Difference between revisions of "Ashwini month festival (आश्विन मास के अंतर्गत व्रत व त्यौहार)"

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search
m
 
Line 27: Line 27:
 
=== महालक्ष्मी व्रत ===
 
=== महालक्ष्मी व्रत ===
 
महालक्ष्मी व्रत राधा अष्टमी से आरम्भ होता है तथा आश्विनी कृष्ण पक्ष की अष्टमी को समाप्त होता है। इस दिन लक्ष्मीजी की पूजा करनी चाहिए। सर्वप्रथम लक्ष्मीजी की मूर्ति को स्नान कराके फिर नये-नये वस्त्र पहनाकर भोग लगायें तथा आचमन कराकर फूल, धूप, दीप, चन्दन इत्यादि से आरती करें एवं भोग को आरती के पश्चात् वितरण कर दें। रात्रि में चन्द्रमा निकलने पर उसे अर्घ्य दें एवं आरती करें फिर स्वयं भोजन करें। इस व्रत के करने से धन-धान्य की वृद्धि होती है तथा सुख मिलता है। व्रत कथा-प्राचीन समय में किसी गांव में एक विद्वान, गरीब ब्राह्मण रहता था, जो नियम का बहुत पक्का था। एक जंगल में पुराना विष्णु भगवान का मन्दिर था। इसमें वह नित्यप्रति नियम से पूजा करने जाया करता था। उसकी पूजा को देखकर भगवान विष्णु उस पर प्रसन्न हुए तथा उसे दर्शन दिए। भगवान ने उसे धन देने का निश्चय कर लिया तथा उसे धन प्राप्त करने का तरीका बताया कि मन्दिर के सामने एक औरत कंडे थापने आती है, सुबह आकर उससे अपने घर रहने का आग्रह करना और तब तक न छोड़ना जब तक वह तुम्हारे घर रहने के लिए स्वीकार न कर ले। वह मेरी स्त्री लक्ष्मी है। उसके तुम्हारे घर आते ही सारे दु:ख दूर हो जायेंगे। इतना कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गये और ब्राह्मण अपने घर चला गया। दूसरे दिन वह सुबह-सवेरे ही मन्दिर में जाकर उसने आंचल पकड़ लिया। उसने देखा कि वह एक ब्राह्मण है, उससे उन्होंने आंचल छोड़ने को कहा। ब्राह्मण बोला-"तुम मुझसे वादा करो कि तुम मेरे घर में वास करने आओगी।" इस प्रकार लक्ष्मीजी उस ब्राह्मण के घर वास करने लगों। अत: उसका घर धन-धान्य से भर गया। अतएव यह व्रत लक्ष्मीजी के नाम से ही जाना जाता है।
 
महालक्ष्मी व्रत राधा अष्टमी से आरम्भ होता है तथा आश्विनी कृष्ण पक्ष की अष्टमी को समाप्त होता है। इस दिन लक्ष्मीजी की पूजा करनी चाहिए। सर्वप्रथम लक्ष्मीजी की मूर्ति को स्नान कराके फिर नये-नये वस्त्र पहनाकर भोग लगायें तथा आचमन कराकर फूल, धूप, दीप, चन्दन इत्यादि से आरती करें एवं भोग को आरती के पश्चात् वितरण कर दें। रात्रि में चन्द्रमा निकलने पर उसे अर्घ्य दें एवं आरती करें फिर स्वयं भोजन करें। इस व्रत के करने से धन-धान्य की वृद्धि होती है तथा सुख मिलता है। व्रत कथा-प्राचीन समय में किसी गांव में एक विद्वान, गरीब ब्राह्मण रहता था, जो नियम का बहुत पक्का था। एक जंगल में पुराना विष्णु भगवान का मन्दिर था। इसमें वह नित्यप्रति नियम से पूजा करने जाया करता था। उसकी पूजा को देखकर भगवान विष्णु उस पर प्रसन्न हुए तथा उसे दर्शन दिए। भगवान ने उसे धन देने का निश्चय कर लिया तथा उसे धन प्राप्त करने का तरीका बताया कि मन्दिर के सामने एक औरत कंडे थापने आती है, सुबह आकर उससे अपने घर रहने का आग्रह करना और तब तक न छोड़ना जब तक वह तुम्हारे घर रहने के लिए स्वीकार न कर ले। वह मेरी स्त्री लक्ष्मी है। उसके तुम्हारे घर आते ही सारे दु:ख दूर हो जायेंगे। इतना कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गये और ब्राह्मण अपने घर चला गया। दूसरे दिन वह सुबह-सवेरे ही मन्दिर में जाकर उसने आंचल पकड़ लिया। उसने देखा कि वह एक ब्राह्मण है, उससे उन्होंने आंचल छोड़ने को कहा। ब्राह्मण बोला-"तुम मुझसे वादा करो कि तुम मेरे घर में वास करने आओगी।" इस प्रकार लक्ष्मीजी उस ब्राह्मण के घर वास करने लगों। अत: उसका घर धन-धान्य से भर गया। अतएव यह व्रत लक्ष्मीजी के नाम से ही जाना जाता है।
 +
[[Category:हिंदी भाषा के लेख]]
 +
[[Category:Hindi Articles]]
 +
[[Category:Festivals]]

