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श्रीमद्भगवद्गीता<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 1-43</ref> में महायुद्ध के परिणामों को बताते समय अर्जुन ने कहा है -  <blockquote>उत्साद्यंते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता: ।। 1-43 ।।</blockquote>गीता में अर्जुन ने कई बातें कहीं हैं जो ठीक नहीं थीं । कुछ बातें गलत होने के कारण भगवान ने अर्जुन को उलाहना दी है, डाँटा है, जैसे अध्याय २ श्लोक ३ में या अध्याय २ श्लोक ११ में। किन्तु अर्जुन के  उपर्युक्त कथन पर भगवान कुछ नहीं कहते । अर्थात् अर्जुन के  ‘जातिधर्म शाश्वत हैं’  इस कथन को मान्य करते हैं। जो शाश्वत है वह परमेश्वर निर्मित है। मीमांसा दर्शन के अनुसार भी ‘अनिषिध्दमनुमताम्’  अर्थात् जिसका निषेध नहीं किया गया उसकी अनुमति मानी जाती है। इसका यही अर्थ होता है कि जातिधर्म शाश्वत हैं। अर्जुन के  कथन का भगवान जब निषेध नहीं करते, इस का अर्थ है कि भगवान अर्जुन के ‘जातिधर्म (इस लिये जाति भी) शाश्वत हैं’ इस कथन को मान्य करते हैं।   
 
श्रीमद्भगवद्गीता<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 1-43</ref> में महायुद्ध के परिणामों को बताते समय अर्जुन ने कहा है -  <blockquote>उत्साद्यंते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता: ।। 1-43 ।।</blockquote>गीता में अर्जुन ने कई बातें कहीं हैं जो ठीक नहीं थीं । कुछ बातें गलत होने के कारण भगवान ने अर्जुन को उलाहना दी है, डाँटा है, जैसे अध्याय २ श्लोक ३ में या अध्याय २ श्लोक ११ में। किन्तु अर्जुन के  उपर्युक्त कथन पर भगवान कुछ नहीं कहते । अर्थात् अर्जुन के  ‘जातिधर्म शाश्वत हैं’  इस कथन को मान्य करते हैं। जो शाश्वत है वह परमेश्वर निर्मित है। मीमांसा दर्शन के अनुसार भी ‘अनिषिध्दमनुमताम्’  अर्थात् जिसका निषेध नहीं किया गया उसकी अनुमति मानी जाती है। इसका यही अर्थ होता है कि जातिधर्म शाश्वत हैं। अर्जुन के  कथन का भगवान जब निषेध नहीं करते, इस का अर्थ है कि भगवान अर्जुन के ‘जातिधर्म (इस लिये जाति भी) शाश्वत हैं’ इस कथन को मान्य करते हैं।   
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[[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|[[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]]]] और जाति व्यवस्था ये दोनों हजारों वर्षों से धार्मिक  समाज में विद्यमान हैं। महाभारत काल ५००० वर्षों से अधिक पुराना है। धार्मिक  कालगणना के अनुसार त्रेता युग का रामायण काल तो शायद १७ लाख वर्ष पुराना (रामसेतु की आयु) है। इन दोनों में जातियों के संदर्भ हैं। अर्थात् वर्ण और जाति व्यवस्था दोनों बहुत प्राचीन हैं इसे तो जो रामायण और महाभरत के यहाँ बताए काल से सहमत नहीं हैं वे भी मान्य करेंगे। कई दश-सहस्राब्दियों के इस सामाजिक जीवन में हमने कई उतार चढाव देखें हैं। जैसे पतन के काल में जाति व्यवस्था थी उसी प्रकार उत्थान के समय भी थी । इस जाति व्यवस्था के होते हुए भी वह हजारों वर्षों तक ज्ञान और समृद्धि के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। उन्नत अवस्थाओं में भी जाति व्यवस्था का कभी अवरोध रहा ऐसा कहीं भी दूरदूर तक उल्लेख हमारे ३०० वर्षों से अधिक पुराने किसी भी धार्मिक  साहित्य में नहीं है। किसी भी धार्मिक  चिंतक ने इन व्यवस्थाओं को नकारा नहीं है।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय १७, लेखक - दिलीप केलकर</ref>   
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[[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]] और जाति व्यवस्था ये दोनों हजारों वर्षों से धार्मिक  समाज में विद्यमान हैं। महाभारत काल ५००० वर्षों से अधिक पुराना है। धार्मिक  कालगणना के अनुसार त्रेता युग का रामायण काल तो संभवतः १७ लाख वर्ष पुराना (रामसेतु की आयु) है। इन दोनों में जातियों के संदर्भ हैं। अर्थात् वर्ण और जाति व्यवस्था दोनों बहुत प्राचीन हैं इसे तो जो रामायण और महाभरत के यहाँ बताए काल से सहमत नहीं हैं वे भी मान्य करेंगे। कई दश-सहस्राब्दियों के इस सामाजिक जीवन में हमने कई उतार चढाव देखें हैं। जैसे पतन के काल में जाति व्यवस्था थी उसी प्रकार उत्थान के समय भी थी । इस जाति व्यवस्था के होते हुए भी वह हजारों वर्षों तक ज्ञान और समृद्धि के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। उन्नत अवस्थाओं में भी जाति व्यवस्था का कभी अवरोध रहा ऐसा कहीं भी दूरदूर तक उल्लेख हमारे ३०० वर्षों से अधिक पुराने किसी भी धार्मिक  साहित्य में नहीं है। किसी भी धार्मिक  चिंतक ने इन व्यवस्थाओं को नकारा नहीं है।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय १७, लेखक - दिलीप केलकर</ref>   
    
== व्यावसायिक कुशलताओं के समायोजन (जाति व्यवस्था) के लाभ ==
 
== व्यावसायिक कुशलताओं के समायोजन (जाति व्यवस्था) के लाभ ==
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समाज में जान की बाजी लगाकर भी दुष्टों, दुर्जनों और मूर्खों का नियंत्रण करनेवाला एक क्षत्रिय वर्ग, समाज का पोषण करने हेतु कृषि, गोरक्षण और व्यापार-उद्योग-उत्पादन करनेवाला वैश्य वर्ग और ऐसे सभी लोगोंं की सेवा करनेवाला शूद्र वर्ग ऐसे नाम दिये गये । इन चार वृत्तियों की हर समाज को आवश्यकता होती ही है । इन का समाज में अनुपात महत्वपूर्ण होता है । इस अनुपात के कारण समाज में संतुलन बना रहता है। यह अनुपात बिगडने से समाज व्याधिग्रस्त हो जाता है।  
 
