Difference between revisions of "Yoga in Panchanga (पंचांग में योग)"
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+ | ज्योतिषशास्त्र में पञ्चांग के अन्तर्गत चतुर्थ अवयव के रूपमें योग का समावेश हुआ है। सूर्य से चन्द्रमा का अन्तर १२॰ होने पर एक तिथि होती है। उसी प्रकार भू-केन्द्रीय दृष्टि से सूर्य - चन्द्रमा की गति का योग जब एक नक्षत्र भोगकला (800कला) के तुल्य होता है तब एक योग की उत्पत्ति होती है। सामान्य रूप में योग का अर्थ है - जोड़। सूर्य व चंद्रमा के स्पष्ट राश्यादि के जोड़ को ही योग कहते हैं। वे योग विष्कुम्भ आदि वैधृति अन्त २७ होते हैं। जिस प्रकार चन्द्र एवं सूर्य का वियोगात्मक मान तिथि की उत्पत्ति करता है। उसी प्रकार उन दोनों का संयोगात्मक मान योग की उत्पत्ति करता है। अतः सूर्य और चन्द्र के संयोगात्मक मान को योग नाम से अभिहित किया गया। मुहूर्त आदि में योगों का अत्यधिक महत्व है। {{#evu:https://www.youtube.com/watch?v=K1O9dcoeC1Q=youtu.be | ||
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+ | |description=Introduction to Elements of a Panchanga - Yoga. Courtesy: Prof. K. Ramasubramaniam and Shaale.com | ||
+ | }} | ||
− | + | ==परिचय== | |
+ | योग पंचांग का एक प्रमुख अंग है। सैद्धान्तिक दृष्टि से सूर्य एवं चन्द्रमा के गति योग को योग कहलाते हैं। योग दो प्रकार के होते हैं- एक स्थिरात्मक और दूसरा चलायमान। विष्कुम्भादि योग चलायमान हैं और आनन्दादि योग स्थिर। पंचांग में दो प्रकार के योग दिये जाते हैं- प्रथम विष्कम्भादि योग और दूसरे आनन्दादि योग। विष्कम्भ आदि योगों की परिकल्पना गणितीय है। यह सूर्य चन्द्र के स्पष्ट योग पर आश्रित हैं। ज्योतिषशास्त्र के विकासक्रम में तिथि और नक्षत्र का गणित सर्वप्रथम आया। योग का गणित बाद में आया है। अतः विष्कम्भादि योगों की परिकल्पना गणितीय है। यह सूर्य चन्द्र के स्पष्ट योग पर आश्रित है। ज्योतिषशास्त्र के विकासक्रम में तिथि और नक्षत्र का गणित सबसे पहले आया। योग का गणित बाद में आया है। अतः विष्कम्भादि योग मौलिक योग कहे जायेंगे, जबकि आनन्दादि योग वार और नक्षत्र के संयोग से कल्पित हैं। | ||
− | == | + | ==योग साधन विधि== |
− | + | ज्योतिषशास्त्र में योगों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है - नैसर्गिक व तात्कालिक। | |
− | + | *'''नैसर्गिक योग -''' नैसर्गिक योगों का सदैव एक ही क्रम रहता है और एक के बाद एक आते रहते हैं। विष्कुम्भादि 27 योग नैसर्गिक श्रेणी गत हैं। | |
+ | *'''तात्कालिक योग -''' तिथि-वार-नक्षत्रादि के विशेष संगम से तात्कालिक योग बनते हैं। आनन्द प्रभृति एवं क्रकच, उत्पात, सिद्धि तथा मृत्यु आदि योग तात्कालिक हैं। | ||
− | == योगों का | + | ===विष्कुम्भादि योग=== |
+ | किसी भी दिन विष्कुम्भादि वर्तमान योग ज्ञात करने के लिये पुष्य नक्षत्र से सूर्य नक्षत्र तक तथा श्रवण नक्षत्र से चन्द्र नक्षत्र तक गणना करके दोनों प्राप्त संख्याओं के योग में 27 का भाग देने पर अवशिष्ट अंकों के अनुसार विष्कुम्भादि योगों का क्रम जानना चाहिये। वसिष्ठ संहिता आदि प्राचीनतम ग्रन्थों में विष्कुम्भादि सत्ताईस योगों का वर्णन इस प्रकार है - <blockquote>विष्कम्भः प्रीतिरायुष्मान् सौभाग्यः शोभनाह्वयः। अतिगण्डः सुकर्माख्यो धृतिः शूलोऽथ गण्डकः॥ | ||
− | = | + | वृद्धिर्ध्रुवाख्यो व्याघातो हर्षणो वज्रसंज्ञकः। सिद्धियोगो व्यतीपातो वरीयान परिघः शिवः॥ |
+ | |||
+ | सिद्धिः साध्यः शुभः शुक्लो ब्रह्मेन्द्रो वैधृतिः स्मृतः। सप्तविंशतियोगास्ते स्वनामफलदाः स्मृताः॥<ref name=":0" /></blockquote>'''अर्थ-''' उपर्युक्त ये सत्ताईस योग निम्न क्रम में हैं- विष्कम्भ, प्रीति, आयुष्मान् , सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, धृति, शूल, गण्ड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धियोग, व्यतीपात, वरीयान् , परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, ऐन्द्र और वैधृति। सिद्धियोग एवं सिद्धि का दो बार प्रयोग हुआ है किन्तु अनन्तर्कालीन आचार्यों ने द्वितीय क्रम में स्थित सिद्धि के स्थान पर सिद्ध का प्रयोग किया है। | ||
+ | |||
+ | '''व्यतीपात -''' व्यतीपात का संबंध सूर्य-चन्द्रमा के क्रान्ति साम्य से है- जब सूर्य और चन्द्र १८० डिग्री पर प्रविष्ट होते हैं व्यतीपात कहलाता है। | ||
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+ | '''वैधृति -''' ३६० डिग्री पर सूर्य-चन्द्र का क्रान्तिसाम्य होने पर वैधृति योग उत्पन्न होता है। | ||
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+ | उपर्युक्त योगों में वैधृति एवं व्यतीपात विवाह आदि शुभकर्मों में त्याज्य हैं। | ||
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+ | '''योगों के स्वामी''' | ||
