Difference between revisions of "Adhikamasa and Kshyamasa(अधिकमास एवं क्षयमास)"

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search
m
(सुधार जारि)
 
(3 intermediate revisions by the same user not shown)
Line 1: Line 1:
भारतिय कालगणना में मास का अधिक महत्त्व है। कालमान के अनुसार चान्द्रमान के आधार पर ही मास की गणना ज्योतिषशास्त्र में बताई गई है। ग्रहसाधन के प्रसंग में अधिकमास और क्षयमास का अत्यधिक महत्त्व बताया गया है। भारतीय कालगणना के अन्तर्गत सौर एवं चान्द्र दोनों प्रकार के मानों को स्वीकार किया गया है क्योंकि व्यवहार में भी दोनों का प्रयोग किया जाता है। यही प्रमुख कारण है कि अधिकमास एवं क्षयमास उत्पन्न होते हैं तथा उनका साधन भी शास्त्रों में किया गया है। केवल सिद्धान्त ग्रन्थों में ही नहीं परन्तु फलित एवं मुहूर्त ग्रन्थों में भी अधिकमास एवं क्षयमास का उल्लेख किया गया है।
+
भारतिय कालगणना में मास का अधिक महत्त्व है। कालमान के अनुसार चान्द्रमान के आधार पर ही मास की गणना ज्योतिषशास्त्र में बताई गई है। ग्रहसाधन के प्रसंग में अधिकमास और क्षयमास का अत्यधिक महत्त्व बताया गया है। भारतीय कालगणना के अन्तर्गत सौर एवं चान्द्र दोनों प्रकार के मानों को स्वीकार किया गया है क्योंकि व्यवहार में भी दोनों का प्रयोग किया जाता है। यही प्रमुख कारण है कि अधिकमास एवं क्षयमास उत्पन्न होते हैं तथा उनका साधन भी शास्त्रों में किया गया है। केवल सिद्धान्त ग्रन्थों में ही नहीं परन्तु फलित एवं मुहूर्त ग्रन्थों में भी अधिकमास एवं क्षयमास का उल्लेख किया गया है। सौर वर्ष और चान्द्र वर्ष में सामंजस्य स्थापित करने के लिये हर तीसरे वर्ष पंचांगों में एक चान्द्रमास की वृद्धि कर दी जाती है। इसी को अधिकमास या पुरुषोत्तम मास कहते हैं।
  
 
== परिचय ==
 
== परिचय ==
मास संबंधी ज्ञान के विषय में अधिकमास का ज्ञान परम आवश्यक है क्योंकि धार्मिक एवं ज्योतिषीय दोनों की दृष्टि से अधिकमास का आनयन एवं विचार महत्त्वपूर्ण है। शुभ एवं अशुभ कार्यों में अधिकमास एवं क्षयमास दोनों का विचार-विमर्श शास्त्रों में गंभीरता पूर्वक किया है।
+
मास संबंधी ज्ञान के विषय में अधिकमास का ज्ञान परम आवश्यक है क्योंकि धार्मिक एवं ज्योतिषीय दोनों की दृष्टि से अधिकमास का आनयन एवं विचार महत्त्वपूर्ण है। शुभ एवं अशुभ कार्यों में अधिकमास एवं क्षयमास दोनों का विचार-विमर्श शास्त्रों में गंभीरता पूर्वक किया है। व्यवहारमें सौर और चान्द्रमासों की गणना प्रचलित है। जिसके साथ सावन दिनों का सम्बन्ध जुडा रहता है सूर्य के एक राशिभोग को सौरमास और ३० तिथ्यात्मक दो अमान्त कालाभ्यन्तर वर्तमान काल को चान्द्रमास कहते हैं। एक सौरमास को सावन दिन से मापा जाय तो जितने सावन दिन होंगे उससे कम सावन दिन १ चान्द्रमास में होते हैं अर्थात् चान्द्रमास की अपेक्षा सौरमास बडा होता है। चान्द्रमास से सौरमास जितना अधिक होता है उसी को अधिशेष कहते हैं। मध्यम मान से एक सौरमास ३० सावनदिन, २६ घटी एवं १५ पल का होता है और चान्द्रमास २९दिन, ३४ घटी एवं २० पल का होता है। दोनों का अन्तर (३०।२६।१५)-(२९।३४।२०)=०।५१।५५ सावनदिनादि १ सौरमास में होता है। यही अधिशेष प्रतिमास बढते हुये अनुपात से- १सौरमास + २९ दि०३४।२०/आन्तर शेष= ३०+२९ दिन ३४/ घ० २०/०।५१।५५= ३२ १/३ आसन्न मास में १ चान्द्रमास पड जाता है। वही अधिमास कहा जाता है। जब अधिशेष १चान्द्रमास बराबर होता है तो उस चान्द्रमास में सूर्य संक्रान्ति नहीं होती है। अर्थात् वह चान्द्रमास सूर्य संक्रान्ति से विहीन होता है, उसी को अधिमास या मलमास अथवा पुरुषोत्तममास कहते हैं।
 
 
व्यवहारमें सौर और चान्द्रमासों की गणना प्रचलित है। जिसके साथ सावन दिनों का सम्बन्ध जुटा रहता है सूर्य के एक राशिभोग को सौरमास और ३० तिथ्यात्मक दो अमान्त कालाभ्यन्तर वर्तमान काल को चान्द्रमास कहते हैं।एक सौरमास को सावन दिन से मापा जाय तो जितने सावन दिन होंगे उससे कम सावन दिन १ चान्द्रमास में होते हैं अर्थात् चान्द्रमास की अपेक्षा सौरमास बडा होता है। चान्द्रमास से सौरमास जितना अधिक होता है उसी को अधिशेष कहते हैं। मध्यम मान से एक सौरमास ३० सावनदिन, २६ घटी एवं १५ पल का होता है और चान्द्रमास २९दिन, ३४ घटी एवं २० पल का होता है। दोनों का अन्तर (३०।२६।१५)-(२९।३४।२०)=०।५१।५५ सावनदिनादि १ सौरमास में होता है। यही अधिशेष प्रतिमास बढते हुये अनुपात से- १सौरमास + २९ दि०३४।२०/आन्तर शेष= ३०+२९ दिन ३४/ घ० २०/०।५१।५५= ३२ १/३ आसन्न मास में १ चान्द्रमास पड जाता है। वही अधिमास कहा जाता है। जब अधिशेष १चान्द्रमास बराबर होता है तो उस चान्द्रमास में सूर्य संक्रान्ति नहीं होती है। अर्थात् वह चान्द्रमास सूर्य संक्रान्ति से विहीन होता है, उसी को अधिमास या मलमास अथवा पुरुषोत्तममास कहते हैं।
 
  
 
