Difference between revisions of "Introduction to Bharatiya Kalas - Part 2 (कलाओं का संक्षिप्त परिचय)"
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काव्यसमस्यापूरणम् ॥ Kavya samasya purana
समस्यापूर्ति या पादपूर्ति प्राचीन भारत की एक मनोरंजक काव्य-क्रीडा रही है जिसमें समस्या के रूप में दिये गये किसी एक पाद (चरण) के आधार पर शेष तीन चरणों की रचना करनी होती है। आशुकवि इस कला में विशेष निपुण होते थे। इस कला के माध्यम से काव्यरचना का अभ्यास, मनोरंजन और राजसभाओं में सम्मान की प्राप्ति होती थी। गोष्ठी समवायों में ऐसी काव्य समस्यायों की पूर्ति नागरकवृत्त का एक सहज अंग था
पट्टिकावेत्रवाणविकल्पाः ॥ Pattikavetravana vikalpa
बाँस की बारीक पट्टियों, सरकण्डे की तीलियों तथा बेंत से कलात्मक उपकरण बनाना भी एक कला है। यजुर्वेद में बेंत और बाँस का काम करने वाले स्त्री-पुरुष को विदलकारी तथा विदलकार कहा गया है। अर्थशास्त्र के अनुसार बेंत और बाँस से मोटी रस्सियाँ बनाई जाती थीं जिन्हें वरत्र कहा जाता था। इनका उपयोग कवच बनाने के लिये होता था। रामायण के अनुसार बाँस का काम करने वाले शिल्पी वंशकृत कहे जाते थे। सैन्ययात्रा आदि के प्रसंग में रथकार, इषुकार आदि शिल्पियों के साथ ये वंशकार भी चलते थे। सैन्य शिविर की रचना एवं शय्या- आसन आदि आवश्यक वस्तुओं को तत्काल तैयार करने में इनका नैपुण्य परिलक्षित होता था। संस्कृत साहित्य में इस कला से निर्मित इन वस्तुओं के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं - वेत्रासन, आसन्दी, वेत्रपट्टिका (शीतल पाटी), करण्डक, पिटारी, पिंजर, यष्टि, तितउ (चलनी), शरशलाका यन्त्र (सरकण्डों का पीढ़ा) आदि । वेत्र के सुन्दर आसन, आसन्दी, चटाइयाँ और पिटारियाँ राजभवनों तक पहुँचती थीं।
तर्कूकर्माणि ॥ Tarkukarma
तक्षणम् ॥ Takshana
तक्षू (काटना या छीलना ) धातु से निष्पन्न तक्षण शब्द का अर्थ है-लकड़ी को काट-छील कर आसन, रथ आदि बनाने की कला, जिसे वर्धकीकर्म, दारुकर्म तथा काष्ठविधि भी कहा गया है। वैदिक सन्दर्भों में तक्षणकार्य करने वाले शिल्पी की संज्ञा तक्षा थी। साहित्य में तक्षणशिल्प के निम्न उदाहरण प्राप्त होते हैं-अष्टास्र यूप, स्तम्भ, शयन, तल्प, पर्यङ्क, सिंहासन, पीठ, पीठिका, शिबिका, रथ
एवं नौका । प्राचीन भारत में इस कला ने एक व्यवस्थित व्यवसाय या उद्योग का रूप ले लिया था। सभी प्रकार के काष्ठकर्म के लिये लकड़ी का चयन अत्यंत सावधानी से किया जाता था। काष्ठचयन से लेकर उपकरणनिर्माण तक निर्दोषता तथा शुभ-अशुभ का विशेष ध्यान रखा जाता था। एक कुशल शिल्पी के रूप में स्थपति का यह कर्तव्य माना जाता था कि वह ऐसी कलाकृति का सर्जन करें जो-सुश्लिष्ट, दृढ, स्थिर, निर्दोष और सुन्दर वर्ण (पॉलिश) से आकर्षक हो।
सुश्लिष्टां तामतः कुर्यान्निर्दोषां वर्णनशालिनीम् । दृढां स्थिरां च स्थपतिः पत्युः कामविवृद्धये ।।
वास्तुविद्या ॥ Vastuvidya
वास्तुविद्या या भवननिर्माण कला का विस्तृत वर्णन विश्वकर्मा-वास्तुशास्त्र आदि शिल्पग्रंथों की विषयवस्तु के वर्णन प्रसंग में किया जा चुका है। स्थापत्य के आठ अंग माने गये थे-
- (i) वास्तुपुरुष-विकल्पना
- (ii) पुरविनिवेश
- (iii) प्रासाद-निवेश
- (iv) ध्वजोच्छ्रय
- (v) नृपति वेश्म
- (vi) चातुर्वर्ण्य-गृह-विभाग
- (vii) यज्ञशालानिर्माण
- (viii) राजशिविरनिवेश (दुर्गकर्म)।
इन अष्टांगों का ज्ञाता ही राजस्थपति पद का अधिकारी होता था।
रूप्यरत्नपरीक्षा ॥ Roopya ratna pariksha
