + | ===ईशावास्योपनिषद्=== |
| {{Main|Ishavasyopanishad_and_Dakshinamurthy_(ईशावास्योपनिशत्_दक्षिणामूर्तिः_च)}} | | {{Main|Ishavasyopanishad_and_Dakshinamurthy_(ईशावास्योपनिशत्_दक्षिणामूर्तिः_च)}} |
| शुक्ल यजुर्वेद संहिता का अंतिम चालीसवां अध्याय। इसमें केवल 18 मंत्र हैं। इसको प्रारम्भिक शब्द ईश पर से ईशावास्योपनिषद् कहते हैं। इसका दूसरा नाम वाजसनेयी संहिता या मंत्रोपनिषद् भी कहते हैं। दर्शन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये ज्ञानोपार्जन के साथ-साथ कर्म करने के भी आवश्यकता है, इस विषय का प्रतिपादन ईश में है। यही मत ज्ञान-कर्म समुच्चय वाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। वस्तुतः भारतीय दर्शन में इसी विचार का प्राधान्य है। | | शुक्ल यजुर्वेद संहिता का अंतिम चालीसवां अध्याय। इसमें केवल 18 मंत्र हैं। इसको प्रारम्भिक शब्द ईश पर से ईशावास्योपनिषद् कहते हैं। इसका दूसरा नाम वाजसनेयी संहिता या मंत्रोपनिषद् भी कहते हैं। दर्शन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये ज्ञानोपार्जन के साथ-साथ कर्म करने के भी आवश्यकता है, इस विषय का प्रतिपादन ईश में है। यही मत ज्ञान-कर्म समुच्चय वाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। वस्तुतः भारतीय दर्शन में इसी विचार का प्राधान्य है। |
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− | ईशावास्य उपनिषद में त्याग की भावना तथा इसके अनुकूल ईश्वर की हर वस्तु में उपस्थित यह निश्चित हो जाता है। इसके उपरांत इस उपनिषद् में कर्म का चिंतन भी हुआ है। ईश्वर दर्शन के साथ मोह से युक्त होना तथा विद्या और अविद्या दोनों का भी वर्णन इस उपनिषद् में हुआ है।<ref name=":0" /> | + | ईशावास्य उपनिषद में त्याग की भावना तथा इसके अनुकूल ईश्वर की हर वस्तु में उपस्थित यह निश्चित हो जाता है। इसके उपरांत इस उपनिषद् में कर्म का चिंतन भी हुआ है। ईश्वर दर्शन के साथ मोह से युक्त होना तथा विद्या और अविद्या दोनों का भी वर्णन इस उपनिषद् में हुआ है।<ref name=":0">शोध गंगा , शोधकर्त्री - श्री पार्वती सेवग, उपनिषदों की पृष्ठभूमि में जीवन-आकांक्षाओं के मनोवैज्ञानिक , दार्शनिक व शैक्षिक परिप्रेक्ष्यों का विश्लेषणात्मक अध्ययन , सन् २००९ , महाराजा गंगासिंह विश्वविद्यालय , बीकानेर, प्रथमाध्याय (पृ० ९)</ref> |
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| ===केनोपनिषद्=== | | ===केनोपनिषद्=== |
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| ===कठोपनिषद्=== | | ===कठोपनिषद्=== |
− | यह उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा का है। इस उपनिषद् में यम और नचिकेता संवाद के द्वारा ब्रह्मविद्या का आकलन हुआ है। भगवद्गीता के अनेक मंत्रों पर इस उपनिषद् की छाप है। इस उपनिषद् में दो अध्याय हैं, दोनों अध्यायों की तीन-तीन शाखाएँ हैं। भगवद्गीता के अश्वत्थ रूप का जो रूपक दिखता है। वह इस उपनिषद् का मूल है, इस उपनिषद् में आत्मा का वर्णन हुआ है। वह भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में निरूपित है। कठोपनिषद् में ही यम-नचिकेता का दिव्य संवाद प्रस्तुत हुआ है, जिसमें आत्मविद्या के सामने लोक-परलोक की संपत्ति का नचिकेता द्वारा तिरस्कार तथा आत्मविद्या का महत्व बतलाया गया है। इसी अध्याय की द्वितीय वल्ली मेम श्रेय (विद्या) और प्रेय (अविद्या) का विवेक बताया गया है। कठोपनिषद् में लिखा गया है -<blockquote>श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्तिधीरः।