Difference between revisions of "Festival in month of Kartika (कार्तिक मास के अंतर्गत व्रत व त्यौहार)"
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कार्तिक उतरते ही नवमी-दशमी, एकादशी-इन तीनों दिन व्रत रखें। द्वादशी के दिन 3 ब्राह्मण और तीन ब्राह्मणियों को भोजन कराकर स्वयं भोजन करें। | कार्तिक उतरते ही नवमी-दशमी, एकादशी-इन तीनों दिन व्रत रखें। द्वादशी के दिन 3 ब्राह्मण और तीन ब्राह्मणियों को भोजन कराकर स्वयं भोजन करें। | ||
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Latest revision as of 17:48, 15 April 2022
कार्तिक मास की कथा सुनने मात्र से मनुष्य के सब पाप नष्ट होकर बैकुण्ठ लोक की प्राप्ति हो जाती है। एक समय श्री नारायणजी ब्रह्मलोक में गये और सारे जगत के कर्ता श्री ब्रह्माजी को अति विनीत भाव से कहने लगे-"आप! सारे जगत के कर्ता और सर्वज्ञ हो, अत: आप धर्मोपदेश की कोई सुन्दर कथा कहिए, क्योंकि मैं भगवान का भक्त और आपका दास हूं तथा आप कार्तिक मास की कथा भी कहिए, क्योंकि मैंने सुना है कि कार्तिक मास भगवान को अति प्रिय है, और इस मास में किया हुआ व्रत नियमन पादन दिया हुआ अनन्त फल को प्राप्त होता है।" ब्राह्माजी कहने लगे-“हे पुत्र, तुमने अति सुन्दर प्रश्न किया है, क्योंकि कुरूक्षेत्र पुष्कर तथा तीर्थों का वास इतना फल नहीं देते हैं। जैसे कि कार्तिक मास का फल है।" प्रात:काल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर व्रत करने वाला शौच आदि से निवृत होकर, बारह अगुल अथवा सुगन्धित वृक्ष का दातुन करें। श्राद्ध के दिन, सूर्य-चन्द्रमा के ग्रहण के दिन. एकम अमावस्या नवमी, छठ, एकादशी तथा रविवार को दातुन नहीं करना चाहिए । स्नान करने वाला श्री गंगाजी, शिव, सूर्य विष्णु का ध्यान करके स्नान कर जल से बाहर आकर शुद्ध वस्त्र धारण करे। तिल आदि से देवता ऋषि और मनुष्य (फितर) का तर्पण करें। इस प्रकार सान तर्पण के पश्चात् चन्दन, फल और पुष्प आदि से भगवान को अर्घ्य देना चाहिए। ब्रह्माजी करने लगे- हे नारद! प्रती मनुष्य फिर भगवान के मन्दिर में जाकर जोडशोपचार विधि से भगवान का पूजन करे। मंजरी सहित तुलसी भगवान पर बढ़ाये। जो मनुष्य मंजरी सहित भगवान शालिग्राम का एक बूंद भी चरणामृत पान कर लेता है. वह बड़े-बड़े पापों से मुक्त हो जाता है और जो कोई शालिग्राम को मूर्ति के आगे अपने पिटरों का वार करता है. उनके पितर को बैकुण्ठ लोक प्राप्त होता है। अक्षतों से भगवान विष्णु का पूजन, शंख के जल से शिव का पूजन बिल्व पत्र से सूर्य का पूजन, तुलसी से गणेशजो का, धतूरे के पुष्पों से विष्णु का, केतकी के पुष्पों से शिव की पूजा करनी चाहिए।
गंगा, यमुन और तुलसी का बराबर हैं। इन तीनों से ही यमपुरी के दर्शन नहीं होते। एक समय नारदजो ब्रह्माजी से कहने लगे- हे ब्राह्मण! कार्तिक मास का महत्या आप मुझसे विधिपूर्वक कहिए।" तब ब्रह्माजी कहने लगे-“हे पुत्र! मैं तुम्हें एक समय की बात है श्री सत्याभामाजी ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न किया कि भगवान! मैं पहले जन्म में कौन थी? मेरे पिता कौन थे, जिससे मैं आप त्रिलोकीनाथ की सबसे प्रिय अर्धाग्निी बनो? मेरे कहने मात्र से आपने स्वर्ग से कल्प वृक्ष मेरे आंगन में लगा दिया। इतनी बात सुनकर कृष्ण अति प्रेम से हाथ पकड़कर कल्पवृक्ष के नीचे ले गये और बड़े स्नेह से कहने लगे- हे सत्यभामे! आप मुझे सब पलियों में प्रिय है, अत: मैं आपसे गुप्त-अति गुप्त बात कहने में भी संकोच नहीं करूंगा।"
कार्तिक व्रत कथा
पहले सतयुग में मायापुरी में अत्रिकुल में वेद तथा शास्त्रों का पारगामी वेदशर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था। वह सूर्य का बड़ा भक्त था। वह नित्य ही अग्नि तथा अतिथि की सेवा करता हुआ सूर्य की आराधना किया करता था। उसके कोई पुत्र न था परन्तु बड़ी आयु में उसके एक कन्या हुई जिसका नाम गुणवती था। उसने अपनी कन्या का विवाह अपने शिष्य चन्द्र के साथ कर दिया। एक दिन वह ब्राह्मण हो मूर्छा खाकर भूमि पर गिर पड़ी। अपने जामात सहित लकड़ी लेने जंगल में गया। वन में वे दोनों एक राक्षस के हाथों मारे गये और वहां के क्षेत्र के प्रभाव से बैकुण्ठ को गये। गुणवता दुःख से ग्रस्त जब उसे चेतना आई तो उसने घर का सामान बेचकर उन दोनों की अंत्येष्टी क्रिया की और मेरी प्रिय एकादशी और कार्तिक का व्रत करने लगी। कार्तिक मास में जो प्रात:काल स्नान करता है; जागरण, दीपदान, भगवान के मन्दिर की सफाई, पूजन करता है वह मनुष्य जीवनमुक्त हो बैकुण्ठ को प्राप्त होता है। एक समय वह दुर्बल शरीर वाली, स्नान के निमित्त गंगाजी में प्रवेश करते ही उसकी सारी देह शीत के मारे कांपने लगी और वह शिथिल हो गयी। उसी समय हमारे तुलापार्षदों ने उसको विमान में बैठाकर बैकुण्ठ पहुंचा दिया। कार्तिक के व्रत के प्रभाव से तुम सत्यभामा होकर हमारी प्रिया बनीं। आजन्म तुलसी रोपने से तुम्हारे आंगन में कल्पवृक्ष है। तुमने कार्तिक में जो दीपदान किया, इसी से तुम्हारे घर में लक्ष्मी का वास है। अत: हे सत्यभामे! जो मनुष्य कार्तिक मास में व्रत करता है, वह तुम्हारी तरह हमको प्रिय है।
करवा चौथ की पूजा विधि
करवा चौथ के दिन अर्थात् कार्तिक मास की चतुर्थी के दिन लकड़ी का पाट-पूजकर उस पर जल का भरा लोटा रखें। बायना निकालने के लिए एक मिट्टी का करवा रखकर करवे में गेहूं व उसके ढक्कन में चीनी और नकद रुपये रखें। फिर उसे रोली से बांधकर गुड़-चावल से पूजा करें। पुन: 13 बार करवे का टोका करें, उसे सात बार पाट के चारों तरफ घुमावें तब भी हाथ में 13 दाने गेहूं के लेकर कहानी सुनें। कहानी सुनने के पश्चात् करवे पर हाथ फेरकर सासुजी के पांव छुएं। तदुपरान्त वह तेरह दाने गेहूं व लोटा यथा स्थान रख दें। रात होने पर चाँद देखकर चन्द्रमा को अर्घ्य दें। इस तरह करके प्रसाद खाकर व्रत रखने वाली स्त्री व्रत खोले। करवा चौथ करने वाली को चाहिए कि बहन और बेटी को भी व्रत की सामग्री भेजे। करवा चौथ कथा-एक साहूकार था जिसके सात पुत्र और एक पुत्री थो! सातों भाई व बहन एक साथ बैठकर भोजन करते। एक दिन कार्तिक चौथ का व्रत आया तो भाई बोला-"बहन आओ भोजन करें। बहन कहा कि आज चौथ का व्रत है। चाँद उगने पर खाऊंगी। भाइयों ने सोचा कि चाँद उगने तक बहन भूखी रहेगी। यह सोचकर एक भाई ने दीया जलाया दूसरे भाई ने छलनी लेकर उसे ढका और नकली चाँद दिखाकर बहन से कहने लगे-"चल, चाँद उग आया है, अर्घ्य दे ले।