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+ | नारदसंहिता में इन योगों के अधिपतियों का वर्णन महर्षि नारद जी ने निम्नलिखित प्रकार से किया है - <blockquote>योगेशा यमविष्ण्विन्दु धातृजीवनिशाकराः। इन्द्रतोयाहिवह्न्यर्क यमरुद्रुद्रऽतोयपाः॥गणेशरुद्रधनदत्वष्ट्रमित्र-षडाननाः। सावित्री कमला गौरी नासत्यौ पितरोऽदिति॥(नार०सं०)</blockquote>अर्थात् विष्कुम्भादि योगों में क्रमशः योगों के अधिपति यम, विष्णु, चन्द्र, ब्रह्मा, बृहस्पति, चन्द्रमा, इन्द्र, जल, सर्प, अग्नि, , सूर्य, भूमि, वायु, भग, वरुण, गणेश, रुद्र, कुबेर, विश्वकर्मा, मित्र, कार्तिकेय, सावित्री। लक्ष्मी, पार्वती, अश्विनी, पितर और दिति होते हैं। विष्कुम्भादि 27 योग एवं योगस्वामियों को इस सारणी के द्वारा भी समझा जा सकता है - | ||
{| class="wikitable" | {| class="wikitable" | ||
− | |+(योग सारिणी, देवता एवं फल) | + | |+(योग सारिणी, देवता एवं फल)<ref name=":0">श्री विन्ध्येश्वरीप्रसाद द्विवेदी, म्हूर्तचिन्तामणि, पीयूषधारा टीका, शुभाशुभ प्रकरण, सन् २०१८, वाराणसीः चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन (पृ०२८)</ref> |
!क्र०सं० | !क्र०सं० | ||
!योग नाम | !योग नाम | ||
− | !देवता | + | !देवता<ref name=":2">Deepawali Vyas, [http://hdl.handle.net/10603/442368 Daivgya Shriram Virchit Muhurt Chintamani ka Samikshatmak Adhyyan], Completed Year 2022, Jai Narain Vyas University, chapter-2, (page- 203). </ref> |
+ | !फल | ||
+ | !क्र०सं० | ||
+ | !योग नाम | ||
+ | !देवता<ref name=":2" /> | ||
!फल | !फल | ||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
|- | |- | ||
|1 | |1 | ||
Line 27: | Line 49: | ||
|अशुभ | |अशुभ | ||
| | | | ||
+ | 15 | ||
| | | | ||
+ | वज्र | ||
| | | | ||
− | | | + | वरुण |
+ | | | ||
+ | अशुभ | ||
|- | |- | ||
|2 | |2 | ||
Line 36: | Line 62: | ||
|शुभ | |शुभ | ||
| | | | ||
+ | 16 | ||
| | | | ||
+ | सिद्धि | ||
| | | | ||
+ | गणेश | ||
| | | | ||
+ | शुभ | ||
|- | |- | ||
|3 | |3 | ||
Line 44: | Line 74: | ||
|चन्द्र | |चन्द्र | ||
|शुभ | |शुभ | ||
+ | | | ||
+ | 17 | ||
| | | | ||
+ | व्यतीपात | ||
| | | | ||
+ | रुद्र | ||
| | | | ||
− | + | अशुभ | |
|- | |- | ||
|4 | |4 | ||
|सौभाग्य | |सौभाग्य | ||
|ब्रह्मा | |ब्रह्मा | ||
− | |शुभ | + | | शुभ |
| | | | ||
+ | 18 | ||
| | | | ||
+ | वरीयान् | ||
| | | | ||
+ | कुबेर | ||
| | | | ||
+ | शुभ | ||
|- | |- | ||
|5 | |5 | ||
Line 63: | Line 101: | ||
|शुभ | |शुभ | ||
| | | | ||
+ | 19 | ||
| | | | ||
+ | परिघ | ||
| | | | ||
+ | विश्वकर्मा | ||
| | | | ||
+ | अशुभ | ||
|- | |- | ||
|6 | |6 | ||
− | |अतिगण्ड | + | | अतिगण्ड |
|चन्द्र | |चन्द्र | ||
|अशुभ | |अशुभ | ||
| | | | ||
+ | 20 | ||
| | | | ||
+ | शिव | ||
| | | | ||
+ | मित्र | ||
| | | | ||
+ | शुभ | ||
|- | |- | ||
|7 | |7 | ||
Line 81: | Line 127: | ||
|शुभ | |शुभ | ||
| | | | ||
+ | 21 | ||
| | | | ||
+ | सिद्धि | ||
+ | | | ||
+ | कार्तिकेय | ||
| | | | ||
− | + | शुभ | |
|- | |- | ||
|8 | |8 | ||
|धृति | |धृति | ||
− | |जल | + | | जल |
|शुभ | |शुभ | ||
| | | | ||
+ | 22 | ||
| | | | ||
+ | साध्य | ||
| | | | ||
+ | सावित्री | ||
| | | | ||
+ | शुभ | ||
|- | |- | ||
|9 | |9 | ||
Line 99: | Line 153: | ||
|अशुभ | |अशुभ | ||
| | | | ||
+ | 23 | ||
| | | | ||
+ | शुभ | ||
| | | | ||
+ | लक्ष्मी | ||
| | | | ||
+ | शुभ | ||
|- | |- | ||
|10 | |10 | ||
Line 108: | Line 166: | ||
|अशुभ | |अशुभ | ||
| | | | ||
+ | 24 | ||
| | | | ||
+ | शुक्ल | ||
| | | | ||
+ | पार्वती | ||
| | | | ||
+ | शुभ | ||
|- | |- | ||
|11 | |11 | ||
Line 117: | Line 179: | ||
|शुभ | |शुभ | ||
| | | | ||
+ | 25 | ||
| | | | ||
+ | ब्रह्मा | ||
| | | | ||
+ | अश्विनी | ||
| | | | ||
+ | शुभ | ||
|- | |- | ||
|12 | |12 | ||
Line 126: | Line 192: | ||
|शुभ | |शुभ | ||
| | | | ||
+ | 26 | ||
| | | | ||
+ | ऐन्द्र | ||
+ | | | ||
+ | पितर | ||
| | | | ||
− | + | शुभ | |
|- | |- | ||
|13 | |13 | ||
− | |व्याघात | + | | व्याघात |
− | |वायु | + | | वायु |
|अशुभ | |अशुभ | ||
| | | | ||
+ | 27 | ||
| | | | ||
+ | वैधृति | ||
| | | | ||
+ | दिति | ||
| | | | ||
+ | अशुभ | ||
|- | |- | ||
|14 | |14 | ||
Line 143: | Line 217: | ||
|भग | |भग | ||
|शुभ | |शुभ | ||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
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Line 265: | Line 222: | ||
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+ | '''विष्कुम्भादि योग'''<blockquote>यस्मिनृक्षे स्थितो भानुर्यत्र तिष्ठति चन्द्रमा। एकीकृत्य त्यजेदेकं योगाः विष्कुम्भकादयः॥(बृह०अव०)<ref name=":1">पं०मदन गोपाल बाजपेयी, बृहदवकहडा चक्रम् ,सन् १९९८ वाराणसीः भारतीय विद्या प्रकाशन श्लो०९ (पृ०१़९)।</ref></blockquote>जिस नक्षत्र पर सूर्य हो और जिस नक्षत्र पर चन्द्रमा हो उन दोनों के नक्षत्र की संख्याओं को जोडकर एक घटायें , जो शेष बचे उसे विष्कुम्भादि योग जानिये। | ||
+ | |||
+ | ===आनन्दादि योग=== | ||
+ | |||