कोशग्रंथों में रूप्य शब्द का प्रयोग रजत और स्वर्ण दोनों के लिये हुआ है। वज्र (हीरा), मुक्ता, प्रवाल (मूँगा), गोमेद, इन्द्रनील (नीलम), वैदूर्य, पुष्पराग (पुखराज), मरकत और माणिक्य महारत्न कहे गये हैं। रजत और स्वर्ण का उपयोग मुद्राओं के अतिरिक्त आभूषण, पात्र, छत्रदण्ड, तलवार की मूँठ, भवन-तोरण, प्रासाद- शिखर, सिंहासन, पादपीठ, पर्यङ्कपाद आदि की रचना के लिये होता था। रत्नों का सर्वाधिक उपयोग आभूषणों के रूप में होता था। राजकोश में संग्रह से पूर्व रूप्य एव रत्नों की भलीभाँति परीक्षा कर ली जाती थी। भूषा के अतिरिक्त ग्रहदोष, शान्ति, अनिष्टनिवारण, इष्टप्राप्ति आदि के लिये भी शुभ-अशुभ रत्नों की परीक्षा के बाद ही रत्न धारण किये जाते थे। रत्न श्रेष्ठता, गुणातिशयता और बहुमूल्यता का प्रतीक था। इस श्रेष्ठता को जाँचने की कला ही रूप्यरत्न-परीक्षा कही गई है।
प्रथमदृष्ट्या रजत और स्वर्ण की शुद्धता की परीक्षा उज्ज्वल वर्ण तथा स्निग्ध-कोमल स्पर्श से होती थी। अन्य परीक्षणें में कसौटी पर कसना तथा अग्नि में तपाना प्रमुख था । रत्नों की परीक्षा उनके गुण-दोषों के आधार पर की जाती थी, जिनका विस्तृत वर्णन अर्थशास्त्र, बृहत्संहिता, राजनिघण्टु आदि ग्रंथों में हुआ है।
धातुवादः ॥ Dhatuvada
स्वर्ण, रजत, ताम्र, रीति (पीतल), काँस्य, त्रपु ( रांगा), सीस (सीसा) और कालायस (लोहा) आदि धातुओं को खनि से निकालकर, शुद्ध करने, गलाने, मिलाने तथा इनसे विविध प्रकार के उपकरण, रसायन आदि बनाने का शिल्प 'धातुवाद' है। इस शिल्प के ज्ञाता को 'धातुवादविद्' कहा जाता था। धातुशोधन की प्रक्रिया वैदिक मन्त्रों से ही ज्ञात थी। कच्ची धातु को गलाकर लोहा, सोना आदि निकालने की प्रक्रिया का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में हुआ है
तस्मादश्मनोऽयो धमन्ति अयसो हिरण्यम् ।'
कर्मार (लुहार) धातुओं को गलाने के लिये धौंकनी का प्रयोग करता था। परवर्ती युग में ‘धातुवाद’ का शिल्प अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँचा था। भू-गर्भ में निहित धातुओं का मानवीय हित और समृद्धि के लिये उपयोग का यह शिल्प था।
मणिरागज्ञानम् ॥ Maniraga jnana
मणिराग (मणियों को रंगने) एवं उनके आकर अर्थात् स्रोत (उत्पत्तिस्थान) का ज्ञान भी प्राचीन भारत में एक कला मानी थी। अपने चिरस्थायी चमकदार रंग एवं प्रभामण्डल के कारण मणियाँ अनादिकाल से ही मानव को आकर्षित करती रही हैं। चूडामणि से लेकर नूपुर-मणि तक आभूषणों में इनका उपयोग हुआ है। मन्दिरों और राजभवनों को भी मणियों ने अपने रश्मिजाल से उद्भासित किया है। मणि शब्द का अभिप्राय उन बहुमूल्य चमकदार पत्थरों से है जो अन्धकार में प्रकाश बिखेरते हैं। कोशग्रंथों में मणि और रत्न को पर्यायवाची माना गया है तथा मुक्ता एवं प्रवाल को भी मणि कहा गया है। मणियों के अपने विशिष्ट रंग हैं। पद्म के समान लाल रंग की मणि पद्मराग कही जाती है। शुक, वंश-पत्र, कदली और शिरीष पुष्प के समान आभा वाली हरित वर्ण मणि की संज्ञा मरकत है। अतः मणि-राग का अभिप्राय स्फटिक या काचमणि को नाना रंगों में रंगकर पद्मराग आदि बहुमूल्य मणियों के समान वर्णशोभा को उत्पन्न करना है। मणि को रंगने की प्रक्रिया विज्ञान का अंग थी तो उनमें वर्णों की सुन्दर योजना कला का अंग। इसका प्रयोजन शोभा, भूषा और धन की प्राप्ति थी।
इस कला का द्वितीय पक्ष मणियों के आकर का ज्ञान था। कौटिल्य ने मणियों के तीन आकरों का उल्लेख किया है-खनि, स्रोत (जलप्रवाह) एवं प्रकीर्ण। महाकवि कालिदास ने 'न रत्नमन्विष्यति मृग्यते हि तत्' कहकर रत्न की बहुमूल्यता के साथ उसकी दुर्लभता को भी सूचित किया है। प्राचीन भारत ने इस शिल्प को एक व्यवसाय के रूप में विकसित किया था।
