Difference between revisions of "Dharmik Dinacharya (धार्मिक दिनचर्या)"
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अभिमुखीकरणाय वादनं नामोच्चारणपूर्वकनमस्कारः अभिवादनम् । प्रणाम एवं अभिवादन मानवका सर्वोत्तम सात्त्विक संस्कार है। अपनेसे बड़ोंको प्रणाम करनेके बहुत लाभ हैं-<blockquote>अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥</blockquote>'''अनु-''' जो व्यक्ति सुशील और विनम्र होते हैं, बड़ों का अभिवादन व सम्मान करने वाले होते हैं तथा अपने बुजुर्गों की सेवा करने वाले होते हैं। उनकी आयु, विद्या, कीर्ति और बल इन चारों में वृद्धि होती है।'''अजपाजप॥ Ajapajapa''' | अभिमुखीकरणाय वादनं नामोच्चारणपूर्वकनमस्कारः अभिवादनम् । प्रणाम एवं अभिवादन मानवका सर्वोत्तम सात्त्विक संस्कार है। अपनेसे बड़ोंको प्रणाम करनेके बहुत लाभ हैं-<blockquote>अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥</blockquote>'''अनु-''' जो व्यक्ति सुशील और विनम्र होते हैं, बड़ों का अभिवादन व सम्मान करने वाले होते हैं तथा अपने बुजुर्गों की सेवा करने वाले होते हैं। उनकी आयु, विद्या, कीर्ति और बल इन चारों में वृद्धि होती है।'''अजपाजप॥ Ajapajapa''' | ||
Revision as of 23:57, 17 April 2023
सनातन धर्म में भारतीय जीवन पद्धति क्रमबद्ध और नियन्त्रित है। इसकी क्रमबद्धता और नियन्त्रित जीवन पद्धति ही दीर्घायु, प्रबलता, अपूर्व ज्ञानत्व, अद्भुत प्रतिभा एवं अतीन्द्रिय शक्ति का कारण रही है। ऋषिकृत दिनचर्या व्यवस्था का शास्त्रीय, व्यावहारिक एवं सांस्कृतिक तथा वैज्ञानिक अनुशासन भारतीय जीवनचर्या में देखा जाता है। जो अपना सर्वविध कल्याण चाहते हैं उन्हैं शास्त्रकी विधिके अनुसार अपनी दैनिकचर्या बनानी चाहिए। दिनचर्या का धर्म से सम्बन्ध एवं गहरी चिंतन की प्रक्रिया में आध्यात्मिकता की भूमिका का महत्वपूर्ण योगदान है।
परिचय
दिनचर्या नित्य कर्मों की एक क्रमबद्ध शृंघला है। जिसका प्रत्येक अंग अन्त्यत महत्त्वपूर्ण है और क्रमशः दैनिककर्मों को किया जाता है। दिनचर्या के अनेक बिन्दु नीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र और आयुर्वेद शास्त्र में प्राप्त होते हैं।
प्रकृति के प्रभाव को शरीर और वातावरण पर देखते हुये दिनचर्या के लिये समय का उपयोग आगे पीछे किया जाता है। धर्म और योग की दृष्टि से दिन का शुभारम्भ उषःकाल से होता है। इस व्यवस्था को आयुर्वेद और ज्योतिषशास्त्र भी स्वीकार करते हैं। चौबीस घण्टे का समय ऋषिगण सुव्यवस्थित ढंग से व्यतीत करने को कहते हैं। संक्षिप्त दृष्टि से इस काल को इस प्रकार व्यवस्थित करते हैं-
- ब्राह्ममुहूर्त+प्रातःकाल= प्रायशः ३,४, बजे रात्रि से ६, ७ बजे प्रातः तक। संध्यावन्दन, देवतापूजन एवं प्रातर्वैश्वदेव।
- प्रातःकाल+संगवकाल= प्रायशः ६, ७ बजे से ९, १० बजे दिन तक। उपजीविका के साधन।
- संगवकाल+पूर्वाह्णकाल= प्रायशः ९, १० बजे से १२ बजे तक।
- मध्याह्नकाल+अपराह्णकाल= प्रायशः १२ बजे से ३ बजे तक।
- अपराह्णकाल+सायाह्नकाल= प्रायशः ३ बजे से ६, ७ बजे तक।
- पूर्वरात्रि काल= प्रायशः ६, ७ रात्रि से ९, १० बजे तक।
- शयन काल(दो याम, ६घण्टा)= ९, १० रात्रि से ३, ४ बजे भोर तक।
भारत वर्ष में ऋतुओं के अनुसार दिनचर्या में बदलाव होता रहता है। भारत वर्षं में ग्रीष्मकाल तथा शीतकाल मे प्रातः एवं सायंकाल का समय व्यावहारिक जगत् मेँ प्रायशः एक घण्टा बढ़ जाता है या एक घण्टा घट जाता हे। अधेरा ओर प्रकाश का फैलाव प्रातःसायं काल को व्यावहारिक जगत् में थोडा-सा अन्तरित कर देता है।
परिभाषा
प्रातः काल उठने से लेकर रात को सोने तक किए गए कृत्यों को एकत्रित रूप से दिनचर्या कहते हैं। आयुर्वेद एवं नीतिशास्त्र के ग्रन्थों में दिनचर्या की परिभाषा इस प्रकार की गई है-
प्रतिदिनं कर्त्तव्या चर्या दिनचर्या। (इन्दू) दिने-दिने चर्या दिनस्य वा चर्या दिनचर्या, चरणचर्या।(अ०हृ०सू०)
अर्थ- अर्थ- प्रतिदिन करने योग्य चर्या को दिनचर्या कहा जाता है।
दिनचर्याके समानार्थी शब्द- आह्निक, दैनिक कर्म एवं नित्यकर्म आदि।
दैनिक कृत्य-सूची-निर्धारण
इसी समय दिन-रातके कार्योंकी सूची तैयार कर लें।
आज धर्मके कौन-कौनसे कार्य करने हैं?
