Difference between revisions of "Dhanurveda (धनुर्वेद)"
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− | + | धनुर्वेद यजुर्वेद का उपवेद है। इसके अंतर्गत धनुर्विद्या, सैन्य विज्ञान या युद्ध कला से संबंधित विषय आते हैं। प्राचीनकाल में पूरे भारत में इस ज्ञान परंपरा का बड़े ही आदर के साथ प्रचार-प्रसार हुआ था। प्राचीन भारत में धनुर्वेद पर बहुत सारे ग्रंथ उपलब्ध थे, किन्तु कालांतर में धनुर्वेद के प्रायः सभी ग्रंथ लुप्तप्राय से हो गए। कतिपय ग्रंथों में उनका विवरण प्राप्त होता है। जैसे अग्निपुराण में इसे ज्ञान की १८ शाखाओं में से एक बताया गया है। महाभारत में भी इसका उल्लेख प्राप्त होता है एवं धनुर्वेद संहिता नामक ग्रंथ भी उपलब्ध है। किन्तु अनेक ग्रंथों में इसके कुछ-कुछ अंश पाए जाते हैं। | |
− | == | + | ==परिचय== |
− | रामायण, महाभारत पुराण आदि प्राचीन भारतीय धर्मग्रंथों में कई बार | + | संस्कृत वांग्मय में उच्च कोटि के आध्यात्मिक ज्ञान के साथ ही उच्चतम विज्ञान के भी दर्शन होते हैं। अति प्राचीन काल से शारीरिक शिक्षा का चरम उत्कर्ष धनुर्वेद विज्ञान में अंतर्निहित है, यहां से तात्पर्य प्रयोग विज्ञान अथवा विशिष्ट से है। प्राचीन भारतीय पुरुष अस्त्र शस्त्र विद्या में निपुण थे उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान के साथ आततायियों एवं दुष्टों का दमन करने के लिए विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों की भी सृष्टि की थी। भारतीयों की शक्ति धर्म स्थापना में सहायक होती थी न कि आतंक में। धनुर्विज्ञान का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना कि वेदों की प्राचीनता। रामायण, महाभारत पुराण आदि प्राचीन भारतीय धर्मग्रंथों में कई बार [[Vidya (विद्या)|चौदह विद्याओं]] और [[64 Kalas of ancient India (प्राचीन भारत में चौंसठ कलाऍं)|चौंसठ कलाओं]] का वर्णन किया गया है। प्राचीन काल में जिन चौदह विद्याओं और चौंसठ कलाओं का वर्णन किया जाता है, वे इस प्रकार हैं- <blockquote>अंगानि चतुरो वेदा मीमांसा न्यायविस्तर:। पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश॥ आयुर्वेदो धनुर्वेदो गांधर्वश्चैव ते त्रयः। अर्थशास्त्रं चतुर्थन्तु विद्या ह्यष्टादशैव ताः॥ (वि० पुरा० 3.6.27/28 )<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%A4%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B6%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%AC विष्णु पुराण], तृतीयांश, अध्याया- 6 , श्लोक- 27/28। </ref> </blockquote>मधुसूदन सरस्वती जी ने धनुर्वेद को यजुर्वेद का उपवेद माना है। अग्निपुराण में ब्रह्मा और महेश्वर इस वेद के आदिकर्ता कहे गए हैं। रामायण एवं महाभारत में कई प्रकार की धनुर्विद्या का उल्लेख है। द्रोणाचार्य जी ने पांडवों को धनुर्वेद की शिक्षा दी थी।<ref>राणा प्रसाद शर्मा, पौराणिक कोश, सन् 2013, ज्ञान मण्डल लिमिटेड वाराणसी (पृ० 244)</ref>इसके अंतर्गत धनुर्विद्या या सैन्य विज्ञान आता है। दूसरे शब्दों में धनुर्वेद भारतीय सैन्य विज्ञान का दूसरा नाम माना जा सकता है। वैशम्पायन ऋषि द्वारा रचित नीतिप्रकाश या नीतिप्रकाशिका नामक ग्रंथ में धनुर्वेद के बारे में जानकारी है। धनुर्विद्या की उत्पत्ति व स्थान के विषय में निश्चित रूप से ज्ञान तो नहीं है लेकिन ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार संभवतः यह विद्या भारत से ही यूनान व अरब देशों में पहुंची थी। अग्नि पुराण में इस विद्या की बारीकियों का विस्तार से वर्णन किया गया है। |
− | + | ==परिभाषा== | |
+ | धनुर्वेद में न केवल धनुष शब्द का ग्रहण किया गया है अपितु उपलक्षण से सभी आयुध इसके अन्तर्गत आते हैं। वेद विशेष जिसमें धनुष चलाने की विद्या का वर्णन है वह वेद धनुर्वेद के नाम से जाना जाता है। जैसा कि परिभाषा के द्वारा स्पष्ट है -<blockquote>धनूंषि तदादीन्यस्त्राणि विद्यन्ते ज्ञायन्तेऽनेन इति धनुर्वेदः।<ref>वाचस्पत्यम पृष्ठ- ३८४१।</ref></blockquote>शस्त्रास्त्र एवं युद्ध संबंधी ज्ञान-विज्ञान का कथन करनेवाले शास्त्र को धनुर्वेद कहा गया है। धनुर्वेद के लिए अस्त्रवेद, क्षत्रवेद, शस्त्र विद्या आदि पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया जाता है।<ref>चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद शर्मा, चतुर्वेदी संस्कृत-हिन्दी शब्दकोष, सन 1917, नेवुल किशोर प्रेस लखनऊ(पृ० 203)</ref> | ||
− | + | ==वेद एवं उपवेद== | |
+ | ऋषियों ने सृष्टि के आदि में व्यवहार के लिये सभी वस्तुओं के नाम एवं कर्त्तव्य कर्मों का निर्धारण वेद से ही किया। वेद चार होते हैं एवं चारों वेदों के चार उपवेद हैं। चार उपवेदों में धनुर्वेद कौन-से वेद का उपवेद है, इस पर विचार किया जाता है - | ||
− | + | * ऋग्वेद का उपवेद - आयुर्वेद | |
− | + | * यजुर्वेद का उपवेद - धनुर्वेद | |
+ | * सामवेद का उपवेद - गान्धर्ववेद | ||
+ | * अथर्ववेद का उपवेद - स्थापत्यवेद | ||
− | + | वाशिष्ठ धनुर्वेद के प्रारंभ में ही धनुर्वेद को यजुर्वेद और अथर्ववेद का उपवेद स्वीकार किया है। इसी प्रकार शुक्रनीति, कोदण्डमण्डन एवं नीतिप्रकाशिका में इसे यजुर्वेद का ही उपवेद माना गया है। यहाँ यह कहना युक्ति संगत होगा कि- | |
− | धनुर्वेद | + | # प्राधान्य से धनुर्वेद का प्रकरण यजुर्वेद में उपलब्ध होता है। |
+ | # अन्य दिव्यास्त्र-सम्बन्धी ज्ञान-विज्ञान का वर्णन अथर्ववेद में प्राप्त होता है। | ||
− | + | शुक्राचार्य ने युद्धोपकरण, शस्त्रास्त्र और व्यूहरचना के दिग्दर्शक शास्त्र को धनुर्वेद कहा है। | |
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− | + | स्वामी दयानन्द जी ने राजप्रजा-सम्बन्धी कार्यों को धनुर्वेद में परिगणित किया है। | |
− | + | इसी प्रकार शुक्रनीति में शस्त्र-प्रहरण, मल्लयुद्ध, इच्छित स्थान पर अस्त्र निपातन, व्यूह-रचना और हाथी, घोडे, रथादि से युद्ध करना ये पाँच कलायें धनुर्वेद में समाविष्ट की हैं। प्राचीन काल में भारत देश में धनुर्वेद की छह-सात परम्पराऐं विद्यमान थीं। जैसा कि उनके निम्न प्रकार हैं- | |
− | धनुर्वेद संबंधी मूलग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं। अनेक ऋषियों द्वारा निर्मित धनुर्वेद यद्यपि विश्वामित्र, जामदग्न्य, शिव, वसिष्ठादि के नामों से युक्त धनुर्वेद की छोटी पुस्तकें प्राप्त होती हैं, परंतु इनको मूलग्रंथ स्वीकार करना बहुत ही कठिन है। स्वामी दयानंद जी ने महर्षि अंगिरा कृत धनुर्वेद का उल्लेख किया है। आचार्य द्विजेन्द्रनाथ शास्त्री ने द्रोणाचार्य द्वारा निर्मित ‘धनुष्प्रदीप’ नामक ग्रंथ का वर्णन किया है जिसमें सात सहस्र श्लोक थे। इसी प्रकार परशुराम जी प्रणीत साठ सहस्र श्लोक वाला धनुश्चंद्रोदय नामक ग्रंथ भी विद्यमान था। | + | *तन्त्र प्रधान (हाथ-पैर द्वारा किये गये) युद्ध का वर्णन महर्षि वशिष्ठ ने वासिष्ठ धनुर्वेद में किया। |
+ | *धनुष से भिन्न कुन्त, गदा, खड्ग, इत्यादि की प्रयोग-विधियों का उल्लेख विश्वामित्र जी ने किया। | ||
+ | *अस्त्रविद्या का उल्लेख जामदग्न्य (परशुराम) जी के द्वारा किया गया है। | ||
+ | *सञ्जीवनी विद्या का शुक्राचार्य जी ने औशनस धनुर्वेद में प्रयोग किया। | ||
+ | *विद्युत्-शास्त्र का प्रवचन भारद्वाज ऋषि ने। | ||
+ | *विविध शस्त्रास्त्रों का वर्णन महर्षि वैशम्पायन जी ने किया था। | ||
+ | * | ||
+ | प्राचीन भारत में धनुर्वेद पर बहुत सारे ग्रन्थ उपलब्ध थे, किन्तु कालान्तर में धनुर्वेद के प्रायः सभी ग्रन्थ लुप्तप्राय से हो गए। कुछ ग्रन्थों में उनका विवरण प्राप्त होता है जैसे- | ||
+ | {| class="wikitable" | ||
+ | |+(धनुर्वेद संबंधि ग्रंथ एवं ग्रंथकार) | ||
+ | !क्र०सं० | ||
+ | !ग्रन्थ | ||
+ | ! ग्रन्थकार | ||
+ | |- | ||
+ | | 1 | ||
+ | |नीतिसार | ||
+ | |आचार्य कामन्द | ||
+ | |- | ||
+ | |2 | ||
+ | |अर्थशास्त्र | ||
+ | | आचार्य कौटिल्य | ||
+ | |- | ||
+ | |3 | ||
+ | |युक्तिकल्पतरु | ||
+ | |महाराज भोज | ||
+ | |- | ||
+ | |4 | ||
+ | |नीति मयूख | ||
+ | | | ||
+ | |- | ||
+ | |5 | ||
+ | |वीर चिंतामणि | ||
+ | | | ||
+ | |- | ||
+ | |6 | ||
+ | |अग्नि पुराण | ||
+ | | | ||
+ | |- | ||
+ | |7 | ||
+ | |शार्ड़्गधर पद्धतिः | ||
+ | |आचार्य शार्ड़्गधर | ||
+ | |- | ||
+ | |8 | ||
+ | |मानसोल्लास | ||
+ | |आचार्य सोमेश्वर | ||
+ | |- | ||
+ | |9 | ||
+ | |नीतिवाक्यामृत | ||
+ | | आचार्य सोमदेव सूरि | ||