समाज में जान की बाजी लगाकर भी दुष्टों, दुर्जनों और मूर्खों का नियंत्रण करनेवाला एक क्षत्रिय वर्ग, समाज का पोषण करने हेतु कृषि, गोरक्षण और व्यापार-उद्योग-उत्पादन करनेवाला वैश्य वर्ग और ऐसे सभी लोगोंं की सेवा करनेवाला शूद्र वर्ग ऐसे नाम दिये गये । इन चार वृत्तियों की हर समाज को आवश्यकता होती ही है । इन का समाज में अनुपात महत्वपूर्ण होता है । इस अनुपात के कारण समाज में संतुलन बना रहता है। यह अनुपात बिगडने से समाज व्याधिग्रस्त हो जाता है।  
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हमारे पूर्वजों की श्रेष्ठता यह है कि इस प्रकार से परमात्मा ने निर्माण किये अर्थात् जन्मगत वर्णों को उन्होंने ठीक से समझा और उन्हें एक व्यवस्था में बांधा । पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार मनुष्य का स्वभाव होता है । और स्वभाव के अनुसार वर्तमान जन्म के गुण और कर्म होते हैं। गुण और कर्म जन्मगत वर्णों के परिणाम स्वरूप ही होते हैं। स्वभाव को कठोर तप के बिना वर्तमान जन्म में सामान्यत: बदला नहीं जा सकता । वर्ण तो परमात्मा ने जन्मगत (आनुवांशिक नहीं) निर्माण किये हैं, किन्तु वर्ण की व्यवस्था यानि वर्णों को आनुवंशिक बनाने की व्यवस्था हमारे श्रेष्ठ पूर्वजों द्वारा निर्माण की हुई है। इन वर्णों का अनुपात और वर्णों की शुद्धता समाज में बनाए रखने की यह व्यवस्था है । समाज का संतुलन बनाए रखने की यह व्यवस्था है । इन वर्णों के आचार से धर्माचरण का संवर्धन होता है । समाज श्रेष्ठ बनता है । [[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|[[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]]]] प्रभावी रहने से समाज चिरंजीवी भी बनता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 3-35</ref> <blockquote>स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।। 3-35 ।।</blockquote>यानि अपने स्वभाव के अनुरूप धर्म का सदैव पालन करना चाहिये। अपने धर्म का पालन करते हुए आया मृत्यु भी कल्याणकारी है। अन्य किसी का धर्म अधिक श्रेष्ठ दिखाई देनेपर भी हमारे लिये वह अनिष्टकारी होने से उस से हमें परहेज करना चाहिये।  
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हमारे पूर्वजों की श्रेष्ठता यह है कि इस प्रकार से परमात्मा ने निर्माण किये अर्थात् जन्मगत वर्णों को उन्होंने ठीक से समझा और उन्हें एक व्यवस्था में बांधा । पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार मनुष्य का स्वभाव होता है । और स्वभाव के अनुसार वर्तमान जन्म के गुण और कर्म होते हैं। गुण और कर्म जन्मगत वर्णों के परिणाम स्वरूप ही होते हैं। स्वभाव को कठोर तप के बिना वर्तमान जन्म में सामान्यत: बदला नहीं जा सकता । वर्ण तो परमात्मा ने जन्मगत (आनुवांशिक नहीं) निर्माण किये हैं, किन्तु वर्ण की व्यवस्था यानि वर्णों को आनुवंशिक बनाने की व्यवस्था हमारे श्रेष्ठ पूर्वजों द्वारा निर्माण की हुई है। इन वर्णों का अनुपात और वर्णों की शुद्धता समाज में बनाए रखने की यह व्यवस्था है । समाज का संतुलन बनाए रखने की यह व्यवस्था है । इन वर्णों के आचार से धर्माचरण का संवर्धन होता है । समाज श्रेष्ठ बनता है । [[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]] प्रभावी रहने से समाज चिरंजीवी भी बनता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 3-35</ref> <blockquote>स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।। 3-35 ।।</blockquote>यानि अपने स्वभाव के अनुरूप धर्म का सदैव पालन करना चाहिये। अपने धर्म का पालन करते हुए आया मृत्यु भी कल्याणकारी है। अन्य किसी का धर्म अधिक श्रेष्ठ दिखाई देनेपर भी हमारे लिये वह अनिष्टकारी होने से उस से हमें परहेज करना चाहिये।  
    
मनुष्य को जब परमात्मा ने इच्छाएँ दीं, आवश्यकताएँ निर्माण कीं, तो उन की पूर्ति के लिये भी परमात्मा ने व्यवस्था की है । इस पूर्ति के लिये दो बातें आवश्यक हैं। पहली बात है प्राकृतिक संसाधन । परमात्मा ने प्रचूर मात्रा में प्राकृतिक संसाधन निर्माण किये हैं। दूसरी बात है क्षमताएँ और कुशलताएँ । इन कुशलताओं के अपेक्षित और आवश्यक विकास की संभावनाएँ हैं ऐसे लोगोंं को भी परमात्मा ने मनुष्य समाज में निर्माण किया है । इन कुशलताओं में समाज की आवश्यकताओं के अनुसार संतुलन बना रहे इस हेतु से यह कुशलताएं जिन में जन्म से ही हैं ऐसे लोगोंं को भी परमात्मा ने योग्य अनुपात में पैदा किया । और करता रहता है । इन कुशलताओं का नाम है जाति । इन वर्णों और जातियों (व्यावसायिक कुशलताओं) का अनुपात बिगडने से समाज की आवश्यकताओं की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती । वर्णों का भी संतुलन बनाए रखने के लिये हमारे दृष्टा पूर्वजों ने वर्णों को भी जातियों अर्थात् कुशलताओं के साथ जन्मजात व्यवस्था में बांधा । वर्णों को और जातियों को जन्मगत बनाया । जन्मगत जाति बनाने से समाज के लिये आवश्यक कुशलताओं का संतुलन बनाए रखने की व्यवस्था बनीं। जाति व्यवस्था के नाम से समाज को चिरंजीवी बनाने के लिये एक और व्यवस्था निर्माण की गई।   
 
मनुष्य को जब परमात्मा ने इच्छाएँ दीं, आवश्यकताएँ निर्माण कीं, तो उन की पूर्ति के लिये भी परमात्मा ने व्यवस्था की है । इस पूर्ति के लिये दो बातें आवश्यक हैं। पहली बात है प्राकृतिक संसाधन । परमात्मा ने प्रचूर मात्रा में प्राकृतिक संसाधन निर्माण किये हैं। दूसरी बात है क्षमताएँ और कुशलताएँ । इन कुशलताओं के अपेक्षित और आवश्यक विकास की संभावनाएँ हैं ऐसे लोगोंं को भी परमात्मा ने मनुष्य समाज में निर्माण किया है । इन कुशलताओं में समाज की आवश्यकताओं के अनुसार संतुलन बना रहे इस हेतु से यह कुशलताएं जिन में जन्म से ही हैं ऐसे लोगोंं को भी परमात्मा ने योग्य अनुपात में पैदा किया । और करता रहता है । इन कुशलताओं का नाम है जाति । इन वर्णों और जातियों (व्यावसायिक कुशलताओं) का अनुपात बिगडने से समाज की आवश्यकताओं की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती । वर्णों का भी संतुलन बनाए रखने के लिये हमारे दृष्टा पूर्वजों ने वर्णों को भी जातियों अर्थात् कुशलताओं के साथ जन्मजात व्यवस्था में बांधा । वर्णों को और जातियों को जन्मगत बनाया । जन्मगत जाति बनाने से समाज के लिये आवश्यक कुशलताओं का संतुलन बनाए रखने की व्यवस्था बनीं। जाति व्यवस्था के नाम से समाज को चिरंजीवी बनाने के लिये एक और व्यवस्था निर्माण की गई।   
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# व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणाली में हर पीढी में व्यवसाय बदलने के कारण हर पीढी को नये सिरे से कुशलताओं को सीखना होता है। इस से सामान्यत: कुशलताओं में पीढी दर पीढी कमी होने की संभावना होती है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में कुशलताओं का पीढी दर पीढी विकास होने की संभावनाएँ बहुत अधिक होतीं हैं।  
 
# व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणाली में हर पीढी में व्यवसाय बदलने के कारण हर पीढी को नये सिरे से कुशलताओं को सीखना होता है। इस से सामान्यत: कुशलताओं में पीढी दर पीढी कमी होने की संभावना होती है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में कुशलताओं का पीढी दर पीढी विकास होने की संभावनाएँ बहुत अधिक होतीं हैं।  
 
# व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणाली में कुशलताओं में पीढी दर पीढी कमी होने के कारण प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय भी बढता जाता है। जबकि जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में कुशलताओं का पीढी दर पीढी विकास होने के कारण प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग न्यूनतम होता जाता है। प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय नहीं होता। बचत होती है।  
 
# व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणाली में कुशलताओं में पीढी दर पीढी कमी होने के कारण प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय भी बढता जाता है। जबकि जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में कुशलताओं का पीढी दर पीढी विकास होने के कारण प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग न्यूनतम होता जाता है। प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय नहीं होता। बचत होती है।  
# व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणाली में व्यक्ति का महत्व बढता है। सामाजिकता की भावना कम होती है । परिवार बिखर जाते  हैं । जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में संयुक्त कुटुंब का महत्व बढता है। कुटुंब भावना ही वास्तव में सामाजिकता की जड़ होती है। पारिवारिक व्यावसायिक परंपराएं बनतीं हैं । सामाजिकता की भावना बढती है। परिवार समृध्द बनते हैं। वर्तमान सामाजिक समस्याओं में से शायद 50 प्रतिशत से अधिक समस्याओं का निराकरण तो संयुक्त परिवारों की प्रतिष्ठापना से ही हो सकता है। जातिगत व्यवसाय चयन के लिये संयुक्त परिवार व्यवस्था पूरक और पोषक ही नहीं आवश्यक भी होती है।  
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# व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणाली में व्यक्ति का महत्व बढता है। सामाजिकता की भावना कम होती है । परिवार बिखर जाते  हैं । जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में संयुक्त कुटुंब का महत्व बढता है। कुटुंब भावना ही वास्तव में सामाजिकता की जड़ होती है। पारिवारिक व्यावसायिक परंपराएं बनतीं हैं । सामाजिकता की भावना बढती है। परिवार समृध्द बनते हैं। वर्तमान सामाजिक समस्याओं में से संभवतः 50 प्रतिशत से अधिक समस्याओं का निराकरण तो संयुक्त परिवारों की प्रतिष्ठापना से ही हो सकता है। जातिगत व्यवसाय चयन के लिये संयुक्त परिवार व्यवस्था पूरक और पोषक ही नहीं आवश्यक भी होती है।  
 