धनके लिये क्या करना है ?
शरीरमें कोई कष्ट तो नहीं है ?
यदि है तो उसके कारण क्या हैं और उनका प्रतीकार क्या है?
एतादृश जागरण के अनन्तर दैनिक क्रिया कलापों की सूची-बद्धता प्रातः स्मरण के बाद ही बिस्तर पर निर्धारित कर लेना चाहिये। जिससे हमारे नित्य के कार्य सुचारू रूप से पूर्ण हो सकें।[1]
धार्मिक दिनचर्या के विषयविभाग॥ Guidelines on different aspects of Dinacharya
सम्पूर्ण मानव जीवन स्वस्थ रहे, उसे कोई भी विकार न हों, इस दृष्टि से दिनचर्या पर विचार किया जाता है। दिनचर्या प्रकृति के नियमों के अनुसार हो, तो उन कृत्यों से मानव को कष्ट नहीं वरन् लाभ ही होता है। कोई व्यक्ति दिनभर में क्या आहार-विहार करता है, कौन-कौन से कृत्य करता है, इस पर उसका स्वास्थ्य निर्भर करता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से दिनचर्या महत्त्वपूर्ण है। पशु-पक्षी भी प्रकृति के नियमों के अनुसार ही अपनी दिनचर्या व्यतीत करते हैं। इसलिए प्रकृति के नियमों के अनुसार (धर्म द्वारा बताए अनुसार) आचरण करना आवश्यक है। जिसमें की धार्मिकदिनचर्या के विषयविभाग निम्नलिखित हैं-
ब्राह्म मुहूर्तम्॥ Brahma muhurta
प्रातः जागरण॥ Time of getting up in the morning
करदर्शन॥ Kar Darshana
भूमिवन्दना॥ Bhumi Vandana
मंगलदर्शन॥ Mangala Darshana
अभिवादन॥ Abhivadana
अजपाजप॥ Ajapajapa
उषा काल॥ Ushakala
शौचाचार॥ Shouchara
दन्तधावन एवं मुखप्रक्षालन॥ Dantadhavana Evam Mukhaprakshalana
व्यायाम॥ Vyayama
तैलाभ्यंग॥ Tailabhyanga
क्षौर॥ Kshaura
स्नान॥ Snana
वस्त्रपरिधान॥ vastra paridhana
पूजाविधान॥ pujavidhana
योगसाधना॥ yoga sadhana
यज्ञोपवीत धारण॥ Yagyopavita Dharana
तिलक-आभरण धारण॥ Tilaka Abharana Dharana
संध्योपासना-आराधना॥ Sandhyopasana- Aradhana
तर्पण॥ Tarpana
पञ्चमहायज्ञ॥ Pancha mahayagya
भोजन॥ Bhojana
लोक संग्रह-व्यवहार-जीविका॥ Loka sangraha- Vyavahara jivika
संध्या-गोधूलि-प्रदोष॥ sayam Sandhya
शयनविधि॥ Shayana Vidhi
दिनचर्या के विभाग
ब्राह्ममुहूर्ते उत्तिष्ठेत्। कुर्यान् मूत्रं पुरीषं च। शौचं कुर्याद् अतद्धितः। दन्तस्य धावनं कुयात्।
प्रातः स्नानं समाचरेत्। तर्पयेत् तीर्थदेवताः। ततश्च वाससी शुद्धे। उत्तरीय सदा धार्यम्।
ततश्च तिलकं कुर्यात्। प्राणायामं ततः कृत्वा संध्या-वन्दनमाचरेत्॥ विष्णुपूजनमाचरेत्॥
अतिथिंश्च प्रपूजयेत्। ततो भूतबलिं कुर्यात्। ततश्च भोजनं कुर्यात् प्राङ्मुखो मौनमास्थितः।
शोधयेन्मुखहस्तौ च। ततस्ताम्बूलभक्षणम्। व्यवहारं ततः कुर्याद् बहिर्गत्वा यथासुखम्॥
वेदाभ्यासेन तौ नयेत्। गोधूलौ धर्मं चिन्तयेत्। कृतपादादिशौचस्तुभुक्त्वा सायं ततो गृही॥
यामद्वयंशयानो हि ब्रह्मभूयाय कल्यते॥प्राक्शिराः शयनं कुर्यात्। न कदाचिदुदक् शिराः॥
दक्षिणशिराः वा। रात्रिसूक्तं जपेत्स्मृत्वा। वैदिकैर्गारुडैर्मन्त्रे रक्षां कृत्वा स्वपेत् ततः॥
नमस्कृत्वाऽव्ययं विष्णुं समाधिस्थं स्वपेन्निशि। माङ्गल्यं पूर्णकुम्भं च शिरःस्थाने निधाय च।
ऋतुकालाभिगामीस्यात् स्वदारनिरतः सदा।अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतानुकम्पनम्।
शमो दानं यथाशक्तिर्गार्हस्थ्यो धर्म उच्यते॥[2]
अर्थ- ब्राह्म मुहूर्तं मे जागना चाहिए, मूत्र-मल का विसर्जन, शुद्धि, दन्तधावन, स्नान, तर्पण, शुद्ध- पवित्र वस्त्र, तिलक, प्राणायाम- संध्यावन्दन, देव पूजा, अतिथि सत्कार, गोग्रास एवं जीवों को भोजन, पूर्वमुख मौन होकर भोजन, भोजन कर मुख ओर हाथ धोयें, ताम्बूल भक्षण, स्व-कार्य(जीविका हेतु), प्रातःसायं संध्या के पश्चात् वेद अध्ययन, धर्म चिन्तन, वैश्वदेव, हाथपैरधोकर भोजन, दोयाम (छःघण्टा) शयन, पानीपीने हेतु सिर की ओर पूर्णकुम्भ, ऋतुकाल (चतुर्थरात्रि से सोलहरात्रि) में पत्नी गमन आदि भारतीय जीवन पद्धति का यही सुव्यवस्थित पवित्र वैदिक एवं आयुर्वर्धक क्रम ब्रह्मपुराण मे दिया हआ है। इसे आलस्य, उपेक्षा, नास्तिकता या शरीर सुख मोह के कारण नहीं तोडना चाहिये।