+ | आनन्दादि योग - वार और नक्षत्र के समाहार से तात्कालिक आनन्दादि २८ योगों का प्रादुर्भाव होता है। इन योगों को ज्ञात करने के हेतु वार विशेष को निर्दिष्ट नक्षत्र से विद्यमान नक्षत्र तक साभिजित् गणना की जाती है। इनके साधन हेतु रामदैवज्ञ जी ने मुहूर्तचिन्तामणि के शुभाशुभ प्रकरण में लिखा है कि - <blockquote>दास्त्रादर्के मृगादिन्दौ सार्पाद्भौमे कराद्बुधे। मैत्राद्गुरौ भृगौ वैश्वाद्गण्या मन्दे च वारुणात्॥(मुहू० चिन्ता०) </blockquote>अर्थात् आनन्दादि योगों का ज्ञान करने के लिये रविवार को अश्विनी से, सोमवार को भरणी से, मंगल को आश्लेषा से, बुध को हस्त से, गुरू को अनुराधा से, शुक्र को उत्तराषाढा से तथा शनिवार को शतभिषा से और उस दिन के चन्द्र नक्षत्र तक गणना पर प्राप्त नक्षत्र की संख्या को ही उस दिन के वर्तमान आनन्दादि योग का क्रमांक जानना चाहिये। <blockquote>आनन्दः कालदण्डश्च धूम्रो धाताऽथ पञ्चमः। सौम्यो ध्वाङ्क्षोऽपि केतुश्च श्रीवत्सो वज्रमुद्गरौ॥ | ||
+ | |||
+ | छत्रं मित्रं मानसञ्च पद्मलुम्बौ ततः क्रमात्। उत्पातमृत्युकालाश्च सिद्धिश्चापि शुभोऽमृतः॥ | ||
− | + | मुसलं गदमातङौ राक्षसश्च चरः स्थिरः। प्रवर्धमान इत्येते योगा नामसदृक् फलाः॥<ref>पं० श्रीदेवचन्द्र झा, [https://ia601009.us.archive.org/7/items/vyavaharikjyotishsarvasvampt.devchandrajha/Vyavaharik%20Jyotish%20Sarvasvam%20-%20Pt.%20Dev%20Chandra%20Jha.pdf व्यावहारिकं ज्यौतिषसर्वस्वम्] , सन् १९९५, चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान (पृ० १०)।</ref> </blockquote>'''अर्थ-''' आनन्द, कालदण्ड, धूम्र, धाता, सौम्य, ध्वांक्ष, केतु, श्रीवत्स, वज्र, मुद्गर, छत्र, मित्र, मानस, पद्म, लुम्ब, उत्पात, मृत्यु, काल, सिद्धि, शुभ, अमृत, मुसल, गद, मातंग, राक्षस, चर, स्थिर तथा प्रवर्धमान। ये आनन्दादि योग भी नामसदृश फलदायक हैं। तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण रूप पञ्चांग में योग का भी स्थान है। योग द्विविध हैं। विष्कुम्भादि योग तथा आनन्दादि योग। पञ्चाङ्गान्तर्गत विष्कुम्भादि योग ग्राह्य हैं तथा आनन्दादि योग यात्रादि में विचारणीय हैं। आनन्दादि योगों को सारणी के अनुसार जान सकते हैं - | |
{| class="wikitable" | {| class="wikitable" | ||
− | |+आनन्दादि | + | |+(सुगमता पूर्वक आनन्दादि योगों को जानने के लिये सारिणी)<ref name=":0" /> |
!क्रम सं० | !क्रम सं० | ||
!योग | !योग | ||
Line 284: | Line 248: | ||
|शुभ | |शुभ | ||
|अश्विनी | |अश्विनी | ||
− | | | + | |मृगशिरा |
− | | | + | |आश्लेषा |
− | | | + | |हस्त |
− | | | + | |अनुराधा |
− | | | + | |उ०षाढा |
− | | | + | |शतभिषा |
|- | |- | ||
|2 | |2 | ||
Line 295: | Line 259: | ||
|अशुभ | |अशुभ | ||
|भरणी | |भरणी | ||
− | | | + | |आर्द्रा |
− | | | + | |मघा |
− | | | + | |चित्रा |
− | | | + | |ज्येष्ठा |
− | | | + | |अभिजित् |
− | | | + | |पू०भाद्र |
|- | |- | ||
|3 | |3 | ||
Line 306: | Line 270: | ||
|अशुभ | |अशुभ | ||
|कृत्तिका | |कृत्तिका | ||
− | | | + | |पुनर्वसु |
− | | | + | |पू०फाल्गु |
− | | | + | |स्वाती |
− | | | + | |मूल |
− | | | + | |श्रवण |
− | | | + | |उ०भाद्र |
|- | |- | ||
|4 | |4 | ||
Line 317: | Line 281: | ||
|शुभ | |शुभ | ||
|रोहिणी | |रोहिणी | ||
− | | | + | |पुष्य |
− | | | + | |उ०फाल्गु |
− | | | + | |विशाखा |
− | | | + | |पू०षाढा |
− | | | + | |धनिष्ठा |
− | | | + | |रेवती |
|- | |- | ||
|5 | |5 | ||
Line 328: | Line 292: | ||
|शुभ | |शुभ | ||
|मृगशिरा | |मृगशिरा | ||
− | | | + | |आश्लेषा |
− | | | + | |हस्त |
− | | | + | |अनुराधा |
− | | | + | |उ०षाढा |
− | | | + | |शतभिषा |
− | | | + | |अश्विनी |
|- | |- | ||
|6 | |6 | ||
Line 339: | Line 303: | ||
|अशुभ | |अशुभ | ||
|आर्द्रा | |आर्द्रा | ||
− | | | + | |मघा |
− | | | + | |चित्रा |
− | | | + | |ज्येष्ठा |
− | | | + | |अभिजित् |
− | | | + | |पू०भाद्र |
− | | | + | |भरणी |
|- | |- | ||
|7 | |7 | ||
Line 350: | Line 314: | ||
|शुभ | |शुभ | ||
|पुनर्वसु | |पुनर्वसु | ||
− | | | + | |पू०फाल्गु |
− | | | + | |स्वाती |
− | | | + | |मूल |
− | | | + | |श्रवण |
− | | | + | |उ०भाद्र |
− | | | + | |कृत्तिका |
|- | |- | ||
|8 | |8 | ||
Line 361: | Line 325: | ||
|शुभ | |शुभ | ||
|पुष्य | |पुष्य | ||
− | | | + | |उ०फाल्गु |
− | | | + | |विशाखा |
− | | | + | |पू०षाढा |
− | | | + | |धनिष्ठा |
− | | | + | |रेवती |
− | | | + | |रोहिणी |
|- | |- | ||
|9 | |9 | ||
Line 372: | Line 336: | ||
|अशुभ | |अशुभ | ||
|आश्लेषा | |आश्लेषा | ||
− | | | + | |हस्त |
− | | | + | |अनुराधा |
− | | | + | |उ०षाढा |
− | | | + | |शतभिषा |
− | | | + | |अश्विनी |
− | | | + | |मृगशिरा |
|- | |- | ||
|10 | |10 | ||
Line 383: | Line 347: | ||
|अशुभ | |अशुभ | ||
|मघा | |मघा | ||
− | | | + | |चित्रा |
− | | | + | |ज्येष्ठा |
− | | | + | |अभिजित् |
− | | | + | |पू०भाद्र |
− | | | + | |भरणी |
− | | | + | |आर्द्रा |
|- | |- | ||
|11 | |11 | ||
Line 394: | Line 358: | ||
|शुभ | |शुभ | ||
|पूर्वाफाल्गुनी | |पूर्वाफाल्गुनी | ||
− | | | + | |स्वाती |
− | | | + | |मूल |
− | | | + | |श्रवण |
− | | | + | |उ०भाद्र |