# यह सामान्य निरीक्षण और ज्ञान की बात है की बुद्धिमान वर्ग समाज में प्रतिष्ठा की ऊपर की पायदान पर जाने का प्रयास करता रहता है। सम्मान प्राप्त बुद्धिमान वर्ग अल्पप्रसवा भी होता है। सम्मानप्राप्त बुद्धिमान वर्ग की जनन क्षमता अन्य समाज से कम होती है। इस तरह से हर समाज में बुद्धिमान वर्ग का प्रमाण कम होता जाता है। और जब यह प्रमाण एक विशेष सीमा से कम हो जाता है अर्थात् जब वह समाज बुद्धिहीनों का हो जाता है, वह समाज नष्ट हो जाता है। महान सभ्यताएँ विकसित करनेवाले कई समाज इसी कारण नष्ट हो गये हैं। जातिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में हर जाति में बुद्धिमान वर्ग को ऊपर के स्तर पर जाने के लिये पर्याप्त अवसर होते हैं। क्योंकि यह प्रक्रिया हर जाति में चलती है। प्रत्येक जाति में प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग की, ऐसी हजारों जातियों की मिलाकर कुल संख्या जातिहीन समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग की तुलना में हजारों गुना अधिक होती है। उन्नत होकर प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग में जाने के अवसर विपुल प्रमाण में उपलब्ध होते हैं । इसी तरह सामाजिक उन्नयन की प्रक्रिया भी जातिहीन समाज की तुलना में हजारों गुना अधिक होती है। जब की व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में ऐसे अवसर बहुत अल्प प्रमाण में उपलब्ध होते हैं । जाति बदलने के लिये 12 वर्ष तक उस जाति के जातिधर्म का पालन और साथ में व्यवसाय करने के उपरांत जाति बदलने की प्रथा आज भी कहीं कहीं अस्तित्व में है। वर्ण में परिवर्तन के लिये भी ऐसी ही 24 वर्षों की तपश्चर्या करनी पडती है (जैसी राजर्षि विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि बनने के लिये करनी पडी थी )। समाज के हित के व्यवहार की दृष्टि से अधिक श्रेष्ठ व्यवहार करने वाली जातियों को विशेष सम्मान मिलना स्वाभाविक है। ऐसा होने से सामान्य लोग और कम महत्व वाली जातियों के लोग महत्वपूर्ण जातियों के लोगोंं जैसा व्यवहार करने की प्रेरणा पाते हैं । किन्तु कम सम्मान प्राप्त जातियों में जो बुद्धिमान वर्ग है उस की जननक्षमता अन्य सामान्य लोगोंं जितनी ही यानी अधिक रहती है। इस कारण समाज में बुद्धिमानों की कभी भी कमी नहीं  होती । समाज चिरंजीवी बनने में यह व्यवस्था भी योगदान देती है।  
 
# यह सामान्य निरीक्षण और ज्ञान की बात है की बुद्धिमान वर्ग समाज में प्रतिष्ठा की ऊपर की पायदान पर जाने का प्रयास करता रहता है। सम्मान प्राप्त बुद्धिमान वर्ग अल्पप्रसवा भी होता है। सम्मानप्राप्त बुद्धिमान वर्ग की जनन क्षमता अन्य समाज से कम होती है। इस तरह से हर समाज में बुद्धिमान वर्ग का प्रमाण कम होता जाता है। और जब यह प्रमाण एक विशेष सीमा से कम हो जाता है अर्थात् जब वह समाज बुद्धिहीनों का हो जाता है, वह समाज नष्ट हो जाता है। महान सभ्यताएँ विकसित करनेवाले कई समाज इसी कारण नष्ट हो गये हैं। जातिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में हर जाति में बुद्धिमान वर्ग को ऊपर के स्तर पर जाने के लिये पर्याप्त अवसर होते हैं। क्योंकि यह प्रक्रिया हर जाति में चलती है। प्रत्येक जाति में प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग की, ऐसी हजारों जातियों की मिलाकर कुल संख्या जातिहीन समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग की तुलना में हजारों गुना अधिक होती है। उन्नत होकर प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग में जाने के अवसर विपुल प्रमाण में उपलब्ध होते हैं । इसी तरह सामाजिक उन्नयन की प्रक्रिया भी जातिहीन समाज की तुलना में हजारों गुना अधिक होती है। जब की व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में ऐसे अवसर बहुत अल्प प्रमाण में उपलब्ध होते हैं । जाति बदलने के लिये 12 वर्ष तक उस जाति के जातिधर्म का पालन और साथ में व्यवसाय करने के उपरांत जाति बदलने की प्रथा आज भी कहीं कहीं अस्तित्व में है। वर्ण में परिवर्तन के लिये भी ऐसी ही 24 वर्षों की तपश्चर्या करनी पडती है (जैसी राजर्षि विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि बनने के लिये करनी पडी थी )। समाज के हित के व्यवहार की दृष्टि से अधिक श्रेष्ठ व्यवहार करने वाली जातियों को विशेष सम्मान मिलना स्वाभाविक है। ऐसा होने से सामान्य लोग और कम महत्व वाली जातियों के लोग महत्वपूर्ण जातियों के लोगोंं जैसा व्यवहार करने की प्रेरणा पाते हैं । किन्तु कम सम्मान प्राप्त जातियों में जो बुद्धिमान वर्ग है उस की जननक्षमता अन्य सामान्य लोगोंं जितनी ही यानी अधिक रहती है। इस कारण समाज में बुद्धिमानों की कभी भी कमी नहीं  होती । समाज चिरंजीवी बनने में यह व्यवस्था भी योगदान देती है।  
 
# सुख प्राप्ति हर मानव की चाहत होती है। देशिक शास्त्र के अनुसार सुख प्राप्ति के लिये चार बातों की आवश्यकता होती है:
 
# सुख प्राप्ति हर मानव की चाहत होती है। देशिक शास्त्र के अनुसार सुख प्राप्ति के लिये चार बातों की आवश्यकता होती है:
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# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में ‘मुझे अधिक से अधिक सुख प्राप्ति के लिये अधिक से अधिक धन प्राप्त करना है। और अधिक से अधिक धन प्राप्ति के लिये के लिये उत्पादन करना है’ इस भावना से व्यक्ति काम करता है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में व्यक्ति 'मैं मेरा कर्तव्य कर रहा हूँ’, मैं परोपकार के लिये उत्पादन कर रहा हूँ, ‘मैं मेरे जातिधर्म का पालन कर रहा हूँ’ इस भावना से उत्पादन करता है। स्वार्थत्याग में मनुष्य कमियों को सहन कर लेता है। किंतु जब वह स्वार्थ के (व्यक्तिगत चयन) लिये काम करता है तो वह कमियों को सहन नहीं कर पाता। वह या तो लाचार हो जाता है या अपराधी बन जाता है।  
 
# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में ‘मुझे अधिक से अधिक सुख प्राप्ति के लिये अधिक से अधिक धन प्राप्त करना है। और अधिक से अधिक धन प्राप्ति के लिये के लिये उत्पादन करना है’ इस भावना से व्यक्ति काम करता है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में व्यक्ति 'मैं मेरा कर्तव्य कर रहा हूँ’, मैं परोपकार के लिये उत्पादन कर रहा हूँ, ‘मैं मेरे जातिधर्म का पालन कर रहा हूँ’ इस भावना से उत्पादन करता है। स्वार्थत्याग में मनुष्य कमियों को सहन कर लेता है। किंतु जब वह स्वार्थ के (व्यक्तिगत चयन) लिये काम करता है तो वह कमियों को सहन नहीं कर पाता। वह या तो लाचार हो जाता है या अपराधी बन जाता है।  
 
# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में नौकरों (गैर या अल्प जिम्मेदार, लाचार और आत्मविश्वासहीन ) की संख्या बहुत अधिक होती है। मालिकों (जिम्मेदार, स्वाभिमानयुक्त और आत्मविश्वासयुक्त ) की संख्या अत्यल्प होती है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में मालिकों की संख्या बहुत अधिक और नौकरों की संख्या कम रहती है। इस कारण सारा समाज जिम्मेदार, स्वाभिमानी और आत्मविश्वासयुक्त बनता है।  
 
# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में नौकरों (गैर या अल्प जिम्मेदार, लाचार और आत्मविश्वासहीन ) की संख्या बहुत अधिक होती है। मालिकों (जिम्मेदार, स्वाभिमानयुक्त और आत्मविश्वासयुक्त ) की संख्या अत्यल्प होती है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में मालिकों की संख्या बहुत अधिक और नौकरों की संख्या कम रहती है। इस कारण सारा समाज जिम्मेदार, स्वाभिमानी और आत्मविश्वासयुक्त बनता है।  
# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में लाभ (जितना अधिक से अधिक संभव है उतना) पर आधारित अर्थशास्त्र जन्म लेता है। इसलिये फिर विज्ञापनबाजी, झूठ, फरेब का उपयोग किया जाना सामान्य बन जाता है। सामान्य जन को इस से बचाने के लिये (मँहंगे) न्यायालय का दिखावा होता है। लेकिन वह मुश्किल से शायद एकाध प्रतिशत लोगोंं को ही न्याय दिला पाता है। केवल व्यक्तिगत चयन आधारित व्यवसाय पर आधारित अर्थव्यवस्था में निम्न प्रकारों से सामाजिक हानि होती है:
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# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में लाभ (जितना अधिक से अधिक संभव है उतना) पर आधारित अर्थशास्त्र जन्म लेता है। इसलिये फिर विज्ञापनबाजी, झूठ, फरेब का उपयोग किया जाना सामान्य बन जाता है। सामान्य जन को इस से बचाने के लिये (मँहंगे) न्यायालय का दिखावा होता है। लेकिन वह मुश्किल से संभवतः एकाध प्रतिशत लोगोंं को ही न्याय दिला पाता है। केवल व्यक्तिगत चयन आधारित व्यवसाय पर आधारित अर्थव्यवस्था में निम्न प्रकारों से सामाजिक हानि होती है:
 
## पूरे समाज के लिये मैं अकेला ही उत्पादन करूँगा, उस से मिलनेवाले लाभ का मैं एकमात्र हकदार बनूँं ऐसी राक्षसी महत्वाकांक्षा सारे समाज में व्याप्त हो जाती है। इस वातावरण और उपजी स्पर्धा में समाज का एक बहुत छोटा वर्ग ही सफल होता है। बाकी सब लोग चूहे की मानसिकता वाले बन जाते हैं। जो अपने से दुर्बल और निश्चेष्ट किसी को भी खाते जाते हैं   
 
## पूरे समाज के लिये मैं अकेला ही उत्पादन करूँगा, उस से मिलनेवाले लाभ का मैं एकमात्र हकदार बनूँं ऐसी राक्षसी महत्वाकांक्षा सारे समाज में व्याप्त हो जाती है। इस वातावरण और उपजी स्पर्धा में समाज का एक बहुत छोटा वर्ग ही सफल होता है। बाकी सब लोग चूहे की मानसिकता वाले बन जाते हैं। जो अपने से दुर्बल और निश्चेष्ट किसी को भी खाते जाते हैं   
 
## व्यवसाय व्यक्तिगत और विशालतम बनते जाते हैं। जैसे मायक्रोसॉफ्ट या फोर्ड आदि। आर्थिक दृष्टि से कुछ लोग बहुत बडे बन जाते हैं । अन्य कुछ लोगोंं की जो बडे बन रहे हैं ऐसे लोगोंं की एक सीढी बनीं दिखाई देती है। किंतु इस सीढी पर बहुत कम लोग होते हैं। बहुजन तो चींटियों की तरह रेंगने लग जाते हैं । समाज में आर्थिक विषमता बढती है।  
 
## व्यवसाय व्यक्तिगत और विशालतम बनते जाते हैं। जैसे मायक्रोसॉफ्ट या फोर्ड आदि। आर्थिक दृष्टि से कुछ लोग बहुत बडे बन जाते हैं । अन्य कुछ लोगोंं की जो बडे बन रहे हैं ऐसे लोगोंं की एक सीढी बनीं दिखाई देती है। किंतु इस सीढी पर बहुत कम लोग होते हैं। बहुजन तो चींटियों की तरह रेंगने लग जाते हैं । समाज में आर्थिक विषमता बढती है।  
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अब तक तो विवाह केवल सवर्णों में ही हों यही सभी की मान्यता थी। लेकिन आंतरवर्णीय विवाहों के कारण वृत्तियों के संस्कारों के स्तर में कमी आयी । काम और मोह का प्रभाव बढा। आगे पुरूष के वर्ण से कम स्तर के वर्ण की स्त्री से विवाह को भी मान्यता दी गयी। जैसे ब्राह्मण पुरूष का क्षत्रिय या वैश्य स्त्री से विवाह। क्षत्रिय पुरूष का वैश्य स्त्री से विवाह। इसे अनुलोम विवाह कहते है । ऐसे विवाह से पैदा हुई संतति को पिता के वर्ण का ही माना जाता था। किन्तु इससे उलट विवाह को मान्यता नहीं थी। इसे प्रतिलोम विवाह कहतेहै । ऐसे अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों से प्राप्त संतति को संकरित माना जाता था। ऐसे संकरों की संख्या बढने पर नयी जाति का निर्माण होता था। ऐसे विवाहों को हेय माना जाता था। लेकिन मनुष्य के स्वभाव में जो काम और मोह है, उन के कारण विवाह के समय एक वर्ण का पुरूष दूसरे वर्ण की स्त्री से विवाह के लिये उद्यत हो जाता था। ऐसा विवाह वह बडी संख्या में करने लगा। तब वर्णों में बडी संख्या में संकर होने लगा। इस लिये वर्णों में से जातियाँ निर्माण होने लगीं।  
 
