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| == Learned Kshatriyas || Rajanyarshi == | | == Learned Kshatriyas || Rajanyarshi == |
− | Similarly at the Dīkṣā a Kṣatriya becomes temporarily a Brahmin, Aitareya Brāhmaṇa, vii. 23. Cf. Śatapatha Brāhmaṇa, iii. 4, 1, 3. | + | Similarly at the Dīkṣā a Kṣatriya becomes temporarily a Brahmana, Aitareya Brāhmaṇa, vii. 23. |
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| + | अथैन्द्रो वै देवतया क्षत्रियो भवति त्रैष्टुभश्छन्दसा पञ्चदशः स्तोमेन सोमो राज्येन राजन्यो बन्धुना स ह दीक्षमाण एव ब्राह्मणतामभ्युपैति यत्कृ-ष्णाजिनमध्यूहति यद्दीक्षितव्रतं चरति यदेनम्ब्राह्मणा अभिसंगच्छन्ते तस्य ह दीक्षमाणस्येन्द्र एवेन्द्रियमादत्ते त्रिष्टुब्वीर्यम्पञ्चदशः स्तोम आयुः सोमो राज्यम्पितरो यशस्कीर्तिमन्यो वा अयमस्मद्भवति ब्रह्म वा अयम्भवति ब्रह्म वा अयमुपावर्तत इति वदन्तः स पुरस्ताद्दीक्षाया आहुतिं हुत्वाहवनीयमुपतिष्ठेत नेन्द्राद्देवताया एमि न त्रिष्टुभश्छन्दसो न पञ्चदशत्स्तोमान्न सोमाद्राज्ञो न पित्र्याद्बन्धोर्मा म इन्द्र इन्द्रियमादित मा त्रिष्टुब्वीर्यम्मा पञ्चदशः स्तोम आयुर्मा सोमो राज्यम्मा पितरो यशस्कीर्तिं सहेन्द्रियेण वीर्येणायुषा राज्येन यशसा बन्धुनाग्निमुपैमि गायत्रीं छन्दस्त्रिवृतं स्तोमं सोमं राजानम्ब्रह्म प्रपद्ये ब्राह्मणो भवामीति तस्य ह नेन्द्र इन्द्रियमादत्ते न त्रिष्टुब्वीर्यं न पञ्चदशः स्तोम आयुर्न सोमो राज्यं न पितरो यशस्कीर्तिं य एवमेतामाहुतिं हुत्वाऽऽहवनीयमुपस्थाय दीक्षते क्षत्त्रियः सन्॥7.23॥ 34.5 (146) |
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| + | There are earlier references to royal sages (rājanyarṣi) in Pañcavimśa Brāhmaṇa, xii. 12, 6; |
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| + | सिन्धुक्षिद्वै राजन्यर्षिर्ज्योगपरुद्धश्चरन् स एतत् सैन्धुक्षितमपश्यत् सोऽवागच्छत् प्रत्यतिष्ठदवगच्छति प्रतितिष्ठति सैन्धुक्षितेन तुष्टुवानः |
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| + | सौभरं भवति बृहतस्तेजः ... |
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| + | the Nirukta 30) ii. 10. gives a tradition relating how Devāpi, a Raja's son, became the Purohita of his younger brother Śaṃtanu; |
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| + | तत्रेतिहासमाचक्षते । देवापिश्चार्ष्टिषेणः शंतनुश्च कौरव्यौ भ्रातरौ बभूवतुः । स शंतनुः कनीयानभिषेचयांचक्रे । देवापिस्तपः प्रतिपेदे । ततः शंतनो राज्ये द्वादश वर्षाणि देवो न ववर्ष । तमूचुर्ब्राह्मणाः । अधर्मस्त्वया चरितः । ज्येष्ठं भ्रातरमन्तरित्याभिषेचितम् । तस्मात्ते देवो न वर्षतीति । स शंतनुर्देवापिं शिशिक्ष राज्येन । तमुवाच देवापिः । पुरोहितस्तेऽसानि । याजयानि च त्वेति । तस्यैतद् वर्षकामसूक्तम् । तस्यैषा भवति १० |
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| + | Devāpi in the Rigveda x. 98. |
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| + | आ देवो दूतो अजिरश्चिकित्वान्त्वद्देवापे अभि मामगच्छत् । प्रतीचीनः प्रति मामा ववृत्स्व दधामि ते द्युमतीं वाचमासन् ॥२॥ |
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| + | आ नो द्रप्सा मधुमन्तो विशन्त्विन्द्र देह्यधिरथं सहस्रम् । नि षीद होत्रमृतुथा यजस्व देवान्देवापे हविषा सपर्य ॥४॥ |
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| + | आर्ष्टिषेणो होत्रमृषिर्निषीदन्देवापिर्देवसुमतिं चिकित्वान् । स उत्तरस्मादधरं समुद्रमपो दिव्या असृजद्वर्ष्या अभि ॥५॥ |
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| + | अस्मिन्समुद्रे अध्युत्तरस्मिन्नापो देवेभिर्निवृता अतिष्ठन् । ता अद्रवन्नार्ष्टिषेणेन सृष्टा देवापिना प्रेषिता मृक्षिणीषु ॥६॥ |
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| + | यद्देवापिः शंतनवे पुरोहितो होत्राय वृतः कृपयन्नदीधेत् । देवश्रुतं वृष्टिवनिं रराणो बृहस्पतिर्वाचमस्मा अयच्छत् ॥७॥ |
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| + | यं त्वा देवापिः शुशुचानो अग्न आर्ष्टिषेणो मनुष्यः समीधे । विश्वेभिर्देवैरनुमद्यमानः प्र पर्जन्यमीरया वृष्टिमन्तम् ॥८॥ |
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| + | The case of Viśvāmitra may also be cited mention of him as a Rājaputra in the Aitareya Brāhmaṇa, vii. 17 |
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| + | अस्थान्मैतस्य पुत्रो भूर्ममैवोपेहि पुत्रताम् इति स होवाच शुनःशेपः स वै यथा नो ज्ञपया राजपुत्र तथा वद यथैवाङ्गिरसः सन्नुपेयां तव पुत्रताम् इति स होवाच विश्वामित्रो ज्येष्ठो मे त्वं पुत्राणां स्यास्तव श्रेष्ठा प्रजा स्यात्। |