आकरज्ञानम् ॥ Akara jnana
वृक्षायुर्वेदयोगाः ॥ Vrkshayurveda yoga
मानव ने प्रकृति की जिस हरी-भरी गोद में जन्म लिया है; वनस्पति जगत के जिस अबदान से वह पुष्ट हुआ है; निसर्ग की जिस पावन सुन्दरता ने उसे मन की उदात्तता और विश्रान्ति दी है-उसी निसर्ग को अपने समीप बसा लेने की, आत्मीय बना लेने की कला है-वृक्षायुर्वेदयोग ।
आयुर्वेद का अर्थ है-आयु को देने वाला वेद या शास्त्र। वृक्षायुर्वेद वृक्षों को दीर्घायुष्य एवं स्वास्थ्य प्रदान करने वाला शास्त्र है। अतः यह वृक्षों के रोपण, पोषण, चिकित्सा एवं दोहद आदि के द्वारा मनचाहे फल, फूलों की समृद्धि को प्राप्त करने की कला है। इस कला का उद्देश्य है-मनोरम उद्यान या उपवन की रचना ।'
प्राचीन भारत में उद्यान, नगरनिवेश एवं भवन-वास्तु के अनिवार्य अंग माने गये थे। वराह के अनुसार उद्यानों से युक्त नगरों में देवता सर्वदा निवास करते हैं-
रमन्ते देवता नित्यं पुरेषूद्यानवत्सु च॥
इस कला के अन्तर्गत निम्न विषयों का निरूपण हुआ है-उपवनयोग्य भूमि का चयन, वृक्षरोपण के लिये भूमि तैयार करना, मांगलिक वृक्षों का प्रथम रोपण, पादप-संरोपण, पादप-सिंचन, वृक्ष-चिकित्सा, बीजोपचार, वृक्षदोहद, कतिपय अलौकिक प्रयोग आदि। वस्तुतः वृक्षायुर्वेदयोग विज्ञान और कला, प्रयोग और चमत्कार का रोचक समन्वय है।
मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधिः ॥ Mesha kukkutalavaka yuddhavidhi
यह प्राचीन भारत की एक मनोरंजक कला है जिसका अर्थ है- भेड़, मुर्गा और तीतर लड़ाने की कला। वात्स्यायन इसे कलाक्रीड़ा या कलात्मक विनोद कहते हैं। पशु-पक्षियों को लड़ाकर उनके युद्ध, घात-प्रतिघात, हार और जीत से उत्तेजना प्राप्त करने की प्रवृत्ति मानव में चिरन्तन से रही है। चीन-तुर्किस्तान की चंगबाजी और रोमन पशु-युद्ध का उन्माद विश्वप्रसिद्ध रहा है। प्राचीन भारत में इन क्रीडाओं के लिये हाथी, घोड़े आदि के साथ मेढ़े एवं शुक-सारिकाओं के साथ तीतर-लाव आदि पक्षी भी पाले जाते थे। राजभवनों के द्वितीय प्रकोष्ठ में इन पशुओं को तथा छठें प्रकोष्ठ में पक्षियों को रखा जाता था।
मृच्छकटिक में वसन्तसेना के भवन में ऐसे पशुओं की खातिरदारी एवं शिक्षा देखी जा सकती है जहाँ एक मल्ल के समान मेष की गर्दन पर मालिश की जा रही है, लावक पक्षियों को युद्ध का अभ्यास कराया जा रहा है। कादम्बरी में उज्जयिनी के राजकुल में हम ऐसा ही पक्षि-युद्ध देखते हैं। दशकुमारचरित में हाट में होने वाले कुक्कुट-युद्ध का एक रोचक वर्णन प्राप्त होता है।
ये युद्ध पण या बाजी लगाकर लड़े जाते थे। अतः इन्हें प्राणि-द्यूत संजीवद्यूत और समाहूवय भी कहा गया है।
यह शास्त्र और कौशल द्वारा पशु-पक्षियों को साधकर उनके युद्ध से उत्तेजना, जोश और वीर रस का आनन्द प्राप्त करने की कला है।
शुकसारिकाप्रलापनम् ॥ Shuka sarika pralapana
आकाशचारी विहग और इस धरती पर बसने वाले मानव के स्नेह संबंध से जो कला विकसित हुई है। उसे शुकसारिका-प्रलापन अर्थात् तोता-मैना को पढ़ाने की कला कहा गया है। नाना प्रकार के पक्षियों में से तोता-मैना इस प्रकार के पक्षी हैं जिनमें मनुष्य समान ध्वनियों के उच्चारण की क्षमता पाई जाती है। प्राचीन काल से आज तक भारतीय घरों में जिन पक्षियों को पाला जाता है, उनमें से प्रमुख हैं-शुक और उसकी संगिनी सारिका। प्राचीन भारत के इन वानिपुण पक्षियों ने राजभवनों, गणिकावाटों और नागरकों के गृहों के साथ ही गुरुकुलों और आश्रमों की शोभा भी बढ़ाई थी। उज्जयिनी के राजभवनों में निशा का अवसान शुक्र-सारिकाओं के मंगलगीतों से होता था। बौद्धभिक्षु दिवाकरमित्र के आश्रम में शुक्र-सारिकायें धर्मदेशना करते थे तो मीमांसक मण्डनमिश्र के घर में स्वतःप्रमाण और परतःप्रमाण पर शास्त्रार्थ शुक-सारिकाओं की इस योग्यता के तीन कारण माने गये थे -
