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वर्तमान विश्व में प्रमुख रूप से जीवन के दो प्रतिमान अस्तित्व में हैं। एक है धार्मिक  '''प्रतिमान'''। यह अभी सुप्त अवस्था में है। जागृत होने के लिये प्रयत्नशील है।  दूसरा है '''यूरो-अमरिकी प्रतिमान'''। यहूदी, ईसाई और मुस्लिम समाज इस दूसरे प्रतिमान को मानने वाले हैं। इस प्रतिमान ने धार्मिक  समाज के साथ ही विश्व के अन्य सभी समाजों को गहराई से प्रभावित किया है। धार्मिक  समाज छोड कर अन्य सभी समाजों ने इसे सर्वार्थ से या तो अपना लिया है या तेजी से अपना रहे हैं। केवल धार्मिक  समाज ही अपनी आंतरिक शक्ति के आधार पर पुन: जागृत होने के लिये प्रयत्नशील है। इस यूरो-अमरिकी प्रतिमान को मानने वाले दो तबके हैं। यूरो-अमरिकी मजहबी दृष्टि के अनुसार विश्व के निर्माण की मान्यता एक जैसी ही है।  
 
वर्तमान विश्व में प्रमुख रूप से जीवन के दो प्रतिमान अस्तित्व में हैं। एक है धार्मिक  '''प्रतिमान'''। यह अभी सुप्त अवस्था में है। जागृत होने के लिये प्रयत्नशील है।  दूसरा है '''यूरो-अमरिकी प्रतिमान'''। यहूदी, ईसाई और मुस्लिम समाज इस दूसरे प्रतिमान को मानने वाले हैं। इस प्रतिमान ने धार्मिक  समाज के साथ ही विश्व के अन्य सभी समाजों को गहराई से प्रभावित किया है। धार्मिक  समाज छोड कर अन्य सभी समाजों ने इसे सर्वार्थ से या तो अपना लिया है या तेजी से अपना रहे हैं। केवल धार्मिक  समाज ही अपनी आंतरिक शक्ति के आधार पर पुन: जागृत होने के लिये प्रयत्नशील है। इस यूरो-अमरिकी प्रतिमान को मानने वाले दो तबके हैं। यूरो-अमरिकी मजहबी दृष्टि के अनुसार विश्व के निर्माण की मान्यता एक जैसी ही है।  
 
* एक तबका है ईसाईयत के तत्वज्ञान को आधार मानने वाला। इन का तत्वज्ञान निम्न है: येहोवा/गॉड/ अल्ला ने पाँच दिन सृष्टि का निर्माण किया और छठे दिन मानव का निर्माण कर मानव से कहा कि ' यह चर-अचर सृष्टि तुम्हारे उपभोग के लिये है'। यूरो अमरिकी समाज पर फ्रांसिस बेकन और रेने देकार्ते इन दो फिलॉसॉफरों की फिलॉसॉफिी का गहरा प्रभाव है। इन का तत्वज्ञान कहता है कि प्रकृति मानव की दासी है। इसे कस कर अपनी जकड में रखना चाहिये। मानव जम कर इस का शोषण कर सके इसी लिये इस का निर्माण हुआ है। इस लिये प्रकृतिे का मानव ने जम कर (टू द हिल्ट) शोषण करना चाहिये।
 