− | | | + | |कृत्तिका |
− | | | + | |पुनर्वसु |
|- | |- | ||
|12 | |12 | ||
Line 405: | Line 369: | ||
|शुभ | |शुभ | ||
|उत्तराफाल्गुनी | |उत्तराफाल्गुनी | ||
− | | | + | |विशाखा |
− | | | + | |पू०षाढा |
− | | | + | |धनिष्ठा |
− | | | + | |रेवती |
− | | | + | |रोहिणी |
− | | | + | |पुष्य |
|- | |- | ||
|13 | |13 | ||
Line 416: | Line 380: | ||
|शुभ | |शुभ | ||
|हस्त | |हस्त | ||
− | | | + | |अनुराधा |
− | | | + | |उ०षाढा |
− | | | + | |शतभिषा |
− | | | + | |अश्विनी |
− | | | + | |मृगशिरा |
− | | | + | |आश्लेषा |
|- | |- | ||
|14 | |14 | ||
Line 427: | Line 391: | ||
|अशुभ | |अशुभ | ||
|चित्रा | |चित्रा | ||
− | | | + | |ज्येष्ठा |
− | | | + | |अभिजित् |
− | | | + | |पू०भाद्र |
− | | | + | |भरणी |
− | | | + | |आर्द्रा |
− | | | + | |मघा |
|- | |- | ||
|15 | |15 | ||
Line 438: | Line 402: | ||
|अशुभ | |अशुभ | ||
|स्वाती | |स्वाती | ||
− | | | + | |मूल |
− | | | + | |श्रवण |
− | | | + | |उ०भाद्र |
− | | | + | |कृत्तिका |
− | | | + | |पुनर्वसु |
− | | | + | |पू०फाल्गु |
|- | |- | ||
|16 | |16 | ||
Line 449: | Line 413: | ||
|अशुभ | |अशुभ | ||
|विशाखा | |विशाखा | ||
− | | | + | |पू०षाढा |
− | | | + | |धनिष्ठा |
− | | | + | |रेवती |
− | | | + | |रोहिणी |
− | | | + | |पुष्य |
− | | | + | |उ०फाल्गु |
|- | |- | ||
|17 | |17 | ||
Line 460: | Line 424: | ||
|अशुभ | |अशुभ | ||
|अनुराधा | |अनुराधा | ||
− | | | + | |उ०षाढा |
− | | | + | | शतभिषा |
− | | | + | |अश्विनी |
− | | | + | |मृगशिरा |
− | | | + | |आश्लेषा |
− | | | + | |हस्त |
|- | |- | ||
|18 | |18 | ||
Line 472: | Line 436: | ||
|ज्येष्ठा | |ज्येष्ठा | ||
|अभिजित् | |अभिजित् | ||
− | | | + | |पू० भाद्र |
− | | | + | |भरणी |
− | | | + | |आर्द्रा |
− | | | + | |मघा |
− | | | + | |चित्रा |
|- | |- | ||
|19 | |19 | ||
Line 483: | Line 447: | ||
|मूल | |मूल | ||
|श्रवण | |श्रवण | ||
− | | | + | |उ०भाद्र |
− | | | + | |कृत्तिका |
− | | | + | |पुनर्वसु |
− | | | + | | पू०फाल्गु |
− | | | + | |स्वाती |
|- | |- | ||
|20 | |20 | ||
Line 494: | Line 458: | ||
|पूर्वाषाढा | |पूर्वाषाढा | ||
|धनिष्ठा | |धनिष्ठा | ||
− | | | + | | रेवती |
− | | | + | |रोहिणी |
− | | | + | |पुष्य |
− | | | + | |उ०फाल्गु |
− | | | + | |विशाखा |
|- | |- | ||
|21 | |21 | ||
Line 505: | Line 469: | ||
|उत्तराषाढा | |उत्तराषाढा | ||
|शतभिषा | |शतभिषा | ||
− | | | + | |अश्विनी |
− | | | + | |मृगशिरा |
− | | | + | |आश्लेषा |
− | | | + | |हस्त |
− | | | + | |अनुराधा |
|- | |- | ||
|22 | |22 | ||
Line 516: | Line 480: | ||
|अभिजित् | |अभिजित् | ||
|पूर्वाभाद्रपदा | |पूर्वाभाद्रपदा | ||
− | | | + | |भरणी |
− | | | + | |आर्द्रा |
− | | | + | |मघा |
− | | | + | |चित्रा |
− | | | + | |ज्येष्ठा |
|- | |- | ||
|23 | |23 | ||
Line 527: | Line 491: | ||
|श्रवण | |श्रवण | ||
|उत्तराभाद्रपदा | |उत्तराभाद्रपदा | ||
− | | | + | |कृत्तिका |
− | | | + | |पुनर्वसु |
− | | | + | |पू०फाल्गु |
− | | | + | |स्वाती |
− | | | + | |मूल |
|- | |- | ||
|24 | |24 | ||
− | |मातंग | + | | मातंग |
|शुभ | |शुभ | ||
|धनिष्ठा | |धनिष्ठा | ||
|रेवती | |रेवती | ||
− | | | + | |रोहिणी |
− | | | + | | पुष्य |
− | | | + | |उ०फाल्गु |
− | | | + | |विशाखा |
− | | | + | |पू०षाढा |
|- | |- | ||
|25 | |25 | ||
Line 548: | Line 512: | ||
|अशुभ | |अशुभ | ||
|शतभिषा | |शतभिषा | ||
− | | | + | |अश्विनी |
− | | | + | | मृगशिरा |
− | | | + | |आश्लेषा |
− | | | + | |हस्त |
− | | | + | |अनुराधा |
− | | | + | |उ०षाढा |
|- | |- | ||
|26 | |26 | ||
Line 559: | Line 523: | ||
|शुभ | |शुभ | ||
|पूर्वाभाद्रपदा | |पूर्वाभाद्रपदा | ||
− | | | + | |भरणी |
− | | | + | |आर्द्रा |
− | | | + | |मघा |
− | | | + | |चित्रा |
− | | | + | |ज्येष्ठा |
− | | | + | |अभिजित् |
|- | |- | ||
|27 | |27 | ||
Line 570: | Line 534: | ||
|शुभ | |शुभ | ||
|उत्तराभाद्रपदा | |उत्तराभाद्रपदा | ||
− | | | + | |कृत्तिका |
− | | | + | |पुनर्वसु |
− | | | + | |पू०फाल्गु |
− | | | + | |स्वाती |
− | | | + | |मूल |
− | | | + | |श्रवण |
|- | |- | ||
|28 | |28 | ||
− | |प्रवर्धमान | + | | प्रवर्धमान |
|शुभ | |शुभ | ||
|रेवती | |रेवती | ||
− | | | + | |रोहिणी |
− | | | + | |पुष्य |
− | | | + | |उ०फाल्गु |
− | | | + | |विशाखा |
− | | | + | |पू०षाढा |
− | | | + | |धनिष्ठा |
|} | |} | ||
− | == योग फल == | + | ==योग क्षय तथा वृद्धि== |
+ | भारतीय ज्योतिष के संहिता एवं होरा स्कन्ध के अन्तर्गत समष्टि एवं व्यक्तिगत फल निर्धारण के क्रम में योगों के वृद्धि एवं क्षय का स्वरूप फल सहित एवं पंचांग पत्रकों में भी प्रायोगिक रूप में स्पष्टतया दिखायी देता है। परन्तु सैद्धान्तिक एवं गणितीय दृष्टि से किसी भी योग की ह्रास वृद्धि नहीं होती अपितु स्पष्ट सूर्य और स्पष्ट चन्द्रमा के योगफल यदि ८००-८०० कला तुल्य वृद्धि क्रम से विष्कुम्भादि योगों की क्रमशः उपस्थिति होती है। | ||
