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− | समाज संगठन
| + | {{One source|date=January 2019}} |
− | प्रस्तावना | + | == प्रस्तावना == |
− | समाज का संगठन कहते ही हमारे मन में समाज के सैनिकीकरण का चित्र सामने आता है। क्यों की वर्तमान समाज में यही एकमात्र प्रभावी और आलोचना नहीं की जा सकती ऐसा संगठन दिखाई देता है। वैसे तो छोटे छोटे संगठन तो गली गली में भी दिखाई देते हैं। ऐसे कई संगठन जन्म लेते रहते हैं और काल के प्रवाह में नष्ट भी होते रहते हैं। हर संगठन के निर्माण के पीछे निर्माता का कोई न कोई उद्देष्य होता है। उस उद्देष्य की पूर्ति के लिये संगठन खडा होता है। किंतु कई बार अपने उद्देष्य की पूर्ति करने से पहले ही संगठन नष्ट हो जाते हैं। इस का कारण संगठन शास्त्र की जानकारी निर्माता को नहीं होती। या फिर संगठन का उद्देष्य ही प्रतिक्रियात्मक होता है। मूल क्रिया के नष्ट होते ही ऐसे प्रतिक्रियावादी संगठन का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। इसलिये वह संगठन अपनी मौत मर जाता है। | + | समाज का संगठन कहते ही हमारे मन में समाज के सैनिकीकरण का चित्र सामने आता है। क्योंकि वर्तमान समाज में यही एकमात्र प्रभावी ऐसा संगठन दिखाई देता है, जिसकी आलोचना नहीं की जा सकती। वैसे तो छोटे छोटे संगठन तो गली गली में भी दिखाई देते हैं। ऐसे कई संगठन जन्म लेते रहते हैं और काल के प्रवाह में नष्ट भी होते रहते हैं। हर संगठन के निर्माण के पीछे निर्माता का कोई न कोई उद्देश्य होता है। उस उद्देश्य की पूर्ति के लिये संगठन खडा होता है। किंतु कई बार अपने उद्देश्य की पूर्ति करने से पहले ही संगठन नष्ट हो जाते हैं। इस का कारण संगठन शास्त्र की जानकारी निर्माता को नहीं होती। या फिर संगठन का उद्देश्य ही प्रतिक्रियात्मक होता है। मूल क्रिया के नष्ट होते ही ऐसे प्रतिक्रियावादी संगठन का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। इसलिये वह संगठन अपनी मौत मर जाता है। |
− | संगठन के निर्माण का प्रयोजन जितना लंबी अवधि का, संगठन का उद्देष्य जितना व्यापक और व्यावहारिक, संगठन के निर्माता की संगठन कुशलता जितनी श्रेष्ठ उतनी उस संगठन की आयु होती है। कई संगठन तो केवल निर्माता की कुशलता के कारण उसके साथ ही नष्ट हो जाते हैं। अपने जैसे या अपने से भी श्रेष्ठ संभाव्य नेतृत्व का विकास यदि नहीं होता तो निर्माता के साथ ही संगठन का नष्ट होना स्वाभाविक ही होता है। निर्माता की मृत्यू के उपरांत भी दीर्घ काल तक चलनेवाले संगठन अल्प संख्या में ही होते हैं। बाकी तो हजारों लाखों की संख्या में ऐसे संगठन बनते और नष्ट होते रहते हैं।
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− | दुनियाँ में ऐसे बहुत कम संगठन निर्माण हुए हैं जो दीर्घ काल जीवित रहे हैं। ऑक्स्फोर्ड युनिव्हर्सिटी की आयु लगभग ३०० वर्षों से ऊपर है। भारत में तो १२००-१४०० वर्षतक प्रभावी रहे ऐसे कई विद्यापीठ इतिहास ने देखें हैं। भारत में तो कई राजवंश भी सैंकड़ों वर्ष तक राज करते रहे हैं। इन राजवंशों की विशेषता उनके अपने से अधिक श्रेष्ठ उत्तराधिकारी के निर्माण में थी।
| + | संगठन के निर्माण का प्रयोजन जितना लंबी अवधि का, संगठन का उद्देश्य जितना व्यापक और व्यावहारिक, संगठन के निर्माता की संगठन कुशलता जितनी श्रेष्ठ, उतनी उस संगठन की आयु होती है। कई संगठन तो केवल निर्माता की कुशलता के कारण उसके साथ ही नष्ट हो जाते हैं। अपने जैसे या अपने से भी श्रेष्ठ संभाव्य नेतृत्व का विकास यदि नहीं होता तो निर्माता के साथ ही संगठन का नष्ट होना स्वाभाविक ही होता है। निर्माता की मृत्यू के उपरांत भी दीर्घ काल तक चलनेवाले संगठन अल्प संख्या में ही होते हैं। बाकी तो हजारों लाखों की संख्या में ऐसे संगठन बनते और नष्ट होते रहते हैं। |
− | सामाजिक संगठन की दृष्ति से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संगठन अपने आप में ऐसा ही एक विशेष संगठन है। जो निर्माता के पश्चात भी विस्तार पाता रहा है। संघ को समाज व्यापी बनाना यही संघ के विस्तार का लक्ष्य और सीमा भी है। इसके आगे संघ समाज में विलीन हो जाएगा। संघ को प्रारंभ हुए भी अब चार पीढियों से अधिक समय बीत गया है। संघ का विस्तार भी अनेकों दिशाओं में हुआ है। संघ के विस्तार के साथ ही विरोधी शक्तियाँ भी अधिक शक्तिशाली होती दिखाई दे रहीं हैं। संघ का विस्तार जो अबतक हुआ है वह तो सराहनीय है इसमें कोई शंका नहीं है। फिर भी वर्तमान स्थिति में संघ अपने लक्ष्य से कोसों दूर है ऐसा दिखाई देता है।
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− | ऐसा नहीं है कि संघ अब हतबल हो गया है और अब इसका आगे विस्तार संभव नहीं है। संघ आज भी पर्याप्त बलशाली, लचीला और वर्धिष्णू भी है। संघ का संगठन यह आज विश्व के मानव समाज के लिये एक बडा आश्चर्य ही है। बगैर शासन की सहायता के इतना बडा संगठन आजतक दुनियाँ में किसी ने निर्माण नहीं किया है। संघ द्वारा निर्माण हो रहा संगठन स्वयंसेवी है। इसे नहीं तो शासकीय शक्ति का आधार है और ना ही धर्म शक्ति का। इसी कारण संघ का समूचे हिंदू समाज को संगठित करने का लक्ष्य वर्तमान संगठन प्रक्रिया से कितना संभव होगा ऐसा प्रश्न मन में खडा होता है।
| + | विश्व में ऐसे बहुत कम संगठन निर्माण हुए हैं जो दीर्घ काल जीवित रहे हैं। ऑक्स्फोर्ड युनिव्हर्सिटी की आयु लगभग ३०० वर्षों से ऊपर है। भारत में तो १२००-१४०० वर्षतक प्रभावी रहे ऐसे कई विद्यापीठ इतिहास ने देखें हैं। भारत में तो कई राजवंश भी सैंकड़ों वर्ष तक राज करते रहे हैं। इन राजवंशों की विशेषता उनके अपने से अधिक श्रेष्ठ उत्तराधिकारी के निर्माण में थी। |
− | वर्तमान में संघ जीवन के अभारतीय प्रतिमान के साथ जूझ रहा दिखाई दे रहा है। कई बातों में तो जीवन के वर्तमान अभारतीय प्रतिमान से सुसंगत रचनाएँ करने को भी संघ बाध्य है। जैसे अधिकारों के लिये लडनेवाले संगठन तो भारतीय जीवनदृष्टि से परे हैं। लेकिन मजबूरी में अधिकारों के लिये लडनेवाले संगठन संघ को निर्माण करने पडे हैं।
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− | धर्म शक्ति का जागरण और उसके मार्गदर्शन में धर्मनिष्ठ शासनद्वारा समाज के संगठन को अमल में लाना यही सामज के संगठन की भारतीय प्रक्रिया रही है। इस हेतु सर्व प्रथम धर्म के आधार से समाज का संगठन कैसे होता है उसके स्वरूप को समझना होगा। फिर ऐसे संगठन के निर्माण के लिये चहुँ दिशाओं से समाज में पहल खडी करनी होगी।
| + | धर्म शक्ति का जागरण और उसके मार्गदर्शन में धर्मनिष्ठ शासन द्वारा समाज के संगठन को अमल में लाना यही समाज के संगठन की धार्मिक प्रक्रिया रही है। इस हेतु सर्व प्रथम धर्म के आधार से समाज का संगठन कैसे होता है उसके स्वरूप को समझना होगा। फिर ऐसे संगठन के निर्माण के लिये चहुँ दिशाओं से समाज में पहल खडी करनी होगी। |
− | लेकिन विद्यापीठ या शासन व्यवस्था जैसे समाज जीवन के एक छोटे पहलू या हिस्से को लेकर संगठन निर्माण करना और समूचे समाज के लिये संगठन की रचना करना इन दोनों में निर्माता की प्रतिभा का अंतर बहुत बडा होता है। यह सामान्य मानव का या सामान्य मानव समूह का काम नहीं है। दुनियाँ के अन्य किसी भी समाज से हमारे समाज के निर्माता पूर्वजों की श्रेष्ठता और विशेषता इस में है कि उन्होंने भारतीय समाज को इस तरह संगठन में बाँधा कि यह संगठन हजारों लाखों वर्षोंतक समाज को लाभान्वित करता रहा। भारतीय समाज को इस संगठन ने ही तो चिरंजीवी बना दिया था। ऐसे संगठन की शायद दुनियाँ के अन्य किसी भी समाज के पुरोधाओं ने कल्पना भी नहीं की होगी। हमारे पूर्वजों ने धर्मपर आधारित ऐसे संगठन की न केवल कल्पना की, साथ ही में ऐसे संगठन को समाज में व्यापकता से स्थापित भी कर दिखाया।
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− | लगभग ५०० वर्षों का इस्लामी शासन और लगभग 190 वर्ष का ईसाई शासन भारत में रहा। इस के उपरांत भी भारत में यदि आज भी हिंदू बडी संख्या में हैं तो इस का श्रेय हमारे पूर्वजों ने वर्ण/जाति/आश्रम के माध्यम से निर्माण किये समाज के संगठन को है। धर्मपाल जी बताते हैं कि जाति व्यवस्था के कारण अंग्रेजों को हिंदू समाज का ईसाईकरण अत्यंत कठिन हो रहा था। इसलिये उन्होंने भारतीय जाति व्यवस्था को बदनाम किया। इस संगठन को समझने का प्रयास हम आगे करेंगे।
| + | लेकिन विद्यापीठ या शासन व्यवस्था जैसे समाज जीवन के एक छोटे पहलू या हिस्से को लेकर संगठन निर्माण करना और समूचे समाज के लिये संगठन की रचना करना इन दोनों में निर्माता की प्रतिभा का अंतर बहुत बडा होता है। यह सामान्य मानव का या सामान्य मानव समूह का काम नहीं है। विश्व के अन्य किसी भी समाज से हमारे समाज के निर्माता पूर्वजों की श्रेष्ठता और विशेषता इस में है कि उन्होंने धार्मिक समाज को इस तरह संगठन में बाँधा कि यह संगठन हजारों लाखों वर्षों तक समाज को लाभान्वित करता रहा। धार्मिक समाज को इस संगठन ने ही तो चिरंजीवी बना दिया था। ऐसे संगठन की संभवतः विश्व के अन्य किसी भी समाज के पुरोधाओं ने कल्पना भी नहीं की होगी। हमारे पूर्वजों ने धर्म पर आधारित ऐसे संगठन की न केवल कल्पना की, साथ ही में ऐसे संगठन को समाज में व्यापकता से स्थापित भी कर दिखाया। |