अब तक तो विवाह केवल सवर्णों में ही हों यही सभी की मान्यता थी। लेकिन आंतरवर्णीय विवाहों के कारण वृत्तियों के संस्कारों के स्तर में कमी आयी । काम और मोह का प्रभाव बढा। आगे पुरूष के वर्ण से कम स्तर के वर्ण की स्त्री से विवाह को भी मान्यता दी गयी। जैसे ब्राह्मण पुरूष का क्षत्रिय या वैश्य स्त्री से विवाह। क्षत्रिय पुरूष का वैश्य स्त्री से विवाह। इसे अनुलोम विवाह कहते है । ऐसे विवाह से पैदा हुई संतति को पिता के वर्ण का ही माना जाता था। किन्तु इससे उलट विवाह को मान्यता नहीं थी। इसे प्रतिलोम विवाह कहतेहै । ऐसे अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों से प्राप्त संतति को संकरित माना जाता था। ऐसे संकरों की संख्या बढने पर नयी जाति का निर्माण होता था। ऐसे विवाहों को हेय माना जाता था। लेकिन मनुष्य के स्वभाव में जो काम और मोह है, उन के कारण विवाह के समय एक वर्ण का पुरूष दूसरे वर्ण की स्त्री से विवाह के लिये उद्यत हो जाता था। ऐसा विवाह वह बडी संख्या में करने लगा। तब वर्णों में बडी संख्या में संकर होने लगा। इस लिये वर्णों में से जातियाँ निर्माण होने लगीं।  
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यह ध्यान में रखकर और वृत्तियों और व्यावसायिक कुशलताओं में वृद्धि हो या विरलीकरण या मिलावट न हो इस लिये वर्ण के बाहर विवाह वर्जित माने जाते थे। ब्राह्मण वर्ण के युवक के साथ अन्य वर्ण की कन्या के विवाह (अनुलोम विवाह) से पैदा होनेवाली संतति में अपने पिता से कम ब्राह्मणत्व रहता है। कितु ब्राह्मण वर्ण की कन्या जब उससे कनिष्ठ वर्ण के युवक से विवाह करती है (प्रतिलोम विवाह) तब उन से पैदा होनेवाली संतति में ब्राह्मणत्व के गुण कम और अन्य वर्ण के गुण अधिक पाए जाते है। इसलिये अनुलोम विवाह और प्रतिलोम विवाह की संकल्पनाएं आगे आयी। अनुलोम विवाह और प्रतिलोम विवाह दोनों ही शास्त्र विरूध्द ही है। आग्रह तो सवर्ण वर या वधू के साथ विवाह का ही रहा किंतु मजबूरी में अनुलोम विवाह को स्वीकृति दी गई। फिर भी शास्त्र विरूध्द व्यवहार करने वाले लोगोंं के कारण प्रतिलोम विवाह भी होते ही रहे। ऐसे अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों से निर्माण हुई संतति को विशिष्ट जाति का नाम दिया गया। उस जाति का जातिधर्म भी तय किया गया। वर्ण तो युवक के जन्मगत स्वभाव के अनुसार ही होता है लेकिन जाति उस के माता पिता की कुशलताओं के योग से मिलती है। इस लिये विवाह अपनी जाति में होने से व्यावसायिक कुशलताओं में वृद्धि होती है । और सवर्ण विवाह होने से वर्णगत आचार और संस्कारों की शुध्दि तथा वृद्धि होती है । इस लिये अपनी जाति में किया सवर्ण विवाह सर्वश्रेष्ठ होता है। कहा है<ref>मनुस्मृति 10-8 </ref>:  <blockquote>ब्राह्मणाद्वैश्यकन्यायामम्बष्टो नाम उच्यते ।</blockquote><blockquote>निषाद: शूद्रकन्यायां य: पारशव उच्यते ॥ 10-8 ॥</blockquote><blockquote>अर्थ: ब्राह्मण पुरूष से वैश्य कन्या के संकर से जो जन्म लेता है उसे अंबष्ट जाति का और शूद्र कन्या को होने वाली संतति को निषाद जाति का माना गया।</blockquote>इसी प्रकार मनुस्मृति में (अध्याय १० - ८ से १४) मनुस्मृति में लगभग १६-१७ जातियों के नाम दिये है। १५ से आगे ४१ तक के श्लोकों में संकरित जातियों में अनुलोम और प्रतिलोम विवाह के कारण पैदा हुई दर्जनों नयी जातियों के नाम दिये है। किंतु हर पीढी में बढते संकर और प्रतिसंकरों के कारण जातियों की संख्या बढ गई और नाम, कर्म और जातिधर्म का निर्धारण करनेवाली व्यवस्था प्रभावहीन हो गयी होगी।  
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यह ध्यान में रखकर और वृत्तियों और व्यावसायिक कुशलताओं में वृद्धि हो या विरलीकरण या मिलावट न हो इस लिये वर्ण के बाहर विवाह वर्जित माने जाते थे। ब्राह्मण वर्ण के युवक के साथ अन्य वर्ण की कन्या के विवाह (अनुलोम विवाह) से पैदा होनेवाली संतति में अपने पिता से कम ब्राह्मणत्व रहता है। कितु ब्राह्मण वर्ण की कन्या जब उससे कनिष्ठ वर्ण के युवक से विवाह करती है (प्रतिलोम विवाह) तब उन से पैदा होनेवाली संतति में ब्राह्मणत्व के गुण कम और अन्य वर्ण के गुण अधिक पाए जाते है। इसलिये अनुलोम विवाह और प्रतिलोम विवाह की संकल्पनाएं आगे आयी। अनुलोम विवाह और प्रतिलोम विवाह दोनों ही शास्त्र विरूध्द ही है। आग्रह तो सवर्ण वर या वधू के साथ विवाह का ही रहा किंतु मजबूरी में अनुलोम विवाह को स्वीकृति दी गई। तथापि शास्त्र विरूध्द व्यवहार करने वाले लोगोंं के कारण प्रतिलोम विवाह भी होते ही रहे। ऐसे अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों से निर्माण हुई संतति को विशिष्ट जाति का नाम दिया गया। उस जाति का जातिधर्म भी तय किया गया। वर्ण तो युवक के जन्मगत स्वभाव के अनुसार ही होता है लेकिन जाति उस के माता पिता की कुशलताओं के योग से मिलती है। इस लिये विवाह अपनी जाति में होने से व्यावसायिक कुशलताओं में वृद्धि होती है । और सवर्ण विवाह होने से वर्णगत आचार और संस्कारों की शुध्दि तथा वृद्धि होती है । इस लिये अपनी जाति में किया सवर्ण विवाह सर्वश्रेष्ठ होता है। कहा है<ref>मनुस्मृति 10-8 </ref>:  <blockquote>ब्राह्मणाद्वैश्यकन्यायामम्बष्टो नाम उच्यते ।</blockquote><blockquote>निषाद: शूद्रकन्यायां य: पारशव उच्यते ॥ 10-8 ॥</blockquote><blockquote>अर्थ: ब्राह्मण पुरूष से वैश्य कन्या के संकर से जो जन्म लेता है उसे अंबष्ट जाति का और शूद्र कन्या को होने वाली संतति को निषाद जाति का माना गया।</blockquote>इसी प्रकार मनुस्मृति में (अध्याय १० - ८ से १४) मनुस्मृति में लगभग १६-१७ जातियों के नाम दिये है। १५ से आगे ४१ तक के श्लोकों में संकरित जातियों में अनुलोम और प्रतिलोम विवाह के कारण पैदा हुई दर्जनों नयी जातियों के नाम दिये है। किंतु हर पीढी में बढते संकर और प्रतिसंकरों के कारण जातियों की संख्या बढ गई और नाम, कर्म और जातिधर्म का निर्धारण करनेवाली व्यवस्था प्रभावहीन हो गयी होगी।  
    
== जाति परिवर्तन ==
 
== जाति परिवर्तन ==
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समाज की व्यावसायिक कुशलताओं की आवश्यकताओं की भिन्नता कम होने के कारण किसी समय केवल चार वर्णों में ही उन की पूर्ति के लिये सभी व्यवसायों को बाँटना सरल था। कालांतर से समाज की आवश्यकताओं की भिन्नता में वृद्धि हुई। जातियों की संख्या बहुत बढ गई। बाँटने के लिये व्यवसाय के क्षेत्र कम पडने लगे। जब किसी संकर से निर्मित गुट के लिये कोई व्यवसाय निश्चित किया जाता होगा तब पहले से ही वह व्यवसाय करनेवालों पर अन्याय होता होगा । वह लोग इस को स्वीकार नही करते होंगे । दूसरी ओर उस व्यवसाय में स्पर्धा बढ जाती होगी । समाज के एक हिस्से में व्याप्त अव्यवस्था का परिणाम पुरे समाजपर होता होगा । इन समस्याओं के कारण धीरे धीरे जाति निर्धारण करने वाली व्यवस्था कुछ काल तक प्रभावहीन और बाद में नष्ट हो गई होगी।  ऐसा कोई वर्णन हमारे प्राचीन साहित्य में नही मिलता। लेकिन के वल इसलिये ऐसी व्यवस्था के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। दूसरी बात यानी आये दिन बडे पैमानेपर होनेवाले ऐसे वर्णसंकरों के लिये समाज की व्यवस्था में बारबार परिवर्तन करते रहना व्यावहारिक दृष्टि से भी असंभव हो गया होगा ।   
 
