Difference between revisions of "Festival in month of vaishakh (वैशाख माह के अंतर्गत व्रत व त्यौहार)"
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जब राजा युधिष्ठिर का अश्वमेघ यज्ञ हो रहा था, तभी एक नेवला वहां लोट लगाने लगा। कुछ लोगों ने देखा उस नेवले का आधा शरीर स्वर्ण का बना हुआ है। युधिष्ठिर ने इसका कारण पुरोहित से पूछा तो उन्होंने नेवले से ही पूछने की सलाह दी। राजा ने नेवले से पूछा तो नेवला कहने लगा--"तुम्हारा यज्ञ अक्षय-तीज के दिन दिये गये गेहूं के दाने के बराबर भी नहीं है।" तब युधिष्ठिर के पूछने पर नेवला बोला-"मुगल नाम का एक ब्राह्मण खेतों से दाने बीनकर अपना पोषण किया करता था। वह सत्यवादी था। एक दिन भगवान ने उसकी परीक्षा लेनी चाही। वे अक्षय-तीज के दिन उसके पास आये और अन्न-- जल मांगा! ब्राह्मण ने अपना और अपनी स्त्री का भाग उठाकर दे दिया। देते समय कुछ दाने पृथ्वी पर गिर गये। मैं वहां लेट रहा था, तब लेटते ही मेरी काया स्वर्ण की हो गई। तब से मैं पूरे शरीर को स्वर्णमयी करने के लिए यज्ञों में घूम रहा हूं परन्तु आखातीज के दाने के बराबर कोई यज्ञ फलदायक नहीं मिला, जिससे मेरी सम्पूर्ण स्वर्ण काया हो जाएगी।" यह सुनकर युधिष्ठिर लज्जित हुए और आखातीज का उसी दिन से नियमपूर्वक व्रत करने लगे | | जब राजा युधिष्ठिर का अश्वमेघ यज्ञ हो रहा था, तभी एक नेवला वहां लोट लगाने लगा। कुछ लोगों ने देखा उस नेवले का आधा शरीर स्वर्ण का बना हुआ है। युधिष्ठिर ने इसका कारण पुरोहित से पूछा तो उन्होंने नेवले से ही पूछने की सलाह दी। राजा ने नेवले से पूछा तो नेवला कहने लगा--"तुम्हारा यज्ञ अक्षय-तीज के दिन दिये गये गेहूं के दाने के बराबर भी नहीं है।" तब युधिष्ठिर के पूछने पर नेवला बोला-"मुगल नाम का एक ब्राह्मण खेतों से दाने बीनकर अपना पोषण किया करता था। वह सत्यवादी था। एक दिन भगवान ने उसकी परीक्षा लेनी चाही। वे अक्षय-तीज के दिन उसके पास आये और अन्न-- जल मांगा! ब्राह्मण ने अपना और अपनी स्त्री का भाग उठाकर दे दिया। देते समय कुछ दाने पृथ्वी पर गिर गये। मैं वहां लेट रहा था, तब लेटते ही मेरी काया स्वर्ण की हो गई। तब से मैं पूरे शरीर को स्वर्णमयी करने के लिए यज्ञों में घूम रहा हूं परन्तु आखातीज के दाने के बराबर कोई यज्ञ फलदायक नहीं मिला, जिससे मेरी सम्पूर्ण स्वर्ण काया हो जाएगी।" यह सुनकर युधिष्ठिर लज्जित हुए और आखातीज का उसी दिन से नियमपूर्वक व्रत करने लगे | | ||
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Revision as of 12:25, 24 November 2021
ब्रह्मा पुत्र नारदजी से राजा अम्बरीष ने प्रश्न किया कि आप वैशाख महीने की विशेषताओं के बारे में बताएं । नारदजी ने राजा अम्बरीष के प्रश्नों का विस्तृत रूप से उत्तर देते हुए बताया , हे राजन ! पूर्व काल में इक्ष्वाकु वंश में एक शूरवीर, धर्मात्मा, दानी और शत्रुओं पर विजय प्राप्त करनेवाला राजा हुआ करता था । वह धर्मात्मा व दानी था फिरभी वह कभी जल दान नहीं करता था । जल दान न करने के कारण वह तीन जन्म तक चातक की योनी में रहा, उसके बाद एक जन्म में गिद्ध का और सात जन्मो में कुत्ते की योनी भोगी । उसके पश्चात् मिथिलापुरी के राजा शूतकीर्षि के महल में छिपकली योनि में उत्पन्न हुआ। वह राजा के महल की चौखट पर बैठकर कीड़ों को खाता रहता था। इस प्रकार उसे सत्तासी वर्ष बीत गये। एक बार श्रुतदेव ऋषि के राजमंडल में आने पर राजा ने उनका बड़ा सत्कार किया, मधुपर्क आदि से उनका पूजन करके उनके चरण धोकर अपने माथे पर जल लगाया, इस जल की एक बूंद उस छिपकली पर भी पड़ी। जल की बूंद पड़ते ही छिपकली पवित्र हो गयी और उसको अनेक जन्मों का ज्ञान हो गया। वह पुकार के बोली, ब्राह्मण देवता, मेरी रक्षा करो। ऐसे आश्चर्ययुक्त वचन सुनकर ऋषि कहने लगे कि तुम कौन हो और तुम इतना विलाप क्यों कर रहे हो?