== परिभाषा ==
 
== परिभाषा ==
सिद्धान्तशिरोमणि के आधार पर अधिकमास एवं क्षयमास का लक्षण इस प्रकार है-<blockquote>असंक्रान्तिमासोऽधिमासः स्फुटं स्यात् द्विसंक्रान्ति क्षयाख्यः कदाचित्।क्षयः कार्तिकादित्रये नान्यतः स्यात्तदा वर्षमध्येऽधिमासद्वयं स्यात्॥ (सिद्धा०शिरो०)</blockquote>जिस चान्द्र मास में सूर्य की संक्रान्ति नहीं होती है तो उस मास की अधिकमास संज्ञा होती है। एवं जिस मास में अर्थात् चान्द्रमास में दो संक्रान्ति हो उस चान्द्रमास को क्षयमास कहते हैं। क्षयमास प्रायः  कार्तिकादि तीन मास में होता है। तथा जिस वर्ष में क्षय मास होता है उस वर्ष में दो अधिक मास १ तीन मास के पूर्व तथा १ बाद में होता है।<blockquote>मस्ये परिमियते इत मासः।(शब्दक०)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%83/%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%81%E0%A4%83 शब्दकल्पद्रुम] पृ०३/७१८।</ref></blockquote>अर्थ-काल प्रमाण ही मास है। सौर मास, चन्द्र मास, नाक्षत्रमास और सावन मास – ये ही मास के चार भेद हैं ।
+
सिद्धान्तशिरोमणि के आधार पर अधिकमास एवं क्षयमास का लक्षण इस प्रकार है-<blockquote>असंक्रान्तिमासोऽधिमासः स्फुटं स्यात् द्विसंक्रान्तिः क्षयाख्यः कदाचित्। क्षयः कार्तिकादित्रये नान्यतः स्यात्तदा वर्षमध्येऽधिमासद्वयं स्यात्॥ (सिद्धा०शिरो०)</blockquote>जिस चान्द्र मास में सूर्य की संक्रान्ति नहीं होती है तो उस मास की अधिकमास संज्ञा होती है। एवं जिस मास में अर्थात् चान्द्रमास में दो संक्रान्ति हो उस चान्द्रमास को क्षयमास कहते हैं। क्षयमास प्रायः  कार्तिकादि तीन मास में होता है। तथा जिस वर्ष में क्षय मास होता है उस वर्ष में दो अधिक मास १ तीन मास के पूर्व तथा १ बाद में होता है।<blockquote>मलमासोऽयं सौरचान्द्रमासयोः विकारः।</blockquote>सौरमास और चान्द्रमास के विकार स्वरूप मलमास की उत्पत्ति होती है।<blockquote>मस्ये परिमियते इत मासः।(शब्दक०)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%83/%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%81%E0%A4%83 शब्दकल्पद्रुम] पृ०३/७१८।</ref></blockquote>अर्थ-काल प्रमाण ही मास है। सौर मास, चन्द्र मास, नाक्षत्रमास और सावन मास – ये ही मास के चार भेद हैं ।
  
== दिन ==
+
यस्मिन्मासे न संक्रान्ति संक्रान्तिद्वयमेव वा। मलमासः स विज्ञेयः।
सभी जानते हैं कि जब तक सूर्य आकाश में रहता है तब तक दिन रहता है अर्थात् सूर्योदय से सूर्यास्त तक का समय दिन कहलाता है। शास्त्रीय दृष्टि से समझें तो जब सूर्य उदयक्षितिज से ऊपर उठता है तो दिन रहता है और जब अस्त (पश्चिम) क्षितिज से नीचे उतरता है तब रात्रि कहलाती है। इसी तरह के दिन-रात को मिलाकर अहोरात्र बनता है। दिन विशेषतः चार प्रकार के होते हैं-
 
  
# '''सौरदिन'''
+
अधिकमास और क्षयमास दोनों में विकार है।
# '''चान्द्रदिन'''
 
# '''सावनदिन'''
 
# '''नाक्षत्रदिन'''
 
  
=== सौरदिन ===
+
एक संक्रान्ति रहित है। दूसरा दो संक्रान्ति से युक्त है।
  
 +
संक्रान्ति रहितो मासोऽधिमासः।
  
=== चान्द्रदिन ===
+
अधिकमास संक्रान्ति रहित है।
  
=== सावनदिन ===
+
संक्रान्तिद्वययुक्तो मासः क्षयमासः।
  
=== नाक्षत्रदिन ===
+
क्षयमास दो संक्रान्तियों से युक्त होता है।
  
== पक्ष ==
+
== अधिकमास विज्ञान ==
 +
अधिकमास कई नामों से विख्यात है - अधिमास, मलमास, मलिम्लुच, संसर्प, अंहस्पति या अंहसस्पति, पुरुषोत्तममास। इनकी व्याख्या आवश्यक है।
  
== मास ==
+
'''सौरवर्ष का मान -''' ३६५ दिन - १५ घटी - ३१ पल - ३० विपल
अभी पीछे हमने चार प्रकार के दिनों के बारे में जाना इसी प्रकार उन्हीं दिनों को यदि हम ३० से गुणा करें तो हमें मास का मान प्राप्त हो जाएगा क्योंकि अभी समाज में दो मासों का ही व्यवहार होता है। जिनमें सौर मास और चान्द्रमास ही प्रमुख हैं-
 
  
# सौरमास
+
'''चान्द्रवर्ष का मान -''' ३५४ दिन - २२ घटी - ०१ पल - ३३ विपल
# चान्द्रमास - शुक्लादि चान्द्रमास, कृष्णादि चान्द्रमास।
 
# नाक्षत्रमास
 
# सावनमास
 
  
=== अधिमास एवं क्षयमास ===
+
अतः स्पष्ट है कि चान्द्रवर्ष सौर वर्ष से १० दिन - ५३ घटी - ३० पल - ०७ विपल कम है। इस क्षतिपूर्ति और दोनों मासों के सामञ्जस्य के उद्देश्य से हर तीसरे वर्ष अधिक चान्द्रमास तथा एक बार १४१ वर्षों के बाद तथा दूसरी बार १९ वर्षों के बाद क्षय-चान्द्रमास की आवृत्ति होती है।<ref>डॉ० जितेन्द्र कुमारी द्विवेदी, [http://assets.vmou.ac.in/CIJ02.pdf पंचांग का व्यावहारिक जीवन में उपयोग], वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय, कोटा (पृ० १२)।</ref>
  
== वर्ष ==
+
== अधिमास एवं क्षयमास ==
वस्तुतः वर्ष का तात्पर्य सौर वर्ष से है। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि ज्योतिष शास्त्र में हम जब भी वर्ष, मास और दिन की चर्चा करेंगे तो वहां सामान्य रूप से वर्षसे तात्पर्य सौर वर्ष से तथा मास का तात्पर्य चान्द्रमास से व दिन से तात्पर्य सावन दिन से होता है फिर भी हम वर्ष को निम्न चार स्वरूपों में समझ सकते हैं- सौरवर्ष, चान्द्रवर्ष, सावनवर्ष, बार्हस्पत्य वर्ष।
 