+ | |- | ||
+ | |10 | ||
+ | |महाभारत | ||
+ | |महर्षि वेद व्यास | ||
+ | |- | ||
+ | |11 | ||
+ | | रामायण | ||
+ | |महर्षि वाल्मीकि | ||
+ | |- | ||
+ | | colspan="3" |आदि ग्रंथों में धनुर्वेद का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है - | ||
+ | |- | ||
+ | |1 | ||
+ | |नीति प्रकाशिका | ||
+ | |महर्षि वैशम्पायन | ||
+ | |- | ||
+ | |2 | ||
+ | |धनुर्वेद संहिता | ||
+ | |महर्षि वसिष्ठ | ||
+ | |- | ||
+ | | colspan="3" |शिवोक्त धनुर्वेद आदि ग्रंथ स्वतंत्र रूप से धनुर्विद्या के ग्रंथ हैं। | ||
+ | |} | ||
+ | |||
+ | ==धनुर्वेद संहिता== | ||
+ | धनुर्वेद संबंधी मूलग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं। अनेक ऋषियों द्वारा निर्मित धनुर्वेद यद्यपि विश्वामित्र, जामदग्न्य, शिव, वसिष्ठादि के नामों से युक्त धनुर्वेद की छोटी पुस्तकें प्राप्त होती हैं, परंतु इनको मूलग्रंथ स्वीकार करना बहुत ही कठिन है। | ||
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+ | *स्वामी दयानंद जी ने महर्षि अंगिरा कृत धनुर्वेद का उल्लेख किया है। | ||
+ | *आचार्य द्विजेन्द्रनाथ शास्त्री ने द्रोणाचार्य द्वारा निर्मित ‘धनुष्प्रदीप’ नामक ग्रंथ का वर्णन किया है जिसमें सात सहस्र श्लोक थे। | ||
+ | *इसी प्रकार परशुराम जी प्रणीत साठ सहस्र श्लोक वाला धनुश्चंद्रोदय नामक ग्रंथ भी विद्यमान था। | ||
+ | *महर्षि वैशम्पायनकृत नीतिप्रकाशिका में धनुर्वेद का आदि प्रवक्ता ब्रह्मा को माना है, जिसने एक लाख अध्यायोंवाले धनुर्वेद का उपदेश वेन पुत्र महाराज पृथु को दिया। | ||
+ | *संक्षेप करके रुद्र ने पचास हजार, इन्द्र ने बारह, प्राचेतस ने छह और बृहस्पति ने तीन हजार अध्यायों से युक्त धनुर्वेद का प्रवचन किया। | ||
+ | *शुक्राचार्य ने उसे और संक्षिप्त करके एक सहस्त्र अध्यायोंवाले नीतिशास्त्र (शुक्रनीति ) का निर्माण किया। | ||
+ | *भारद्वाज मुनि ने सात सौ, गौरशिरा ने पाँच सौ, महर्षि वेदव्यास ने उसे भी संक्षिप्त करके तीन सौ अध्यायवाले नीतिशास्त्र को बनाया। | ||
+ | *महर्षि वैशम्पायन ने उसका भी संक्षेप करके आठ अध्यायवाले शास्त्र का प्रवचन किया । | ||
'''सैन्य अध्ययन एवं धनुर्वेद''' | '''सैन्य अध्ययन एवं धनुर्वेद''' | ||
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सैन्य अध्ययन को कई अन्य नामों से भी जाना जाता है जैसे रक्षा और रणनीतिक शिक्षा, सैन्य विज्ञान, युद्ध और राष्ट्रीय सुरक्षा अध्ययन, युद्ध और रणनीति अध्ययन। प्राचीन काल में धनुष बाण आदि अस्त्र-शस्त्र युद्ध के उपकरण हुआ करते थे। परंतु वर्तमान काल में युद्ध की आवश्यकताऐं बदल गईं हैं और युद्ध के तरीके भी बदल गए हैं। प्राचीन कल में धनुर्विद्या आदि के ज्ञान के द्वारा निम्न विषयों में महत्वपूर्ण लाभ प्राप्त होता था- | सैन्य अध्ययन को कई अन्य नामों से भी जाना जाता है जैसे रक्षा और रणनीतिक शिक्षा, सैन्य विज्ञान, युद्ध और राष्ट्रीय सुरक्षा अध्ययन, युद्ध और रणनीति अध्ययन। प्राचीन काल में धनुष बाण आदि अस्त्र-शस्त्र युद्ध के उपकरण हुआ करते थे। परंतु वर्तमान काल में युद्ध की आवश्यकताऐं बदल गईं हैं और युद्ध के तरीके भी बदल गए हैं। प्राचीन कल में धनुर्विद्या आदि के ज्ञान के द्वारा निम्न विषयों में महत्वपूर्ण लाभ प्राप्त होता था- | ||
− | + | *सैन्य सुरक्षा का ज्ञान | |
− | + | *सैन्य संगठनों का अध्ययन | |
− | + | *राष्ट्रीय सुरक्षा | |
− | + | *युद्ध की कला | |
− | + | *धनुष और तीर (शस्त्रास्त्रों) के प्रयोग करने का कौशल | |
− | + | *सशस्त्र सेनाओं को युद्ध के लिए किस प्रकार तैयार किया जाना व्यूह रचना आदि | |
− | + | * सैन्य अध्ययन से मातृ भूमि (देश) की रक्षा | |
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भारतीय सैन्य विज्ञान का नाम धनुर्वेद होना सिद्ध करता है कि वैदिककाल से ही प्राचीन भारत में धनुर्विद्या प्रतिष्ठित थी। | भारतीय सैन्य विज्ञान का नाम धनुर्वेद होना सिद्ध करता है कि वैदिककाल से ही प्राचीन भारत में धनुर्विद्या प्रतिष्ठित थी। | ||
− | + | ==धनुर्विद्या== | |
− | + | उपयोगी कला के अतिरिक्त धनुर्विधा मनोरंजन का भी प्रमुख साधन थी। इस विद्या में नैपुण्य का प्रदर्शन करने के लिए समाज या उत्सवों का आयोजन हुआ करता था। भरहूत की कलाकृतियों में ‘असदिस जातक’ की कथा में ऐसा ही एक दृश्य प्रदर्शित है। एक धनुर्धारी आम्रवृक्ष के नीचे खड़ा है और उसका करतब देखने के लिए उक्त दृश्य में एक दर्शक भी दिखलाया गया है।<ref>भरहूत, आकृति १००, फासबेल, जातक सं० १८१।</ref> | |
− | + | *महर्षि और्व से अग्निबाण, धनुर्वेद शिक्षण प्राप्त कर श्री राम के पूर्वज राजकुमार सगर चक्रवर्ती अयोध्या के सम्राट बने। | |
− | + | *सूर्यपुत्र महारथी कर्ण ने परशुराम से धनुर्वेद की शिक्षा ली थी। | |
− | + | *परशुराम जी ने द्रोण एवं भीष्म को धनुर्वेद का सम्पूर्ण ज्ञान दिया। | |
− | + | महाभारत में आचार्य द्रोण द्वारा आयोजित ऐसे ही एक समाज का विस्तृत चित्रण मिलता है जिसमें धनुर्विद्या की भी प्रतियोगिताएं हुई थीं और उनमें अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ उद्घोषित किया गया था।<ref>महाभारत , आदि० पर्व 132/ 33</ref> क्षत्रिय स्त्रियां धनुर्वेद अर्थात युद्धकला की भी शिक्षा ग्रहण करती थीं तथा युद्ध में भी भाग लेती थीं। श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार सान्दीपनि आश्रम में श्रीकृष्ण एवं बलराम जी को चारों वेद एवं छः अंगों के साथ रहस्यांत धनुर्वेद की शिक्षा प्रदान की गई थी - <blockquote>सरहस्यं धनुर्वेदं धर्मान् न्यायपथांस्तथा। तथा चान्वीक्षिकीं विद्यां राजनीतिं च षड्विधाम् ॥(भा०पु० १०-४५-३४)<ref>भागवत पुराण, दशम स्कन्ध, अध्याय 45, श्लोक 34.</ref></blockquote>उन्होंने दोनों को रहस्यों सहित धनुर्वेद की शिक्षा दी, साथ ही मानक विधि ग्रंथ, तर्क तथा दर्शन विषयक वाद-विवाद की विधियाँ और राजनीति शास्त्र के छह भेदों की भी शिक्षा दी इस प्रकार गुरुकुलमें ही श्री कृष्ण एवं बलराम जी धनुर्विद्या में शीघ्र ही निष्णात हो गये थे। भारतवर्ष के दो प्रसिद्ध धर्मशास्त्र रामायण और महाभारत में भारतीयों के धनुर्विद्या में पारंगत होने का वर्णन मिलता है। रघुवंशमहाकाव्य में श्रीराम और श्री लक्ष्मण के महाधनुषों की टंकार का जहां वर्णन मिलता है, वहीं अभिज्ञान शाकुंतलम् में दुष्यंत को धनुर्विद्या में निपुण बताया गया है। | |
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− | + | ==धनुर्विज्ञान का औचित्य (Archery)== | |
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राष्ट्र रक्षा एवं स्वयं की सुरक्षा करना ही धनुष विज्ञान का मुख्य प्रयोजन था। धनुर्विज्ञान का औचित्य धर्म स्थापना में था न कि आतंक में। प्राचीन काल में समाज की रक्षा का भार विशेष रूप से क्षत्रियों पर था क्षत्र शब्द का व्युत्पत्ति परक अर्थ होता है नाश होने से। महाकवि कालिदास ने भी रघुवंश महाकाव्य में क्षत्रियों को स्वयं की एवं दूसरों की रक्षा करने वाला बताया है इसिलिए क्षत्रियों को धनुष धारण करना नितांत आवश्यक होता था। किसी भी धनुर्धर को दूसरों के द्वारा रक्षित होने की आवश्यकता नहीं रहती। महर्षि वसिष्ठ प्रणीत धनुर्वेद संहिता में कहा गया है कि- | राष्ट्र रक्षा एवं स्वयं की सुरक्षा करना ही धनुष विज्ञान का मुख्य प्रयोजन था। धनुर्विज्ञान का औचित्य धर्म स्थापना में था न कि आतंक में। प्राचीन काल में समाज की रक्षा का भार विशेष रूप से क्षत्रियों पर था क्षत्र शब्द का व्युत्पत्ति परक अर्थ होता है नाश होने से। महाकवि कालिदास ने भी रघुवंश महाकाव्य में क्षत्रियों को स्वयं की एवं दूसरों की रक्षा करने वाला बताया है इसिलिए क्षत्रियों को धनुष धारण करना नितांत आवश्यक होता था। किसी भी धनुर्धर को दूसरों के द्वारा रक्षित होने की आवश्यकता नहीं रहती। महर्षि वसिष्ठ प्रणीत धनुर्वेद संहिता में कहा गया है कि- | ||