- (i) पूर्व जन्मों के संचित संस्कार
- (ii) पुरुष का प्रयत्न और शिक्षा
- (iii) निरन्तर श्रवण
पोषित शुकों को विधिवत् शिक्षा दी जाती थी। नागरिक मध्याह्न भोजन के बाद अपने शयनगृह में आराम करता हुआ इन्हें बोलना सिखाता था। कन्यान्तःपुरों में इन्हें उपदेश दिया जाता था । मानव के पक्षीप्रेम और इन विहगों की विशिष्ट योग्यता से यह मनोरम कला विकसित हुई थी ।
उत्सादनम् ॥ Utsadana
मानव को सुन्दर, स्वस्थ और आकर्षक बनाये रखनेवाली कलाओं में से एक कला है - मर्दनकला (मालिश या मसाज की कला )। यशोधर के अनुसार वात्स्यायन-प्रोक्त ये तीनों क्रियायें मर्दन के ही प्रकार हैं। पैर से किया जाने वाला मर्दन उत्सादन है। हाथ से तेल आदि से शिर का मर्दन केशमर्दन है। शेष अंगों का मर्दन संवाहन है। आयुर्वेद में इन तीनों के ही विशिष्ट गुण कहे गये हैं। साहित्य में संवाहन का वर्णन एक सुकुमार कला के रूप में हुआ है। भास के चारुदत्त नाटक में गणिका वसन्तसेना इस कला की प्रशंसा करते हुये कहती हैं- सुकुमारकला शिक्षितार्येण। शिक्षिता पद का प्रयोग यह सूचित करता है कि इस कला की विधिवत् शिक्षा प्राप्त की जाती थी। इस कला में निपुण व्यक्ति को संवाहक या अंगमर्दक कहा जाता था। इस कला के कई मनोरम चित्र साहित्य में प्राप्त होते हैं। महाराज दुष्यन्त अस्वस्थ शकुन्तला को सुख देने के लिये उसके पद्मताम्र चरणों को अपने अंक में रखकर दबाना चाहते हैं ।
महाराज शूद्रक शय्या पर बैठे हैं। भूमितल पर बैठी हुई प्रतिहारी नवनलिनदलकोमल करसम्पुट से उनके चरणों को दबा रही है। आयुर्वेद में संवाहन के निम्नलिखित लाभ बताये गये हैं -
प्रीतिनिद्राकरं वृष्यं कफवात श्रमापहम् । संवाहनं मांसरक्तत्वक्प्रसादकरं मतम् ।।
यही कारण है कि सभी वर्ग के स्त्री-पुरुष यहाँ तक कि राजकुमार भी इस कला को सीखते थे। युवतियाँ इस कला से अपने प्रेमियों को वश में कर लेती थी' तो पुरुष अपनी प्रेयसियों को प्रसन्न । सुन्दर रूप-रस और गन्ध से मिलने वाले आनन्द के समान सुन्दर स्पर्श का भी एक आनन्द है और इसी आनन्द को देती है - संवाहनकला।
केशमार्जनकौशलम् ॥ Keshamarjana kaushala
अक्षरमुष्टिकाकथनम् ॥ Aksharamushtika kathana
मनुष्य ने अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम 'भाषा' का मनोरञ्जन के लिये प्रयोग करते हुये अपने बुद्धिचातुर्य और कल्पना- कौशल से जिन कलाओं को विकसित किया है, उनमें से एक है- अक्षरमुष्टिका कथन' अर्थात् सङ्केताक्षरों का अर्थ बताने की कला। अक्षरमुष्टिका की व्याख्या दो प्रकार से की जा सकती है-
- प्रथम अक्षरमुष्टिका अर्थात् अक्षरों की मुट्ठी। इसमें पदों को अक्षरों की मुट्ठी में बन्द कर दिया जाता है। अक्षरों के माध्यम से उनका अनुमान करते हुये उन पदों को बताना होता है।
- द्वितीय-अक्षरमुष्टिका अर्थात् 'अक्षरों को बताने वाली मुट्ठी'। इसमें मुट्ठी खोलना, • अंगुली उठाना आदि हस्त संकेतों से अक्षरों को जानकर उनसे पद बनाकर उनका अर्थ • बताना होता है। इष्टमित्रों की गोष्ठियों और कविसमवायों में इस प्रकार की क्रीड़ाओं द्वारा मनोविनोद के साथ ही बुद्धि की धार को तेज किया जाता था।
