Difference between revisions of "Bhojana Vidhi - Scientific Aspects (भोजन विधि का वैज्ञानिक अंश )"

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भारतीय संस्कृतिमें प्रत्येक दैनिक कर्म विधि-विधानसे पूर्ण किया जाता है। भोजन ग्रहण करने हेतु भी शास्त्रों में भोजनविधि का वर्णन किया गया है। आजकल सहभोज (बफेपार्टी) आदि जो भी प्रचलित हैं वह शास्त्रीय भोजन पद्धति का अनुसरण नहीं करती है। जिसमें स्पर्शदोष, दृष्टिदोष, भोजनस्थल की पवित्रता आदि का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखा जाता है। जिसके फलस्वरूप अजीर्ण आदि शरीरमें बहुविधरोग होने लगते हैं।
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भारतीय संस्कृतिमें प्रत्येक दैनिक कर्म विधि-विधानसे पूर्ण किया जाता है। भोजन ग्रहण करने हेतु भी शास्त्रों में भोजनविधि का वर्णन किया गया है। शास्त्रोक्त विधिसे भोजन करने पर आयु, सुख एवं
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आजकल सहभोज (बफेपार्टी) आदि जो भी प्रचलित हैं वह शास्त्रीय भोजन पद्धति का अनुसरण नहीं करती है। जिसमें स्पर्शदोष, दृष्टिदोष, भोजनस्थल की पवित्रता आदि का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखा जाता है। जिसके फलस्वरूप अजीर्ण आदि शरीरमें बहुविधरोग होने लगते हैं।
  
 
== परिचय ==
 
== परिचय ==
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== भोजन विधि का महत्व ==
 
== भोजन विधि का महत्व ==
 
  
 
आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः, सत्त्वशुद्धौ ध्रुवास्मृतिः। स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः।(छा०उप०-७/२६/२)
 
आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः, सत्त्वशुद्धौ ध्रुवास्मृतिः। स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः।(छा०उप०-७/२६/२)
  
==== क्षेत्रशुद्धि  ====
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==== क्षेत्र शुद्धि ====
  
  
==== द्रव्यशुद्धि ====
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==== द्रव्य शुद्धि ====
 
द्रव्यभी भोजन विधि के गुणों को प्रभावित करता है। अनीति, अनाचार, चोरी, तस्करी, गबन तथा लूटसे प्राप्त धन पापसे ग्रसित होनेके कारण भोजन को उच्छिष्ट बना देता है। ऐसे धनसे तैयार किया गया भोजन तामसी गुणोंको उत्पन्नकर भोजन ग्रहण करने वाले के तन और मनको दुष्प्रभावित कर देता है। यह दुष्प्रभाव भोजन ग्रहण करने वाले के आचार-व्यवहार, चालचलन, चिन्तन-मनन और कर्ममें स्पष्ट दिखायी पडता है।
 
द्रव्यभी भोजन विधि के गुणों को प्रभावित करता है। अनीति, अनाचार, चोरी, तस्करी, गबन तथा लूटसे प्राप्त धन पापसे ग्रसित होनेके कारण भोजन को उच्छिष्ट बना देता है। ऐसे धनसे तैयार किया गया भोजन तामसी गुणोंको उत्पन्नकर भोजन ग्रहण करने वाले के तन और मनको दुष्प्रभावित कर देता है। यह दुष्प्रभाव भोजन ग्रहण करने वाले के आचार-व्यवहार, चालचलन, चिन्तन-मनन और कर्ममें स्पष्ट दिखायी पडता है।
  
 
महाभारतमें भीष्मपितामहजी का चरित्र इसका प्रबल प्रमाण है। अतः मेहनत और ईमानदारीसे अर्जित द्रव्यसे तैयार भोजन ही सात्त्विक और आरोग्यप्रद होता है।
 
महाभारतमें भीष्मपितामहजी का चरित्र इसका प्रबल प्रमाण है। अतः मेहनत और ईमानदारीसे अर्जित द्रव्यसे तैयार भोजन ही सात्त्विक और आरोग्यप्रद होता है।
  
==== कालशुद्धि ====
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==== काल शुद्धि ====
 
कालशुद्धिसे तात्पर्य उस समय-कालसे है, जिसमें भोजन ग्रहण करना स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद हो। स्वस्थ लोगों को प्रातः एवं सायं दो बार पूर्ण आहार ग्रहण करना चाहिये, इसके मध्य भोजन नहीं करना चाहिये। यह विधि अग्निहोत्र के समान है- <blockquote>सायं प्रातर्मनुष्याणामशनं श्रुतिबोधितम् । नान्तरा भोजनं कुर्यादग्निहोत्र समो विधिः॥</blockquote>प्रातःकाल और सायं- दोनों भोजनोंके बीच कम-से-कम दो याम या प्रहर(एक याम या प्रहर तीन घण्टेका होता है)- का अन्तर रहे। इससे अन्नरसका परिपाक भलीभाँति होता है। इससे अधिक विलम्ब करने पर पूर्व संचित बलका क्षय होता है।<blockquote>याममध्ये न भोक्तव्यं यामयुग्मं न लंघयेत् । याममध्ये रसोत्पत्तिर्यामयुग्माद्बलक्षयः॥</blockquote>आचार्य वाग्भट् जी के अनुसार भोजन करनेका उचित अवसर वह है, जब व्यक्ति मल मूत्र त्यागके उपरान्त अपनेको हलका महसूस करे, ठीकसे डकार आ जाय, भूख लग जाय और भोजनके प्रति रुचि जाग्रत् हो जाय। इस प्रकार से भोजन विधि में कालशुद्धि का होना भी आवश्यक माना गया है।
 