Latest revision as of 17:46, 15 April 2022

आश्विन मास में हमारी पृथ्वी और लोक या ज्योतिषचक्र के अनुसार अन्तर बहुत थोड़ा रह जाता है। अतः श्राद्ध के पुण्य का फल इस लोक से पितृ लोक में बहुत सरलता से पहुंच जाता है। एक समय महाकाल का चरित्र सुनने के लिए राजा करन्घम श्री महाकाल (जिनके दर्शन मात्र से पापी लोग पाप मुक्त होकर पवित्र हो जाते हैं, के आश्रम पर गये।) उनकी पूजादि करके उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे और उनके पास बैठ गये। तब मुस्कराते हुए महाकालजी ने उनकी अगवानी की और संस्कारपूर्वक उनको अर्ध्य प्रदान किया, फिर कुशल मंगल के पश्चात् जब राजा सुखपूर्वक बैठे तो उन्होंने महाकालजी से पूछा कि-"भगवान मेरे मन में सदैव संशय बना रहता है कि मनुष्यों द्वारा जो पितरों को अर्पण किया जाता है, उसमें जल तो जल ही में चला जाता है फिर हमारे पूर्वज किस तरह से तृप्त होते हैं और इसी तरह विद आदि सब दान भी अतः हम यह बात किस प्रकार से मान लें कि यह हमारे पितर आदि के उपभोग में आता है?" महाकाल ने कहा कि-“हे राजन! पितरों और देवताओं की योनि ही ऐसी है कि दूर कहीं बातें भी सुन लेते हैं। दूर की पूजा भी ग्रहण कर लेते हैं। दूर की स्तुति से भी सन्तुष्ट हो जाते हैं। इसके सिवाय यह भूत, भविष्य और वर्तमान की सभी बातों को जानते हैं। पांचों तन्त्राज्ञायें, मन-वृद्धि और अहंकार तथा प्रकृति-इन तत्वों का बना हुआ शरीरं होता है, इसके अन्दर दसवें तत्व के रूप में साक्षात भगवान विष्णु निवास करते हैं, अत: देवता और पितर गन्ध तत्व से तृप्त हो जाते हैं। शब्द तत्व से रहते हैं तथा तत्व को ही ग्रहण करते हैं और किसी को पवित्र देखकर उनके मन को बड़ा संतोष होता है। जैसे पशु का भोजन तृण है और मनुष्यों का भोजन अन्न कहा जाता है। वैसे ही देव-योनियों का भोजन अन्न का सार तत्व है। सम्पूर्णदेवताओं की शक्ति, अचित्य एवं ज्ञान गम्भ है।" अत: वह अन्न-जल का सार तत्व ही ग्रहण करते हैं। शेष तो स्थूल वस्तु है वह यहीं स्थित देखी जाती है।

