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| शास्त्रोक्त विधि का प्रतिपालन ही सदाचार कहा जाता था- | | शास्त्रोक्त विधि का प्रतिपालन ही सदाचार कहा जाता था- |
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− | संक्षेपमें हमारे श्रुति-स्मृतिमूलक संस्कार देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और आत्माका मलापनयन(परिशुद्धि) कर उनमें अतिशयाधान करते हुए किञ्चित् हीन अङ्ग की पूर्ति कर उन्हें विमल कर देते हैं। संस्कारोंकी उपेक्षा करनेसे समाजमें उच्छृङ्खलता(अराजकता)की वृद्धि हो जाती है, जिसका दुष्परिणाम सर्वगोचर एवं सर्वविदित है। | + | संक्षेपमें हमारे श्रुति-स्मृतिमूलक संस्कार देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और आत्माका मलापनयन(परिशुद्धि) कर उनमें अतिशयाधान करते हुए किञ्चित् हीन अङ्ग की पूर्ति कर उन्हें विमल कर देते हैं। संस्कारोंकी उपेक्षा करनेसे समाजमें उच्छृङ्खलता(अराजकता)की वृद्धि हो जाती है जिसका दुष्परिणाम सर्वगोचर एवं सर्वविदित है। |
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| वर्तमानमें मनुष्यकी बढ़ती हुई भोगवादी कुप्रवृत्तिके कारण आचार-विचार का उत्तरोत्तर ह्रास हो रहा है एवं स्वेच्छाचारकी कुत्सित मनोवृत्ति भी उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है, जिसका दुष्परिणाम संसार के समस्त प्राणियों को भोगना पड़ रहा है। ऐसी भयावह परिस्थितिमें मानव के लिये स्वस्थ दिशा बोध प्रदान करनेके लिये आचार-विचार का ज्ञान और उसके अनुसार आचरण करना यह पथ-प्रदर्शक होगा। | | वर्तमानमें मनुष्यकी बढ़ती हुई भोगवादी कुप्रवृत्तिके कारण आचार-विचार का उत्तरोत्तर ह्रास हो रहा है एवं स्वेच्छाचारकी कुत्सित मनोवृत्ति भी उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है, जिसका दुष्परिणाम संसार के समस्त प्राणियों को भोगना पड़ रहा है। ऐसी भयावह परिस्थितिमें मानव के लिये स्वस्थ दिशा बोध प्रदान करनेके लिये आचार-विचार का ज्ञान और उसके अनुसार आचरण करना यह पथ-प्रदर्शक होगा। |
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| रात्रेः पश्चिम यामस्य मुहूर्तो यस्तृतीयकः ।स ब्राह्म इति विज्ञेयो विहितः स प्रबोधने ॥ | | रात्रेः पश्चिम यामस्य मुहूर्तो यस्तृतीयकः ।स ब्राह्म इति विज्ञेयो विहितः स प्रबोधने ॥ |
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− | अर्थात् रात के पिछले पहर का जो तीसरा मुहूर्त (भाग) होता है वह ब्राह्ममुहूर्त होता है, जागने के लिये यही समय उचित है।
| + | '''अनु-''' रात के पिछले पहर का जो तीसरा मुहूर्त (भाग) होता है वह ब्राह्ममुहूर्त होता है जागने के लिये यही समय उचित है। |
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| '''वैज्ञानिक अंश तथा लाभ''' | | '''वैज्ञानिक अंश तथा लाभ''' |
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| ऐसी अनेकों शिक्षायें दी गयी हैं जिनका पालन न करने से ही लोग आजकल प्रमेह, बवासीर आदि अनेकों इन्द्रिय रोगों से ग्रसित हो रहे हैं।इस सन्दर्भ में वर्तमान में स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय निर्माण करना एवं खुले में शौच मूत्रविसर्जन आदि करने पर प्रतिबन्ध लगाना इन सब के द्वारा संक्रामक विकारों को रोकने में एक महत्वपूर्ण भूमिका है । | | ऐसी अनेकों शिक्षायें दी गयी हैं जिनका पालन न करने से ही लोग आजकल प्रमेह, बवासीर आदि अनेकों इन्द्रिय रोगों से ग्रसित हो रहे हैं।इस सन्दर्भ में वर्तमान में स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय निर्माण करना एवं खुले में शौच मूत्रविसर्जन आदि करने पर प्रतिबन्ध लगाना इन सब के द्वारा संक्रामक विकारों को रोकने में एक महत्वपूर्ण भूमिका है । |