कालशुद्धिसे तात्पर्य उस समय-कालसे है, जिसमें भोजन ग्रहण करना स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद हो। स्वस्थ लोगों को प्रातः एवं सायं दो बार पूर्ण आहार ग्रहण करना चाहिये, इसके मध्य भोजन नहीं करना चाहिये। यह विधि अग्निहोत्र के समान है- <blockquote>सायं प्रातर्मनुष्याणामशनं श्रुतिबोधितम् । नान्तरा भोजनं कुर्यादग्निहोत्र समो विधिः॥</blockquote>प्रातःकाल और सायं- दोनों भोजनोंके बीच कम-से-कम दो याम या प्रहर(एक याम या प्रहर तीन घण्टेका होता है)- का अन्तर रहे। इससे अन्नरसका परिपाक भलीभाँति होता है। इससे अधिक विलम्ब करने पर पूर्व संचित बलका क्षय होता है।<blockquote>याममध्ये न भोक्तव्यं यामयुग्मं न लंघयेत् । याममध्ये रसोत्पत्तिर्यामयुग्माद्बलक्षयः॥</blockquote>आचार्य वाग्भट् जी के अनुसार भोजन करनेका उचित अवसर वह है, जब व्यक्ति मल मूत्र त्यागके उपरान्त अपनेको हलका महसूस करे, ठीकसे डकार आ जाय, भूख लग जाय और भोजनके प्रति रुचि जाग्रत् हो जाय। इस प्रकार से भोजन विधि में कालशुद्धि का होना भी आवश्यक माना गया है।
  
==== भावशुद्धि ====
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==== भाव शुद्धि ====
 
क्रियाशुद्धि से तात्पर्य वे सभी कर्तव्य या क्रियाएँ हैं, जो आहारके लिये द्रव्योंके चयन, पाकसंस्कार और ग्रहण करने हेतु व्यक्तिद्वारा सम्पन्न की जाती है।
 
क्रियाशुद्धि से तात्पर्य वे सभी कर्तव्य या क्रियाएँ हैं, जो आहारके लिये द्रव्योंके चयन, पाकसंस्कार और ग्रहण करने हेतु व्यक्तिद्वारा सम्पन्न की जाती है।
  
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=== अन्न शुद्धि ===
 
भोजनसामग्री की शुद्धता
 
भोजनसामग्री की शुद्धता
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== एकान्तस्थानमें भोजन की आवश्यकता ==
  
 
== भोजन उपरान्त की क्रियाऐं ==
 
== भोजन उपरान्त की क्रियाऐं ==
 
भुक्त्वा शतपदं गच्छेत् , कोरुक् ३?(बीमार कौन नहीं होता?) वामशायी, शतपदगामी सोरुक्३। (बाईं करवट सोने वाला, और भोजन के बाद सौ कदम चलनेवाला कभी बीमार नहीं होता)।
 
भुक्त्वा शतपदं गच्छेत् , कोरुक् ३?(बीमार कौन नहीं होता?) वामशायी, शतपदगामी सोरुक्३। (बाईं करवट सोने वाला, और भोजन के बाद सौ कदम चलनेवाला कभी बीमार नहीं होता)।
  
उपर्युक्त इन वचनों के अनुसार
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उपर्युक्त इन वचनों के अनुसार धीरे-धीरे सौ कदम चलना चाहिये। इससे यथायोग्य रक्तसंचलन होनेसे भोजनकी परिपाक-क्रियामें सहायता मिलती है। तेज चलनेसे भी रक्तसंचलनकी गति बढ जाने से भोजन जल्दी भस्म हो जाता है जिससे बहुत हानि होती है। यदि भोजन करके एकदम बैठ जाने से पेट बडा होने की संभावना एवं शयन करने से पाकक्रिया न हो सकने से अजीर्ण हो जाता है।<ref>धर्मशास्त्र का इतिहास,उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान,डॉ०पाण्डुरंग वामन काणे,१९९२(पृ०३३४)।</ref>
  
 
== भोजनमें मौनका विज्ञान ==
 
== भोजनमें मौनका विज्ञान ==
 
भोजनमें मौन रहने का रहस्य है कि- भोजन करते हुये लार हमारे मुखमें उत्पन्न होती है, उससे भोजन की परिपचनक्रिया सम्पन्न होती है। उस समय यदि बातचीत हो जाये तो वह लार भोजनके लिये पर्याप्त मात्रामेंन बन सकेगी। क्योंकि उसका कुछ उपयोग बोलने में भी होगा। इससे मुखके सूखने पर बीच-बीचमें पानी पीना पडेगा, जिससे वातदोष की उत्पत्ति हो सकती है। अर्थात् मन सदा एक इन्द्रिय के साथ होता है। दूसरी इन्द्रियों के साथ उसे बलात् जोडनेमें कई हानियाँ तथा भोजनकी अनपच हो सकती है।
 
