| सनातन धर्म में गृहस्थमात्र के लिये पञ्चमहायज्ञ का विधान बताया गया है।गृहस्थ प्रतिदिन झाडू-पोंछा, अग्निकुण्ड, चक्की, सूप, जलघट आदि स्थान या सामग्रीके द्वारा प्राणियोंको आहत करता है।शास्त्रोंमें ऐसा कहा गया है कि गृहस्थके घर में पॉंच स्थल ऐसे हैं जहां प्रतिदिन न चाहने पर भी जीव हिंसा होने की सम्भावना रहती है-<blockquote>पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः । कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन् ।।</blockquote><blockquote>तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः । पञ्च क्लृप्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिनाम् ।।</blockquote>'''अर्थ'''-चूल्हा(अग्नि जलानेमें) , चक्की(पीसने में), झाडू (सफाईकरने में), ऊखल (कूटनेमें) तथा घड़ा (जल रखनेके स्थान, जलपात्र रखनेपर नीचे जीवोंके दबने) से जो पाप होते हैं इस तरहकी क्रियाओंके माध्यमसे सूक्ष्म जीव-जन्तुओंकी हिंसा हो जाती है। ऐसी हिंसाको जिसे कि जीवनमें टाला नहीं जा सकता, शास्त्रों में सूना कहा गया है। इसकी संख्या पाँच होनेसे ये पंचसूना कहलाते हैं। | | सनातन धर्म में गृहस्थमात्र के लिये पञ्चमहायज्ञ का विधान बताया गया है।गृहस्थ प्रतिदिन झाडू-पोंछा, अग्निकुण्ड, चक्की, सूप, जलघट आदि स्थान या सामग्रीके द्वारा प्राणियोंको आहत करता है।शास्त्रोंमें ऐसा कहा गया है कि गृहस्थके घर में पॉंच स्थल ऐसे हैं जहां प्रतिदिन न चाहने पर भी जीव हिंसा होने की सम्भावना रहती है-<blockquote>पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः । कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन् ।।</blockquote><blockquote>तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः । पञ्च क्लृप्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिनाम् ।।</blockquote>'''अर्थ'''-चूल्हा(अग्नि जलानेमें) , चक्की(पीसने में), झाडू (सफाईकरने में), ऊखल (कूटनेमें) तथा घड़ा (जल रखनेके स्थान, जलपात्र रखनेपर नीचे जीवोंके दबने) से जो पाप होते हैं इस तरहकी क्रियाओंके माध्यमसे सूक्ष्म जीव-जन्तुओंकी हिंसा हो जाती है। ऐसी हिंसाको जिसे कि जीवनमें टाला नहीं जा सकता, शास्त्रों में सूना कहा गया है। इसकी संख्या पाँच होनेसे ये पंचसूना कहलाते हैं। |
− | शास्त्र के अनुसार मुख्यतः कर्म तीन प्रकार के होते हैं- नित्य, नैमित्तिक और काम्य।जिन कर्मों के करने से किसी फल की प्राप्ति न होती हो और न करने से पाप लगे उन्हें नित्यकर्म कहते हैं; जैसे त्रिकालसन्ध्या, पञ्चमहायज्ञ इत्यादि।शास्त्रों में सन्ध्या वन्दन के उपरान्त पञ्चमहायज्ञ का विधान बताया गया है। पञ्चमहायज्ञ करने से पारलौकिक लाभ तो हैं ही ऐहलौकिक आत्मोन्नति आदि अवान्तर फल की प्राप्ति होने पर भी पञ्चसूना दोष से छुटकारा पाने के लिये शास्त्रकारों की आज्ञा है कि-<blockquote>सर्वैर्गृहस्थैः पञ्चमहायज्ञा अहरहः कर्तव्याः।</blockquote>अर्थात् गृहस्थमात्र को प्रतिदिन पञ्चमहायज्ञ करने चाहिए। इससे यह स्पष्ट है कि पञ्चमहायज्ञ करने से पुण्य की प्राप्ति नहीं होती, किन्तु न करने से पाप का प्रादुर्भाव अवश्य होता है ।