Difference between revisions of "Motions Of The Earth (भू-भ्रमण सिद्धांत)"
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प्राचीन भारतीय परंपरा में पृथ्वी के लिए भूगोल शब्द प्रयुक्त होता है जिसका सीधा सा अर्थ है पृथ्वी गोल है।उसी प्रकार इस पृथ्वी के लिये जगत् शब्द भी प्रयुक्त होता है, जिसका अर्थ भी होता है चलने वाला। इसी प्रकार वेदों में भी पृथ्वी के लिये गौ शब्द का भी प्रयोग किया जाता है, जिसका अर्थ भी गमन करना होता है। पृथ्वी के लगभग जितने भी पर्यायवाची शब्द संस्कृत वांग्मय में उपलब्ध होते हैं, उन सभी में गति अर्थ का प्रयोग प्राप्त होता है। जिससे यह अनुमान होता है कि निश्चित रूप से प्राचीन ऋषियों को पृथ्वी की गति का ज्ञान था। पृथ्वी स्थिर नहीं है, ऐसा निश्चित ही परिज्ञान रहा होगा। सिद्धांत ज्योतिष का मुख्य विषय है - भू-भ्रमणसिद्धान्त। भू-भ्रमण का अर्थ है - पृथ्वी का भ्रमण। इसके सन्दर्भ में प्राचीन एवं अर्वाचीन मत में मतान्तर और भू-भ्रमण के गणितीय एवं सैद्धान्तिक पक्ष के विस्तार के बारे में जानेंगे।
परिचय
भू-भ्रमण सिद्धान्त ज्योतिष का एक महत्वपूर्ण एवं रोचक विषय है। भू-भ्रमण का शाब्दिक अर्थ है- भू अर्थात् पृथ्वी तथा उसका भ्रमण मतलब घूमना। इस प्रकार भू-भ्रमण का अर्थ है- पृथ्वी का घूमना। पृथ्वी के घूमने के सम्बन्ध में हम देखें तो प्राच्य एवं पाश्चात्य दृष्टिकोण से इसमें मत-मतान्तर दिखाई देते हैं। प्राच्य जगत् (ज्योतिषजगत् ) पृथ्वी को स्वशक्ति से निराधार आकाश में स्थिर मानता है। जबकि आधुनिक विज्ञान पृथ्वी को चलायमान मानता है। उनके अनुसार पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है। उसकी घूर्णन गति होती है, और वह अपने अक्ष पर निरन्तर भ्रमण करते रहती है।
प्राच्यमतानुसार भू-भ्रमण सिद्धान्त
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सर्वप्रथम आर्यभट्ट ने तीसरी-चौथी शताब्दीमें ही भू-भ्रमण के सिद्धान्त को प्रतिपादित कर दिया था। आर्यभट्ट का जन्म तीसरी-चौथी शताब्दी(३९८ शक) में भारतवर्ष में पाटलिपुत्र शहर के अन्तर्गत कुसुमपुर नामक गाँव में हुआ था। उन्होंने ही प्रथम बार यह कहा था कि तारामण्डल स्थिर है और भू (पृथ्वी) अपनी दैनिक भ्रमण (घूमने) की गति से नक्षत्रों तथा ग्रहों का उदय और अस्त करती है। आर्यभट द्वारा विरचित आर्यभटीयम् नामक ग्रन्थ के गोलपाद में भूगोल स्वरूप बतलाते हुये आचार्य का कथन है कि-
वृत्तभपंजरमध्ये कक्ष्यापरिवेष्टितः खमध्यगतः। मृज्ज्लशिखिवायुमयो भूगोल: सवर्तो वृत्तः॥ यद्वत् कदम्बपुष्पग्रन्थिः प्रचितः समन्ततः कुसुमैः। तद्वद्धि सर्वसत्वैर्जलजैः स्थलजैश्च भूगोलः॥(आर्य०भ०)[1]
अर्थात् वृत्ताकार नक्षत्रमण्डल के मध्य में, ग्रहों की कक्षाओं से परिवेष्टित आकाश के मध्य में पृथ्वी का गोला स्थित है। यह चारों ओर से गोल है अर्थात् दर्पण आदि की भाँति गोल नहीं है, गेंद की भाँति गोल है। यह मिट्टी, जल, अग्नि एवं वायुमय है। जिस प्रकार कदंब के फूल की ग्रन्थि चारों ओर से छोटे कुसुमों से व्याप्त रहती है उसी प्रकार पृथ्वी का गोला जल में अथवा स्थल पर पैदा होने वाले सभी प्राणियों से व्याप्त है। खमध्य में स्थित होने का यह अर्थ है कि पृथ्वी किसी आधार पर स्थित नहीं है अपितु निराधार है। पृथ्वी के सम्बन्ध में ऐसा ही मत आचार्य वराहमिहिर का भी है-
पंचमहाभूतमयस्तारागणपंजरे महीगोलः। खेsस्यस्कान्तान्तःस्थो लोह इवावस्थितोवृत्तः॥(पंच सि०)
अर्थात पृथ्वी का गोला जो पंचमहाभूतों का बना है आकाश में तारामण्डल के मध्य में वैसे ही स्थित है जैसे लोहे का टुकडा चुम्बकों के बीच में निराधार स्थित रह सकता है। आर्यभट्ट ने पृथ्वी को केवल चार महाभूतमय कहा है परन्तु वराहमिहिर ने पाँचवें महाभूत आकाश का भी उल्लेख किया है।
- ↑ श्री उदयनारायण वर्मा, आर्यभटीयम्, सन् १९०६, मुजफ्फरपुरः शास्त्रप्रकाश कार्यालय, तृतीय पाद,श्लो० २९, (पृ०८९)।