  
=== सौरदिन ===
+
भारतीय कालगणना परम्परा में अनेक कालमानों का मिश्रित व्यवहार होता है जिसके अन्तर्गत मास व्यवहार में चैत्रमास से आरम्भ कर फाल्गुनमास तक दो-दो अमावस्याओं के मध्य क्रमशः मेषादि बारह राशियों की सूर्य संक्रान्तियों से चैत्र वैशाखादि बारह मास सिद्ध होते हैं, परन्तु वर्ष के मध्य मेम यदि इन चैत्रादि बारह मासों के अतिरिक्त तेरहवां मास आ जाता है तो वह अधिमास कहलाता है। क्षयमास को लुप्तमास के नाम से भी जाना जाता है अर्थात् यदि कभी भी चैत्रादि मास के गणना क्रम में किसी मास का व्यवहार न हो तो उसे लुप्त अथवा क्षयमास की संज्ञा से जानते हैं।
सामान्यतः शब्द से ही ज्ञात हो रहा है कि सौर दिन का सम्बन्ध सूर्य से है। अतः शास्त्रीय मान्यता के अनुसार हम कह सकते हैं कि राशि वृत्त के सूर्य के द्वारा राशि वृत्त के एक अंश को भागने में लिया जाने वाला समय सौर दिन कहलाता है। इस प्रकार एक अंश को भोगने में एक सौर दिन का समय लगता है अतः भ चक का एक चक्कर (360 अंशों का भ्रमण) करने में 360 सौर दिन लगते है। सूर्य के द्वारा लगाए गए इसी एक भ्रमण को सौर वर्ष के नाम से जानते हैं।
+
== अधिकमास की उपपत्ति ==
 +
सैद्धांतिक दृष्टि के आधार पर जब भी दो अमान्त के मध्य में संक्रान्ति का अभाव हो जाये तो उसे अधिमास की संज्ञा दी जाती है। सौरवर्ष ३६५ दिन का और चन्द्र वर्ष ३५५ दिन का होता है । जिससे दोनों में प्रतिवर्ष १० दिनों का अंतर पड़ता है । इस वैषम्य को दूर करने के लिए प्रति तीसरे वर्ष बारह की जगह १३ चान्द्र मास होते हैं । ऐसे बढे हुए मास को अधिमास या मलमास कहते हैं । <blockquote>मेषादिस्थे सवितरि यो यो मासः प्रपूर्यते चान्द्रः। चैत्राद्यः स विज्ञेयः पूर्तिर्द्वित्वे ऽधिमासोऽन्त्यः॥</blockquote>अर्थात् मेषादि राशियों पर गमन करता हुआ सूर्य जब-जब चान्द्रमासों की पूर्ति करता है उस मासों को क्रम से चैत्रादि मास की संज्ञा दी गई है। जिसमें संक्रान्ति की पूर्ति नहीं होती है उसे अधिकमास कहते हैं।<ref>श्री नारायण प्रसाद, वेद वाणी, अधिकमास एवं क्षयमास, सन् २००२, हरियाणा- वेदवाणी कार्यालय रेवली, (पृ० १२)। https://drive.google.com/file/d/1qsSgtZwIZs6iMUPpMeDhWFXjvgpa-XMq/view</ref> अन्य मत के अनुसार, जिसे आरम्भ पक्ष कहते हैं-<blockquote>मीनादिस्थो रविर्येषामारम्भप्रथमे क्षणे। भवेत् तेऽब्दे चान्द्रमासाश्चैत्राद्या द्वादश स्मृताः॥</blockquote>अर्थात् जिस चान्द्रमास के आरम्भ क्षण में रवि मीन राशि में हो, वह चैत्र मास कहलाता है। इसी प्रकार वर्ष के चैत्रादि बारह मास होते हैं। किसी सामान्य चान्द्रमास में आरम्भ पक्ष और पूर्तिपक्ष दोनों नियमों से एक ही मास की संज्ञा प्राप्त होती है।
  
=== चान्द्रदिन ===
+
सौर-वर्ष का मान ३६५ दिन, १५ घटी, २२ पल और ५७ विपल है। जबकि चंद्र वर्ष में ३५४ दिन, २२ घटी, १ पल और २३ विपल का होता है। इस प्रकार दोनों वर्षमानों में प्रतिवर्ष १० दिन, ५३ घटी, २१ पल (अर्थात लगभग ११ दिन) का अंतर है। सौरवर्ष और चन्द्र वर्ष में सामञ्जस्य स्थापित करना परम आवश्यक है। यह सामञ्जस्य स्थापित करने के लिये हर तीसरे वर्ष भारतीय पञ्चांगों में एक चंद्रमास की वृद्धि कर दी जाती है। यही अधिकमास है। वस्तुतः यह स्थिति स्वयं ही आ जाती है जब दो अमावस्या के बीच सूर्य की संक्रान्ति नहीं आती।<blockquote>द्वात्रिंशद् -भिर्गतैर्मासैर्दिनैः षोडशभिस्तथा। घटिकानां चतुष्केण पततिह्यधिमासकः॥(वसिष्ठ-सिद्धान्त)</blockquote>अधिमास ३२ महीने, १६ दिन और ४ घटी बीत जाने पर अधिकमास होता है। सूर्यसिद्धान्त के अनुसार ३३,५३५१ चांद्रमासों में ३२,५३४ सौर मास होते हैं। इस कारण सौरमासों को चांद्रमास बनाने के लिये सौरमासों के उपरान्त अथवा २ वर्ष ८ महीनों के उपरान्त अधिकमास होता है।
चान्द्र दिन का सम्बन्ध चन्द्रमा से है। इसमें सूर्य और चन्द्रमाके बीच जब 12° (अंश) की दूरी होती है तो इसे एक तिथि कहतेहैं और इसी तिथि का दूसरा नाम चान्द्र दिन है। ऐसे चान्द्रं दिन एक एक वर्ष में 354 होते है। अर्थात हम कह सकते हैं कि एक वर्ष में 354 चान्द्र दिवस होते हैं। चान्द्र तिथियाँ ही चान्द्र दिन है।
 
  
=== सावनदिन ===
+
क्षयमास १४१ वर्ष पीछे और उसके बाद १९ वर्ष पीछे  आता है। क्षयमास कार्तिकादि तीन महीनों में से  होता है।
सामान्यतः कहें तो एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय के मध्य का समय सावन दिन होता है। इस सम्बन्ध में सूर्य सिद्धान्त में लिखा है-<blockquote>उदयादुदयं भानोभूमि सावनवासर:।</blockquote>यह लगभग 24 घण्टे का होता है इसी को अहोरात्र भी कह सकते हैं और भूमि पर व्यवहार में आने वाला दिन भी यही सावन दिन ही होता है।
 
  
=== नाक्षत्रदिन ===
+
== क्षयमास की उपपत्ति ==
वस्तुतः नाक्षत्र दिन का सम्बन्ध नक्षत्र से है और यह 60 घटी अर्थात 24 घण्टे का ही होता है। इसकी अवधि में एक निमेष भी कम या अधिक नहीं होता है। सूर्यसिद्धान्त में कहा है कि "नाडीषष्ठ्यातुनाक्षत्रमहोरात्रं प्रकीर्तितम्” अर्थात् सौर दिन हो या चान्द्रदिन अथवा सावन दिन इनका मान स्थिर नहीं है परन्तु केवल नाक्षत्र दिन ही मात्र एक ऐसा दिन है कि जिसका मान प्रायः 60 घटी अथवा 24 घण्टे निश्चित है।
+
जिस चान्द्रमास में दो सूर्य-संक्रान्ति का समावेश हो जाय, वह क्षयमास कहलाता है। क्षयमास केवल कार्तिक, मार्ग पौष मासों में होता है। जिस वर्ष क्षय-मास पडता है, उसी वर्ष अधिमास भी अवश्य पडता है परन्तु यह स्थिति १९ वर्षों या १४१ वर्षों के पश्चात् आती है। जैसे विक्रमी संवत् २०२० एवं २०३९ में क्षयमासों का आगमन हुआ तथा भविष्य में संवत् २०५८, २१५० में पडने की संभावना है।  
 
