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== प्रस्तावना ==
 
== प्रस्तावना ==
साईंस के विभिन्न प्रकारों में मनोविज्ञान तुलना में नया है। अभी भी साईंटिस्ट इसे समझने का प्रयास ही कर रहे हैं। वर्तमान में मन के विषय में जानने के लगभग सभी प्रयास इसे सामान्य पंचमहाभूतात्मक मानकर किये जा रहे हैं। मन की सूक्ष्मता और इसकी प्रवाहिता या तरलता की मात्रा को साईंटिस्ट अभी तक ठीक से जान नहीं पाए हैं। सामान्य पंचमहाभूतों की तुलना में मन अत्यंत सूक्ष्म होता है। फिर भी पंचमहाभूतों से बने उपकरणों से मन के व्यापारों का अध्ययन किया जा रहा है। इस पद्धति की मर्यादाएं अब उन्हें समझ में आ रहीं हैं। इस समस्या के निराकरण के लिए भी काफी शोध कार्य किया जा रहा है। आशा है कि इस शोध कार्य में बहुत अधिक समय नहीं लगेगा।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय ३९, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
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साईंस के विभिन्न प्रकारों में मनोविज्ञान तुलना में नया है। अभी भी साईंटिस्ट इसे समझने का प्रयास ही कर रहे हैं। वर्तमान में मन के विषय में जानने के लगभग सभी प्रयास इसे सामान्य पंचमहाभूतात्मक मानकर किये जा रहे हैं। मन की सूक्ष्मता और इसकी प्रवाहिता या तरलता की मात्रा को साईंटिस्ट अभी तक ठीक से जान नहीं पाए हैं। सामान्य पंचमहाभूतों की तुलना में मन अत्यंत सूक्ष्म होता है। तथापि पंचमहाभूतों से बने उपकरणों से मन के व्यापारों का अध्ययन किया जा रहा है। इस पद्धति की मर्यादाएं अब उन्हें समझ में आ रहीं हैं। इस समस्या के निराकरण के लिए भी काफी शोध कार्य किया जा रहा है। आशा है कि इस शोध कार्य में बहुत अधिक समय नहीं लगेगा।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय ३९, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
    
== प्राणी और मानव में अन्तर ==
 
== प्राणी और मानव में अन्तर ==
 
मनुष्य भी एक प्राणी है। लेकिन अन्य प्राणियों में और मानव में अन्तर होता है। यह अन्तर ही उसे पशु से उन्नत कर मानव बनाता है। प्राणी उन्हें कहते हैं जो प्राणिक आवेगों के स्तर पर जीते हैं। आहार, निद्रा, भय और मैथुन ऐसे चार प्राणिक आवेग हैं। यह आवेग मानव में भी होते ही हैं। जो मानव इन आवेगों के स्तर से ऊपर नहीं उठाता वह मानव शरीर में मात्र प्राणी ही है। उसे मानव नहीं कहा जा सकता। प्राणिक आवेगों के स्तरपर जीने से तात्पर्य यह है कि जब भूख लगे खाना, जब नींद आए तब सोना, जब डर लगे तो भागना और जब वासना जागे तब जैसे भी हो उसकी पूर्ति करना।  
 