</blockquote> | + | यह उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा का है। इस उपनिषद् में यम और नचिकेता संवाद के द्वारा ब्रह्मविद्या का आकलन हुआ है। भगवद्गीता के अनेक मंत्रों पर इस उपनिषद् की छाप है। इस उपनिषद् में दो अध्याय हैं, दोनों अध्यायों की तीन-तीन शाखाएँ हैं। भगवद्गीता के अश्वत्थ रूप का जो रूपक दिखता है। वह इस उपनिषद् का मूल है, इस उपनिषद् में आत्मा का वर्णन हुआ है। वह भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में निरूपित है। कठोपनिषद् में ही यम-नचिकेता का दिव्य संवाद प्रस्तुत हुआ है, जिसमें आत्मविद्या के सामने लोक-परलोक की संपत्ति का नचिकेता द्वारा तिरस्कार तथा आत्मविद्या का महत्व बतलाया गया है। इसी अध्याय की द्वितीय वल्ली मेम श्रेय (विद्या) और प्रेय (अविद्या) का विवेक बताया गया है।<ref name=":0" /> कठोपनिषद् में लिखा गया है -<blockquote>श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्तिधीरः।</blockquote> |
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| ===छान्दोग्योपनिषद्=== | | ===छान्दोग्योपनिषद्=== |
| {{Main|Chandogya_Upanishad_(छान्दोग्योपनिषतद्)}} | | {{Main|Chandogya_Upanishad_(छान्दोग्योपनिषतद्)}} |
− | सामवेद की तवलकार शाखा के अन्तर्गत छांदोग्य ब्राह्मण के अंश को इस उपनिषद् के रूप में मान्यता दी गई है। उक्त ब्राह्मण में १० अध्याय हैं। इस छांदोग्य उपनिषद् आठ अध्यायों में विभक्त सबसे बडा उपनिषद् है और सबसे प्राचीनतम उपनिषद् है। इसमें सूक्ष्म उपासना के द्वारा ब्रह्म के सर्वव्यापी होने का उपदेश प्रारंभ में है। इस उपनिषद् में दृष्टांतों के द्वारा छोटी-छोटी कहानियों के द्वारा आत्मा का साक्षात्कार करने की विधि का वर्णन युक्ति तथा अनुभव के आधार पर बडी रोचकता के साथ किया गया है। | + | सामवेद की तवलकार शाखा के अन्तर्गत छांदोग्य ब्राह्मण के अंश को इस उपनिषद् के रूप में मान्यता दी गई है। उक्त ब्राह्मण में १० अध्याय हैं। इस छांदोग्य उपनिषद् आठ अध्यायों में विभक्त सबसे बडा उपनिषद् है और सबसे प्राचीनतम उपनिषद् है। इसमें सूक्ष्म उपासना के द्वारा ब्रह्म के सर्वव्यापी होने का उपदेश प्रारंभ में है। इस उपनिषद् में दृष्टांतों के द्वारा छोटी-छोटी कहानियों के द्वारा आत्मा का साक्षात्कार करने की विधि का वर्णन युक्ति तथा अनुभव के आधार पर बडी रोचकता के साथ किया गया है।<ref name=":0" /> |
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| ===बृहदारण्यक उपनिषद्=== | | ===बृहदारण्यक उपनिषद्=== |
| {{Main|Brhadaranyaka_Upanishad_(बृहदारण्यकोपनिषद्)}} | | {{Main|Brhadaranyaka_Upanishad_(बृहदारण्यकोपनिषद्)}} |
− | यह उपनिषद् शुक्ल यजुर्वेद से संबंधित है। इसका नाम ही बताता है कि यह उपनिषद् कद में सबसे बडा है। यह अरण्य में कहा गया है इसीलिये आरण्यक और बहुत बडा होने के कारण बृहत् कहा गया है। इस उपनिषद् का महत्वपूर्ण भाग ' याज्ञवल्क्य कांड है , जिसमें याज्ञवल्क्य ने गार्गीय को ज्ञान का उपदेश दिया है, उसका वर्णन है। इस उपनिषद् में दम , दान और दया का उपदेश दिया गया है। इसमें याज्ञवल्क्य और मैत्री का संवाद भी है। नेति-नेति का प्रयोग भी इस उपनिषद् से है। इस उपनिषद् में छः अध्याय हैं। इसी उपनिषद् में गार्गी ने दो बार प्रश्न किए हैं, पहली बार अतिप्रश्न करने पर