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− | {{ToBeEdited}}The main job of a kshatriya is fighting to protect the प्रजा || prajas (creatures of his land) and defend his क्षेत्र || kshetra (land), because that is his natural inclination and the best use of his qualities, as Krishna has stated specifically :<blockquote>"स्व धर्मम् अपि चवेक्स्य न विकम्पितुम् अर्हसि |"</blockquote><blockquote>"धर्म्यद् हि युद्धच् छ्रेयो ‘न्यत् क्सत्रियस्य न विद्यते || (Bhagvadgita 2.31)"</blockquote><blockquote>"यद्रिच्छय चोपपन्नम् स्वर्ग द्वरम् अपव्रितम् |"</blockquote><blockquote>"सुखिनह् क्सत्रियह् पर्थ लभन्ते युद्धम् इद्रिसम् || (Bhagvadgita 2.32)"</blockquote><blockquote>"sva dharmam api caveksya na vikampitum arhasi |"</blockquote><blockquote>"dharmyad hi yuddhac chreyo ‘nyat ksatriyasya na vidyate || (Bhagvadgita 2.31) "</blockquote><blockquote>"yadricchaya copapannam svarga dvaram apavritam |"</blockquote><blockquote>"sukhinah ksatriyah partha labhante yuddham idrisam || (Bhagvadgita 2.32)"</blockquote>Meaning : Considering your own dharmic duty you should not hesitate, because for a kshatriya there is nothing better than fighting a dharmic battle. O Arjuna, happy are the kshatriyas to whom such opportunity comes unsought. For a warrior, engaging in such a battle is like having the doors of heaven open in front of him. | + | {{ToBeEdited}} |
| + | Rigveda |
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| + | # the power or rank of the sovereign |
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| + | RV. iv , 12 , 3 ; |
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| + | अग्निरीशे बृहतः क्षत्रियस्याग्निर्वाजस्य परमस्य रायः । |
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| + | दधाति रत्नं विधते यविष्ठो व्यानुषङ्मर्त्याय स्वधावान् ॥३॥ |
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| + | Early use of Kṣatriya in the Rigveda iv. 42, 1; |
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| + | मम द्विता राष्ट्रं क्षत्रियस्य विश्वायोर्विश्वे अमृता यथा नः । |
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| + | क्रतुं सचन्ते वरुणस्य देवा राजामि कृष्टेरुपमस्य वव्रेः ॥१॥ |
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| + | RV. vii. 64, 2; |
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| + | आ राजाना मह ऋतस्य गोपा सिन्धुपती क्षत्रिया यातमर्वाक् । |
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| + | इळां नो मित्रावरुणोत वृष्टिमव दिव इन्वतं जीरदानू ॥२॥ |
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| + | RV. viii. 25, 8; |
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| + | ऋतावाना नि षेदतुः साम्राज्याय सुक्रतू । |
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| + | धृतव्रता क्षत्रिया क्षत्रमाशतुः ॥८॥ |
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| + | RV. x. 109, 3. |
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| + | हस्तेनैव ग्राह्य आधिरस्या ब्रह्मजायेयमिति चेदवोचन् । |
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| + | न दूताय प्रह्ये तस्थ एषा तथा राष्ट्रं गुपितं क्षत्रियस्य ॥३॥ |
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| + | RV. v , 69 , 1 ; |
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| + | त्री रोचना वरुण त्रीँरुत द्यून्त्रीणि मित्र धारयथो रजांसि । |
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| + | वावृधानावमतिं क्षत्रियस्यानु व्रतं रक्षमाणावजुर्यम् ॥१॥ |
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| + | RV. vii , 104 , 13 |
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| + | न वा उ सोमो वृजिनं हिनोति न क्षत्रियं मिथुया धारयन्तम् । |
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| + | हन्ति रक्षो हन्त्यासद्वदन्तमुभाविन्द्रस्य प्रसितौ शयाते ॥१३॥ |