भोजनमें मौन रहने का रहस्य है कि- भोजन करते हुये लार हमारे मुखमें उत्पन्न होती है, उससे भोजन की परिपचनक्रिया सम्पन्न होती है। उस समय यदि बातचीत हो जाये तो वह लार भोजनके लिये पर्याप्त मात्रामेंन बन सकेगी। क्योंकि उसका कुछ उपयोग बोलने में भी होगा। इससे मुखके सूखने पर बीच-बीचमें पानी पीना पडेगा, जिससे वातदोष की उत्पत्ति हो सकती है। अर्थात् मन सदा एक इन्द्रिय के साथ होता है। दूसरी इन्द्रियों के साथ उसे बलात् जोडनेमें कई हानियाँ तथा भोजनकी अनपच हो सकती है।
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मौन भोजन-
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भोजन करते समय अत्यन्त शंत ओर मोन रहना चाहिए। शीत्कार, हूँ, खांसने का शब्द नहीं करना चाहिए।
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मौनेनान्नं तु भोजयेत् - ब्रह्मपुराण।
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स्नान करते समय मौन रहना चाहिए। हवन करते समय मौन रहना चाहिए। भोजन करते समय मौन रहना चाहिए। स्नान के समय बोलने से शक्ति का ह्रास होता है। हवन के समय बोलने से शोभा (कान्ति) का ह्रास होता है और भोजन करते समय बोलने से आयु का ह्रास होता है-<blockquote>स्नास्यते वरुणः शक्तिं जुह्वतोऽग्निर्हरेत् श्रियम्। भुञ्जतो मृत्युरायुष्यं तस्मान्मौनव्रतं चरेत् ॥</blockquote>
  
 
== भोजन के आयुर्वेदीय अंश ==
 
== भोजन के आयुर्वेदीय अंश ==
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पथ्यम्
 
पथ्यम्
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=== पैर धोकर भोजन करना ===
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भोजन करने के पूर्व शास्त्रानुसार पैरों को धुल लेना चाहिये। पैर धोनेसे बुद्धि की पवित्रता, दरिद्रता का विनाश और परिश्रम जनित दुख का निवारण होता है तथा यह आयु को हितकर भी है। जैसाकि पैर धोने के विषयमें मनुजी लिखते हैं-
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आर्द्रपादस्तु भुञ्जीत नार्द्रपादस्तु संविशेत् । आर्द्रपादस्तु भुञ्जानो दीर्घमायुरवाप्नुयात् ॥(मनु० ४/७३)
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अर्थात् गीले पैर से भोजन करना चाहिये, गीले पैर से सोना नहीं चाहिये।
  
 
==== योगासन और भोजन ====
 
==== योगासन और भोजन ====
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==== उपवास के वैज्ञानिक अंश ====
 