अतःइसलिए उन पापों की निवृत्ति के लिए नित्य क्रमश: निम्नलिखित पांच यज्ञ करने का विधान किया गया है- <blockquote>अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तुतर्पणम् । होमो देवो बलिभौं तो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ॥मनुस्मृति(३/६०)।</blockquote>'''भावार्थ'''-(१)ब्रह्मयज्ञ-वेद-वेदाङ्गादि तथा पुराणादि आर्षग्रन्थोंका स्वाध्याय, (२)पितृयज्ञ-श्राद्ध तथा तर्पण, (३)देवयज्ञ-देवताओंका पूजन एवं हवन, (४)भूतयज्ञ-बलिवैश्वदेव तथा पञ्चबलि, (५)मनुष्ययज्ञ-अतिथिसत्कार-इन पाँचों यज्ञोंको प्रतिदिन अवश्य करना चाहिये।अतएव मनु जी ने कहा है-<blockquote>स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः। महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥मनुस्मृति(२।२८)</blockquote>'''भाषार्थ-''' वेदाध्ययनसे, मधु-मांसादिके त्यागरूप व्रतसे, हवनसे, त्रैविद्य नामक व्रतसे, ब्रह्मचर्यावस्थामें देवर्षि-पितृतर्पण आदि क्रियाओंसे, गृहस्थाश्रममें पुत्रोत्पादनसे, महायज्ञोंसे और ज्योतिष्टोमादि यज्ञोंसे यह शरीर ब्रह्मप्राप्तिके योग्य बनाया जाता है।शतपथ ब्राह्मण में पञ्चमहायज्ञों को महासत्र के नाम से व्यवहृत किया गया है-<blockquote>पञ्चैव महायज्ञाः। तान्येव महासत्राणि भूतयज्ञो मनुष्ययज्ञः पितृयज्ञो ब्रह्मयज्ञ इति । शतपथ ब्राह्मण ११।५।६।७।</blockquote>केवल पांच ही महायज्ञ हैं, वे महान् सत्र हैं और वे इस प्रकार हैं- भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ एवं ब्रह्मयज्ञ।<blockquote>कण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुम्भी च मार्जनी। पञ्चसूना गृहस्थस्य पञ्चयज्ञात्प्रणश्यति ।।</blockquote>'''अर्थ'''-कूटना, पीसना, चूल्हा, जल भरना और झाडू लगाना-पंचसूना जन्य इन सभी पापोंका शमन पंचमहायज्ञसे ही होता है। जो व्यक्ति अपने सामर्थ्यके अनुसार यह पंचमहायज्ञ करता है, सुतरां सभी पापोंसे वह मुक्ति पा लेता है।तैत्तिरीय आरण्यक के मतमें जहाँ ये पंचमहायज्ञ अजस्ररूपसे गृहस्थोंको धन-समृद्धिसे परिपूर्ण करते हैं ।तैत्तिरीय आरण्यक(११।१०)। | + | शास्त्र के अनुसार मुख्यतः कर्म तीन प्रकार के होते हैं- नित्य, नैमित्तिक और काम्य।जिन कर्मों के करने से किसी फल की प्राप्ति न होती हो और न करने से पाप लगे उन्हें नित्यकर्म कहते हैं; जैसे त्रिकालसन्ध्या, पञ्चमहायज्ञ इत्यादि।शास्त्रों में सन्ध्या वन्दन के उपरान्त पञ्चमहायज्ञ का विधान बताया गया है। पञ्चमहायज्ञ करने से पारलौकिक लाभ तो हैं ही ऐहलौकिक आत्मोन्नति आदि अवान्तर फल की प्राप्ति होने पर भी पञ्चसूना दोष से छुटकारा पाने के लिये शास्त्रकारों की आज्ञा है कि-<blockquote>सर्वैर्गृहस्थैः पञ्चमहायज्ञा अहरहः कर्तव्याः।</blockquote>अर्थात् गृहस्थमात्र को प्रतिदिन पञ्चमहायज्ञ करने चाहिए। इससे यह स्पष्ट है कि पञ्चमहायज्ञ करने से पुण्य की प्राप्ति नहीं होती, किन्तु न करने से पाप का प्रादुर्भाव अवश्य होता है ।