याज्ञवल्क्य ने उन्हैं मस्तक गिरने की बात कहकर रोक दिया है। दुबारा वे सभा की अनुमति से पुनः दो प्रश्न करती हैं तथा समाधान पाकर लोगों से कह देती हैं कि इनसे कोई जीत नहीं सकेगा , किन्तु शाकल्य विदग्ध नहीं माने और अतिप्रश्न करने के कारण उनका मस्तक गिर गया। | + | यह उपनिषद् शुक्ल यजुर्वेद से संबंधित है। इसका नाम ही बताता है कि यह उपनिषद् कद में सबसे बडा है। यह अरण्य में कहा गया है इसीलिये आरण्यक और बहुत बडा होने के कारण बृहत् कहा गया है। इस उपनिषद् का महत्वपूर्ण भाग ' याज्ञवल्क्य कांड है , जिसमें याज्ञवल्क्य ने गार्गीय को ज्ञान का उपदेश दिया है, उसका वर्णन है। इस उपनिषद् में दम , दान और दया का उपदेश दिया गया है। इसमें याज्ञवल्क्य और मैत्री का संवाद भी है। नेति-नेति का प्रयोग भी इस उपनिषद् से है। इस उपनिषद् में छः अध्याय हैं। इसी उपनिषद् में गार्गी ने दो बार प्रश्न किए हैं, पहली बार अतिप्रश्न करने पर याज्ञवल्क्य ने उन्हैं मस्तक गिरने की बात कहकर रोक दिया है। दुबारा वे सभा की अनुमति से पुनः दो प्रश्न करती हैं तथा समाधान पाकर लोगों से कह देती हैं कि इनसे कोई जीत नहीं सकेगा , किन्तु शाकल्य विदग्ध नहीं माने और अतिप्रश्न करने के कारण उनका मस्तक गिर गया।<ref name=":0" /> |
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| ===प्रश्नोपनिषद्=== | | ===प्रश्नोपनिषद्=== |
− | इस उपनिषद् में प्रश्नों के द्वारा ज्ञान का वर्णन किया गया है। प्रश्नोपनिषद् में जिज्ञासुओं द्वारा महर्षिओं पिप्पलाद से पूछे छः प्रश्न और उनके उत्तरों का वर्णन है। इसमें पिप्पलाद ऋषि के द्वारा प्रश्नों के उत्तर दिये गए हैं। प्रश्न उपनिषद् गुरु-शिष्य संवाद के रूप में है। सुकेशा , सत्यकाम , कौशल्य , गार्ग्य ये ब्रह्मज्ञान के जिज्ञासु पिप्पलाद ऋषि के समीप हाथ में समीधा लेकर उपस्थित होते हैं और उनसे अनेक प्रकार के प्रश्न करते हैं, जो परम्परा से या साक्षात् ब्रह्मज्ञान के संबंध में हैं। इस उपनिषद् में प्राण की उत्पत्ति , स्थिति , पंच प्राणों का क्रम अक्षर ब्रह्म के ज्ञान का फल , १६ कलायुक्त पुरुष की जिज्ञासा आदि विषयों का वर्णन हुआ है। | + | इस उपनिषद् में प्रश्नों के द्वारा ज्ञान का वर्णन किया गया है। प्रश्नोपनिषद् में जिज्ञासुओं द्वारा महर्षिओं पिप्पलाद से पूछे छः प्रश्न और उनके उत्तरों का वर्णन है। इसमें पिप्पलाद ऋषि के द्वारा प्रश्नों के उत्तर दिये गए हैं। प्रश्न उपनिषद् गुरु-शिष्य संवाद के रूप में है। सुकेशा , सत्यकाम , कौशल्य , गार्ग्य ये ब्रह्मज्ञान के जिज्ञासु पिप्पलाद ऋषि के समीप हाथ में समीधा लेकर उपस्थित होते हैं और उनसे अनेक प्रकार के प्रश्न करते हैं, जो परम्परा से या साक्षात् ब्रह्मज्ञान के संबंध में हैं। इस उपनिषद् में प्राण की उत्पत्ति , स्थिति , पंच प्राणों का क्रम अक्षर ब्रह्म के ज्ञान का फल , १६ कलायुक्त पुरुष की जिज्ञासा आदि विषयों का वर्णन हुआ है।<ref name=":0" /> |
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| ===मुंडक उपनिषद्=== | | ===मुंडक उपनिषद्=== |
− | मुण्डकोपनिषद् को मुण्डक भी कहते हैं। मुण्डक शब्द का तात्पर्यार्थ मन का मुण्डन कर अविधा से मुक्त करने वाला ज्ञान है। इसमें तीन मुण्डक (खण्ड विभाजन) हुए हैं। | + | मुण्डकोपनिषद् को मुण्डक भी कहते हैं। मुण्डक शब्द का तात्पर्यार्थ मन का मुण्डन कर अविधा से मुक्त करने वाला ज्ञान है। इसमें तीन मुण्डक (खण्ड विभाजन) हुए हैं।<ref name=":0" /> |