==== उपवास के वैज्ञानिक अंश ====
  
== उद्धरण ==
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== भोजन में वर्जित कर्म ==
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दक्षिण मुख भोजन न करें- न दक्षिणाभिमुखं भुजीत।
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हयेली मे भोजन न करे न तु पाणितले भुक्ते।
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पुत्कार पूर्वक भोजन न करे न तु फूत्कारसयुतम् ।
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उंगली फेला कर भोजन न करे न च प्रसृताङ्कलिभिः।
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अपच में भोजन न करे नाजीर्णे भोजनं कुर्यात् ..
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अतिनुभुक्षित होने पर अन्न न खाये (रस लें) स्याच्चनातिबुमुक्षितः।
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हाथी-घोड़ा-रथ-सवारी-ञट-महल के छत पर चढ़कर भोजन न करें-
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हस्त्यश्चरथयानोष्टप्रासादस्थो न भक्षयेत् ।
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समृशान मे भोजन न करे शमशानाभ्यन्तरगतो।
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देवालय में भोजन न करे देवालयगतोऽपि वा।
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नौका में बैठ कर भोजन न करे न नावि भुङ्धीत।
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शयन करते (सोते) हए भोजन न करे शयनस्थो न भुञ्जीत।
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हथेली में, पूजन के आसन पर, शयनीय आसन पर बेठ कर भोजन न
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करे न पाणिस्थं न चासने।
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प्रातः सान्ध्यवेला-मध्याहवेला ८१२ बजे दिन)- रात्रय्धवेला (१२ बजे रात)
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मे भोजन न करे न सन्ध्ययोर्न मध्याह्ने नार्धरात्रे कदाचन।
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गीला कपड़ा पहन कर भोजन न करे नार्द्रवासा।
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गीला सिर भोजन न करे | नार्द्रशिरा।
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यज्ञोपवीत रहित होकर भोजन न करं नचायज्ञोपवीतवान् ।
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पैर फैलाकर भोजन न करे न प्रसारितपादस्तु!
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पैरों पर हाथ रख कर भोजन न करे पादारोपितपाणिमान् ।
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अन्र के ऊपर बैठ कर भोजन न कर नावसिक्त सस्थश्च।
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पलंग पर बैठ कर भोजन न करे न पर्यकिकास्थितः।
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सिर टंक कर, पगड़ी बोधकर भोजन न करे न वेष्टितशिराश्चापि।
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उत्संग (गोद) में रखकर भोजन न करे नोत्संगकृतभाजनः।
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एक वख पहन कर भोजन न करे नैक वख्रो।
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दुष्टों के बीच भोजन न करे न दुष्टमध्ये।
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जूता-चप्पल पहन कर भोजन न करे न सोपानत्कः।
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खड़ाऊं पहन कर भोजन न करे न सपादुकः।
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चर्म आसन पर बैठ कर भोजन न करे न चर्मोपरिसस्थश्च।
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पलई, कमर मे चमड़ा (बेल्ट) बोधकर भोजन न करे-चम्विष्टितपार््धवान् ।
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बाल ओर कौड़ी से युक्त भोजन न करे न केशकीटावपन्नम् ।
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अन्न की निदान करे नान्नस्य जन्मकालुष्यम् ।
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भोजन पंक्ति की निदान करे न पंक्ति च विकुत्सयेत् ।
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ग्रास (कोर) से बचा अन्न न खाये ्रासशोषं नाश्नीयात् वे।
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त भोजन १५३
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अंजलि से जल नहीं पीना चाहिए-
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जलं पिबेनाञ्जलिना, याज्ञवल्क्यः, न वार्यञ्जलिना पिबेत् , मनुस्मृतिः।
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खड़ा हां कर जल नहीं पीना चाहिए-
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- न जलरं पिबेत् - स्कन्दपुराणम् , ब्रह्मपुराणम् ।
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वाये हाथ से जल नहीं पीना चाहिए। यह सुरापान की तरह माना गया हे
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उत्थाय वामहस्तेन यत्तोयं पिबति द्विजः।
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सुरापी च स विज्ञेयः सर्वधर्मबहिष्कृतः। । ब्रह्मवै. २७/२४।।
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पानी पीते समय यदि मुंह से निकल कर भोजन थाल में गिर जाय तो
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उस भोजन को नहीं खाना चाहिए- .
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पिवतः पतिते तोये भोजनं मुखनिःसुते।
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अभोज्यं तद् विजुनीयाद् भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् । । महाभारत।।
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बछड़ों के हिस्से का दृध थन से पूरी तरह निकाल कर जो पीता है उसके
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पानी पीते समय यदि मुंह से निकल कर भोजन थाल में गिर जाय तो
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उस भोजन को नहीं खाना चाहिए- .
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पिवतः पतिते तोये भोजनं मुखनिःसुते।
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अभोज्यं तद् विजुनीयाद् भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् । । महाभारत।।
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बछड़ों के हिस्से का दृध थन से पूरी तरह निकाल कर जो पीता है उसके
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वंश का नाश हो जाता हं
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क्षीर तु बालवत्साना ये पिवन्तीह मानवाः।
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न तेषां क्षीरपाः केचिद् जायन्ते कुलवर्धनाः ।
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महाभारत, अनुशासनपर्व, ९२५/६६।।
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साधक, योगी, ब्रह्मचारी को भस का दुध नहीं पीना चाहिए-
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अभक्ष्यं महिषीणां च दुग्धं दधि धृतं तथा।
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मुख से निकले शेष जल को न पि्ये। थोड़ा जल लें ओर उसे पूरा पि्े-
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पीतशेषं पिबेन् न च।
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नासी (रात्रि का शेष) भोजन न करे न पर्युषितम् । शीतलाष्टमी का
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नासी भोजन करना धर्मकृत्य है- पर्युषितान्नपानादिकमत्र विहितम् ।
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फल-शाक-मूल-ईख को भोजन करते समय दात से न काटे; बल्कि चाकू
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आदि से इसे काट कर खाये-
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शाकमूलफलेश्ष्वादि दन्तच्छेदैर्न भक्षयेत् ।
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अनेक लोगों के साथ भोजन करते समय तेजी से न खायं-
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बहूनामश्नतां मध्ये न चाश्नीयात् त्वरान्वितः।
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रजस्वला द्वारा बनाया हुआ या छुआ हआ भोजन नहीं करना चाहिए। कौआ
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द्वारा जूढा किया हुआ तथा पैर से दुकराया हआ अन्न नहीं खाना चाहिए-
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रजस्वलाकृष्णशकुनिपदोपहतम् ।। गौतमस्मृतिः १७/२।।
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== बाहर भोजन कब लें? ==
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विपत्ति में, प्रवास काल में और सादर निमन्त्रण प्राप्त होने पर विचार पूर्वक निर्णय लेकर ही बाहर भोजन करना चाहिए। अनावश्यक ही दुकान से, घूम कर बेचने वालों से खाद्य पदार्थं खरीद कर नहीं खाना चाहिए।
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परान्न (दूसरो का अन्न) खाने वाला अपना तप खाता है। निरंतर दूसरों के घर भोजन करने वाला उस घर के पाप कृत्यों का भागी बनता है। भगवान् श्रीकृष्ण को राजा दुर्योधन ने भोजन पर बुलाया, पर उन्होने भोजन पर आने से मना कर दिया। भगवान् श्रीकृष्णने दुर्योधन के घर भोजन न करने का जो कारण बतलाया वह इस प्रकार है-<blockquote>सप्रीतिभोज्यान्यन्नानि आपद् भोज्यानि वा पुनः। न च सप्रीयसे राजन्! न चैवापद् गता वयम् ॥(उद्योगपर्व ९१/२५)</blockquote>किसी अन्य व्यक्ति के घर भोजन दो परिस्थितियों में किया जाता हे, संप्रीति होने पर या विपत्ति में फंसे होने पर। हे राजन् ! हमारी आपकी संप्रीति नहीं है। न तो मैं किसी विपत्ति में हूँ।
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== स्वभोजन का त्याग न करना ==
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यदि अपने घर में भोजन बन कर तैयार हो और बाहर का कोई व्यक्ति आकर निमन्रण दे या भोजन करने का दबाव बनाये तो भी स्वपाक का परित्याग नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति स्वपाक का त्याग करके परपाक का ग्रहण करता है वह अश्व, शूकर या कुत्ते की योनि में उत्पन्न होता है-<blockquote>स्वपाके वर्तमाने यः परपाकं निषेवते। सोऽश्वत्वं शूकरत्वं च गर्दभत्वं च गच्छति।।</blockquote>दूसरे के घर का सामान्यतः भोजन नहीं करना चाहिए। व्रत रखकर कभी भी दूसरे के घर पारण नहीं करना चाहिए। अन्यथा व्रत का पुण्य अन्नदाता को प्राप्त हो जाता है।<ref>डा० कामेश्वर उपाध्याय, हिन्दू जीवन पद्धति, सन् २०११, प्रकाशन- त्रिस्कन्धज्योतिषम् , पृ० १६२।</ref>
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=== श्रद्धापूर्वक दिया भोजन स्वीकार करना ===
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जो व्यक्ति जिस प्रवृत्ति का होता है उसका अन्न वैसा ही फल देता है। अतः सोच विचार कर दूसरों के घर का भोजन करना चाहिए-<blockquote>दुष्कृतं हि मनुष्यस्य अन्नमाश्रित्य तिष्ठति। यो यस्यान्नमिहाश्नाति स तस्याश्नाति किल्विषम् ॥(वीरमित्रोदयः)</blockquote>अपने गुरु और पूज्य भी यदि सत्कार रहित, उपेक्षाभाव से भोजन करायें तो नहीं करना चाहिए-<blockquote>गुरोरपि न भोक्तव्यमन्नं सत्कारवर्जितम् ॥(वीरमित्रोदयः)</blockquote>श्रद्धापूर्वक दिया हुआ अन्न खाना चाहिए- चाहे वह चोर का ही अन्न क्यों न हो-<blockquote>श्रदधानस्य भोक्तव्यं चौरस्यापि विशेषतः॥(वीरमित्रोदयः)</blockquote>
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== उद्धरण॥ References ==