समाज की व्यावसायिक कुशलताओं की आवश्यकताओं की भिन्नता कम होने के कारण किसी समय केवल चार वर्णों में ही उन की पूर्ति के लिये सभी व्यवसायों को बाँटना सरल था। कालांतर से समाज की आवश्यकताओं की भिन्नता में वृद्धि हुई। जातियों की संख्या बहुत बढ गई। बाँटने के लिये व्यवसाय के क्षेत्र कम पडने लगे। जब किसी संकर से निर्मित गुट के लिये कोई व्यवसाय निश्चित किया जाता होगा तब पहले से ही वह व्यवसाय करनेवालों पर अन्याय होता होगा । वह लोग इस को स्वीकार नही करते होंगे । दूसरी ओर उस व्यवसाय में स्पर्धा बढ जाती होगी । समाज के एक हिस्से में व्याप्त अव्यवस्था का परिणाम पुरे समाजपर होता होगा । इन समस्याओं के कारण धीरे धीरे जाति निर्धारण करने वाली व्यवस्था कुछ काल तक प्रभावहीन और बाद में नष्ट हो गई होगी।  ऐसा कोई वर्णन हमारे प्राचीन साहित्य में नही मिलता। लेकिन के वल इसलिये ऐसी व्यवस्था के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। दूसरी बात यानी आये दिन बडे पैमानेपर होनेवाले ऐसे वर्णसंकरों के लिये समाज की व्यवस्था में बारबार परिवर्तन करते रहना व्यावहारिक दृष्टि से भी असंभव हो गया होगा ।   
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हिन्दू समाज में [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम व्यवस्था]] भी प्रस्थापित थी । इस में केवल गृहस्थाश्रमी ( गृहिणियाँ नहीं ) अर्थार्जन का काम करते थे। खेती जैसे व्यवसायों में घर की महिलायें भी व्यवसाय में हाथ बंटाती थी । किंतु अर्थार्जन गृहस्थ करे और गृहिणि अर्थ का विनियोग करे, यही घरों की व्यवस्था थी। समाज में गृहस्थ पुरूषों की संख्या १२.५ प्रतिशत ही होती है। अर्थात् केवल १२.५ प्रतिशत लोग ही अर्थार्जन करते थे। प्रत्यक्ष व्यवसाय करते थे। और फिर भी हम अत्यंत समृध्द देश  थे। केवल १२.५ प्रतिशत लोग ही अर्थार्जन करते थे तो अन्य लोग क्या करते थे ? काम तो प्रत्येक व्यक्ति करता था। किंतु अर्थार्जन के लिये नहीं। हर जाति का ब्रह्मचारी वर्ग, जिसने अभी गृहस्थाश्रम में प्रवेश नहीं किया है, अपने व्यक्तिगत उन्नयन के साथ ही समाज के हित में सार्थक योगदान देने की दृष्टि से ज्ञानार्जन, विद्यार्जन और काप्रशलार्जन में लगा रहता था। सभी वर्णों के लोग, और सभी ब्राह्मण भी संन्यासी नहीं बनते थे। किंतु अब मैंने अपने लिये नहीं समाज के लिये जीना है ऐसा मानने वाले वानप्रस्थी तो सभी वर्णों के और जातियों के लोग हुआ करते थे। ऐसे वानप्रस्थी और संन्यासी सभी अर्थार्जन की अपेक्षा के बगैर समाज के लिये काम करते थे। ब्राह्मण छोडकर अन्य वर्णों के वानप्रस्थी लोग क्या करते होंगे? सदाचार की शिक्षा देना, सामाजिक दृष्टि से जिन वर्णों के लोगोंं का अनुकरण करना चाहिये ऐसे लोगों का स्वत: अनुकरण करना और अन्यों को अनुकरण करने की प्रेरणा देना, ब्रह्मचर्य काल में हस्तगत किये और गृहस्थ जीवन में विकसित किये गये ज्ञान, विद्या और काप्रशलों को नयी पीढी को हस्तांतरित करना, भगवद्भक्ति में समय बिताना आदि काम ही तो करते होंगे। यह था वर्ण और [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम व्यवस्था]] का स्वरूप।   
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हिन्दू समाज में [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम व्यवस्था]] भी प्रस्थापित थी । इस में केवल गृहस्थाश्रमी ( गृहिणियाँ नहीं ) अर्थार्जन का काम करते थे। खेती जैसे व्यवसायों में घर की महिलायें भी व्यवसाय में हाथ बंटाती थी । किंतु अर्थार्जन गृहस्थ करे और गृहिणि अर्थ का विनियोग करे, यही घरों की व्यवस्था थी। समाज में गृहस्थ पुरूषों की संख्या १२.५ प्रतिशत ही होती है। अर्थात् केवल १२.५ प्रतिशत लोग ही अर्थार्जन करते थे। प्रत्यक्ष व्यवसाय करते थे। और तथापि हम अत्यंत समृध्द देश  थे। केवल १२.५ प्रतिशत लोग ही अर्थार्जन करते थे तो अन्य लोग क्या करते थे ? काम तो प्रत्येक व्यक्ति करता था। किंतु अर्थार्जन के लिये नहीं। हर जाति का ब्रह्मचारी वर्ग, जिसने अभी गृहस्थाश्रम में प्रवेश नहीं किया है, अपने व्यक्तिगत उन्नयन के साथ ही समाज के हित में सार्थक योगदान देने की दृष्टि से ज्ञानार्जन, विद्यार्जन और काप्रशलार्जन में लगा रहता था। सभी वर्णों के लोग, और सभी ब्राह्मण भी संन्यासी नहीं बनते थे। किंतु अब मैंने अपने लिये नहीं समाज के लिये जीना है ऐसा मानने वाले वानप्रस्थी तो सभी वर्णों के और जातियों के लोग हुआ करते थे। ऐसे वानप्रस्थी और संन्यासी सभी अर्थार्जन की अपेक्षा के बगैर समाज के लिये काम करते थे। ब्राह्मण छोडकर अन्य वर्णों के वानप्रस्थी लोग क्या करते होंगे? सदाचार की शिक्षा देना, सामाजिक दृष्टि से जिन वर्णों के लोगोंं का अनुकरण करना चाहिये ऐसे लोगों का स्वत: अनुकरण करना और अन्यों को अनुकरण करने की प्रेरणा देना, ब्रह्मचर्य काल में हस्तगत किये और गृहस्थ जीवन में विकसित किये गये ज्ञान, विद्या और काप्रशलों को नयी पीढी को हस्तांतरित करना, भगवद्भक्ति में समय बिताना आदि काम ही तो करते होंगे। यह था वर्ण और [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम व्यवस्था]] का स्वरूप।   
    
== हर जाति में चार वर्ण ==
 
== हर जाति में चार वर्ण ==
महाराष्ट्र में संतों की एक दीर्घ परंपरा है। हर जाति में बडे संत हुए है। जेसे गोरोबा कुम्हार थे। चोखोबा महार थे। नामदेव दर्जी थे। नरहरी सुनार थे। कान्होपात्रा वेश्या थीं। ज्ञानेश्वर, रामदास, एकनाथ ब्राह्मण थे । किन्तु इन संतों की एक विशेषता यह रही है कि इन सभी ने एक ही वेदांत के तत्वज्ञान की प्रस्तुति की है। यह कैसे हुआ? ये तो किसी गुरूकुल में नही जाते थे । फिर इन तक वेदांत की ज्ञानधारा कैसे पहुंची ? थोडा जातियों का अध्ययन करने से हमें ध्यान में आता है की हर जाति में जाति पुराण कहनेवाला एक वर्ग होता है । यह वर्ग उस जाति में सब से अधिक सम्मानित माना जाता है । यह वर्ग अर्थार्जन नही करता । यह उस जाति में नि:स्वार्थ भाव से ज्ञानार्जन और ज्ञानदान का ( ब्राह्मण का ) काम ही करता है। यह उस जाति के ब्राह्मण वर्ण के लोग ही होते है। ब्राह्मणजाति में भी जिनका ज्ञानार्जन और ज्ञानदान से दूर दूर तक कोई संबंध नही है ऐसे भोजन पकानेवाले महाराज होते है। यह ब्राह्मण जाति के शूद्र वर्ण के लोग होते है।   
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महाराष्ट्र में संतों की एक दीर्घ परंपरा है। हर जाति में बडे संत हुए है। जेसे गोरोबा कुम्हार थे। चोखोबा महार थे। नामदेव दर्जी थे। नरहरी सुनार थे। कान्होपात्रा वेश्या थीं। ज्ञानेश्वर, रामदास, एकनाथ ब्राह्मण थे । किन्तु इन संतों की एक विशेषता यह रही है कि इन सभी ने एक ही [[Vedanta_(वेदान्तः)|वेदांत]] के तत्वज्ञान की प्रस्तुति की है। यह कैसे हुआ? ये तो किसी गुरूकुल में नही जाते थे । फिर इन तक [[Vedanta_(वेदान्तः)|वेदांत]] की ज्ञानधारा कैसे पहुंची ? थोडा जातियों का अध्ययन करने से हमें ध्यान में आता है की हर जाति में जाति पुराण कहनेवाला एक वर्ग होता है । यह वर्ग उस जाति में सब से अधिक सम्मानित माना जाता है । यह वर्ग अर्थार्जन नही करता । यह उस जाति में नि:स्वार्थ भाव से ज्ञानार्जन और ज्ञानदान का ( ब्राह्मण का ) काम ही करता है। यह उस जाति के ब्राह्मण वर्ण के लोग ही होते है। ब्राह्मणजाति में भी जिनका ज्ञानार्जन और ज्ञानदान से दूर दूर तक कोई संबंध नही है ऐसे भोजन पकानेवाले महाराज होते है। यह ब्राह्मण जाति के शूद्र वर्ण के लोग होते है।   
    
महाभारत के युध्द के बाद निर्माण हुई सामाजिक अव्यवस्था को दूर करने के लिये जो विद्वत परिषद नैमिषारण्य में हुयी थी उस का नेतृत्व सूत मुनि ने किया था। वे सूत जाति के ज्ञानवान ( ब्राह्मणों के गुण और लक्षणों वाले ) मनुष्य थे । इस से भी यह अनुमान लगाया जा सकता है की हर जाति में चार वर्ण होते है।   
 
महाभारत के युध्द के बाद निर्माण हुई सामाजिक अव्यवस्था को दूर करने के लिये जो विद्वत परिषद नैमिषारण्य में हुयी थी उस का नेतृत्व सूत मुनि ने किया था। वे सूत जाति के ज्ञानवान ( ब्राह्मणों के गुण और लक्षणों वाले ) मनुष्य थे । इस से भी यह अनुमान लगाया जा सकता है की हर जाति में चार वर्ण होते है।   
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डॉ श्रीधर व्यंकटेश केतकर लिखते हैं<ref>धार्मिक समाजशास्त्र (वरदा प्रकाशन, सेनापति बापट मार्ग, पुणे 16) पृष्ठ 142</ref> - ब्राह्मणांचा सर्वत्र प्रचार होण्यापूर्वी समाजाला असे स्वरूप होते कि प्रत्येक जातीत चातुरर््वण्य होते म्हणजे शेतकरी, पुजारी, व्यापारी, आणि सेवक वर्ग होते'। अर्थात् ब्राह्मणों का सर्वत्र प्रचार होने से पूर्व प्रत्येक जाति में किसान, पुजारी, व्यापारी और सेवक ऐसे चार वर्ण थे।   
 