कृष्ण अष्टमी

आश्विन कृष्ण अष्टमी को अपने पुत्र की आयु बढ़ाने के लिए या जिसके पुत्र होकर मर जाते हैं, इस व्रत के करने से पुत्र जीवित और चिरायु होते हैं। अष्टमी को नित्यकार्य करने के पश्चात् सोने की प्रतिमा बनाकर सूर्य नारायण का पूर्वोक्त षोडशोपचार विधि से पूजन करें। एक समय बाजरा तथा चने के अन्न का भोजन करें, ब्रह्मचर्य से रहें, सारी रात जागरण करें, दूसरे दिन प्रात: समय उठकर, स्नानादि करके व्रत का आरम्भ करने के निमित्त ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा दें। फिर स्वयं भी भोजन करें। इस प्रकार पांच तथा सात वर्ष तक करने के पश्चात् ईसका उद्यापन करें। इस प्रकार जो मनुष्य इस व्रत को करते हैं उनके पुत्र चिरायु होते हैं।

व्रत कथा-

एक समय धौम्य नामक ऋषि की पत्नी सुकेसी के छ: पुत्र हुए, परन्तु विवाह होते ही पुत्र की मृत्यु हो जाती। इस दशा में सुकेसी ने अपने प्राणों का त्याग करने का निश्चय किया। तब धौम्य ऋषि ने उसका धैर्य बंधाया और वह आप पुरी से भगवान कृष्ण के पास चले गये। वहां जाकर ऋषि ने कहा कि-"तुम्हें राज्य पर धिक्कार है, जिसमें स्त्रियों के पुत्रों की मृत्यु उसके माता-पिता के सामने होती है। यदि किसी का पुत्र अपने माता-पिता के सामने को प्राप्त हो जाये तो उस देश के राजा को अधर्मी समझना चाहिए। अन्यथा, धर्मात्मा राजा के राज्य में कभी भी पुत्र की मृत्यु माता-पिता के सामने नहीं हो सकती। तुमको राज्य करने का कोई अधिकार नहीं है।"भगवान कृष्ण कहने लगे कि "हे ब्राह्मण! जीना अथवा मरना यह तो अपने कर्मों के अधीन है, इसमें किसी का कोई वश नहीं चलता, तुम्हारे पुत्रों का तुम्हारा इतना ही संयोग था।" तब धौम्य ऋषि कहने लगे कि-"यदि तुम मेरे पुत्र की रक्षा का वचन नहीं दोगे तो मैं और मेरी स्त्री यहीं पर अपने प्राण दे देंगे।" उनके वचनों को सुनकर श्रीकृष्णजी बोले-“हे ब्राह्मण! अब थोड़े ही दिनों में आश्विन कृष्ण अष्टमी आने वाली है, उस दिन तुम भगवान सूर्य की प्रसन्नता के लिए, उनके पुत्र जीजि के नाम का सपत्नीक व्रत करो, इस व्रत के करने से तुम्हारे सब पाप नष्ट हो जायेंगे और तुम्हारा सातवां पुत्र जीवित रहकर चिरायु होगा। इस कार्य में तुम्हारी रक्षा मैं स्वयं करूंगा।

सातवें पुत्र के होते ही धौम्य ऋषि ने सपत्नीक इस व्रत को किया और सूर्य भगवान से पुत्र के चिरायु होने की प्रार्थना की। ब्राह्मण की प्रार्थना और व्रत के प्रभाव से, सूर्य के रथ की गति रुक गई और उन्होंने अपनी माला में से एक पुष्प निकालकर ऋषि की पत्नी पर गिरा दिया और उनका रथ आगे बढ़ गया। कुछ काल व्यतीत होने पर ब्राह्मण के पुत्र के प्राणों को हरने यमराज आया तो ब्राह्माणी उसे देखकर चिल्लाई और धौम्य ऋषि ने उसी समय भगवान श्रीकृष्ण की आराधना की, तब भगवान श्रीकृष्ण उसी समय आकर ब्राह्मणी से कहने लगा कि तुम किसी प्रकार का भय मत करो, सूर्य का दिया हुआ पुष्प पुत्र के शरीर से स्पर्श कर दो और उस पुष्प को यमराज पर फेंक दो, यमराज स्वयं ही भस्म हो जायेगा। ब्राह्मण ने ऐसा ही करना चाहा परन्तु जब वह पुष्प यमराज को मारने लगा तो यमराज भाग खड़ा हुआ। ब्राह्मण ने पुष्प उठाकर यमराज की तरफ फेंका तो यमराज के लगते ही यमराज काला स्याह शनिश्चर के रूप सा हो गया। भगवान ने ब्राह्मण के पुत्र को अभयदान दिया, तब शनिश्चर को पीपल के वृक्ष पर रहने का स्थान दिया।