दुष्टों डाकुओं सदा चोरों से सज्जनों का संरक्षण करना एवं प्रजा का पालन करना धनुर्विज्ञान का मुख्य प्रयोजन है। यदि किसी गांव में एक भी अच्छा धनुर्धर होता था तो उससे एक समस्त ग्राम की रक्षा होती थी शत्रु उसके डर से भाग जाते थे शुक्र नीति के अनुसार धनुर्वेद विज्ञान द्वारा केवल धनुष संचालन का नहीं अपितु युद्ध उपयोगी समग्र शस्त्रों के निर्माण वा प्रयोग संबंधी ज्ञान भी दिया जाता था। महाकवि भवभूति जी ने भी उत्तररामचरित में धनुर्वेद के रक्षात्मक स्वरूप का चित्रण किया है। | दुष्टों डाकुओं सदा चोरों से सज्जनों का संरक्षण करना एवं प्रजा का पालन करना धनुर्विज्ञान का मुख्य प्रयोजन है। यदि किसी गांव में एक भी अच्छा धनुर्धर होता था तो उससे एक समस्त ग्राम की रक्षा होती थी शत्रु उसके डर से भाग जाते थे शुक्र नीति के अनुसार धनुर्वेद विज्ञान द्वारा केवल धनुष संचालन का नहीं अपितु युद्ध उपयोगी समग्र शस्त्रों के निर्माण वा प्रयोग संबंधी ज्ञान भी दिया जाता था। महाकवि भवभूति जी ने भी उत्तररामचरित में धनुर्वेद के रक्षात्मक स्वरूप का चित्रण किया है। | ||
− | == | + | ==धनुर्वेद के प्रवक्ता== |
− | धनुर्वेद के मूल प्रवक्ता भगवान शिव हैं सदाशिव से परशुराम जी ने प्राप्त किया महर्षि वसिष्ठ भी उनके ही शिष्य थे वसिष्ठ जी से विश्वामित्र ने प्राप्त किया प्रस्थान भेद नामक ग्रंथ में पाद चतुष्टयात्मक धनुर्वेद को विश्वामित्र प्रणीत ही बताया गया है। वशिष्ठ द्वारा उक्त धनुर्वेद में तंत्र युद्ध की प्रधानता है विश्वामित्र ने धनुर्वेद शास्त्र का संशोधन करके शास्त्रीय रूप देकर प्रधानाचार्य का पद ग्रहण किया था। यद्यपि पूर्ण धनुर्वेद कहीं प्राप्त नहीं होता है तथापि वाशिष्ठ धनुर्वेद, औशनक धनुर्वेद, अग्निपुराणोक्त अध्यायात्मक, विष्णुधर्मोत्तर पुराण के 4 अध्याय, मानसोल्लास, युक्तीकल्पतरु, वीरमित्रोदय आदि ग्रंथों में धनुर्वेद और उससे संबंधित विद्या का वर्णन मिलता है। | + | धनुर्वेद के मूल प्रवक्ता भगवान शिव हैं सदाशिव से परशुराम जी ने प्राप्त किया महर्षि वसिष्ठ भी उनके ही शिष्य थे वसिष्ठ जी से विश्वामित्र ने प्राप्त किया प्रस्थान भेद नामक ग्रंथ में पाद चतुष्टयात्मक धनुर्वेद को विश्वामित्र प्रणीत ही बताया गया है। वशिष्ठ द्वारा उक्त धनुर्वेद में तंत्र युद्ध की प्रधानता है विश्वामित्र ने धनुर्वेद शास्त्र का संशोधन करके शास्त्रीय रूप देकर प्रधानाचार्य का पद ग्रहण किया था। यद्यपि पूर्ण धनुर्वेद कहीं प्राप्त नहीं होता है तथापि वाशिष्ठ धनुर्वेद, औशनक धनुर्वेद, अग्निपुराणोक्त अध्यायात्मक, विष्णुधर्मोत्तर पुराण के 4 अध्याय, मानसोल्लास, युक्तीकल्पतरु, वीरमित्रोदय आदि ग्रंथों में धनुर्वेद और उससे संबंधित विद्या का वर्णन मिलता है।<ref>डॉ० देवव्रत आचार्य, धनुर्वेद, सन १९९९, विजयकुमार गोविंद्रम हसानंद , नई सड़क, दिल्ली (पृ० २१)</ref> |
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'''धनुर्वेद के चारों पाद''' | '''धनुर्वेद के चारों पाद''' | ||
− | अग्नि पुराण में धनुर्वेद को चतुर्पाद कहा गया है- 1. दीक्षा, 2. संग्रह 3. सिद्धि प्रयोग और 4. प्रयोग विज्ञान यह चार पाद कहे गए हैं। | + | अग्नि पुराण में धनुर्वेद को चतुर्पाद कहा गया है- 1. दीक्षा, 2. संग्रह 3. सिद्धि प्रयोग और 4. प्रयोग विज्ञान यह चार पाद कहे गए हैं।<blockquote>तत्र चतुष्टयपादात्मको धनुर्वेदः। यस्य प्रथमे पादे दीक्षाप्रकारः। द्वितीये संग्रहः, तृतीये सिद्धप्रयोगाः, चतुर्थे प्रयोगविधयः॥ (वाशि०धनु० 1-2)<ref name=":1">पूर्णिमा राय,[https://ia904701.us.archive.org/20/items/in.ernet.dli.2015.382701/2015.382701.Vasistas-Dhanurveda_text.pdf वाशिष्ठ धनुर्वेद संहिता], अंग्रेजी व्याख्या, सन् २००३, जे० पी० पब्लिशिंग हाऊस, शक्ति नगर, दिल्ली (पृ० ३)।</ref></blockquote>अग्नि पुराण में 249/1 दीक्षा पाद में धनुष का लक्षण तथा अधिकारी का निरूपण किया गया है तथा धनुष शब्द से तात्पर्य धनुर्विद्या में प्रयुक्त आयुध से लिया गया है। महाभारत की नीलकंठी टीका में दीक्षा शिक्षा आत्मरक्षा और उनके साधन इन्हें धनुर्वेद के चार पाद बताया गया है। |
− | + | ==धनुर्विद्या का महत्व== | |
+ | भारतमें युद्ध प्रणाली एवं सैन्य संगठन में धनुर्विद्या का महत्वपूर्ण योगदान था। भारतीय धनुर्धारी को किसी भी रूप में रोका नहीं जा सकता था किन्तु कालांतर में भारतीय भूमि पर इसका महत्व कम हो गया किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि धनुष एवं बाण का प्रयोग समाप्त हो गया। पृथ्वी राज चौहान एक उत्कृष्ट कोटि के धनुर्धारी थे।<blockquote>दुष्टदस्युचौरादिभ्य साधुसंरक्षणं तथा। धर्मत: प्रजापालनं धनुर्वेदस्य प्रयोजनम॥ एकोऽपि यत्र नगरे प्रसिद्ध: स्याद्धनुर्धर:। ततो यान्त्यरयो दूरान्मृगा: सिंह गृहादिव॥ (वाशि० धनु० 1-5)<ref name=":1" /></blockquote>दुष्ट मनुष्य, डाकू, चोर आदि से सज्जन धर्मात्मा पुरुषों की रक्षा करना ही धनुर्वेद का प्रयोजन है । जिस नगर या गांव में एक भी प्रसिद्ध धनुर्धर है, उस गाँव से शत्रु ऐसे दूर भागते हैं जैसे शेर के स्थान को देखकर हिरन आदि पशु भागते हैं। भारतीय सेना के परंपरागत चार विभाग थे- हाथी, अश्वारोही, रथ तथा पैदल।<blockquote>धर्मार्थं यः त्यजेत्प्राणान्किं तीर्थे जपे च किम् । मुक्तिभागी भवेत् सोऽपि निरयं नाधिगच्छति॥ | ||
− | + | ब्राह्मणार्थे गवार्थे वा स्त्रीणां बालवधेषु च। प्राणत्यागपरो यस्तु सवै मोक्षमवाप्नुयात् ॥ (वाशि० धनु० 45-66)<ref>पूर्णिमा राय,[https://ia904701.us.archive.org/20/items/in.ernet.dli.2015.382701/2015.382701.Vasistas-Dhanurveda_text.pdf वाशिष्ठ धनुर्वेद संहिता], अंग्रेजी व्याख्या, सन् 2003, जे० पी० पब्लिशिंग हाऊस, शक्ति नगर, दिल्ली (पृ० 75)।</ref></blockquote> | |
− | == | + | ==धनुर्वेद शिक्षा== |
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धनुर्वेद एक उपवेद है। इसके अंतर्गत धनुर्विद्या या सैन्य विज्ञान आता है। अन्य प्रकार से कहें तो धनुर्वेद भारतीय सैन्य विज्ञान का दूसरा नाम है। शास्त्रों के अनुसार चार वेद हैं और इसी तरह चार उपवेद हैं। इन उपवेदों में पहला आयुर्वेद, दूसरा शिल्पवेद, तीसरा गंधर्ववेद और चौथा धनुर्वेद। इस धनुर्वेद में धनुर्विद्या का सारा रहस्य मौजूद है। शुक्रनीति में 18 से 22 तक की पांच कलाएं धनुर्वेद से सम्बंध रखती हैं। | धनुर्वेद एक उपवेद है। इसके अंतर्गत धनुर्विद्या या सैन्य विज्ञान आता है। अन्य प्रकार से कहें तो धनुर्वेद भारतीय सैन्य विज्ञान का दूसरा नाम है। शास्त्रों के अनुसार चार वेद हैं और इसी तरह चार उपवेद हैं। इन उपवेदों में पहला आयुर्वेद, दूसरा शिल्पवेद, तीसरा गंधर्ववेद और चौथा धनुर्वेद। इस धनुर्वेद में धनुर्विद्या का सारा रहस्य मौजूद है। शुक्रनीति में 18 से 22 तक की पांच कलाएं धनुर्वेद से सम्बंध रखती हैं। | ||
वैशम्पायन द्वारा रचित नीतिप्रकाश या नीतिप्रकाशिका नामक ग्रंथ में धनुर्वेद के बारे में जानकारी है। यह ग्रंथ मद्रास में डॉ० आपार्ट द्वारा 1882 में संपादित किया गया। धनुर्वेद के अलावा इस ग्रंथ में निम्न विषय वर्णित हैं- | वैशम्पायन द्वारा रचित नीतिप्रकाश या नीतिप्रकाशिका नामक ग्रंथ में धनुर्वेद के बारे में जानकारी है। यह ग्रंथ मद्रास में डॉ० आपार्ट द्वारा 1882 में संपादित किया गया। धनुर्वेद के अलावा इस ग्रंथ में निम्न विषय वर्णित हैं- | ||
− | + | *राजधर्मोपदेश | |
− | + | *खड़गोत्पत्ति | |
− | + | *मुक्तायुध निरूपण | |
− | + | *सेनानयन | |
− | + | *सैन्य प्रयोग एवं राज व्यापार | |
− | + | *आठ आध्यायों में तक्ष शिला में वैशम्पायन द्वारा जन्मेजय को दिया गया शिक्षण | |
− | + | * राज शास्त्र के प्रवर्तकों का उल्लेख | |
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− | कौशीतकी ब्राह्मण में लिखा है कि धनुर्धर की यात्रा धनुष के कारण सकुशल और निरापद होती है। जो धनुर्धर शास्त्रोक्त विधि से बाण का प्रयोग करता है, वह बड़ा यशस्वी होता है। भीष्म ने छह हाथ लंबे धनुष का प्रयोग किया था। धनुष विद्या की एक विशेषता यह थी कि इसका उपयोग चतुरंगिणी सेना के चारों अंग कर सकते थे । पौराणिक समय में सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर सगर, श्री राम, भीष्म, अर्जुन आदि सभी प्रतिष्ठित रूप से दिव्य हथियार(दिव्यास्त्र) बुला सकते थे, जो ऐसी मारक क्षमता उत्पन्न करते थे जिसका मुकाबला सामान्य रथ पर सवार धनुर्धर नहीं कर सकते थे। कोई भी इन धनुषधारकों के प्रभाव को समझ नहीं सकता है। भीष्म ने स्वयं अपने आदेशानुसार प्रतिदिन 10,000 सैनिकों को नष्ट करने की शपथ ली थी। | + | भारतीय सैन्य विज्ञान का नाम धनुर्वेद होना सिद्ध करता है कि वैदिक काल में भी प्राचीन भारत में धनुर्विद्या प्रतिष्ठित थी। संहिताओं और ब्राह्मणों में वज्र के साथ ही धनुष बाण का भी उल्लेख मिलता है। कौशीतकी ब्राह्मण में लिखा है कि धनुर्धर की यात्रा धनुष के कारण सकुशल और निरापद होती है। जो धनुर्धर शास्त्रोक्त विधि से बाण का प्रयोग करता है, वह बड़ा यशस्वी होता है। भीष्म ने छह हाथ लंबे धनुष का प्रयोग किया था। धनुष विद्या की एक विशेषता यह थी कि इसका उपयोग चतुरंगिणी सेना के चारों अंग कर सकते थे । पौराणिक समय में सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर सगर, श्री राम, भीष्म, अर्जुन आदि सभी प्रतिष्ठित रूप से दिव्य हथियार(दिव्यास्त्र) बुला सकते थे, जो ऐसी मारक क्षमता उत्पन्न करते थे जिसका मुकाबला सामान्य रथ पर सवार धनुर्धर नहीं कर सकते थे। कोई भी इन धनुषधारकों के प्रभाव को समझ नहीं सकता है। भीष्म ने स्वयं अपने आदेशानुसार प्रतिदिन 10,000 सैनिकों को नष्ट करने की शपथ ली थी। |