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| + | Atharvaveda |
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| + | # endowed with sovereignty |
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| + | AV. iv , 22 , 1 |
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| + | इममिन्द्र वर्धय क्षत्रियं मे इमं विशामेकवृषं कृणु त्वम् । |
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| + | निरमित्रान् अक्ष्णुह्यस्य सर्वांस्तान् रन्धयास्मा अहमुत्तरेषु ॥१॥ |
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| + | AV. vi , 76 , 3-4 |
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| + | यो अस्य समिधं वेद क्षत्रियेण समाहिताम् । |
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| + | नाभिह्वारे पदं नि दधाति स मृत्यवे ॥३॥ |
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| + | नैनं घ्नन्ति पर्यायिणो न सन्नामव गच्छति । |
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| + | अग्नेर्यः क्षत्रियो विद्वान् नाम गृह्नाति आयुषे ॥४॥ |
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| + | Av. xii. 5, 5. |
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| + | तामाददानस्य ब्रह्मगवीं जिनतो ब्राह्मणं क्षत्रियस्य ॥५॥ |
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| + | Yajurveda |
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| + | Vājasaneyi Saṃhitā, xxx. 5 |
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| + | 30.5 |
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| + | ब्रह्मणे ब्राह्मणं क्षत्राय राजन्यं मरुद्भ्यो वैश्यं तपसे शूद्रं तमसे तस्करं नारकाय वीरहणं पाप्मने क्लीबम् आक्रयाया ऽ अयोगुं कामाय पुꣳश्चलूम् अतिक्रुष्टाय मागधम् ॥ |
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| + | Vājasaneyi Saṃhitā, iv. 19; |
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| + | 4.19 |
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| + | चिद् असि मनासि धीर् असि दक्षिणासि क्षत्रियासि यज्ञियास्य् अदितिर् अस्य् उभयतःशीर्ष्णी । |
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| + | सा नः सुप्राची सुप्रतीच्य् एधि मित्रस् त्वा पदि बध्नीतां पूषाऽध्वनस् पात्व् इन्द्रायाध्यक्षाय ॥ |
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| + | x. 4; |
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| + | 10.4 |
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| + | सूर्यत्वचस स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रं मे दत्त स्वाहा । |
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| + | सूर्यत्वचस स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम् अमुष्मै दत्त । |
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| + | सूर्यवर्चस स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रं मे दत्त स्वाहा । |
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| + | सूर्यवर्चस स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम् अमुष्मै दत्त । |
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| + | मान्दा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रं मे दत्त स्वाहा । |
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| + | मान्दा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम् अमुष्मै दत्त । |
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| + | व्रजक्षित स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रं मे दत्त स्वाहा । |
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| + | व्रजक्षित स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम् अमुष्मै दत्त । |
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| + | वाशा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रं मे दत्त स्वाहा । |
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| + | वाशा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम् अमुष्मै दत्त । |