मनुष्य भी एक प्राणी है। लेकिन अन्य प्राणियों में और मानव में अन्तर होता है। यह अन्तर ही उसे पशु से उन्नत कर मानव बनाता है। प्राणी उन्हें कहते हैं जो प्राणिक आवेगों के स्तर पर जीते हैं। आहार, निद्रा, भय और मैथुन ऐसे चार प्राणिक आवेग हैं। यह आवेग मानव में भी होते ही हैं। जो मानव इन आवेगों के स्तर से ऊपर नहीं उठाता वह मानव शरीर में मात्र प्राणी ही है। उसे मानव नहीं कहा जा सकता। प्राणिक आवेगों के स्तरपर जीने से तात्पर्य यह है कि जब भूख लगे खाना, जब नींद आए तब सोना, जब डर लगे तो भागना और जब वासना जागे तब जैसे भी हो उसकी पूर्ति करना।  
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मानव व्यक्तित्व के चार पहलू होते हैं। एकात्म मानव दर्शन में पंडित दीनदयाल उपाध्याय बताते हैं कि ये चार पहलू शरीर (इन्द्रियों से युक्त), मन, बुद्धि और आत्मा हैं। शरीर का स्तर प्राणिक स्तर होता है। जब मानव केवल प्राण के स्तर पर जीने से ऊपर उठकर याने मन या बुद्धि या आत्मिक स्तर पर जीता है तब वह मानव कहलाता है। जब वह इन चारों आवेगों के सम्बन्ध में क्या करना क्या नहीं करना, कब करना कब नहीं करना, कैसे करना कैसे नहीं करना आदि के बारे में अपने व्यापक हित के सन्दर्भ में विवेकपूर्ण व्यवहार करता है तब वह मानव कहलाता है। आहार की आवश्यकता तो है। लेकिन फिर भी खाने के समय पर ही खाना, सड़ा-गला नहीं खाना, अन्न में मुँह डालकर पशु की तरह नहीं खाना आदि बातों का जब वह पालन करता है तो वह मानव कहलाता है। इसी तरह अन्य प्राणिक आवेगों के विषय में भी समझा जा सकता है।  
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मानव व्यक्तित्व के चार पहलू होते हैं। एकात्म मानव दर्शन में पंडित दीनदयाल उपाध्याय बताते हैं कि ये चार पहलू शरीर (इन्द्रियों से युक्त), मन, बुद्धि और आत्मा हैं। शरीर का स्तर प्राणिक स्तर होता है। जब मानव केवल प्राण के स्तर पर जीने से ऊपर उठकर याने मन या बुद्धि या आत्मिक स्तर पर जीता है तब वह मानव कहलाता है। जब वह इन चारों आवेगों के सम्बन्ध में क्या करना क्या नहीं करना, कब करना कब नहीं करना, कैसे करना कैसे नहीं करना आदि के बारे में अपने व्यापक हित के सन्दर्भ में विवेकपूर्ण व्यवहार करता है तब वह मानव कहलाता है। आहार की आवश्यकता तो है। लेकिन तथापि खाने के समय पर ही खाना, सड़ा-गला नहीं खाना, अन्न में मुँह डालकर पशु की तरह नहीं खाना आदि बातों का जब वह पालन करता है तो वह मानव कहलाता है। इसी तरह अन्य प्राणिक आवेगों के विषय में भी समझा जा सकता है।  
    
== मन क्या है? ==
 
== मन क्या है? ==
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</ref><blockquote>इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।</blockquote><blockquote>मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।3.42।।</blockquote>अर्थ : पंचमहाभूतों से बने स्थूल शरीर से इन्द्रिय पर याने श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म होते हैं। इन इन्द्रियों से पर याने श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म मन है। बुद्धि मन से भी पर याने श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म होती है। और आत्मतत्व तो बुद्धि से भी कहीं पर याने बहुत अधिक श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म होता है। जो सूक्ष्म होता है वह व्यापक भी होता है। फैलने की क्षमता उसकी तरलता के साथ बढ़ती जाती है। यहाँ तात्पर्य इतना समझाने से ही है कि मन अत्यंत सूक्ष्म होता है, व्यापक होता है और बलवान होता है।  
 