तुम अपना दुःख मुझसे कहो, मैं तुम्हारा उद्धार करूंगा। छिपकली के सारे दुःखों को सुनकर ऋषि बोले-
मैंने अपने ज्ञानचक्षुओं से यह जान लिया है कि तुम यद्यपि बड़े धर्मात्मा राजा थे परन्तु तुमने भगवान के प्रिय वैशाख मास में ब्राह्मणों को जल-दान नहीं दिया, कुपात्रों को ही दान देते रहे। तुमने न तो वैशाख मास में जल-दान दिया और न ही साधु सेवा की, इसी कारण दुःख भोग रहे हो। अत: जो मैंने वैशाख मास में पुण्य किये हैं वह मैं तुझे अर्पण करता हूं। ऋषि ने ऐसा संकल्प करके वैशाख मास के एक दिन के स्नान के फल का संकल्प उस छिपकली के ऊपर फेंक दिया। राजा छिपकली योनि से मुक्त हो कुत्स्य नामक प्रभावशाली राजा बना और गुरु वशिष्ठजी के उपदेश से वैशाख मास के जल-दान तथा स्नान से भगवान की मुक्ति को प्राप्त हो गया।
सांपदा (दसिया) का डोरा व्रत
होली से दूसरे दिन स्त्रियां दसिया का डोरा बांधे और वैशाख मास में कोई शुभ दिन देखकर यह डोरा खोलें और व्रत करें, इस दिन सांपदा की कहानी सुनें और इस दिन हलवा व पूरी का भोजन बनायें। रानी फूलों की माला बनाकर बाजार में बेचने जाती। एक दिन रानी ने कुछ स्त्रियों को सांपदा माता की कथा व व्रत करते देखा, रानी ने भी कथा सुन डोरा धारण किया। इसी दिन नगर के राजा ने ढिंढोरा पिटवाया कि जो भी घोड़े की उल्टी जीन पर चढ़कर निशाना लगायेगा उससे मैं अपनी बेटी का विवाह कर दूंगा। राजा नल का विवाह राजा की पुत्री से हो गया। एक दिन राजा-रानी चौसर खेल रहे थे तभी राजा को अपनी रानी की याद आयी । दुसरे ही दिन राजा नई रानी व सिपाहियों के साथ बाग़ में पहुंचकर पहली रानी को साथ ले अपने मित्र के महल महल पहुंचा तथा उसने अपने मित्र की खूंटी पर टंगा हार दिखाया । अपनी बहन के बाग़ में आकर घड़ा निकाला वह हीरों से भरा था । राजा वह घड़ा अपनी बहन को दे चल दिया । राह में तालाब के किनारे उन्हें तीसरा घड़ा मिला । जब राजा अपने राज्य में पहुंचा तो वहां पहले की ही तरह खुशहाली थी तथा सम्पूर्ण खजाने पहले के जैसे ही भरे पड़े थे । माँ साम्पदा ने जिस प्रकार राजा का भला किया वैसे सब का करें ।
सांपदा (दसिया) व्रत की उद्यापन विधि-
इस व्रत को आठ वर्ष तक करें तथा फिर उद्यापन कर दें। जिस दिन उद्यापन करें उस दिन व्रत धारण करने वाली स्त्री सोलह श्रृंगार कर 16 जगह 4-4 पूरी तथा साड़ी व रुपये रखे, तत्पश्चात् जल हाथ में लेकर थाली के चारों और हाथ की परिक्रमा कर अपनी सासू मां के पैर छूकर इसी दिन 16 ब्राह्मणियों को भोजन कराकर यथाशक्ति दक्षिणा देकर विदा करें।
बुड्ढा बसौड़ा
वैशाख मास लगते ही सोमवार तथा बुधवार या शुक्रवार के दिन सुबह एक थाली में एक दिन पहले बने भात, रोटी, पूरी, दही, चीनी, जल का गिलास, रोली, चावल, गोली, मूंग की दाल छिलका वाली, हल्दी, धूपबत्ती एक गूलरी की एक माला, मोठ, बाजरा आदि सामान रखें। उस थाली में घर के सभी प्राणियों का हाथ लगवाकर किसी घर के व्यक्ति द्वारा शीतला माता पर भेज दें। वह व्यक्ति इस सब सामान को शीतला की पूजा करके चढ़ा दे। एक कलश पानी शीतला मां पर तथा एक कलश चौराहे पर चढ़ा दें। मोठ, बाजरा और रुपये रखकर बायना निकालें और अपनी सासू मां को पैर छूकर दें। इस दिन शीतला मां की पूजा करें व ठण्डा खाना खायें।