" बहन अपनी भाभियों से बोली-"चलो अर्घ्य दे लें।" भाभियां बोलीं-"तुम्हारा चाँद उगा होगा। हमारा तो रात को उगेगा।" बहन ने अकेले ही अर्घ्य दे दिया और खाना खाने लगी। पहले ग्रास में बाल निकला, दूसरे में किकर, तीसरे में ससुराल से पति की बीमारी का संदेश आ गया। मां ने लड़की को विदा करते हुए कहा-"मार्ग में जो बड़ा मिले उसके पांव छूकर सुहाग का आशीष ले लेना। पल्ले में गांठ लगा लेना और उसे कुछ रुपये देना।" मार्ग में उसे जो भी मिला उसने यही आशीष दिया-“तुम सात भाइयों की बहन हो। तुम्हारे भाई सुखी रहें। तुम उनका सुख देखो।" किसी ने भी सुहाग का आशीष नहीं दिया। जब वह ससुराल पहुंची तो दरवाजे पर खड़ी ननद के पांव छुए और उसने आशीष दिया-"सुहागिन रहो, सपूती हो।" तो उसने पल्ले में गांठ बांधकर ननंद को सोने का सिक्का दिया। जब भीतर गयी. तो सास बोली-"तेरा पति धरती पर पड़ा है।" उसके पास जाकर उसकी सेवा करने लगी। सास दासी के हाथ बची-कुची रोटी भेज देती। इस तरह बीतते-बीतते मंगसिर की चौथ आई तो चौध माता बोली-“करवा ले, करवा ले, भाइयों को प्यारी करवा ले।" लेकिन जब उसे चौथ माता नहीं दिखीं तो वह बोली-“मां आपने ही मुझे उजाड़ा है आप ही मेरा उद्धार करोगी।" चौथ माता बोलीं-“पौष की चौथ आयेगी वही तुम्हारा उद्धार करेगी। तुम उससे सब कहना वह तुम्हारा सुहाग देगी। इसी प्रकार पौष, माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ और सावन, भादों की चौथ माता आकर यह कहकर चली गयी कि आगे आने वाली से लेना। असौज की चौथ आयी तो उसने बताया कि-कार्तिक की चौथ तुम पर नाराज है, उसी ने तुम्हारा सुहाग लिया है नहीं वापस कर सकती है, वह आये तो उसके पांव पकड़कर विनती करना।" यह कहकर वह भी चली गयी जब कार्तिक की चौथ माता आई तो वह क्रोध में बोलीं- भाइयों की प्यारी करवा ले, दिन में चाँद उगनी करवा ले, व्रत खंडन करने वाली करवा ले, भूखी करवा ले।" यह सुनकर चौथ माता को देखकर उसके पैर पकड़कर गिड़गिड़ाने लगी।
वह बोली-“हे चौथमाता! मेरा सुहाग आपके हाथ में है आप मुझे सुहागिन करें।" तब माता बोली-“पापिन, हत्यारी मेरे पांव पकड़कर क्यूं बैठ गयी।" तब बहन बोली-“हे मां! मुझसे भूल हो गयी। अब मुझे क्षमा कर दें, अब कोई भूल न होगी। तब माता ने खुश होकर आंखों से काजल, नाखूनों से मेहंदी एवं टीके से रोली लेकर छोटी अंगुली से उसके आदमी पर छींटा दिया। उसका आदमी उठकर बैठ गया। और बोला-"आज मैं बहुत सोया। वह बोली-"क्या सोया पूरे बारह महीने हो गये।" अत: इस प्रकार चौथ माता ने सुहाग लौटाया।" तब उसने कहा-“शीघ्रता से माता का उजमन करो।" जब चौथ की कहानी सुनी, करवा पूजन किया तो प्रसाद खाकर दोनों पति-पत्नी चौपड़ खेलने बैठ गये। नीचे से दासी आई, उसने सासुजी को जाकर बताया। तब से सम्पूर्ण गांवों में यह प्रसिद्ध होती गयी कि-"सब स्त्रियां चौथ का व्रत करें तो सुहाग अटल रहेगा।"जिस तरह साहूकार की पुत्री को सुहाग दिया। उसी तरह सबको सुहाग दे। यही करवा चौथ के व्रत की पुरातन महिमा है।
श्री गणेशजी की कथा-एक बुढ़िया हमेशा गणेशजी की पूजा किया करती थी। गणेशजी उस बुढ़िया से कहते थे-मां तू जो चाहे सो मांग ले। बुढ़िया कह देती थी- भगवान मुझे मांगना नहीं आता, कैसे और क्या मांगू? तब गणेशजी ने कहा-अपने बेटे-बहू से पूछकर मांग ले। तब बुढ़िया ने बेटे से पूछा कि गणेशजी कहते हैं कि तू कुछ मांग ले। बता क्या मांगू? बेटा बोला-मां धन मांग ले? बहू से पूछा तो बोली-पोते मांग ले। तब बुढ़िया ने सोचा कि ये तो अपने-अपने मतलब की चीज मांग रहे हैं। यह सोचकर बुढ़िया अपनी पड़ोसिन के पास गयी और उससे पूछा। पड़ोसिन बोली बुढ़िया तू तो थोड़े ही दिन जीयेगी। धन और पोतों से क्या लाभ! तू अपनी आंखें मांग ले जिससे तेरा जीवन आराम से कट सके। बुढ़िया ने पड़ोसिन की बात भी नहीं मानी और घर में जाकर विचारने लगी कि ऐसी चीज मांगूगी कि जिससे बेटा-बहू भी खुश हो जायें और मुझे भी आराम हो जाये। अगले दिन गणेशजो आये और बोले, बुढ़िया जो चाहे मांग ले। बुढ़िया बोली-“महाराज! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे नौ करोड़ की माया नीरोगी काया, अमर सुहाग, आंखों की ज्योति, नाति, पोटी और सम्पूर्ण परिवार का सुख और समय पर मोक्ष दे।" तब गणेशजी बोले-"बुढ़िया मां तुने तो हमें ठग लिया।
खैर तूने जो मांगा है वह तुझे मिलेगा।" इस प्रकार कहकर गणेशजी अन्तध्यान हो गये। बुढ़िया को मांगे अनुसार सब मिल गया। हे गणेशजी! जैसे तुमने बुढ़िया को समस्त सुख दिया वैसे सब को देना। करवा चौथ का उजमन-उजमन करने के लिए एक थाल में तेरह जगह चार-चार पृडी और थोड़ा-थोड़ा सीरा रख लें। उसके ऊपर एक साड़ी-ब्लाउज और अपनी श्रद्धा अनुसार रुपये रख लें। फिर उस थाली के चारों ओर रोली, चावल और जल से हाथ फेरकर अपनी सासु मां को पैर छूकर दे दें। इसके बाद तेरह ब्राह्मणियों को भोजन करायें। उनके रोली की बिन्दी लगाकर यथाशक्ति दक्षिणा देकर उनका आशीर्वाद प्राप्त कर विदा करें।
अहोई अष्टमी
यह व्रत कार्तिक कृष्ण पक्ष अष्टमी को मनाया जाता है, इस दिन पुत्रों की माता पूरे दिन व्रत करती हैं। इस दिन सायंकाल तारे निकलने के पश्चात् दीवार पर अहोई बनाकर उसको पूजा करें। व्रत रखने वाली माताएं कहानी सुनें, कहानी सुनते समय एक पत्ते पर जल से भरा लौटा रखें। एक चाँदी की अहोई बनवायें और दो चाँदी के मोती एक डोरे में डलवायें जिस तरह हार में पेंडिल लगा होता है। उसकी जगह चाँदी की अहोई लगवाएं और डोरे, चांदी के मोती डलवा दें। फिर अहोई की रोली, चावल, दूध-भात से पूजा करें। जल के लौटे पर एक सतिया काढ़कर एक कटोरे में सीरी और रुपये का बायना निकालकर और हाथ में सात दाने गेहूं को लेकर कहानी सुनें। फिर अहोई को गले में पहन लें। जो बायना निकाला था उसे सासुजी को पांव छूकर अष्टमी के पश्चात् किसी अच्छे दिन अहोई गले में से उतारकर, जितने बेटे होवें उतनी बार और जितने बेटों का विवाह हुआ हो, उतनी बार दो चाँदी के दाने डालती जायें। जब अहोई उतारें उसको गुड़ से भोग लगाकर तथा जल के छीटें देकर रख दें। चन्द्रमा को अर्घ्य देकर भोजन करें। इस दिन ब्राह्मणों को दान में पेठा अवश्य देना चाहिए। यह व्रत छोटे बच्चों के कल्याण के लिए किया जाता है, अहोई देवी के चित्र के साथ-साथ बच्चे के चित्र भी बनवायें एवं उनकी पूजा करें।
अहोई व्रत कथा-
प्राचीन काल की बात है भारतवर्ष के दतिया नामक नगर में चन्द्रभान नाम का साहूकार रहता था। उसकी पत्नी चन्द्रिका गुणवान व पतिव्रता थी। उसके कोई भी सन्तान जीवित नहीं रहती थी। वे दोनों दुःखी होकर सोचा करते थे-हमारी मृत्यु के पश्चात् इस वैभव का कौन स्वामी होगा? एक दिन वे निश्चय करके घर-धन छोड़कर जंगल में निवास करने चले गये।
जब दोनों चलते-चलते थक जाते तब बैठ जाते फिर चलने लगे। इसी तरह वे बद्रिकाश्रम के निकट एक शील कुण्ड के पास पहुंचे। वहां पहुंचकर दोनों ने अन्न-जल त्याग दिया। जब उन्हें भूखे-प्यासे सात दिन हो गये तो वहां आकाशवाणी हुई कि तुम लोग अपने प्राण मत त्यागो। यह दु:ख तुम्हें पूर्व जन्म के कारण मिला है। अतएव हे साहूकार! अब तुम अपनी पत्नी से अहोई अष्टमी के दिन जो कार्तिक कृष्ण पक्ष को आती है व्रत रखवाना। इस व्रत के प्रभाव से अहोई से अपने पुत्रों की दीर्घायु मांगना। व्रत के दिन रात्रि को राधाकुण्ड में स्नान करवाना। कार्तिक पक्ष की अष्टमी आने पर चंद्रिका में बड़ी श्रद्धा से अहोई देवी का व्रत धारण किया एवं रात्रि को साहूकार राधा कुण्ड में स्नान करने गया। साहूकार जब स्नान करके घर वापस आ रहा था तो मार्ग में अहोई देवी ने उसे दर्शन दिया एवं बोली-"साहूकार!
मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं, तुम मुझसे कुछ भी वर मांग लो।" साहूकार अहोई देवी के दर्शन कर, बहुत प्रसन्न हुआ और कहा, मां! मेरे बच्चे कम उम्र में ही देवलोक को चले जाते हैं। इसलिए मां उनकी दीर्घायु होने का आशीर्वाद दीजिये। अहोई देवी बोलीं, ऐसा ही होगा। इतना कहकर देवी अन्तध्यान हो गयीं। कुछ दिन उपरान्त साहूकार के एक पुत्र पैदा हुआ, जो बड़ा होने पर विद्वान, बलशाली, प्रतापी और आयुष्मान हुआ। अगर किसी स्त्री के पुत्र हुआ हो या पुत्र का विवाह हुआ तो अहोई व्रत की समाप्ति का उत्सव करे। एक थाली में सात जगह पूड़ी एवं श्रोड़ा-सा मीठा रखे। इसके अतिरिक्त एक साड़ी ब्लाउज एक रूपया रखकर थाली में रखे एवं थाली में चारों ओर हाथ फेरकर पूड़ी का वायना वितरण कर दे, अगर लड़की कहीं अन्य जगह हो तो उसके लिए बायना वहीं भेज देना चाहिए।
अहोई का उजमन-यदि किसी स्त्री के बेटा हुआ हो या बेटे का विवाह हो तो होई का उजमन करे। एक थाली में सात जगह चार-चार पूड़ी और थोड़ा थोड़ा सीरा रखे। साथ ही एक साड़ी ब्लाउज रखे। फिर थाली के चारों ओर जल का हाथ फेरकर अपनी सासु मां को पैर छूकर दे दे। साड़ी-ब्लाउज सास पहन ले और बायना बांट दे। यदि लड़की कहीं दूर हो तो उसके लिए बायना वहीं भेज दे।
रमा या रम्भा एकादशी
यह व्रत कार्तिक कृष्ण पक्ष की एकादशी को रखा जाता है। इस दिन भगवान का समस्त सामग्री से पूजन करें! भोग लगाकर आरती उतारें, आरती के उपरान्त भोग को बांट दें। फिर ब्राह्मणों को भोजन कराकर अपनी शक्ति के अनुसार दान-दक्षिणा देकर विदा करें। इस प्रकार जो व्रत धारण करता है, उसे इस लोक व परलोक दोनों में सुख मिलता है। एकादशी की कृपा से स्वर्ग में रम्भा या रमा आदि अप्सरायें सेवा करती हैं। रमा या रम्भा एकादशी की कथा-एक समय भारतवर्ष में एक मृचुकन्द नाम का दानी, धर्मपरायण और महाप्रतापी राजा हुआ था। उसको एकादशी व्रत पर पूरा विश्वास था, इसी कारण वह एकादशी व्रत धारण भी करता था। साथ ही साथ उसके राज्य में सभी नियमपूर्वक एकादशी का व्रत भी करते थे। उसके एक चन्द्रभागा नाम की एक रूपवती, गुणवती और धर्मपरायण पुत्री थी! बाप और बेटी दोनों ही भगवान केशव के पूर्ण भक्त थे। उनकी पुत्री चन्द्रभागा का विवाह राजा चन्द्रसेन के पुत्र के साथ हुआ, जो राजा मृचुकुन्द के पास ही रहता था। जब एकादशो आयी तो सभी व्यक्तियों ने व्रत धारण किया। सोभन कुमार ने कमजोर होते हुए भी व्रत धारण किया। सोभन कुमार को व्रत के प्रभाव से मन्दराचल पर्वत पर स्थित देवनगर में निवास मिला। वहां उसकी सेवा में रम्भादिक अप्सरायें भी धीं। एक दिन राजा मृचुकुन्द घूमता-घूमता मन्दराचल पर्वत पहुंचा, उसने वहां अपने दामाद को देखा। वह तभी अपनी पुत्री के पास लौट आया और आकर सम्पूर्ण वृतान्त अपनी पुत्री को कह सुनाया। तब चन्द्रभागा ने अपने पिता से मंदराचल जाने की आज्ञा मांगी और वहां गयी। वहां पर रम्भादिक अप्सरायें दोनों पति-पत्नियों की सेवा किया करती थीं। इस प्रकार के समान सुख भोगने लगे।
गोवत्स द्वादशी का व्रत
यह त्यौहार कार्तिक कृष्ण पक्ष की द्वादशी को मनाया जाता है। इस दिन गायों और बछड़ो की पूजा की जाती है। व्रत रखने वाला इस दिन प्रातः स्नान कर गाय और बछड़ों का पूजन करे। फिर उनको आटे का गोला बनाकर खिलाये। इस दिन गाय का दूध, गेहूं की बनी वस्तुएं और भैंस, बकरी का दूध और कटे फल नहीं खायें। इसके बाद गोवत्स द्वादशी की कहानी सुनें। फिर ब्राह्मणों को फल दान दें और उनका आशीर्वाद प्राप्त करें। गोवत्स द्वादशी की कथा-बहुत समय पूर्व की बात है। भारतवर्ष में एक स्वर्णपुष्ट नाम का एक बहुत रमणिक नगर था। वहां देवरावी नाम का राजा राज्य करता था। राजा बहुत धर्मात्मा, दानी और गोमाता का सेवक था। उसके यहां एक गाय, बछड़ा और मैंसें रहती थीं। उस राजा के दो रानियां थीं। एक का नाम सीता और एक का नाम गीता था। सीता भैंस से प्यार करती थी और उसे अपनी सखी की तरह मानती थी जबकि गीता गाय और बछड़े से प्रेम करती थी। वह गाय को सहेली और बछड़े को अपने बच्चे के समान प्रेम करती थी।
एक दिन मैंस सीता से बोली-“हे रानी! गाय का बछड़ा होने से मुझे द्वेष है। सीता ने कहा अगर ऐसी बात है तो मैं सब काम ठीक कर लूंगी। सीता ने उसी दिन गाय के बछड़े को उठाकर गेहूं के ढेर में दवा दिया। इस बात का किसी को पता न चला। जब राजा खाना खाने गया तो उसके महल में मांस की वर्षा होने लगी। चारों ओर महल में मांस और रक्त दिखाई देने लगा। जो खाना रखा था वह पखाना बन गया। यह देख राजा बहुत चिन्ता में पड़ गया कि यह सब क्या है? उसी समय आकाशवाणी हुई कि राजन, तेरी स्त्री सीता ने गाय के बछड़े को काटकर गेहूं की ढेरी में दबा दिया है। इसी कारण यह सब हुआ है। इतना सुनकर राजा गुस्से से कांपने लगा। तभी दुबारा स्वर गूंजा कि हे राजन! कल गोवत्स द्वादशी है। अत: भैंस को राहर से बाहर निकालकर तुम व्रत रखकर गाय के बछड़े को मन में विचारकर उसकी पूजा करना। गाय, भैंस का दूध और फल नहीं खाना। साथ ही गेहूं की कोई वस्तु भी न खाना। तब तेरा सब पाप दूर हो जायेगा और बछड़ा भी जीवित हो जायेगा । जब गाय शाम को आयी तो वह भी बछड़े के बिना वेचैन हुई। दूसरे दिन राजा ने आकाशवाणी के अनुसार ही कार्य किया। पूजा करते समय जैसे ही बछड़े को मन याद किया वैसे ही बछड़ा गेहूं के ढेर से निकल आया। यह देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और गोवत्स द्वादशी का व्रत करने को पूरे राज्य में घोषणा करवा दी।
धनतेरस