 
== अयन ==
 
ज्योतिष शास्त्र में अयन का तात्पर्य गमन अथवा मार्ग से है। वस्तुतः एक सौरवर्ष में दो अयन होते हैं। जिनमें प्रथम सौम्यायन जिसको उत्तरायण तथा द्वितीय याम्यायन जिसे दक्षिणायन के नम से जानते हैं। अन्य शब्दों में कहें तो सूर्य का आभासिक उत्तर की ओर गमन उत्तरायन और दक्षिण की ओर गमन दक्षिणायन कहलाता है। अर्थात् मकर संक्रान्ति से मिथुनान्त तक सूर्य उत्तरायण रहता है तथा कर्क संक्रान्ति से धनुरान्त तक सूर्य दक्षिणायन में रहता है। अतः स्पष्ट है सूर्य एक राशि में एक मास रहता है तो मकरादि से मिथुनान्त तक ६ राशि अर्थात् ६ माह तक सूर्य उत्तरायण में रहता है तथा कर्कादि से धनुरान्त तक ६ माह सूर्य दक्षिणायन में रहता है। इसे हम निम्न तालिका के माध्यम से भी समझने का प्रयास करते हैं-
 
{| class="wikitable"
 
|+
 
!उत्तरयण
 
!दक्षिणायन
 
|-
 
|मकर
 
|धनु
 
|-
 
|कुम्भ
 
|वृश्चिक
 
|-
 
|मीन
 
|तुला
 
|-
 
|मेष
 
|कन्या
 
|-
 
|वृष
 
|सिंह
 
|-
 
|मिथुन
 
|कर्क
 
|}
 
 
 
== गोल ==
 
{| class="wikitable"
 
|+
 
!उत्तर गोल
 
!दक्षिण गोल
 
|-
 
|मेष
 
|मीन
 
|-
 
|वृष
 
|कुम्भ
 
|-
 
|मिथुन
 
|मकर
 
|-
 
|कर्क
 
|धनु
 
|-
 
|सिंह
 
|वृश्चिक
 
|-
 
|कन्या
 
|तुला
 
|}
 
 
 
== सावन मास ==
 
एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय के मध्य का काल सावन दिन कहलाता है एवं सावन मास तीस दिनों का होता है। यह किसी भी तिथि से प्रारंभ होकर तीसवें दिन समाप्त हो जाता है ।<blockquote>त्रिंशद्दिनः सावनः।<ref name=":0">पं० हनूमान शर्मा, व्रत परिचय, सन् २०२०, गोरखपुर-गीताप्रेस, (पृ०४१)।</ref></blockquote>प्रायः व्यापार और व्यवहार आदि में इसका उपयोग होता है । इसके भी सौर और चन्द्र ये दो भेद हैं । सौर सावन मास सौर मास की किसी भी तिथि को प्रारंभ होकर तीसवें दिन पूर्ण होता है । चन्द्र सावन मास, चंद्रमा की किसी भी तिथि से प्रारंभ होकर उसके तीसवें दिन समाप्त माना जाता है ।<blockquote>यज्ञादौ सावनः स्मृतः।<ref name=":0" />(व्रत० परि०)</blockquote>
 
 
 
== चान्द्रमास ==
 
सूर्य और चन्द्रमा के मध्य १२ अंश अंतर उत्पन्न होने की अवधि चांद्र दिन कहलाती है एवं चंद्रमा की कला की घट-बढ़ वाले दो पक्षों (कृष्‍ण और शुक्ल) का जो एक मास होता है वही चंद्रमास कहलाता है।<blockquote>पक्षयुक्तश्चान्द्रः।<ref name=":0" /></blockquote>यह दो प्रकार का शुक्ल प्रतिपदा से प्रारंभ होकर अमावस्या को पूर्ण होने वाला 'अमांत' मास मुख्‍य चंद्रमास है। कृष्‍ण प्रतिपदा से 'पूर्णिमात' पूरा होने वाला गौण चंद्रमास है। यह तिथि की घट-बढ़ के अनुसार 29, 30 28 एवं 27 दिनों का भी होता है। पूर्णिमा के दिन, चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है। सौर-वर्ष से 11 दिन 3 घटी 48 पल छोटा है चंद्र-वर्ष इसीलिए हर 3 वर्ष में इसमें 1 महीना जोड़ दिया जाता है।
 
 
 
सौरमास 365 दिन का और चंद्रमास 355 दिन का होने से प्रतिवर्ष 10 दिन का अंतर आ जाता है। इन दस दिनों को चंद्रमास ही माना जाता है। फिर भी ऐसे बड़े हुए दिनों को मलमास या अधिमास कहते हैं।
 
 
 
'''चंद्रमास के नाम :''' चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, अषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन।<blockquote>आब्दिके पितृकार्ये च चान्द्रो मासः प्रशस्यते।<ref name=":0" /></blockquote>श्राद्ध में पितृकार्यों में चान्द्रमास को ग्रहण करना चाहिये।
 
 
 
== सौरमास ==
 
सौरमास का आरम्भ सूर्य की संक्रांति से होता है। सूर्य का एक अंश चलने में जो काल लगता है वह सौर दिन कहलाता है एवं सूर्य की एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति का समय सौरमास कहलाता है।<blockquote>अर्कसंक्रान्त्यवधिःसौरः।<ref name=":0" /></blockquote>यह मास प्राय: तीस, इकतीस दिन का होता है। कभी-कभी अट्ठाईस और उन्तीस दिन का भी होता है। मूलत: सौरमास (सौर-वर्ष) 365 दिन का होता है। 12 राशियों को बारह सौरमास माना जाता है। जिस दिन सूर्य जिस राशि में प्रवेश करता है उसी दिन की संक्रांति होती है। इस राशि प्रवेश से ही सौरमास का नया महीना ‍शुरू माना गया है। उत्तरायण छह माह का और दक्षिणायन भी छह मास का सौर-वर्ष के ये दो भाग हैं।<blockquote>मेषो वृषोऽमिथुनं कर्कः सिंहोऽथ कन्यका। तुलाऽथ वृश्चिको धन्वी मकरः कुंभमीनकौ॥(ज्योतिर्मयूखः)</blockquote>'''सौरमास के नाम :''' मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्‍चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन।<blockquote>सौरो मासो विवाहादौ।<ref name=":0" /></blockquote>विवाह आदि में सौर मास को जानना चाहिये।
 