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| + | === Janaka === |
| In the Brāhmaṇa literature there are references to learned princes like Janaka of Videha, who is said to have become a Brahmana (brahmā), apparently in the sense that he had the full knowledge which a Brahmana possessed. | | In the Brāhmaṇa literature there are references to learned princes like Janaka of Videha, who is said to have become a Brahmana (brahmā), apparently in the sense that he had the full knowledge which a Brahmana possessed. |
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| 21) Śatapatha Brāhmaṇa, xi. 6, 2, 1. | | 21) Śatapatha Brāhmaṇa, xi. 6, 2, 1. |
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| + | जनको ह वै वैदेहो। ब्राह्मणैर्धावयद्भिः समाजगाम श्वेतकेतुनाऽऽरुणेयेन सोमशुष्मेण सात्ययज्ञिना याज्ञवल्क्येन तान्होवाच कथङ्कथमग्निहोत्रञ्जुहुथेति - ११.६.२.[१] |
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| Cf. Kauṣītaki Upaniṣad, iv. 1. | | Cf. Kauṣītaki Upaniṣad, iv. 1. |
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| + | अथ गार्ग्यो ह वै बालाकिरनूचानः संस्पृष्ट आस सोऽयमुशिनरेषु संवसन्मत्स्येषु कुरुपञ्चालेषु काशीविदेहेष्विति सहाजातशत्रुं काश्यमेत्योवाच । ब्रह्म ते ब्रवाणीति तं होवाच अजातशत्रुः । सहस्रं दद्मस्त इत्येतस्यां वाचि जनको जनक इति वा उ जना धावन्तीति ॥ १ ॥ |
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| Other learned Kṣatriyas of this period were | | Other learned Kṣatriyas of this period were |
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− | Pravāhaṇa Jaivali, 22) Bṛhadāraṇyaka Upaniṣad, vi. 1, 1; Chāndogya Upaniṣad, i. 8, 1; v. 3, 1; | + | === Pravāhaṇa Jaivali === |
| + | Chāndogya Upaniṣad, i. 8, 1; |
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− | Aśvapati Kaikeya, 23) Śatapatha Brāhmaṇa, x. 6, 1, 2 et seq. and
| + | त्रयो होद्गीथे कुशला बभूवुः शिलकः शालावत्यश्चैकितायनो दाल्भ्यः प्रवाहणो जैवलिरिति ते होचुरुद्गीथे वै कुशलाः स्मो हन्तोद्गीथे कथां वदाम इति ॥ १ ॥ |
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− | Ajātaśatru. 24) Bṛhadāraṇyaka Upaniṣad, ii. 1, 1; Kauṣītaki Upaniṣad, iv. 1.
| + | v. 3, 1; |
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− | There are earlier references to royal sages (rājanyarṣi), 28) E.g., in Pañcavimśa Brāhmaṇa, xii. 12, 6;
| + | श्वेतकेतुर्हारुणेयः पञ्चालानाँ समितिमेयाय तँ ह प्रवाहणो जैवलिरुवाच कुमारानु त्वाशिषत्पितेत्यनु हि भगव इति ॥ १ ॥ |
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− | the Nirukta 30) ii. 10. gives a tradition relating how Devāpi, a king's son, became the Purohita of his younger brother Śaṃtanu;
| + | === Aśvapati Kaikeya === |
| + | Śatapatha Brāhmaṇa, x. 6, 1, 2 |
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− | See Devāpi. in the Rigveda 32) x. 98.
| + | ते होचुः। अश्वपतिर्वा अयं कैकेयः सम्प्रति वैश्वानरं वेद तं गच्छामेति ते हाश्वपतिं कैकेयमाजग्मुस्तेभ्यो ह पृथगावसथान्पृथगपचितीः पृथक्साहस्रान्त्सोमान्प्रोवाच ते ह प्रातरसंविदाना एव समित्पाणयः प्रतिचक्रमिर उप त्वायामेति - १०.६.१.[२] |
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− | The case of Viśvāmitra may also be cited mention of him as a Rājaputra in the Aitareya Brāhmaṇa, vii. 17
| + | === Ajātaśatru === |
| + | Bṛhadāraṇyaka Upaniṣad, ii. 1, 1; |
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| + | दृप्तबालाकिर्हानूचानो गार्ग्य आस । स होवाचाजातशत्रुं काश्यं ब्रह्म ते ब्रवाणीति । |
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| + | स होवाचाजातशत्रुः सहस्रमेतस्यां वाचि दद्मः, जनको जनक इति वै जना धावन्तीति ॥ बृह. २,१.१ ॥ |
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| + | Kauṣītaki Upaniṣad, iv. 1. |
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| + | अथ गार्ग्यो ह वै बालाकिरनूचानः संस्पृष्ट आस सोऽयमुशिनरेषु संवसन्मत्स्येषु कुरुपञ्चालेषु काशीविदेहेष्विति सहाजातशत्रुं काश्यमेत्योवाच । ब्रह्म ते ब्रवाणीति तं होवाच अजातशत्रुः । सहस्रं दद्मस्त इत्येतस्यां वाचि जनको जनक इति वा उ जना धावन्तीति ॥ १ ॥ |
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| ==References== | | ==References== |