म्लेच्छितकविकल्पाः॥ Mlecchitaka vikalpa
भाषाबोध के ही एक कौशल का प्रकार है-'म्लेच्छितविकल्प' अर्थात् गुप्तभाषा का ज्ञान यशोधर के अनुसार साधु शब्दों की अक्षरविन्यास के कारण अस्पष्टता म्लेच्छित कही। जाती है, इसके विकल्प या प्रकारों को ''लेच्छित-विकल्प' कहते हैं। यह उच्चारण या लेखन में अस्पष्टता के द्वारा अपनी बात को रहस्यमय या गुप्त बनाने की कला है। ऐसी भाषा को समझना और उसका स्वयं प्रयोग करना दोनों ही इस कला के अन्तर्गत आते हैं। इस प्रकार की भाषा का प्रयोग विशेष रूप से गुप्तचरों की संस्था के लिये होता था। कौटिल्य इसके लिखित रूप को 'गूढलेख' या 'संज्ञालिपि' कहते हैं। इसे कूटभाषा भी कहा जा सकता है। -
देशभाषाज्ञानम् ॥ Deshabhasha jnana
देश - भाषाओं का ज्ञान भी एक कला है। संस्कृत में देशभाषा शब्द का प्रयोग जातिभाषा, लोकभाषा या क्षेत्रीय बोलियों के अर्थ में हुआ है। भरतमुनि ने नाट्यप्रयोग के सन्दर्भ में भाषाओं के चार प्रकारों की चर्चा की है- (i) अतिभाषा (ii) आर्यभाषा (ii) जातिभाषा तथा (iv) योन्यन्तरी भाषा। इनमें से जातिभाषा को ही देशभाषा कहा गया है। प्राचीन भारत में सात देश-भाषायें मुख्य मानी गई थीं मागधी, आवन्ती, प्राच्या, शौरसेनी, अर्द्धमागधी, बालीका और दाक्षिणात्या।3
प्राचीन भारत के नागरक, राजकुमार, राजकुमारियाँ, गणिकायें, कवि और अभिनेता देशभाषाओं की विधिवत् शिक्षा प्राप्त करते थे। बाणभट्ट ने उज्जयिनी के प्रधान पुरुषों को 'शिक्षित-अशेष-देशभाषा' तथा 'सर्वलिपिज्ञ' कहा है। राजकुमार चन्द्रापीड ने भी सभी भाषाओं और लिपियों में कौशल अर्जित किया था। अथर्ववेद के ऋषि ने नाना भाषा-भाषी लोगों के लिये पृथिवी के रूप में जिस ‘एकघर’ की आराधना की थी-जनं बिभ्रती बहुधा विवासं नानाथर्माणं पृथिवी यथौकसम्' उसी घर के स्वप्न को साकार करने की कला है-देशभाषाविज्ञान।
पुष्पशकटिकानिमित्तज्ञानम् ॥ Pushpashakatika nimitta jnana
पुष्पशकटिका
छोटी गाड़ी या खिलौनागाड़ी को 'शकटिका' कहा जाता है। शकटिका को पुष्पों से सजाना या शकटिका बनाना भी एक कला थी। किन्तु इस कला के विशेष सन्दर्भ प्राप्त नहीं हैं।
निमित्तज्ञानम्
मनुष्य ने अपने सूक्ष्म प्रकृतिनिरीक्षण और सुदीर्घ अनुभव से जिन कलाओं को
विकसित किया है, उनमें से एक है-निमित्तज्ञान अर्थात् शकुन-अपशकुन के विचार की कला। मानव के अदृष्ट या नियति के सूचक ग्रहनक्षत्रों की गति, प्राकृतिक परिदृश्य आदि अनेक तत्त्वों में से कुछ संकेत ऐसे हैं जो आसन्न (तुरन्त या निकट भविष्य में घटने वाली) घटनाओं, शुभ और अशुभ की सूचना देते हैं, इन्हें ही निमित्त कहा गया है। फल के आधार पर समस्त निमित्तों को दो वर्गों में रखा जा सकता है-1. शुभ एवं 2. अशुभनिमित्त। इन निमित्तों में प्राकृतिक परिदृश्य (पवन की अनुकूलता दिशाओं की निर्मलता, फल-पुष्प समृद्धि), पशु-पक्षियों की गतिविधियाँ एवं ध्वनि, अङ्गस्पन्दन, स्वप्न आदि आते हैं। बाणभट्ट के अनुसार-जैसे वृक्ष का विकार भूगर्भ में छिपे धन का, सब ओर छिटकता हुआ प्रकाश श्रेष्ठ मणि का, लाली सूर्योदय का तथा तेज हवा का झोंका वर्षा के आगमन का सूचक होता है उसी प्रकार निमित्त शुभ-अशुभ के सूचक होते हैं। प्रकृति और जीव-जगत् के इङ्गित को समझकर अनिष्ट के निवारण, इष्ट की प्राप्ति तथा अवश्यम्भावी मंगल-अमङ्गल के लिये स्वयं को मानसिक रूप से तैयार करने की कला थी-निमित्तज्ञान ।
यन्त्रमातृका ॥ Yantramatrka