* एक तबका है ईसाईयत के तत्वज्ञान को आधार मानने वाला। इन का तत्वज्ञान निम्न है: येहोवा/गॉड/ अल्ला ने पाँच दिन सृष्टि का निर्माण किया और छठे दिन मानव का निर्माण कर मानव से कहा कि ' यह चर-अचर सृष्टि तुम्हारे उपभोग के लिये है'। यूरो अमरिकी समाज पर फ्रांसिस बेकन और रेने देकार्ते इन दो फिलॉसॉफरों की फिलॉसॉफिी का गहरा प्रभाव है। इन का तत्वज्ञान कहता है कि प्रकृति मानव की दासी है। इसे कस कर अपनी जकड में रखना चाहिये। मानव जम कर इस का शोषण कर सके इसी लिये इस का निर्माण हुआ है। इस लिये प्रकृतिे का मानव ने जम कर (टू द हिल्ट) शोषण करना चाहिये।
* और दूसरा है यूरो-अमरिकी और उन का अनुसरण करने वाले दार्शनिकों का और साईंटिस्टों का। सेमेटिक मजहबों की याने यहूदी, ईसाई और मुस्लिम समाजों की सृष्टि निर्माण की मान्यताओं को वर्तमान साईंटिस्ट समुदाय ने अयुक्तिसंगत साबित किया है।, लेकिन फिर भी मोटा-मोटी दोनों तबकों का तत्वज्ञान एक ही है।  
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* और दूसरा है यूरो-अमरिकी और उन का अनुसरण करने वाले दार्शनिकों का और साईंटिस्टों का। सेमेटिक मजहबों की याने यहूदी, ईसाई और मुस्लिम समाजों की सृष्टि निर्माण की मान्यताओं को वर्तमान साईंटिस्ट समुदाय ने अयुक्तिसंगत साबित किया है।, लेकिन तथापि मोटा-मोटी दोनों तबकों का तत्वज्ञान एक ही है।  
 
* इस लिये जीवन का प्रतिमान भी एक ही है।  यूरो-अमरिकी साईंटिस्टों और उन का अनुसरण करने वाले धार्मिक  समेत विश्व के सभी साईंटिस्टों की विश्वदृष्टि का आधार '''डार्विन की 'विकास वाद' और मिलर की 'जड़ से रासायनिक प्रक्रिया से जीव निर्माण'''' की परिकल्पनाएं ही हैं। मानव इन रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदों में सर्वश्रेष्ठ है। इस लिये इसे अपने स्वार्थ के लिये अन्य रासायनिक प्रक्रियाएं नष्ट करने का पूरा अधिकार है।
 
* इस लिये जीवन का प्रतिमान भी एक ही है।  यूरो-अमरिकी साईंटिस्टों और उन का अनुसरण करने वाले धार्मिक  समेत विश्व के सभी साईंटिस्टों की विश्वदृष्टि का आधार '''डार्विन की 'विकास वाद' और मिलर की 'जड़ से रासायनिक प्रक्रिया से जीव निर्माण'''' की परिकल्पनाएं ही हैं। मानव इन रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदों में सर्वश्रेष्ठ है। इस लिये इसे अपने स्वार्थ के लिये अन्य रासायनिक प्रक्रियाएं नष्ट करने का पूरा अधिकार है।
 
मजहब या रिलीजन, फिलोसोफेर्स की फिलॉसॉफि और साईंटिस्टों के ऐसे तीनों के प्रभाव के कारण जो अधार्मिक (अधार्मिक) जीवन दृष्टि बनीं है उस के तीन मुख्य पहलू हैं:
 
मजहब या रिलीजन, फिलोसोफेर्स की फिलॉसॉफि और साईंटिस्टों के ऐसे तीनों के प्रभाव के कारण जो अधार्मिक (अधार्मिक) जीवन दृष्टि बनीं है उस के तीन मुख्य पहलू हैं:
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== धार्मिक  तत्वज्ञान और जीवन दृष्टि पर आधारित व्यवहार सूत्र ==
 