+ | |||
+ | सैद्धान्तिक दृष्टि से किसी भी योग की क्षय या वृद्धि नहीं होती अपितु भारतीय काल गणना परम्परा में अनेक कालमानों के समवेत व्यवहार के कारण अधिकमास। क्षयमास तथा तिथि, नक्षत्रों की ह्रास-वृद्धि की तरह ही योगों के ह्रास-वृद्धि की आभासिक स्थिति उत्पन्न होती है। | ||
+ | |||
+ | पंचांगों सहित प्रायोगिक जीवन में योगों की क्षय वृद्धि का विषय वास्तविक स्थिति के ज्ञान हेतु हमें प्रेरित करता है। अतः हम यहां योगों के क्षय-वृद्धि स्वरूप को देखते हैं - | ||
+ | |||
+ | जिस योग में सूर्य का उदय न हो, उस योग को क्षय संज्ञक योग कहते हैं। नक्षत्र एवं तिथि की तरह योग का आरम्भ सूर्योदय के कुछ समय बाद में हो तथा द्वितीय सूर्योदय से पूर्व यदि योगमान समाप्त हो तो योग क्षयाख्य कहते हैं। | ||
+ | |||
+ | योग की वृद्धि भी तिथि एवं नक्षत्र के तरह ही है। 1 योग का दो सूर्योदयों से संबंध होना योग वृद्धि कहलाता है। | ||
+ | |||
+ | ==योगों का महत्व== | ||
+ | ज्योतिषशास्त्र में तिथि, वार एवं नक्षत्र की तरह योगों का भी महत्वपूर्ण स्थान हैं।<blockquote>वारश्चाष्ट गुणः प्रोक्तः करणं षोडशान्वितम् । द्वात्रिंशत् गुणयोगश्च ताराषष्टि समन्विता॥(अथर्व ज्यो०)</blockquote>'''अर्थ-''' वार का आठ गुना, करण का सोलह गुना, योग का बत्तीस गुना एवं तारा का साठ गुना फल होता है।<blockquote>एवं नक्षत्रयोगेषु त्रिषु कर्म समारभेत् । धर्मार्थकर्मणामर्थे स्वकर्म फलमश्नुते॥(अथर्व ज्यो०)</blockquote>अथर्व ज्योतिष के अनुसार- धर्म, अर्थ और काम के विषय में शुभ नक्षत्र एवं शुभ योग में कार्यारम्भ करना चाहिये। त्रिवर्ग साधन में व्यक्ति अपने कर्मों का फल प्राप्त करता है।<ref>शिवराज आचार्यः कौण्डिन्न्यायनः, वेदाङ्गज्योतिषम् , भूमिका,वाराणसीःचौखम्बा विद्याभवन (पृ०३४)।</ref> | ||
+ | ==योग फल== | ||
<blockquote>विष्कम्भे जितशत्रुरर्थपशुमान् प्रीतौ परस्त्रीवश श्चायुष्मत्प्रभवश्चिरायुरगदः सौभाग्यजातः सुखी। | <blockquote>विष्कम्भे जितशत्रुरर्थपशुमान् प्रीतौ परस्त्रीवश श्चायुष्मत्प्रभवश्चिरायुरगदः सौभाग्यजातः सुखी। | ||
Line 604: | Line 581: | ||
शुक्ले धर्मरतः पटुत्ववचनः कोपी चलः पण्डितो, मानी ब्रह्मभवोऽतिगुप्तधनिकस्त्यागी विवेकप्रभुः। | शुक्ले धर्मरतः पटुत्ववचनः कोपी चलः पण्डितो, मानी ब्रह्मभवोऽतिगुप्तधनिकस्त्यागी विवेकप्रभुः। | ||
− | ऐन्द्रे सर्वजनोपकारचरितः सर्वज्ञधीतिर्वत्तवान् , मायावी परदूषकश्च बलवान् त्यागी धनी वैधृतौ॥</blockquote> | + | ऐन्द्रे सर्वजनोपकारचरितः सर्वज्ञधीतिर्वत्तवान् , मायावी परदूषकश्च बलवान् त्यागी धनी वैधृतौ॥<ref>पं०श्री सीतारामजी स्वामी, [https://archive.org/details/eJMM_kalyan-jyotish-tattva-ank-vol.-88-issue-no.-1-jan-2014-gita-press/page/n232/mode/1up ज्योतिषतत्त्वांक], भारतीय काल गणना, सन् २०१९,गोरखपुर गीताप्रेस, (पृ०२३२)।</ref></blockquote> |
+ | |||
+ | ==विचार-विमर्श== | ||
+ | ज्योतिषशास्त्र में तिथि, वार एवं नक्षत्र की तरह योगों का भी महत्वपूर्ण स्थान है। परन्तु योगों की परिकल्पना अपेक्षाकृत तिथि आदि से दुरूह थी। क्योंकि चन्द्र-सूर्य का अन्तरात्मक मान तिथि है किन्तु संयोगात्मक मान योग का निर्माण करता है। पञ्चांग के प्रसंग में आनन्दादि एवं विष्कुम्भादि भेद से दो प्रकार के योगों की मुख्यतया उपलब्धि होती है जिनमें आनन्दादि योग नक्षत्र और वारों के संयोग से वहीं विष्कुम्भादि योग सूर्य-चन्द्रमा के स्पष्ट मानों की युति से परिभाषित होते हैं। | ||
− | + | भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अंतर्गत सैद्धांतिक प्रक्रिया में योगों का कोई स्थान या उपयोगिता नहीं है फिर भी संहिता, मुहूर्त एवं फलित की उपयोगिता की दृष्टि से प्रायः प्रत्येक सिद्धांत ग्रन्थों के स्पष्टाधिकार में पञ्चांग साधन के अंतर्गत योग साधन की स्पष्ट विधि वर्णित है। योग अपने नाम एवं गुण के अनुरूप मुहूर्त और फलादेश में शुभाशुभत्व को प्रभावित करते हैं। इसीलिये योगों की उपादेयता का वर्णन अनेक ग्रन्थों में प्राप्त होता है। भारतीय ज्योतिष में आनन्दादि एवं विष्कुम्भादि भेद से योग मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं। जिनमें विष्कुम्भादि योग चल एवं आनन्दादि योग स्थिर होते हैं। पञ्चांग के अन्तर्गत विष्कुम्भादि योगों का ही ग्रहण किया जाता है। जो सूर्य एवं चन्द्रमा के स्पष्ट योग पर आधारित है। | |
− | == सन्दर्भ == | + | ==सन्दर्भ== |
+ | <references /> | ||
+ | [[Category:Vedangas]] | ||
+ | [[Category:Jyotisha]] |
Latest revision as of 08:46, 14 November 2023
ज्योतिषशास्त्र में पञ्चांग के अन्तर्गत चतुर्थ अवयव के रूपमें योग का समावेश हुआ है। सूर्य से चन्द्रमा का अन्तर १२॰ होने पर एक तिथि होती है। उसी प्रकार भू-केन्द्रीय दृष्टि से सूर्य - चन्द्रमा की गति का योग जब एक नक्षत्र भोगकला (800कला) के तुल्य होता है तब एक योग की उत्पत्ति होती है। सामान्य रूप में योग का अर्थ है - जोड़। सूर्य व चंद्रमा के स्पष्ट राश्यादि के जोड़ को ही योग कहते हैं। वे योग विष्कुम्भ आदि वैधृति अन्त २७ होते हैं। जिस प्रकार चन्द्र एवं सूर्य का वियोगात्मक मान तिथि की उत्पत्ति करता है। उसी प्रकार उन दोनों का संयोगात्मक मान योग की उत्पत्ति करता है। अतः सूर्य और चन्द्र के संयोगात्मक मान को योग नाम से अभिहित किया गया। मुहूर्त आदि में योगों का अत्यधिक महत्व है।