− | हमें यदि पुन: अपने समाज को संगठित करना है तो हमें संगठन का अर्थ, संगठन की जीवनी शक्ति, संगठन के कारक तत्त्व, संगठन को चिरंजीवी बनानेवाले पहलू आदि सभी का विचार करना होगा।
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− | संगठन
| + | लगभग ५०० वर्षों का इस्लामी शासन और लगभग 190 वर्ष का ईसाई शासन भारत में रहा। इस के उपरांत भी भारत में यदि आज भी हिंदू बडी संख्या में हैं तो इस का श्रेय हमारे पूर्वजों द्वारा वर्ण/जाति/आश्रम के माध्यम से निर्माण किये समाज के संगठन को है। धर्मपाल जी बताते हैं कि [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] के कारण अंग्रेजों को हिंदू समाज का ईसाईकरण अत्यंत कठिन हो रहा था। इसलिये उन्होंने धार्मिक [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] को बदनाम किया। इस संगठन को समझने का प्रयास हम आगे करेंगे। हमें यदि पुन: अपने समाज को संगठित करना है तो हमें संगठन का अर्थ, संगठन की जीवनी शक्ति, संगठन के कारक तत्व, संगठन को चिरंजीवी बनानेवाले पहलू आदि सभी का विचार करना होगा।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय ११, लेखक - दिलीप केलकर</ref> |
− | सब से पहले तो हमें संगठन शब्द को ठीक से समझना होगा| समाज की धारणा के लिए जो सामाजिक ढाँचा निर्माण किया जाता है उसे समाज संगठन कहते है| यानि धर्म के अनुसार समाज जी सके इस दृष्टि से जो समाज का ढांचा निर्माण किया जाता है उसे समाज संगठन कहते है| समाज के घटकों की जो स्वाभाविक या प्राकृतिक आवश्यकताएं हैं उन्हें पूर्ण करने के साथ ही उनका सर्वे भवन्तु सुखिन: के साथ समायोजन करने से यह ढांचा समूचे समाज को लाभकारी बन जाता है| इसीलिए समाज इस ढांचे को चिरंजीवी बना देता है|
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− | दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि हमें जीवंत ईकाई का संगठन करना है। जीवत ईकाई के संगठन के लक्षण निम्न होते हैं।
| + | == संगठन == |
− | १ हर जीवंत ईकाई के लिये संगठित रहना उस ईकाई के जीवन के लिये आवश्यक होता है। संगठन टूटना ही उस जीवंत ईकाई की मृत्यू का मार्ग है।
| + | सब से पहले तो हमें संगठन शब्द को ठीक से समझना होगा। संगठन : सं + गठन। सं का अर्थ है अच्छा, श्रेष्ठ। गठन याने किसी उद्देश्य से एक से अधिक पदार्थों का एक साथ जुड़ना। समाज की धारणा के लिए जो सामाजिक ढाँचा निर्माण किया जाता है उसे समाज संगठन कहते है। यानि धर्म के अनुसार समाज जी सके इस दृष्टि से जो समाज का ढांचा निर्माण किया जाता है उसे समाज संगठन कहते है। समाज के घटकों की जो स्वाभाविक या प्राकृतिक आवश्यकताएं हैं उन्हें पूर्ण करने के साथ ही उनका सर्वे भवन्तु सुखिन: के साथ समायोजन करने से यह ढांचा समूचे समाज को लाभकारी बन जाता है। इसीलिए समाज इस ढांचे को चिरंजीवी बना देता है। |
− | २ किसी भी ईकाई के जीवित रहना, बलवान रहना, निरोग रहना, लचीला रहना, तितिक्षावान रहना आदि बातों के लिये जो भी बातें करनी पडतीं हैं उन्हें उस ईकाई का धर्म कहते हैं। ईकाई के संगठन से भी यही अपेक्षाएँ होती हैं। इसी का अर्थ है संगठन ही ईकाई का धर्म होता है।
| + | |
− | ३ ईकाई का हर अवयव सक्षम रहे।
| + | === स्वाभाविक प्रणालियाँ और उनका संगठन === |
− | ४ ईकाई के प्रत्येक अवयव के रक्षण और पोषण में ही ईकाई का और ईकाई के प्रत्येक अवयव का हित होता है। अर्थात् सभी अवयवों में एकात्मता होती है।
| + | जब ऐसे जुड़ने से उस उद्देश्य की अच्छी तरह से पूर्ति होती है तब उसे संगठन कहते हैं। शरीर और राष्ट्र यह दोनों जीवंत इकाईयां हैं। यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे के अनुसार शरीर और राष्ट्र के संगठन में समानता होगी। अब शरीर के उदाहरण से इसे हम समझेंगे। |
− | ५ ईकाई के प्रतेक अवयव के अस्तित्व का प्रयोजन होता है। हर अवयव का प्रयोजन अन्य अवयव के प्रयोजन से भिन्न होता है। उस अवयव की क्षमता की विधा ही उस अवयव का प्रयोजन तय करती है।
| + | {| class="wikitable" |
− | ६ यह आवश्यक होता है कि हर अवयव उसके प्रयोजन के अनुसार ही काम करे।
| + | |+ |
− | ७ आपात काल में या नियमित काम करते समय भी ईकाई के किसी भी अवयवपर विशेष दबाव या तनाव आता है तब ईकाई के सारे अवयव उस अवयव की मदद के लिये तत्पर रहें। ईकाई की प्राणशक्ति उस अवयव पर केंद्रित हो।
| + | !शरीर |
− | ८ ईकाई का प्रत्येक अवयव ईकाई के मुखिया की आज्ञा का पालन करे।
| + | !राष्ट्र |
− | ९ ईकाई के मुखिया की आज्ञा का सभी अवयव पालन करें। मुखिया भी ईकाई के हर अवयव के रक्षण और पोषण की सुनिश्चिति करे। प्रत्येक अवयव की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति करे।
| + | |- |
− | संगठन की जीवनी शक्ति | + | |प्रणाली १. अन्न से सप्तधातु निर्माण |
− | संगठन की जीवनी शक्ति बनी रहने के लिये निम्न बातें आवश्यक होतीं हैं। | + | |१. कौशल्य समायोजन (जाति)– आवश्यकता पूर्ति हेतु निर्माण |
− | १. प्रत्येक अवयव की और ईकाई की सभी प्राकृतिक आवश्यकताओं का समायोजन हो।
| + | |- |
− | २ सामान्यत: ईकाई यानि संगठन की आवश्यकताओं को अवयव की आवश्याताओं पर वरीयता होगी|
| + | |प्रणाली २. रक्ताभिसरण– प्राणशक्ति वितरण |
− | ३ ईकाईयों के अवयवों के परस्परावलंबन में ही ईकाई का जीवन है।
| + | |२. ग्राम – प्रत्येक घटक की आवश्यकताओं के अनुसार वितरण |
− | ४ ईकाई के प्रत्येक अवयव की भूमिका अपने कर्तव्यों और अन्य अवयवोंके अधिकारों की पूर्ति का आग्रह करनेवाली हो।
| + | |- |
− | ५ संगठन के उद्देष्य के और अवयवों के प्रयोजन के आधारपर अवयवों में कार्य विभाजन हो।
| + | |प्रणाली ३. चेतातंत्र – संवेदना और प्रतिक्रियाएँ |
− | ६ प्रत्येक अवयव की संगठन के उद्देष्य में निष्ठा हो।
| + | |३. स्वभाव समायोजन (वर्ण) - व्यक्ति के स्वभाव के अनुसार योगदान |
− | ७ मुखिया में पूर्ण विश्वास हो। मुखिया की आज्ञाओं का अनुपालन करने की अवयवों की मानसिकता रहे।
| + | |- |
− | ८ नेतृत्व क्षमतावान हो।
| + | |प्रणाली ४. चयापचय – मृत पेशियों का त्याग और नई पेशियों का निर्माण |
− | समाज के घटकों के स्वाभाविक पहलुओंपर आधारित संगठन | + | |४. आश्रम (कुटुंब) – मनुष्य की बढ़ती घटती क्षमताओं का समायोजन |
− | व्यक्ति और समाज का स्वभाव और उन की स्वाभाविक आवश्यकताएं और उन के आधारपर एक एक कर किस प्रकार की रचना का निर्माण करना होता है, इसका विवरण हम आगे देखेंगे|
| + | |} |
− | समाज का संगठन कहते ही हमारे मन में समाज के सैनिकीकरण का चित्र सामने आता है। क्यों की वर्तमान समाज में यही एकमात्र प्रभावी और आलोचना नहीं की जा सकती ऐसा संगठन दिखाई देता है। वैसे तो छोटे छोटे संगठन तो गली गली में भी दिखाई देते हैं। ऐसे कई संगठन जन्म लेते रहते हैं और काल के प्रवाह में नष्ट भी होते रहते हैं। हर संगठन के निर्माण के पीछे निर्माता का कोई न कोई उद्देष्य होता है। उस उद्देष्य की पूर्ति के लिये संगठन खडा होता है। किंतु कई बार अपने उद्देष्य की पूर्ति करने से पहले ही संगठन नष्ट हो जाते हैं। इस का कारण संगठन शास्त्र की जानकारी निर्माता को नहीं होती। या फिर संगठन का उद्देष्य ही प्रतिक्रियात्मक होता है। मूल क्रिया के नष्ट होते ही ऐसे प्रतिक्रियावादी संगठन का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। इसलिये वह संगठन अपनी मौत मर जाता है।
| + | दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि हमें जीवंत इकाई का संगठन करना है। जीवंत इकाई के संगठन के लक्षण निम्न होते हैं: |
− | संगठन के निर्माण का प्रयोजन जितना लंबी अवधि का, संगठन का उद्देष्य जितना व्यापक और व्यावहारिक, संगठन के निर्माता की संगठन कुशलता जितनी श्रेष्ठ उतनी उस संगठन की आयु होती है। कई संगठन तो केवल निर्माता की कुशलता के कारण उसके साथ ही नष्ट हो जाते हैं। अपने जैसे या अपने से भी श्रेष्ठ संभाव्य नेतृत्व का विकास यदि नहीं होता तो निर्माता के साथ ही संगठन का नष्ट होना स्वाभाविक ही होता है। निर्माता की मृत्यू के उपरांत भी दीर्घ काल तक चलनेवाले संगठन अल्प संख्या में ही होते हैं। बाकी तो हजारों लाखों की संख्या में ऐसे संगठन बनते और नष्ट होते रहते हैं।
| + | # हर जीवंत इकाई के लिये संगठित रहना उस इकाई के जीवन के लिये आवश्यक होता है। संगठन टूटना ही उस जीवंत इकाई की मृत्यू का मार्ग है। |