− | == | + | ==धनुर्वेद का प्रयोग== |
अग्निपुराण में राजधर्म तथा उसके अंगों के वर्णन के प्रसंग में धनुर्विद्या का अध्याय 249 प्रारंभ में होकर 252 अध्याय पर्यंत वर्णन प्राप्त होता है। प्राचीन काल में धनुर्वेद पर बहुत सारे ग्रंथ उपलब्ध थे, किन्तु कालांतर में धनुर्वेद के प्रायः सभी ग्रंथ लुप्त प्राय से हो गए। | अग्निपुराण में राजधर्म तथा उसके अंगों के वर्णन के प्रसंग में धनुर्विद्या का अध्याय 249 प्रारंभ में होकर 252 अध्याय पर्यंत वर्णन प्राप्त होता है। प्राचीन काल में धनुर्वेद पर बहुत सारे ग्रंथ उपलब्ध थे, किन्तु कालांतर में धनुर्वेद के प्रायः सभी ग्रंथ लुप्त प्राय से हो गए। | ||
'''आयुधों के प्रकार''' | '''आयुधों के प्रकार''' | ||
− | महाभारत के प्रथम खण्ड अनुसार जब कुरु राजकुमार बड़े होने लगे तो उनकी आरंभिक शिक्षा का भार राजगुरु कृपाचार्य जी के पास गया। उन्हीं से कुरु राजकुमारों ने धनुर्वेद की शिक्षा ग्रहण की। कृपाचार्य जी के अनुसार धनुर्वेद के प्रमुख चार भेद इस प्रकार हैं जो कि उन्होंने शिष्यों को सिखाए – | + | महाभारत के प्रथम खण्ड अनुसार जब कुरु राजकुमार बड़े होने लगे तो उनकी आरंभिक शिक्षा का भार राजगुरु कृपाचार्य जी के पास गया। उन्हीं से कुरु राजकुमारों ने धनुर्वेद की शिक्षा ग्रहण की। कृपाचार्य जी के अनुसार धनुर्वेद के प्रमुख चार भेद इस प्रकार हैं जो कि उन्होंने शिष्यों को सिखाए – <blockquote>चतुष्पाच्च धनुर्वेदः सांगोपांग रहस्यकः।(नी० प्रका० 1-38)<ref>टी०चंद्रशेखरन, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.369604/page/5/mode/1up?view=theater वैशम्पायननीतिप्रकाशिका], सन् 1953, मद्रास गवर्नमेंट ओरिएंटल मैनुस्क्रिप्ट्स सीरीज- 24, अध्याय-१, श्लोक १६ (पृ० 6)।</ref> |
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− | चतुष्पाच्च धनुर्वेदः सांगोपांग- | ||
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− | + | मुक्तं चैव ह्यमुक्तं च मुक्तामुक्तमतः परम् । मंत्रमुक्तं च चत्वारि धनुर्वेदपदानी वै॥(नी० प्रका० 2-11)<ref name=":0">टी०चंद्रशेखरन, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.369604/page/5/mode/1up?view=theater वैशम्पायननीतिप्रकाशिका], सन् 1953, मद्रास गवर्नमेंट ओरिएंटल मैनुस्क्रिप्ट्स सीरीज- 24, अध्याय-२, श्लोक-११ (पृ० २१)।</ref></blockquote>'''1. मुक्त–''' जो बाण छोड़ दिया जाए उसे मुक्त कहते हैं। | |
− | ''' | + | '''2. अमुक्त-''' जिस अस्त्र को हाथ में लेकर प्रहार किया जाए जैसे खड्ग आदि को अमुक्त कहा जाता है। |
− | + | '''3. मुक्तामुक्त-''' जिस अस्त्र को चलाने और समेटने की कला ज्ञात हो, उस अस्त्र को मुक्तामुक्त कहा जाता है। | |
− | + | '''4. मंत्रमुक्त-''' जिस अस्त्र को मंत्र पढ़कर चला तो दिया जाये किन्तु उसके उपसंहारकी विधि मालूम न हो, उस अस्त्र को मंत्रमुक्त कहा गया है। | |
− | + | शस्त्र विद्या के आधार पर धनुर्वेद को भी चार शाखाओं में वर्गीकृत किया गया है-<blockquote>शस्त्रमस्त्रंच प्रत्यस्त्रं परमास्त्रमितीव च। चातुर्विध्यं धनुर्वेदे केचिदाहुर्धनुर्विदः॥ (नीति०प्रका०)<ref name=":0" /></blockquote>'''1. शस्त्र-''' हथियार जो हाथों में रखे जाते हैं। | |
− | + | '''2. अस्त्र-''' छोड़े जाने वाले हथियार। | |
− | + | '''3. प्रत्यस्त्र-''' अस्त्रों का प्रतीकार करने के लिए प्रयुक्त अस्त्र अर्थात् रक्षात्मक हथियार या रक्षात्मक कलाएं। | |
− | ''' | + | '''4. परमास्त्र-''' सर्वोच्च हथियार, अर्थात् दिव्य हथियार या शत्रु का पीछा करने वाले हथियार। |
− | 1. | + | धनुर्वेद को क्रियाओं अथवा अंगों के आधार पर भी चार भागों में वर्गीकृत किया गया है- <blockquote>आदानश्चैव सन्धानं विमोक्षस्संहृतिस्तथा। धनुर्वेदश्चतुर्धेति वदन्तीति परे जगुः॥(नीति०प्रका० २-१५)<ref name=":0" /></blockquote>'''1. आदान-''' तीरों पर नियंत्रण रखना अर्थात् दुश्मन के तीरों/ हथियारों को मार गिराना या दूर खींचकर फेक देना। |
− | 2. | + | '''2. संधान-''' दो हथियारों या कलाओं (शैलियों) को एक साथ जोड़ना जैसे- उपचारात्मक हथियार, हवाई हथियार, मायावी हथियार या आविष्कार।(दिव्यास्त्र दो प्रकार के कहे गए हैं नालिक और मांत्रिक। <ref>शुक्र नीति – अस्त्रं तु द्विविधं ज्ञेयं नालिकं मांत्रिकं तथा।(४, १०२५ )</ref>(नालिक) अस्त्रों से किया जाने वाला युद्ध आसूर मायिक और मांत्रिक दैविक कहलाता है। |
− | 3. | + | '''3. विमोक्ष-''' अदान के विपरीत हथियार छोड़ने की कलाएं या शैलियां। |
− | 4. | + | '''4. संहार-''' सूचनाओं का संकलन। |
कृपाचार्य जी ने इन चारों का उल्लेख किया। अर्जुन ने उपपाण्डवों को दस अंग या दस विधाएं सिखाईं। (विमोक्ष यहां मोक्ष का ही एक रूप है, संहार या संकलन अर्जुन की सूची में नहीं है। कृपाचार्य जी ने इन्हैं अन्य शीर्षकों के अंतर्गत शामिल किया। सभी शिक्षकों के लिए शिक्षण का तरीका अलग-अलग है, पहले दो समान हैं। | कृपाचार्य जी ने इन चारों का उल्लेख किया। अर्जुन ने उपपाण्डवों को दस अंग या दस विधाएं सिखाईं। (विमोक्ष यहां मोक्ष का ही एक रूप है, संहार या संकलन अर्जुन की सूची में नहीं है। कृपाचार्य जी ने इन्हैं अन्य शीर्षकों के अंतर्गत शामिल किया। सभी शिक्षकों के लिए शिक्षण का तरीका अलग-अलग है, पहले दो समान हैं। | ||
− | धनुर्वेद के दश अंग जो कि इस प्राकार बताए गए हैं – | + | धनुर्वेद के दश अंग जो कि इस प्राकार बताए गए हैं – <blockquote>आदानमथ संधानं मोक्षणं विनिवर्तनम्। स्थानं मुष्टिः प्रयोगश्च प्रायश्चित्तानि मंडलम्॥ रहस्यंचेति दशधा धनुर्वेदांगमिष्यते॥(महा० आदि० 220। 72) </blockquote>1. आदान |
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− | आदानमथ संधानं मोक्षणं विनिवर्तनम्। स्थानं मुष्टिः प्रयोगश्च प्रायश्चित्तानि मंडलम्॥ रहस्यंचेति दशधा धनुर्वेदांगमिष्यते॥(महा० आदि० 220। 72) | ||
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− | 1. आदान | ||
2. संधान | 2. संधान | ||
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10. रहस्य | 10. रहस्य | ||
− | धनुर्वेद के तेरह (13) उपांगों का वर्णन किया गया है – | + | धनुर्वेद के तेरह (13) उपांगों का वर्णन किया गया है –(नीति प्रकाशिका पृ0 9) |
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− | (नीति प्रकाशिका पृ0 9) | ||
1. शब्द | 1. शब्द | ||
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वेदों और महाकाव्यों में वर्णित कई लोकप्रिय खेलों की उत्पत्ति सैन्य प्रशिक्षण में हुई है, जैसे कि मुक्केबाजी (मुष्टि-युद्ध), कुश्ती (मल, द्वन्द्व वा युद्ध)। रथ-रेसिंग (रथ चलन), घुड़सवारी (अश्व-रोहण) और तीरंदाजी (धनुर्विद्या)। धनुर्वेद में तीरंदाजी, धनुष-बाण बनाने और सैन्य प्रशिक्षण के नियमों प्रथाओं और उपयोगों का वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ में योद्धाओं, रथियों, घुड़सवारों, हाथी योद्धाओं और पैदल सेना आदि के प्रशिक्षण के संबंध में चर्चा की गई है। विष्णु पुराण में ज्ञान की अट्ठारह शाखाओं में इसे एक माना गया है। | वेदों और महाकाव्यों में वर्णित कई लोकप्रिय खेलों की उत्पत्ति सैन्य प्रशिक्षण में हुई है, जैसे कि मुक्केबाजी (मुष्टि-युद्ध), कुश्ती (मल, द्वन्द्व वा युद्ध)। रथ-रेसिंग (रथ चलन), घुड़सवारी (अश्व-रोहण) और तीरंदाजी (धनुर्विद्या)। धनुर्वेद में तीरंदाजी, धनुष-बाण बनाने और सैन्य प्रशिक्षण के नियमों प्रथाओं और उपयोगों का वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ में योद्धाओं, रथियों, घुड़सवारों, हाथी योद्धाओं और पैदल सेना आदि के प्रशिक्षण के संबंध में चर्चा की गई है। विष्णु पुराण में ज्ञान की अट्ठारह शाखाओं में इसे एक माना गया है। | ||
− | == | + | ==व्यूह संरचना== |