यंत्र-रचना की विद्या या कला यंत्रमातृका कही जाती है। यन्त्र शब्द की निष्पत्ति यम् धातु से हुई है। भूतों की स्वैच्छिक गति को जिस उपकरण में नियन्त्रित कर दिया जाता है; उसे यन्त्र कहते हैं। यन्त्र के बीज चार हैं-भूमि, जल, वायु और अग्नि। इनका आश्रय होने के कारण आकाश भी बीज या उपादान होता है। जल, वायु और अग्नि यंत्र में शक्ति या ऊर्जा के रूप में प्रयुक्त होते हैं । भौम या पार्थिव तत्त्वों से यन्त्र के विविध अंगों की रचना होती है।
संचालन या गति की दृष्टि से यन्त्र चार प्रकार के होते हैं-(i) स्वयंवाहक (Automatic), (ii) सकृत्प्रेर्य (प्रथमवार प्रेरित किये गये), (iii) अन्तरितवाय (मध्य-मध्य में प्रेरित), (iv) अदूरवाय (दूर से संचालित (Remote controlled), उपयोग की दृष्टि से यन्त्र मुख्य रूप से चार प्रकार के होते हैं-(i) यानयन्त्र (ii) उदक यन्त्र (iii) संग्रामयन्त्र (iv) गृययन्त्र ।
यन्त्र के निम्नलिखित गुण माने गये हैं- यथावबीजसंयोग, सौश्लिष्ट्य, श्लक्ष्णता, अलक्षता, निर्वहण, लघुत्व, शब्दहीनता, अशैथिल्य, अस्खलद्गति, अभीष्टकारित्व, लयतालानुगामिता, सम्यक् संवृत्ति, अनुल्बणत्व, तादूरूप्य (मूल के सदृश रूप), दृढता, मसृणता एवं चिरकालसहत्व ।। ये गुण ही यन्त्रविज्ञान को एक कला के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं।
धारणमातृका ॥ Dharanamatrka
शास्त्रों के अवबोध एवं स्मरणशक्ति को बढाने वाली विद्याओं का ज्ञान, उनसे अलोकसामान्य धारणाशक्ति की प्राप्ति एवं जीवन में प्रयोग भी एक कला मानी गई है। यशोधर ने धारणशक्ति को बढाने वाली विद्या के पाँच अंग कहे हैं-वस्तु कोशस्तथा द्रव्यं लक्षणं केतुरेव च ।
सम्पाट्यम् ॥ Sampatya
वाचिक कलाओं में से एक है- सम्पाठ्य अर्थात् भली भाँति पढ़ने की कला। यशोधर ने इसे- किसी पढ़े हुये श्लोक को सुनकर ज्यों का त्यों दोहराने या मिलकर पढने की कला कहा है। पाठ्य के साथ जुड़ा हुआ सम् उपसर्ग- भली भाँति और साथ इन दोनों ही अर्थों का बोधक है। प्राचीन भारत में जब मुद्रित ग्रंथ नहीं थे, तब ज्ञान की धारा इस सम्पाठ्य की कला से ही आगे बढ़ी है। वेदों की श्रुति संज्ञा इस कला से ही सार्थक हुई है।
इस कला की प्राचीनता का एक रोचक साक्ष्य हम ऋग्वेद के मण्डूक सूक्त में पाते हैं। सम्पाठ्य का सबसे सुन्दर उदाहरण - काव्यपाठ है। राजशेखर के अनुसार कवि जैसे-तैसे काव्यरचना तो कर लेता है किन्तु काव्यपाठ करना वही जानता है, जिसे सरस्वती सिद्ध होती है पढने में लावण्य-ये पाठक के गुण कहे गये हैं। ललित स्वर से, काकुयुक्त, सुस्पष्ट, अर्थ के अनुसार विराम देते हुये कलमधुर ध्वनि से एक-एक अक्षर को स्पष्ट रूप से पढ़ना प्रशंसनीय कहा गया है। वस्तुतः - पाठसौन्दर्य नैकजन्मविनिर्मितम् है।
मानसीकाव्यक्रिया ॥ Manasikavya kriya
यशोधर के अनुसार इस कला के दो रूप हैं। प्रथम-केवल लिखित व्यंजनों अथवा पद्म, उत्पलादि आकृतियों से श्लोक की रचना करना; द्वितीय प्रकार चित्रकाव्य खड्गबन्ध, मुरजबन्ध आदि में देखा जा सकता है। मानसी काव्य क्रिया में ही काव्यार्थ की कल्पना है। इसका प्रयोजन मनोरंजन और प्रतिस्पर्द्धा है।
क्रियाविकल्पाः ॥ Kriyavikalpa
छलितकयोगाः ॥ Chalitayoga
छलितकयोगा
परातिसंधान (दूसरों को छलने की) विद्या छलितक योग कही जाती है। कूटनीति अथवा राजनीति का यह एक आवश्यक अंग है। इसमें रूपपरिवर्तन, वेशपरिवर्तन आदि उपाय आते हैं। कौटिल्य ने इस कला का उपयोग विशेष रूप से गुप्तचरों के लिये किया है। शूर्पणखा का रूपपरिवर्तन इसी कला का उदाहरण है।
अभिधानकोषच्छन्दोज्ञानम् ॥ Abhidhanakosh chanda jnana