डॉ श्रीधर व्यंकटेश केतकर लिखते हैं<ref>धार्मिक समाजशास्त्र (वरदा प्रकाशन, सेनापति बापट मार्ग, पुणे 16) पृष्ठ 142</ref> - ब्राह्मणांचा सर्वत्र प्रचार होण्यापूर्वी समाजाला असे स्वरूप होते कि प्रत्येक जातीत चातुरर््वण्य होते म्हणजे शेतकरी, पुजारी, व्यापारी, आणि सेवक वर्ग होते'। अर्थात् ब्राह्मणों का सर्वत्र प्रचार होने से पूर्व प्रत्येक जाति में किसान, पुजारी, व्यापारी और सेवक ऐसे चार वर्ण थे।   
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ऐसा कहते हैं कि १९११ की जन-गणना तक भारत में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह जातियाँ ही नहीं थीं। जातियाँ तो थीं। लेकिन उन्हे वर्ण से जोड़ा हुआ नहीं था। हर जाति में चारों वर्णों के बच्चे पैदा होते थे और अपने जन्मगत स्वभाव (वर्ण) के अनुसार अपने परिवार के काम में सहायक बनते थे। इस जन-गणना में अंग्रेजों ने जतियों को वर्णों में बाँटा। कई जातियों ने उन का वर्गीकरण किस वर्ण में करना चाहिये इस के लिये जन-गणना अधिकारियों और अंग्रेज सरकार के साथ चर्चाएँ कीं तथा छुटपुट आंदोलन भी चलाये थे। तब से पूरी जाति ही किसी वर्ण की कहलाई जाने लग गयी थी। यह तो धार्मिक  वर्ण की मान्यता से पूर्णत: भिन्न व्यवस्था थी। अप्राकृतिक थी। अस्वीकार्य थी। किंतु इस विषय को संवेदनशील बना देने के कारण इस विषय पर कोई बहस होती है तो जाति व्यवस्था को गालियाँ देने के लिये ही होती है। जाति व्यवस्था के तत्व को या मर्म को समझने के लिये नहीं होती। इस कारण से जातियों का चार वर्णों में बँट जाना यह बात पिछली ५ पीढियों में सर्वमान्य बन गयी है। वास्तव में तो वर्ण की वास्तविक कल्पना के अनुसार शूद्र जाति होती ही नहीं है। पशू हत्या से जुडे कर्मों के कारण या अन्य कुछ कारणों से हो, कुछ जातियाँ अछूत कहलाईं। कितु वे शूद्र जातियाँ नहीं थीं। हर जाति में सेवक का काम करने वाले लोग शूद्र वर्ण के ही माने जाते थे। इन शूद्रों में कुछ तो जन्म से ही शूद्र के गुण-कर्म लेकर आते हैं इस लिये शूद्र होते हैं तो दूसरे मनुस्मृति में कहे अनुसार अपने कर्मों से शूद्र बन जाते हैं तो तीसरे कुछ लोग परिस्थिति के कारण शूद्र (सेवक कर्म) करने के लिये बाध्य हो जाते हैं। हालाँकि समाज के त्रिवर्ण का कोई शूद्र (सेवक) कर्म करने को बाध्य हो जाये, यह नहीं तो उस व्यक्ति के और ना ही समाज के हित में होता है।   
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ऐसा कहते हैं कि १९११ की जन-गणना तक भारत में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह जातियाँ ही नहीं थीं। जातियाँ तो थीं। लेकिन उन्हे वर्ण से जोड़ा हुआ नहीं था। हर जाति में चारों वर्णों के बच्चे पैदा होते थे और अपने जन्मगत स्वभाव (वर्ण) के अनुसार अपने परिवार के काम में सहायक बनते थे। इस जन-गणना में अंग्रेजों ने जतियों को वर्णों में बाँटा। कई जातियों ने उन का वर्गीकरण किस वर्ण में करना चाहिये इस के लिये जन-गणना अधिकारियों और अंग्रेज सरकार के साथ चर्चाएँ कीं तथा छुटपुट आंदोलन भी चलाये थे। तब से पूरी जाति ही किसी वर्ण की कहलाई जाने लग गयी थी। यह तो धार्मिक  वर्ण की मान्यता से पूर्णत: भिन्न व्यवस्था थी। अप्राकृतिक थी। अस्वीकार्य थी। किंतु इस विषय को संवेदनशील बना देने के कारण इस विषय पर कोई बहस होती है तो जाति व्यवस्था को गालियाँ देने के लिये ही होती है। जाति व्यवस्था के तत्व को या मर्म को समझने के लिये नहीं होती। इस कारण से जातियों का चार वर्णों में बँट जाना यह बात पिछली ५ पीढियों में सर्वमान्य बन गयी है। वास्तव में तो वर्ण की वास्तविक कल्पना के अनुसार शूद्र जाति होती ही नहीं है। पशू हत्या से जुड़े कर्मों के कारण या अन्य कुछ कारणों से हो, कुछ जातियाँ अछूत कहलाईं। कितु वे शूद्र जातियाँ नहीं थीं। हर जाति में सेवक का काम करने वाले लोग शूद्र वर्ण के ही माने जाते थे। इन शूद्रों में कुछ तो जन्म से ही शूद्र के गुण-कर्म लेकर आते हैं इस लिये शूद्र होते हैं तो दूसरे मनुस्मृति में कहे अनुसार अपने कर्मों से शूद्र बन जाते हैं तो तीसरे कुछ लोग परिस्थिति के कारण शूद्र (सेवक कर्म) करने के लिये बाध्य हो जाते हैं। हालाँकि समाज के त्रिवर्ण का कोई शूद्र (सेवक) कर्म करने को बाध्य हो जाये, यह नहीं तो उस व्यक्ति के और ना ही समाज के हित में होता है।   
    
भारत के इतिहास में कई बार ब्राह्मण जाति का मनुष्य राजा बना। सम्राट यशोधर्मा, पुष्यमित्र आदि ब्राह्मण जाति के ही तो थे। शूद्र राजा भी कई हुए है। ये सब उन जातियों के क्षत्रिय वर्ण के लोग ही थे। क्षत्रिय राजा मनु द्वारा प्रस्तुत की गई 'मनुस्मृति’ हजारों वर्षों तक भारत में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त स्मृति रही है। क्या मनु का ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है? इसी तरह क्या बाबासाहब अंबेडकर को ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है?   
 
भारत के इतिहास में कई बार ब्राह्मण जाति का मनुष्य राजा बना। सम्राट यशोधर्मा, पुष्यमित्र आदि ब्राह्मण जाति के ही तो थे। शूद्र राजा भी कई हुए है। ये सब उन जातियों के क्षत्रिय वर्ण के लोग ही थे। क्षत्रिय राजा मनु द्वारा प्रस्तुत की गई 'मनुस्मृति’ हजारों वर्षों तक भारत में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त स्मृति रही है। क्या मनु का ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है? इसी तरह क्या बाबासाहब अंबेडकर को ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है?   
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इन सब से यह निष्कर्ष निकाले जा सकते है कि:   
 
इन सब से यह निष्कर्ष निकाले जा सकते है कि:   
 
# मनुष्य समाज ठीक से जी सके, समाज में संतुलन बना रहे इसलिये चार प्रकार की प्रवृत्तियों के लोगोंं को आवश्यक अनुपात में परमात्मा पैदा करता ही रहता है   
 
# मनुष्य समाज ठीक से जी सके, समाज में संतुलन बना रहे इसलिये चार प्रकार की प्रवृत्तियों के लोगोंं को आवश्यक अनुपात में परमात्मा पैदा करता ही रहता है   
# जनसंख्या के प्रमाण में पैदा होने वाले जन्मजात वर्णों की या प्रवृत्तियों ( गुण और लक्षणों ) की शुद्धता बनाए रखने के लिये और समाज में संतुलन बनाए रखने के लिये [[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|[[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]]]] की रचना की गई थी। यह आनुवांशिकता से नहीं थी।   
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# जनसंख्या के प्रमाण में पैदा होने वाले जन्मजात वर्णों की या प्रवृत्तियों ( गुण और लक्षणों ) की शुद्धता बनाए रखने के लिये और समाज में संतुलन बनाए रखने के लिये [[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]] की रचना की गई थी। यह आनुवांशिकता से नहीं थी।   
 