− | + | युद्ध-स्थल में विविध रीति से सेना की स्थापना करना व्यूह रचना कहलाता है। युद्ध-विद्या में व्यूह-रचना का विशेष महत्त्व है।<blockquote>समग्रस्य तु सैन्यस्य विन्यासः स्थानभेदतः। स व्यूह इति विख्यातो युद्धेषु पृथिवीभुजाम्॥ (हलायुध कोष पृ० ६४६)</blockquote>वर्तमान में इसे मोर्चाबंदी कहा जाता है, जिसका अर्थ है युद्धक्षेत्र में सेना को एक विशिष्ट प्रकार से खड़ा करना। व्यूह से युक्त सेना अल्पसंख्या में होती हुई भी दूसरी सबल सेना को जीत सकती है। इसके विपरीत सबल सेना भी बिना व्यूह के छोटी व्यूहबद्ध सेना को पराजित नहीं कर सकती। कुछ प्रमुख व्यूहों के नाम इस प्रकार हैं - | |
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− | + | *श्येन व्यूह | |
+ | *क्रौंच व्यूह | ||
+ | *शकट व्यूह | ||
+ | *सिंह व्यूह | ||
+ | *पद्म व्यूह | ||
+ | *सर्प व्यूह | ||
+ | *अग्नि व्यूह | ||
+ | अथर्ववेद में व्यूह-रचना द्वारा सेना की रक्षा करना कहा गया है। श्री रामचन्द्रजी ने गरुडव्यूह की रचना करके लंका की घेराबन्दी की थी। महाभारत युद्ध में तो व्यूहरचना सामान्य बात रही है। इसी प्रकार कौटिल्य अर्थशास्त्र, कामन्दकीय नीतिसार में कई प्रकार के व्यूहों के भेद-प्रभेद कहे हैं, परन्तु इसका सबसे अधिक प्रामाणिक विवरण वीरमित्रोदय के अन्तर्गत राजविजय नामक ग्रन्थ के उद्धरणों से प्राप्त हुआ है।<ref>डॉ० देवव्रत आचार्य, [https://archive.org/details/ssRf_dhanurveda-dr.-devavrat-acharya-missing-pages/page/n14/mode/1up?view=theater धनुर्वेद], सन् १९९९, विजयकुमार गोविन्द्रम हसानन्द (पृ० १४)।</ref> | ||
− | + | ====युद्ध के प्रकार==== | |
+ | धनुष , चक्र , कुन्त , खड्ग , क्षुरिका , गदा और बाहु द्वारा किया गया - ये युद्ध के सात प्रकार हैं - | ||
− | + | धनुश्चक्रं च कुन्तं च खड्गञ्च छुरिका गदा। सप्तमं बाहुयुद्धं स्यादेवं युद्धानि सप्तधा॥ (विष्णुध०पु० श्लो० ९) | |
− | + | *सात युद्धों का ज्ञाता - आचार्य | |
+ | *चार युद्धों का ज्ञाता - भार्गव | ||
+ | *दो युद्धों को जाननेवाला - योद्धा | ||
+ | *एक युद्धवेत्ता - गणक | ||
− | + | इस प्रकार से युद्धों के ज्ञाताओं को निम्न नामों से सम्बोधित किया जाता है। मन्त्रास्त्रों द्वारा किया गया युद्ध दैविक, नालादि (तोप - बन्दूक) द्वारा किया आसुर या मायिक और हाथों में शस्त्रास्त्र लेकर किया जानेवाला युद्ध मानवीय कहलाता है। अस्त्रों की भी दिव्य , नाग , मानुष और राक्षस - ये चार प्रजातियाँ हैं। | |
− | + | ==== बाण का उपयोग ==== | |
+ | धनुर्विद्या में विभिन्न प्रकार के भयंकर बाण का उपयोग होता था इन विकराल भयंकर बाणों के समक्ष वर्तमान के विस्फोटक बम भी तुच्छ हैं यह बाण दैवीय शक्ति से सम्पन्न होते थे। कतिपय प्रमुख बाण का वर्णन इस प्रकार है – | ||
− | + | 1. '''आग्नेय बाण –''' यह एक विस्फोटक बाण है। यह अग्नि वर्षा कर सब कुछ भस्मी-भूत कर देता है, इसका प्रतीकार पर्जन्य बाण द्वारा संभव है। | |
− | + | 2. '''पर्जन्य बाण –''' इस बाण के चलाने से कृत्रिम बादल बन जाते हैं और वर्षा होने लगती है बिजली कड़कती है और तूफान आ जाता है। | |
− | |||
− | + | 3. '''वायव्य वाण –''' इस वाण से भयंकर तूफान आता है और अंधकार छा जाता है। | |
− | + | 4. '''पन्नग वाण –''' इस वाण प्रयोग से बहुत से सर्प पैदा होते हैं इसका प्रतीकार गरुण वाण द्वारा होता है। | |
− | + | 5. '''गरुण वाण –''' इस वाण के चलते ही गरुण उत्पन्न होते हैं जो सर्पों को खा जाते हैं। | |
− | + | 6. '''ब्रह्मास्त्र वाण –''' यह अत्यंत विकराल अचूक अस्त्र है यह शत्रु का नाश करके ही छोड़ता है इसका प्रतीकार दूसरे ब्रह्मास्त्र से ही हो सकता है अन्यथा नहीं। | |
− | + | 7. '''पाशुपत अस्त्र –''' इससे सम्पूर्ण विश्व का नाश हो जाता है यह वाण महाभारत काल में अर्जुन के पास था। | |
− | + | 8. '''नारायण अस्त्र –''' यह भी पाशुपत के समान ही विकराल अस्त्र है इस नारायणास्त्र का कोई प्रतीकार ही नहीं है यह वाण चलाने पर अखिल विश्व में कोई भी शक्ति इसका सामना नहीं कर सकती मात्र शरणागती के। | |
− | + | इन दैवी वाणों के अतिरिक्त ब्रह्मशिरा एक अग्नि आदि अन्य प्रकार के अनेक वाणों का भी उल्लेख मिलता है। वर्तमान में महाराज पृथ्वीराज के पश्चात इस बाण विद्या का सर्वथा लोप होता चला गया। आज के अणु परमाणु बम जैसे विस्फोटक पदार्थों के मध्य में धनुर्वेद विज्ञान जैसे अद्भुत सैन्य विज्ञान का अपना अलग ही महत्व है। अतः वर्तमान युग में भी राष्ट्र रक्षा हेतु धनुर्वेद विज्ञान के प्रयोग पर बल दिया जाना आवश्यक है। यद्यपि नवीन परिवेश में धनुर्विज्ञान पर पुनः ध्यान दिया जाने लगा है। | |
− | + | ==सारांश== | |
+ | धनुर्वेद में सैन्य के अधिकारीगण की गुणवत्ता, विविध युद्ध के नियम, नियुक्ति की योजना, घायल सैनिकों की जानकारी, गुप्तचर व्यवसायी, युद्धरत सैनिक, पशु आदि के शस्त्र अन्नादि की आवश्यकताएं, वैदिकीय-विभाग, युद्ध में स्त्रियों की उपस्थिति, युद्ध के प्रकार, सैन्य परीक्षण एवं सैन्य प्रशिक्षण आदि विषयों को प्रस्तुत किया है। लेकिन अग्निपुराण में वर्णित धनुर्वेद में विशेषतः अस्त्र-शस्त्र के निर्माण और उसके प्रयोग आदि का वर्णन किया गया है। जिसमें धनुष और बाण के बारे में विस्तार से चर्चा अग्निपुराणकार ने की है। | ||
− | [ | + | धनुर्वेद के अध्ययन से एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह भी निकलता है कि युद्धविद्या का उल्लेख अनेक शास्त्रों में प्राप्त होता है। जैसे- धातुविद्या, ज्योतिषशास्त्र, पातंजलयोग- आयुर्वेद, युद्धजयार्णव-कर्मकाण्ड, स्वरशास्त्र-व्याकरणशास्त्र, स्मृति-नीतिशास्त्र, मन्त्रशास्त्रादि शास्त्रों के अभ्यास के अभाव में कोई भी योद्धा पूर्ण योद्धा नहीं बन सकता है।<ref>जयसिंह गोहिल, [https://haridrajournal.com/ssah/index.php/1/article/view/103 अग्निपुराणानुसार धनुर्वेद (धनुर्विद्या) की मीमांसा], सन् 2022, हरिद्रा- सांस्कृतिक शोध का अन्ताराष्ट्रिय उपक्रम, (पृ० 09)</ref> |
− | + | ==उद्धरण== | |
+ | <references /> |
Revision as of 11:51, 26 September 2023
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धनुर्वेद यजुर्वेद का उपवेद है। इसके अंतर्गत धनुर्विद्या, सैन्य विज्ञान या युद्ध कला से संबंधित विषय आते हैं। प्राचीनकाल में पूरे भारत में इस ज्ञान परंपरा का बड़े ही आदर के साथ प्रचार-प्रसार हुआ था। प्राचीन भारत में धनुर्वेद पर बहुत सारे ग्रंथ उपलब्ध थे, किन्तु कालांतर में धनुर्वेद के प्रायः सभी ग्रंथ लुप्तप्राय से हो गए। कतिपय ग्रंथों में उनका विवरण प्राप्त होता है। जैसे अग्निपुराण में इसे ज्ञान की १८ शाखाओं में से एक बताया गया है। महाभारत में भी इसका उल्लेख प्राप्त होता है एवं धनुर्वेद संहिता नामक ग्रंथ भी उपलब्ध है। किन्तु अनेक ग्रंथों में इसके कुछ-कुछ अंश पाए जाते हैं।
परिचय
संस्कृत वांग्मय में उच्च कोटि के आध्यात्मिक ज्ञान के साथ ही उच्चतम विज्ञान के भी दर्शन होते हैं। अति प्राचीन काल से शारीरिक शिक्षा का चरम उत्कर्ष धनुर्वेद विज्ञान में अंतर्निहित है, यहां से तात्पर्य प्रयोग विज्ञान अथवा विशिष्ट से है। प्राचीन भारतीय पुरुष अस्त्र शस्त्र विद्या में निपुण थे उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान के साथ आततायियों एवं दुष्टों का दमन करने के लिए विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों की भी सृष्टि की थी। भारतीयों की शक्ति धर्म स्थापना में सहायक होती थी न कि आतंक में। धनुर्विज्ञान का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना कि वेदों की प्राचीनता। रामायण, महाभारत पुराण आदि प्राचीन भारतीय धर्मग्रंथों में कई बार चौदह विद्याओं और चौंसठ कलाओं का वर्णन किया गया है। प्राचीन काल में जिन चौदह विद्याओं और चौंसठ कलाओं का वर्णन किया जाता है, वे इस प्रकार हैं-
अंगानि चतुरो वेदा मीमांसा न्यायविस्तर:। पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश॥ आयुर्वेदो धनुर्वेदो गांधर्वश्चैव ते त्रयः। अर्थशास्त्रं चतुर्थन्तु विद्या ह्यष्टादशैव ताः॥ (वि० पुरा० 3.6.27/28 )[1]
मधुसूदन सरस्वती जी ने धनुर्वेद को यजुर्वेद का उपवेद माना है। अग्निपुराण में ब्रह्मा और महेश्वर इस वेद के आदिकर्ता कहे गए हैं। रामायण एवं महाभारत में कई प्रकार की धनुर्विद्या का उल्लेख है। द्रोणाचार्य जी ने पांडवों को धनुर्वेद की शिक्षा दी थी।[2]इसके अंतर्गत धनुर्विद्या या सैन्य विज्ञान आता है। दूसरे शब्दों में धनुर्वेद भारतीय सैन्य विज्ञान का दूसरा नाम माना जा सकता है। वैशम्पायन ऋषि द्वारा रचित नीतिप्रकाश या नीतिप्रकाशिका नामक ग्रंथ में धनुर्वेद के बारे में जानकारी है। धनुर्विद्या की उत्पत्ति व स्थान के विषय में निश्चित रूप से ज्ञान तो नहीं है लेकिन ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार संभवतः यह विद्या भारत से ही यूनान व अरब देशों में पहुंची थी। अग्नि पुराण में इस विद्या की बारीकियों का विस्तार से वर्णन किया गया है।