Revision as of 12:33, 28 February 2023

भारतीय संस्कृतिमें प्रत्येक दैनिक कर्म विधि-विधानसे पूर्ण किया जाता है। भोजन ग्रहण करने हेतु भी शास्त्रों में भोजनविधि का वर्णन किया गया है। शास्त्रोक्त विधिसे भोजन करने पर आयु, सुख एवं

आजकल सहभोज (बफेपार्टी) आदि जो भी प्रचलित हैं वह शास्त्रीय भोजन पद्धति का अनुसरण नहीं करती है। जिसमें स्पर्शदोष, दृष्टिदोष, भोजनस्थल की पवित्रता आदि का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखा जाता है। जिसके फलस्वरूप अजीर्ण आदि शरीरमें बहुविधरोग होने लगते हैं।

परिचय

भारतीय धर्म चार आचार-विचार, आहार तथा व्यवहार इन चार वस्तुओं पर निर्भर है। इनमें आहारकी तो मुख्यता है ही क्योंकि प्रसिद्ध है-

जैसा खावे अन्न, वैसा होवे तन और मन।

अर्थात् जैसा आहार होगा वैसे मन और बुध्दि होंगे। जैसे मन और बुद्धि होंगे वैसे विचार होंगे। जैसे विचार होंगे वैसे ही आचरण होंगे। जैसे आचरण होंगे वैसा ही दूसरोंसे व्यवहार होगा। यदि व्यवहार-शुद्धि है तो कोई अशान्ति या अव्यवस्था नहीं हो पाती। इन्हीं हेतुओं के कारण से ही सनातनधर्ममें भोजन का संबंध धर्मके साथ स्थापित किया गया है-

अन्नदोषाच्च मृत्युर्विप्रान् जिघांसति।(मनु ५/४)

अन्न दोषके कारण ही मृत्युकी प्राप्ति होती है।

भोजन विधि का महत्व

आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः, सत्त्वशुद्धौ ध्रुवास्मृतिः। स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः।(छा०उप०-७/२६/२)

क्षेत्र शुद्धि

द्रव्य शुद्धि

द्रव्यभी भोजन विधि के गुणों को प्रभावित करता है। अनीति, अनाचार, चोरी, तस्करी, गबन तथा लूटसे प्राप्त धन पापसे ग्रसित होनेके कारण भोजन को उच्छिष्ट बना देता है। ऐसे धनसे तैयार किया गया भोजन तामसी गुणोंको उत्पन्नकर भोजन ग्रहण करने वाले के तन और मनको दुष्प्रभावित कर देता है। यह दुष्प्रभाव भोजन ग्रहण करने वाले के आचार-व्यवहार, चालचलन, चिन्तन-मनन और कर्ममें स्पष्ट दिखायी पडता है।