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| + | शविष्ठा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रं मे दत्त स्वाहा । |
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| + | शविष्ठा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम् अमुष्मै दत्त । |
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| + | शक्वरी स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रं मे दत्त स्वाहा । |
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| + | शक्वरी स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम् अमुष्मै दत्त । |
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| + | जनभृत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रं मे दत्त स्वाहा । |
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| + | जनभृत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम् अमुष्मै दत्त । |
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| + | विश्वभृत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रं मे दत्त स्वाहा । |
| + | |
| + | विश्वभृत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम् अमुष्मै दत्त । |
| + | |
| + | आपः स्वराज स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम् अमुष्मै दत्त । |
| + | |
| + | मधुमतीर् मधुमतीभिः पृच्यन्तां महि क्षत्रं क्षत्रियाय वन्वानाः । |
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| + | ऽ अनाधृष्टाः सीदत सहौजसो महि क्षत्रं क्षत्रियाय दधतीः ॥ |
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| + | Brahmanas |
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| + | Aitareya Brāhmaṇa, vii. 24. |
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| + | अथाग्नेयो वै देवतया क्षत्रियो दीक्षितो भवति गायत्रश्छन्दसा त्रिवृत्स्तोमेन ब्राह्मणो बन्धुना स होदवस्यन्नेव क्षत्रियतामभ्युपैति तस्य होदवस्यतोऽग्निरेव तेज आदत्ते गायत्री वीर्यं त्रिवृत्स्तोम आयुर्ब्राह्मणा ब्रह्म यशस्कीर्तिमन्यो वा अयमस्मद्भवति क्षत्रं वा अयम्भवति क्षत्रं वा अयमुपावर्तत इति वदन्तः सोऽनूबन्ध्यायै समिष्टयजुषामुपरिष्टाद्धुत्वाहुतिमाहवनीयमुपतिष्ठेत नाग्नेर्देवताया एमि न गायत्र्याश्छन्दसो न त्रिवृतः स्तोमान्न ब्रह्मणो बन्धोर्मा मेऽग्निस्तेज आदित मा गायत्री वीर्यम्मा त्रिवृत्स्तोम आयुर्मा ब्राह्मणा ब्रह्म यशस्कीर्तिं सह तेजसा वीर्येणायुषा ब्रह्मणा यशसा कीर्त्येन्द्रं देवतामुपैमि त्रिष्टुभं छन्दः पञ्चदशं स्तोमं सोमं राजानं क्षत्रम्प्रपद्ये क्षत्रियो भवामि देवाः पितरः पितरो देवा योऽस्मि स सन्यजे स्वम्म इदमिष्टं स्वम्पूर्तं स्वं श्रान्तं स्वं हुतम्तस्य मेऽयमग्निरुपद्रष्टायं वायुरुपश्रोतासावादित्योऽनुख्यातेदमहं य एवास्मि सोऽस्मीति तस्य ह नाग्निस्तेज आदत्ते न गायत्री वीर्यं न त्रिवृत्स्तोम आयुर्न ब्राह्मणा ब्रह्म यशस्कीर्तिं य एवमेतामाहुतिं हुत्वाहवनीयमुपस्थायोदवस्यति क्षत्रियः सन्॥7.24॥ 34.6 |
| + | |
| + | occasional opposition of Rājanya and Kṣatriya, as in the Aitareya Brāhmaṇa, 8) vii. 20. |
| + | |
| + | अथातो देवयजनस्यैव याञ्चस्तदाहुर्यद्ब्राह्मणो राजन्यो वैश्यो दीक्षिष्यमाणं क्षत्रियं देवयजनं याचति कं क्षत्रियो याचेदिति दैवं क्षत्रं याचेदित्याहुरादित्यो वै दैवं क्षत्रमादित्य एषां भूतानामधिपतिः स यदहर्दीक्षिष्यमाणो भवति तदहः पूर्वाह्ण एवोद्यन्तमादित्यमुपतिष्ठेतेदं श्रेष्ठं ज्योतिषां ज्योतिरुत्तमम् देव सवितर्देवयजनं मे देहि देवयजनं इति देवयजनं याचति स यत्तत्र याचित उत्तरां सर्पत्यों तथा ददामीति हैव तदाह तस्य ह न का चन रिष्टिर्भवति देवेन सवित्रा प्रसूतस्योत्तरोत्तरिणी ह श्रियमश्नुतेऽश्नुते ह प्रजानामैश्वर्यमाधिपत्यं य एवमुपस्थाय याचित्वा देवयजनमध्यवसाय दीक्षते क्षत्त्रियः सन्॥7.20॥ |
| + | |
| + | Śatapatha Brāhmaṇa, iv. 1, 4, 5-6. |
| + | |
| + | सो एव पुरोधा । तस्मान्न ब्राह्मणः सर्वस्येव क्षत्रियस्य पुरोधां कामयेत सं ह्येवैतौ सृजेते सुकृतं च दुष्कृतं च नो एव क्षत्रियः सर्वमिव ब्राह्मणम्पुरोदधीत सं ह्येवैतौ सृजेते सुकृतं च दुष्कृतं च स यत्ततो वरुणः कर्म चक्रे प्रसूतं ब्रह्मणा मित्रेण सं हैवास्मै तदानृधे - ४.१.४.[५] |