== धार्मिक  तत्वज्ञान और जीवन दृष्टि पर आधारित व्यवहार सूत्र ==
धार्मिक  मान्यता के अनुसार कण कण, चर अचर सब परमात्मा के ही रूप हैं : <blockquote>'''एकाकी न रमते'''<nowiki/>', '<nowiki/>'''सो कामयत्'''<nowiki/>',  ''''एकोऽहं बहुस्याम:'''<nowiki/>' ।</blockquote>सारी सृष्टि यह उस परमात्त्व तत्व का ही विस्तार मात्र है। इस लिये सृष्टि के सारे घटक एक दूसरे से 'आत्मीयता' के भाव से जुडे हैं। समाज निर्माण और परस्पर सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों के बारे में श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता, 3.10 एवं 3.11</ref><blockquote>'''सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:'''</blockquote><blockquote>'''अनेन प्रसविश्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक ॥ 3.10 ॥'''</blockquote>अर्थ है - प्रजापति ब्रह्मा ने यज्ञ ( अन्यों के हित के काम) के साथ प्रजा को निर्माण किया और कहा कि परस्पर हित साधते हुए उत्कर्ष (प्रगति) करो। यह है परस्पर सामाजिक संबंधों का आधार। आगे कहा है<blockquote>'''देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:'''</blockquote><blockquote>'''परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ ॥ 3.11 ॥'''</blockquote>अर्थ है - देवताओं ( वायू, वरुण, अग्नि, पृथ्वी आदि यानी पर्यावरण) का पोषण करते हुए नि:स्वार्थ भाव से परस्पर हित साधते हुए परम कल्याण को प्राप्त करो। यह है पर्यावरण से संबंधों का आधार।
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धार्मिक  मान्यता के अनुसार कण कण, चर अचर सब परमात्मा के ही रूप हैं : <blockquote>'''एकाकी न रमते'''<nowiki/>', '<nowiki/>'''सो कामयत्'''<nowiki/>',  ''''एकोऽहं बहुस्याम:'''<nowiki/>' ।</blockquote>सारी सृष्टि यह उस परमात्त्व तत्व का ही विस्तार मात्र है। इस लिये सृष्टि के सारे घटक एक दूसरे से 'आत्मीयता' के भाव से जुड़े हैं। समाज निर्माण और परस्पर सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों के बारे में श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता, 3.10 एवं 3.11</ref><blockquote>'''सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:'''</blockquote><blockquote>'''अनेन प्रसविश्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक ॥ 3.10 ॥'''</blockquote>अर्थ है - प्रजापति ब्रह्मा ने यज्ञ ( अन्यों के हित के काम) के साथ प्रजा को निर्माण किया और कहा कि परस्पर हित साधते हुए उत्कर्ष (प्रगति) करो। यह है परस्पर सामाजिक संबंधों का आधार। आगे कहा है<blockquote>'''देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:'''</blockquote><blockquote>'''परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ ॥ 3.11 ॥'''</blockquote>अर्थ है - देवताओं ( वायू, वरुण, अग्नि, पृथ्वी आदि यानी पर्यावरण) का पोषण करते हुए नि:स्वार्थ भाव से परस्पर हित साधते हुए परम कल्याण को प्राप्त करो। यह है पर्यावरण से संबंधों का आधार।
    
उपर्युक्त तत्वज्ञान पर आधारित धार्मिक  जीवन दृष्टि के सूत्र निम्न हैं:
 
उपर्युक्त तत्वज्ञान पर आधारित धार्मिक  जीवन दृष्टि के सूत्र निम्न हैं:
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राजा की या कभी गणतंत्रात्मक शासन रहा तब भी शासन की जिम्मेदारी धर्माचार्यों द्वारा निर्मित धर्मशास्त्र या समाजशास्त्र के अनुपालन करने की और करवाने की ही रही। धर्म का अनुपालन करने वाला समाज निर्माण करने और उसे धर्माचरणी बनाए रखने के लिये हमारे पूर्वजों ने एक व्यवस्था समूह निर्माण किया था।   
 
राजा की या कभी गणतंत्रात्मक शासन रहा तब भी शासन की जिम्मेदारी धर्माचार्यों द्वारा निर्मित धर्मशास्त्र या समाजशास्त्र के अनुपालन करने की और करवाने की ही रही। धर्म का अनुपालन करने वाला समाज निर्माण करने और उसे धर्माचरणी बनाए रखने के लिये हमारे पूर्वजों ने एक व्यवस्था समूह निर्माण किया था।   
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ऐतिहासिक कारणों से ये व्यवस्थाएं दुर्बल हुईं। काल के प्रवाह में इन में कुछ दोष भी निर्माण हुए। लेकिन फिर भी यह व्यवस्था समूह अंग्रेज शासन भारत में स्थापित हुआ तब तक प्रत्यक्ष अस्तित्व में रहा।  
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ऐतिहासिक कारणों से ये व्यवस्थाएं दुर्बल हुईं। काल के प्रवाह में इन में कुछ दोष भी निर्माण हुए। लेकिन तथापि यह व्यवस्था समूह अंग्रेज शासन भारत में स्थापित हुआ तब तक प्रत्यक्ष अस्तित्व में रहा।  
    