# जन्मजात व्यावसायिक कुशलता ( जाति ) का सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये संतुलन बनाये रखने के लिये हमारे पूर्वजों ने आनुवांशिकता से जाति व्यवस्था का निर्माण किया था ।   
 
# जन्मजात व्यावसायिक कुशलता ( जाति ) का सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये संतुलन बनाये रखने के लिये हमारे पूर्वजों ने आनुवांशिकता से जाति व्यवस्था का निर्माण किया था ।   
 
# जातियों में भी चारों वर्णों के लोगोंं के ‘ स्व ‘भाव के अनुसार और व्यावसायिक आवश्यकताओं के अनुसार काम का स्वरूप होता था। जैसे अपनी व्यावसायिक कुशलता (जाति) के जातिपुराण की कालानुरूप रचना और प्रस्तुति करना। इस के माध्यम से जातिधर्म को प्रतिष्ठापित करना। व्यावसायिक ज्ञान का अर्जन और ज्ञानदान करना। दान लेना और दान देना या ज्ञान या व्यवसाय के उत्पादनों की सुरक्षा, आवास, उद्योगालय, खेती, भूमि, तालाब आदि संसाधनों की सुरक्षा और रखरखाव करना। आवश्यकता और प्रसंगोपात्त सैनिक कर्म करना। या ज्ञान का प्रसार या प्रत्त्यक्ष वस्तूओं का उत्पादन करना या लोगोंं की सेवा आदि करना।   
 
# जातियों में भी चारों वर्णों के लोगोंं के ‘ स्व ‘भाव के अनुसार और व्यावसायिक आवश्यकताओं के अनुसार काम का स्वरूप होता था। जैसे अपनी व्यावसायिक कुशलता (जाति) के जातिपुराण की कालानुरूप रचना और प्रस्तुति करना। इस के माध्यम से जातिधर्म को प्रतिष्ठापित करना। व्यावसायिक ज्ञान का अर्जन और ज्ञानदान करना। दान लेना और दान देना या ज्ञान या व्यवसाय के उत्पादनों की सुरक्षा, आवास, उद्योगालय, खेती, भूमि, तालाब आदि संसाधनों की सुरक्षा और रखरखाव करना। आवश्यकता और प्रसंगोपात्त सैनिक कर्म करना। या ज्ञान का प्रसार या प्रत्त्यक्ष वस्तूओं का उत्पादन करना या लोगोंं की सेवा आदि करना।   
 
# प्रत्येक जाति में चारों वर्णों के लोग होते है । जातियों में भी प्रवृत्तियों का संतुलन बनाए रखने का प्रयास वर्ण को भी आनुवांशिक बनाकर किया गया। यह प्रयास गुरूकुल या गुरूकुल जैसी अन्य वर्ण निर्धारण की व्यवस्था के अभाव में अधिक काल टिक नहीं पाया। यह प्रयास मूलत: दोषपूर्ण होने से इस में दोष निर्माण होने लगे।   
 
# प्रत्येक जाति में चारों वर्णों के लोग होते है । जातियों में भी प्रवृत्तियों का संतुलन बनाए रखने का प्रयास वर्ण को भी आनुवांशिक बनाकर किया गया। यह प्रयास गुरूकुल या गुरूकुल जैसी अन्य वर्ण निर्धारण की व्यवस्था के अभाव में अधिक काल टिक नहीं पाया। यह प्रयास मूलत: दोषपूर्ण होने से इस में दोष निर्माण होने लगे।   
 
# इस सब के उपरांत भी कोई यदि अपना वर्ण बदलना चाहता था या जाति बदलना चाहता था तो इस की भी व्यवस्था की गई थी । इस बात में लचीलापन था । लेकिन इस वर्ण या जाति के परिवर्तन को कठिन बनाने के लिये कठोर तप के प्रावधान रखे गये थे। जिस से यह जन्मगत व्यवस्थाएं व्यक्ति के लिये ' मन:पूतं ' न बन सकें।   
 
# इस सब के उपरांत भी कोई यदि अपना वर्ण बदलना चाहता था या जाति बदलना चाहता था तो इस की भी व्यवस्था की गई थी । इस बात में लचीलापन था । लेकिन इस वर्ण या जाति के परिवर्तन को कठिन बनाने के लिये कठोर तप के प्रावधान रखे गये थे। जिस से यह जन्मगत व्यवस्थाएं व्यक्ति के लिये ' मन:पूतं ' न बन सकें।   
# वर्तमान में [[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|[[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]]]] नाम की, वास्तव में जातियों संबंधी सरकारी कानून के अलावा और कोई भी व्यवस्था समाज में नहीं है। समाज में भी बिगडी हुई जाति व्यवस्था ही अब शेष है। यह वर्तमान जाति व्यवस्था पुरानी [[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|[[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]]]] और बाद में उसी से उभरी जाति व्यवस्था का एकीकृत विकृत रूप ही है।   
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# वर्तमान में [[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]] नाम की, वास्तव में जातियों संबंधी सरकारी कानून के अलावा और कोई भी व्यवस्था समाज में नहीं है। समाज में भी बिगडी हुई जाति व्यवस्था ही अब शेष है। यह वर्तमान जाति व्यवस्था पुरानी [[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]] और बाद में उसी से उभरी जाति व्यवस्था का एकीकृत विकृत रूप ही है।   
 
# शूद्र नाम की कोई जाति नहीं होती।   
 
# शूद्र नाम की कोई जाति नहीं होती।   
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== जन्मना जाति और [[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|[[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]]]] ==
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== जन्मना जाति और [[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]] ==
यह दोनों व्यवस्थाएं जन्मना हैं। लेकिन फिर भी दोनों की आनुवंशिकता में भिन्नता है। जन्मना वर्ण कर्म सिद्धांत से याने पूर्व कर्मों के फलों से संबंधित है, आनुवांशिकता से नहीं है। लेकिन इसे कठोर प्रयासों से आनुवंशिक बनाया जा सकता है। पूर्व जन्म के अंतिम क्षण को जीव के संचित कर्म और प्रारब्ध कर्म उस के नये जन्म का वर्ण तय करते है। जीवात्मा जब एक शरीर त्याग कर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है तब साथ में प्राण, मन, बुद्धि, चित्त आदि लेकर जाता है। ये सब बातें ही तो बच्चे का 'स्व' भाव याने वर्ण तय करतीं है। साथ ही में यही बातें बच्चे के पिता-माता भी तय करती है। पूर्व कर्मों के फलों के कारण ही बच्चा प्रारब्ध कर्म के भोग के लिये अनुकूल पिता-माता को खोजता है। जन्मना जाति पूर्व कर्मों के फलों के साथ ही आनुवांशिकता के सिद्धांत से याने पिता से मिलनेवाली विरासत से याने कौटुंबिक व्यावसायिक कुशलताओं से ऐसी दोनों से भी संबंधित है।  
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यह दोनों व्यवस्थाएं जन्मना हैं। लेकिन तथापि दोनों की आनुवंशिकता में भिन्नता है। जन्मना वर्ण कर्म सिद्धांत से याने पूर्व कर्मों के फलों से संबंधित है, आनुवांशिकता से नहीं है। लेकिन इसे कठोर प्रयासों से आनुवंशिक बनाया जा सकता है। पूर्व जन्म के अंतिम क्षण को जीव के संचित कर्म और प्रारब्ध कर्म उस के नये जन्म का वर्ण तय करते है। जीवात्मा जब एक शरीर त्याग कर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है तब साथ में प्राण, मन, बुद्धि, चित्त आदि लेकर जाता है। ये सब बातें ही तो बच्चे का 'स्व' भाव याने वर्ण तय करतीं है। साथ ही में यही बातें बच्चे के पिता-माता भी तय करती है। पूर्व कर्मों के फलों के कारण ही बच्चा प्रारब्ध कर्म के भोग के लिये अनुकूल पिता-माता को खोजता है। जन्मना जाति पूर्व कर्मों के फलों के साथ ही आनुवांशिकता के सिद्धांत से याने पिता से मिलनेवाली विरासत से याने कौटुंबिक व्यावसायिक कुशलताओं से ऐसी दोनों से भी संबंधित है।  
    
दोनों व्यवस्थाओं की निर्दोष प्रस्तुति करना और उन्हे समाज के व्यवहार में स्थापित कैसे करना यह चुनौती है।  
 
दोनों व्यवस्थाओं की निर्दोष प्रस्तुति करना और उन्हे समाज के व्यवहार में स्थापित कैसे करना यह चुनौती है।  
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]]
 
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]]
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratimaan Paathykram]]

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