इस प्रकार से सूर्य-पुत्र जीजि के इस प्रकार से सूर्य-पुत्र जीजि के व्रत के प्रभाव से ब्राह्मण के पुत्र के प्राण बच गये और ब्राह्मण और ब्राह्मणी पुत्र-शोक के दुःख से मुक्त हो गये। अतः जो कोई सूर्य-पुत्र जीजि के व्रत को करता है, उसके पुत्र और पौत्र चिरायु को प्राप्त होते हैं। जो कोई इस कथा को सुनता या पढ़ता है उसे भी कभी पुत्र-शोक प्राप्त नहीं होता।

आशा भगौति का व्रत

यह व्रत मुख्यत: स्त्रियों के लिए होता है। इसके करने से अन्न, धन, सुख, सौभाग्य की वृद्धि होती है। कन्या को मनचाहे सुयोग्य वर की प्राप्ति होती है। निर्धन को धन एवं निपुत्र को पुत्र-रत्न की प्राप्ति होती है। इस व्रत को करने वाले सूर्योदय से पूर्व स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें। आठ कोनों को गोबर-मिट्टी से चौका देकर आशा भगौति की कथा सुने। फिर आठ कोनों पर आठ-आठ दूब, 8-8 पैसे, 8-8 चीटकी, 1-1 सुहाली और 1-1 फल चढ़ायें। 8-8 रोली की, 8-8 काजल की बिन्दी रखें। आठों कोनों पर 1-1 दीपक जलायें। इस प्रकार नित्यप्रति 8 रोज तक पूजन करें। कहानी सुनें। आठवें रोज 1-1 सुहाग पिटारी आठों कोनों पर चढ़ायें और इसी रोज व्रत भी रखते हैं। व्रत वाले आठों दिन 7 सुहाली का बायना काढ़कर सासुजी को चरण छूकर देना चाहिए। स्वयं भी आठ सुहाली तथा फल एक समय खाकर व्रत रखें। इस प्रकार यह व्रत 8 वर्ष तक करें। नवें वर्ष में उजमन करें। उपरोक्त विधि के अनुसार आशा भगौती का पूजन करना चाहिए। इसके लिए आठ सुहाग पिटारी मंगवायें। जिनमें सुहाग की सभी वस्तुएं हों, फिर आठ सुहाग पिटारी आठों कोनों पर चढ़ाकर एक सुहाग पिटारी सासुजी के चरण छूकर दें। आगे सुहाग पिटारियों में एक-एक सुहाली भी रख दें। इसके बाद आठ सुहागिन ब्राह्मणियों को भोजन कराकर प्रत्येक को एक-एक सुहाग पिटारी और दक्षिणा दें। आशा भगौति का पूजन करें, उसके बाद उनके व्रत की कहानी सुननी चाहिए।