कश्यपावतार
यह त्यौहार वैशाख मास की एकम को मनाया जाता है। इस दिन भगवान कश्यप की पूजा करनी चाहिए। सर्वप्रथम भगवान कश्यपजी को स्नान कराके वस्त्रादि पहनाकर उन्हें भोग लगायें। भोग लगाने के उपरान्त आचमन कराकर, फूल, धूप, दीप, चन्दन आदि चढ़ाने से भगवान कश्यप हर कार्य में सहायता करते हैं और मनोकामनाओं को पूरा करते हैं। कश्यपावतार की कथा-एक समय देवताओं को असुरों ने हराकर इन्द्र सहित सभी देवताओं को इन्द्रलोक भगा दिया। सभी देवगण भगवान विष्णु के समक्ष पहुंचकर प्रार्थना करने लगे। तब भगवान बोले-“हे देवगणों! तुम क्षीर सागर का मंथन करो। उसमें से तुम्हें रत्न व अमृत की प्राप्ति होगी। उस अमृत को देवता पी लेना फिर असुर तुम्हें हरा नहीं सकेंगे।" देवगण भगवान से पूछने लगे, " हे प्रभु ! हम मंथनी किसको बनाये और रस्सी किसको बनाये ?"तब भगवन बोले,"हे देवताओं! मन्दराचल पर्वत की राई बनाकर लपटों | उसके निचे मै कच्छप का रूप रखकर मन्दराचल पर्वत को अपनी पीठ पर धारण करूंगा। तुम नाग की पूंछ की तरफ रहना तथा असुरों को फन की तरफ रखना।" ऐसा ही हुआ। फिर समुद्र मंथन हुआ। उसमें से चौदह रत्न और अमृत निकला। यह मंथनी वैशाख मास प्रतिपदा को शुरू हुई। इसी दिन भगवान विष्णु ने कश्यप अवतार धारण किया। इसी से इस दिन कश्यप अवतार की पूजा होती है।
शीतला अष्टमी
वैशाख कृष्ण पक्ष की अष्टमी को शीतला देवी की पूजा चेचक निकलने के प्रकोप से परिवार को सुरक्षित रखने के लिए की जाती है। ऐसी प्राचीन मान्यता है कि जिस घर की स्त्रियां शुद्ध मन से इस व्रत को करती हैं, उनके परिवार को शीतला देवी अवश्य आशीर्वाद देती हैं। इस व्रत के दिन चूल्हा नहीं जलाते। व्रत से एक दिन पूर्व ही खाने-पीने की सामग्री रख ली जाती है। इस बासी भोजन को दूसरे दिन परिवार के लोग खाते हैं। जिसे कहीं-कहीं बिसियौरा 'या' 'बसौड़ा' कहा जाता है। इसी दिन स्त्रियां प्रात: शुद्ध होकर, रोली, चन्दन, दही, अक्षत, फूल, जल आदि देवी को चढ़ाती हैं। जिस घर में चेचक जैसी कोई बीमारी हो उस घर में इस व्रत को नहीं करना चाहिए।
रक्षक माता सम नाहीं दुनिया की जो मात।
छाती से चिपटा रखे अपने-अपने तात।
बरूथिनी एकादशी
बरूथिनी एकादशी वैशाख कृष्ण पक्ष में एकादशी के दिन मनाई जाती है। यह व्रत सुख सौभाग्य का प्रतीक है। सुपात्र ब्रह्माण को दान देने, करोड़ों वर्षों तक तपस्या करने और कन्यादान के भी फल से बढ़कर (बरूथिनी एकादशी) का व्रत है। इस व्रत को करने वाले के लिए खासतौर से उस दिन खाना, दातुन करना, परनिन्दा, क्रोध करना और मसल बोलना वर्जित है। इस व्रत में अलोना रहकर तेलयुक्त भोजन नहीं करना चाहिए। इसका माहात्म्य सुनने से सौ गौ की हत्या के पाप से भी मुक्त हो जाते हैं। इस तरह यह अत्यधिक फलदायक व्रत है।