परिचय
योग पंचांग का एक प्रमुख अंग है। सैद्धान्तिक दृष्टि से सूर्य एवं चन्द्रमा के गति योग को योग कहलाते हैं। योग दो प्रकार के होते हैं- एक स्थिरात्मक और दूसरा चलायमान। विष्कुम्भादि योग चलायमान हैं और आनन्दादि योग स्थिर। पंचांग में दो प्रकार के योग दिये जाते हैं- प्रथम विष्कम्भादि योग और दूसरे आनन्दादि योग। विष्कम्भ आदि योगों की परिकल्पना गणितीय है। यह सूर्य चन्द्र के स्पष्ट योग पर आश्रित हैं। ज्योतिषशास्त्र के विकासक्रम में तिथि और नक्षत्र का गणित सर्वप्रथम आया। योग का गणित बाद में आया है। अतः विष्कम्भादि योगों की परिकल्पना गणितीय है। यह सूर्य चन्द्र के स्पष्ट योग पर आश्रित है। ज्योतिषशास्त्र के विकासक्रम में तिथि और नक्षत्र का गणित सबसे पहले आया। योग का गणित बाद में आया है। अतः विष्कम्भादि योग मौलिक योग कहे जायेंगे, जबकि आनन्दादि योग वार और नक्षत्र के संयोग से कल्पित हैं।
योग साधन विधि
ज्योतिषशास्त्र में योगों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है - नैसर्गिक व तात्कालिक।
- नैसर्गिक योग - नैसर्गिक योगों का सदैव एक ही क्रम रहता है और एक के बाद एक आते रहते हैं। विष्कुम्भादि 27 योग नैसर्गिक श्रेणी गत हैं।
- तात्कालिक योग - तिथि-वार-नक्षत्रादि के विशेष संगम से तात्कालिक योग बनते हैं। आनन्द प्रभृति एवं क्रकच, उत्पात, सिद्धि तथा मृत्यु आदि योग तात्कालिक हैं।
विष्कुम्भादि योग
किसी भी दिन विष्कुम्भादि वर्तमान योग ज्ञात करने के लिये पुष्य नक्षत्र से सूर्य नक्षत्र तक तथा श्रवण नक्षत्र से चन्द्र नक्षत्र तक गणना करके दोनों प्राप्त संख्याओं के योग में 27 का भाग देने पर अवशिष्ट अंकों के अनुसार विष्कुम्भादि योगों का क्रम जानना चाहिये। वसिष्ठ संहिता आदि प्राचीनतम ग्रन्थों में विष्कुम्भादि सत्ताईस योगों का वर्णन इस प्रकार है -
विष्कम्भः प्रीतिरायुष्मान् सौभाग्यः शोभनाह्वयः। अतिगण्डः सुकर्माख्यो धृतिः शूलोऽथ गण्डकः॥
वृद्धिर्ध्रुवाख्यो व्याघातो हर्षणो वज्रसंज्ञकः। सिद्धियोगो व्यतीपातो वरीयान परिघः शिवः॥
सिद्धिः साध्यः शुभः शुक्लो ब्रह्मेन्द्रो वैधृतिः स्मृतः। सप्तविंशतियोगास्ते स्वनामफलदाः स्मृताः॥[1]
अर्थ- उपर्युक्त ये सत्ताईस योग निम्न क्रम में हैं- विष्कम्भ, प्रीति, आयुष्मान् , सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, धृति, शूल, गण्ड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धियोग, व्यतीपात, वरीयान् , परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, ऐन्द्र और वैधृति। सिद्धियोग एवं सिद्धि का दो बार प्रयोग हुआ है किन्तु अनन्तर्कालीन आचार्यों ने द्वितीय क्रम में स्थित सिद्धि के स्थान पर सिद्ध का प्रयोग किया है।
व्यतीपात - व्यतीपात का संबंध सूर्य-चन्द्रमा के क्रान्ति साम्य से है- जब सूर्य और चन्द्र १८० डिग्री पर प्रविष्ट होते हैं व्यतीपात कहलाता है।
वैधृति - ३६० डिग्री पर सूर्य-चन्द्र का क्रान्तिसाम्य होने पर वैधृति योग उत्पन्न होता है।
उपर्युक्त योगों में वैधृति एवं व्यतीपात विवाह आदि शुभकर्मों में त्याज्य हैं।
योगों के स्वामी
नारदसंहिता में इन योगों के अधिपतियों का वर्णन महर्षि नारद जी ने निम्नलिखित प्रकार से किया है -
योगेशा यमविष्ण्विन्दु धातृजीवनिशाकराः। इन्द्रतोयाहिवह्न्यर्क यमरुद्रुद्रऽतोयपाः॥गणेशरुद्रधनदत्वष्ट्रमित्र-षडाननाः। सावित्री कमला गौरी नासत्यौ पितरोऽदिति॥(नार०सं०)
अर्थात् विष्कुम्भादि योगों में क्रमशः योगों के अधिपति यम, विष्णु, चन्द्र, ब्रह्मा, बृहस्पति, चन्द्रमा, इन्द्र, जल, सर्प, अग्नि, , सूर्य, भूमि, वायु, भग, वरुण, गणेश, रुद्र, कुबेर, विश्वकर्मा, मित्र, कार्तिकेय, सावित्री। लक्ष्मी, पार्वती, अश्विनी, पितर और दिति होते हैं। विष्कुम्भादि 27 योग एवं योगस्वामियों को इस सारणी के द्वारा भी समझा जा सकता है -
क्र०सं० | योग नाम | देवता[2] | फल | क्र०सं० | योग नाम | देवता[2] | फल |
---|---|---|---|---|---|---|---|
1 | विष्कम्भ | यम | अशुभ |
15 |
वज्र |
वरुण |
अशुभ |
2 | प्रीति | विष्णु | शुभ |
16 |
सिद्धि |
गणेश |
शुभ |
3 | आयुष्मान् | चन्द्र | शुभ |
17 |
व्यतीपात |
रुद्र |
अशुभ |
4 | सौभाग्य | ब्रह्मा | शुभ |
18 |
वरीयान् |
कुबेर |
शुभ |
5 | शोभन | बृहस्पति | शुभ |
19 |
परिघ |
विश्वकर्मा |
अशुभ |
6 | अतिगण्ड | चन्द्र | अशुभ |
20 |
शिव |
मित्र |
शुभ |
7 | सुकर्मा | इन्द्र | शुभ |
21 |
सिद्धि |
कार्तिकेय |
शुभ |
8 | धृति | जल | शुभ |
22 |
साध्य |
सावित्री |
शुभ |
9 | शूल | सर्प | अशुभ |
23 |
शुभ |
लक्ष्मी |
शुभ |
10 | गण्ड | अग्नि | अशुभ |
24 |
शुक्ल |
पार्वती |
शुभ |
11 | वृद्धि | सूर्य | शुभ |
25 |
ब्रह्मा |
अश्विनी |
शुभ |
12 | ध्रुव | भूमि | शुभ |
26 |
ऐन्द्र |
पितर |
शुभ |
13 | व्याघात | वायु | अशुभ |
27 |
वैधृति |
दिति |
अशुभ |
14 | हर्षण | भग | शुभ |
विष्कुम्भादि योग
यस्मिनृक्षे स्थितो भानुर्यत्र तिष्ठति चन्द्रमा। एकीकृत्य त्यजेदेकं योगाः विष्कुम्भकादयः॥(बृह०अव०)[3]
