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| Qualities of a Raja | | Qualities of a Raja |
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− | गुणवाञ्शीलवान्दान्तो मृदुदण्डो जितेन्द्रियः। सुदर्शः स्थूललक्ष्यश्च न भ्रश्येत सदा श्रियः।। 19 | + | गुणवाञ्शीलवान्दान्तो मृदुदण्डो जितेन्द्रियः। सुदर्शः स्थूललक्ष्यश्च न भ्रश्येत सदा श्रियः।। 12.55.19 (12.56.19)<ref name=":5" /> |
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| + | आर्जवेन च संपन्नो धृत्या बुद्ध्या च भारत। धर्मार्थौ प्रतिगृह्णीयात्कामक्रोधौ च वर्जयेत्।। 12.71.6<ref name=":6">Mahabharata, Shanti Parva, [https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-071 Adhyaya 71]</ref> |
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| Balance | | Balance |
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− | मृदुर्हि राजा सततं लङ्घ्यो भवति सर्वशः। तीक्ष्णाच्चोद्विजते लोकस्तस्मादुभयमाचरेत्।। 21 | + | मृदुर्हि राजा सततं लङ्घ्यो भवति सर्वशः। तीक्ष्णाच्चोद्विजते लोकस्तस्मादुभयमाचरेत्।। 12.55.21 (12.56.21) |
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| Greater Good | | Greater Good |
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| यथा हि गर्भिणी हित्वा स्वं प्रियं मनसोऽनुगम्। गर्भस्य हितमाधत्ते तथा राज्ञाऽप्यसंशयम्।। 45 | | यथा हि गर्भिणी हित्वा स्वं प्रियं मनसोऽनुगम्। गर्भस्य हितमाधत्ते तथा राज्ञाऽप्यसंशयम्।। 45 |
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− | वर्तितव्यं कुरुश्रेष्ठ सदा धर्मानुवर्तिना। स्वं प्रियं तु परित्यज्य यद्यल्लोकहितं भवेत्।। 46<ref>Mahabharata, Shanti Parva, [https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-055 Adhyaya 55]</ref> | + | वर्तितव्यं कुरुश्रेष्ठ सदा धर्मानुवर्तिना। स्वं प्रियं तु परित्यज्य यद्यल्लोकहितं भवेत्।। 46<ref name=":5">Mahabharata, Shanti Parva, [https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-055 Adhyaya 55]</ref> |
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| Protection of the Seven constituents of the Rajya - Raja, friend, treasury, country, fort and army. | | Protection of the Seven constituents of the Rajya - Raja, friend, treasury, country, fort and army. |
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| आददीत बलिं चापि प्रजाभ्यः कुरुनन्दन। षङ्भागममितप्रज्ञस्तासामेवाभिगुप्तये।। 12.68.27 (69.25) | | आददीत बलिं चापि प्रजाभ्यः कुरुनन्दन। षङ्भागममितप्रज्ञस्तासामेवाभिगुप्तये।। 12.68.27 (69.25) |
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− | दशाधर्मगतेभ्यो यद्वसु बह्वल्पमेव वा। तन्नाददीत सहसा पौराणां रक्षणाय वै।। 28 (26) | + | दशाधर्मगतेभ्यो यद्वसु बह्वल्पमेव वा। तन्नाददीत सहसा पौराणां रक्षणाय वै।। 28 (26)<ref name=":4" /> |
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| + | बलिषष्ठेन शुल्केन दण्डेनाथापराधिनाम्। शास्त्रानीतेन लिप्सेथा वेतनेन धनागमम्।। 12.71.10<ref name=":6" /> |
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| Justice | | Justice |