व्रत की कथा (प्रथम)-
प्राचीन काल की बात है, काशी नगरी में एक ब्राह्मण रहता था। उसके तीन लड़के थे। उसका सबसे बड़ा बेटा बुरे विचारों वाला पापी पुरुष था। उनका परिवार भिक्षा से चलता था। वह ब्राह्मण प्रातः ही भिक्षा हेतु निकल जाता और सायंकाल के समय घर वापस आता। एक दिन उस ब्राह्मण को बुखार हो गया और उसने अपने तीनों पुत्र भिक्षा हेतु भेज दिये। पिता की आज्ञा से तीनों पुत्र भिक्षा मांगकर सार्यकाल के समय वापस आये। ब्राह्मण ने जब देखा उसके पुत्र भिक्षा लेकर आये हैं तो वह बहुत प्रसन्न हुआ इस प्रकार उनकी गृहस्थी चलती रही। एक दिन बाप ने बेटो से कहा-"बेटा घर पर बैठकर शास्त्रों और वेदों को पढ़ना शुरू कर दो।" पिता की बात सुन बड़ा बेटा वहां से चला गया और दोनों छोटे लड़के शास्त्रों और वेदों का अध्ययन करने लगे। दोनों पुत्र विद्वान बन गये।
एक दिन बड़ा लड़का भिक्षा मांगने गया। उसने पहला दरवाजा खटखटाया। अन्दर से एक अत्यन्त सुन्दर युवती निकली। युवती को देख उसके मन में प्रेम की भावना जाग्रत हो उठी। वह उस युवती को बातों में फंसाकर अपने घर ले आया। ब्राह्मण ने अपने पुत्र के इस कुकर्म पर क्रुद्ध होकर उसे घर से निकाल दिया। एक बार छोटा लड़का भिक्षा मांगते-मांगते अपने बड़े भाई के घर तक जा पहुंचा। अपने छोटे भाई को देख बड़े भाई ने उसे अपने पास बैठाया और अपने पापों से मुक्त होने का उपाय पूछने लगा। छोटा लड़का बोला-"वैशाख मास की कृष्ण पक्ष एकादशी को बरूथिनी एकादशी कहते हैं। उसका तुम व्रत रखना और भगवान श्री हरि के बारह अवतार की पूजा करना। रात्रि में उनकी मूर्ति के पास ही सोना। दिन में ब्राह्मणों को भोजन कराना । इस व्रत के प्रभाव से तुम्हारे समस्त पाप नष्ट हो जायेंगे।"
अपने छोटे भाई की बात मान बड़े भाई ने बरूथिनी एकादशी का व्रत रख, विधि-विधान से बारह अवतार की पूजा कर, ब्राह्मणों को भोजन कराकर उनका आशीर्वाद लिया। दिन में हरि कीर्तन किया और रात्रि में मन्दिर में ही सो गया। उसने शीघ्र ही स्वप्न में श्री हरि के दर्शन किये तथा अपने समस्त पापों से मुक्त हो गया। प्रात:काल उठकर अपनी पत्नी के समक्ष जाकर सारा वृतान्त कह सुनाया। स्वप्न सुनकर उसकी पत्नी अत्यन्त प्रसन्न हुई। दोनों अपने पिता के पास पहुंचे और प्रणाम किया। पिता अपने पुत्र को क्षमा कर घर के भीतर ले गया। वे सब आनन्द से रहने लगे। बड़े लड़के ने भी शास्त्रों व वेदों का अध्ययन कर विद्वत्ता का ज्ञान प्राप्त किया। हे एकादशी माता! जिस प्रकार ब्राह्मण के लड़के को पापमुक्त किया वैसे ही सबको करना।
व्रत की कथा (द्वितीय)-