− | दुनियाँ में ऐसे बहुत कम संगठन निर्माण हुए हैं जो दीर्घ काल जीवित रहे हैं। ऑक्स्फोर्ड युनिव्हर्सिटी की आयु लगभग ३०० वर्षों से ऊपर है। भारत में तो १२००-१४०० वर्षतक प्रभावी रहे ऐसे कई विद्यापीठ इतिहास ने देखें हैं। भारत में तो कई राजवंश भी हजार हजार वर्ष तक राज करते रहे हैं। इन राजवंशों की विशेषता उनके अपने से अधिक श्रेष्ठ उत्तराधिकारी के निर्माण में थी।
| + | # किसी भी इकाई का जीवित रहना, बलवान रहना, निरोग रहना, लचीला रहना, तितिक्षावान रहना आदि बातों के लिये जो भी बातें करनी पडतीं हैं उन्हें उस इकाई का धर्म कहते हैं। इकाई के संगठन से भी यही अपेक्षाएँ होती हैं। इसी का अर्थ है संगठन ही इकाई का धर्म होता है। |
− | सामाजिक संगठन की दृष्ति से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संगठन अपने आप में ऐसा ही एक विशेष संगठन है। जो निर्माता के पश्चात भी विस्तार पाता रहा है। संघ को समाज व्यापी बनाना यही संघ के विस्तार का लक्ष्य और सीमा भी है। इसके आगे संघ समाज में विलीन हो जाएगा। संघ को प्रारंभ हुए भी अब चार पीढियों से अधिक समय बीत गया है। संघ का विस्तार भी अनेकों दिशाओं में हुआ है। संघ के विस्तार के साथ ही विरोध भी अधिक शक्तिशाली होता दिखाई दे रहां है| संघ का विस्तार जो अबतक हुआ है वह तो सराहनीय है इसमें कोई शंका नहीं है। फिर भी वर्तमान स्थिति में संघ अपने लक्ष्य से कोसों दूर है ऐसा दिखाई देता है।
| + | # इकाई का हर अवयव सक्षम रहे। |
− | ऐसा नहीं है कि संघ अब हतबल हो गया है और अब इसका आगे विस्तार संभव नहीं है। संघ आज भी पर्याप्त बलशाली, लचीला और वर्धिष्णू भी है। संघ का संगठन यह आज विश्व के मानव समाज के लिये एक बडा आश्चर्य ही है। बगैर शासन की सहायता के इतना बडा संगठन आजतक दुनियाँ में किसी ने निर्माण नहीं किया है। संघ द्वारा निर्माण हो रहा संगठन स्वयंसेवी है। इसे न तो शासकीय शक्ति का आधार है और ना ही वर्त्तमान की धर्म शक्ति का। इसी कारण संघ का समूचे हिंदू समाज को संगठित करने का लक्ष्य वर्तमान संगठन प्रक्रिया से कितना संभव होगा ऐसा प्रश्न मन में खडा होता है।
| + | # इकाई के प्रत्येक अवयव के रक्षण और पोषण में ही इकाई का और इकाई के प्रत्येक अवयव का हित होता है। अर्थात् सभी अवयवों में एकात्मता होती है। |
− | वर्तमान में संघ, जीवन के अभारतीय प्रतिमान के साथ जूझ रहा दिखाई दे रहा है। कई बातों में तो जीवन के वर्तमान अभारतीय प्रतिमान से सुसंगत रचनाएँ करने को भी संघ बाध्य है। जैसे अधिकारों के लिये लडनेवाले संगठन तो भारतीय जीवनदृष्टि से परे हैं। लेकिन मजबूरी में अधिकारों के लिये लडनेवाले संगठन संघ को निर्माण करने पडे हैं।
| + | # इकाई के प्रत्येक अवयव के अस्तित्व का प्रयोजन होता है। हर अवयव का प्रयोजन अन्य अवयव के प्रयोजन से भिन्न होता है। उस अवयव की क्षमता की विधा ही उस अवयव का प्रयोजन तय करती है। |
− | धर्मशक्ति का जागरण और उसके मार्गदर्शन में धर्मनिष्ठ शासनद्वारा समाज के संगठन को अमल में लाना यही सामज के संगठन की भारतीय प्रक्रिया रही है। इस हेतु सर्व प्रथम धर्म के आधार से समाज का संगठन कैसे होता है उसके स्वरूप को समझना होगा। फिर ऐसे संगठन के निर्माण के लिये चहुँ दिशाओं से समाज में पहल खडी करनी होगी। लेकिन विद्यापीठ या शासन व्यवस्था जैसे समाज जीवन के एक छोटे पहलू या हिस्से को लेकर संगठन निर्माण करना और समूचे समाज के लिये संगठन की रचना करना इन दोनों में निर्माता की प्रतिभा का अंतर बहुत बडा होता है। यह सामान्य मानव का या सामान्य मानव समूह का काम नहीं है। दुनियाँ के अन्य किसी भी समाज से हमारे समाज के निर्माता पूर्वजों की श्रेष्ठता और विशेषता इस में है कि उन्होंने भारतीय समाज को इस तरह संगठन में बाँधा कि यह संगठन हजारों लाखों वर्षोंतक समाज को लाभान्वित करता रहा। भारतीय समाज को इस संगठन ने ही तो चिरंजीवी बना दिया था। ऐसे संगठन की शायद दुनियाँ के अन्य किसी भी समाज के पुरोधाओं ने कल्पना भी नहीं की होगी। हमारे पूर्वजों ने धर्मपर आधारित ऐसे संगठन की न केवल कल्पना की, साथ ही में ऐसे संगठन को समाज में व्यापकता से स्थापित भी कर दिखाया।
| + | # यह आवश्यक होता है कि हर अवयव उसके प्रयोजन के अनुसार ही काम करे। |
− | लगभग ५०० वर्षों का इस्लामी शासन और लगभग १९० वर्ष का ईसाई शासन भारत में रहा। इस के उपरांत भी भारत में यदि आज भी हिंदू बडी संख्या में हैं तो इस का श्रेय हमारे पूर्वजों ने वर्ण/जाति/आश्रम के माध्यम से निर्माण किये समाज के संगठन को याने वर्णाश्रम धर्म को है। धर्मपाल जी बताते हैं कि जाति व्यवस्था के कारण अंग्रेजों को हिंदू समाज का ईसाईकरण अत्यंत कठिन हो रहा था। इसलिये उन्होंने भारतीय जाति व्यवस्था को बदनाम किया। इस संगठन को समझने का प्रयास हम आगे करेंगे।
| + | # आपात काल में या नियमित काम करते समय भी इकाई के किसी भी अवयव पर विशेष दबाव या तनाव आता है तब इकाई के सारे अवयव उस अवयव की सहायता के लिये तत्पर रहें। इकाई की प्राणशक्ति उस अवयव पर केंद्रित हो। |
− | हमें यदि पुन: अपने राष्ट्र को याने भारतीय जीवन दृष्टीवाले समाज को संगठित करना है तो हमें संगठन का अर्थ, संगठन की जीवनी शक्ति, संगठन के कारक तत्त्व, संगठन को चिरंजीवी बनानेवाले पहलू आदि सभी का विचार करना होगा।
| + | # इकाई का प्रत्येक अवयव इकाई के मुखिया की आज्ञा का पालन करे। |
− | संगठन
| + | # इकाई के मुखिया की आज्ञा का सभी अवयव पालन करें। मुखिया भी इकाई के हर अवयव के रक्षण और पोषण की सुनिश्चिति करे। प्रत्येक अवयव की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति करे। |
− | संगठन : सं + गठन| सं का अर्थ है अच्छा, श्रेष्ठ| गठन याने किसी उद्देश्य से एक से अधिक पदार्थों का एक साथ जुड़ना| जब ऐसे जुड़ने से उस उद्देश्य की अच्छी तरह से पूर्ती होती है तब उसे संगठन कहते हैं| शरीर और राष्ट्र यह दोनों जीवंत ईकाईयां हैं| यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे के अनुसार शरीर और राष्ट्र के संगठन में समानता होगी| अब शरीर के उदाहरण से इसे हम समझेंगे|
| + | |
− | स्वाभाविक प्रणालियाँ और उनका संगठन
| + | == संगठन की जीवनी शक्ति == |
− | शरीर राष्ट्र
| + | संगठन की जीवनी शक्ति बनी रहने के लिये निम्न बातें आवश्यक होतीं हैं: |
− | प्रणाली १. अन्न से सप्तधातु निर्माण १. कौशल्य समायोजन (जाति)– आवश्यकता पूर्ती हेतु निर्माण
| + | # प्रत्येक अवयव की और इकाई की सभी प्राकृतिक आवश्यकताओं का समायोजन हो। |
− | प्रणाली २. रक्ताभिसरण– प्राणशक्ति वितरण २. ग्राम – प्रत्येक घटक की आवश्यकताओं के अनुसार वितरण
| + | # सामान्यत: इकाई यानि संगठन की आवश्यकताओं को अवयव की आवश्यकताओं पर वरीयता होगी। |
− | प्रणाली ३. चेतातंत्र – संवेदना और प्रतिक्रियाएँ ३. स्वभाव समायोजन (वर्ण) - व्यक्ति के स्वभाव के अनुसार योगदान
| + | # इकाईयों के अवयवों के परस्परावलंबन में ही इकाई का जीवन है। |
− | प्रणाली ४. चयापचय – मृत पेशियों का त्याग ४. आश्रम (कुटुंब) – मनुष्य की बढ़ती घटती क्षमताओं का समायोजन | + | # इकाई के प्रत्येक अवयव की भूमिका अपने कर्तव्यों और अन्य अवयवों के अधिकारों की पूर्ति का आग्रह करनेवाली हो। |
− | और नई पेशियों का निर्माण
| + | # संगठन के उद्देश्य के और अवयवों के प्रयोजन के आधारपर अवयवों में कार्य विभाजन हो। |
− | संगठन के महत्वपूर्ण पहलू
| + | # प्रत्येक अवयव की संगठन के उद्देश्य में निष्ठा हो। |
− | सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि हमें जीवंत ईकाई का संगठन करना है। जीवत ईकाई के संगठन के लक्षण निम्न होते हैं।
| + | # मुखिया में पूर्ण विश्वास हो। मुखिया की आज्ञाओं का अनुपालन करने की अवयवों की मानसिकता रहे। |
− | 1 हर ईकाई के अवयव और प्रणालियों का संगठित रहना उस ईकाई के जीवन के लिये आवश्यक होता है। संगठन टूटना या दुर्बल होना ही उस जीवंत ईकाई की मृत्यू का मार्ग है।
| + | # नेतृत्व क्षमतावान हो। |
− | 2 किसी भी ईकाई के जीवित रहना, बलवान रहना, निरोग रहना, लचीला रहना, तितिक्षावान रहना आदि बातों के लिये जो भी बातें करनी पडतीं हैं उन्हें उस ईकाई का धर्म कहते हैं। ईकाई के संगठन से भी यही अपेक्षाएँ होती हैं। इसी का अर्थ है संगठन ही ईकाई का धर्म होता है।
| + | |
− | 3 ईकाई का हर अवयव सक्षम रहे।
| + | == धार्मिक राष्ट्र/समाज संगठन == |
− | 4 ईकाई के प्रत्येक अवयव के रक्षण और पोषण में ही ईकाई का और ईकाई के प्रत्येक अवयव का हित होता है। अर्थात् सभी अवयवों में एकात्मता होती है।
| + | उपर्युक्त संगठन के सूत्रों के आधारपर ही हमारे पूर्वजों ने समाज को संगठित किया था। समाज घटकों की स्वाभाविक आवश्यकताओं पर आधारित रचनाओं के कारण ही ये संगठन दीर्घकाल तक बने रहे। |
− | 5 ईकाई के प्रत्येक अवयव के अस्तित्व का प्रयोजन होता है। हर अवयव का प्रयोजन अन्य अवयव के प्रयोजन से भिन्न होता है। उस अवयव की क्षमता की विधा ही उस अवयव का प्रयोजन तय करती है।
| + | |
− | 6 यह आवश्यक होता है कि हर अवयव उसके प्रयोजन के अनुसार ही काम करे।