धनतेरस कार्तिक मास कृष्ण पक्ष त्रयोदशी को मनाया जाता है। इस दिन घर में लक्ष्मी का वास मानते हैं। इस दिन को धन्वन्तरी वैद्य समुद्र से अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। अत: वह धनतेरस को “धनवन्तरी जयन्ती" भी कहते हैं। यह दिन दीपावली आने की पूर्व सूचना देता है, इस दिन बाजार से नया बर्तन खरीदकर घर में लाना शुभ माना जाता है।
धनतेरस की कथा-
एक दिन भगवान विष्णु लक्ष्मीजी के साथ मृत्युलोक में घूम रहे थे। एक जगह भगवान विष्णु कुछ सोचकर लक्ष्मीजी से बोले-मैं एक जगह जा रहा हूं। तुम यहीं पर बैठ जाओ लेकिन दक्षिण दिशा की ओर मत देखना। इतना कहकर भगवान विष्णु दक्षिण दिशा की ओर ही चले गये। जब लक्ष्मीजी ने भगवान विष्णु को दक्षिण दिशा की ओर जाते देखा तो सोचा कि भगवान ने मुझे तो दक्षिण दिशा की ओर देखने से भी मना कर दिया और स्वयं उसी ओर जा रहे हैं जरूर उसमें कोई भेद है।
इतना विचार कर लक्ष्मीजी इस भेद की जानने के लिए दक्षिण दिशा की और देखने लगी। उस दिशा में उन्हें पीली सरसों का खेत दिखाई दिया। उसे देखकर लक्ष्मीजी की आंखें ललचायीं। उन्होंने वहां जाकर अपना शृंगार किया। आगे चलकर उन्हें गन्ने का खेत दिखाई दिया वहां से गन्ना तोड़कर चूसने लगीं। जब भगवान विष्णु वहां से लौटे तो लक्ष्मीजी को वहां देखकर क्रोध करने लगे। उनके हाथ में गन्ना देखकर कहने लगे कि तुमने खेत के गन्ने तोड़कर बहुत बड़ा अपराध किया है इसके बदले तुम्हें इस गरीब किसान की बारह वर्ष तक सेवा करनी होगी। यह सुनकर लक्ष्मीजी घबराई परन्तु जो बात भगवान के मुख से निकल गयी वही उनको करनी थी। तब भगवान लक्ष्मीजी को छोड़कर क्षीर सागर में चले गये।
लक्ष्मीजी भगवान की आज्ञा मानकर उस किसान के घर चली गयी और उस किसान की नौकरानी बनकर उसकी सेवा करती रही जिस दिन लक्ष्मीजी किसान के घर में पहुंची किसान का घर उसी दिन से धन-धान्य से पूर्ण हो गया जब बारह वर्ष बीत गये लक्ष्मीजी जाने लगी। किन्तु किसान ने उन्हें जाने से रोक लिया। जब विष्णु भगवान ने देखा कि लक्ष्मीजी नहीं आई तो वह किसान के घर गये और लक्ष्मीजी से चलने के लिए कहने लगे, परन्तु किसान ने लक्ष्मीजी को नहीं जाने दिया। तब भगवान विष्णु बोले, अच्छा तुम अपने परिवार सहित गंगा स्नान के लिए जाओ और गंगाजी में इन चार कौड़ियों को छोड़ देना। जब तक तुम वापिस नहीं आयेंगे, जब तक हम नहीं जायेंगे। किसी ने ऐसा ही किया। जैसे ही किसान नेकौड़ियां पानी में छोड़ी तभी चार हाथ पानी से निकलकर उन कौड़ियों को ले गये।जब किसान ने ऐसा देखा तो वह गंगाजी से बोला-हे गंगा मय्या। तेरे अन्दर से ये चार हाथ किसके निकले? तब गंगाजी कहने लगी, हे किसान! ये चारों हाथ मेरे ही थे। तू जो ये कौड़ियां मुझे भेंट के लिए लाया है किसने दी हैं? तब किसान बोला-मेरे घर दो प्राणी आये हैं उन्होंने ही ये कौड़ियां दी हैं। तब गंगाजी बोली, तेरे घर जो औरत रहती है वह लक्ष्मीजी हैं और जो आदमी आया है वह विष्णु भगवान हैं। तू लक्ष्मी को मत जाने देना नहीं तो तू पहले की ही भांति गरीब हो जायेगा।
यह सुनकर वह वापस अपने घर आया। घर आकर भगवान से आकर कहने लगा -मैं इनको घर से जाने नहीं दूंगा। तब भगवान बोले-यह तो इनका दोष था जिसका मैने इनको दण्ड दिया था। इनके दण्ड के बारह वर्ष पूरे हो गये इसलिए अब तो इन्हें जाना ही होगा। तब किसान बोला, मैं इन्हें नहीं जाने दूंगा। भगवान हँसकर कहने लगे, हे किसान! लक्ष्मीजी बड़ी चंचल हैं। ये आज नहीं तो कल तेरे घर से अवश्य ही चली जायेंगी। तुम तो क्या अच्छे-अच्छे लक्ष्मीजी को नहीं रोक पाये। इस पर किसान कहने लगा, मैं इन्हें नहीं जाने दूंगा। तब लक्ष्मीजी बोलीं-हे किसान! यदि तुम मुझे रोकना चाहते हो तो सुनो कल तेरस है। अत: कल तुम घर को लीप-पोतकर साफ-सुथरा रखना। रात्रि को घी का दीपक जलाकर रखना। तब मैं तुम्हारे घर में आऊंगी। उस समय तुम मेरी पूजा करना, परन्तु तुम्हें दिखाई नहीं दूंगी। किसान ने कहा, अच्छा मैं ऐसा ही करूंगा। इतना कहकर लक्ष्मीजी दशों दिशाओं में फैल गयीं और भगवान देखते ही रह गये।
दूसरे दिन किसान ने लक्ष्मीजी के बताये अनुसार ही कार्य किया। उसका घर धन-धान्य से पूर्ण हो गया। इसके बाद वह हर साल पूजा करता रहा। उसको देखकर और व्यक्ति भी पूजा करने लगे हैं यहां। हे लक्ष्मीजी! जैसे तुम उस गरीब किसान के आई वैसे सबके आना! हमारे भी आना।
रूप चतुर्दशी
यह चतुर्दशी कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष में चौदस को आती है। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करनी चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण रूप-सौंदर्य को देते हैं। इस दिन व्रत भी रखा जाता है। रूप चतुर्दशी की कथा-एक समय भारतवर्ष में हिरण्यगर्भ नाम के नगर में एक योगिराज रहते थे। उन्होंने अपने मन को एकाग्र करके भगवान में लीन होना चाहा। अत: उन्होंने समाधि लगायी। उनके शरीर में कीड़े पड़ गये। बालों में छोटे-छोटे कीड़े लग गये। आंखों में, भौंहों में और माथे पर जुये जम गयौं, इससे योगिराज बहुत दुःखी हुए। इतने में वहां नारदजी घूमते-घूमते वीणा और खरसाल बजाते हुए आ गये। तब योगिराज बोले- भगवन भगवान के चिन्तन में लोन होना चाहता था परन्तु मेरी यह दशा हो गयी।"सब नारदजो बोले- हे योगिराज म चिन्तन करना जानते हो परन्तु देह आचार पालन नहीं जानते इसलिए तुम्हारी यह दशा हुई है।" उन योगिराज ने नारदजी से देहाचार पूछा। तब नारदजी बोले-आचार से अब कोई लाभ नहीं है अब मैं जैसा कहूँ तुम जैसा ही करना। फिर देहआचार बताऊगा। नारदजी बोले अब के कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को तुम व्रत रखकर भगवान की पूजा करना उस पूजा से तुम्हारा शरीर पहले जैसा रूपवान हो जायेगा। योगिराज ने ऐसा ही किया उसका शरीर स्वर्ण के समान हो गया। उसी दिन से इसको रूप चतुर्दशी भी कहा जाता है |