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| + | तत्तदवकॢप्तमेव । यद्ब्राह्मणोऽराजन्यः स्याद्यद्यु राजानं लभेत समृद्धं तदेतद्ध त्वेवानवकॢप्तं यत्क्षत्रियो ब्राह्मणो भवति यद्ध किं च कर्म कुरुते प्रसूतं ब्रह्मणा मित्रेण न हैवास्मै तत्समृध्यते तस्मादु क्षत्रियेण कर्म करिष्यमाणेनोपसर्तव्य एव ब्राह्मणः सं हैवास्मै तद्ब्रह्मप्रसूतं कर्मऽर्ध्यते - ४.१.४.[६] |
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| + | Taittirīya Brāhmaṇa, ii. 4, 7, 7. is exclusively connected with royal authority or divine authority. |
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| + | 2.4.7.1 उपहोमाः |
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| + | आयाहि सोमपीतये । स्वारुहो देव नियुत्वता । इममिन्द्र वर्धय क्षत्रियाणाम् । अयं विशां विश्पतिरस्तु राजा । अस्मा इन्द्र महि वर्चाꣳ सि धेहि । अवर्चसं कृणुहि शत्रुमस्य । इममाभज ग्रामे अश्वेषु गोषु । निरमुं भज योऽमित्रो अस्य । वर्ष्मन्क्षत्रस्य ककुभि श्रयस्व । ततो न उग्रो विभजा वसूनि ७ |
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| + | Apte |
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| + | A member of the military or second varna; |
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| + | स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि । |
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| + | धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥२.३१॥ Bhagavad Gita |
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| + | ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः । । १०.४ । । Manusmrti |
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| + | The Mahābhārata (Śāntiparvan) says: ब्राह्मणानां क्षतत्राणात्ततः क्षत्रिय उच्यते । |
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| + | The main job of a kshatriya is fighting to protect the प्रजा || prajas (creatures of his land) and defend his क्षेत्र || kshetra (land), because that is his natural inclination and the best use of his qualities, as Krishna has stated specifically :<blockquote>"स्व धर्मम् अपि चवेक्स्य न विकम्पितुम् अर्हसि |"</blockquote><blockquote>"धर्म्यद् हि युद्धच् छ्रेयो ‘न्यत् क्सत्रियस्य न विद्यते || (Bhagvadgita 2.31)"</blockquote><blockquote>"यद्रिच्छय चोपपन्नम् स्वर्ग द्वरम् अपव्रितम् |"</blockquote><blockquote>"सुखिनह् क्सत्रियह् पर्थ लभन्ते युद्धम् इद्रिसम् || (Bhagvadgita 2.32)"</blockquote><blockquote>"sva dharmam api caveksya na vikampitum arhasi |"</blockquote><blockquote>"dharmyad hi yuddhac chreyo ‘nyat ksatriyasya na vidyate || (Bhagvadgita 2.31) "</blockquote><blockquote>"yadricchaya copapannam svarga dvaram apavritam |"</blockquote><blockquote>"sukhinah ksatriyah partha labhante yuddham idrisam || (Bhagvadgita 2.32)"</blockquote>Meaning : Considering your own dharmic duty you should not hesitate, because for a kshatriya there is nothing better than fighting a dharmic battle. O Arjuna, happy are the kshatriyas to whom such opportunity comes unsought. For a warrior, engaging in such a battle is like having the doors of heaven open in front of him. |
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| However, the warrior spirit of a kshatriya is not the war mongering, blood lust, and cruelty of the asuras; he is not a brawling bully and he avoids confrontation and conflict if there is any other option still possible, as the Pandavas demonstrated in practice in their dealings with the aggressive Duryodhana and his brothers. | | However, the warrior spirit of a kshatriya is not the war mongering, blood lust, and cruelty of the asuras; he is not a brawling bully and he avoids confrontation and conflict if there is any other option still possible, as the Pandavas demonstrated in practice in their dealings with the aggressive Duryodhana and his brothers. |