| + | सामाजिक संगठन की सबसे महत्वपूर्ण इकाई राष्ट्र है। समान जीवन दृष्टि वाले लोगोंं के सुरक्षित सहजीवन को ही राष्ट्र कहते हैं। हमने पूर्व में जाना है कि राष्ट्र की चार मुख्य प्रणालियाँ होतीं हैं। इन चार प्रणालियों के संगठन को ही वर्णाश्रम धर्म के नाम से जाना जाता था। इनमें से पहली दो प्रणालियाँ वर्ण धर्म में आतीं हैं। और दूसरी दो प्रणालियाँ [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम धर्म]] में आती हैं। इन चारों प्रणालियों का मिलकर वर्णाश्रम धर्म का ताना बाना बनता है। इनका संगठन ही हिन्दू/भारत राष्ट्र का संगठन है। |
− | 7 आपात काल में या नियमित काम करते समय भी ईकाई के किसी भी अवयवपर विशेष दबाव या तनाव आता है तब ईकाई के सारे अवयव उस अवयव की मदद के लिये तत्पर रहें। ईकाई की प्राणशक्ति उस अवयव पर केंद्रित हो।
| + | |
− | 8 ईकाई का प्रत्येक अवयव ईकाई के मुखिया की आज्ञा का पालन करे। जीवंत ईकाई में जीवात्मा ही मुखिया होता है|
| + | समान जीवनदृष्टिवाले समाज के घटकों की जीवनशैली समान होती है। आकांक्षाएँ और इच्छाएँ भी समान होतीं हैं। इस कारण समाज में संघर्ष की संभावनाएं बहुत कम होतीं हैं। लेकिन भिन्न जीवनदृष्टि वाले समाज के साथ सहजीवन सहज और सरल नहीं होता। अतः समान जीवनदृष्टि वाले समाज के सहजीवन के लिए भौगोलिक दृष्टि से सुरक्षित भूमि की आवश्यकता होती है। |
− | 8 ईकाई के मुखिया की आज्ञा का सभी अवयव पालन करें। मुखिया भी ईकाई के हर अवयव के रक्षण और पोषण की सुनिश्चिति करे। प्रत्येक अवयव की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति करे।
| + | |
− | सामाजिक संगठन की जीवनी शक्ति
| + | भूमि हमें जीवन के लिए आवश्यक सभी संसाधन देती है। इस दृष्टि से हम कुटुंब भावना से भूमि से जुड़ जाते हैं। फिर भूमि हमारी माता होती है। ऐसे भौगोलिक दृष्टि से सुरक्षित भूमि और समान जीवनदृष्टि वाले समाज को राष्ट्र कहते हैं। सारे विश्व को एकात्मता के दायरे में लाने का एक चरण राष्ट्र है। राष्ट्र अपने समाज का जीवन सुचारू रूप से चले अतः समाज की प्रणालियों को संगठित अरता है। तथा व्यवस्थाएँ निर्माण करता है। |
− | संगठन की जीवनी शक्ति बनी रहने के लिये निम्न बातें आवश्यक होतीं हैं।
| + | |
− | १. प्रत्येक अवयव की और ईकाई की सभी आवश्यकताओं का समायोजन हो। २. सामान्यत: इकाई याने संगठन की आवश्यकताओं को अवयवों की आवश्यकताओंपर वरीयता होगी| ३. ईकाईयों के अवयवों के परस्परावलंबन में ही ईकाई का जीवन है। ४. ईकाई के प्रत्येक अवयव की भूमिका अपने कर्तव्यों और अन्य अवयवोंके अधिकारों की पूर्ति का आग्रह करनेवाली हो। ५. संगठन के उद्देष्य के और अवयवों के प्रयोजन के आधारपर अवयवों में कार्य विभाजन हो। ६. प्रत्येक अवयव की संगठन के उद्देष्य में निष्ठा हो। ७. मुखिया में पूर्ण विश्वास हो। मुखिया की आज्ञाओं का अनुपालन करने की अवयवों की मानसिकता रहे। ८. नेतृत्व क्षमतावान हो।
| + | समान जीवनदृष्टि रखनेवाला समाज ही सुख, शांति से जी सकता है। भिन्न जीवनदृष्टि वाले समाज के साथ जीवन सहज नहीं रहता। भिन्न जीवनदृष्टियों के समाजों में अनबन, जीवनदृष्टि के, जीवनशैली के और विभिन्न व्यवस्थाओं के भेद होना स्वाभाविक होता है। इसीलिए समान जीवनदृष्टि वाले समाज को सुरक्षित भूमि की आवश्यकता होती है। अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार समाज में व्यवहार हो सके इस दृष्टि से अनुरूप और अनुकूल व्यवस्थाएं भी होनी चाहिए। जीवनदृष्टि के एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के अंतरण के लिए जीवनदृष्टि के अनुकूल श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्माण और निर्वहन होना भी आवश्यक होता है। परम्पराओं का क्रम जब श्रेष्ठता की ओर होता है तब राष्ट्र अधिकाधिक श्रेष्ठ बनता जाता है। दीर्घकालतक श्रेष्ठ बना रहता है। |
− | भारतीय राष्ट्र/समाज संगठन
| + | |
− | उपर्युक्त संगठन के सूत्रों के आधारपर ही हमारे पूर्वजों ने समाज को संगठित किया था। समाज घटकों की स्वाभाविक आवश्यकताओं पर आधारित रचनाओं के कारण ही ये संगठन दीर्घकाल तक बने रहे’
| + | मनुष्य की तरह ही राष्ट्र भी एक जीवंत इकाई होती है। राष्ट्र निर्माण होते हैं। जीते हैं और नष्ट हो जाते हैं। मनुष्य के शरीर में लाखों पेशियाँ नष्ट होती हैं और नयी निर्माण होती हैं। जब नष्ट होनेवाली पेशियों की संख्या निर्माण होनेवाली पेशियों से कम होती है मनुष्य यौवनावस्था में रहता है। जब नष्ट होनेवाली पेशियों का प्रमाण नयी निर्माण होनेवाली पेशियों से अधिक हो जाता है तब मनुष्य वृद्धावस्था की ओर बढ़ने लगता है। विस्तार जब तक चलता है वृद्धावस्था दूर रहती है। यही बात राष्ट्र के लिए भी लागू है। किसी भी जीवंत इकाई की तरह ही राष्ट्र के पास दो ही विकल्प होते हैं। बढ़ना या घटना। राष्ट्र का आबादी और भूमि के सबंध में जबतक विस्तार होता रहता है, राष्ट्र जीवित रहता है। |
− | सामाजिक संगठन की सबसे महत्वपूर्ण ईकाई राष्ट्र है| सामान जीवनदृष्टीवाले लोगों के सुरक्षित सहजीवन को ही राष्ट्र कहते हैं| हमने पूर्व में जाना है की राष्ट्र की चार मुख्य प्रणालियाँ होतीं हैं| इन चार प्रणालियों के संगठन को ही वर्णाश्रम धर्म के नाम से जाना जाता था| इनमें से पहली दो प्रणालियाँ वर्ण धर्म में आतीं हैं| और दूसरी दो प्रणालियाँ आश्रम धर्म में आती हैं| इन चारों प्रणालियों का मिलकर वर्णाश्रम धर्म का ताना बाना बनता है| इनका संगठन ही हिन्दू/भारत राष्ट्र का संगठन है| समान जीवनदृष्टिवाले समाज के घटकों की जीवनशैली समान होती है| आकांक्षाएँ और इच्छाएँ भी समान होतीं हैं| इस कारण समाज में संघर्ष की संभावनाएं बहुत कम होतीं हैं| लेकिन भिन्न जीवनदृष्टिवाले समाज के साथ सहजीवन सहज और सरल नहीं होता| इसलिए समान जीवनदृष्टिवाले समाज के सहजीवन के लिए भौगोलिक दृष्टि से सुरक्षित भूमि की आवश्यकता होती है|
| + | |
− | भूमि हमें जीवन के लिए आवश्यक सभी संसाधन देती है| इस दृष्टि से हम कुटुंब भावना से भूमि से जुड़ जाते हैं| फिर भूमि हमारी माता होती है| ऐसे भौगोलिक दृष्टि से सुरक्षित भूमि और समान जीवनदृष्टिवाले समाज को राष्ट्र कहते हैं| सारे विश्व को एकात्मता के दायरे में लाने का एक चरण राष्ट्र है| राष्ट्र अपने समाज का जीवन सुचारू रूप से चले इसलिए समाज की प्रणालियों को संगठित अरता है| तथा व्यवस्थाएँ निर्माण करता है|
| + | अब हम राष्ट्र की प्रणालियों को जानने का प्रयास करेंगे। |
− | समान जीवनदृष्टि रखनेवाला समाज ही सुख, शांति से जी सकता है| भिन्न जीवनदृष्टिवाले समाज के साथ जीवन सहज नहीं रहता| भिन्न जीवनदृष्टियों के समाजों में अनबन, जीवनदृष्टिके, जीवनशैलीके और विभिन्न व्यवस्थाओं के भेद होना स्वाभाविक होता है| इसीलिए समान जीवनदृष्टिवाले समाज को सुरक्षित भूमि की आवश्यकता होती है| अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार समाज में व्यवहार हो सके इस दृष्टि से अनुरूप और अनुकूल व्यवस्थाएं भी होनी चाहिए| जीवनदृष्टि के एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के अंतरण के लिए जीवनदृष्टि के अनुकूल श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्माण और निर्वहन होना भी आवश्यक होता है| परम्पराओं का क्रम जब श्रेष्ठता की ओर होता है तब राष्ट्र अधिकाधिक श्रेष्ठ बनता जाता है| दीर्घकालतक श्रेष्ठ बना रहता है| मनुष्य की तरह ही राष्ट्र भी एक जिवंत इकाई होती है| राष्ट्र निर्माण होते हैं| जीते हैं और नष्ट हो जाते हैं| मनुष्य के शारीर में लाखों पेशियाँ नष्ट होती हैं और नयी निर्माण होती हैं| जब नष्ट होनेवाली पेशियों की संख्या निर्माण होनेवाली पेशियों से कम होती है मनुष्य यौवनावस्था में रहता है| जेब नष्ट होनेवाली पेशियों का प्रमाण नयी निर्माण होनेवाली पेशियों से अधिक हो जाता है तब मनुष्य वृद्धावस्था की ओर बढ़ने लगता है| विस्तार जबतक चलता है वृद्धावस्था दूर रहती है| यही बात राष्ट्र के लिए भी लागू है| किसी भी जीवंत ईकाई की तरह ही राष्ट्र के पास दो ही विकल्प होते हैं| बढ़ना या घटना| राष्ट्र का आबादी और भूमि के सबंध में जबतक विस्तार होता रहता है, राष्ट्र जीवित रहता है| अब हम राष्ट्र की प्रणालियों को जानने का प्रयास करेंगे|
| + | |
− | १. वर्ण प्रणाली
| + | == वर्ण प्रणाली == |
− | स्वभाव समायोजन - वर्ण प्रणाली
| + | |
− | सत्व रज तम यह तीन गुण हर मनुष्य में होते हैं| इन का प्रमाण भिन्न भिन्न होता है| जब मनुष्य अपने त्रिगुणों के समुच्चय के अनुकूल काम करता है तब काम में सहजता, कौशल, रूचि आदि रहते हैं| तब उसे काम करना बोझ नहीं लगता| तब उसे शारीरिक थकान को दूर करने के लिए आवश्यक विश्राम से अधिक मनोरंजन की भी आवश्यकता नहीं होती|
| + | === वर्ण प्रणाली-1: स्वभाव समायोजन === |