  
== नाक्षत्र मास ==
 
आकाश में स्थित तारा-समूह को नक्षत्र कहते हैं। साधारणतः यह चंद्रमा के पथ से जुडे हैं। एक नक्षत्र का एक उदय से दूसरे उदय तक के काल की अवधि नाक्षत्र दिन कहलाती है। <blockquote>सर्वर्क्षपरिवर्तैस्तु नाक्षत्रो मास उच्यते।<ref name=":0" /></blockquote>ऋग्वेद में एक स्थान पर सूर्य को भी नक्षत्र कहा गया है। अन्य नक्षत्रों में सप्तर्षि और अगस्त्य हैं। नक्षत्र से ज्योतिषीय गणना करना वेदांग ज्योतिष का अंग है। चंद्रमा अश्‍विनी से लेकर रेवती तक के नक्षत्र में विचरण करता है वह काल नक्षत्रमास कहलाता है। यह लगभग 27 दिनों का होता है इसीलिए 27 दिनों का एक नक्षत्रमास कहलाता है।<blockquote>नक्षत्रसत्राण्यन्यानि नाक्षत्रे च प्रशस्यते।</blockquote>नक्षत्र इष्टि आदि यागों का विधान नक्षत्र मास के अनुसार किया गया है।
 
 
== अधिकमास की उपपत्ति ==
 
सैद्धांतिक दृष्टि के आधार पर जब भी दो अमान्त के मध्य में संक्रान्ति का अभाव हो जाये तो उसे अधिमास की संज्ञा दी जाती है। सौरवर्ष ३६५ दिन का और चन्द्र वर्ष ३५५ दिन का होता है । जिससे दोनों में प्रतिवर्ष १० दिनों का अंतर पड़ता है । इस वैषम्य को दूर करने के लिए प्रति तीसरे वर्ष बारह की जगह १३ चन्द्र मास होते हैं । ऐसे बढे हुए मास को अधिमास या मलमास कहते हैं । <blockquote>मेषादिस्थे सवितरि यो यो मासः प्रपूर्यते चान्द्रः। चैत्राद्यः स विज्ञेयः पूर्तिर्द्वित्वे ऽधिमासोऽन्त्यः॥</blockquote>अर्थात् मेषादि राशियों पर गमन करता हुआ सूर्य जब-जब चान्द्रमासों की पूर्ति करता है उस मासों को क्रम से चैत्रादि मास की संज्ञा दी गई है। जिसमें संक्रान्ति की पूर्ति नहीं होती है उसे अधिकमास कहते हैं।<ref>श्री नारायण प्रसाद, वेद वाणी, अधिकमास एवं क्षयमास, सन् २००२, हरियाणा- वेदवाणी कार्यालय रेवली, (पृ० १२)। https://drive.google.com/file/d/1qsSgtZwIZs6iMUPpMeDhWFXjvgpa-XMq/view</ref> अन्य मत के अनुसार, जिसे आरम्भ पक्ष कहते हैं-<blockquote>मीनादिस्थो रविर्येषामारम्भप्रथमे क्षणे। भवेत् तेऽब्दे चान्द्रमासाश्चैत्राद्या द्वादश स्मृताः॥</blockquote>अर्थात् जिस चान्द्रमास के आरम्भ क्षण में रवि मीन राशि में हो, वह चैत्र मास कहलाता है। इसी प्रकार वर्ष के चैत्रादि बारह मास होते हैं। किसी सामान्य चान्द्रमास में आरम्भ पक्ष और पूर्तिपक्ष दोनों नियमों से एक ही मास की संज्ञा प्राप्त होती है।
 
 
== क्षयमास की उपपत्ति ==
 
 
गणितीय उपपत्ति
 
गणितीय उपपत्ति
  
 
== अधिकमास एवं क्षयमास में त्याग योग्य कर्म ==
 
== अधिकमास एवं क्षयमास में त्याग योग्य कर्म ==
श्रीगर्गाचार्य जी के मत से अधिकमास में त्याज्य कर्म-<blockquote>अग्न्याधानं प्रतिष्ठां च यज्ञो दानव्रतानि च। वेदव्रतवृषोत्सर्ग चूडाकरणमेखलाः॥गमनं देवतीर्थानां विवाहमभिषेचनम् । यानं च गृहकर्माणि मलमासे विवर्जयेत्॥(गर्ग सं०)</blockquote>श्रीगर्गाचार्य जी का कहना है कि अग्न्याधान, प्रतिष्ठा, यज्ञ, दान, व्रतादि, वेदव्रत वृषोत्सर्ग, चूडाकर्म, व्रतबन्ध, देवतीर्थों में गमन, विवाह, अभिषेक, यान और घर के काम अर्थात् गृहारम्भादि कार्य अधिक मास में नहीं करना चाहिये। मनुस्मृति के आधार पर कर्त्तव्य-<blockquote>तीर्थश्राद्धं दर्शश्राद्धं प्रेतश्राद्धं सपिण्डनम् । चन्द्रसूर्यग्रहे स्नानं मलमासे विधीयते॥(मनु स्मृ०)</blockquote>मनुस्मृतिमें कहा गया है कि तीर्थश्राद्ध, दर्शश्राद्ध, प्रेतश्राद्ध, सपिण्डीकरण, चन्द्रसूर्यग्रहणीय स्नान अधिकमास में भी करना चाहिये।
+
श्रीगर्गाचार्य जी के मत से अधिकमास में त्याज्य कर्म -<blockquote>अग्न्याधानं प्रतिष्ठां च यज्ञो दानव्रतानि च। वेदव्रतवृषोत्सर्ग चूडाकरणमेखलाः॥गमनं देवतीर्थानां विवाहमभिषेचनम्। यानं च गृहकर्माणि मलमासे विवर्जयेत्॥ (गर्ग सं०)</blockquote>श्रीगर्गाचार्य जी का कहना है कि अग्न्याधान, प्रतिष्ठा, यज्ञ, दान, व्रतादि, वेदव्रत वृषोत्सर्ग, चूडाकर्म, व्रतबन्ध, देवतीर्थों में गमन, विवाह, अभिषेक, यान और घर के काम अर्थात् गृहारम्भादि कार्य अधिक मास में नहीं करना चाहिये। मनुस्मृति के आधार पर कर्त्तव्य इस प्रकार हैं -<blockquote>तीर्थश्राद्धं दर्शश्राद्धं प्रेतश्राद्धं सपिण्डनम्। चन्द्रसूर्यग्रहे स्नानं मलमासे विधीयते॥ (मनु स्मृ०)</blockquote>मनुस्मृतिमें कहा गया है कि - तीर्थश्राद्ध, दर्शश्राद्ध, प्रेतश्राद्ध, सपिण्डीकरण, चन्द्रसूर्यग्रहणीय स्नान अधिकमास में भी करना चाहिये।<blockquote>न कुर्यादधिके मासि काम्यं कर्म कदाचन। (स्मृत्यन्तर)</blockquote>अधिकमास में फल-प्राप्ति की कामना से किये जानेवाले प्रायः सभी काम वर्जित हैं।<blockquote>वाप्याराम-तडाग-कूप-भवनारम्भ प्रतिष्ठे व्रतारम्भोत्सर्ग-वधूप्रवेशन-महादानानि सोमाष्टके। गोदानाग्रयण-प्रपा-प्रथमकोपाकर्म वेदव्रतं नीलोद्वाहमथातिपन्न शिशुसंस्कारान् सुरस्थापनम् ॥
  