व्रत कथा-

बहुत समय पहले की बात है कि हिमालय नामक एक राजा के गौरी तथा पार्वती नाम की दो पुत्रियां थीं। एक दिन हिमालय ने उन दोनों को पूछा-"तुम दोनों किसके भाग्य का खाती हो?" इस पर पार्वती बोली-"मैं तो अपने भाग्य का खाती गौरी ने कहा-"मैं तो आपके ही भाग्य का खाती हूं।" यह सुनकर राजा ने पुरोहित को बुलाकर गौरी के लिए राजकुमार और पार्वती के लिए भिखारी वर ढूंढें। पुरोहित राजआज्ञा से वर खोजने निकल पड़ा। शिव रूप में भिखारी को देखकर पुरोहित ने पार्वतीजी का विवाह उस भिखारी से तय कर दिया और गौरी का विवाह सुन्दर राजकुमार से तय कर दिया। कुछ दिनों के उपरान्त गौरी की बारात का स्वागत खूब धूम-धाम से किया गया। साथ ही बहुत-सा दहेज भी दिया, परन्तु जब पार्वती की बारात आई तो राजा ने उनका कोई सत्कार नहीं किया, केवल कन्यादान देकर पार्वती को विदा कर दिया। शिवजी पार्वती को लेकर कैलाश पर्वत पर आ गए। पार्वती जहां पार्वती जहां कदम रखती वहीं की घास जल जाती। यह देखकर शिवजी ने पण्डितों से इसका कारण पूछा। पण्डितों ने सोच-विचार कर कहा-"पार्वती व इनकी भाभियां आशा भगौति का व्रत करती थीं। इनकी भाभियों ने मायके जाकर उजमन व्रत किया, किन्तु पार्वती ने उजमन नहीं किया। यदि पार्वतीजी भी अपने घर जाकर व्रत तथा उजमन करें तो सब दोष दूर हो जायेगा।"

इस प्रकार पण्डितों के बताने पर शिवजी और पार्वतीजो खूब कपड़े व गहने पहनकर पार्वतीजी के मायके जाने को तैयार हुए कुछ दूर जाने पर इन्होंने देखा कि एक रानी के बच्चा होने वाला था। वह बहुत कष्ट में थी। यह देखकर पार्वतीजी शिवजी से बोली-“हे नाथ! बच्चा होने में बहुत कष्ट होता है अत: मेरी कोख बन्द कर दो।" शिवजी ने कहा-“तुम कोख बन्द करवाकर बहुत पछताओगी। ऐसा मत करवाओं |" थोड़ी दूर चलकर देखा फिर घोड़ी के बच्चा हो रहा है, उसे भी बहुत कष्ट है। यह देखकर पार्वतीजी ने फिर शिवजी से कहा-“हे नाथ| आप मेरी कोख बन्द कर दें, तभी आगे चलूंगी।" जब बहुत समझाने पर भी पार्वतीजी ना मानीं तो उन्होंने निराश होकर पार्वतीजी की कोख बन्द कर दी। वे सजे-धजे आगे बढ़ गये। उधर गौरी ससुराल में बहुत दुःखीं थी। इधर जब पार्वती शिवजी के साथ अपने मायके पहुंची तो उनके माता-पिता एकाएक उन्हें पहचान न सके। जब पार्वतीजी ने अपना नाम बताया तो राजा-रानी बहुत खुश हुए। राजा को अपनी कही हुई पुरानी याद आ गयीं। उन्होंने पार्वती से पुनः पूछा-"तू किसके भाग्य का खाती है।

पार्वतीजी ने कहा-"मैं तो अपने भाग्य का खाती हूं।" यह कहकर पार्वतीजी अपनी भाभियों के पास चली गयीं। वे आशा भगौति का व्रत उजमन कर रही थीं। पार्वतीजी के निवेदन पर शिवजी ने एक मुन्दड़ी भेजकर कहा-"इससे जो भी मांगोगी मिलता जायेगा।" पार्वतीजी के मांगते ही मुन्दड़ी ने समस्त सामानों का ढेर लगा दिया। इसके बाद सबने बड़ी धूमधाम से व्रत व उजमन किया। राजा के निवेदन करने पर शिवजी ने खूब मिष्ठान व स्वादिष्ट भोजन किया। यह देखकर लोग कहने लगे, "पार्वती भिखारी को दी गई थी लेकिन अपने भाग्य के कारण राज कर रही है।" शिवजी ने इतना भोजन किया कि भण्डारगृह में पतली सब्जी के सिवाय कुछ ना बचा। पीछे से पार्वतीजी वहो सब्जी खाकर व पानी पीकर शिवजी के साथ चल पड़ी। मार्ग में जब शिवजी ने पार्वती से भोजन के विषय में पूछा तो बोलीं-“हे नाथ! जो आपने खाया वही मैंने भी खाया।" शिवजी ने हँसकर कहा-"तुम तो सब्जी व पानी पीकर ही आई हो।"