शब्दकोष और छन्दों का ज्ञान भी कला मानी गई है। इस नामरूपात्मक जगत् के असंख्य रूपों और उनकी क्रियायों को अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग नामों से कहा गया है। इन नामों या पदों के संग्रह तथा इनका अर्थ बताने वाले शास्त्र को ही अभिधानकोश कहते हैं। व्याकरणशास्त्र केवल शब्द का अनुशासन करता है, जबकि अभिधानकोश शब्द और अर्थ दोनों का। अतः यह व्याकरण का सर्वस्व एवं विद्यास्थान है। इस कला का प्राचीनतम उदाहरण निघण्टु नामक वैदिक पदकोश है। अभिधानकोशज्ञान की कला मनुष्य को कवि, मनीषी और वाग्मी बनाने का साधन है।
छन्द कला सृष्टि का मूल है, क्योंकि शिल्प के लिये आवश्यक है- सौन्दर्य, जो लय, संतुलन, अनुपात और सुसंगति से ही साध्य होता है। शिल्पी के मन में रूप का एक ऐसा सजीव छन्द सृजित होता है जो विश्व-व्यापी समष्टिछन्द से मिलकर शब्द, नाद, रेखा, वर्ण, गति और अभिनय से अभिव्यक्त होकर गीत, नृत्य, चित्र आदि कला बन जाता है। विद्या या कला के रूप में छन्द की गणना षड्वेदांगों में होती है। वेदों की स्थिति ओर गति दोनों का कारण ही पादभूत छन्द हैं। छन्दश्शास्त्र का प्राचीन अभिधान छन्दोविचिति है। आचार्य पिङ्गल द्वारा प्रणीत छन्दस्सूत्र इस विद्या का मान्य प्रामाणिक ग्रंथ है। छन्द - विद्या के आद्य प्रवर्तक भगवान् शिव हैं। ऋग्वेद में गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप् आदि छन्दों को अग्नि, सविता, सोम आदि देवों से संबद्ध किया गया है। न केवल काव्यसृष्टि अपितु जीवन को सुन्दर, कलामय बनाने के लिये भी छन्दोज्ञान आवश्यक है। काव्यकरण विधि अर्थात् अलंकारशास्त्र या काव्यशास्त्र को क्रिया-कल्प कहा जाता है। भारतीय काव्यशास्त्र की परम्परा अतिप्राचीन है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से लेकर भामह, वामन, दण्डी, आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त, राजशेखर, कुन्तक, महिमभट्ट, क्षेमेन्द्र, भोजराज, मम्मट, विश्वनाथ, पण्डितराज जगन्नाथ आदि आचार्यों ने काव्यशास्त्र के साथ ही कला के विविध पक्षों-कलासृष्टि, कला-प्रयोजन, कला-आस्वाद, कला-समीक्षा आदि की भी चर्चा की है। अतः क्रियाकल्प का ज्ञान भी एक कला है।
वस्त्रगोपनानि ॥ Vastragopana
वेश या वस्त्रों का प्रयोजन जहाँ शीत-ताप आदि से शरीर की रक्षा है वहीं अप्रकाश्य का गोपन और त्रुटित का संवरण भी है। वस्त्र से गोपनानि की कला कुत्सित और अश्लील के संगोपनपूर्वक रूप के उन्मीलन की कला है।
द्यूतविशेषः ॥ Dyutavishesha
द्यूतविशेषा-आकर्षक्रीडा
अक्षक्रीड़ा या द्यूतक्रीड़ा और पाशकक्रीड़ा(पासे का खेल) प्राचीन भारत के व्यसनात्मक विनोद रहे हैं। इनकी निन्दा भी हुई है और दुर्निवार आकर्षण शक्ति का वर्णन भी। प्राचीन युग में बहेरे का फल अक्ष रूप में व्यवहृत होता था। शारि-फलक (dice board) को इरिण कहा जाता था। महाभारत के सभापर्व के अन्तर्गत द्यूत पर्व और अनुद्यूत पर्व में पाशकक्रीड़ा के दुष्परिणामों को बताया गया है। व्यसन के रूप में यह क्रीडा हानिकारक होते हुये भी एक विशुद्ध कीड़ा के रूप में मनोविनोद का साधन रही है। विवाह के अवसर पर वधू की सखियाँ वर को द्यूतक्रीडा में नाना प्रकार के पण रखकर छकाने का उपाय करती थीं। स्त्री-पुरुषों के प्रेमद्यूतों में हारना भी जीतने का आनन्द देता था।
आकर्षणक्रीडा ॥ Akarshana kreeda
बालकक्रीडनकानि ॥ Balaka kreedanaka