अतःइसलिए उन पापों की निवृत्ति के लिए नित्य क्रमश: निम्नलिखित पांच यज्ञ करने का विधान किया गया है- <blockquote>अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तुतर्पणम् । होमो देवो बलिभौं तो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ॥मनुस्मृति(३/६०)।</blockquote>'''भावार्थ'''-(१)ब्रह्मयज्ञ-वेद-वेदाङ्गादि तथा पुराणादि आर्षग्रन्थोंका स्वाध्याय, (२)पितृयज्ञ-श्राद्ध तथा तर्पण, (३)देवयज्ञ-देवताओंका पूजन एवं हवन, (४)भूतयज्ञ-बलिवैश्वदेव तथा पञ्चबलि, (५)मनुष्ययज्ञ-अतिथिसत्कार-इन पाँचों यज्ञोंको प्रतिदिन अवश्य करना चाहिये।अतएव मनु जी ने कहा है-<blockquote>स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः। महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥मनुस्मृति(२।२८)</blockquote>'''भाषार्थ-''' वेदाध्ययनसे, मधु-मांसादिके त्यागरूप व्रतसे, हवनसे, त्रैविद्य नामक व्रतसे, ब्रह्मचर्यावस्थामें देवर्षि-पितृतर्पण आदि क्रियाओंसे, गृहस्थाश्रममें पुत्रोत्पादनसे, महायज्ञोंसे और ज्योतिष्टोमादि यज्ञोंसे यह शरीर ब्रह्मप्राप्तिके योग्य बनाया जाता है।शतपथ ब्राह्मण में पञ्चमहायज्ञों को महासत्र के नाम से व्यवहृत किया गया है-<blockquote>पञ्चैव महायज्ञाः। तान्येव महासत्राणि भूतयज्ञो मनुष्ययज्ञः पितृयज्ञो ब्रह्मयज्ञ इति । शतपथ ब्राह्मण ११।५।६।७।</blockquote>केवल पांच ही महायज्ञ हैं, वे महान् सत्र हैं और वे इस प्रकार हैं- भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ एवं ब्रह्मयज्ञ।<blockquote>कण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुम्भी च मार्जनी। पञ्चसूना गृहस्थस्य पञ्चयज्ञात्प्रणश्यति ।।</blockquote>'''अर्थ'''-कूटना, पीसना, चूल्हा, जल भरना और झाडू लगाना-पंचसूना जन्य इन सभी पापोंका शमन पंचमहायज्ञसे ही होता है। जो व्यक्ति अपने सामर्थ्यके अनुसार यह पंचमहायज्ञ करता है सभी पापोंसे वह मुक्ति पा लेता है। ये पंचमहायज्ञ अजस्ररूपसे गृहस्थोंको धन-समृद्धिसे परिपूर्ण करते हैं ।तैत्तिरीय आरण्यक(११।१०)। |
− | पञ्च महायज्ञों एवं श्रौत यज्ञों में दो प्रकार के अन्तर हैं। पञ्च महायज्ञों में गृहस्थ को किसी पुरोहित की सहायता की अपेक्षा नहीं होती, किन्तु श्रौत यज्ञों में पुरोहित मुख्य हैं और गृहस्थ का स्थान केवल गौण रूप में रहता है। दूसरा अन्तर यह है कि पञ्च महायज्ञों में मुख्य उद्देश्य है देवता, प्राचीन ऋषियों, पितरों, जीवों एवं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना। | + | पञ्च महायज्ञों एवं श्रौत यज्ञों में दो प्रकार के अन्तर हैं। पञ्च महायज्ञों में गृहस्थ को किसी पुरोहित की सहायता की अपेक्षा नहीं होती, किन्तु श्रौत यज्ञों में पुरोहित मुख्य हैं। गृहस्थ का स्थान केवल गौण रूप में रहता है। दूसरा अन्तर यह है कि पञ्च महायज्ञों में मुख्य उद्देश्य हैं देवता, ऋषि, पितर, जीव एवं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना। किन्तु श्रौत यज्ञों में क्रिया की प्रमुख प्रेरणा है स्वर्ग, सम्पत्ति, पुत्र आदि की कामना। अतः पञ्च महायज्ञों की व्यवस्था में श्रौत यज्ञों की अपेक्षा अधिक नैतिकता, आध्यात्मिकता एवं प्रगतिशीलता देखने में आती है। |