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− | === '''प्रातःस्नान एवं वस्त्रादिधारण विधि''' === | + | ==== '''प्रातःस्नान एवं वस्त्रादिधारण विधि''' ==== |
| ब्राह्म मुहूर्त में जागरण के विषय में शास्त्र का प्रमाण दिया ही जा चुका है। अब प्रात: स्नान का वर्णन किया जा रहा है। प्रातः स्नान में विशेषता यह है कि रात्रि भर चन्द्रामृत से जो चन्द्रमा की किरणें जल में प्रवेश करती हैं, उसके प्रभाव से जल पुष्ट हो जाता है। सूर्योदय होने पर वह सब गुण सूर्य की किरणों द्वारा आकृष्ट हो जाता है; अत: जो व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व स्नान करेगा. वही जल के अमृतमय कणों का लाभ उठा सकेगा।जो लोग आलस्यवश नित्य स्नान नहीं करते उन्हें स्नान के गुण व लाभ समझ लेने चाहिये और नित्य प्रातः स्नान अवश्य करना चाहिये। | | ब्राह्म मुहूर्त में जागरण के विषय में शास्त्र का प्रमाण दिया ही जा चुका है। अब प्रात: स्नान का वर्णन किया जा रहा है। प्रातः स्नान में विशेषता यह है कि रात्रि भर चन्द्रामृत से जो चन्द्रमा की किरणें जल में प्रवेश करती हैं, उसके प्रभाव से जल पुष्ट हो जाता है। सूर्योदय होने पर वह सब गुण सूर्य की किरणों द्वारा आकृष्ट हो जाता है; अत: जो व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व स्नान करेगा. वही जल के अमृतमय कणों का लाभ उठा सकेगा।जो लोग आलस्यवश नित्य स्नान नहीं करते उन्हें स्नान के गुण व लाभ समझ लेने चाहिये और नित्य प्रातः स्नान अवश्य करना चाहिये। |
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| प्रातःकाल का नित्य स्नान<blockquote>गुणा दश स्नान दश स्नान परस्य मध्येरूपं च तेजश्च बलं च शौचम् ।आयुष्यमारोग्यमलोलुपत्वं दुःस्वप्तघातश्च तपश्चमेधा ॥(दक्षस्मृति २।१४)</blockquote>जो मानव स्नान में तत्पर होत है उसमें यह दश गुण विद्यमान होते है रूप,पुष्टता,बल,तेज,आरोग्य,अवस्था,दुस्वप्न का नाश,धातु की वृद्धि,तप और बुद्धि । | | प्रातःकाल का नित्य स्नान<blockquote>गुणा दश स्नान दश स्नान परस्य मध्येरूपं च तेजश्च बलं च शौचम् ।आयुष्यमारोग्यमलोलुपत्वं दुःस्वप्तघातश्च तपश्चमेधा ॥(दक्षस्मृति २।१४)</blockquote>जो मानव स्नान में तत्पर होत है उसमें यह दश गुण विद्यमान होते है रूप,पुष्टता,बल,तेज,आरोग्य,अवस्था,दुस्वप्न का नाश,धातु की वृद्धि,तप और बुद्धि । |
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− | वस्त्रधारण एवं भस्मादि तिलक धारण विधि। | + | ==== वस्त्रधारण विधि ==== |
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− | == संध्योपासन विधि। == | + | ==== भस्मादितिलक धारण विधि ==== |
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| + | ==== आसन विधि ==== |
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| + | == संध्योपासन विधि == |