इस व्यवस्था समूह की व्यवस्था के तीन पहलू थे। '''पोषक''' व्यवस्था, '''रक्षक''' व्यवस्था और '''प्रेरक''' व्यवस्था। इन में प्रेरक व्यवस्था तब ही ठीक से काम कर सकती है जब उस के साथ में पोषक और रक्षक व्यवस्था भी काम करती है। इस लिये समाज की सभी व्यवस्थाओं में यह तीनों पहलू विकेंद्रित स्वरूप में ढाले गये थे। प्रेरक यानी शिक्षा व्यवस्था का काम समाज को धर्माचरण सिखाने का था। धार्मिक  प्रतिमान में प्रेरक व्यवस्थाओं को अत्यंत श्रेष्ठ स्थान दिया गया है। समाज के ९०-९५ प्रतिशत लोगोंं को धर्माचरणी बनाना शिक्षा व्यवस्था का काम है। जो ५-१० प्रतिशत लोग इस प्रेरक व्यवस्था के प्रयासों के उपरांत भी अधर्माचरण करते थे, उन के लिये ही शासन व्यवस्था यानी दण्ड विधान की आवश्यकता होती है। यदि प्रेरक और पोषक व्यवस्थाओं के माध्यम से समाज के ९०-९५ प्रतिशत लोगोंं को धर्माचरणी नहीं बनाया गया तो रक्षक व्यवस्था ठीक से काम नहीं कर सकती। यूरो अमरिकी शिक्षा की दस पीढियाँ बीतने के बाद भी यदि अब भी काफी मात्रा में यूरोप या अमरिकी समाजों की तुलना में हम 'पारिवारिक भावना' को अभी तक बचा पाए हैं तो वह अभी भी अपना अस्तित्व बनाए रखने वाली समानान्तर '''शिक्षा व्यवस्था''', '''परिवार व्यवस्था''' और '''समाज व्यवस्था''' आदि के कारण है।  
 
इस व्यवस्था समूह की व्यवस्था के तीन पहलू थे। '''पोषक''' व्यवस्था, '''रक्षक''' व्यवस्था और '''प्रेरक''' व्यवस्था। इन में प्रेरक व्यवस्था तब ही ठीक से काम कर सकती है जब उस के साथ में पोषक और रक्षक व्यवस्था भी काम करती है। इस लिये समाज की सभी व्यवस्थाओं में यह तीनों पहलू विकेंद्रित स्वरूप में ढाले गये थे। प्रेरक यानी शिक्षा व्यवस्था का काम समाज को धर्माचरण सिखाने का था। धार्मिक  प्रतिमान में प्रेरक व्यवस्थाओं को अत्यंत श्रेष्ठ स्थान दिया गया है। समाज के ९०-९५ प्रतिशत लोगोंं को धर्माचरणी बनाना शिक्षा व्यवस्था का काम है। जो ५-१० प्रतिशत लोग इस प्रेरक व्यवस्था के प्रयासों के उपरांत भी अधर्माचरण करते थे, उन के लिये ही शासन व्यवस्था यानी दण्ड विधान की आवश्यकता होती है। यदि प्रेरक और पोषक व्यवस्थाओं के माध्यम से समाज के ९०-९५ प्रतिशत लोगोंं को धर्माचरणी नहीं बनाया गया तो रक्षक व्यवस्था ठीक से काम नहीं कर सकती। यूरो अमरिकी शिक्षा की दस पीढियाँ बीतने के बाद भी यदि अब भी काफी मात्रा में यूरोप या अमरिकी समाजों की तुलना में हम 'पारिवारिक भावना' को अभी तक बचा पाए हैं तो वह अभी भी अपना अस्तित्व बनाए रखने वाली समानान्तर '''शिक्षा व्यवस्था''', '''परिवार व्यवस्था''' और '''समाज व्यवस्था''' आदि के कारण है।  
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* इस मार्गदर्शन का माध्यम '''शिक्षा''' व्यवस्था होती है। इस लिये शिक्षा का या ज्ञानसत्ता का स्थान धर्मसत्ता से नीचे किन्तु शासन की अन्य सत्ताओं से ऊपर का होता है। ब्रह्मचर्य आश्रम, गुरूकुल या विद्याकेन्द्र और कुछ प्रमाण में परिवारों में भी वर्णानुसारी और जीवन के लिये उपयुक्त ऐसे सभी पहलुओं की शिक्षा दी जाती है।   
 