ब्राह्म मुहूर्तम्॥ Brahma muhurta
ब्राह्ममुहूर्त में उठकर धर्मार्थ का चिन्तन, कायक्लेश का निदान तथा वेदतत्त्व परमात्मा का स्मरण करना चाहिये।
रात्रेः पश्चिम यामस्य मुहूर्तो यस्तृतीयकः। स ब्राह्म इति विज्ञेयो विहितः स प्रबोधने॥
अनु- रात के पिछले प्रहर का जो तीसरा मुहूर्त (भाग) होता है वह ब्राह्ममुहूर्त कहलाता है। जागने के लिये यही समय उचित है। अपने निर्माण कार्यमें इस ब्राह्ममुहूर्तका उपयोग लेना हमारा एक आवश्यक कर्तव्य हो जाता है। इसके उपयोगसे हमें ऐहलौकिक-अभ्युदय एवं पारलौकिक-निःश्रेयस प्राप्त होकर सर्वाङ्गीण धर्मलाभ सम्भव हो जाता है।
प्रातः जागरण॥ Time of getting up in the morning
प्रात:काल का समय परमशान्त, सात्विक, स्वास्थ्यप्रद तथा जीवनप्रदायिनीशक्ति लिये हुये होता है। प्रात: जागरण से आलस्य दूर होकर शरीर में स्फूर्ति आ जाती है और मन दिन भर प्रसन्न तथा प्रफुल्लित रहता है। इस समय वातावरण परम शान्त रहता है। वृक्ष अशुद्ध वायु आत्मसात् करके शुद्ध वायु शक्तिप्रदायिनी आक्सीजन प्रदान करते हैं, तभी तो लोग प्रात:काल बाग बगीचे तथा पुष्पोद्यान में टहलने जाते हैं और प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द लेते हुए दिन भर प्रसन्न रहते हैं। इस समय शीतल मन्द सुगन्धित समीर चलती है जिसमें चन्द्रमा की किरणों तथा नक्षत्रों का प्रभाव रहता है जो हमारे लिये स्वास्थ्य प्रद तथा सब प्रकार से लाभकारी है। चन्द्रकिरणों तथा नक्षत्रों के अमृतमय प्रभाव का लाभ प्रात:काल हम उठा लेते हैं।
करदर्शन॥ Kar Darshana
प्रातः हाथका दर्शन शुभ हुआ करता है। कहा भी गया है-
कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती। करपृष्ठे च गोविन्दः प्रभाते कर-दर्शनम्।।
इस पद्यमें हाथके अग्रभागमें लक्ष्मीका, मध्यभागमें सरस्वतीका और पृष्ठभागमें गोविन्दका निवास कहा है। केवल पुराणों में ही हाथका महत्व बताया गया हो ऐसा भी नहीं है। वेद में भी हाथका महत्व बताया गया है-
अयं मे हस्तो भगवान अयं मे भगवत्तरः । अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः॥ (ऋ० १०।६०।१२)
इस मन्त्रका देवता भी हस्त है। इसमें हाथको भगवान का अतिशयितसामर्थ्ययुक्त और सब रोगोंका भेषजभूत (दवाईरूप) साधन-सम्पन्न स्वीकृत किया है।
भूमिवन्दना॥ Bhumi Vandana
प्रातः उठते ही अपनी आश्रयभूत भूमिकी वन्दना करनी श्रेयस्कर हुआ करती है। तभी तो कहा है-जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।
जन्मभूमिको स्वर्गसे भी बढ़कर माना गया है। इसीलिए वेदने भी उसे नमस्कार करनेका आदेश दिया है।
शिला भूमिरश्मा पांसुः सा भूमिः संधृता धृता। तस्यै हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकरं नमः॥ (अथर्व० १२।१।२६)।
मंगलदर्शन॥ Mangala Darshana
प्रातः-जागरणके बाद यथासम्भव सर्वप्रथम मांगलिक वस्तुएँ (गौ, तुलसी, पीपल, गंगा, देवविग्रह आदि) जो भी उपलब्ध हों, उनका दर्शन करना चाहिये तथा घरमें मातापिता एवं गुरुजनों, अपनेसे बड़ोंको प्रणाम करना चाहिये।
अभिवादन॥ Abhivadana
अभिमुखीकरणाय वादनं नामोच्चारणपूर्वकनमस्कारः अभिवादनम् । प्रणाम एवं अभिवादन मानवका सर्वोत्तम सात्त्विक संस्कार है। अपनेसे बड़ोंको प्रणाम करनेके बहुत लाभ हैं-
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥
अनु- जो व्यक्ति सुशील और विनम्र होते हैं, बड़ों का अभिवादन व सम्मान करने वाले होते हैं तथा अपने बुजुर्गों की सेवा करने वाले होते हैं। उनकी आयु, विद्या, कीर्ति और बल इन चारों में वृद्धि होती है।अजपाजप॥ Ajapajapa
उषा काल॥ Ushakala
शौचाचार॥ Shouchara