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| ===मांण्डूक्य उपनिषद्=== | | ===मांण्डूक्य उपनिषद्=== |
− | यह सबसे छोटा उपनिषद् है इसमें मनुष्य की चार अवस्थाओं का वर्णन है, जिसमें क्रमशः जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति तथा तुरीय अवस्था का वर्णन निरूपण है। आत्मा के चार पाद हैं जिनके नाम जागृत स्थान, स्वप्न स्थान, सुषुप्त स्थान तथा सर्व प्रपंचोपशम स्थान है। इस उपनिषद् में कहा गया है कि समस्त जगत् प्रणव से ही अभिव्यक्त होता है। भूत , भविष्य तथा वर्तमान सभी इसी ओंकार के रूप हैं ऐसा वर्णन इस उपनिषद् में मिलता है। | + | यह सबसे छोटा उपनिषद् है इसमें मनुष्य की चार अवस्थाओं का वर्णन है, जिसमें क्रमशः जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति तथा तुरीय अवस्था का वर्णन निरूपण है। आत्मा के चार पाद हैं जिनके नाम जागृत स्थान, स्वप्न स्थान, सुषुप्त स्थान तथा सर्व प्रपंचोपशम स्थान है। इस उपनिषद् में कहा गया है कि समस्त जगत् प्रणव से ही अभिव्यक्त होता है। भूत , भविष्य तथा वर्तमान सभी इसी ओंकार के रूप हैं ऐसा वर्णन इस उपनिषद् में मिलता है।<ref name=":0" /> |
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− | ===तैत्तिरीय उपनिषद्=== | + | === तैत्तिरीय उपनिषद् === |
| {{Main|Taittriya_Upanishad_(तैत्तिरीय-उपनिषद्)}} | | {{Main|Taittriya_Upanishad_(तैत्तिरीय-उपनिषद्)}} |
| तैत्तिरीयोपनिषद् में तीन वल्लियाँ (शिक्षवल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली तथा भृगुवल्ली) है। शिक्षावल्ली के तृतीय अनुवाक में पाँच प्रकार की संहितोपासना का वर्णन हुआ है, यह हैं अधिलोक, अधिज्योतिष , अधिविद्य, अधिप्रज और अध्यात्म। | | तैत्तिरीयोपनिषद् में तीन वल्लियाँ (शिक्षवल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली तथा भृगुवल्ली) है। शिक्षावल्ली के तृतीय अनुवाक में पाँच प्रकार की संहितोपासना का वर्णन हुआ है, यह हैं अधिलोक, अधिज्योतिष , अधिविद्य, अधिप्रज और अध्यात्म। |
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| भृगुवल्ली में ऋषिभृगु की ब्रह्मपरक जिज्ञासा का समाधान उनके पिता वण ने किया है। तत्वज्ञान को समझाकर उन्हैं तपश्चर्या द्वारा स्वयं अनुभव करने का निर्देश दिया गया है। इस उपनिषद् में भृगु द्वारा पंचकोश का अनुभव क्रमशः करके पिता वण द्वारा उसके उपयोजन का विज्ञान समझाया गया है। | | भृगुवल्ली में ऋषिभृगु की ब्रह्मपरक जिज्ञासा का समाधान उनके पिता वण ने किया है। तत्वज्ञान को समझाकर उन्हैं तपश्चर्या द्वारा स्वयं अनुभव करने का निर्देश दिया गया है। इस उपनिषद् में भृगु द्वारा पंचकोश का अनुभव क्रमशः करके पिता वण द्वारा उसके उपयोजन का विज्ञान समझाया गया है। |
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− | इस उपनिषद में भिन्न-भिन्न प्रकार के उपदेश दिये गये हैं - जैसा कि सत्यं वद् । धर्मं चर । स्वाध्यायान् मां न प्रमद। मातृ देवो भव। पितृ देवे भव । आचार्य देवो भव, अतिथि एवो भव , इत्यादि प्रसिद्ध वाक्य इस उपनिषद् के हैं। इसके एक अध्याय में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और अनन्दमय इत्यादो कोषों का वर्णन है। इसके तीसरे अध्याय में भृगु-वरुण संवाद है, जिसके कारण इसे भृगुवल्ली भी कहा जाता है। | + | इस उपनिषद में भिन्न-भिन्न प्रकार के उपदेश दिये गये हैं - जैसा कि सत्यं वद् । धर्मं चर । स्वाध्यायान् मां न प्रमद। मातृ देवो भव। पितृ देवे भव । आचार्य देवो भव, अतिथि एवो भव , इत्यादि प्रसिद्ध वाक्य इस उपनिषद् के हैं। इसके एक अध्याय में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और अनन्दमय इत्यादो कोषों का वर्णन है। इसके तीसरे अध्याय में भृगु-वरुण संवाद है, जिसके कारण इसे भृगुवल्ली भी कहा जाता है।<ref name=":0" /> |