* इस मार्गदर्शन का माध्यम '''शिक्षा''' व्यवस्था होती है। इस लिये शिक्षा का या ज्ञानसत्ता का स्थान धर्मसत्ता से नीचे किन्तु शासन की अन्य सत्ताओं से ऊपर का होता है। ब्रह्मचर्य आश्रम, गुरूकुल या विद्याकेन्द्र और कुछ प्रमाण में परिवारों में भी वर्णानुसारी और जीवन के लिये उपयुक्त ऐसे सभी पहलुओं की शिक्षा दी जाती है।   
 
* लोग जब '''वर्ण''' के अनुसार व्यवहार करते हैं तब समाज '''सुसंस्कृत''' बनता है।  और जब लोग अपनी अपनी '''जाति''' के अनुसार व्यवसाय करते हैं समाज '''समृध्द''' बनता है।   
 
* लोग जब '''वर्ण''' के अनुसार व्यवहार करते हैं तब समाज '''सुसंस्कृत''' बनता है।  और जब लोग अपनी अपनी '''जाति''' के अनुसार व्यवसाय करते हैं समाज '''समृध्द''' बनता है।   
* '''रक्षक''' या निवारक व्यवस्थाएं समाज और व्यक्तियों की संस्कृति और समृध्दि की रक्षा के लिये होती हैं।   
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* '''रक्षक''' या निवारक व्यवस्थाएं समाज और व्यक्तियों की संस्कृति और समृद्धि की रक्षा के लिये होती हैं।   
 
* वर्ण और [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम]] यह व्यवस्थाएं समाज की रचना की व्यवस्थाएं हैं।   
 
* वर्ण और [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम]] यह व्यवस्थाएं समाज की रचना की व्यवस्थाएं हैं।   
 
* परिवार व्यवस्था श्रेष्ठ मानव को जन्म देकर उसे वर्णानुसार संस्कारित करने की व्यवस्था है। यह व्यवस्था पारिवारिक भावना के विकास की भी व्यवस्था है। यह समाज व्यवस्था का लघु-रूप है। सामाजिकता की शिक्षा की नींव डालना परिवार व्यवस्था का काम है। इस कारण इस में पोषक, प्रेरक और रक्षक ऐसी तीनों व्यवस्थाओं का समावेश होता है। इसी प्रकार से जन्म से लेकर मृत्यू पर्यंत तक मनुष्य की बढती और घटती क्षमताओं और योग्यताओं के समायोजन की भी व्यवस्था परिवार में होती है।   
 
* परिवार व्यवस्था श्रेष्ठ मानव को जन्म देकर उसे वर्णानुसार संस्कारित करने की व्यवस्था है। यह व्यवस्था पारिवारिक भावना के विकास की भी व्यवस्था है। यह समाज व्यवस्था का लघु-रूप है। सामाजिकता की शिक्षा की नींव डालना परिवार व्यवस्था का काम है। इस कारण इस में पोषक, प्रेरक और रक्षक ऐसी तीनों व्यवस्थाओं का समावेश होता है। इसी प्रकार से जन्म से लेकर मृत्यू पर्यंत तक मनुष्य की बढती और घटती क्षमताओं और योग्यताओं के समायोजन की भी व्यवस्था परिवार में होती है।   
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सभी व्यवस्थाओं का आधार पारिवारिक भावना होती थी। गुरू और शिष्य के संबंध (शिक्षा क्षेत्र) मानस पिता-पुत्र जैसे होते थे। विद्याकेन्द्र (गुरू) कुल होते थे। एक ही व्यवसाय करने वाले स्पर्धक नहीं जाति बांधव होते थे। गाँव के किसी की भी बेटी गाँव के प्रत्येक की बहन-बेटी होती थी। न्यायाधीश भी आप्तोप्त (अपराधी जैसे अपना आप्त हो) इस भावना से दण्ड देते थे। पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त का दण्डविधान में विशेष महत्व था। प्रजा (अर्थ है संतान) और राजा का संबंध संतान और पिता का सा होता था। हमारे बाजार भी परिवार भावना से चलते थे। वर्तमान प्रतिमान के कारण हमारे परिवार भी बाजार भावना से चलने लग गये हैं।  
 