नरक चतुर्दशी
यह कार्तिक कृष्ण पक्ष की चौदस को आती है। इस दिन भगवान कृष्ण की पूजा करनी चाहिए। कहा जाता है कि इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध किया था। इस दिन निम्न मन्त्र पढ़कर भगवान पर फूल चढ़ाते हैं-
मन्त्र -
बसुदेव सुतं देव नरकासुर भदैनम्।
देवकी परमानन्दम् कृष्णाम् वन्दे जगदगुरुमा।
दोहा-
वासुदेव के पुत्र जो, नरकासुर के काल। रखे देवकी पुत्र सम, सभी झुकोव भाला।
इस प्रकार जो पूजा करते हैं, नरक छोड़कर स्वर्ग को जाते हैं। नरक चतुर्दशी की कथा-बहुत समय पहले की बात है एक रन्तिदेव नाम का राजा हुआ था। वह पूर्व जन्म में बहुत धर्मात्मा और दानी था। उस पुण्य के प्रताप से महाराजा हुआ। इस जन्म में भी उसने बहुत पुण्य किये। जब उसका अन्त समय आया तो उसे यमदूत लेने को आये तो राजा ने बड़े दु.खी मन से कहा-यमदूतों, मैंने जीवन में कभी अधर्म न करके सदैव दान-पुण्य किए हैं फिर मुझे नरकों को यातना क्यों दी जा रही है-
यमदूतों ने कहा, राजन! एक बार आपके द्वार पर आकर एक अतिथि भूखा-प्यासा चला गया और आपने उसका वाणी से भी सत्कार नहीं किया। इसलिए इस पाप में आपको कुछ दिन के लिए नरक का दुःख अवश्य भोगना पड़ेगा। यमदूतों की यह बात सुनकर राजा ने उनको कुछ क्षण ठहरने के लिए प्रार्थना की और तत्पश्चात् तुरन्त अपने मन्त्रियों को बुलवाकर दोन-अनाथों को इच्छानुसार धन-द्रव्य देकर उन्हें सन्तुष्ट करने को कहा। चूंकि उस दिन नरक चतुर्दशी थी इसी कारण उस दिन के दान-पुण्य से सन्तुष्ट हो गये। राजा नरक ना जाकर स्वर्ग को चला गया।
दीपावली पूजन
सामान्यत: दीपावली पूजन का अर्थ लक्ष्मी पूजा से लगाया जाता है, किन्तु इसके अन्तर्गत वरुण, नवग्रह षोडशमातृका, गणेश, महालक्ष्मी, महाकाली, महासरस्वती, कुबेर, तुला, मान व दीपावली की पूजा भी होती है।
पूजन का समय-
दीपावली प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास में कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाई जाती है।
दीपावली पूजन के लिये आवश्यक सामग्री
लक्ष्मी व गणेश की मूर्तियां, लक्ष्मी सूचक सोने अथवा चांदी का सिक्का, लक्ष्मी स्तान के लिये स्वच्छ कपड़ा, लक्ष्मी सूचक सिक्के को स्नान के बाद पोंछने के लिये। एक बड़ी व दो छोटी चौकियां। बही खाते, सिक्कों की थैली, लेखनी, काली स्याही से भरी दवात, तीन थालियां, एक साफ कपड़ा, धूप, अगरबत्ती, मिट्टी के बड़े व छोटे दीपक, रूई, माचिस, सरसों का तेल; शुद्ध घी, दूध, दही, शहद, शुद्ध जल।
पंचामृत (दूध, दही, शहद, घी व शुद्ध जल का मिश्रण)
मधुपर्क (दूध, दही शहद व शुद्ध जल का मिश्रण)
हल्दी व चूने का पाउडर, राली , चन्दन का चुरा , कलावा, आधा किलो साबुत चावल, कलश, दो मीटर सफेद वस्त्र, दो मीटर लाल वस्त्र , हाथ पोछने के लिये कपड़ा, कपूर, नारियल, गोला, मेवा, फूल, गुलाब अथवा गेंदे की माला, दूर्वा पान के पत्ते, सुपारी, बताशे, खांड के खिलौने, मिठाई, फल, वस्त्र साड़ी आदि. सूखा मेवा, खील, लौंग, छोटी इलायची, केसर, सिदूर कुंकुम, गिलास, चम्मच, प्लेट कड़छुल, कटोरी, तीन गोल प्लेट द्वार पर टांगने के लिये वन्दनवार |
दीपावली पूजन की तैयारी
चौकी पर लक्ष्मी व गणेश की मूर्तियां इस प्रकार रखें कि उनका मुख पूर्व वा पश्चिम में रहे। लक्ष्मीजी, गणेशजी के दाहिनी ओर रहें।
पूजनकर्ता मूर्तियों के सामने की तरफ बैठे।
कलश को लक्ष्मीजी के पास चावलों पर रखें। नारियल को लाल वस्त्र में इस प्रकार लपेटें कि नारियल का अग्रभाग दिखाई देता रहे व इसे कलश पर रखें। यह कलश वरुण का प्रतीक है। दो बड़े दीपक रखें। एक में घी भरें व दूसरे में तेल। एक दीपक चौकी के दायों ओर रखें व दूसरा मूर्तियों के चरणों में। इसके अतिरिक्त एक दीपक गणेशजी के पास रखें। मूर्तियोंवाली चौकी के सामने छोटो चौका रखकर उस पर लाल वस्त्र बिछाएं।कलश की ओर एक मुट्ठी चावल से लाल वस्त्र पर नवगह को प्रतीक नौ ढेरिया (3x3) बायें। गणेशजी की ओर चावल की सोलह टेरियां (4x4) बनायें। ये सोलह मातृका (2) का प्रतीक हैं। नवग्रह व सोलह मातृका के बीच स्वास्तिक के चिन्ह (3) बनायें। इसके बीच में सुपारी (4) रखें व चारों कोनों पर चावल की ढेरी। सबसे ऊपर बीचों-बीच ॐ लिखें।
लक्ष्मीजी की ओर श्री का चिन्ह (5) बनायें। गणेशजी की ओर त्रिशूल, (6) चावल का ढेर लगायें, (7) (ब्रह्माजी का प्रतीक)। सबसे नीचे चावल की नौ देरियां बनायें। (6) (मातृका की प्रतीक)-इन सबके अतिरिक्त बहीखाता, कलम-दवात व सिक्कों की थैली भी रखें। आपके परिवार के सदस्य आपकी बायीं ओर बैठे। कोई आगन्तुक हो तो वह आपके या आपके परिवार के सदस्यों के पीछे बैठे।
दीपावली पूजन का प्रारम्भ
सबसे पहले पवित्रीकरण करेंगे- आप हाथ में पूजा के जलपात्र सेथोडा सा जल ले ले और अब उसे मूर्तियों के ऊपर छिड़कें। साथ में मंत्र पढ़ें। इस मंत्र और पानी को छिड़क करके आप अपने आपको , पूजा की सामग्री की ओर अपने आसन को भी पवित्र कर लें।
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपिवा। यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स वाह्याभ्यन्तर शुचिः॥
थाली में जो दीपक रखे हुए हैं, उनको अब जला दीजिए। हाथ में रोली और चावल लीजिए। अब प्रार्थना कीजिए-