| + | स्नान के पश्चात् सन्ध्यावन्दनादि का क्रम शास्त्रों में कहा गया है। यह उपनयन संस्कार होने के बाद द्विजों के लिये नित्य क्रिया है। इससे बड़ा लाभ है। संध्या मुख्यतः प्रातः मध्यान्ह और सायान्ह इन तीन भागों में विभाजित है। रात्रि या दिन में जो भी अज्ञानकृत पोप होता है वह सन्ध्या के द्वारा नष्ट हो जाता है तथा अन्त:करण निर्मल, शुद्ध और पवित्र हो जाता है। वैसे भी देखिये कि किसी मशीन को चलाने तथा ठीक गतिशील रखने के लिये हमें उसकी सफाई रखनी पड़ती ही है चाहे जितनी सावधानी बरती जाय अन्तःकरण में नित्य के व्यवहार से कुछ न कुछ मलिनता आती ही है, अतः सन्ध्योपासन द्वारा उसका निवारण करना परम कर्तव्य है। घर में अगर झाड़ न लगाई जाय तो कूड़ा आ ही जाता है, शरीर में प्रतिक्षण मैल वनता ही रहता है और वह इन्द्रियों द्वारा निकलता रहता है इसी प्रकार अन्त:करण का मैल सन्ध्याद्वारा दूर होता है । सन्ध्या से दीर्घ आयु, प्रज्ञा, यश, कीर्ति तथा ब्रह्मतेज की प्राप्ति होती है । |
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| + | मनु जी कहते हैं-<blockquote>ऋषयो दीर्घ सन्ध्यत्वाद् दीर्घमायुरवाप्नुयुः । प्रज्ञां यशश्च कीतिश्च ब्रह्मवर्चसमेव च ।।</blockquote>इस प्रकार हमें शारीरिक शक्ति, बौद्धिकबल, ब्रह्मतेज तथा यश की प्राप्ति भी इसके द्वारा होती है। नित्य सन्ध्या करने से ध्यान द्वारा हम परमात्मा से सम्पर्क स्थापित करते हैं। सन्ध्या में |
| + | * आचमन |
| + | * प्राणायाम |
| + | * मार्जन |
| + | * मन्त्र प्रोक्षण |
| + | * मन्त्राचमन |
| + | * अघमर्षण |
| + | * सूर्यार्घ्य |
| + | * गायत्री उपासना |
| + | * उपस्थान |
| + | * दिशा नमस्कार |
| + | * अभिवादन |
| + | क्रियाओं में बड़ा रहस्य छिपा है और वड़े लाभ निहित हैं। संध्या में आसन पर बैठकर प्राणायाम के द्वारा रोग और पाप का नाश होता है। कहा गया है--<blockquote>आसनेन रुजहन्ति प्राणायामेन पातकम् । </blockquote>इस शरीर रूपी यन्त्र में सन्ध्या द्वारा हमें, शारीरिक शुद्धि, मानसिक पवित्रता तथा बौद्धिक प्रखरता और ब्रह्मवर्चस के साथ साथ आध्यात्मिक शक्ति की प्राप्ति होती है। सन्ध्या के बाद गायत्री जप का विधान है। इससे बुद्धि को प्रेरणा मिलती है। |
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| + | गायत्री वेदमाता है, यह बुद्धि को प्रेरणा देने वाली, तेजस्वरूप ज्ञान प्रदायिनी है। इसके जप से बड़ी शक्ति प्राप्त होती है। लौकिक सिद्धियां भी गायत्री के अनुष्ठान से प्राप्त हो जाती हैं। |
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| + | गायत्री के समय उपासना तो हो ही जाती है। जिस प्रकार अग्नि में पड़ने से लोहा धीरे धीरे गरम हो जाता है उसी प्रकार गायत्री के दिव्य तेज को धारण करके साधक ब्रह्मतेज से परिपूर्ण हो जाता है, उसके सारे कलुष विध्वंस हो जाते हैं। उसका चेहरा तेज से चमचमाने लगता है। जिस प्रकार सूर्य की किरणें धूप में बैठे हुए व्यक्ति पर पड़ती हैं और धीरे धीरे उसकी उष्णता का प्रवेश उसमें होने लगता है उसी प्रकार गायत्री माता की ज्योतिर्मयी शक्ति और तेज साधक के शरीर, मन और बुद्धि पर पड़ता है। |
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| + | इस प्रकार सन्ध्या में कर्म, उपासना, ज्ञान, प्राणायाम, जप तथा ध्यान आदि की सभी क्रियायें सम्पन्न हो जाती हैं और नित्य का विधान होने से मनुष्य उसके द्वारा सभी लाभ उठा लेता है। |
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| + | सन्ध्या वन्दन की क्रिया के साथ साथ फिर सूर्य को अर्घ्य दान की बात सनातन धर्म शास्त्र में कही गयी है। उसमें भी बड़ा रहस्य है। |