महाभारतमें भीष्मपितामहजी का चरित्र इसका प्रबल प्रमाण है। अतः मेहनत और ईमानदारीसे अर्जित द्रव्यसे तैयार भोजन ही सात्त्विक और आरोग्यप्रद होता है।

काल शुद्धि

कालशुद्धिसे तात्पर्य उस समय-कालसे है, जिसमें भोजन ग्रहण करना स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद हो। स्वस्थ लोगों को प्रातः एवं सायं दो बार पूर्ण आहार ग्रहण करना चाहिये, इसके मध्य भोजन नहीं करना चाहिये। यह विधि अग्निहोत्र के समान है-

सायं प्रातर्मनुष्याणामशनं श्रुतिबोधितम् । नान्तरा भोजनं कुर्यादग्निहोत्र समो विधिः॥

प्रातःकाल और सायं- दोनों भोजनोंके बीच कम-से-कम दो याम या प्रहर(एक याम या प्रहर तीन घण्टेका होता है)- का अन्तर रहे। इससे अन्नरसका परिपाक भलीभाँति होता है। इससे अधिक विलम्ब करने पर पूर्व संचित बलका क्षय होता है।

याममध्ये न भोक्तव्यं यामयुग्मं न लंघयेत् । याममध्ये रसोत्पत्तिर्यामयुग्माद्बलक्षयः॥

आचार्य वाग्भट् जी के अनुसार भोजन करनेका उचित अवसर वह है, जब व्यक्ति मल मूत्र त्यागके उपरान्त अपनेको हलका महसूस करे, ठीकसे डकार आ जाय, भूख लग जाय और भोजनके प्रति रुचि जाग्रत् हो जाय। इस प्रकार से भोजन विधि में कालशुद्धि का होना भी आवश्यक माना गया है।

भाव शुद्धि

क्रियाशुद्धि से तात्पर्य वे सभी कर्तव्य या क्रियाएँ हैं, जो आहारके लिये द्रव्योंके चयन, पाकसंस्कार और ग्रहण करने हेतु व्यक्तिद्वारा सम्पन्न की जाती है।

अन्न शुद्धि

भोजनसामग्री की शुद्धता

एकान्तस्थानमें भोजन की आवश्यकता

भोजन उपरान्त की क्रियाऐं

भुक्त्वा शतपदं गच्छेत् , कोरुक् ३?(बीमार कौन नहीं होता?) वामशायी, शतपदगामी सोरुक्३। (बाईं करवट सोने वाला, और भोजन के बाद सौ कदम चलनेवाला कभी बीमार नहीं होता)।

उपर्युक्त इन वचनों के अनुसार धीरे-धीरे सौ कदम चलना चाहिये। इससे यथायोग्य रक्तसंचलन होनेसे भोजनकी परिपाक-क्रियामें सहायता मिलती है। तेज चलनेसे भी रक्तसंचलनकी गति बढ जाने से भोजन जल्दी भस्म हो जाता है जिससे बहुत हानि होती है। यदि भोजन करके एकदम बैठ जाने से पेट बडा होने की संभावना एवं शयन करने से पाकक्रिया न हो सकने से अजीर्ण हो जाता है।[1]

भोजनमें मौनका विज्ञान

भोजनमें मौन रहने का रहस्य है कि- भोजन करते हुये लार हमारे मुखमें उत्पन्न होती है, उससे भोजन की परिपचनक्रिया सम्पन्न होती है। उस समय यदि बातचीत हो जाये तो वह लार भोजनके लिये पर्याप्त मात्रामेंन बन सकेगी। क्योंकि उसका कुछ उपयोग बोलने में भी होगा। इससे मुखके सूखने पर बीच-बीचमें पानी पीना पडेगा, जिससे वातदोष की उत्पत्ति हो सकती है। अर्थात् मन सदा एक इन्द्रिय के साथ होता है। दूसरी इन्द्रियों के साथ उसे बलात् जोडनेमें कई हानियाँ तथा भोजनकी अनपच हो सकती है।

मौन भोजन-

भोजन करते समय अत्यन्त शंत ओर मोन रहना चाहिए। शीत्कार, हूँ, खांसने का शब्द नहीं करना चाहिए।

मौनेनान्नं तु भोजयेत् - ब्रह्मपुराण।

स्नान करते समय मौन रहना चाहिए। हवन करते समय मौन रहना चाहिए। भोजन करते समय मौन रहना चाहिए। स्नान के समय बोलने से शक्ति का ह्रास होता है। हवन के समय बोलने से शोभा (कान्ति) का ह्रास होता है और भोजन करते समय बोलने से आयु का ह्रास होता है-

स्नास्यते वरुणः शक्तिं जुह्वतोऽग्निर्हरेत् श्रियम्। भुञ्जतो मृत्युरायुष्यं तस्मान्मौनव्रतं चरेत् ॥

भोजन के आयुर्वेदीय अंश

(मित भुक हित भुक ऋत भुक)

पथ्यम्

पैर धोकर भोजन करना

भोजन करने के पूर्व शास्त्रानुसार पैरों को धुल लेना चाहिये। पैर धोनेसे बुद्धि की पवित्रता, दरिद्रता का विनाश और परिश्रम जनित दुख का निवारण होता है तथा यह आयु को हितकर भी है। जैसाकि पैर धोने के विषयमें मनुजी लिखते हैं-