भो दीप ब्रह्मरूप त्वमन्धकारनिवारक। इमां मया कृतां पूजां गृहस्तेजः प्रवर्धय॥ ॐ दीपेभ्यो नमः।
अर्थ-हे दीप! आप ब्रह्मरूप हैं। आप अन्धकार का निवारण करने वाले हैं। आप मेरे द्वार की गई इस पूजा को ग्रहण करें तथा तेज की वृद्धि करें। ॐ, दीपक को नमस्कार है। रोली के छीटे लगा दीजिए। हाथ में चावल ले करके पुन: बोलिए-
ॐ चक्षुर्दै सर्वलोकानां तिमिरस्य निवारणम्। आर्तिकर्य कल्पितं भक्त्या गृहाण परमेश्वरि।
अर्थ-ॐ, सब लोकों को चक्षु प्रदान करने वाले, अंधकार का नाश करने वाले दीपक द्वार यह भक्त आपकी आरती करता है। हे परमेश्वरी!आप इसे स्वीकार कीजिए। थाली के दीपकों के ऊपर चावल छोड़ दीजिए। अब इन दीपकों को आप स्वयं या अपने बच्चों से या अपने परिजनों से घर या ऑफिस के विभिन्न स्थानों पर रख दीजिए। यही दीपावली पूजन है। यही दीप पूजन है। यही दीपावली है। अब हम लोग आरती करेंगे। आरती या निराजन, जिस थाली में पुरान, साप, धूप, दीप इत्यादि, मेवा, मिठाई, भोग-प्रसाद आदि रखा हुआ है, उस बाली की ने लीजिए। थाली को हाथ में लेकर के घुमा-बुमा करके और थाली बाई से दाहिती , नीचे से ऊपर घुमाइए। थाली से एक 'ॐ' का आकार बनाइए। साथ-साथ में गाइए-
लक्ष्मीजी की आरती
ॐ जय लक्ष्मी माता, पैया जय लक्ष्मी माता।
तुमको निशि-दिन सेवतन, हर-विष्णु-धाता ।।
ॐ जय लक्ष्मी माता
उया, रमा, ब्रह्माणी, तू ही है जग पाता।
सूर्य-चन्द्रमा, ध्यावत, नारद ऋषि गाता ||
ॐ जय लक्ष्मी माता
दुर्गा रूप निरंजनि, सुखा-सम्पत्ति-दाता।
जो कोई तुमको ध्यावत, ऋद्धि-सिद्धि धन पाता।|
ॐ जय लक्ष्मी माता
तू ही है पाताल-निवासिनी, तू ही है शुभ-दाता।
कर्म-प्रभाव-प्रकाशिनि, जग निधिक्री त्राता ||
ॐ जय लक्ष्मी माता
जिस घर थारो वासो, वाहीमें गुण आता।
कर न सके सोई कर ले मन नहीं घबराता ।|
ॐ जय लक्ष्मी माता
तुम बिन यज्ञ न होवे, वस्त्र न होर पाता।
खान-पान का वैभव, तुम बिन कुन दाता ।|
ॐ जय लक्ष्मी माता
शुभ-गुण मन्दिर योक्ता, ओनिधि जाता।
रत्न चतुर्दश तो को, कोई नहिं पाता ||
ॐ जय लक्ष्मी माता
आरती लक्ष्मीजी की, जो कोई नर गाता।
उर आनन्द अति उमगे, पाप उतर जाता
ॐ जय लक्ष्मी माता
शान्तिः शांतिः शान्तिः
लक्ष्मी मैया की जय। जय लक्ष्मी माता। भारती की थाली नीचे रख लीजिए। जरा-सा जल छोड़ दीजिए। आरती के बाद थोड़ा-सा उल्न छोटना जरूरी है और अब हाथ में पुष्प ले लीजिए और पुष्पांजलि कीजिए। अंजलि-भर जो फूल ले रखे हैं, उन्हें लक्ष्मी माता के चरणों में अर्पित कर दीजिए। मां को प्रणाम कीजिए। माथा टेक लीजिए। नमस्कार करके सामर्थ्य के अनुसार कुछ द्रव्य चढ़ा दीजिए- शान्तिः शान्तिः शान्तिः। पूजा सम्पन्न हो गयी।
दीपावली पूजन कथा
एक बार अनेक मुनियों ने श्री सनत कुमार से पूछा-"भगवान! दीपावली के दिन भगवती लक्ष्मी के साथ अनेक देवी-देवताओं की पूजा का जो महत्त्व बताया गया है, उसका क्या कारण है? क्योंकि दीपावली तो केवल लक्ष्मी का पर्व है?" मुनि की उचित शंका का समाधान करते हुए सनत कुमार ने कहा- "मुनिवृन्द! दैत्यराज! बलि का प्रताप जब समस्त भुवनों में फैल गया तो उसने अपने प्रतिद्वन्द्वी देवताओं को बन्दी बना लिया था। उसके कारागार में लक्ष्मी के साथ सभी देवी-देवता बन्दी थे। कार्तिक की अमावस्या के दिन वामन रूपधारी भगवान विष्णु ने जब बलि को बांध लिया तो सब लोग कारागार से मुक्त हुये। कारागार से मुक्त होकर सबने लक्ष्मी के साथ ही क्षीर सागर में जाकर शयन किया था, इसलिये दीपावली के दिन लक्ष्मी-पूजन के साथ ही क्षीर सागर में जाकर शयन किया था, इसलिये दीपावली के दिन लक्ष्मी-पूजन के साथ हमें उन सबके शयन का अपने-अपने घरों में उत्तम प्रबन्ध कर देना चाहिये जिससे कि लक्ष्मी के साथ वहां निवास करें, अन्यत्र न जायें। देवताओं और लक्ष्मी की यह शय्या मनुष्यं द्वारा कभी प्रयुक्त न हो। उस पर स्वच्छ सुन्दर तकिया, रजाई आदि भी रहें, कोमल एवं सुगन्धित कमल पुष्पों को भी रखना चाहिए, क्योंकि लक्ष्मी कमलामयी कही गयी हैं। हे मुनिवृन्द! जो लोग इस विधि से लक्ष्मी की पूजा करते हैं, उनको छोड़कर लक्ष्मी अन्यत्र कहीं नहीं जातीं। इसके विपरीत जो लोग दीपावली को प्रमाद और निद्रा में विताते हैं, उनके घर पर दरिद्रता का निवास होता है। दीपावली की रात्रि में लक्ष्मी का आह्वान करते समय उनके मनोहर स्वरूप का ध्यान करना चाहिए, फिर गाय के दूध का खोया बनाकर उसमें मिश्री, कपूर, इलायची आदि सुगन्धित चीजें डालकर लड्डू बनाना चाहिये जिससे लक्ष्मीजी का भोग लगाया जाए।
इसके अतिरिक्त अपनी सामर्थ्य के अनुसार भोज्य, भज्य पेय, घोल, चारों प्रकार के व्यंजन एवं पुष्प फलादि भी लक्ष्मीजी को भेंट करने चाहियें। तदनन्तर दीपदान का विधान है। दीपदान के समय कुछ दीपकों को अपने प्रियजनों के अनिष्ट की निवृत्ति के लिए मस्तष्क के चारों ओर से घुमाकर किसी चौराहे या श्मशान भूमि में रखवा देना चाहिये। नदी, तालाब, कुएं, चौराहे आदि सार्वजनिक स्थानों पर दीपदान करना चाहिये तथा ब्राह्मणों को दक्षिणा एवं भोजन वस्त्रादि से सत्कृत करना चाहिये।
गोवर्धन पूजा (अन्न कूटोत्सव)
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को अन्नकूट उत्सव मनाया जाता है। इसी दिन बालि पूजा, गोवर्धन पूजा इत्यादि होते हैं। इस दिन गोबर का अन्नकूट बनाकर या उसके निकट विराजमान श्री कृष्ण के समान गाय और बगवाल बालों की पूजा होती है। इस दिन मन्दिरों में अनेक प्रकार की खादा सामग्रियों का भगवान को भोग लगाया जाता है |
गोवर्धन व अन्नकूट की कथा-.
