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अभिवादन भारतीय सनातन शिष्टाचारका एक महत्त्वपूर्ण अङ्ग है। जिसने प्रणाम करनेका व्रत ले लिया समझना चाहिये कि उसमें नम्रता, विनयशीलता एवं श्रद्धाका भाव स्वतः प्रविष्ट हो गया। इसीलिये सनातन संस्कृतिमें अभिवादन को उत्तम संस्कारका जनक कहा गया है। प्रायः सभी देशों और सभी वर्ग के लोगों में एक दूसरे का सम्मान सत्कार अभिवादन करने की प्रथा अभी तक प्रचलित है। अभिवादन करने का स्वरूप, अभिवादन के नाम अन्यान्य भाषाओं में अलग अलग हो सकते हैं किन्तु सभी इसको समान रूप से स्वीकर करते हैं। परन्तु इसकी अनुष्ठान पद्धति(क्रिया शैली)एक दूसरे से बहुत भिन्न देखी जाती है। शास्त्रों के अनुसार सनातन धर्म में अभिवादन का स्वरूप, विधि, एवं लाभ का क्या हैं उनका वर्णन किया जाता है।

== परिचय ==
शास्त्रपरम्परा के अनुसार सम्यक् रूप से जो कर्म किया जाता है, वह संस्कार कहलाता है। अभिवादन निवेदन एक जीवन्त संस्कार है। सामान्यरूपसे अभिवादन दो रूपोंमें व्यक्त होता है। छोटा अपनेसे बड़ेको प्रणाम करता है और समान आयुवाले व्यक्ति एक-दूसरेको नमस्कार करते हैं। छोटे और बड़ेका निर्णय सनातनीय संस्कृतिमें त्यागके अनुसार होता है। जो जितना त्यागी है वह उतना ही महान् है। शुकदेवजीके त्यागके कारण उनके पिता व्यासजीने ही उन्हें अभ्युत्थान दिया और प्रणाम किया। त्यागके अनन्तर विद्या और उसके पश्चात् वर्णका विचार किया जाता है। अवस्थाका विचार तो प्रायः अपने ही वर्णमें होता है।श्री राकेशकुमार शर्मा,संस्कार अंक,गोरखपुर:गीताप्रेस

मनुस्मृति (२।१२१)-के अनुसार

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥ अर्थात् जो वृद्धजनों, गुरुजनों तथा माता-पिताको नित्य प्रणाम करता है और उनकी सेवा करता है, उसके आयु, विद्या, यश और बलकी वृद्धि होती है।

अभिवादन का महत्व

== अभिवादन से लाभ ==
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