आर्द्रपादस्तु भुञ्जीत नार्द्रपादस्तु संविशेत् । आर्द्रपादस्तु भुञ्जानो दीर्घमायुरवाप्नुयात् ॥(मनु० ४/७३)

अर्थात् गीले पैर से भोजन करना चाहिये, गीले पैर से सोना नहीं चाहिये।

योगासन और भोजन

अनारोग्य अवस्था में भोजन विधि

आधुनिक भोजन विधान

स्वल्पाहार,आहार,पूर्णाहर

उपवास के वैज्ञानिक अंश

भोजन में वर्जित कर्म

दक्षिण मुख भोजन न करें- न दक्षिणाभिमुखं भुजीत।

हयेली मे भोजन न करे न तु पाणितले भुक्ते।

पुत्कार पूर्वक भोजन न करे न तु फूत्कारसयुतम् ।

उंगली फेला कर भोजन न करे न च प्रसृताङ्कलिभिः।

अपच में भोजन न करे नाजीर्णे भोजनं कुर्यात् ..

अतिनुभुक्षित होने पर अन्न न खाये (रस लें) स्याच्चनातिबुमुक्षितः।

हाथी-घोड़ा-रथ-सवारी-ञट-महल के छत पर चढ़कर भोजन न करें-

हस्त्यश्चरथयानोष्टप्रासादस्थो न भक्षयेत् ।

समृशान मे भोजन न करे शमशानाभ्यन्तरगतो।

देवालय में भोजन न करे देवालयगतोऽपि वा।

नौका में बैठ कर भोजन न करे न नावि भुङ्धीत।

शयन करते (सोते) हए भोजन न करे शयनस्थो न भुञ्जीत।

हथेली में, पूजन के आसन पर, शयनीय आसन पर बेठ कर भोजन न

करे न पाणिस्थं न चासने।

प्रातः सान्ध्यवेला-मध्याहवेला ८१२ बजे दिन)- रात्रय्धवेला (१२ बजे रात)

मे भोजन न करे न सन्ध्ययोर्न मध्याह्ने नार्धरात्रे कदाचन।

गीला कपड़ा पहन कर भोजन न करे नार्द्रवासा।

गीला सिर भोजन न करे | नार्द्रशिरा।

यज्ञोपवीत रहित होकर भोजन न करं नचायज्ञोपवीतवान् ।

पैर फैलाकर भोजन न करे न प्रसारितपादस्तु!

पैरों पर हाथ रख कर भोजन न करे पादारोपितपाणिमान् ।

अन्र के ऊपर बैठ कर भोजन न कर नावसिक्त सस्थश्च।

पलंग पर बैठ कर भोजन न करे न पर्यकिकास्थितः।

सिर टंक कर, पगड़ी बोधकर भोजन न करे न वेष्टितशिराश्चापि।

उत्संग (गोद) में रखकर भोजन न करे नोत्संगकृतभाजनः।

एक वख पहन कर भोजन न करे नैक वख्रो।

दुष्टों के बीच भोजन न करे न दुष्टमध्ये।

जूता-चप्पल पहन कर भोजन न करे न सोपानत्कः।

खड़ाऊं पहन कर भोजन न करे न सपादुकः।

चर्म आसन पर बैठ कर भोजन न करे न चर्मोपरिसस्थश्च।

पलई, कमर मे चमड़ा (बेल्ट) बोधकर भोजन न करे-चम्विष्टितपार््धवान् ।

बाल ओर कौड़ी से युक्त भोजन न करे न केशकीटावपन्नम् ।

अन्न की निदान करे नान्नस्य जन्मकालुष्यम् ।

भोजन पंक्ति की निदान करे न पंक्ति च विकुत्सयेत् ।

ग्रास (कोर) से बचा अन्न न खाये ्रासशोषं नाश्नीयात् वे।

त भोजन १५३

अंजलि से जल नहीं पीना चाहिए-

जलं पिबेनाञ्जलिना, याज्ञवल्क्यः, न वार्यञ्जलिना पिबेत् , मनुस्मृतिः।

खड़ा हां कर जल नहीं पीना चाहिए-

- न जलरं पिबेत् - स्कन्दपुराणम् , ब्रह्मपुराणम् ।

वाये हाथ से जल नहीं पीना चाहिए। यह सुरापान की तरह माना गया हे

उत्थाय वामहस्तेन यत्तोयं पिबति द्विजः।

सुरापी च स विज्ञेयः सर्वधर्मबहिष्कृतः। । ब्रह्मवै. २७/२४।।

पानी पीते समय यदि मुंह से निकल कर भोजन थाल में गिर जाय तो

उस भोजन को नहीं खाना चाहिए- .

पिवतः पतिते तोये भोजनं मुखनिःसुते।

अभोज्यं तद् विजुनीयाद् भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् । । महाभारत।।

बछड़ों के हिस्से का दृध थन से पूरी तरह निकाल कर जो पीता है उसके

पानी पीते समय यदि मुंह से निकल कर भोजन थाल में गिर जाय तो

उस भोजन को नहीं खाना चाहिए- .