सभी व्यवस्थाओं का आधार पारिवारिक भावना होती थी। गुरू और शिष्य के संबंध (शिक्षा क्षेत्र) मानस पिता-पुत्र जैसे होते थे। विद्याकेन्द्र (गुरू) कुल होते थे। एक ही व्यवसाय करने वाले स्पर्धक नहीं जाति बांधव होते थे। गाँव के किसी की भी बेटी गाँव के प्रत्येक की बहन-बेटी होती थी। न्यायाधीश भी आप्तोप्त (अपराधी जैसे अपना आप्त हो) इस भावना से दण्ड देते थे। पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त का दण्डविधान में विशेष महत्व था। प्रजा (अर्थ है संतान) और राजा का संबंध संतान और पिता का सा होता था। हमारे बाजार भी परिवार भावना से चलते थे। वर्तमान प्रतिमान के कारण हमारे परिवार भी बाजार भावना से चलने लग गये हैं।  
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शिक्षा व्यवस्था का स्वरूप गुरूकुल का था। अर्थात् पारिवारिक था। इस में वर्ण भी सुनिश्चित किये जाते थे। आगे वर्णानुसारी शिक्षा भी दी जाती थी। समाज के सभी बच्चोंं के लिये यह व्यवस्था उपलब्ध थी। जनसंख्या के बढने से गुरुकुल शिक्षा केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ण के बच्चोंं तक सिमट गई। वैश्य बच्चे अपने परिवारों में और जातिगत व्यवस्थाओं में व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करने लगे। बर्बर आक्रमणों ने और आक्रांताओं ने शिक्षा व्यवस्था को और तोडा। फिर भी एकल विद्यालयों के रूप में अंग्रेज शासन के पूर्व काल तक ५ लाख से भी अधिक संख्या में यह विद्यालय चलते थे। समाज के सभी बच्चोंं की शिक्षा की व्यवस्था इन में थी। शिक्षकों में भी सभी जाति के शिक्षक थे। किन्तु वे सब श्रीमद्बगवद्गीता में वर्णित ब्राह्मण का सा व्यवहार करनेवाले थे। नि;स्वार्थ भाव से नि:शुल्क शिक्षा देते थे। यानी ज्ञानदान करते थे। इस पूरे काल में शिक्षा का आधार, सभी विषयों की विषयवस्तू का आधार परिवार भावना या परस्पर आत्मीयता के संबंध यही रहा। सर्वे भवन्तु सुखिन: यही रहा।  
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शिक्षा व्यवस्था का स्वरूप गुरूकुल का था। अर्थात् पारिवारिक था। इस में वर्ण भी सुनिश्चित किये जाते थे। आगे वर्णानुसारी शिक्षा भी दी जाती थी। समाज के सभी बच्चोंं के लिये यह व्यवस्था उपलब्ध थी। जनसंख्या के बढने से गुरुकुल शिक्षा केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ण के बच्चोंं तक सिमट गई। वैश्य बच्चे अपने परिवारों में और जातिगत व्यवस्थाओं में व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करने लगे। बर्बर आक्रमणों ने और आक्रांताओं ने शिक्षा व्यवस्था को और तोडा। तथापि एकल विद्यालयों के रूप में अंग्रेज शासन के पूर्व काल तक ५ लाख से भी अधिक संख्या में यह विद्यालय चलते थे। समाज के सभी बच्चोंं की शिक्षा की व्यवस्था इन में थी। शिक्षकों में भी सभी जाति के शिक्षक थे। किन्तु वे सब श्रीमद्बगवद्गीता में वर्णित ब्राह्मण का सा व्यवहार करनेवाले थे। नि;स्वार्थ भाव से नि:शुल्क शिक्षा देते थे। यानी ज्ञानदान करते थे। इस पूरे काल में शिक्षा का आधार, सभी विषयों की विषयवस्तू का आधार परिवार भावना या परस्पर आत्मीयता के संबंध यही रहा। सर्वे भवन्तु सुखिन: यही रहा।  
    