=== चान्द्रमास के नामकरण ===
+
दीक्षा-मौञ्जि-विवाह-मुण्डनम पूर्वं देवतीर्थेक्षणं संन्यासाग्निपरिग्रहौ नृपतिसन्दर्शाऽभिषेकौ गमम्। चातुर्मास्य समावृती श्रवणयोर्वेधं परीक्षां त्यजेद् वृद्धत्वास्तशिशुत्व इज्य-सितयोर्न्यूनाधिमासे तथा॥ (मुहूर्त चिंतामणि)</blockquote>
{| class="wikitable"
 
|+(चान्द्रमास नामकरण)
 
! colspan="2" |चान्द्र मास(पूर्णिमा तिथि में नक्षत्र के अनुसार)
 
|-
 
|'''चान्द्रनक्षत्राणि'''
 
|'''मासाः'''
 
|-
 
|चित्रा, रोहिणी
 
|चैत्र
 
|-
 
|विशाखा, अनुराधा
 
|वैशाख
 
|-
 
|ज्येष्ठा, मूल
 
|ज्येष्ठ
 
|-
 
|पू०षा०, उ०षा०
 
|आषाढ
 
|-
 
|श्रवण, धनिष्ठा
 
|श्रावण
 
|-
 
|शतभिषा, पू०भा०, उ०भा०
 
|भाद्रपद
 
|-
 
|रेवती, अश्विनी, भरणी
 
|आश्विन
 
|-
 
|कृत्तिका, रोहिणी
 
|कार्तिक
 
|-
 
|मृगशीर्ष, आर्द्रा
 
|मार्गशीर्ष
 
|-
 
|पुनर्वसु, पुष्य
 
|पौष
 
|-
 
|आश्लेषा, मघा
 
|माघ
 
|-
 
|पू०फा०, उ०फा०, हस्त
 
|फाल्गुन
 
|}
 
  
 +
==सारांश==
 +
विश्व के कैलेंडर के इतिहास में केवल भारत में ही महीनों का नामकरण वैज्ञानिक कहा जा सकता है। क्षयमास सामान्यतया ११९ या १९ वर्ष बाद घटित हुआ करता है। जब क्षयमास आता है तब ६-७ मासों के भीतर ही दो अधिक मास आ जाते हैं, जिनमें एक अधिमास क्षयमास से पूर्व और एक क्षयमास के बाद होता है। दो सूर्यसंक्रान्तियों से युक्त शुक्लादि चान्द्रमास को क्षयमास कहते हैं, इसे अंहस्पति वा न्यूनमास की संज्ञा भी दी गई है।<ref>प्रियव्रत-शक्तिधर शर्मा, [https://archive.org/details/shaastriya-panchang-mimamsa/page/n30/mode/1up?view=theater शास्त्रीय पञ्चांग मीमांसा], सन् १९७९, श्रीमार्त्तण्ड ज्यौतिष कार्यालयः (पृ० १८६)।</ref>
  
== उद्धरण ==
+
सौर वर्ष और चान्द्रवर्ष में सामञ्जस्य स्थापित करने के लिये हर तीसरे वर्ष पंचाँगों में एक चान्द्रमास की वृद्धि कर दी जाती है। इसी को अधिक मास कहते हैं। सौर वर्ष का मान ३६५ दिन, १५ घटी, २२ पल और ५७ विपल हैं। जबकि चान्द्रवर्ष ३५४ दिन, २२ घडी, १ पल और २३ विपल का होता है। दोनों वर्षमानों में प्रतिवर्ष १० दिन, ५३ घटी, २१॥ पल( औसतन ११ दिन) का अन्तर पडता है। इस अन्तर में समानता लाने के लिये चान्द्रवर्ष १२ मासों के स्थान पर १३ मास का हो जाता है। वास्तव में यह स्थिति स्वयं ही उत्पन्न हो जाती है क्योंकि जिस चान्द्रमास में सूर्य संक्रान्ति नहीं पडती, उसी को अधिकमास की संज्ञा दे दी जाती है।<ref>पं० पन्नालाल ज्योतिषी, [https://ia801006.us.archive.org/2/items/brihatsamhitadr.surkantjha_201909/Jyotish%20Tattva%20-%20Panna%20Lal%20Jyotishi.pdf ज्योतिष तत्त्व], देवी दयालु ज्योतिषी एण्ड संज होशियारपुर, जालन्धर(पृ० २५)।</ref>
 +
==उद्धरण==
 
<references />
 
<references />
 
[[Category:Vedangas]]
 
[[Category:Vedangas]]
 
[[Category:Jyotisha]]
 
[[Category:Jyotisha]]

Latest revision as of 21:23, 15 November 2023

भारतिय कालगणना में मास का अधिक महत्त्व है। कालमान के अनुसार चान्द्रमान के आधार पर ही मास की गणना ज्योतिषशास्त्र में बताई गई है। ग्रहसाधन के प्रसंग में अधिकमास और क्षयमास का अत्यधिक महत्त्व बताया गया है। भारतीय कालगणना के अन्तर्गत सौर एवं चान्द्र दोनों प्रकार के मानों को स्वीकार किया गया है क्योंकि व्यवहार में भी दोनों का प्रयोग किया जाता है। यही प्रमुख कारण है कि अधिकमास एवं क्षयमास उत्पन्न होते हैं तथा उनका साधन भी शास्त्रों में किया गया है। केवल सिद्धान्त ग्रन्थों में ही नहीं परन्तु फलित एवं मुहूर्त ग्रन्थों में भी अधिकमास एवं क्षयमास का उल्लेख किया गया है। सौर वर्ष और चान्द्र वर्ष में सामंजस्य स्थापित करने के लिये हर तीसरे वर्ष पंचांगों में एक चान्द्रमास की वृद्धि कर दी जाती है। इसी को अधिकमास या पुरुषोत्तम मास कहते हैं।

परिचय

मास संबंधी ज्ञान के विषय में अधिकमास का ज्ञान परम आवश्यक है क्योंकि धार्मिक एवं ज्योतिषीय दोनों की दृष्टि से अधिकमास का आनयन एवं विचार महत्त्वपूर्ण है। शुभ एवं अशुभ कार्यों में अधिकमास एवं क्षयमास दोनों का विचार-विमर्श शास्त्रों में गंभीरता पूर्वक किया है। व्यवहारमें सौर और चान्द्रमासों की गणना प्रचलित है। जिसके साथ सावन दिनों का सम्बन्ध जुडा रहता है सूर्य के एक राशिभोग को सौरमास और ३० तिथ्यात्मक दो अमान्त कालाभ्यन्तर वर्तमान काल को चान्द्रमास कहते हैं। एक सौरमास को सावन दिन से मापा जाय तो जितने सावन दिन होंगे उससे कम सावन दिन १ चान्द्रमास में होते हैं अर्थात् चान्द्रमास की अपेक्षा सौरमास बडा होता है। चान्द्रमास से सौरमास जितना अधिक होता है उसी को अधिशेष कहते हैं। मध्यम मान से एक सौरमास ३० सावनदिन, २६ घटी एवं १५ पल का होता है और चान्द्रमास २९दिन, ३४ घटी एवं २० पल का होता है। दोनों का अन्तर (३०।२६।१५)-(२९।३४।२०)=०।५१।५५ सावनदिनादि १ सौरमास में होता है। यही अधिशेष प्रतिमास बढते हुये अनुपात से- १सौरमास + २९ दि०३४।२०/आन्तर शेष= ३०+२९ दिन ३४/ घ० २०/०।५१।५५= ३२ १/३ आसन्न मास में १ चान्द्रमास पड जाता है। वही अधिमास कहा जाता है। जब अधिशेष १चान्द्रमास बराबर होता है तो उस चान्द्रमास में सूर्य संक्रान्ति नहीं होती है। अर्थात् वह चान्द्रमास सूर्य संक्रान्ति से विहीन होता है, उसी को अधिमास या मलमास अथवा पुरुषोत्तममास कहते हैं।