एक दिन भगवान श्रीकृष्ण ने नन्द बाबा से कहा, हमारे गांव में ये तरह तरह के पकवान क्यों बनाये जा रहे हैं। इनका क्या महत्त्व है? नन्द बाबा बोले- हे कृष्णा काल इन्द्र की पूजा होगी। इन्द्र रोप वर्षा कर हमें अन्न देते है। गायों के लिए चारा देते हैं। तब भगवान कृष्ण कहने लो, बाबा हमारे गांव में गोवर्धन पर्वत साक्षात देवता हैं उनकी पूजा करो। ये हमारी पूजा स्वीकार करेंगे और प्रकट होकर स्वयं भोजन करेंगे। इन्द्र कुछ भी नहीं है उसकी आप व्यर्थ में ही पूजा करते हैं। कृष्ण की बात मानकर सभी गोप गोपिकायें गोवर्धन को पूजने के लिए गये। तब भगवान श्रीकृष्ण अपना चतुर्भुज रूप धरकर स्वयं गोवरधन पर्वत पर बैठ गये। गोपने गोपियों के भोग को खाने लगे। तभी से गोबरधन पर्वत का महत्व बढ़ गया। इन्द्र के स्थान पर सभी गोवरधन की ही पूजा करने लगे।
भैया दूज टीका
भैया दूज टीका को कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वितीया को मनाया जाता है। यह भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक है। इस दिन भाई बहन को साथ साथ यमुना स्नान करना, तिलक लगवाना, भाई को बहिन के घर भोजन करना अति फलदायी होता इस दिन बहन भाई की पूजा करके उसको दीर्घायु और अपने सुहाग की हाथ जोड़कर यमराज से प्रार्थना करती है। इस दिन सूर्य तनया जमुनाजी ने अपने भाई यमराज को भोजन कराया था। इसलिए इसे यम द्वितीया भी कहते हैं। इस दिन श्रद्धा अनुसार भाई स्वर्ण वस्त्र, मुद्रा आदि बहन को दे। भैया दूज की कहानी-सूर्य देव की पत्नी का नाम संज्ञा देवी था। उसके एक पुत्र तथा एक पुत्री थी। लड़के का नाम यमराज और लड़की का नाम यमुना था। अपने पति सूर्य नारायण की तेज गर्मी के कारण संज्ञा उत्तरी ध्रुव में छाया बनकर रहने लगी। उस लाया से ताप्ती नदी और शनिश्चर का जन्म हुआ। उसके पश्चात संज्ञा से ही अश्विनी कुमार हुए जो आगे चलकर देवताओं के वैद्य बने। जी संज्ञा छाया बनकर उत्तरी धूप में रहती थी वह यमराज च यमुना के साथ सौतेली माँ सा व्यवहार करने लगी | अपनी मां के व्यवहार को देखकर यमराज ने संयमनीपुरी छोड़कर यमलोक बसाया और पापियों को देने का कार्य शुरू कर दिया। यमुना अपने भाई यमराज के जाते ही गौलोक मे चली गयी, और कृष्ण अवतार से पहले मथुरा में विश्राम घाट पर आकर रहने लगी |
जब बहुत दिन बीत गये, तब यमराज को अपनी बहन यमुना की याद आयी। यमराज ने अपनी बहन को ढूँढने के लिए अपने दूत भेजे। यमदूत ढूँढते ढूँढते मथुरा आ पहुंचे परन्तु उन्हें यमुना नहीं मिली। तब यमदूत डरते डरते यमपुरी पहुंचे और यमुना का ना मिलने का समाचार कह सुनाया। फिर यमराज अपनी यमपुरी से स्वयं गोलोक आये और यमुनाजी को ढूँढते ढूँढते यमुनाजी के विश्राम घाट पर पहुंचे। वहां जब यमुना ने सुना कि मेरे भाई आये हैं तो वह बाहर आई और भाई को सत्कार सहित अपने महल में ले गयी और उन्हें भोजन आदि कराया। इससे प्रसन्न होकर यमराज ने यमुना से कहा-बहन। जो चाहो वर मांग लो। तब यमुना बोली, मुझे कुछ नहीं चाहिए। तब यमराज ने कहा, नहीं बहन आज तो तुम्हें कुछ ना कुछ मांगना हो होगा।
तब यमुना बोली-भैया! जो नर-नारी मेरे जल में स्नान करें वे यमपुरी ना जायें। यह सुनकर यमराज सोचने लगे, यदि ऐसा हो गया तो यमपुरी उजड़ जायेगी। भाई को विचार मग्न देखकर यमुना जोली, अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते तो सुनो जो भाई आज के दिन बहन के यहा भोजन करे और बहन के साथ इसी घाट पर विश्राम कर मेरे जल में स्नान करे वह यमलोक को नहीं जायेगा। इस दिन पर यमराज यमुना से बोले-यह बात मुझे स्वीकार है। इस दिन जो भाई बहन के घर भोजन कर तुम्हारे घाट पर विश्राम कर तुम्हारे जल में स्नान नहीं करेंगे उन्हें मैं बांधकर यमपुरी ले जाऊंगा और जो भाई-बहन तुम्हारे पवित्र जल में स्नान करेंगे उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होगी।
सूर्य छठ
यह छठ कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को आती है। इस दिन व्रत रखकर सूर्य नारायण की पूजा करनी चाहिए। सर्वप्रथम सूर्यदेव को अर्घ्य दें, फूल चढ़ायें, फिर आरती उतारकर साष्टांग प्रणाम करें। सूर्य भगवान की पूजा करने से धन और सन्तान को प्राप्ति होती है और संतान के कष्ट दूर हो जाते हैं। आंखों की बीमारी दूर हो जाती है। अर्घ्य देते समय सूर्य की किरणों को जल में अवश्य देखें। सूर्य छठ की कथा-बहुत समय पहले की बात है कि बिन्दुसार तीर्थ में एक महीपाल नाम का वैश्य रहता था। वह धर्म का कट्टर विरोधी था। देवताओं की पूजा कभी नहीं करता था। एक दिन उसने सूर्य भगवान को गाली देते हुए उनकी प्रतिमा के समक्ष मल-मूत्र त्याग दिया। इसको देखकर सूर्यदेव क्रोधित हो बोले-"हे दुष्ट! तू अभी अन्धा हो जा।" इतने कहते ही वह महीपाल नामक वैश्य अन्धा हो गया। अन्धा होने के कारण वह वैश्य दुःखी रहने लगा।
एक दिन उसने सोचा, इससे तो अच्छा है भगवान मेरे प्राण ही ले लें। इतना सोचकर वह गंगाजी में प्राण त्यागने के लिए चल पड़ा। जब वह रास्ते में जा रहा तभी उसे नारदजी मिले और कहने लगे-लालाजी, इतनी जल्दी कहां जा रहे है? तब वह वैश्य बोला-महाराज! मैं अन्धा हूं अत: इस कष्ट से दुःखी होकर गंगा में गिरकर प्राण त्यागने जा रहा हूं। तब नारदजी बोले, अरे मूर्ख! तुझे यह कष्ट सूर्य भगवान के क्रोध के फलस्वरूप प्राप्त हुआ है, इसलिए तू कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्टमी को व्रत रखकर सूर्य भगवान की पूजा करना। तब सूर्य भगवान तुझे क्षमा करके तेरे नेत्रों को पुन: ठीक कर देंगे। महीपाल ने ऐसा ही किया और उसकी आंखें उसे पुनः प्राप्त हो गयौं।
आंवला नवमी या युगादि नवमी
यह कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी को आती है। कहते हैं इस दिन से सतयुग प्रारम्भ हुआ था। इसलिए यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण तिथि है। इस दिन आंवले के वृक्ष की पूजा होती है। हजारों नर-नारियां आंवलों की पूजा करते हैं और ब्राह्मणों को आंवले के वृक्ष के नीचे भोजन कराकर उन्हें दान-दक्षिणा देते हैं। उन्हें इस दिन आंवला भी दान देना चाहिए।
आंवला या युगादि नवमी की कथा-
काशी नगरी में एक वैश्य रहता था। वह बात धमात्मा और दानी था, परन्तु उसके कोई सन्तान न थी। एक दिन उस वैश्य की स्त्री से एक औरत ने कहा-"तू किसी बच्चे की बलि भैरव पर चढ़ा दे तो तेरे सन्तान हो जायेगी। यह बात उस स्त्री ने अपने पति से कही। पति बोला, यह ठीक नहीं है, यदि किसी के बच्चे को मारकर मुझे भगवान भी मिलें तब भी मुझे स्वीकार नहीं है-बच्चे को प्राप्त करने की बात तो बहुत दूर है। पति की बात सुनकर वह चुप रही, परन्तु वह अपनी सहेली की बात नहीं भूली।