शौचाचारमें सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये, क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यका मूल शौचाचार ही है, शौचाचारका पालन न करनेपर सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं।ब्राह्ममूहूर्त में उठकर शय्यात्याग के पश्चात् तत्काल ही शौच के लिए जाना चाहिए। शौच में मुख्यतः दो भेद हैं- बाह्य शौच और आभ्यन्तर शौच।
शौचं तु द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा। मृज्जलाभ्यां स्मृतं बाह्यं भावशुद्धिस्तथान्तरम् ॥ (वाधूलस्मृ०१९)
अनु-मिट्टी और जलसे होनेवाला यह शौच-कार्य बाहरी है इसकी अबाधित आवश्यकता है किंतु आभ्यन्तर शौचके बिना बाह्यशौच प्रतिष्ठित नहीं हो पाता। मनोभावको शुद्ध रखना आभ्यन्तर शौच माना जाता है। किसीके प्रति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा आदिके भावका न होना आभ्यन्तर शौच है। श्रीव्याघ्रपादका कथन है कि-
गंगातोयेन कृत्स्नेन मृद्धारैश्च नगोपमैः। आमृत्योश्चाचरन् शौचं भावदुष्टो न शुध्यति । (आचारेन्दु)
यदि पहाड़-जितनी मिट्टी और गङ्गाके समस्त जलसे जीवनभर कोई बाह्य शुद्धि-कार्य करता रहे किंतु उसके पास आभ्यन्तर शौच न हो तो वह शुद्ध नहीं हो सकता।
अतः आभ्यन्तर शौच अत्यावश्यक है भगवान् सबमें विद्यमान हैं। इसलिये किसीसे द्वेष, क्रोधादि न करें सबमें भगवान्का दर्शन करते हुए सब परिस्थितियोंको भगवान्का वरदान समझते हुए सबमें मैत्रीभाव रखें। साथ ही प्रतिक्षण भगवान्का स्मरण करते हुए उनकी आज्ञा समझकर शास्त्रविहित कार्य करते रहें।दन्तधावन एवं मुखप्रक्षालन॥ Dantadhavana Evam Mukhaprakshalana
दन्तधावन का स्थान शौच के बाद बतलाया गया है।मुखशुद्धिके विना पूजा-पाठ मन्त्र-जप आदि सभी क्रियायें निष्फल हो जाती हैं अतः प्रतिदिन मुख-शुद्ध्यर्थ दन्तधावन अवश्य करना चाहिये ।दन्तधावन करने से दांत स्वच्छ एवं मजबूत होते हैं।मुख से दुर्गन्ध का भी नाश होता है। सनातन धर्म में दन्तधावन हेतु दातौन का प्रयोग बताया गया है।व्यायाम॥ Vyayama
तैलाभ्यंग॥ Tailabhyanga
क्षौर॥ Kshaura
स्नान॥ Snana
प्रात: स्नान का वर्णन किया जा रहा है। इसमें वैज्ञानिक विशेषता यह है कि रात्रि भर चन्द्रामृत से जो चन्द्रमा की किरणें जल में प्रवेश करती हैं, उसके प्रभाव से जल पुष्ट हो जाता है। सूर्योदय होने पर वह सब गुण सूर्य की किरणों द्वारा आकृष्ट हो जाता है; अत: जो व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व स्नान करेगा. वही जल के अमृतमय गणों का लाभ उठा सकेगा।वस्त्रपरिधान॥ vastra paridhana
ब्राह्ममुहूर्त में जागरण स्नानादि के अनन्तर वस्त्र धारण का भी मानव जीवन में घनिष्ठ सम्बन्ध है । वैदिक काल से ही शरीर ढकने हेतु वस्त्रों का उपयोग होता हुआ आ रहा है। प्रचीन काल में वृक्षों के पत्ते ,छाल, कुशादि घास एवं मृगचर्मादि का भी साधन बनाकर शरीर ढकने हेतु वस्त्ररूप में उपयोग हुआ करता था।वस्यते आच्छाद्यतेऽनेनेति वस्त्रम् -जिसके द्वारा (शरीर को) आच्छादित किया जाता है उसे वस्त्र (परिधान)कहते हैं।सनातनी परम्परा में ब्रह्मचारी,स्नातक,गृहस्थ,सन्न्यासी आदियों के लिये पृथक् पृथक् वस्त्रों का विधान किया गया है।पूजाविधान॥ pujavidhana
योगसाधना॥ yoga sadhana
यज्ञोपवीत धारण॥ Yagyopavita Dharana
तिलक-आभरण धारण॥ Tilaka Abharana Dharana
सनातन धर्म में प्रायः सभी व्यक्ति भस्म तिलक या गुरुपरम्परा अनुसार चन्दन धारण करते हैं यह भी महत्वपूर्ण नियम है। गङ्गा, मृत्तिका या गोपी-चन्दनसे ऊर्ध्वपुण्ड्र, भस्मसे त्रिपुण्ड्र और श्रीखण्डचन्दनसे दोनों प्रकारका तिलक कर सकते हैं। किंतु उत्सवकी रात्रिमें सर्वाङ्गमें चन्दन लगाना चाहिये।