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| ===== सन्ध्यापरिचय ===== | | ===== सन्ध्यापरिचय ===== |
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| जो संध्या नहीं जानता अथवा जानकर भी उसकी उपासना नहीं करता, वह जीते-जी शूद्रके समान है और मरनेपर कुत्तेकी योनिको प्राप्त होता है। जो विप्र संकट प्राप्त हुए बिना ही संध्याका त्याग करता है, वह शूद्रके समान है। उसे प्रायश्चित्तका भागी और लोकमें निन्दित होना पड़ता है।<blockquote>संध्या येन न विज्ञाता संध्या नैवाप्युपासिता। जीवमानो भवेच्छूद्रो मृतः श्वा चैव जायते॥ (याज्ञवल्क्य)</blockquote><blockquote>अनार्तश्चोत्सृजेद् यस्तु स विप्रः शूद्रसम्मितः। प्रायश्चित्ती भवेच्चैव लोके भवति निन्दितः॥ (याज्ञवल्क्य)</blockquote>संध्याहीन द्विज अपवित्र होता है। उसका किसी भी द्विजकर्ममें अधिकार नहीं है। वह जो कुछ भी दूसरा कर्म करता है, उसका फल भी उसे नहीं मिलता। जो द्विज समयपर प्राप्त हुए संध्याकर्मका आलस्यवश उल्लंघन करता है, उसे सूर्यकी हिंसाका पाप लगता है और मृत्युके पश्चात् वह उल्लू होता है।<blockquote>संध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु। यदन्यत् कुरुते कर्म न तस्य फलभाग् भवेत् ॥ (दक्षस्मृति)</blockquote><blockquote>यः संध्यां कालतः प्राप्तामालस्यादतिवर्तते। सूर्यहत्यामवाप्नोति ह्युलूकत्वमियात् स च॥ (अत्रि)</blockquote>संध्याकर्मका कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिये। जो संध्योपासना नहीं करता उसे सूर्यकी हत्याका दोष लगता है।<blockquote>तस्मान्नोल्लंघन कार्यं संध्योपासनाकर्मणः। २/८/५७</blockquote><blockquote>स हन्ति सूर्यं संध्याया नोपस्तिं कुस्ते तुयः॥ (विष्णुपुराण)</blockquote> | | जो संध्या नहीं जानता अथवा जानकर भी उसकी उपासना नहीं करता, वह जीते-जी शूद्रके समान है और मरनेपर कुत्तेकी योनिको प्राप्त होता है। जो विप्र संकट प्राप्त हुए बिना ही संध्याका त्याग करता है, वह शूद्रके समान है। उसे प्रायश्चित्तका भागी और लोकमें निन्दित होना पड़ता है।<blockquote>संध्या येन न विज्ञाता संध्या नैवाप्युपासिता। जीवमानो भवेच्छूद्रो मृतः श्वा चैव जायते॥ (याज्ञवल्क्य)</blockquote><blockquote>अनार्तश्चोत्सृजेद् यस्तु स विप्रः शूद्रसम्मितः। प्रायश्चित्ती भवेच्चैव लोके भवति निन्दितः॥ (याज्ञवल्क्य)</blockquote>संध्याहीन द्विज अपवित्र होता है। उसका किसी भी द्विजकर्ममें अधिकार नहीं है। वह जो कुछ भी दूसरा कर्म करता है, उसका फल भी उसे नहीं मिलता। जो द्विज समयपर प्राप्त हुए संध्याकर्मका आलस्यवश उल्लंघन करता है, उसे सूर्यकी हिंसाका पाप लगता है और मृत्युके पश्चात् वह उल्लू होता है।<blockquote>संध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु। यदन्यत् कुरुते कर्म न तस्य फलभाग् भवेत् ॥ (दक्षस्मृति)</blockquote><blockquote>यः संध्यां कालतः प्राप्तामालस्यादतिवर्तते। सूर्यहत्यामवाप्नोति ह्युलूकत्वमियात् स च॥ (अत्रि)</blockquote>संध्याकर्मका कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिये। जो संध्योपासना नहीं करता उसे सूर्यकी हत्याका दोष लगता है।<blockquote>तस्मान्नोल्लंघन कार्यं संध्योपासनाकर्मणः। २/८/५७</blockquote><blockquote>स हन्ति सूर्यं संध्याया नोपस्तिं कुस्ते तुयः॥ (विष्णुपुराण)</blockquote> |
| == पंचमहायज्ञ == | | == पंचमहायज्ञ == |