परिभाषा
धनुर्वेद में न केवल धनुष शब्द का ग्रहण किया गया है अपितु उपलक्षण से सभी आयुध इसके अन्तर्गत आते हैं। वेद विशेष जिसमें धनुष चलाने की विद्या का वर्णन है वह वेद धनुर्वेद के नाम से जाना जाता है। जैसा कि परिभाषा के द्वारा स्पष्ट है -
धनूंषि तदादीन्यस्त्राणि विद्यन्ते ज्ञायन्तेऽनेन इति धनुर्वेदः।[3]
शस्त्रास्त्र एवं युद्ध संबंधी ज्ञान-विज्ञान का कथन करनेवाले शास्त्र को धनुर्वेद कहा गया है। धनुर्वेद के लिए अस्त्रवेद, क्षत्रवेद, शस्त्र विद्या आदि पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया जाता है।[4]
वेद एवं उपवेद
ऋषियों ने सृष्टि के आदि में व्यवहार के लिये सभी वस्तुओं के नाम एवं कर्त्तव्य कर्मों का निर्धारण वेद से ही किया। वेद चार होते हैं एवं चारों वेदों के चार उपवेद हैं। चार उपवेदों में धनुर्वेद कौन-से वेद का उपवेद है, इस पर विचार किया जाता है -
- ऋग्वेद का उपवेद - आयुर्वेद
- यजुर्वेद का उपवेद - धनुर्वेद
- सामवेद का उपवेद - गान्धर्ववेद
- अथर्ववेद का उपवेद - स्थापत्यवेद
वाशिष्ठ धनुर्वेद के प्रारंभ में ही धनुर्वेद को यजुर्वेद और अथर्ववेद का उपवेद स्वीकार किया है। इसी प्रकार शुक्रनीति, कोदण्डमण्डन एवं नीतिप्रकाशिका में इसे यजुर्वेद का ही उपवेद माना गया है। यहाँ यह कहना युक्ति संगत होगा कि-
- प्राधान्य से धनुर्वेद का प्रकरण यजुर्वेद में उपलब्ध होता है।
- अन्य दिव्यास्त्र-सम्बन्धी ज्ञान-विज्ञान का वर्णन अथर्ववेद में प्राप्त होता है।
शुक्राचार्य ने युद्धोपकरण, शस्त्रास्त्र और व्यूहरचना के दिग्दर्शक शास्त्र को धनुर्वेद कहा है।
स्वामी दयानन्द जी ने राजप्रजा-सम्बन्धी कार्यों को धनुर्वेद में परिगणित किया है।
इसी प्रकार शुक्रनीति में शस्त्र-प्रहरण, मल्लयुद्ध, इच्छित स्थान पर अस्त्र निपातन, व्यूह-रचना और हाथी, घोडे, रथादि से युद्ध करना ये पाँच कलायें धनुर्वेद में समाविष्ट की हैं। प्राचीन काल में भारत देश में धनुर्वेद की छह-सात परम्पराऐं विद्यमान थीं। जैसा कि उनके निम्न प्रकार हैं-
- तन्त्र प्रधान (हाथ-पैर द्वारा किये गये) युद्ध का वर्णन महर्षि वशिष्ठ ने वासिष्ठ धनुर्वेद में किया।
- धनुष से भिन्न कुन्त, गदा, खड्ग, इत्यादि की प्रयोग-विधियों का उल्लेख विश्वामित्र जी ने किया।
- अस्त्रविद्या का उल्लेख जामदग्न्य (परशुराम) जी के द्वारा किया गया है।
- सञ्जीवनी विद्या का शुक्राचार्य जी ने औशनस धनुर्वेद में प्रयोग किया।
- विद्युत्-शास्त्र का प्रवचन भारद्वाज ऋषि ने।
- विविध शस्त्रास्त्रों का वर्णन महर्षि वैशम्पायन जी ने किया था।
प्राचीन भारत में धनुर्वेद पर बहुत सारे ग्रन्थ उपलब्ध थे, किन्तु कालान्तर में धनुर्वेद के प्रायः सभी ग्रन्थ लुप्तप्राय से हो गए। कुछ ग्रन्थों में उनका विवरण प्राप्त होता है जैसे-
क्र०सं० | ग्रन्थ | ग्रन्थकार |
---|---|---|
1 | नीतिसार | आचार्य कामन्द |
2 | अर्थशास्त्र | आचार्य कौटिल्य |
3 | युक्तिकल्पतरु | महाराज भोज |
4 | नीति मयूख | |
5 | वीर चिंतामणि | |
6 | अग्नि पुराण | |
7 | शार्ड़्गधर पद्धतिः | आचार्य शार्ड़्गधर |
8 | मानसोल्लास | आचार्य सोमेश्वर |
9 | नीतिवाक्यामृत | आचार्य सोमदेव सूरि |
10 | महाभारत | महर्षि वेद व्यास |
11 | रामायण | महर्षि वाल्मीकि |
आदि ग्रंथों में धनुर्वेद का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है - | ||
1 | नीति प्रकाशिका | महर्षि वैशम्पायन |
2 | धनुर्वेद संहिता | महर्षि वसिष्ठ |
शिवोक्त धनुर्वेद आदि ग्रंथ स्वतंत्र रूप से धनुर्विद्या के ग्रंथ हैं। |
धनुर्वेद संहिता
धनुर्वेद संबंधी मूलग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं। अनेक ऋषियों द्वारा निर्मित धनुर्वेद यद्यपि विश्वामित्र, जामदग्न्य, शिव, वसिष्ठादि के नामों से युक्त धनुर्वेद की छोटी पुस्तकें प्राप्त होती हैं, परंतु इनको मूलग्रंथ स्वीकार करना बहुत ही कठिन है।
- स्वामी दयानंद जी ने महर्षि अंगिरा कृत धनुर्वेद का उल्लेख किया है।
- आचार्य द्विजेन्द्रनाथ शास्त्री ने द्रोणाचार्य द्वारा निर्मित ‘धनुष्प्रदीप’ नामक ग्रंथ का वर्णन किया है जिसमें सात सहस्र श्लोक थे।
- इसी प्रकार परशुराम जी प्रणीत साठ सहस्र श्लोक वाला धनुश्चंद्रोदय नामक ग्रंथ भी विद्यमान था।
- महर्षि वैशम्पायनकृत नीतिप्रकाशिका में धनुर्वेद का आदि प्रवक्ता ब्रह्मा को माना है, जिसने एक लाख अध्यायोंवाले धनुर्वेद का उपदेश वेन पुत्र महाराज पृथु को दिया।
- संक्षेप करके रुद्र ने पचास हजार, इन्द्र ने बारह, प्राचेतस ने छह और बृहस्पति ने तीन हजार अध्यायों से युक्त धनुर्वेद का प्रवचन किया।
- शुक्राचार्य ने उसे और संक्षिप्त करके एक सहस्त्र अध्यायोंवाले नीतिशास्त्र (शुक्रनीति ) का निर्माण किया।
- भारद्वाज मुनि ने सात सौ, गौरशिरा ने पाँच सौ, महर्षि वेदव्यास ने उसे भी संक्षिप्त करके तीन सौ अध्यायवाले नीतिशास्त्र को बनाया।
- महर्षि वैशम्पायन ने उसका भी संक्षेप करके आठ अध्यायवाले शास्त्र का प्रवचन किया ।
सैन्य अध्ययन एवं धनुर्वेद
सैन्य अध्ययन को कई अन्य नामों से भी जाना जाता है जैसे रक्षा और रणनीतिक शिक्षा, सैन्य विज्ञान, युद्ध और राष्ट्रीय सुरक्षा अध्ययन, युद्ध और रणनीति अध्ययन। प्राचीन काल में धनुष बाण आदि अस्त्र-शस्त्र युद्ध के उपकरण हुआ करते थे। परंतु वर्तमान काल में युद्ध की आवश्यकताऐं बदल गईं हैं और युद्ध के तरीके भी बदल गए हैं। प्राचीन कल में धनुर्विद्या आदि के ज्ञान के द्वारा निम्न विषयों में महत्वपूर्ण लाभ प्राप्त होता था-
- सैन्य सुरक्षा का ज्ञान
- सैन्य संगठनों का अध्ययन
- राष्ट्रीय सुरक्षा
- युद्ध की कला
- धनुष और तीर (शस्त्रास्त्रों) के प्रयोग करने का कौशल
- सशस्त्र सेनाओं को युद्ध के लिए किस प्रकार तैयार किया जाना व्यूह रचना आदि
- सैन्य अध्ययन से मातृ भूमि (देश) की रक्षा
भारतीय सैन्य विज्ञान का नाम धनुर्वेद होना सिद्ध करता है कि वैदिककाल से ही प्राचीन भारत में धनुर्विद्या प्रतिष्ठित थी।
धनुर्विद्या
उपयोगी कला के अतिरिक्त धनुर्विधा मनोरंजन का भी प्रमुख साधन थी। इस विद्या में नैपुण्य का प्रदर्शन करने के लिए समाज या उत्सवों का आयोजन हुआ करता था। भरहूत की कलाकृतियों में ‘असदिस जातक’ की कथा में ऐसा ही एक दृश्य प्रदर्शित है। एक धनुर्धारी आम्रवृक्ष के नीचे खड़ा है और उसका करतब देखने के लिए उक्त दृश्य में एक दर्शक भी दिखलाया गया है।[5]
- महर्षि और्व से अग्निबाण, धनुर्वेद शिक्षण प्राप्त कर श्री राम के पूर्वज राजकुमार सगर चक्रवर्ती अयोध्या के सम्राट बने।
- सूर्यपुत्र महारथी कर्ण ने परशुराम से धनुर्वेद की शिक्षा ली थी।
- परशुराम जी ने द्रोण एवं भीष्म को धनुर्वेद का सम्पूर्ण ज्ञान दिया।
महाभारत में आचार्य द्रोण द्वारा आयोजित ऐसे ही एक समाज का विस्तृत चित्रण मिलता है जिसमें धनुर्विद्या की भी प्रतियोगिताएं हुई थीं और उनमें अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ उद्घोषित किया गया था।[6] क्षत्रिय स्त्रियां धनुर्वेद अर्थात युद्धकला की भी शिक्षा ग्रहण करती थीं तथा युद्ध में भी भाग लेती थीं। श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार सान्दीपनि आश्रम में श्रीकृष्ण एवं बलराम जी को चारों वेद एवं छः अंगों के साथ रहस्यांत धनुर्वेद की शिक्षा प्रदान की गई थी -
सरहस्यं धनुर्वेदं धर्मान् न्यायपथांस्तथा। तथा चान्वीक्षिकीं विद्यां राजनीतिं च षड्विधाम् ॥(भा०पु० १०-४५-३४)[7]
उन्होंने दोनों को रहस्यों सहित धनुर्वेद की शिक्षा दी, साथ ही मानक विधि ग्रंथ, तर्क तथा दर्शन विषयक वाद-विवाद की विधियाँ और राजनीति शास्त्र के छह भेदों की भी शिक्षा दी इस प्रकार गुरुकुलमें ही श्री कृष्ण एवं बलराम जी धनुर्विद्या में शीघ्र ही निष्णात हो गये थे। भारतवर्ष के दो प्रसिद्ध धर्मशास्त्र रामायण और महाभारत में भारतीयों के धनुर्विद्या में पारंगत होने का वर्णन मिलता है। रघुवंशमहाकाव्य में श्रीराम और श्री लक्ष्मण के महाधनुषों की टंकार का जहां वर्णन मिलता है, वहीं अभिज्ञान शाकुंतलम् में दुष्यंत को धनुर्विद्या में निपुण बताया गया है।
धनुर्विज्ञान का औचित्य (Archery)