प्राचीन काल में नर्मदा तट पर मानधाता नामक राजा राज्यसुख भोग रहा था। राजकाज करते हुए भी वह अत्यन्त दानशील और तपस्वी था। एक दिन जब वह तपस्या कर रहा था, उसी समय एक जंगली भालू आकर उसका पैर चबाने लगा। थोड़ी देर बाद वह राजा को घसीटकर वन में ले गया। तब राजा ने घबराकर तापस धर्म के अनुकूल हिंसा, क्रोध न करके भगवाणु से प्रार्थना की। भक्तवत्सल भगवान प्रकट हुए और भालू को चक्र से मार डाला। राजा का पैर भालू खा चुका था। इससे वह बहुत शोकाकुल हुआ। विष्णु भगवान वाराह अवतार मूर्ति की पूजा वरूथिनी एकादशी का व्रत रखकर करो, उसके प्रभाव से तुम पुनः सम्पूर्ण अंगों वाले हो जाओगे। भालू ने जो तुम्हें काटा है यह तुम्हारा पूर्व जन्म का पाप था। राजा ने इस व्रत को अपार श्रद्धा से किया और सुन्दर अंगों वाला हो गया।
आखातीज (अक्षय-तृतीया)
आखातीज या अक्षय-तृतीया वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को कहते हैं। इस दिन किये होम, जप, तप, स्नान इत्यादि अक्षय रहते हैं। इस दिन परशुराम का जन्म होने के कारण इसे 'परशुराम तीज' के नाम से जानते हैं। त्रेता युग का आरम्भ भी इसी तीज से हुआ है। इस दिन गंगा स्नान का बड़ा भारी माहात्म्य है। इस दिन स्वर्गीय आत्माओं की प्रसन्नता के लिए दान देना चाहिए। उसी दिन बद्री नारायणजी के चित्र को सिंहासन पर भिक्षी और भीगी चने की दाल से भोग लगायें।
व्रत कथा (प्रथम)-
बहुत समय पहले की बात है महादेय नामक एक वैश्य कुशवती नामक नगरी में रहता था। उसने किसी पण्डित से अक्षय तीज का नाम सुना, तब फिर उसने उसका नियमपूर्वक व्रत रखा। इस व्रत के प्रताप वह कुशवती नामक नगरी का महाप्रतापी राजा हुआ। उसका जाना हर समय हीरे-जवाहरातों से भरा रहता था। वह राजा दान भी करता था। एक बार कुछ मित्रों के पूछने पर आखातीज व्रत की बात बतायी। तब राजा ने नगर में भी इस व्रत की घोषणा करवा दी। सभी नगरवासी धन-धान्य से परिपूर्ण हो गये।
व्रत कथा (द्वितीय)-
जब राजा युधिष्ठिर का अश्वमेघ यज्ञ हो रहा था, तभी एक नेवला वहां लोट लगाने लगा। कुछ लोगों ने देखा उस नेवले का आधा शरीर स्वर्ण का बना हुआ है। युधिष्ठिर ने इसका कारण पुरोहित से पूछा तो उन्होंने नेवले से ही पूछने की सलाह दी। राजा ने नेवले से पूछा तो नेवला कहने लगा--"तुम्हारा यज्ञ अक्षय-तीज के दिन दिये गये गेहूं के दाने के बराबर भी नहीं है।" तब युधिष्ठिर के पूछने पर नेवला बोला-"मुगल नाम का एक ब्राह्मण खेतों से दाने बीनकर अपना पोषण किया करता था। वह सत्यवादी था। एक दिन भगवान ने उसकी परीक्षा लेनी चाही। वे अक्षय-तीज के दिन उसके पास आये और अन्न-- जल मांगा! ब्राह्मण ने अपना और अपनी स्त्री का भाग उठाकर दे दिया। देते समय कुछ दाने पृथ्वी पर गिर गये। मैं वहां लेट रहा था, तब लेटते ही मेरी काया स्वर्ण की हो गई। तब से मैं पूरे शरीर को स्वर्णमयी करने के लिए यज्ञों में घूम रहा हूं परन्तु आखातीज के दाने के बराबर कोई यज्ञ फलदायक नहीं मिला, जिससे मेरी सम्पूर्ण स्वर्ण काया हो जाएगी।" यह सुनकर युधिष्ठिर लज्जित हुए और आखातीज का उसी दिन से नियमपूर्वक व्रत करने लगे |