− | श्रीमद्भभगवद्गीता में कहा है – चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टं गुण कर्म विभागश: | संसार में मैंने ही चार स्वभावों के लोग निर्माण किये हैं| ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र| इन का निर्माण भी परमात्मा संतुलन के साथ ही करता है| निरंतर करता रहता है| यदि अन्य कोई अवरोध नहीं हों तो अपने जन्मजात गुणों के अनुसार ही वह मनुष्य कर्म करता है| किन्तु बाहरी वातावरण उसके स्वभाव के अनुकूल नहीं होनेसे उस के स्वभाव में दोष आ जाते हैं| दोष आ जाने से गुणों में प्रदूषण हो जाता
| + | सत्व रज तम यह तीन गुण हर मनुष्य में होते हैं। इन का प्रमाण भिन्न भिन्न होता है। जब मनुष्य अपने त्रिगुणों के समुच्चय के अनुकूल काम करता है तब काम में सहजता, कौशल, रूचि आदि रहते हैं। तब उसे काम करना बोझ नहीं लगता। तब उसे शारीरिक थकान को दूर करने के लिए आवश्यक विश्राम से अधिक मनोरंजन की भी आवश्यकता नहीं होती। |
− | है| वह अपने गुणों का प्रभावी पद्धति से उपयोग नहीं कर सकता| वर्ण अनुशासन के पालन से याने जन्मगत स्वभाव के अनुसार वातावरण मिलने से वर्ण के गुणों में शूद्धि और वृद्धि होती है| ऐसा होने से उस मनुष्य को भी लाभ होता है और समाज भी श्रेष्ठ बनता है|
| + | |
− | ऐसी व्यवस्था बनाते समय एक ओर तो जितने अधिक वर्ग बनाएँगे उतनी आवश्यकताओं की पूर्ति में अचूकता होगी| दूसरी ओर जितने वर्ग अधिक होंगे उतनी स्वभावों के दृढ़ीकरण और विकास की व्यवस्था अधिक जटिल होती जाएगी| श्रीमद्भगवद्गीता में परमात्मा निर्मित वर्ण चार बताए गए हैं| ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र|
| + | श्रीमद्भभगवद्गीता में कहा है<ref>श्रीमद्भभगवद्गीता 4.13</ref>: <blockquote>चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टं गुण कर्म विभागश:।। 4.13 ।।</blockquote><blockquote>संसार में मैंने ही चार स्वभावों के लोग निर्माण किये हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।</blockquote>इन का निर्माण भी परमात्मा संतुलन के साथ ही करता है। निरंतर करता रहता है। यदि अन्य कोई अवरोध नहीं हों तो अपने जन्मजात गुणों के अनुसार ही वह मनुष्य कर्म करता है। किन्तु बाहरी वातावरण उसके स्वभाव के अनुकूल नहीं होने से उस के स्वभाव में दोष आ जाते हैं। दोष आ जाने से गुणों में प्रदूषण हो जाता है। वह अपने गुणों का प्रभावी पद्धति से उपयोग नहीं कर सकता। वर्ण अनुशासन के पालन से याने जन्मगत स्वभाव के अनुसार वातावरण मिलने से वर्ण के गुणों में शूद्धि और वृद्धि होती है। ऐसा होने से उस मनुष्य को भी लाभ होता है और समाज भी श्रेष्ठ बनता है। |
− | स्वभाव तो मनुष्य जन्म से ही लेकर आता है| इसलिए इस वर्ण अनुशासन का एक हिस्सा गर्भधारणा से लेकर तो मनुष्य की घडन जबतक चलती है ऐसी यौवनावस्थातक होगा| कुटुंब की जिम्मेदारी तथा यौवनावस्थातक की शिक्षा में इन जन्मजात स्वभावों की पहचान कर, वर्गीकरण कर उस बच्चे के स्वभाव विशेष की उस के स्वभाव के दृढ़ीकरण और विकास की व्यवस्था निर्माण करनी होती है| यौवन काल से आगे वर्ण अनुशासन का दूसरा हिस्सा शुरू होता है| इसमें जन्मजात और शुद्धि और वृद्धिकृत स्वभाव के अनुसार हे सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ती में योगदान देना होता है|
| + | |
− | वर्ण और त्रिगुणों के प्रमाण का संबन्ध निम्न कोष्टक से समझा जा सकता है|
| + | ऐसी व्यवस्था बनाते समय एक ओर तो जितने अधिक वर्ग बनाएँगे उतनी आवश्यकताओं की पूर्ति में अचूकता होगी। दूसरी ओर जितने वर्ग अधिक होंगे उतनी स्वभावों के दृढ़ीकरण और विकास की व्यवस्था अधिक जटिल होती जाएगी। श्रीमद्भगवद्गीता में परमात्मा निर्मित वर्ण चार बताए गए हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। |
− | ब्राह्मण वर्ण : सत्व गुण प्रधान|
| + | |
− | क्षत्रिय वर्ण : रजोगुण प्रधान| सत्वगुण की ओर झुकाव वाला|
| + | स्वभाव तो मनुष्य जन्म से ही लेकर आता है। अतः इस वर्ण अनुशासन का एक हिस्सा गर्भधारणा से लेकर तो मनुष्य की घडन जबतक चलती है ऐसी यौवनावस्था तक होगा। कुटुंब की जिम्मेदारी तथा यौवनावस्था तक की शिक्षा में इन जन्मजात स्वभावों की पहचान कर, वर्गीकरण कर उस बच्चे के स्वभाव विशेष की उस के स्वभाव के दृढ़ीकरण और विकास की व्यवस्था निर्माण करनी होती है। यौवन काल से आगे वर्ण अनुशासन का दूसरा हिस्सा आरम्भ होता है। इसमें जन्मजात और शुद्धि और वृद्धिकृत स्वभाव के अनुसार हे सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति में योगदान देना होता है। |
− | वैश्य वर्ण : रजोगुण प्रधान| तमोगुण की ओर झुकनेवाला|
| + | |
− | शूद्र वर्ण : तमोगुण प्रधान|
| + | वर्ण और त्रिगुणों के प्रमाण का संबन्ध निम्न से समझा जा सकता है: |
− | वर्ण प्रणाली के इस हिस्से के कारण समाज में सहजता और स्वतंत्रता आती है| संस्कृति का विकास इससे ही होता है|
| + | {| class="wikitable" |
− | वर्ण प्रणाली २ : कौशल समायोजन
| + | |+ |
− | हर मनुष्य जन्म के साथ कुछ त्रिगुणों के समुच्चय याने विशिष्ट स्वभाव को लेकर जन्म लेता है| साथ ही में वह अपने माता पिता और पूर्वजों से कुछ कौशल की विधा के बीज लेकर भी जन्म लेत्ता है| स्वभाव और इस कौशल की विधा का ठीक से समायोजन होने से समाज की आवश्यकताओं की पूर्ती भलीभाँति हो जाती है| याने संस्कृति और समृद्धि दोनों का विकास होता जाता है| स्वभाव के अनुसार काम करने से संस्कृति का विकास और जातिगत कौशल के अनुसार व्यवसाय करने से समृद्धि का निर्माण होता है|
| + | !वर्ण |
− | कौशल विधा को ही हम जाति के नाम से जानते हैं| जैसे सुनार, लुहार, कसेरा, ऋग्वेदी ब्राह्मण या माध्यन्दिन शाखा का यजुर्वेदी ब्राह्मण आदि| सभी जातियों में चारों प्रकार के स्वभाव के याने वर्णों के लोग होते ही हैं| प्रत्येक जाति में विद्यमान इन चारों स्वभावों के लोगों का उस विधा के पदार्थ के निर्माण और समाज में यथोचित वितरण (उपयोग हेतु) होने से उस कौशल विधा का समायोजन होता है| समाज में आवश्यकता के अनुसार कौशल विधाओं याने जातियों की संख्या के घटने बढ़ने का लचीलापन आवश्यक होता है| इसमें कठोरता आने के कारण समाज में अशांति निर्माण होती है| वर्त्तमान में यंत्रावलंबन के कारण कौशल नष्ट हो रहे हैं| हेल्पर याने सहायक और मशीन ऑपरेटर याने यंत्र चालक ऐसे दो कौशल बहुत बड़ी संख्या में चलन में हैं|
| + | !गुण |
− | समान जीवनदृष्टिवाले समाज के घटकों की आवश्यकताएं समान होतीं हैं| आवश्यकताएं भी अनेक प्रकार की होती हैं| दैनंदिन आवश्यकताओं से आगे भी अनेक प्रकार की आवश्यकताएं होती हैं| ज्ञान, कला, कौशल, पराई संस्कृति के समाजों से आक्रमणों से सुरक्षा आदि की पूर्ति के सन्दर्भ में अकेला ग्राम स्वावलंबी नहीं हो सकता| इसलिए अधिक व्यापक व्यवस्था की आवश्यकता होती है|
| + | ! |
− | केवल आवश्यकताएं और इच्छाएँ होने से कोई समाज चल नहीं सकता| क्षमताओं के विकास की और क्षमताओं की विविध विधाओं के संतुलन की भी आवश्यकता होती है| क्षमता में बल और ज्ञान के साथ ही विशेष व्यावसायिक कौशल की बहुत आवश्यकता होती है| समाज की बढती घटती आबादी और बदलती आवश्यकताओं का और व्यावसायिक कौशलों का संतुलन अनिवार्य होता है| अन्यथा समाज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए या तो आक्रामक बन जाता है या फिर अपनी स्वतंत्रता खो बैठता है| इसलिए आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था को या व्यवसायिक कौशल की विधाओं को आनुवांशिक बनाना उचित होता है| ऐसी आनुवंशिकता के दर्जनों लाभों के विषय में हम कौशल समायोजन विषय में जानेंगे| कौशल समायोजन के घटक निम्न हैं| | + | |- |
− | - कौशल संतुलन - कौशल विकास - पूर्ण स्वावलंबी समाज
| + | |ब्राह्मण वर्ण |
− | २. आश्रम प्रणाली
| + | |सत्व गुण प्रधान |
− | आश्रम प्रणाली के तीन मोटे मोटे हिस्से बनते हैं|
| + | |सत्वगुण की ओर झुकाव वाला। |
− | २.१ आश्रम प्रणाली १ - कुटुंब (स्त्री-पुरुष सहजीवन)
| + | |- |
− | स्त्री और पुरूष की बनावट में कुछ समानताएं होतीं हैं और भिन्नताएं भी होतीं हैं| समानता के कारण कुछ विषयों में स्त्री और पुरूष समान होते हैं| और भिन्नताओं के कारण कुछ विषयों में समान नहीं होते| इन भिन्नताओं का कारण उनके अस्तित्व के प्रयोजन से है| इसा विषय में हमने ‘व्यक्ति’ इस अध्याय में जानकारी ली है| सृष्टी के प्रत्येक अस्तित्व में भिन्नता है| उस अस्तित्व की भिन्नता ही उसका प्रयोजन क्या है यह तय करती है| इसी कारण से स्त्री और पुरूष में भिन्नता होने से उनके प्रयोजन में कुछ भिन्नता होना स्वाभाविक है|
| + | |क्षत्रिय वर्ण |