जिस नक्षत्र पर सूर्य हो और जिस नक्षत्र पर चन्द्रमा हो उन दोनों के नक्षत्र की संख्याओं को जोडकर एक घटायें , जो शेष बचे उसे विष्कुम्भादि योग जानिये।
आनन्दादि योग
आनन्दादि योग - वार और नक्षत्र के समाहार से तात्कालिक आनन्दादि २८ योगों का प्रादुर्भाव होता है। इन योगों को ज्ञात करने के हेतु वार विशेष को निर्दिष्ट नक्षत्र से विद्यमान नक्षत्र तक साभिजित् गणना की जाती है। इनके साधन हेतु रामदैवज्ञ जी ने मुहूर्तचिन्तामणि के शुभाशुभ प्रकरण में लिखा है कि -
दास्त्रादर्के मृगादिन्दौ सार्पाद्भौमे कराद्बुधे। मैत्राद्गुरौ भृगौ वैश्वाद्गण्या मन्दे च वारुणात्॥(मुहू० चिन्ता०)
अर्थात् आनन्दादि योगों का ज्ञान करने के लिये रविवार को अश्विनी से, सोमवार को भरणी से, मंगल को आश्लेषा से, बुध को हस्त से, गुरू को अनुराधा से, शुक्र को उत्तराषाढा से तथा शनिवार को शतभिषा से और उस दिन के चन्द्र नक्षत्र तक गणना पर प्राप्त नक्षत्र की संख्या को ही उस दिन के वर्तमान आनन्दादि योग का क्रमांक जानना चाहिये।
आनन्दः कालदण्डश्च धूम्रो धाताऽथ पञ्चमः। सौम्यो ध्वाङ्क्षोऽपि केतुश्च श्रीवत्सो वज्रमुद्गरौ॥
छत्रं मित्रं मानसञ्च पद्मलुम्बौ ततः क्रमात्। उत्पातमृत्युकालाश्च सिद्धिश्चापि शुभोऽमृतः॥
मुसलं गदमातङौ राक्षसश्च चरः स्थिरः। प्रवर्धमान इत्येते योगा नामसदृक् फलाः॥[4]
अर्थ- आनन्द, कालदण्ड, धूम्र, धाता, सौम्य, ध्वांक्ष, केतु, श्रीवत्स, वज्र, मुद्गर, छत्र, मित्र, मानस, पद्म, लुम्ब, उत्पात, मृत्यु, काल, सिद्धि, शुभ, अमृत, मुसल, गद, मातंग, राक्षस, चर, स्थिर तथा प्रवर्धमान। ये आनन्दादि योग भी नामसदृश फलदायक हैं। तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण रूप पञ्चांग में योग का भी स्थान है। योग द्विविध हैं। विष्कुम्भादि योग तथा आनन्दादि योग। पञ्चाङ्गान्तर्गत विष्कुम्भादि योग ग्राह्य हैं तथा आनन्दादि योग यात्रादि में विचारणीय हैं। आनन्दादि योगों को सारणी के अनुसार जान सकते हैं -
क्रम सं० | योग | फल | रवि | सोम | मंगल | बुध | गुरु | शुक्र | शनि |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
1 | आनन्द | शुभ | अश्विनी | मृगशिरा | आश्लेषा | हस्त | अनुराधा | उ०षाढा | शतभिषा |
2 | कालदण्ड | अशुभ | भरणी | आर्द्रा | मघा | चित्रा | ज्येष्ठा | अभिजित् | पू०भाद्र |
3 | धूम्र | अशुभ | कृत्तिका | पुनर्वसु | पू०फाल्गु | स्वाती | मूल | श्रवण | उ०भाद्र |
4 | धाता | शुभ | रोहिणी | पुष्य | उ०फाल्गु | विशाखा | पू०षाढा | धनिष्ठा | रेवती |
5 | सौम्य | शुभ | मृगशिरा | आश्लेषा | हस्त | अनुराधा | उ०षाढा | शतभिषा | अश्विनी |
6 | ध्वांक्ष | अशुभ | आर्द्रा | मघा | चित्रा | ज्येष्ठा | अभिजित् | पू०भाद्र | भरणी |
7 | केतु | शुभ | पुनर्वसु | पू०फाल्गु | स्वाती | मूल | श्रवण | उ०भाद्र | कृत्तिका |
8 | श्रीवत्स | शुभ | पुष्य | उ०फाल्गु | विशाखा | पू०षाढा | धनिष्ठा | रेवती | रोहिणी |
9 | वज्र | अशुभ | आश्लेषा | हस्त | अनुराधा | उ०षाढा | शतभिषा | अश्विनी | मृगशिरा |
10 | मुद्गर | अशुभ | मघा | चित्रा | ज्येष्ठा | अभिजित् | पू०भाद्र | भरणी | आर्द्रा |
11 | छत्र | शुभ | पूर्वाफाल्गुनी | स्वाती | मूल | श्रवण | उ०भाद्र | कृत्तिका | पुनर्वसु |
12 | मित्र | शुभ | उत्तराफाल्गुनी | विशाखा | पू०षाढा | धनिष्ठा | रेवती | रोहिणी | पुष्य |
13 | मानस | शुभ | हस्त | अनुराधा | उ०षाढा | शतभिषा | अश्विनी | मृगशिरा | आश्लेषा |
14 | पद्म | अशुभ | चित्रा | ज्येष्ठा | अभिजित् | पू०भाद्र | भरणी | आर्द्रा | मघा |
15 | लुम्ब | अशुभ | स्वाती | मूल | श्रवण | उ०भाद्र | कृत्तिका | पुनर्वसु | पू०फाल्गु |
16 | उत्पात | अशुभ | विशाखा | पू०षाढा | धनिष्ठा | रेवती | रोहिणी | पुष्य | उ०फाल्गु |
17 | मृत्यु | अशुभ | अनुराधा | उ०षाढा | शतभिषा | अश्विनी | मृगशिरा | आश्लेषा | हस्त |
18 | काण | अशुभ | ज्येष्ठा | अभिजित् | पू० भाद्र | भरणी | आर्द्रा | मघा | चित्रा |
19 | सिद्धि | शुभ | मूल | श्रवण | उ०भाद्र | कृत्तिका | पुनर्वसु | पू०फाल्गु | स्वाती |
20 | शुभ | शुभ | पूर्वाषाढा | धनिष्ठा | रेवती | रोहिणी | पुष्य | उ०फाल्गु | विशाखा |
21 | अमृत | शुभ | उत्तराषाढा | शतभिषा | अश्विनी | मृगशिरा | आश्लेषा | हस्त | अनुराधा |
22 | मुशल | अशुभ | अभिजित् | पूर्वाभाद्रपदा | भरणी | आर्द्रा | मघा | चित्रा | ज्येष्ठा |
23 | गद | अशुभ | श्रवण | उत्तराभाद्रपदा | कृत्तिका | पुनर्वसु | पू०फाल्गु | स्वाती | मूल |
24 | मातंग | शुभ | धनिष्ठा | रेवती | रोहिणी | पुष्य | उ०फाल्गु | विशाखा | पू०षाढा |
25 | रक्ष | अशुभ | शतभिषा | अश्विनी | मृगशिरा | आश्लेषा | हस्त | अनुराधा | उ०षाढा |
26 | चर | शुभ | पूर्वाभाद्रपदा | भरणी | आर्द्रा | मघा | चित्रा | ज्येष्ठा | अभिजित् |
27 | सुस्थिर | शुभ | उत्तराभाद्रपदा | कृत्तिका | पुनर्वसु | पू०फाल्गु | स्वाती | मूल | श्रवण |
28 | प्रवर्धमान | शुभ | रेवती | रोहिणी | पुष्य | उ०फाल्गु | विशाखा | पू०षाढा | धनिष्ठा |
योग क्षय तथा वृद्धि