योग-क्रिया-सम्बद्ध एक विशेष रहस्य यह है कि भृकुटी के बीच में मस्तक के नीचे 'आज्ञा' नामक एक चक्र है, उस स्थान पर चन्दन लगाने से वह चक्र शीघ्र जागृत होकर उसका भेदन हो जाता है। जो साधक की साधना में लाभदायक है। इसी प्रकार कण्ठ में चन्दन लगाने से 'विशुद्ध चक्र' का, हृदय में लगाने से 'अनाहत चक्र' का एवं नाभिस्थान में लगाने से 'मणिपूर' आदि चक्रों का जागरण एवं भेदन होता है और उनमें सहायता प्राप्त होती है। इसीलिए उक्त स्थानों में चन्दन लगाया जाता है।
वैज्ञानिक दृष्टि से भी चन्दन लगाना स्वास्थ्य के लिये लाभदायक है। यह संक्रामक रोगों का नाशक है।संध्योपासना-आराधना॥ Sandhyopasana- Aradhana
स्नान के पश्चात् सन्ध्यावन्दनादि का क्रम शास्त्रों में कहा गया है। यह उपनयन संस्कार होने के बाद द्विजों के लिये नित्य क्रिया है। इससे बड़ा लाभ है। संध्या मुख्यतः प्रातः मध्यान्ह और सायान्ह इन तीन भागों में विभाजित है। रात्रि या दिन में जो भी अज्ञानकृत पोप होता है वह सन्ध्या के द्वारा नष्ट हो जाता है तथा अन्त:करण निर्मल, शुद्ध और पवित्र हो जाता है। सन्ध्या से दीर्घ आयु, प्रज्ञा, यश, कीर्ति तथा ब्रह्मतेज की प्राप्ति होती है। मनु जी कहते हैं-
ऋषयो दीर्घ सन्ध्यत्वाद् दीर्घमायुरवाप्नुयुः। प्रज्ञां यशश्च कीतिश्च ब्रह्मवर्चसमेव च॥
इस प्रकार हमें शारीरिक शक्ति, बौद्धिकबल, ब्रह्मतेज तथा यश की प्राप्ति भी इसके द्वारा होती है। नित्य सन्ध्या करने से ध्यान द्वारा हम परमात्मा से सम्पर्क स्थापित करते हैं। संध्या में आसन पर बैठकर प्राणायाम के द्वारा रोग और पाप का नाश होता है।तर्पण॥ Tarpana
पञ्चमहायज्ञ॥ Pancha mahayagya
सामान्यतः लौकिक जीवनमें स्वयंके भविष्यको हवनसे, त्रैविद्य नामक व्रतसे, ब्रह्मचर्यावस्थामें देवर्षि-पितृसँवारनेके लिये सन्ध्यावन्दनका विधान किया गया है, तर्पण आदि क्रियाओंसे, गृहस्थाश्रममें पुत्रोत्पादनसे, महायज्ञोंसे कुटुम्ब एवं परिवारकी समृद्धिके निमित्त देवपूजाकी और ज्योतिष्टोमादि यज्ञोंसे यह शरीर ब्रह्मप्राप्तिके योग्य व्यवस्था की गयी है। जबकि ऋणमुक्ति एवं समृद्धिहेतु, बनाया जाता है। उत्कृष्ट संस्कार पानेके लिये, नैतिकता-सदाचार-सद्व्यवस्था इन यज्ञोंको और स्पष्ट करते हुए मनुस्मृति (३।६०)और सद्व्यवहारके लिये गृहस्थ जीवनमें पंचमहायज्ञोंका में कहा गया है अनुष्ठान-विधान अनिवार्य अंगके रूपमें निर्दिष्ट है। धर्म कर्ममय जीवनमें यह एक आवश्यक कर्तव्य है, जिसका विधान ब्राह्मण-आरण्यक-गृह्यसूत्र-धर्मसूत्र आदिमें पाया अर्थात् वेदका अध्ययन और अध्यापन करना जाता है।भोजन॥ Bhojana
सनातन धर्म में आचार विचार,आहार तथा व्यवहार इन चार विषयों पर बहुत महत्व दिया है इनमें आहार(भोजन)विधि के बारे में बहुत महत्व दिया गया है जिस प्रकार का अन्न खाया जाता है उसी प्रकार की बुद्धि भी बनती है।आहार सात्विक होगा, तो मन भी सात्विक होगा और जब मन सात्विक होगा तब विचार भी सात्विक होंगे और क्रमशः फिर क्रिया भी सात्विक होगी। सात्विक भोजन से शरीर स्वस्थ एवं चित्त प्रसन्न रहता है। अधिक कटु, उष्ण, तीक्ष्ण एवं रुक्ष आहार राजस कहा गया है । बासी, रसहीन, दुर्गन्धियुक्त, जूठा और अपवित्र आहार तामस कहा गया है ।
लोक संग्रह-व्यवहार-जीविका॥ Loka sangraha- Vyavahara jivika
संध्या-गोधूलि-प्रदोष॥ sayam Sandhya
शयनविधि॥ Shayana Vidhi
रात्रि मे सोने से पहले रात्रिसूक्त का पाठ करके सोना चाहिए। इस पाठ को करने वाला व्यक्ति दुःस्वप्न, अनिद्रा, निद्राभंग, भय, निर्जन शयन भय, भूत-परेत आदि भय, आकस्मिक उपद्रव आदि से सर्वथा सुरक्षित रहता हे। रात्रि में सोने के बाद उसे सर्पं आदि विषधर नहीं काट पाते। अग्नि, विषाक्त वायु आदि से भी उसे मृत्यु का भय नहीं होता हे। अतः प्राचीन भारत में रात्रिसूक्त का पाठ करके ही सोया जाता था। विशेष रूप से जँ रात्रि भय उपस्थित हो वहां इसका पाठ अवश्य करना चाहिए। अतिनिद्रा ओर अनिद्रा से वचने के लिए भी इसका पाठ करके सोना चाहिए।