</ref><blockquote>इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।</blockquote><blockquote>मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।3.42।।</blockquote>अर्थ : पंचमहाभूतों से बने स्थूल शरीर से इन्द्रिय पर याने श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म होते हैं। इन इन्द्रियों से पर याने श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म मन है। बुद्धि मन से भी पर याने श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म होती है। और आत्मतत्व तो बुद्धि से भी कहीं पर याने बहुत अधिक श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म होता है। जो सूक्ष्म होता है वह व्यापक भी होता है। फैलने की क्षमता उसकी तरलता के साथ बढ़ती जाती है। यहाँ तात्पर्य इतना समझाने से ही है कि मन अत्यंत सूक्ष्म होता है, व्यापक होता है और बलवान होता है।  
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महाभारत में युधिष्ठिर दुर्योधन से पूछते हैं -'अरे! तू इतना बुध्दिमान है, फिर तेरा व्यवहार ऐसा क्यों रहा?'। दुर्योधन कहता है -
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महाभारत में युधिष्ठिर दुर्योधन से पूछते हैं -'अरे! तू इतना बुद्धिमान है, फिर तेरा व्यवहार ऐसा क्यों रहा?'। दुर्योधन कहता है -
    
जानामि धर्मं न च में प्रवृत्ति: । जानाम्यधर्मं न च में निवृत्ति: ।।
 
जानामि धर्मं न च में प्रवृत्ति: । जानाम्यधर्मं न च में निवृत्ति: ।।
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तप का अर्थ है ध्येय की प्राप्ति के लिये ध्येय की प्राप्तितक निरंतर परिश्रम करना। तप के दायरे में शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि ऐसे चारों का दीर्घोद्योगी होना आ जाता है। तप केवल हिमालय में तपस्या करनेवालों के लिए ही नहीं अपितु दैनंदिन स्वाध्याय करनेवाले के लिये भी आवश्यक है।  
 
तप का अर्थ है ध्येय की प्राप्ति के लिये ध्येय की प्राप्तितक निरंतर परिश्रम करना। तप के दायरे में शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि ऐसे चारों का दीर्घोद्योगी होना आ जाता है। तप केवल हिमालय में तपस्या करनेवालों के लिए ही नहीं अपितु दैनंदिन स्वाध्याय करनेवाले के लिये भी आवश्यक है।  
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स्वाध्याय से तात्पर्य है अध्ययन की आदत। योग शास्त्र में स्वाध्याय का अर्थ बताया जाता है- ज्ञान और विज्ञान का अध्ययन। इन के माध्यम से परमात्मा को समझने के प्रयास। स्वाध्याय का सामान्य अर्थ है वर्तमान में अपने विषय का जितना भी ज्ञान उपलब्ध है उस का अध्ययन करना। अपनी बुध्दि, तप, चिंतन, अनुभव के आधारपर उपलब्ध ज्ञान को पूर्णता की ओर ले जाना। फिर उसे अगली पीढी को हस्तांतरित करना। गुरूकुल की शिक्षा पूर्ण कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के लिये इच्छुक हर स्नातक को कुछ संकल्प करने होते थे। इन्हें समावर्तन कहते थे। समावर्तन के संकल्पों में 'स्वाध्यायान्माप्रमदा:' ऐसा भी एक संकल्प था। इस का अर्थ यह है कि प्रत्येक स्नातक अपना विद्याकेन्द्र का अध्ययन पूर्ण करने के उपरांत भी आजीवन स्वाध्याय करता रहे। कारीगरी, कला, कौशल, ज्ञान विज्ञान आदि अपनेअपने कर्म-क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति स्वाध्याय करता था। स्वाध्याय करने के लिये संकल्पबध्द था। इस स्वाध्याय का लक्ष्य भी ‘मोक्ष प्राप्ति’ ही होना चाहिए। याने अपनी रूचि के विषय का अध्ययन इस पद्धति से हो की उस विषय के माध्यम से आप मोक्षगामी बन जाएँ। इस संकल्प और स्वाध्याय के कारण व्यापक स्तरपर भारत में मौलिक चिंतन होता था। नकल करनेवाले कभी नेतृत्व नहीं कर सकते। जो देश मौलिक शोध के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। १८ वीं सदीतक भारत ऐसी स्थिति में था। स्वाध्याय की हमारी खण्डित परंपरा को जगाने से ही भारत विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम होगा।  
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स्वाध्याय से तात्पर्य है अध्ययन की आदत। योग शास्त्र में स्वाध्याय का अर्थ बताया जाता है- ज्ञान और विज्ञान का अध्ययन। इन के माध्यम से परमात्मा को समझने के प्रयास। स्वाध्याय का सामान्य अर्थ है वर्तमान में अपने विषय का जितना भी ज्ञान उपलब्ध है उस का अध्ययन करना। अपनी बुद्धि, तप, चिंतन, अनुभव के आधारपर उपलब्ध ज्ञान को पूर्णता की ओर ले जाना। फिर उसे अगली पीढी को हस्तांतरित करना। गुरूकुल की शिक्षा पूर्ण कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के लिये इच्छुक हर स्नातक को कुछ संकल्प करने होते थे। इन्हें समावर्तन कहते थे। समावर्तन के संकल्पों में 'स्वाध्यायान्माप्रमदा:' ऐसा भी एक संकल्प था। इस का अर्थ यह है कि प्रत्येक स्नातक अपना विद्याकेन्द्र का अध्ययन पूर्ण करने के उपरांत भी आजीवन स्वाध्याय करता रहे। कारीगरी, कला, कौशल, ज्ञान विज्ञान आदि अपनेअपने कर्म-क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति स्वाध्याय करता था। स्वाध्याय करने के लिये संकल्पबध्द था। इस स्वाध्याय का लक्ष्य भी ‘मोक्ष प्राप्ति’ ही होना चाहिए। याने अपनी रूचि के विषय का अध्ययन इस पद्धति से हो की उस विषय के माध्यम से आप मोक्षगामी बन जाएँ। इस संकल्प और स्वाध्याय के कारण व्यापक स्तरपर भारत में मौलिक चिंतन होता था। नकल करनेवाले कभी नेतृत्व नहीं कर सकते। जो देश मौलिक शोध के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। १८ वीं सदीतक भारत ऐसी स्थिति में था। स्वाध्याय की हमारी खण्डित परंपरा को जगाने से ही भारत विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम होगा।  
    