पिवतः पतिते तोये भोजनं मुखनिःसुते।

अभोज्यं तद् विजुनीयाद् भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् । । महाभारत।।

बछड़ों के हिस्से का दृध थन से पूरी तरह निकाल कर जो पीता है उसके

वंश का नाश हो जाता हं

क्षीर तु बालवत्साना ये पिवन्तीह मानवाः।

न तेषां क्षीरपाः केचिद् जायन्ते कुलवर्धनाः ।

महाभारत, अनुशासनपर्व, ९२५/६६।।

साधक, योगी, ब्रह्मचारी को भस का दुध नहीं पीना चाहिए-

अभक्ष्यं महिषीणां च दुग्धं दधि धृतं तथा।

मुख से निकले शेष जल को न पि्ये। थोड़ा जल लें ओर उसे पूरा पि्े-

पीतशेषं पिबेन् न च।

नासी (रात्रि का शेष) भोजन न करे न पर्युषितम् । शीतलाष्टमी का

नासी भोजन करना धर्मकृत्य है- पर्युषितान्नपानादिकमत्र विहितम् ।

फल-शाक-मूल-ईख को भोजन करते समय दात से न काटे; बल्कि चाकू

आदि से इसे काट कर खाये-

शाकमूलफलेश्ष्वादि दन्तच्छेदैर्न भक्षयेत् ।

अनेक लोगों के साथ भोजन करते समय तेजी से न खायं-

बहूनामश्नतां मध्ये न चाश्नीयात् त्वरान्वितः।

रजस्वला द्वारा बनाया हुआ या छुआ हआ भोजन नहीं करना चाहिए। कौआ

द्वारा जूढा किया हुआ तथा पैर से दुकराया हआ अन्न नहीं खाना चाहिए-

रजस्वलाकृष्णशकुनिपदोपहतम् ।। गौतमस्मृतिः १७/२।।

बाहर भोजन कब लें?

विपत्ति में, प्रवास काल में और सादर निमन्त्रण प्राप्त होने पर विचार पूर्वक निर्णय लेकर ही बाहर भोजन करना चाहिए। अनावश्यक ही दुकान से, घूम कर बेचने वालों से खाद्य पदार्थं खरीद कर नहीं खाना चाहिए।

परान्न (दूसरो का अन्न) खाने वाला अपना तप खाता है। निरंतर दूसरों के घर भोजन करने वाला उस घर के पाप कृत्यों का भागी बनता है। भगवान् श्रीकृष्ण को राजा दुर्योधन ने भोजन पर बुलाया, पर उन्होने भोजन पर आने से मना कर दिया। भगवान् श्रीकृष्णने दुर्योधन के घर भोजन न करने का जो कारण बतलाया वह इस प्रकार है-

सप्रीतिभोज्यान्यन्नानि आपद् भोज्यानि वा पुनः। न च सप्रीयसे राजन्! न चैवापद् गता वयम् ॥(उद्योगपर्व ९१/२५)

किसी अन्य व्यक्ति के घर भोजन दो परिस्थितियों में किया जाता हे, संप्रीति होने पर या विपत्ति में फंसे होने पर। हे राजन् ! हमारी आपकी संप्रीति नहीं है। न तो मैं किसी विपत्ति में हूँ।

स्वभोजन का त्याग न करना

यदि अपने घर में भोजन बन कर तैयार हो और बाहर का कोई व्यक्ति आकर निमन्रण दे या भोजन करने का दबाव बनाये तो भी स्वपाक का परित्याग नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति स्वपाक का त्याग करके परपाक का ग्रहण करता है वह अश्व, शूकर या कुत्ते की योनि में उत्पन्न होता है-

स्वपाके वर्तमाने यः परपाकं निषेवते। सोऽश्वत्वं शूकरत्वं च गर्दभत्वं च गच्छति।।

दूसरे के घर का सामान्यतः भोजन नहीं करना चाहिए। व्रत रखकर कभी भी दूसरे के घर पारण नहीं करना चाहिए। अन्यथा व्रत का पुण्य अन्नदाता को प्राप्त हो जाता है।[2]

श्रद्धापूर्वक दिया भोजन स्वीकार करना

जो व्यक्ति जिस प्रवृत्ति का होता है उसका अन्न वैसा ही फल देता है। अतः सोच विचार कर दूसरों के घर का भोजन करना चाहिए-

दुष्कृतं हि मनुष्यस्य अन्नमाश्रित्य तिष्ठति। यो यस्यान्नमिहाश्नाति स तस्याश्नाति किल्विषम् ॥(वीरमित्रोदयः)

अपने गुरु और पूज्य भी यदि सत्कार रहित, उपेक्षाभाव से भोजन करायें तो नहीं करना चाहिए-

गुरोरपि न भोक्तव्यमन्नं सत्कारवर्जितम् ॥(वीरमित्रोदयः)

श्रद्धापूर्वक दिया हुआ अन्न खाना चाहिए- चाहे वह चोर का ही अन्न क्यों न हो-

श्रदधानस्य भोक्तव्यं चौरस्यापि विशेषतः॥(वीरमित्रोदयः)

उद्धरण॥ References

  1. धर्मशास्त्र का इतिहास,उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान,डॉ०पाण्डुरंग वामन काणे,१९९२(पृ०३३४)।
  2. डा० कामेश्वर उपाध्याय, हिन्दू जीवन पद्धति, सन् २०११, प्रकाशन- त्रिस्कन्धज्योतिषम् , पृ० १६२।