निद्रादेवी -
या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥(दुर्गा सप्तशती)
शरीर मे देवी तत्व ही निद्रा रूप में निवास करता हे। अतः निद्रा देवी को प्रणाम करके सोना चाहिए। शरीर के विश्राम के लिए ही प्रकृति ने निद्रा का शरीर में सन्निवेश किया है। अतः जिससे शरीर विश्राम कर सके उसे निद्रा कहते हैं।
देहं विश्रमते यस्मात् तस्मान् निद्राप्रकीर्तिता।
धर्म रस का पान करने वाला ही सुख की निद्रा को प्राप्त करता है। संयमी व्यक्ति को ही यथा समय निद्रा लगती है ओर खुलती है। अतः वैष्णवी शक्ति, योगमाया निद्रा देवी को प्रणाम करके सोना चाहिए। निद्रा परिभाषा-
यदा तु मनसि क्लान्ते कर्मात्मानः क्लमान्विताः। विषयेभ्यो निवर्तन्ते तदा स्वपिति मानवः॥(चरकसूत्रम्,२९)
मन के थकने से इन्द्रियाँ थकती हैं।“इन्द्रियों के थकने से विषय निवृत्ति हो जाती है और मनुष्य सो जाता है।
- यामद्वयं शयानस्तु ब्रह्मभूयाय कल्पते- छ. घण्टा से अधिक न सोयें।
- न सन्ध्ययोः- सन्धि वेला (सूर्योदय-सूर्यास्त) में नहीं सोना चाहिए।
धर्मशास्त्र में प्रायशः अनेक पर्वों में रात्रि जागरण हेतु विधान किया गया है। ध्येय है जहोँ भी रात्रि जागरण की व्यवस्था होती है, वहीं पर उपवास का भी विधान प्राप्त होता हे। रात्रि जागरण हेतु उपवास आवश्यक होता है। उपवास करके रात्रि जागरण करने पर कफ ओर अग्नि दोनों तत्व शान्त ओर सन्तुलित रहते है। अतिनिद्रा ओर अनिद्रा ये दोनो रोग के रूप में शरीर को कष्ट परहचाती है। अनिद्रा से जहाँ अंग मर्द, सिर का भारीपन, जम्हाई, जडता, ग्लानि, श्रम, अजीर्ण, तन्द्रा तथा वातजनित रोग होते हं वहीं पर अतिनिद्रा से शिथिलता, मस्तिष्क मे भारीपन, रक्तसंचरण में मन्दता तथा अनेक प्रकार की मानसिक बीमारियों पेदा होती है। आयुर्वेद के अनुसार काय विरेचन, शिरो विरेचन, व्यायाम, धुप्रपान उपवास, तथा पूजन आदि सं अतिनिद्रा दूर होती है।
दिनचर्या कब, कितनी ?
दिनचर्या सुव्यवस्थित ढंग से अपने स्थिर निवास पर ही हो पाती है। अनेक लोग ऐसे भी हैं जो अपनी दिनचर्या को सर्वत्र एक जैसे जी लेते हैं। यात्रा, विपत्ति, तनाव, अभाव ओर मौसम का प्रभाव उन पर नहीं पडता। ऐसे लोगों को दृढव्रत कहते हैं। किसी भी कर्म को सम्पन्न करने के लिए दृढव्रत ओर एकाग्रचित्त होना अनिवार्य है। यह शास्त्रों का आदेश है -
मनसा नैत्यक कर्म प्रवसन्नप्यतन्द्रितः। उपविश्य शुचिः सर्वं यथाकालमनुद्रवेत्॥ (कात्यायनस्मृतिः,९,९८/२)
प्रवास में भी आलस्य रहित होकर, पवित्र होकर, बैठकर समस्त नित्यकर्मो को यथा समय कर लेना चाहिए। अपने निवास पर दिनचर्या का शतप्रतिशत पालन करना चाहिए। यात्रा में दिनचर्या विधान को आधा कर देना चाहिए। बीमार पड़ने पर दिनचर्या का कोई नियम नहीं होता। विपत्ति मे पड़ने पर दिनचर्या का नियम बाध्य नहीं करता-
स्वग्रामे पूर्णमाचारं पथ्यर्धं मुनिसत्तम। आतुरे नियमो नास्ति महापदि तथेव च॥ (ब्रह्माण्डपुराण)
दिनचर्या एवं मानवीय जीवनचर्या
इस पृथ्वी पर मनुष्य से अतिरिक्त जितने भी जीव हैं। उनका अधिकतम समय भोजन खोजने में नष्ट हो जाता है। यदि भोजन मिल गया तो वे निद्रा में लीन हो जाते हैं। आहार और निद्रा मनुष्येतर प्राणियों को पृथ्वी पर अभीष्ट हैं। मनुष्य आहार और निद्रा से ऊपर उठ कर व्रती ओर गुडाकेश (निद्राजित) बनता है। यही भारतीय जीवन पद्धति की प्राधान्यता है।[3]
धार्मिक दिनचर्या का महत्व
व्यक्ति चाहे जितना भी दीर्घायुष्य क्यों न हो वह इस पृथ्वी पर अपना जीवन व्यवहार चौबीस घण्टे के भीतर ही व्यतीत करता है। वह अपना नित्य कर्म (दिनचर्या), नैमित्त कर्म (जन्म-मृत्यु-श्राद्ध- सस्कार आदि) तथा काम्य कर्म (मनोकामना पूर्ति हेतु किया जाने वाला कर्म) इन्हीं चौबीस घण्टों में पूर्ण करता है। इन्हीं चक्रों (एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय) के बीच वह जन्म लेता है, पलता- बढ़ता है ओर मृत्यु को प्राप्त कर जाता है-