राष्ट्र रक्षा एवं स्वयं की सुरक्षा करना ही धनुष विज्ञान का मुख्य प्रयोजन था। धनुर्विज्ञान का औचित्य धर्म स्थापना में था न कि आतंक में। प्राचीन काल में समाज की रक्षा का भार विशेष रूप से क्षत्रियों पर था क्षत्र शब्द का व्युत्पत्ति परक अर्थ होता है नाश होने से। महाकवि कालिदास ने भी रघुवंश महाकाव्य में क्षत्रियों को स्वयं की एवं दूसरों की रक्षा करने वाला बताया है इसिलिए क्षत्रियों को धनुष धारण करना नितांत आवश्यक होता था। किसी भी धनुर्धर को दूसरों के द्वारा रक्षित होने की आवश्यकता नहीं रहती। महर्षि वसिष्ठ प्रणीत धनुर्वेद संहिता में कहा गया है कि-
दुष्टों डाकुओं सदा चोरों से सज्जनों का संरक्षण करना एवं प्रजा का पालन करना धनुर्विज्ञान का मुख्य प्रयोजन है। यदि किसी गांव में एक भी अच्छा धनुर्धर होता था तो उससे एक समस्त ग्राम की रक्षा होती थी शत्रु उसके डर से भाग जाते थे शुक्र नीति के अनुसार धनुर्वेद विज्ञान द्वारा केवल धनुष संचालन का नहीं अपितु युद्ध उपयोगी समग्र शस्त्रों के निर्माण वा प्रयोग संबंधी ज्ञान भी दिया जाता था। महाकवि भवभूति जी ने भी उत्तररामचरित में धनुर्वेद के रक्षात्मक स्वरूप का चित्रण किया है।
धनुर्वेद के प्रवक्ता
धनुर्वेद के मूल प्रवक्ता भगवान शिव हैं सदाशिव से परशुराम जी ने प्राप्त किया महर्षि वसिष्ठ भी उनके ही शिष्य थे वसिष्ठ जी से विश्वामित्र ने प्राप्त किया प्रस्थान भेद नामक ग्रंथ में पाद चतुष्टयात्मक धनुर्वेद को विश्वामित्र प्रणीत ही बताया गया है। वशिष्ठ द्वारा उक्त धनुर्वेद में तंत्र युद्ध की प्रधानता है विश्वामित्र ने धनुर्वेद शास्त्र का संशोधन करके शास्त्रीय रूप देकर प्रधानाचार्य का पद ग्रहण किया था। यद्यपि पूर्ण धनुर्वेद कहीं प्राप्त नहीं होता है तथापि वाशिष्ठ धनुर्वेद, औशनक धनुर्वेद, अग्निपुराणोक्त अध्यायात्मक, विष्णुधर्मोत्तर पुराण के 4 अध्याय, मानसोल्लास, युक्तीकल्पतरु, वीरमित्रोदय आदि ग्रंथों में धनुर्वेद और उससे संबंधित विद्या का वर्णन मिलता है।[8]
धनुर्वेद के चारों पाद
अग्नि पुराण में धनुर्वेद को चतुर्पाद कहा गया है- 1. दीक्षा, 2. संग्रह 3. सिद्धि प्रयोग और 4. प्रयोग विज्ञान यह चार पाद कहे गए हैं।
तत्र चतुष्टयपादात्मको धनुर्वेदः। यस्य प्रथमे पादे दीक्षाप्रकारः। द्वितीये संग्रहः, तृतीये सिद्धप्रयोगाः, चतुर्थे प्रयोगविधयः॥ (वाशि०धनु० 1-2)[9]
अग्नि पुराण में 249/1 दीक्षा पाद में धनुष का लक्षण तथा अधिकारी का निरूपण किया गया है तथा धनुष शब्द से तात्पर्य धनुर्विद्या में प्रयुक्त आयुध से लिया गया है। महाभारत की नीलकंठी टीका में दीक्षा शिक्षा आत्मरक्षा और उनके साधन इन्हें धनुर्वेद के चार पाद बताया गया है।
धनुर्विद्या का महत्व
भारतमें युद्ध प्रणाली एवं सैन्य संगठन में धनुर्विद्या का महत्वपूर्ण योगदान था। भारतीय धनुर्धारी को किसी भी रूप में रोका नहीं जा सकता था किन्तु कालांतर में भारतीय भूमि पर इसका महत्व कम हो गया किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि धनुष एवं बाण का प्रयोग समाप्त हो गया। पृथ्वी राज चौहान एक उत्कृष्ट कोटि के धनुर्धारी थे।
दुष्टदस्युचौरादिभ्य साधुसंरक्षणं तथा। धर्मत: प्रजापालनं धनुर्वेदस्य प्रयोजनम॥ एकोऽपि यत्र नगरे प्रसिद्ध: स्याद्धनुर्धर:। ततो यान्त्यरयो दूरान्मृगा: सिंह गृहादिव॥ (वाशि० धनु० 1-5)[9]
दुष्ट मनुष्य, डाकू, चोर आदि से सज्जन धर्मात्मा पुरुषों की रक्षा करना ही धनुर्वेद का प्रयोजन है । जिस नगर या गांव में एक भी प्रसिद्ध धनुर्धर है, उस गाँव से शत्रु ऐसे दूर भागते हैं जैसे शेर के स्थान को देखकर हिरन आदि पशु भागते हैं। भारतीय सेना के परंपरागत चार विभाग थे- हाथी, अश्वारोही, रथ तथा पैदल।
धर्मार्थं यः त्यजेत्प्राणान्किं तीर्थे जपे च किम् । मुक्तिभागी भवेत् सोऽपि निरयं नाधिगच्छति॥ ब्राह्मणार्थे गवार्थे वा स्त्रीणां बालवधेषु च। प्राणत्यागपरो यस्तु सवै मोक्षमवाप्नुयात् ॥ (वाशि० धनु० 45-66)[10]
धनुर्वेद शिक्षा
धनुर्वेद एक उपवेद है। इसके अंतर्गत धनुर्विद्या या सैन्य विज्ञान आता है। अन्य प्रकार से कहें तो धनुर्वेद भारतीय सैन्य विज्ञान का दूसरा नाम है। शास्त्रों के अनुसार चार वेद हैं और इसी तरह चार उपवेद हैं। इन उपवेदों में पहला आयुर्वेद, दूसरा शिल्पवेद, तीसरा गंधर्ववेद और चौथा धनुर्वेद। इस धनुर्वेद में धनुर्विद्या का सारा रहस्य मौजूद है। शुक्रनीति में 18 से 22 तक की पांच कलाएं धनुर्वेद से सम्बंध रखती हैं।
वैशम्पायन द्वारा रचित नीतिप्रकाश या नीतिप्रकाशिका नामक ग्रंथ में धनुर्वेद के बारे में जानकारी है। यह ग्रंथ मद्रास में डॉ० आपार्ट द्वारा 1882 में संपादित किया गया। धनुर्वेद के अलावा इस ग्रंथ में निम्न विषय वर्णित हैं-
- राजधर्मोपदेश
- खड़गोत्पत्ति
- मुक्तायुध निरूपण
- सेनानयन
- सैन्य प्रयोग एवं राज व्यापार
- आठ आध्यायों में तक्ष शिला में वैशम्पायन द्वारा जन्मेजय को दिया गया शिक्षण
- राज शास्त्र के प्रवर्तकों का उल्लेख
भारतीय सैन्य विज्ञान का नाम धनुर्वेद होना सिद्ध करता है कि वैदिक काल में भी प्राचीन भारत में धनुर्विद्या प्रतिष्ठित थी। संहिताओं और ब्राह्मणों में वज्र के साथ ही धनुष बाण का भी उल्लेख मिलता है। कौशीतकी ब्राह्मण में लिखा है कि धनुर्धर की यात्रा धनुष के कारण सकुशल और निरापद होती है। जो धनुर्धर शास्त्रोक्त विधि से बाण का प्रयोग करता है, वह बड़ा यशस्वी होता है। भीष्म ने छह हाथ लंबे धनुष का प्रयोग किया था। धनुष विद्या की एक विशेषता यह थी कि इसका उपयोग चतुरंगिणी सेना के चारों अंग कर सकते थे । पौराणिक समय में सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर सगर, श्री राम, भीष्म, अर्जुन आदि सभी प्रतिष्ठित रूप से दिव्य हथियार(दिव्यास्त्र) बुला सकते थे, जो ऐसी मारक क्षमता उत्पन्न करते थे जिसका मुकाबला सामान्य रथ पर सवार धनुर्धर नहीं कर सकते थे। कोई भी इन धनुषधारकों के प्रभाव को समझ नहीं सकता है। भीष्म ने स्वयं अपने आदेशानुसार प्रतिदिन 10,000 सैनिकों को नष्ट करने की शपथ ली थी।
धनुर्वेद का प्रयोग
अग्निपुराण में राजधर्म तथा उसके अंगों के वर्णन के प्रसंग में धनुर्विद्या का अध्याय 249 प्रारंभ में होकर 252 अध्याय पर्यंत वर्णन प्राप्त होता है। प्राचीन काल में धनुर्वेद पर बहुत सारे ग्रंथ उपलब्ध थे, किन्तु कालांतर में धनुर्वेद के प्रायः सभी ग्रंथ लुप्त प्राय से हो गए।
आयुधों के प्रकार
महाभारत के प्रथम खण्ड अनुसार जब कुरु राजकुमार बड़े होने लगे तो उनकी आरंभिक शिक्षा का भार राजगुरु कृपाचार्य जी के पास गया। उन्हीं से कुरु राजकुमारों ने धनुर्वेद की शिक्षा ग्रहण की। कृपाचार्य जी के अनुसार धनुर्वेद के प्रमुख चार भेद इस प्रकार हैं जो कि उन्होंने शिष्यों को सिखाए –
चतुष्पाच्च धनुर्वेदः सांगोपांग रहस्यकः।(नी० प्रका० 1-38)[11] मुक्तं चैव ह्यमुक्तं च मुक्तामुक्तमतः परम् । मंत्रमुक्तं च चत्वारि धनुर्वेदपदानी वै॥(नी० प्रका० 2-11)[12]
1. मुक्त– जो बाण छोड़ दिया जाए उसे मुक्त कहते हैं।
2. अमुक्त- जिस अस्त्र को हाथ में लेकर प्रहार किया जाए जैसे खड्ग आदि को अमुक्त कहा जाता है।
3. मुक्तामुक्त- जिस अस्त्र को चलाने और समेटने की कला ज्ञात हो, उस अस्त्र को मुक्तामुक्त कहा जाता है।
4. मंत्रमुक्त- जिस अस्त्र को मंत्र पढ़कर चला तो दिया जाये किन्तु उसके उपसंहारकी विधि मालूम न हो, उस अस्त्र को मंत्रमुक्त कहा गया है।
शस्त्र विद्या के आधार पर धनुर्वेद को भी चार शाखाओं में वर्गीकृत किया गया है-
शस्त्रमस्त्रंच प्रत्यस्त्रं परमास्त्रमितीव च। चातुर्विध्यं धनुर्वेदे केचिदाहुर्धनुर्विदः॥ (नीति०प्रका०)[12]
1. शस्त्र- हथियार जो हाथों में रखे जाते हैं।
2. अस्त्र- छोड़े जाने वाले हथियार।
3. प्रत्यस्त्र- अस्त्रों का प्रतीकार करने के लिए प्रयुक्त अस्त्र अर्थात् रक्षात्मक हथियार या रक्षात्मक कलाएं।
4. परमास्त्र- सर्वोच्च हथियार, अर्थात् दिव्य हथियार या शत्रु का पीछा करने वाले हथियार।
धनुर्वेद को क्रियाओं अथवा अंगों के आधार पर भी चार भागों में वर्गीकृत किया गया है-
आदानश्चैव सन्धानं विमोक्षस्संहृतिस्तथा। धनुर्वेदश्चतुर्धेति वदन्तीति परे जगुः॥(नीति०प्रका० २-१५)[12]
1. आदान- तीरों पर नियंत्रण रखना अर्थात् दुश्मन के तीरों/ हथियारों को मार गिराना या दूर खींचकर फेक देना।
2. संधान- दो हथियारों या कलाओं (शैलियों) को एक साथ जोड़ना जैसे- उपचारात्मक हथियार, हवाई हथियार, मायावी हथियार या आविष्कार।(दिव्यास्त्र दो प्रकार के कहे गए हैं नालिक और मांत्रिक। [13](नालिक) अस्त्रों से किया जाने वाला युद्ध आसूर मायिक और मांत्रिक दैविक कहलाता है।
3. विमोक्ष- अदान के विपरीत हथियार छोड़ने की कलाएं या शैलियां।