− | स्त्री और पुरूष में एक स्वाभाविक आकर्षण होता है| यह आकर्षण उनकी परस्पर पूरकता के कारण होता है| परस्पर की किन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ती की संभावना के कारण होता है| कोई भी भूख लगा हुआ जीव अन्न की ओर आकर्षित होता है| उसके शरीर में वह, कुछ कमी का अनुभव करता है| इस कमी की पूर्ती अन्न से होनेवाली होती है| इसीलिये वह अन्न की ओर आकर्षित होता है| इसी तरह से पुरूष अपनी किन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए और स्त्री अपनी उसी प्रकार की कुछ आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं| सहजीवन की दोनों को आवश्यकता होती है| भारतीय मान्य ता है कि स्त्री और पुरुष मिलकर पूर्ण बनते हैं| इसलिए दोनों परस्पर पूरक होते हैं| भारत में अर्ध-नारी-नटेश्वर की संकल्पना इसी के कारण है| उसके माध्यम से स्त्री और पुरूष दोनों के महत्त्व और परस्पर पूरकता को अभिव्यक्त किया गया है| ऐसी अर्ध-नारी-नटेश्वर की संकल्पना यह हमारी विशेषता है| भारतीयता की एक पहचान है|
| + | |रजोगुण प्रधान |
− | स्त्री और पुरूष में यह आकर्षण उनकी यौवनावस्था से निर्माण होता है| यौवनसुलभ वासना के कारण होता है| लेकिन वासना पूर्ती यह तो परस्पर की भिन्न भिन्न आवश्यकताओं में से एक आवश्यकता है| यौवन से लेकर मृत्यूतक की अन्य भी कई आवश्यकताएँ होतीं हैं| समाज बना रहे, वृद्धावस्था भी सुख से गुजरे आदि बातों के कारण नए जीव के निर्माण करना होता है| इस के लिए दोनों का सहभाग अनिवार्य होता है| बच्चे को जन्म देने के बाद उसके संगोपन की आवश्यकता होती है| यह स्त्री अधिक अच्छा कर सकती है| स्त्री शारीरिक दृष्टी से दुर्बल होने के कारण उसे वासनांध पुरूषों से बचाने की आवश्यकता होती है|
| + | |रजोगुण की ओर झुकनेवाला। |
− | बच्चों का संगोपन, जीवन के विभिन्न कार्यों का विभाजन, वृद्धावस्था के सुख की आश्वस्ती आदि कारणों से यह स्त्री पुरूष परस्पर सहयोग आजीवन आवश्यक होता है| इसे अनुशासन में बांधने के लिए विवाह का संस्कार होता है| इसे ध्यान में रखकर ही विवाह को संस्कार कहा गया है| दो भिन्न अस्तित्वों का अति घनिष्ठ बनकर याने एक बनकर जीना ही विवाह संस्कार का प्रयोजन है| इस घनिष्ठता के कारण पति पत्नि में एकात्मता होती है| यह एकात्मता रक्त समबंधोंतक और आगे चराचर तक विकसित हो इस दृष्टी से कुटुंब की प्रणाली बनती है|
| + | |- |
− | अन्य किसी भी सामाजिक सम्बन्ध से स्त्री पुरुष जो एक दूसरे के पति पत्नि हैं उनमें अत्यंत निकटता होती है| इस से अधिक निकटता का सम्बन्ध अन्य कोई नहीं है| रक्त सम्बन्ध गाढे होते हैं| विवाह के कारण पति पत्नि में रज और वैरी के सम्बन्ध स्थापित होते हैं| अन्न से अन्नरस, रक्त, मेद, मांस, मज्जा, अस्थि और रज/वीर्य यह सप्तधातु बनते हैं| आयुर्वेद के अनुसार इनमें ४०:१ का गुणोत्तर होता है| ४० ग्राम अन्नरस से १ ग्राम रक्त बनता है| ४० ग्राम रक्त से १ ग्राम मेद बनता है| इस प्रकार से रज वीर्य का संबंध रक्त संबंधों से १०,२४,००,००० याने दस करोड़ चौबीस लाख गुना गाढे होते हैं| इसीलिए चराचर में व्याप्त एकात्मता की सबसे तीव्र अनुभूति पति-पत्नि के संबंधों में ही होती है| पति-पत्निद्वारा अनुभूत एकात्मता को, प्रारंभ बिंदु बनाकर उनके साझे प्रयासों से पैदा की गई संतानों में एकात्मता की भावना स्थापित करने के प्रयास किये जाने चाहिये| इस दृष्टि से पति-पत्नि के सहजीवन के साथ ही संतानोंपर एकात्मता के संस्कार किये जाने चाहिए| सामाजिकता की भावना चराचर में निहित एकात्मता का ही छोटा स्तर है| पति-पत्नि और संतानों से मिलकर बने संगठन को जब चराचर की एकात्मता या सर्वे भवन्तु सुखिन: की प्राप्ति के लिए विकसीत किया जाता है तब उसे ‘कुटुंब’ कहते हैं| फिर उस कुटुंब में रक्तसम्बन्धी रिश्तेदार तो आते ही हैं, अतिथि, याचक, द्वार-विक्रेता, मित्र-मण्डली, मधुकरी, पशु, पक्षी, चींटियों जैसे प्राणी, धरतीमाता, गंगामाता, गोमाता, बिल्ली मौसी, चुहेदादा, चंदामामा, तुलसीमाता, पेडपौधे, नाग, बरगद, पीपल जैसे वृक्ष आदि चराचर के सभी घटकों का समावेश हो जाता है| इन से पारिवारिक सम्बन्ध बनाने के संस्कार और शिक्षा दी जा सकती है| पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, वरुण, वायू आदि सृष्टि के देवताओं के प्रति यानि पर्यावरण के प्रति पवित्रता की भावना निर्माण की जा सकती है| हमारा आदर्श भगवान शंकर का कुटुंब है|
| + | |वैश्य वर्ण |
− | बच्चा जन्म लेता है तब उसे केवल अधिकार होते हैं| कोई कर्तव्य नहीं होते| किन्तु समाज को यदि सुख शांतिमय जीवन चाहिए हो तो अपने कर्तव्यों और अन्यों के अधिकारोंपर बल देना पड़ता है| केवल अधिकार लेकर जिस बच्चे ने जन्म लिया है उसे केवल कर्तव्य हैं और कोई अधिकार नहीं हैं ऐसा मनुष्य बनाना यह भी कुटुंब का ही काम होता है| परिवार के घटक निम्न होते हैं|
| + | |तमोगुण |
− | कुटुंब प्रणाली के घटक निम्न होते हैं|
| + | |तमोगुण की ओर झुकनेवाला। |
− | २.१.१ पति-पत्नि २.१.२ बच्चे २.१.३ माता-पिता २.१.४ भाई-बहन २.१.५ रक्तसम्बंधी २.१.६ पालतू प्राणी २.१.७ देवता/गृहदेवता २.१.८ पर्यावरण
| + | |- |
− | २.२ आश्रम प्रणाली २ – चार/ तीन आश्रम
| + | |शूद्र वर्ण |
− | आश्रम में ‘श्रम’ शब्द है| इसका अर्थ है आजीवन श्रम| आयु की हर अवस्था में परिश्रम तो करना ही है| जन्म, बाल्य, यौवन, वृद्धावस्था और मृत्यू का चक्र अविरत चलता रहता है| मानव बालक जब जन्म लेता है तो वह पूर्णतया परावलंबी होता है| जब वह यौवनावस्था में होता है तब सामर्थ्यवान होता है| फिर जब वृद्धावस्था की ओर बढ़ता है तब उसकी कई क्षमताओं में कमी आती है| वह क्रमश: परावलंबी बनता जाता है| इसलिए मानव जीवन को मोटे मोटे चार हिस्सों में बांटना उचित होता है| युवावस्था तक का, यौवन का, प्रौढ़ता का और वृद्धावस्था का ऐसे चार विभाग बनते हैं| यौवनावस्थातक के काल में क्षमताएं बढ़ने और बढाने का काल होता है| इस काल में क्षमताएं बढाने से यौवनावस्था में वह यौवनावस्था के पूर्वतक के तथा यौवनावस्था के बाद के काल में जो लोग हैं उनका तथा अपना भी जीवन सुख से बीते इस की आश्वस्ती कर सकता है| इसे अनुशासन में बिठाने से आश्रम रचना बनती है| प्रौढ़ता की आयु में मनुष्य की शारीरिक क्षमताएं घटना शुरू हो जाता है लेकिन वह ज्ञान और जीवन के अनुभवों से यौवनावस्था समाप्तितक की आयु के लोगों से समृद्ध होता है| इसे वानप्रस्थी कहते हैं| इस आयु में वह प्रौढावस्था से कम आयु के लोगों के लिए मार्गदर्शनकी भूमिका में होने से जीवन का उन्नयन होता जाता है| इस प्रकार से आश्रम चार बनाते हैं| ये निम्न हैं|
| + | |तमोगुण प्रधान |
− | और आश्रम प्रणाली के दूसरे हिस्से आश्रम के घटक निम्न हुआ करते थे|
| + | | |
− | २.२.१ ब्रह्मचर्य २.२.२ गृहस्थ २.२.३ वानप्रस्थ/ उत्तर गृहस्थ २.२.४ संन्यास
| + | |} |
− | वर्त्तमान के अनुसार संन्यास अवस्था तो लगभग लुप्तप्राय हो गई है| इसलिए अब आयु की अवस्था के अनुसार केवल तीन ही आश्रमों का विचार उचित होगा|
| + | वर्ण प्रणाली के इस हिस्से के कारण समाज में सहजता और स्वतंत्रता आती है। संस्कृति का विकास इससे ही होता है। |
− | ब्रह्मचर्य (२५ वर्षतक) - गृहस्थ (६० वर्षतक) - उत्तर गृहस्थ (६० वर्ष से अधिक)
| + | |
− | २.३ आश्रम प्रणाली ३ : ग्राम
| + | === वर्ण प्रणाली-2: कौशल समायोजन === |
− | स्वतंत्रता यह मानव जीवन का सामाजिक स्तर का लक्ष्य है| परावलंबन से स्वतंत्रता नष्ट हो जाती है| परस्परावलंबन से स्वतंत्रता की मात्रा कम हो जाती है| लेकिन एक सीमातक स्वतंत्रता की आश्वस्ति हो जाती है|
| + | हर मनुष्य जन्म के साथ कुछ त्रिगुणों के समुच्चय याने विशिष्ट स्वभाव को लेकर जन्म लेता है। साथ ही में वह अपने माता पिता और पूर्वजों से कुछ कौशल की विधा के बीज लेकर भी जन्म लेत्ता है। स्वभाव और इस कौशल की विधा का ठीक से समायोजन होने से समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति भलीभाँति हो जाती है। याने संस्कृति और समृद्धि दोनों का विकास होता जाता है। स्वभाव के अनुसार काम करने से संस्कृति का विकास और जातिगत कौशल के अनुसार व्यवसाय करने से समृद्धि का निर्माण होता है। |
− | मानव के अधिकतम संभाव्य सामर्थ्य और उसके जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए आवश्यक सामर्थ्य में बहुत अंतर होता है| इस अंतर को वह केवल कुटुंब के रक्तसम्बंधी लोगों की मदद के आधारपर कुछ सीमातक ही पाट सकता है| आगे उसे परस्परावलंबन का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है| परस्परावलंबी कुटुम्बों के समायोजन से एक सीमातक स्वावलंबन संभव हो सकता है|
| + | |