अस्मिन्नेव प्रयुञ्जानो यस्मिन्नेव तु लीयते। तस्मात् सर्वप्रयत्नेन कर्त्तव्यं सुखमिच्छता। । दक्षस्मृतिः, (२८/५७)
अतः व्यक्ति को प्रयत्नपूर्वक मन-बुद्धि को आज्ञापित करके अपनी दिनचर्या को सुसंगत तथा सुव्यवस्थित करना चाहिए। ब्राह्ममुहूर्त में जागकर स्नान पूजन करने वाला, पूर्वाह्न मे भोजन करने वाला, मध्याह्न में लोकव्यवहार करने वाला तथा सायंकृत्य करके रात्रि में भोजन-शयन करने वाला अपने जीवन में आकस्मिक विनाश को नहीं प्राप्त करता है -
सर्वत्र मध्यमौ यामौ हुतशेषं हविश्च यत्। भुञ्जानश्च शयानश्च ब्राह्मणो नावसीदती॥ (दक्षस्मृतिः,२/५८)
उषः काल में जागकर, शौच कर, गायत्री - सूर्य की आराधना करने वाला, जीवों को अन्न देने वाला, अतिथि सत्कार कर स्वयं भोजन करने वाला, दिन में छः घण्टा जीविका सम्बन्धी कार्य करने वाला, सायंकाल में सूर्य को प्रणाम करने वाला, पूर्व रात्रि में जीविका, विद्या आदि का चिन्तन करने वाला तथा रात्रि में छः घण्टा सुखपूर्वक शयन करने वाला इस धरती पर वाञ्छित कार्य पूर्ण कर लेता है। अतः दिनचर्या ही व्यक्ति को महान् बनाती है। जो प्रतिदिवसीय दिनचर्या में अनुशासित नहीं हैं वह दीर्घजीवन में यशस्वी ओर दीर्घायु हो ही नहीं सकता। अतः सर्व प्रथम अपने को अनुशासित करना चाहिए। अनुशासित व्यक्तित्व सृष्टि का श्रेष्ठतम व्यक्तित्व होता है ओर अनुशासन दिनचर्या का अभिन्न अंग होता है।
- शास्त्रों में दिनचर्या की प्रधानता बताई गयी है। शरीरके लिये उपयुक्त पोषकतत्व विज्ञान आदि आयुर्वेदीय एवं दूसरी ओर मन की उत्क्रान्ति विकास साधने वाला मानसशास्त्र आदि हेतु धार्मिकदिनचर्या की आवश्यकता है।
- दिनचर्या का यथार्थपालन करने से व्याधि, दुर्व्यसन एवं मनोविकृति आदि नष्ट होते हैं।
महर्षि चरकप्रोक्त दिनचर्या
आयुर्वेद दिनचर्या, ऋतुचर्या, आहार-विहार को निर्देशित करके स्वास्थ्य हेतु शुभ एवं कल्याणकारी पथ दिखलाता है। आयुर्वेद की परम्परा वेद से आरम्भ होने के कारण अत्यन्त प्राचीन है। आयुर्वेद से उपदिष्ट मार्ग पर चलता हआ व्यक्ति यदि तपस्वी हो तो शतायु की सीमाओं को भी लाँघ जाता है। तपस्या, आत्मनियन्त्रण, सम्यक् चर्या और आहार-विहार से व्यक्ति इच्छित आयु प्राप्त कर लेता हे। मुनिप्रवर व्यासजी ने कहा है-
पुरुषाः सर्वसिद्धाश्च चतुर्वर्षशतायुषः। कृते त्रेतादिकेऽप्येवं पादशो हृसति क्रमात् ॥
कृत (सत्य) युग में पुरुष चार सौ वर्ष की आयु वाले होते थे। वे सर्वसिद्ध होते थे। त्रेता मे तीन सौ वर्ष, द्वापर में दो सौ वर्ष और कलियुग में सौ वर्ष या इससे कम आयु के होते हैं। पुरुष का अर्थ है- पुर अर्थात् शरीर मे सोने वाला चेतन तत्व (आत्मा)। यही पुरुष कहलाता हे। अतः स्त्री-पुरुष जनित भेद आत्मा में उपलब्ध नहीं होता है। रोग अपने ही कर्म से शरीर और मन दोनों में उत्पन्न होते हैं-
कर्मजा हि शरीरेषु रोगाः शरीरमानसाः। शरा इव पतन्तीह विमुखा दृढधन्विभिः॥
चरक संहिता की व्याख्या में श्रीचक्रपाणिदत्त ने लिखा है कि शारीरिक रोग कुष्ठादि हैं, मानसिक रोग कामादि हैं और शरीर मन दोनों से उत्पत्न रोग उन्माद होता है। शरीर की रक्षा संसार की सभी वस्तुओं को समर्पित करके करनी चाहिए।
विद्यार्थी की दिनचर्या
समय पर सोना एवं समय पर जागना, वह स्वस्थ और दीर्घायुमान बने। ऐसी शिक्षा पूर्वकाल में बच्चों को दी जाती थी। आजकल बच्चे विलंब से सोते और उठते हैं। प्राचीनकाल में ऋषि-मुनियों का दिन ब्राह्ममुहूर्त से आरंभ होता था परन्तु आज वर्तमान काल में रात्रि में कार्य और दिन में नींद होती है। पूर्वकाल की दिनचर्या प्रकृति के अनुरूप थी। दिनचर्या जितनी अधिक प्रकृति के अनुरूप होगी उतनी ही स्वास्थ्य के लिये पूरक होती है। शास्त्रोक्त आचारों के पालन से रज एवं तम गुण न्यून होते एवं सत्वगुण में वृद्धि होती है। ज्ञानयोग, कर्मयोग आदि साधन मार्गों की तरह ही धार्मिक दिनचर्या भी उत्तम मार्ग प्रशस्त करती है।