भारतीय ज्योतिष के संहिता एवं होरा स्कन्ध के अन्तर्गत समष्टि एवं व्यक्तिगत फल निर्धारण के क्रम में योगों के वृद्धि एवं क्षय का स्वरूप फल सहित एवं पंचांग पत्रकों में भी प्रायोगिक रूप में स्पष्टतया दिखायी देता है। परन्तु सैद्धान्तिक एवं गणितीय दृष्टि से किसी भी योग की ह्रास वृद्धि नहीं होती अपितु स्पष्ट सूर्य और स्पष्ट चन्द्रमा के योगफल यदि ८००-८०० कला तुल्य वृद्धि क्रम से विष्कुम्भादि योगों की क्रमशः उपस्थिति होती है।
सैद्धान्तिक दृष्टि से किसी भी योग की क्षय या वृद्धि नहीं होती अपितु भारतीय काल गणना परम्परा में अनेक कालमानों के समवेत व्यवहार के कारण अधिकमास। क्षयमास तथा तिथि, नक्षत्रों की ह्रास-वृद्धि की तरह ही योगों के ह्रास-वृद्धि की आभासिक स्थिति उत्पन्न होती है।
पंचांगों सहित प्रायोगिक जीवन में योगों की क्षय वृद्धि का विषय वास्तविक स्थिति के ज्ञान हेतु हमें प्रेरित करता है। अतः हम यहां योगों के क्षय-वृद्धि स्वरूप को देखते हैं -
जिस योग में सूर्य का उदय न हो, उस योग को क्षय संज्ञक योग कहते हैं। नक्षत्र एवं तिथि की तरह योग का आरम्भ सूर्योदय के कुछ समय बाद में हो तथा द्वितीय सूर्योदय से पूर्व यदि योगमान समाप्त हो तो योग क्षयाख्य कहते हैं।
योग की वृद्धि भी तिथि एवं नक्षत्र के तरह ही है। 1 योग का दो सूर्योदयों से संबंध होना योग वृद्धि कहलाता है।
योगों का महत्व
ज्योतिषशास्त्र में तिथि, वार एवं नक्षत्र की तरह योगों का भी महत्वपूर्ण स्थान हैं।
वारश्चाष्ट गुणः प्रोक्तः करणं षोडशान्वितम् । द्वात्रिंशत् गुणयोगश्च ताराषष्टि समन्विता॥(अथर्व ज्यो०)
अर्थ- वार का आठ गुना, करण का सोलह गुना, योग का बत्तीस गुना एवं तारा का साठ गुना फल होता है।
एवं नक्षत्रयोगेषु त्रिषु कर्म समारभेत् । धर्मार्थकर्मणामर्थे स्वकर्म फलमश्नुते॥(अथर्व ज्यो०)
अथर्व ज्योतिष के अनुसार- धर्म, अर्थ और काम के विषय में शुभ नक्षत्र एवं शुभ योग में कार्यारम्भ करना चाहिये। त्रिवर्ग साधन में व्यक्ति अपने कर्मों का फल प्राप्त करता है।[5]
योग फल
विष्कम्भे जितशत्रुरर्थपशुमान् प्रीतौ परस्त्रीवश श्चायुष्मत्प्रभवश्चिरायुरगदः सौभाग्यजातः सुखी।
भोगी शोभनश्योगजो वधरूचिर्जातोऽतिगण्डे धनी धर्माचाररतः सुकर्मजनितो धृत्यां परस्त्रीधनः॥
शूले कोपवशानुगः कलहकृद्गण्डे दुराचारवान् , वृद्धौ पण्डितवाग् ध्रुवेऽतिधनवान् व्याघातजो घातकः।
ज्ञानी हर्षणयोगजः पृथुयशा वज्रे धनी कामुकः, सिद्धौ सर्वजनाश्रितः प्रभुसमो मायी व्यतीपातजः॥
दुष्कामी च वरीयजस्तु परिघे विद्वेषको वित्तवान् , शास्त्रज्ञः शिवयोगजनश्च धनवान् शान्तोऽवनीशप्रियः।
सिद्धे धर्मपरायणः क्रतुपरः साध्ये शुभाचारवान् , चार्वंगः शुभयोगजश्च धनवान् कामातुरः श्लेष्मकः॥
शुक्ले धर्मरतः पटुत्ववचनः कोपी चलः पण्डितो, मानी ब्रह्मभवोऽतिगुप्तधनिकस्त्यागी विवेकप्रभुः।
ऐन्द्रे सर्वजनोपकारचरितः सर्वज्ञधीतिर्वत्तवान् , मायावी परदूषकश्च बलवान् त्यागी धनी वैधृतौ॥[6]
विचार-विमर्श
ज्योतिषशास्त्र में तिथि, वार एवं नक्षत्र की तरह योगों का भी महत्वपूर्ण स्थान है। परन्तु योगों की परिकल्पना अपेक्षाकृत तिथि आदि से दुरूह थी। क्योंकि चन्द्र-सूर्य का अन्तरात्मक मान तिथि है किन्तु संयोगात्मक मान योग का निर्माण करता है। पञ्चांग के प्रसंग में आनन्दादि एवं विष्कुम्भादि भेद से दो प्रकार के योगों की मुख्यतया उपलब्धि होती है जिनमें आनन्दादि योग नक्षत्र और वारों के संयोग से वहीं विष्कुम्भादि योग सूर्य-चन्द्रमा के स्पष्ट मानों की युति से परिभाषित होते हैं।
भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अंतर्गत सैद्धांतिक प्रक्रिया में योगों का कोई स्थान या उपयोगिता नहीं है फिर भी संहिता, मुहूर्त एवं फलित की उपयोगिता की दृष्टि से प्रायः प्रत्येक सिद्धांत ग्रन्थों के स्पष्टाधिकार में पञ्चांग साधन के अंतर्गत योग साधन की स्पष्ट विधि वर्णित है। योग अपने नाम एवं गुण के अनुरूप मुहूर्त और फलादेश में शुभाशुभत्व को प्रभावित करते हैं। इसीलिये योगों की उपादेयता का वर्णन अनेक ग्रन्थों में प्राप्त होता है। भारतीय ज्योतिष में आनन्दादि एवं विष्कुम्भादि भेद से योग मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं। जिनमें विष्कुम्भादि योग चल एवं आनन्दादि योग स्थिर होते हैं। पञ्चांग के अन्तर्गत विष्कुम्भादि योगों का ही ग्रहण किया जाता है। जो सूर्य एवं चन्द्रमा के स्पष्ट योग पर आधारित है।
सन्दर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 श्री विन्ध्येश्वरीप्रसाद द्विवेदी, म्हूर्तचिन्तामणि, पीयूषधारा टीका, शुभाशुभ प्रकरण, सन् २०१८, वाराणसीः चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन (पृ०२८)
- ↑ 2.0 2.1 Deepawali Vyas, Daivgya Shriram Virchit Muhurt Chintamani ka Samikshatmak Adhyyan, Completed Year 2022, Jai Narain Vyas University, chapter-2, (page- 203).
- ↑ पं०मदन गोपाल बाजपेयी, बृहदवकहडा चक्रम् ,सन् १९९८ वाराणसीः भारतीय विद्या प्रकाशन श्लो०९ (पृ०१़९)।
- ↑ पं० श्रीदेवचन्द्र झा, व्यावहारिकं ज्यौतिषसर्वस्वम् , सन् १९९५, चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान (पृ० १०)।
- ↑ शिवराज आचार्यः कौण्डिन्न्यायनः, वेदाङ्गज्योतिषम् , भूमिका,वाराणसीःचौखम्बा विद्याभवन (पृ०३४)।
- ↑ पं०श्री सीतारामजी स्वामी, ज्योतिषतत्त्वांक, भारतीय काल गणना, सन् २०१९,गोरखपुर गीताप्रेस, (पृ०२३२)।