− | <blockquote>पंच सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः । कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन् ॥(पराशर०१४)</blockquote>गृहस्थी में चूल्हा, चक्की, झाडू, ओखली और घड़ा यह पांच स्थान हिंसा के हैं।इनको काम में लाने वाला गृहस्थ पाप से बंधता है। इसलिए उन पापों की निवृत्ति के लिए नित्य क्रमश: निम्नलिखित पांच यज्ञ करने का विधान किया गया है- (१) ब्रह्मयज्ञ (२) पितृयज्ञ(३) देवयज्ञ(४) भूतयज्ञ और (५) नृयज्ञ।<blockquote>अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तुतर्पणम् । होमो देवो बलिभौं तो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ॥</blockquote>पढ़ना-पढ़ाना ब्रह्मयज्ञ, तर्पणादि पितृयज्ञ, हवन दैवयज्ञ, बलि भूतयज्ञ और अतिथि-पूजन मनुष्ययज्ञ कहलाते हैं। | + | गृहस्थके घर में पॉंच स्थल ऐसे हैं जहां प्रतिदिन न चाहने पर भी जीव हिंसा होने की सम्भावना रहती है चूल्हा(अग्नि जलानेमें) , चक्की(पीसने में), झाडू (सफाईकरने में), ऊखल (कूटनेमें), घड़ा (जल रखनेके स्थान, जलपात्र रखनेपर नीचे जीवोंके दबने) से जो पाप होते हैं ३ उन पापोंसे मुक्त होनेके लिये ब्रह्मयज्ञ-वेद-वेदाङ्गादि तथा पुराणादि आर्षग्रन्थोंका स्वाध्याय, पितृयज्ञ-श्राद्ध तथा तर्पण, देवयज्ञ-देवताओंका पूजन एवं हवन, भूतयज्ञ-बलिवैश्वदेव तथा पञ्चबलि, मनुष्ययज्ञ-अतिथिसत्कार-इन पाँचों यज्ञोंको प्रतिदिन अवश्य करना चाहिये।<blockquote>पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः । कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन् ।। </blockquote><blockquote>तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः । पञ्च क्लृप्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिनाम् ।।</blockquote>इसलिए उन पापों की निवृत्ति के लिए नित्य क्रमश: निम्नलिखित पांच यज्ञ करने का विधान किया गया है- (१) ब्रह्मयज्ञ (२) पितृयज्ञ(३) देवयज्ञ(४) भूतयज्ञ और (५) नृयज्ञ।<blockquote>अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तुतर्पणम् । होमो देवो बलिभौं तो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ॥</blockquote>पढ़ना-पढ़ाना ब्रह्मयज्ञ, तर्पणादि पितृयज्ञ, हवन दैवयज्ञ, बलि भूतयज्ञ और अतिथि-पूजन मनुष्ययज्ञ कहलाते हैं। |
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| ==== ब्रह्मयज्ञ ==== | | ==== ब्रह्मयज्ञ ==== |
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| अथर्ववेद के अतिथिसूक्त में कहा गया है कि-<blockquote>एते वै प्रियाश्चाप्रियाश्च स्वर्गलोकं गमयन्ति यदतिथयः।सर्वो वा एष जग्धपाप्मा यस्यान्नमश्नन्ति ॥(अथर्ववेद ५८)</blockquote>अतिथिप्रिय होना चाहिए भोजन कराने पर वह यजमान को स्वर्ग पहुंचा देता है और उसका पाप नष्ट कर देता है। | | अथर्ववेद के अतिथिसूक्त में कहा गया है कि-<blockquote>एते वै प्रियाश्चाप्रियाश्च स्वर्गलोकं गमयन्ति यदतिथयः।सर्वो वा एष जग्धपाप्मा यस्यान्नमश्नन्ति ॥(अथर्ववेद ५८)</blockquote>अतिथिप्रिय होना चाहिए भोजन कराने पर वह यजमान को स्वर्ग पहुंचा देता है और उसका पाप नष्ट कर देता है। |
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− | == भोजन विधि । == | + | == भोजन विधि == |
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| == पुराणादि अवलोकन,सायान्हकृत्य प्रभृति रात्रि शयनान्त विधि। == | | == पुराणादि अवलोकन,सायान्हकृत्य प्रभृति रात्रि शयनान्त विधि। == |
| <references /> | | <references /> |