ब्राह्ममुहूर्त में उठ कर स्नान-संध्या-वन्दन-गायत्री जप करके तप से परिपूर्ण जीवनचर्या का शुभारम्भ करें। सरस्वती और गणेश देवता को प्रणाम करें। योगासन और व्यायाम हितकारी मात्रा में करें। शरीर, मन, वाणी, बुद्धि, इन्द्रियों को एकाग्र करके गुरु मुख की ओर देखते हुए विद्या को आत्मसात् करना चाहिए-
शरीरं चैव वाचं च बुद्धीन्द्रिय मनांसि च। नियम्य प्राञ्जलिस्तिष्ठेद् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् ॥
सत्य, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, विद्या, देशभक्ति और आत्म त्याग के द्वारा विद्यार्थी को हमेशा सम्मान प्राप्त करना चाहिए-
सत्येन ब्रहमचर्येण व्यायामेनाथ विद्यया। देशभक्त्याऽऽत्मत्यागेन सम्मानार्हो सदा भव॥
श्रीरामजी की दिनचर्या
प्रातः जागरण से लेकर रात्रि शयन पर्यंत व्यक्तिविशेष द्वारा किए जानेवाले कार्य या आचार-विचार ही उसकी दैनिकचर्या की संज्ञा से अभिहित होते हैं। श्रीरामचंद्रजी की दिनचर्या सुनियमित एवं शास्त्रोक्त विधिकी अनुसारिणी थी। दिनचर्या का आरंभ अनेक प्रकारके धार्मिक कृत्योंसे होता था। प्रातःजागरण के उपरान्त स्नानादिसे निवृत्त होकर देवताओंका तर्पण, सन्ध्योपासना तथा मन्त्रजप आदि उनकी दिनचर्या का अभिन्न अंग था। रामायण में वर्णित श्री राम जी की आदर्श दिनचर्या समस्त मानवमात्र के लिए मननीय एवं अनुकरणीय है।
प्रभातकाले चोत्थाय पूर्वां सन्ध्यामुपास्य च। प्रशुची परमं जाप्यं समाप्य नियमेन च॥ हुताग्निहोत्रमासीनं विश्वामित्रमवन्दताम् ॥
ऊर्जाचक्र एवं दिनचर्या
मनुष्यकी दिनचर्याका प्रारम्भ निद्रा-त्यागसे और समापन निद्रा आने के साथ होता है। स्वस्थ रहनेकी कामना रखनेवालोंको शरीरमें कौन-से अंग और क्रिया कब विशेष सक्रिय होती हैं, इस बात का ध्यान रखना चाहिये। यदि हम प्रकृतिके अनुरूप दिनचर्याको निर्धारित करें हम स्वस्थ रह सकते हैं। दिनचर्याका निर्माण इस प्रकार करना चाहिये जिससे शरीरके अंगोंकी क्षमताओंका अधिकतम उपयोग हो। शरीरके सभी अंगोंमें प्राण-ऊर्जाका प्रवाह वैसे तो चौबीसों घण्टे होता है परंतु सभी समय एक-सा ऊर्जाका प्रवाह नहीं होता। प्रायः प्रत्येक अंग कुछ समयके लिये अपेक्षाकृत कम सक्रिय होते हैं।
क्र0सं0 | समय चक्र | शरीर के अंग | तत्संबन्धि कार्य |
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1. | प्रातः 3 बजे से 5 बजे तक। | फेफड़ों में प्राण ऊर्जा का प्रवाह सर्वाधिक। | |
2. | प्रातः 5 बजे से 7 बजे तक। | बड़ी ऑंत में चेतना का विशेष प्रवाह। | |
3. | प्रातः 7 बजेसे 9 बजे तक। | आमाशय (स्टमक)-में प्राण ऊर्जाका प्रवाह सर्वाधिक। | |
4. | प्रातः 9 बजेसे 11 बजे तक। | स्प्लीन(तिल्ली) और पैन्क्रियाजकी सबसे अधिक सक्रियता का समय। | |
5. | दिनमें 11 बजे से 1 बजे तक। | हृदय में विशेष प्राण ऊर्जा का प्रवाह। | |
6. | दोपहर 1 बजे से 3 बजे तक। | छोटी ऑंत में अधिकतम प्राण ऊर्जा का प्रवाह। | |
7. | दोपहर 3 बजे से 5 बजे तक। | यूरेनरी ब्लेडर(मूत्राशय) में सर्वाधिक प्राण ऊर्जा का प्रवाह। | |
8. | सायंकाल 5 बजे से 7 बजे तक। | किडनी में सर्वाधिक ऊर्जा का प्रवाह। | |
9. | सायं 7 बजे से 9 बजे तक। | मस्तिष्कमें सर्वाधिक ऊर्जा का प्रवाह। | |
10. | रात्रि 9 बजे से 11 बजे तक। | स्पाइनल कार्डमें सर्वाधिक ऊर्जाका प्रवाह। | |
11. | रात्रि 11 बजे से 1 बजे तक। | गालब्लेडरमें अधिकतम ऊर्जा का प्रवाह। | |
12. | रात्रि 1 बजे से 3 बजे तक। | लीवरमें सर्वाधिक ऊर्जा का प्रवाह। |