− | व्यक्ति अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति केवल अपने प्रयासों से नहीं कर सकता| केवल दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति भी संभव नहीं है| व्यक्ति की कितनी ही दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति कुटुंब भी नहीं करा सकता| व्यक्ति और परिवार दोनों को समाज के अन्य घटकोंपर निर्भर होना ही पड़ता है| यह जैसे समाज के एक व्यक्ति या एक परिवार के लिए लागू है उसी तरह समाज के सभी व्यक्तियों के लिए और सभी कुटुंबों के लिए भी लागू है| सामाजिक स्तरपर जीवन का लक्ष्य स्वतंत्रता होकर भी व्यक्ति या कुटुंब पूर्णत: स्वतन्त्र नहीं रह सकते| कुछ मात्रा में परावलंबन अनिवार्य होता है| इसलिए सुख से जीने के लिए मनुष्य को और कुटुंबों को स्वतंत्रता और परावलंबन में संतुलन रखना आवश्यक हो जाता है| केवल परावलंबन से परस्परावलंबन में स्वतंत्रता की मात्रा बढ़ जाती है| इसलिए कुटुंबों में आपस में परस्परावलंबन होना आवश्यक हो जाता है| जैसे जैसे भूक्षेत्र बढ़ता है परस्परावलंबन कठिन होता जाता है| प्राकृतिक संसाधन भी विकेन्द्रित ही होते हैं| इसलिए न्यूनतम या छोटे से छोटे भूक्षेत्र में रहनेवाले परस्परावलंबी परिवार मिलकर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति के सन्दर्भ में स्वावलंबी समुदाय बनाना उचित होता है| अन्न वस्त्र, मकान, प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य ये मनुष्य की दैनन्दिन आवश्यकताएं हैं|
| + | कौशल विधा को ही हम जाति के नाम से जानते हैं। जैसे सुनार, लुहार, कसेरा, ऋग्वेदी ब्राह्मण या माध्यन्दिन शाखा का यजुर्वेदी ब्राह्मण आदि। सभी जातियों में चारों प्रकार के स्वभाव के याने वर्णों के लोग होते ही हैं। प्रत्येक जाति में विद्यमान इन चारों स्वभावों के लोगोंं का उस विधा के पदार्थ के निर्माण और समाज में यथोचित वितरण (उपयोग हेतु) होने से उस कौशल विधा का समायोजन होता है। समाज में आवश्यकता के अनुसार कौशल विधाओं याने जातियों की संख्या के घटने बढ़ने का लचीलापन आवश्यक होता है। इसमें कठोरता आने के कारण समाज में अशांति निर्माण होती है। वर्तमान में यंत्रावलंबन के कारण कौशल नष्ट हो रहे हैं। हेल्पर याने सहायक और मशीन ऑपरेटर याने यंत्र चालक ऐसे दो कौशल बहुत बड़ी संख्या में चलन में हैं। समान जीवनदृष्टि वाले समाज के घटकों की आवश्यकताएं समान होतीं हैं। आवश्यकताएं भी अनेक प्रकार की होती हैं। दैनंदिन आवश्यकताओं से आगे भी अनेक प्रकार की आवश्यकताएं होती हैं। ज्ञान, कला, कौशल, पराई संस्कृति के समाजों से आक्रमणों से सुरक्षा आदि की पूर्ति के सन्दर्भ में अकेला ग्राम स्वावलंबी नहीं हो सकता। अतः अधिक व्यापक व्यवस्था की आवश्यकता होती है। |
− | वास्तव में ऐसे समुदाय को बड़ा कुटुंब भी कहा जा सकता है| ऐसे बड़े कुटुंब को ग्राम कहना उचित होता है| ग्राम शब्द भी ‘गृ’ धातु से बना है| इसका अर्थ भी ‘गृह’ ऐसा ही है|
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− | परस्परावलंबी कुटुम्बों के एकत्र आनेसे जो स्वावलंबी समुदाय बनता है उसे ग्राम कहते हैं| यह आश्रम प्रणाली का तीसरा हिस्सा है| कौटुम्बिक उद्योगों के आधारपर ग्राम स्वावलंबी बनते हैं| आवश्यकताओं और आपूर्ति का मेल बिठाने के लिए कौटुम्बिक उद्योगों को अनुवांशिक बनाने की आवश्यकता होती है|
| + | केवल आवश्यकताएं और इच्छाएँ होने से कोई समाज चल नहीं सकता। क्षमताओं के विकास की और क्षमताओं की विविध विधाओं के संतुलन की भी आवश्यकता होती है। क्षमता में बल और ज्ञान के साथ ही विशेष व्यावसायिक कौशल की बहुत आवश्यकता होती है। समाज की बढती घटती आबादी और बदलती आवश्यकताओं का और व्यावसायिक कौशलों का संतुलन अनिवार्य होता है। अन्यथा समाज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए या तो आक्रामक बन जाता है या फिर अपनी स्वतंत्रता खो बैठता है। अतः आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था को या व्यवसायिक कौशल की विधाओं को आनुवांशिक बनाना उचित होता है। ऐसी आनुवंशिकता के दर्जनों लाभों के विषय में हम कौशल समायोजन विषय में जानेंगे। कौशल समायोजन के घटक निम्न हैं: |
− | ज्ञान, कला, कौशल आदि की प्राप्ति के लिए पूरा विश्व ही ग्राम होता है| लेकिन जीवन जीने के लिए ग्राम ही पूरा विश्व होता है| ऐसी सोच के कारण समाज पगढ़ीला नहीं हो पाता| पगढ़ीले समाज में कोई श्रेष्ठ संस्कृति पनप नहीं पाती| ग्राम की सीमा भी सुबह घर से निकलकर समाज की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति में अपना योगदान देकर शामतक फिर से अपने घर लौट सके इतनी ही होनी चाहिये| ग्राम की विशेषताएँ निम्न कही जा सकतीं हैं|
| + | * कौशल संतुलन |
− | कुटुंब भावना - कौटुम्बिक उद्योग - समाज जीवन की स्वावलंबी लघुतम आर्थिक इकाई
| + | * कौशल विकास |
− | उपसंहार
| + | * पूर्ण स्वावलंबी समाज |
− | संयुक्त परिवार, वर्ण, जाति, ग्रामकुल, राष्ट्र ऐसी प्राकृतिक आवश्यकताओं का आधार लेकर प्रकृति सुसंगत बातों को पुष्ट और धर्मानुकूल बनाने से ही ये प्रणालियाँ ठीक चला रही थीं और राष्ट्र संगठन अबतक टिका हुआ था| लेकिन हमारे दुर्लक्ष के कारण हिंदू समाज का संगठन पूरी तरह से चरमरा रहा है। संयुक्त परिवार व्यवस्था के, वर्ण व्यवस्था के, जाति व्यवस्था के, अंग्रेजपूर्व भारत में बहुत बडी संख्या में अस्तित्व में थे ऐसे लाखों ग्रामकुल और राष्ट्रीयता आदि की रक्षा और सबलीकरण के सीधे और पैने प्रयासों की आवश्यकता निर्माण हुई है। जिस गति से वर्तमान जीवन का अभारतीय प्रतिमान हमें भ्रष्ट और नष्ट कर रहा है उस गति से अधिक गति हमें जीवन के भारतीय प्रतिमान की प्रतिष्ठापना के कार्य को देनी होगी। यह कठिन बहुत है। लेकिन असंभव तो कतई नहीं है।
| + | |
| + | == आश्रम प्रणाली == |
| + | [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम प्रणाली]] के तीन मोटे मोटे हिस्से बनते हैं: |
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| + | === आश्रम प्रणाली-1 (कुटुंब: स्त्री-पुरुष सहजीवन) === |
| + | स्त्री और पुरूष की बनावट में कुछ समानताएं होतीं हैं और भिन्नताएं भी होतीं हैं। समानता के कारण कुछ विषयों में स्त्री और पुरूष समान होते हैं। और भिन्नताओं के कारण कुछ विषयों में समान नहीं होते। इन भिन्नताओं का कारण उनके अस्तित्व के प्रयोजन से है। इसा विषय में हमने [[Personality (व्यक्तित्व)|इस]] अध्याय में जानकारी ली है। सृष्टि के प्रत्येक अस्तित्व में भिन्नता है। उस अस्तित्व की भिन्नता ही उसका प्रयोजन क्या है यह तय करती है। इसी कारण से स्त्री और पुरूष में भिन्नता होने से उनके प्रयोजन में कुछ भिन्नता होना स्वाभाविक है। |
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| + | स्त्री और पुरूष में एक स्वाभाविक आकर्षण होता है। यह आकर्षण उनकी परस्पर पूरकता के कारण होता है। परस्पर की किन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति की संभावना के कारण होता है। कोई भी भूख लगा हुआ जीव अन्न की ओर आकर्षित होता है। उसके शरीर में वह, कुछ कमी का अनुभव करता है। इस कमी की पूर्ति अन्न से होनेवाली होती है। इसीलिये वह अन्न की ओर आकर्षित होता है। इसी तरह से पुरूष अपनी किन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और स्त्री अपनी उसी प्रकार की कुछ आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। सहजीवन की दोनों को आवश्यकता होती है। धार्मिक मान्यता है कि स्त्री और पुरुष मिलकर पूर्ण बनते हैं। अतः दोनों परस्पर पूरक होते हैं। भारत में अर्ध-नारी-नटेश्वर की संकल्पना इसी के कारण है। उसके माध्यम से स्त्री और पुरूष दोनों के महत्व और परस्पर पूरकता को अभिव्यक्त किया गया है। ऐसी अर्ध-नारी-नटेश्वर की संकल्पना यह हमारी विशेषता है। धार्मिकता की एक पहचान है। |
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| + | स्त्री और पुरूष में यह आकर्षण उनकी यौवनावस्था से निर्माण होता है। यौवनसुलभ वासना के कारण होता है। लेकिन वासना पूर्ति यह तो परस्पर की भिन्न भिन्न आवश्यकताओं में से एक आवश्यकता है। यौवन से लेकर मृत्यू तक की अन्य भी कई आवश्यकताएँ होतीं हैं। समाज बना रहे, वृद्धावस्था भी सुख से गुजरे आदि बातों के कारण नए जीव के निर्माण करना होता है। इस के लिए दोनों का सहभाग अनिवार्य होता है। बच्चे को जन्म देने के बाद उसके संगोपन की आवश्यकता होती है। यह स्त्री अधिक अच्छा कर सकती है। स्त्री शारीरिक दृष्टि से दुर्बल होने के कारण उसे वासनांध पुरूषों से बचाने की आवश्यकता होती है। बच्चोंं का संगोपन, जीवन के विभिन्न कार्यों का विभाजन, वृद्धावस्था के सुख की आश्वस्ति आदि कारणोंसे यह स्त्री पुरूष परस्पर सहयोग आजीवन आवश्यक होता है। इसे अनुशासन में बांधने के लिए विवाह का संस्कार होता है। इसे ध्यान में रखकर ही विवाह को संस्कार कहा गया है। दो भिन्न अस्तित्वों का अति घनिष्ठ बनकर याने एक बनकर जीना ही विवाह संस्कार का प्रयोजन है। इस घनिष्ठता के कारण पति पत्नि में एकात्मता होती है। यह एकात्मता रक्त सम्बन्धों तक और आगे चराचर तक विकसित हो इस दृष्टि से कुटुंब की प्रणाली बनती है। |