बच्चों को प्रसन्न करने के लिये बालक्रीडाओं का ज्ञान एवं बालक्रीडनकों की रचना एक कला मानी गई है। क्रीडारस से आनन्द प्राप्त करने की प्रवृत्ति चिरन्तन है। अतः यह कला भी मनोविनोद के लिये है। संस्कृत साहित्य में नानाप्रकार की बालक्रीडाओं का वर्णन हुआ है- यथा कन्दुकक्रीड़ा, पुत्रिका-क्रीड़ा, सैकतवेदिका-रचना, नदियों के बालुकामय तट पर मणियों को छिपाने और ढूँढ़ने का खेल आदि।
नगाधिराज-तनया पार्वती, अपनी सखियों के साथ इन बालक्रीडाओं का आनन्द लेते हुये वर्णित हुई हैं। मगधराजकन्या पद्मावती का प्रिय खेल कन्दुकक्रीड़ा है तो अलकापुरी की यक्षकन्याओं का मणियों को छिपाने ढूँढ़ने का खेल । कन्दुकक्रीड़ा की कला का चरमपरिपाक राजकुमारी कन्दुकावती के कन्दुकनृत्य में देखा जाता है।
वैनायिकीनां विद्यानां ज्ञानम् ॥ Vainaayiki vidya jnana
वैनयिकीनां विद्यानां ज्ञानम्
यह वैनयिकीविद्या - अर्थात् विनय का आधान करने वाली विद्याओं के ज्ञान से स्व एवं पर को विनीत बनाने की कला है । विनय एक ऐसा आंतरिक गुण है जो न केवल मनुष्य के वैदुष्य को शोभित करता है अपितु सम्पूर्ण व्यक्तित्व को ही उद्भासित करता हुआ जीवन-पथ को सुगम बना देता है। इस विद्या के अन्तर्गत नीतिशास्त्र या आचारशास्त्र आता है। कौटिल्य विनय का हेतु इन्द्रियजय को मानते हैं -
विद्याविनयहेतुरिन्द्रियजयः।
विद्या-वृद्धों का नित्यसंयोग भी विनय की वृद्धि करता है। विद्याविनीत राजा ही प्रजा को विनीत करता हुआ लोकमंगल का साधक होता है।
विद्याविनीतो राजा हि प्रजानां विनये रतः। अनन्यां पृथिवीं भुङ्क्ते सर्वभूतहिते रतः॥
इस कला के अन्तर्गत हस्तिशिक्षा, अश्वशिक्षा आदि का ज्ञान भी परिगणित होता है जिसके द्वारा इन पशुओं को नियंत्रित किया जाता है। कौटिल्य ने विद्याध्ययन काल में दिन का पूर्वभाग इन विद्याओं की शिक्षा के लिये नियत किया है।
वैजयिकीनां विद्यानां ज्ञानम् ॥ Vaijayiki vidya jnana
सभी कलाएँ, शिल्प और शास्त्र जीवन-संग्राम में मानव को विजयी बनाने के लिये हैं, तथापि यशोधर ने इन विद्याओं को दो प्रकार का माना है (1) दैवी और (2) मानुषी। अपराजिता आदि दैवी विद्यायें हैं। संग्रामविद्या, युद्धकौशल और शस्त्रविद्या मानुषी विद्यायें हैं। इनका ज्ञान भी एक कला है। विक्रमोर्वशीय के एक सन्दर्भ के अनुसार देवगुरु बृहस्पति के द्वारा अपराजिता विद्या की शिक्षा उर्वशी को दी गई थी। विश्वामित्र ने बला और अतिबला नामक दिव्य विद्याओं की शिक्षा श्रीराम को प्रदान की थी।
वैतालिकीनां विद्यानां ज्ञानम् ॥ Vaitaliki vidya jnana
व्यायामिकीनां विद्यानां ज्ञानम्
मृगया, मल्लविद्या आदि व्यायामिकी विद्याओं आदि का ज्ञान भी एक कला है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिये इस विद्या का ज्ञान आवश्यक है। मृगया की प्रशंसा करते हुये महाकवि कालिदास कहते हैं-
मेदश्छेदकृशोदरं लघु भवत्युत्थानयोग्यं वपुः सत्त्वानामपि लक्ष्यते विकृतिमच्चित्तं भयक्रोधयोः। उत्कर्षः स च धन्विनां यदिषवः सिध्यन्ति लक्ष्ये चले मिथ्यैव व्यसनं वदन्ति मृगयामीदृग् विनोदः कुतः ।।
कादम्बरी में स्नान से पूर्व महाराज शूद्रक द्वारा व्यामामशाला में व्यायाम किये जाने वर्णन हुआ है। इस प्रकार स्वास्थ्य और सौन्दर्य, आत्मोत्कर्ष और विजय, इन सभी उपर्युक्त तीन विद्याओं से साधा जाता था। परमानन्द की उपलब्धि को ही जीवन का चरम लक्ष्य मानने वाली भारतीय संस्कृति चतुःषष्टि कलाओं के माध्यम से दैनन्दिन जीवन में भी आनन्द की उपासना करती रही है, क्योंकि महाशिव की आद्याशक्ति महामाया इस जगत् को प्रपञ्चित करती हैं, सदानन्द ही जिनका आहार है। ललितास्तवराज में कहा गया है-
क्रीडा ते लोकरचना सखा ते चिन्मयः शिवः । आहारस्ते सदानन्दो वासस्ते हृदये सताम् ।।