परिभाषा

सिद्धान्तशिरोमणि के आधार पर अधिकमास एवं क्षयमास का लक्षण इस प्रकार है-

असंक्रान्तिमासोऽधिमासः स्फुटं स्यात् द्विसंक्रान्तिः क्षयाख्यः कदाचित्। क्षयः कार्तिकादित्रये नान्यतः स्यात्तदा वर्षमध्येऽधिमासद्वयं स्यात्॥ (सिद्धा०शिरो०)

जिस चान्द्र मास में सूर्य की संक्रान्ति नहीं होती है तो उस मास की अधिकमास संज्ञा होती है। एवं जिस मास में अर्थात् चान्द्रमास में दो संक्रान्ति हो उस चान्द्रमास को क्षयमास कहते हैं। क्षयमास प्रायः कार्तिकादि तीन मास में होता है। तथा जिस वर्ष में क्षय मास होता है उस वर्ष में दो अधिक मास १ तीन मास के पूर्व तथा १ बाद में होता है।

मलमासोऽयं सौरचान्द्रमासयोः विकारः।

सौरमास और चान्द्रमास के विकार स्वरूप मलमास की उत्पत्ति होती है।

मस्ये परिमियते इत मासः।(शब्दक०)[1]

अर्थ-काल प्रमाण ही मास है। सौर मास, चन्द्र मास, नाक्षत्रमास और सावन मास – ये ही मास के चार भेद हैं ।

यस्मिन्मासे न संक्रान्ति संक्रान्तिद्वयमेव वा। मलमासः स विज्ञेयः।

अधिकमास और क्षयमास दोनों में विकार है।

एक संक्रान्ति रहित है। दूसरा दो संक्रान्ति से युक्त है।

संक्रान्ति रहितो मासोऽधिमासः।

अधिकमास संक्रान्ति रहित है।

संक्रान्तिद्वययुक्तो मासः क्षयमासः।

क्षयमास दो संक्रान्तियों से युक्त होता है।

अधिकमास विज्ञान

अधिकमास कई नामों से विख्यात है - अधिमास, मलमास, मलिम्लुच, संसर्प, अंहस्पति या अंहसस्पति, पुरुषोत्तममास। इनकी व्याख्या आवश्यक है।

सौरवर्ष का मान - ३६५ दिन - १५ घटी - ३१ पल - ३० विपल

चान्द्रवर्ष का मान - ३५४ दिन - २२ घटी - ०१ पल - ३३ विपल

अतः स्पष्ट है कि चान्द्रवर्ष सौर वर्ष से १० दिन - ५३ घटी - ३० पल - ०७ विपल कम है। इस क्षतिपूर्ति और दोनों मासों के सामञ्जस्य के उद्देश्य से हर तीसरे वर्ष अधिक चान्द्रमास तथा एक बार १४१ वर्षों के बाद तथा दूसरी बार १९ वर्षों के बाद क्षय-चान्द्रमास की आवृत्ति होती है।[2]

अधिमास एवं क्षयमास

भारतीय कालगणना परम्परा में अनेक कालमानों का मिश्रित व्यवहार होता है जिसके अन्तर्गत मास व्यवहार में चैत्रमास से आरम्भ कर फाल्गुनमास तक दो-दो अमावस्याओं के मध्य क्रमशः मेषादि बारह राशियों की सूर्य संक्रान्तियों से चैत्र वैशाखादि बारह मास सिद्ध होते हैं, परन्तु वर्ष के मध्य मेम यदि इन चैत्रादि बारह मासों के अतिरिक्त तेरहवां मास आ जाता है तो वह अधिमास कहलाता है। क्षयमास को लुप्तमास के नाम से भी जाना जाता है अर्थात् यदि कभी भी चैत्रादि मास के गणना क्रम में किसी मास का व्यवहार न हो तो उसे लुप्त अथवा क्षयमास की संज्ञा से जानते हैं।

अधिकमास की उपपत्ति

सैद्धांतिक दृष्टि के आधार पर जब भी दो अमान्त के मध्य में संक्रान्ति का अभाव हो जाये तो उसे अधिमास की संज्ञा दी जाती है। सौरवर्ष ३६५ दिन का और चन्द्र वर्ष ३५५ दिन का होता है । जिससे दोनों में प्रतिवर्ष १० दिनों का अंतर पड़ता है । इस वैषम्य को दूर करने के लिए प्रति तीसरे वर्ष बारह की जगह १३ चान्द्र मास होते हैं । ऐसे बढे हुए मास को अधिमास या मलमास कहते हैं ।

मेषादिस्थे सवितरि यो यो मासः प्रपूर्यते चान्द्रः। चैत्राद्यः स विज्ञेयः पूर्तिर्द्वित्वे ऽधिमासोऽन्त्यः॥

अर्थात् मेषादि राशियों पर गमन करता हुआ सूर्य जब-जब चान्द्रमासों की पूर्ति करता है उस मासों को क्रम से चैत्रादि मास की संज्ञा दी गई है। जिसमें संक्रान्ति की पूर्ति नहीं होती है उसे अधिकमास कहते हैं।[3] अन्य मत के अनुसार, जिसे आरम्भ पक्ष कहते हैं-

मीनादिस्थो रविर्येषामारम्भप्रथमे क्षणे। भवेत् तेऽब्दे चान्द्रमासाश्चैत्राद्या द्वादश स्मृताः॥

अर्थात् जिस चान्द्रमास के आरम्भ क्षण में रवि मीन राशि में हो, वह चैत्र मास कहलाता है। इसी प्रकार वर्ष के चैत्रादि बारह मास होते हैं। किसी सामान्य चान्द्रमास में आरम्भ पक्ष और पूर्तिपक्ष दोनों नियमों से एक ही मास की संज्ञा प्राप्त होती है। सौर-वर्ष का मान ३६५ दिन, १५ घटी, २२ पल और ५७ विपल है। जबकि चंद्र वर्ष में ३५४ दिन, २२ घटी, १ पल और २३ विपल का होता है। इस प्रकार दोनों वर्षमानों में प्रतिवर्ष १० दिन, ५३ घटी, २१ पल (अर्थात लगभग ११ दिन) का अंतर है। सौरवर्ष और चन्द्र वर्ष में सामञ्जस्य स्थापित करना परम आवश्यक है। यह सामञ्जस्य स्थापित करने के लिये हर तीसरे वर्ष भारतीय पञ्चांगों में एक चंद्रमास की वृद्धि कर दी जाती है। यही अधिकमास है। वस्तुतः यह स्थिति स्वयं ही आ जाती है जब दो अमावस्या के बीच सूर्य की संक्रान्ति नहीं आती।