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| ===ऐतरेय उपनिषद्=== | | ===ऐतरेय उपनिषद्=== |
− | यह उपनिषद् तीन अध्यायों में विभक्त है। इस उपनिषद् के प्रथम अध्याय में विश्व रचना का वर्णन हुआ है कि पहले यही एक आत्मा थी और कुछ नहीं था। इसी ओच्छा से लोकोम की सृष्टि हुई। प्रथ अध्याय के प्रथम खण्ड में परमात्मा द्वारा सृष्टि रचना का संकल्प तथा लोकों -लोकपालों की की रचना का प्रसंग है। एवं क्रमशः अन्य वस्तुओं की भी सृष्टी हुई। दूसरे अध्याय में मनुष्य के जन्म , गर्भ से बाहर आना दूसरा जन्म तथा अपनी सन्तान को घर का भार सौंपकर जब वृद्धावस्था में वह मरता है तो उसका तीसरा जन्म होता है। दूसरे अध्याय में जीवनचक्र का अनुभव प्राप्त करने का वर्णन का वर्णन है। तीसरे अध्याय में आत्मा के ज्ञान का विचार है और विज्ञान के भिन्न - भिन्न रूपों का भी निरूपण है, जिससे ज्ञान के मार्ग का क्रमिक परिचय लोगों को होता है। | + | यह उपनिषद् तीन अध्यायों में विभक्त है। इस उपनिषद् के प्रथम अध्याय में विश्व रचना का वर्णन हुआ है कि पहले यही एक आत्मा थी और कुछ नहीं था। इसी ओच्छा से लोकोम की सृष्टि हुई। प्रथ अध्याय के प्रथम खण्ड में परमात्मा द्वारा सृष्टि रचना का संकल्प तथा लोकों -लोकपालों की की रचना का प्रसंग है। एवं क्रमशः अन्य वस्तुओं की भी सृष्टी हुई। दूसरे अध्याय में मनुष्य के जन्म , गर्भ से बाहर आना दूसरा जन्म तथा अपनी सन्तान को घर का भार सौंपकर जब वृद्धावस्था में वह मरता है तो उसका तीसरा जन्म होता है। दूसरे अध्याय में जीवनचक्र का अनुभव प्राप्त करने का वर्णन का वर्णन है। तीसरे अध्याय में आत्मा के ज्ञान का विचार है और विज्ञान के भिन्न - भिन्न रूपों का भी निरूपण है, जिससे ज्ञान के मार्ग का क्रमिक परिचय लोगों को होता है।<ref name=":0" /> |
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− | तीसरे अध्याय में उपास्य कौन हैं< यह प्रश्न खडा करके प्रज्ञान रूप परमात्मा को ही उपास्य सिद्ध किया गया है। इस उपनिषद् में देवताओं की अन्न एवं आयतनयाचना , अन्नरचना का विचार परमात्मा का शरीर प्रवेश-सम्बन्धी विचार, जीव का मोह और उसकी निवृत्ति पुरुष के तीन जन्म विचार , अन्तिम अध्याय में आत्मसम्बन्धी प्रश्न प्रज्ञानसंज्ञक मन के अनेक नाम , प्रज्ञान की सर्वरूपता , आदि विचार किया गया है। | + | तीसरे अध्याय में उपास्य कौन हैं। यह प्रश्न खडा करके प्रज्ञान रूप परमात्मा को ही उपास्य सिद्ध किया गया है। इस उपनिषद् में देवताओं की अन्न एवं आयतनयाचना , अन्नरचना का विचार परमात्मा का शरीर प्रवेश-सम्बन्धी विचार, जीव का मोह और उसकी निवृत्ति पुरुष के तीन जन्म विचार , अन्तिम अध्याय में आत्मसम्बन्धी प्रश्न प्रज्ञानसंज्ञक मन के अनेक नाम , प्रज्ञान की सर्वरूपता , आदि विचार किया गया है। |
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| ===श्वेताश्वतर उपनिषद्=== | | ===श्वेताश्वतर उपनिषद्=== |
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| ==उद्धरण== | | ==उद्धरण== |
| + | <references /> |