4. संहार- सूचनाओं का संकलन।
कृपाचार्य जी ने इन चारों का उल्लेख किया। अर्जुन ने उपपाण्डवों को दस अंग या दस विधाएं सिखाईं। (विमोक्ष यहां मोक्ष का ही एक रूप है, संहार या संकलन अर्जुन की सूची में नहीं है। कृपाचार्य जी ने इन्हैं अन्य शीर्षकों के अंतर्गत शामिल किया। सभी शिक्षकों के लिए शिक्षण का तरीका अलग-अलग है, पहले दो समान हैं।
धनुर्वेद के दश अंग जो कि इस प्राकार बताए गए हैं –
आदानमथ संधानं मोक्षणं विनिवर्तनम्। स्थानं मुष्टिः प्रयोगश्च प्रायश्चित्तानि मंडलम्॥ रहस्यंचेति दशधा धनुर्वेदांगमिष्यते॥(महा० आदि० 220। 72)
1. आदान
2. संधान
3. मोक्षण
4. विनिवर्त
5. स्थान
6. मुष्टि
7. प्रयोग
8. प्रायश्चित्त
9. मण्डल
10. रहस्य
धनुर्वेद के तेरह (13) उपांगों का वर्णन किया गया है –(नीति प्रकाशिका पृ0 9)
1. शब्द
2. स्पर्श
3. गंध
4. रस
5. दूर
6. चल
7. अदर्शन
8. पृष्ठ
9. स्थित
10. स्थिर
11. भ्रमण
12. प्रतिबिंब
13. उद्देश (ऊपर) लक्ष्यों पर शरनिपातन करना (वेध करना)
धनुर्वेद में मुक्त और अमुक्त आयुधों की संख्या बत्तीस है –
1. उनमें पहले धनुष इत्यादि 12 आयुध मुक्त आयुधों में आते हैं।
2. शेष खडगादि 20 आयुध अमुक्त आयुध कहे गए हैं।
वेदों और महाकाव्यों में वर्णित कई लोकप्रिय खेलों की उत्पत्ति सैन्य प्रशिक्षण में हुई है, जैसे कि मुक्केबाजी (मुष्टि-युद्ध), कुश्ती (मल, द्वन्द्व वा युद्ध)। रथ-रेसिंग (रथ चलन), घुड़सवारी (अश्व-रोहण) और तीरंदाजी (धनुर्विद्या)। धनुर्वेद में तीरंदाजी, धनुष-बाण बनाने और सैन्य प्रशिक्षण के नियमों प्रथाओं और उपयोगों का वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ में योद्धाओं, रथियों, घुड़सवारों, हाथी योद्धाओं और पैदल सेना आदि के प्रशिक्षण के संबंध में चर्चा की गई है। विष्णु पुराण में ज्ञान की अट्ठारह शाखाओं में इसे एक माना गया है।
व्यूह संरचना
युद्ध-स्थल में विविध रीति से सेना की स्थापना करना व्यूह रचना कहलाता है। युद्ध-विद्या में व्यूह-रचना का विशेष महत्त्व है।
समग्रस्य तु सैन्यस्य विन्यासः स्थानभेदतः। स व्यूह इति विख्यातो युद्धेषु पृथिवीभुजाम्॥ (हलायुध कोष पृ० ६४६)
वर्तमान में इसे मोर्चाबंदी कहा जाता है, जिसका अर्थ है युद्धक्षेत्र में सेना को एक विशिष्ट प्रकार से खड़ा करना। व्यूह से युक्त सेना अल्पसंख्या में होती हुई भी दूसरी सबल सेना को जीत सकती है। इसके विपरीत सबल सेना भी बिना व्यूह के छोटी व्यूहबद्ध सेना को पराजित नहीं कर सकती। कुछ प्रमुख व्यूहों के नाम इस प्रकार हैं -
- श्येन व्यूह
- क्रौंच व्यूह
- शकट व्यूह
- सिंह व्यूह
- पद्म व्यूह
- सर्प व्यूह
- अग्नि व्यूह
अथर्ववेद में व्यूह-रचना द्वारा सेना की रक्षा करना कहा गया है। श्री रामचन्द्रजी ने गरुडव्यूह की रचना करके लंका की घेराबन्दी की थी। महाभारत युद्ध में तो व्यूहरचना सामान्य बात रही है। इसी प्रकार कौटिल्य अर्थशास्त्र, कामन्दकीय नीतिसार में कई प्रकार के व्यूहों के भेद-प्रभेद कहे हैं, परन्तु इसका सबसे अधिक प्रामाणिक विवरण वीरमित्रोदय के अन्तर्गत राजविजय नामक ग्रन्थ के उद्धरणों से प्राप्त हुआ है।[14]
युद्ध के प्रकार
धनुष , चक्र , कुन्त , खड्ग , क्षुरिका , गदा और बाहु द्वारा किया गया - ये युद्ध के सात प्रकार हैं -
धनुश्चक्रं च कुन्तं च खड्गञ्च छुरिका गदा। सप्तमं बाहुयुद्धं स्यादेवं युद्धानि सप्तधा॥ (विष्णुध०पु० श्लो० ९)
- सात युद्धों का ज्ञाता - आचार्य
- चार युद्धों का ज्ञाता - भार्गव
- दो युद्धों को जाननेवाला - योद्धा
- एक युद्धवेत्ता - गणक
इस प्रकार से युद्धों के ज्ञाताओं को निम्न नामों से सम्बोधित किया जाता है। मन्त्रास्त्रों द्वारा किया गया युद्ध दैविक, नालादि (तोप - बन्दूक) द्वारा किया आसुर या मायिक और हाथों में शस्त्रास्त्र लेकर किया जानेवाला युद्ध मानवीय कहलाता है। अस्त्रों की भी दिव्य , नाग , मानुष और राक्षस - ये चार प्रजातियाँ हैं।
बाण का उपयोग
धनुर्विद्या में विभिन्न प्रकार के भयंकर बाण का उपयोग होता था इन विकराल भयंकर बाणों के समक्ष वर्तमान के विस्फोटक बम भी तुच्छ हैं यह बाण दैवीय शक्ति से सम्पन्न होते थे। कतिपय प्रमुख बाण का वर्णन इस प्रकार है –
1. आग्नेय बाण – यह एक विस्फोटक बाण है। यह अग्नि वर्षा कर सब कुछ भस्मी-भूत कर देता है, इसका प्रतीकार पर्जन्य बाण द्वारा संभव है।
2. पर्जन्य बाण – इस बाण के चलाने से कृत्रिम बादल बन जाते हैं और वर्षा होने लगती है बिजली कड़कती है और तूफान आ जाता है।
3. वायव्य वाण – इस वाण से भयंकर तूफान आता है और अंधकार छा जाता है।
4. पन्नग वाण – इस वाण प्रयोग से बहुत से सर्प पैदा होते हैं इसका प्रतीकार गरुण वाण द्वारा होता है।
5. गरुण वाण – इस वाण के चलते ही गरुण उत्पन्न होते हैं जो सर्पों को खा जाते हैं।
6. ब्रह्मास्त्र वाण – यह अत्यंत विकराल अचूक अस्त्र है यह शत्रु का नाश करके ही छोड़ता है इसका प्रतीकार दूसरे ब्रह्मास्त्र से ही हो सकता है अन्यथा नहीं।
7. पाशुपत अस्त्र – इससे सम्पूर्ण विश्व का नाश हो जाता है यह वाण महाभारत काल में अर्जुन के पास था।
8. नारायण अस्त्र – यह भी पाशुपत के समान ही विकराल अस्त्र है इस नारायणास्त्र का कोई प्रतीकार ही नहीं है यह वाण चलाने पर अखिल विश्व में कोई भी शक्ति इसका सामना नहीं कर सकती मात्र शरणागती के।
इन दैवी वाणों के अतिरिक्त ब्रह्मशिरा एक अग्नि आदि अन्य प्रकार के अनेक वाणों का भी उल्लेख मिलता है। वर्तमान में महाराज पृथ्वीराज के पश्चात इस बाण विद्या का सर्वथा लोप होता चला गया। आज के अणु परमाणु बम जैसे विस्फोटक पदार्थों के मध्य में धनुर्वेद विज्ञान जैसे अद्भुत सैन्य विज्ञान का अपना अलग ही महत्व है। अतः वर्तमान युग में भी राष्ट्र रक्षा हेतु धनुर्वेद विज्ञान के प्रयोग पर बल दिया जाना आवश्यक है। यद्यपि नवीन परिवेश में धनुर्विज्ञान पर पुनः ध्यान दिया जाने लगा है।
सारांश
धनुर्वेद में सैन्य के अधिकारीगण की गुणवत्ता, विविध युद्ध के नियम, नियुक्ति की योजना, घायल सैनिकों की जानकारी, गुप्तचर व्यवसायी, युद्धरत सैनिक, पशु आदि के शस्त्र अन्नादि की आवश्यकताएं, वैदिकीय-विभाग, युद्ध में स्त्रियों की उपस्थिति, युद्ध के प्रकार, सैन्य परीक्षण एवं सैन्य प्रशिक्षण आदि विषयों को प्रस्तुत किया है। लेकिन अग्निपुराण में वर्णित धनुर्वेद में विशेषतः अस्त्र-शस्त्र के निर्माण और उसके प्रयोग आदि का वर्णन किया गया है। जिसमें धनुष और बाण के बारे में विस्तार से चर्चा अग्निपुराणकार ने की है।
धनुर्वेद के अध्ययन से एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह भी निकलता है कि युद्धविद्या का उल्लेख अनेक शास्त्रों में प्राप्त होता है। जैसे- धातुविद्या, ज्योतिषशास्त्र, पातंजलयोग- आयुर्वेद, युद्धजयार्णव-कर्मकाण्ड, स्वरशास्त्र-व्याकरणशास्त्र, स्मृति-नीतिशास्त्र, मन्त्रशास्त्रादि शास्त्रों के अभ्यास के अभाव में कोई भी योद्धा पूर्ण योद्धा नहीं बन सकता है।[15]
उद्धरण
- ↑ विष्णु पुराण, तृतीयांश, अध्याया- 6 , श्लोक- 27/28।
- ↑ राणा प्रसाद शर्मा, पौराणिक कोश, सन् 2013, ज्ञान मण्डल लिमिटेड वाराणसी (पृ० 244)
- ↑ वाचस्पत्यम पृष्ठ- ३८४१।
- ↑ चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद शर्मा, चतुर्वेदी संस्कृत-हिन्दी शब्दकोष, सन 1917, नेवुल किशोर प्रेस लखनऊ(पृ० 203)
- ↑ भरहूत, आकृति १००, फासबेल, जातक सं० १८१।
- ↑ महाभारत , आदि० पर्व 132/ 33
- ↑ भागवत पुराण, दशम स्कन्ध, अध्याय 45, श्लोक 34.
- ↑ डॉ० देवव्रत आचार्य, धनुर्वेद, सन १९९९, विजयकुमार गोविंद्रम हसानंद , नई सड़क, दिल्ली (पृ० २१)
- ↑ 9.0 9.1 पूर्णिमा राय,वाशिष्ठ धनुर्वेद संहिता, अंग्रेजी व्याख्या, सन् २००३, जे० पी० पब्लिशिंग हाऊस, शक्ति नगर, दिल्ली (पृ० ३)।
- ↑ पूर्णिमा राय,वाशिष्ठ धनुर्वेद संहिता, अंग्रेजी व्याख्या, सन् 2003, जे० पी० पब्लिशिंग हाऊस, शक्ति नगर, दिल्ली (पृ० 75)।
- ↑ टी०चंद्रशेखरन, वैशम्पायननीतिप्रकाशिका, सन् 1953, मद्रास गवर्नमेंट ओरिएंटल मैनुस्क्रिप्ट्स सीरीज- 24, अध्याय-१, श्लोक १६ (पृ० 6)।
- ↑ 12.0 12.1 12.2 टी०चंद्रशेखरन, वैशम्पायननीतिप्रकाशिका, सन् 1953, मद्रास गवर्नमेंट ओरिएंटल मैनुस्क्रिप्ट्स सीरीज- 24, अध्याय-२, श्लोक-११ (पृ० २१)।
- ↑ शुक्र नीति – अस्त्रं तु द्विविधं ज्ञेयं नालिकं मांत्रिकं तथा।(४, १०२५ )
- ↑ डॉ० देवव्रत आचार्य, धनुर्वेद, सन् १९९९, विजयकुमार गोविन्द्रम हसानन्द (पृ० १४)।
- ↑ जयसिंह गोहिल, अग्निपुराणानुसार धनुर्वेद (धनुर्विद्या) की मीमांसा, सन् 2022, हरिद्रा- सांस्कृतिक शोध का अन्ताराष्ट्रिय उपक्रम, (पृ० 09)