द्वात्रिंशद् -भिर्गतैर्मासैर्दिनैः षोडशभिस्तथा। घटिकानां चतुष्केण पततिह्यधिमासकः॥(वसिष्ठ-सिद्धान्त)

अधिमास ३२ महीने, १६ दिन और ४ घटी बीत जाने पर अधिकमास होता है। सूर्यसिद्धान्त के अनुसार ३३,५३५१ चांद्रमासों में ३२,५३४ सौर मास होते हैं। इस कारण सौरमासों को चांद्रमास बनाने के लिये सौरमासों के उपरान्त अथवा २ वर्ष ८ महीनों के उपरान्त अधिकमास होता है।

क्षयमास १४१ वर्ष पीछे और उसके बाद १९ वर्ष पीछे आता है। क्षयमास कार्तिकादि तीन महीनों में से होता है।

क्षयमास की उपपत्ति

जिस चान्द्रमास में दो सूर्य-संक्रान्ति का समावेश हो जाय, वह क्षयमास कहलाता है। क्षयमास केवल कार्तिक, मार्ग व पौष मासों में होता है। जिस वर्ष क्षय-मास पडता है, उसी वर्ष अधिमास भी अवश्य पडता है परन्तु यह स्थिति १९ वर्षों या १४१ वर्षों के पश्चात् आती है। जैसे विक्रमी संवत् २०२० एवं २०३९ में क्षयमासों का आगमन हुआ तथा भविष्य में संवत् २०५८, २१५० में पडने की संभावना है।

गणितीय उपपत्ति

अधिकमास एवं क्षयमास में त्याग योग्य कर्म

श्रीगर्गाचार्य जी के मत से अधिकमास में त्याज्य कर्म -

अग्न्याधानं प्रतिष्ठां च यज्ञो दानव्रतानि च। वेदव्रतवृषोत्सर्ग चूडाकरणमेखलाः॥गमनं देवतीर्थानां विवाहमभिषेचनम्। यानं च गृहकर्माणि मलमासे विवर्जयेत्॥ (गर्ग सं०)

श्रीगर्गाचार्य जी का कहना है कि अग्न्याधान, प्रतिष्ठा, यज्ञ, दान, व्रतादि, वेदव्रत वृषोत्सर्ग, चूडाकर्म, व्रतबन्ध, देवतीर्थों में गमन, विवाह, अभिषेक, यान और घर के काम अर्थात् गृहारम्भादि कार्य अधिक मास में नहीं करना चाहिये। मनुस्मृति के आधार पर कर्त्तव्य इस प्रकार हैं -

तीर्थश्राद्धं दर्शश्राद्धं प्रेतश्राद्धं सपिण्डनम्। चन्द्रसूर्यग्रहे स्नानं मलमासे विधीयते॥ (मनु स्मृ०)

मनुस्मृतिमें कहा गया है कि - तीर्थश्राद्ध, दर्शश्राद्ध, प्रेतश्राद्ध, सपिण्डीकरण, चन्द्रसूर्यग्रहणीय स्नान अधिकमास में भी करना चाहिये।

न कुर्यादधिके मासि काम्यं कर्म कदाचन। (स्मृत्यन्तर)

अधिकमास में फल-प्राप्ति की कामना से किये जानेवाले प्रायः सभी काम वर्जित हैं।

वाप्याराम-तडाग-कूप-भवनारम्भ प्रतिष्ठे व्रतारम्भोत्सर्ग-वधूप्रवेशन-महादानानि सोमाष्टके। गोदानाग्रयण-प्रपा-प्रथमकोपाकर्म वेदव्रतं नीलोद्वाहमथातिपन्न शिशुसंस्कारान् सुरस्थापनम् ॥ दीक्षा-मौञ्जि-विवाह-मुण्डनम पूर्वं देवतीर्थेक्षणं संन्यासाग्निपरिग्रहौ नृपतिसन्दर्शाऽभिषेकौ गमम्। चातुर्मास्य समावृती श्रवणयोर्वेधं परीक्षां त्यजेद् वृद्धत्वास्तशिशुत्व इज्य-सितयोर्न्यूनाधिमासे तथा॥ (मुहूर्त चिंतामणि)

सारांश

विश्व के कैलेंडर के इतिहास में केवल भारत में ही महीनों का नामकरण वैज्ञानिक कहा जा सकता है। क्षयमास सामान्यतया ११९ या १९ वर्ष बाद घटित हुआ करता है। जब क्षयमास आता है तब ६-७ मासों के भीतर ही दो अधिक मास आ जाते हैं, जिनमें एक अधिमास क्षयमास से पूर्व और एक क्षयमास के बाद होता है। दो सूर्यसंक्रान्तियों से युक्त शुक्लादि चान्द्रमास को क्षयमास कहते हैं, इसे अंहस्पति वा न्यूनमास की संज्ञा भी दी गई है।[4]

सौर वर्ष और चान्द्रवर्ष में सामञ्जस्य स्थापित करने के लिये हर तीसरे वर्ष पंचाँगों में एक चान्द्रमास की वृद्धि कर दी जाती है। इसी को अधिक मास कहते हैं। सौर वर्ष का मान ३६५ दिन, १५ घटी, २२ पल और ५७ विपल हैं। जबकि चान्द्रवर्ष ३५४ दिन, २२ घडी, १ पल और २३ विपल का होता है। दोनों वर्षमानों में प्रतिवर्ष १० दिन, ५३ घटी, २१॥ पल( औसतन ११ दिन) का अन्तर पडता है। इस अन्तर में समानता लाने के लिये चान्द्रवर्ष १२ मासों के स्थान पर १३ मास का हो जाता है। वास्तव में यह स्थिति स्वयं ही उत्पन्न हो जाती है क्योंकि जिस चान्द्रमास में सूर्य संक्रान्ति नहीं पडती, उसी को अधिकमास की संज्ञा दे दी जाती है।[5]

उद्धरण

  1. शब्दकल्पद्रुम पृ०३/७१८।
  2. डॉ० जितेन्द्र कुमारी द्विवेदी, पंचांग का व्यावहारिक जीवन में उपयोग, वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय, कोटा (पृ० १२)।
  3. श्री नारायण प्रसाद, वेद वाणी, अधिकमास एवं क्षयमास, सन् २००२, हरियाणा- वेदवाणी कार्यालय रेवली, (पृ० १२)। https://drive.google.com/file/d/1qsSgtZwIZs6iMUPpMeDhWFXjvgpa-XMq/view
  4. प्रियव्रत-शक्तिधर शर्मा, शास्त्रीय पञ्चांग मीमांसा, सन् १९७९, श्रीमार्त्तण्ड ज्यौतिष कार्यालयः (पृ० १८६)।
  5. पं० पन्नालाल ज्योतिषी, ज्योतिष तत्त्व, देवी दयालु ज्योतिषी एण्ड संज होशियारपुर, जालन्धर(पृ० २५)।