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| + | अन्य किसी भी सामाजिक सम्बन्ध से स्त्री पुरुष जो एक दूसरे के पति पत्नि हैं उनमें अत्यंत निकटता होती है। इस से अधिक निकटता का सम्बन्ध अन्य कोई नहीं है। रक्त सम्बन्ध गाढे होते हैं। विवाह के कारण पति पत्नि में रज और वीर्य के सम्बन्ध स्थापित होते हैं। अन्न से अन्नरस, रक्त, मेद, मांस, मज्जा, अस्थि और रज/वीर्य यह सप्तधातु बनते हैं। आयुर्वेद के अनुसार इनमें ४०:१ का गुणोत्तर होता है। ४० ग्राम अन्नरस से १ ग्राम रक्त बनता है। ४० ग्राम रक्त से १ ग्राम मेद बनता है। इस प्रकार से रज वीर्य का संबंध रक्त संबंधों से १०,२४,००,००० याने दस करोड़ चौबीस लाख गुना गाढे होते हैं। इसीलिए चराचर में व्याप्त एकात्मता की सबसे तीव्र अनुभूति पति-पत्नि के संबंधों में ही होती है। पति-पत्नि द्वारा अनुभूत एकात्मता को, प्रारंभ बिंदु बनाकर उनके साझे प्रयासों से पैदा की गई संतानों में एकात्मता की भावना स्थापित करने के प्रयास किये जाने चाहिये। इस दृष्टि से पति-पत्नि के सहजीवन के साथ ही संतानों पर एकात्मता के संस्कार किये जाने चाहिए। सामाजिकता की भावना चराचर में निहित एकात्मता का ही छोटा स्तर है। पति-पत्नि और संतानों से मिलकर बने संगठन को जब चराचर की एकात्मता या सर्वे भवन्तु सुखिन: की प्राप्ति के लिए विकसित किया जाता है तब उसे ‘कुटुंब’ कहते हैं। फिर उस कुटुंब में रक्तसम्बन्धी रिश्तेदार तो आते ही हैं, अतिथि, याचक, द्वार-विक्रेता, मित्र-मण्डली, मधुकरी, पशु, पक्षी, चींटियों जैसे प्राणी, धरतीमाता, गंगामाता, गोमाता, बिल्ली मौसी, चुहेदादा, चंदामामा, तुलसीमाता, पेडपौधे, नाग, बरगद, पीपल जैसे वृक्ष आदि चराचर के सभी घटकों का समावेश हो जाता है। इन से पारिवारिक सम्बन्ध बनाने के संस्कार और शिक्षा दी जा सकती है। पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, वरुण, वायू आदि सृष्टि के देवताओं के प्रति यानि पर्यावरण के प्रति पवित्रता की भावना निर्माण की जा सकती है। हमारा आदर्श भगवान शंकर का कुटुंब है। बच्चा जन्म लेता है तब उसे केवल अधिकार होते हैं। कोई कर्तव्य नहीं होते। किन्तु समाज को यदि सुख शांतिमय जीवन चाहिए हो तो अपने कर्तव्यों और अन्यों के अधिकारों पर बल देना पड़ता है। केवल अधिकार लेकर जिस बच्चे ने जन्म लिया है उसे केवल कर्तव्य हैं और कोई अधिकार नहीं हैं ऐसा मनुष्य बनाना यह भी कुटुंब का ही काम होता है। परिवार के घटक निम्न होते हैं: |
| + | * पति-पत्नि |
| + | * बच्चे |
| + | * माता-पिता |
| + | * भाई-बहन |
| + | * रक्तसम्बंधी |
| + | * पालतू प्राणी |
| + | * देवता/गृहदेवता |
| + | * पर्यावरण |
| + | |
| + | === आश्रम प्रणाली-2: (चार / तीन आश्रम) === |
| + | आश्रम में ‘श्रम’ शब्द है। इसका अर्थ है आजीवन श्रम। आयु की हर अवस्था में परिश्रम तो करना ही है। जन्म, बाल्य, यौवन, वृद्धावस्था और मृत्यू का चक्र अविरत चलता रहता है। मानव बालक जब जन्म लेता है तो वह पूर्णतया परावलंबी होता है। जब वह यौवनावस्था में होता है तब सामर्थ्यवान होता है। फिर जब वृद्धावस्था की ओर बढ़ता है तब उसकी कई क्षमताओं में कमी आती है। वह क्रमश: परावलंबी बनता जाता है। अतः मानव जीवन को मोटे मोटे चार हिस्सों में बांटना उचित होता है। युवावस्था तक का, यौवन का, प्रौढ़ता का और वृद्धावस्था का ऐसे चार विभाग बनते हैं। यौवनावस्थातक के काल में क्षमताएं बढ़ने और बढाने का काल होता है। इस काल में क्षमताएं बढाने से यौवनावस्था में ,वह यौवनावस्था के पूर्वतक के तथा यौवनावस्था के बाद के काल में जो लोग हैं उनका तथा अपना भी जीवन सुख से बीते इस की आश्वस्ति कर सकता है। इसे अनुशासन में बिठाने से आश्रम रचना बनती है। प्रौढ़ता की आयु में मनुष्य की शारीरिक क्षमताएं घटना आरम्भ हो जाता है लेकिन वह ज्ञान और जीवन के अनुभवों से यौवनावस्था समाप्ति तक की आयु के लोगोंं से समृद्ध होता है। इसे वानप्रस्थी कहते हैं। इस आयु में वह प्रौढावस्था से कम आयु के लोगोंं के लिए मार्गदर्शन की भूमिका में होने से जीवन का उन्नयन होता जाता है। इस प्रकार से आश्रम चार बनाते हैं। ये निम्न हैं: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ/ उत्तर गृहस्थ, संन्यास |
| + | |
| + | वर्तमान के अनुसार संन्यास अवस्था तो लगभग लुप्तप्राय हो गई है। अतः अब आयु की अवस्था के अनुसार केवल तीन ही आश्रमों का विचार उचित होगा: |
| + | * ब्रह्मचर्य (२५ वर्ष तक) |
| + | * गृहस्थ (६० वर्षतक) |
| + | * उत्तर गृहस्थ (६० वर्ष से अधिक) |
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| + | === आश्रम प्रणाली-3: ग्राम === |
| + | स्वतंत्रता मानव जीवन का सामाजिक स्तर का लक्ष्य है। परावलंबन से स्वतंत्रता नष्ट हो जाती है। परस्परावलंबन से स्वतंत्रता की मात्रा कम हो जाती है। लेकिन एक सीमा तक स्वतंत्रता की आश्वस्ति हो जाती है। मानव के अधिकतम संभाव्य सामर्थ्य और उसके जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक सामर्थ्य में बहुत अंतर होता है। इस अंतर को वह केवल कुटुंब के रक्तसम्बंधी लोगोंं की सहायता के आधार पर कुछ सीमा तक ही पाट सकता है। आगे उसे परस्परावलंबन का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है। परस्परावलंबी कुटुम्बों के समायोजन से एक सीमा तक स्वावलंबन संभव हो सकता है। व्यक्ति अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति केवल अपने प्रयासों से नहीं कर सकता। केवल दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति भी संभव नहीं है। व्यक्ति की कितनी ही दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति कुटुंब भी नहीं करा सकता। व्यक्ति और परिवार दोनों को समाज के अन्य घटकों पर निर्भर होना ही पड़ता है। यह जैसे समाज के एक व्यक्ति या एक परिवार के लिए लागू है उसी तरह समाज के सभी व्यक्तियों के लिए और सभी कुटुंबों के लिए भी लागू है। सामाजिक स्तर पर जीवन का लक्ष्य स्वतंत्रता होकर भी व्यक्ति या कुटुंब पूर्णत: स्वतन्त्र नहीं रह सकते। कुछ मात्रा में परावलंबन अनिवार्य होता है। अतः सुख से जीने के लिए मनुष्य को और कुटुंबों को स्वतंत्रता और परावलंबन में संतुलन रखना आवश्यक हो जाता है। केवल परावलंबन से परस्परावलंबन में स्वतंत्रता की मात्रा बढ़ जाती है। अतः कुटुंबों में आपस में परस्परावलंबन होना आवश्यक हो जाता है। जैसे जैसे भूक्षेत्र बढ़ता है परस्परावलंबन कठिन होता जाता है। प्राकृतिक संसाधन भी विकेन्द्रित ही होते हैं। अतः न्यूनतम या छोटे से छोटे भूक्षेत्र में रहनेवाले परस्परावलंबी परिवार मिलकर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति के सन्दर्भ में स्वावलंबी समुदाय बनाना उचित होता है। अन्न वस्त्र, मकान, प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य ये मनुष्य की दैनन्दिन आवश्यकताएं हैं। |
| + | |
| + | वास्तव में ऐसे समुदाय को बड़ा कुटुंब भी कहा जा सकता है। ऐसे बड़े कुटुंब को ग्राम कहना उचित होता है। ग्राम शब्द भी ‘गृ’ धातु से बना है। इसका अर्थ भी ‘गृह’ ऐसा ही है। परस्परावलंबी कुटुम्बों के एकत्र आने से जो स्वावलंबी समुदाय बनता है उसे ग्राम कहते हैं। यह आश्रम प्रणाली का तीसरा हिस्सा है। कौटुम्बिक उद्योगों के आधारपर ग्राम स्वावलंबी बनते हैं। आवश्यकताओं और आपूर्ति का मेल बिठाने के लिए कौटुम्बिक उद्योगों को अनुवांशिक बनाने की आवश्यकता होती है। ज्ञान, कला, कौशल आदि की प्राप्ति के लिए पूरा विश्व ही ग्राम होता है। लेकिन जीवन जीने के लिए ग्राम ही पूरा विश्व होता है। ऐसी सोच के कारण समाज पगढ़ीला नहीं हो पाता। पगढ़ीले समाज में कोई श्रेष्ठ संस्कृति पनप नहीं पाती। ग्राम की सीमा भी सुबह घर से निकलकर समाज की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति में अपना योगदान देकर शामतक फिर से अपने घर लौट सके इतनी ही होनी चाहिये। ग्राम की विशेषताएँ निम्न कही जा सकतीं हैं: |
| + | * कुटुंब भावना |
| + | * कौटुम्बिक उद्योग |
| + | * समाज जीवन की स्वावलंबी लघुतम आर्थिक इकाई |
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| + | == उपसंहार == |
| + | संयुक्त परिवार, वर्ण, जाति, ग्रामकुल, राष्ट्र ऐसी प्राकृतिक आवश्यकताओं का आधार लेकर प्रकृति सुसंगत बातों को पुष्ट और धर्मानुकूल बनाने से ही ये प्रणालियाँ ठीक चला रही थीं और राष्ट्र संगठन अब तक टिका हुआ था। लेकिन हमारे दुर्लक्ष के कारण हिंदू समाज का संगठन पूरी तरह से चरमरा रहा है। जिस गति से वर्तमान जीवन का अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान हमें भ्रष्ट और नष्ट कर रहा है उस गति से अधिक गति हमें जीवन के धार्मिक प्रतिमान की प्रतिष्ठापना के कार्य को देनी होगी। यह कठिन बहुत है। लेकिन असंभव तो कतई नहीं है। |
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| ==References== | | ==References== |
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− | <references />अन्य स्रोत: | + | <references /> |
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