पार्वतीजी ने बात को गुप्त रखने का निवदेन किया। थोड़ी देर बाद जब आगे चले तो सूखी घास पर पैर पड़ते ही वह हरी हो गयी। आगे चलने पर घोड़ी के पास घोड़ी का बच्चा खेलता मिला। यह देखकर पार्वतीजी बोली-"स्वामी। मेरी कोख खोल दो।" शिवजी ने कहा-"मैंने तुम्हें पहले ही मना किया था। कोख बन्द मत कराओ। जब और आगे बढ़े तो उन्हें पूजन हेतु रानी यमुना जाती हुई मिलीं। पार्वतीजी के पूछने पर शिवजी ने उन्हें उस पीड़ा प्रसव पीड़ाग्रस्त रानी के विषय में याद दिलाया। अब तो पार्वतीजी हठ करने लगी। शिवजी ने मैल से गणेशजी बनाकर सब नेग चारकर पार्वतीजी से यमुना पूजन कराया।

इसके बाद पार्वतीजी बोलीं-"मैं तो सुहाग बांदूंगी।" यह सुनकर सभी पार्वतीजी से सुहाग लेने आईं। ब्राह्मणी एवं वैश्य नारियां सुहाग लेने देर से पहुंची। शिवजी ने इन्हें भी सुहाग देने को कहा। पार्वतीजी ने कहा-"मैं सबको बांट चुकी हूं।" शिवजी के आग्रह करने पर उन्हें भी थोड़ा-थोड़ा सुहाग दे दिया। इस प्रकार किसी को निराश न होना पड़ा।" अत: हे पार्वतीजी! जैसे आपने उन सबको सुहाग दिया। वैसे ही हमें भी सुहाग देना। यह व्रत और उजमन कुमारी लड़कियों के लिए विशेष रूप से फलदायी है।

महालक्ष्मी व्रत

महालक्ष्मी व्रत राधा अष्टमी से आरम्भ होता है तथा आश्विनी कृष्ण पक्ष की अष्टमी को समाप्त होता है। इस दिन लक्ष्मीजी की पूजा करनी चाहिए। सर्वप्रथम लक्ष्मीजी की मूर्ति को स्नान कराके फिर नये-नये वस्त्र पहनाकर भोग लगायें तथा आचमन कराकर फूल, धूप, दीप, चन्दन इत्यादि से आरती करें एवं भोग को आरती के पश्चात् वितरण कर दें। रात्रि में चन्द्रमा निकलने पर उसे अर्घ्य दें एवं आरती करें फिर स्वयं भोजन करें। इस व्रत के करने से धन-धान्य की वृद्धि होती है तथा सुख मिलता है। व्रत कथा-प्राचीन समय में किसी गांव में एक विद्वान, गरीब ब्राह्मण रहता था, जो नियम का बहुत पक्का था। एक जंगल में पुराना विष्णु भगवान का मन्दिर था। इसमें वह नित्यप्रति नियम से पूजा करने जाया करता था। उसकी पूजा को देखकर भगवान विष्णु उस पर प्रसन्न हुए तथा उसे दर्शन दिए। भगवान ने उसे धन देने का निश्चय कर लिया तथा उसे धन प्राप्त करने का तरीका बताया कि मन्दिर के सामने एक औरत कंडे थापने आती है, सुबह आकर उससे अपने घर रहने का आग्रह करना और तब तक न छोड़ना जब तक वह तुम्हारे घर रहने के लिए स्वीकार न कर ले। वह मेरी स्त्री लक्ष्मी है। उसके तुम्हारे घर आते ही सारे दु:ख दूर हो जायेंगे। इतना कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गये और ब्राह्मण अपने घर चला गया। दूसरे दिन वह सुबह-सवेरे ही मन्दिर में जाकर उसने आंचल पकड़ लिया। उसने देखा कि वह एक ब्राह्मण है, उससे उन्होंने आंचल छोड़ने को कहा। ब्राह्मण बोला-"तुम मुझसे वादा करो कि तुम मेरे घर में वास करने आओगी।" इस प्रकार लक्ष्मीजी उस ब्राह्मण के घर वास करने लगों। अत: उसका घर धन-धान्य से भर गया। अतएव यह व्रत लक्ष्मीजी के नाम से ही जाना जाता है।