== उपसंहार ==
 
== उपसंहार ==
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वर्तमान प्रतिमान में धीरे धीरे धार्मिक  प्रतिमान के कुछ बिन्दू जोड कर इसे धार्मिक  बनाने का प्रयास करने वाले व्यक्ति, संस्थाएं और संगठन लाखों की संख्या में हैं। ये सभी व्यक्ति, संस्थाएं और संगठन पूरी श्रध्दा, समर्पण भाव, और प्रामाणिकता से प्रयास कर रहे हैं। इन प्रयासों के कारण धार्मिक  प्रतिमान को रौंदने की गति कुछ कम भी हुई है, लेकिन बंद नहीं हुई है। ऐसे प्रयासों का प्रारंभ तो १९ वीं सदी के मध्य से ही हो गया था। इन प्रयासों की गति और शक्ति भी निरंतर बढ रही है। लेकिन यूरो-अमरिकी प्रतिमान को मिलने वाली समाज की मान्यता भी इन प्रयासों की अपेक्षाओं के विपरीत, बढती ही जा रही है। अतएव ऐसे प्रयासों से मिलने वाले तात्कालिक और अत्यंत सीमित लाभ के लालच को छोड कर शुध्द रूप से धार्मिक  प्रतिमान की प्रतिष्ठापना के प्रयास करने होंगे। इस परिवर्तन के लिये प्रचंड इच्छाशक्ति, वैचारिक मंथन, और प्रेरक और निवारक शक्ति की आवश्यकता होगी।  
 
वर्तमान प्रतिमान में धीरे धीरे धार्मिक  प्रतिमान के कुछ बिन्दू जोड कर इसे धार्मिक  बनाने का प्रयास करने वाले व्यक्ति, संस्थाएं और संगठन लाखों की संख्या में हैं। ये सभी व्यक्ति, संस्थाएं और संगठन पूरी श्रध्दा, समर्पण भाव, और प्रामाणिकता से प्रयास कर रहे हैं। इन प्रयासों के कारण धार्मिक  प्रतिमान को रौंदने की गति कुछ कम भी हुई है, लेकिन बंद नहीं हुई है। ऐसे प्रयासों का प्रारंभ तो १९ वीं सदी के मध्य से ही हो गया था। इन प्रयासों की गति और शक्ति भी निरंतर बढ रही है। लेकिन यूरो-अमरिकी प्रतिमान को मिलने वाली समाज की मान्यता भी इन प्रयासों की अपेक्षाओं के विपरीत, बढती ही जा रही है। अतएव ऐसे प्रयासों से मिलने वाले तात्कालिक और अत्यंत सीमित लाभ के लालच को छोड कर शुध्द रूप से धार्मिक  प्रतिमान की प्रतिष्ठापना के प्रयास करने होंगे। इस परिवर्तन के लिये प्रचंड इच्छाशक्ति, वैचारिक मंथन, और प्रेरक और निवारक शक्ति की आवश्यकता होगी।  
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जिस प्रकार अपनी शिक्षा प्रणाली को भारत में स्थापित करने के लिये अंग्रेजों ने यहाँ की शासन प्रणाली, कर प्रणाली, अर्थ व्यवस्था, न्याय व्यवस्था आदि को नष्ट कर धार्मिक  समाज में वैकल्पिक व्यवस्थाओं की माँग निर्माण की। शायद ऐसा ही कुछ हमें भी करना होगा। विनोबा भावे ने शिक्षा को धार्मिक  बनाने की दृष्टि से ऐसे ही प्रयोग का सुझाव दिया था। उन की सूचना को गंभीरता से लेने का समय आ गया है।  
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जिस प्रकार अपनी शिक्षा प्रणाली को भारत में स्थापित करने के लिये अंग्रेजों ने यहाँ की शासन प्रणाली, कर प्रणाली, अर्थ व्यवस्था, न्याय व्यवस्था आदि को नष्ट कर धार्मिक  समाज में वैकल्पिक व्यवस्थाओं की माँग निर्माण की। संभवतः ऐसा ही कुछ हमें भी करना होगा। विनोबा भावे ने शिक्षा को धार्मिक  बनाने की दृष्टि से ऐसे ही प्रयोग का सुझाव दिया था। उन की सूचना को गंभीरता से लेने का समय आ गया है।  
 
==References==
 
==References==
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]]
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratimaan Paathykram]]

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