बात को सोचते-सोचते एक दिन उस वैश्य की स्त्री ने एक लड़की को भैरो बाबा के नाम पर कुएं में डाल दिया। लड़की की मृत्यु हो गयी, परन्तु उसके सन्तान नहीं हुई। सन्तान के बदले उसके शरीर से पाप फूट-फूट कर निकलने लगा। उसको कोढ़ हो गया। लड़की की मृत्यु उसकी आंखों के सामने नाचने लगी। वैश्य ने जब अपनी स्त्री से उसकी हालत का कारण पूछा तो उसने उस लड़की के विषय में बता दिया। तब वैश्य बोला, यह तुमने अच्छा नहीं किया क्योंकि ब्राह्मणवघ, गौवध और बालवध के अपराध से कोई मुक्त नहीं होता। अत: तुम गंगा के किनारे रहो और नित्यप्रति गंगा स्नान करो। इस बात को सुनकर वैश्य की पत्नी ने ऐसा ही किया एक दिन गंगाजी उस वैश्य पत्नी के पास एक बूढ़ी स्त्री का रूप धारण करके आई और कहने लगी, हे, बेटी! तू मथुरा में जाकर कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी को व्रत रखना और आंवला की पूजा करकमथुरा की परिक्रमा करना। यह व्रत तीन वर्ष में तीन बार करना इससे तेरा मंगल होगा। इतना कहकर गंगाजी अन्तर्ध्यान हो गई। इस वैश्य की पत्नी ने यह बात अपने पति से कही, पति की आज्ञा ले उसने ऐसा ही किया, मथुरा में जाकर व्रत रखा आंवले की पूजा और मथुराजी की पांच कोस की परिक्रमा की। उसने यह व्रत तीन वर्ष तक लगातार किया। इस व्रत के प्रभाव से उस वैश्य-पत्नी का कोढ़ ठीक हो गया और एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ, जो अत्यधिक सुन्दर सुशील एवं गुणवान था।
ग्रीष्म पंचक
यह व्रत कार्तिक शुक्ल एकादशी से प्रारम्भ होकर पूर्णिमा को समाप्त होता है। इसे पंचभीका भी कहते हैं। कार्तिक स्नान करने वाले स्त्री-पुरुष पांच दिन का निराहार (निर्जल) व्रत करते हैं। धर्म, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए यह व्रत किया जाता है। कहानी सुनकर गीत गाये जाते हैं।
बैकुण्ठ चतुर्दशी व्रत
यह व्रत कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को होता है। इस दिन व्रत रखकर बैकुण्ठ विधरी की पूजा करनी चाहिए | चतुर्दशी के दिन व्रत रखने वाले पहले स्वयं स्नान करके फिर भगवान को स्नान कराकर भोग लगायें। भोग के उपरान्त आचमन लगाकर फूल, दीप, चन्दन आदि से आरती उतारकर भोग को बांट दें। इसके बाद ब्राह्मणों को भोजन करायें तथा उन्हें दक्षिणा देकर विदा करें। रात्रि में मूर्ति के सम्मुख हो सोयें। दिन भर कीर्तन करें। इस व्रत को करने से बैकुण्ठ धाम की प्राप्ति होती है। मनुष्य सभी बन्धनों से मुक्त हो जाता है। बैकुण्ठ चतुर्दशी की कथा-एक समय की बात है भगवान बैकुण्ठ में बैठे हुए थे। तभी उनके पास नारद मुनि आये। नारदजी को देखकर भगवान ने उनके आने का कारण पूछा। नारदजी बोले-आपने अपना नाम कृपानिधान रखा है, परन्तुआपके लोक में तो आपके भक्तजन ही आ पाते हैं। फिर आपकी उनके ऊपर कृपा क्या हुई? वे तो अपने जप-तप के प्रभाव से आपके धाम में आ ही जाते हैं। भगवान बोले, नारदजी मैं आपकी बात समझ नहीं पाया।
नारदजी बोले-क्या आपने ऐसा सुलभ मार्ग बनाया है जिससे कम सेवा करने वाला भी आपकी शरण में आ सके? तब भगवान बोले-“हे नारदजी! यदि आप ऐसा कहते हैं तो सुनो, कार्तिक शुक्ल पक्ष की चौदस के दिन जो भी मनुष्य मेरी सच्चे मन से पूजा करेगा और स्वर्ग द्वार जो देव मन्दिरों में बने हुए हैं, उनमें मेरी सवारी के साथ प्रवेश करेगा। वह बैकुण्ठ को प्राप्त होगा। तभी भगवान ने जया और विजय को बुलाकर कहा-देखो, कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को स्वर्ग का दरवाजा खुला रहना चाहिये। इस दिन जो व्यक्ति नाम मात्र को भी मेरी पूजा करे, उसे स्वर्ग में स्थान दे। इस बात को सुनकर नारदजी कहने लगे-हे कृपानिधान! अब आप दीनानाथ कहलाने के अधिकारी हैं। यह कहकर नारदजी हरि गुण गाते वीणा बजाते चले गये।
कार्तिक पूर्णिमा
कार्तिक स्नान का बड़ा महत्त्व है। इस महीने में ब्रह्म मुहूर्त में स्नान किया जाता है। कार्तिक स्नान शरद पूर्णिमा से ही आरम्भ हो जाते हैं और कार्तिक पूर्णिमा तक महीने भर स्नान होते हैं। बड़ी सुबल स्त्रियां तथा लड़कियां नहरों, तालाबों, कुओं तथा नदियों जहां जैसी सुविधा है स्नान करने जाती हैं। स्नान के उपरान्त पूजा-पाठ करती हैं और कहानी सुनती हैं। हर रविवार को व्रत रखा जाता है और राई-दामोदर की पूजा की जाती है। कार्तिक के इस अन्तिम दिन स्नान के उपरान्त ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं। हवन कर भगवान की पूजा कर दीपक जलायें। यदि श्रद्धा हो तो भगवान का छप्पन प्रकार का भोग लगायें। यह कार्तिक मास समस्त मनोरथ को पूर्ण करने वाला बहुत फलदायक है।
देवोत्थानी (हरि प्रबोधिनी) एकादशी
आषाढ़ शुक्ल पक्ष एकादशी को जो देव सोते हैं वे इस कार्तिक शुक्ल एकादशी को उठ जाया करते हैं। इस व्रत के दिन स्त्रियां स्नानादि से निवृत होकर आंगन में चौक पूरकर विष्णु भगवान के चरणों को कलात्मक रूप से आंगन में अंकित करती हैं। दिन की तेज धूप में विष्णु के चरणों को ढांप दिया जाता है। प्रात: उन्हें जगाने से पूर्व रात्रि को विधिवत् पूजन किया जाता है। इस दिन गीत , भजनों द्वारा देवों को उठाया जाता है। कई राज्यों में इस दिन नगर, गांव के लड़के साखी गाते हुए अन्न, रुपया-पैसा इकट्ठा करते हैं और जयकारा लगाते हुए मिठाइयां खाते हैं। पूजन के बाद व्रत की कथा सुनी जाती है।
तारा भोजन
कार्तिक लगते ही पूर्णिमा से लेकर एक माह तक नित्य प्रति व्रत करें। प्रतिदिन रात्रि में तारों को अर्घ्य देकर फिर स्वयं भोजन करें। व्रत के आखिरी दिन उजमन करें। उजमन में पांच सीदे और पांच सुराई ब्राह्मणों को दें। साड़ी, ब्लाउज और रुपये रखकर अपनी सासु मां को पैर छू कर दें।
छोटी सांकली
छोटो सांकलौ कार्तिक लगते ही पूर्णिमा से करें। उस दिन बिल्कुल न खायें। फिर दो दिन भोजन करें। इसके पश्चात् फिर एक दिन भोजन न करें। इसके बीच में रविवार या एकादशी पड़ जाये तो दो दिन तक बिल्कुल भोजन न करें। इस प्रकार एक माह तक यह क्रम चलता रहे। व्रत पूरे होने पर हवन तथा उजमन करें। तैंतीस ब्राह्मणों को भोजन करायें-और एक ब्राह्मण जोड़े को (पति-पत्नी) को भोजन करायें। फिर साड़ी और रुपये अपनी सासु मां को पैर छूकर दें।
बड़ी सांकली
बड़ी सांकली पूर्णभासी से करें। इसमें एक दिन भोजन बिल्कुल न करें। फिर दूसरे दिन भोजन करें। फिर तीसरे दिन भोजन न करें। एकोदशी या रविवार बीच में पड़ जाने पर दो दिन तक भोजन न करें। इस प्रकार एक माह तक क्रम चलता रहे। उजमन आदि छोटी सांकली की तरह ही करें।
चन्द्रायण व्रत
यह व्रत कार्तिक लगते ही पूर्णमासी से लेकर कार्तिक उतरते पूर्णमासी तक करें। प्रतिदिन गंगा या यमुना में स्नान कर भगवान विष्णु और तुलसीजी की पूजा करें। अपने घर में किसी स्थान पर एक घी का अखण्ड दीपक पूरे माह तक जलायें। दीपक के पास ही नदी की मिट्टी में जौ या गेहूं उगा दें। एक तुलसीनी तथा भगवान की मूर्ति रखकर नित्य उन सबकी पूजा करें और व्रत रखें। व्रत के पहले दिन शाम को एक गिलास दूध या रस या एक छटांक पिसे हुए बादाम खा लें। दूसरे दिन इसको दुगनी मात्रा, तीसरे दिन तिगुनी, चौथे दिन चौगुनी मात्रा लें। इस प्रकार पन्द्रहवें दिन पन्द्रहगुनी मात्रा भोजन में लें। सोलहवें दिन फिर एक-एक मात्रा घटाते जायें, सोलहवें दिन चौदहगुनी, सत्रहवें दिन तेरहगुनी इस प्रकार महीने के आखिरी दिन फिर वही मात्रा रह जायेगी, जो मात्रा व्रत के पहले दिन थी। व्रत के आखिरी दिन पूजा करने के बाद 36 ब्राह्मणियों को भोजन कराकर सुहाग पिटारी देकर विदा करें और साड़ी पर रुपये रखकर अपनी सासु मां को पैर छूकर दें।
तीरायत व्रत
कार्तिक उतरते ही नवमी-दशमी, एकादशी-इन तीनों दिन व्रत रखें। द्वादशी के दिन 3 ब्राह्मण और तीन ब्राह्मणियों को भोजन कराकर स्वयं भोजन करें।