ईश्वर प्रणिधान से अभिप्राय है परमात्मा की आराधना। जो भी निर्माण हुआ है वह सब परमात्मा का है।  सर्वशक्तीमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है। मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये हैं उस के प्रति श्रध्दा का भाव मन में निरंतर रखना।  
 
ईश्वर प्रणिधान से अभिप्राय है परमात्मा की आराधना। जो भी निर्माण हुआ है वह सब परमात्मा का है।  सर्वशक्तीमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है। मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये हैं उस के प्रति श्रध्दा का भाव मन में निरंतर रखना।  
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अर्थ : हरेभरे खेत में घुसा जानवर जिस प्रकार उसे भगानेपर या मारनेपर भी बारबार खेत में घुसने का प्रयास करता रहता है, मन भी वैसा ही विषयों के प्रति आकर्षित होता है। उन को छोड़ता नहीं है।
 
अर्थ : हरेभरे खेत में घुसा जानवर जिस प्रकार उसे भगानेपर या मारनेपर भी बारबार खेत में घुसने का प्रयास करता रहता है, मन भी वैसा ही विषयों के प्रति आकर्षित होता है। उन को छोड़ता नहीं है।
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बहिरंग योग ज्ञानार्जन प्रक्रिया के विकास का एक अत्यंत मौलिक और प्रभावी साधन है। इसलिये शिक्षा का विचार इस के बिना संभव नहीं है। बहिरंग योग में भी यम-नियम (सामाजिक वर्तनसूत्र और व्यक्तिगत वर्तनसूत्र) यह श्रेष्ठ व्यक्तित्व के लिये अत्यंत अनिवार्य ऐसे विषय है। इन के सुयोग्य विकास के आधार पर ही एक प्रभावी और श्रेष्ठ व्यक्तित्व की नींव रखी जा सकती है। किन्तु वर्तमान योग शिक्षण में यम और नियमों की उपेक्षा ही होती दिखाई देती है। इन्हे आवश्यक महत्व नहीं दिया जाता। यम, नियमों का आधार बनाए बिना योग में आगे बढने का अर्थ है सदाचार की मानसिकता बनाए बगैर व्यक्तित्व (अधूरे या शायद विकृत भी) का विकास। यम, नियमों की उपेक्षा करने से, अहंकार से भरे योगिराज चांगदेव बन सकते हैं। यम, नियमों की सहायता से मनुष्य सदाचारी बनता है। ज्ञानेश्वर बन सकता है। सदाचार की मानसिकता से उस का शारिरिक और मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है। आसन और प्राणायाम की सहायता से श्रेष्ठ शारिरिक और मानसिक क्षमताएं विकसित होती है। और प्रत्याहार के माध्यम से मन संयमी, एकाग्र और नियंत्रित होता है।
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बहिरंग योग ज्ञानार्जन प्रक्रिया के विकास का एक अत्यंत मौलिक और प्रभावी साधन है। इसलिये शिक्षा का विचार इस के बिना संभव नहीं है। बहिरंग योग में भी यम-नियम (सामाजिक वर्तनसूत्र और व्यक्तिगत वर्तनसूत्र) यह श्रेष्ठ व्यक्तित्व के लिये अत्यंत अनिवार्य ऐसे विषय है। इन के सुयोग्य विकास के आधार पर ही एक प्रभावी और श्रेष्ठ व्यक्तित्व की नींव रखी जा सकती है। किन्तु वर्तमान योग शिक्षण में यम और नियमों की उपेक्षा ही होती दिखाई देती है। इन्हे आवश्यक महत्व नहीं दिया जाता। यम, नियमों का आधार बनाए बिना योग में आगे बढने का अर्थ है सदाचार की मानसिकता बनाए बगैर व्यक्तित्व (अधूरे या संभवतः विकृत भी) का विकास। यम, नियमों की उपेक्षा करने से, अहंकार से भरे योगिराज चांगदेव बन सकते हैं। यम, नियमों की सहायता से मनुष्य सदाचारी बनता है। ज्ञानेश्वर बन सकता है। सदाचार की मानसिकता से उस का शारिरिक और मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है। आसन और प्राणायाम की सहायता से श्रेष्ठ शारिरिक और मानसिक क्षमताएं विकसित होती है। और प्रत्याहार के माध्यम से मन संयमी, एकाग्र और नियंत्रित होता है।
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यम नियमों की शिक्षा तो गर्भधारणा से ही आरम्भ होनी चाहिए। गर्भ धारणा से आगे जितनी अधिक देरी होगी उतनी बालक के द्वारा यम नियमों के ग्रहण करने में कठिनाई बढती जाएगी। यम नियमों की शिक्षा यह तो प्रमुखत: कुटुम्ब शिक्षा का अनिवार्य हिस्सा है। इसी प्रकार से बड़ी आयु में आसन ठीक से लग सकें इस हेतु आवश्यक शारीरिक लचीलेपन को बनाए रखने के प्रयास भी छोटी आयु में ही करने होते हैं। बढ़ी आयु में आसन प्राणायाम जैसी अन्य बातें शायद सिखाई जा सकती होंगी, लेकिन यम नियम नहीं सिखाए जा सकते।
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यम नियमों की शिक्षा तो गर्भधारणा से ही आरम्भ होनी चाहिए। गर्भ धारणा से आगे जितनी अधिक देरी होगी उतनी बालक के द्वारा यम नियमों के ग्रहण करने में कठिनाई बढती जाएगी। यम नियमों की शिक्षा यह तो प्रमुखत: कुटुम्ब शिक्षा का अनिवार्य हिस्सा है। इसी प्रकार से बड़ी आयु में आसन ठीक से लग सकें इस हेतु आवश्यक शारीरिक लचीलेपन को बनाए रखने के प्रयास भी छोटी आयु में ही करने होते हैं। बढ़ी आयु में आसन प्राणायाम जैसी अन्य बातें संभवतः सिखाई जा सकती होंगी, लेकिन यम नियम नहीं सिखाए जा सकते।
    
==References==
 
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