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१४. नवरात्रि जैसे उत्सवों में दिखाई देने वाली उच्छृंखलता और उत्सव समाप्ति के बाद बढ़ते हुए गर्भपात की मात्रा सांस्कृतिक अधःपतन का लक्षण है। ये उत्सव धार्मिक और सांस्कृतिक हैं । इनका वैसा ही पवित्र स्वरूप बनाये रखने का दायित्व सामाजिक संस्थाओं तथा शिक्षासंस्थाओं का है ।
 
१४. नवरात्रि जैसे उत्सवों में दिखाई देने वाली उच्छृंखलता और उत्सव समाप्ति के बाद बढ़ते हुए गर्भपात की मात्रा सांस्कृतिक अधःपतन का लक्षण है। ये उत्सव धार्मिक और सांस्कृतिक हैं । इनका वैसा ही पवित्र स्वरूप बनाये रखने का दायित्व सामाजिक संस्थाओं तथा शिक्षासंस्थाओं का है ।
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१५. सार्वजनिक कार्यों की व्यवस्थाओं के लिये सरकार को जितनी कम व्यवस्था करनी पडे उतना अच्छा है । उदाहरण के लिये इन दिनों तीर्थस्थानों के लिये पदयात्रियों की संख्या में बहुत बढोतरी हुई है । उनके यात्रा मार्गों पर भोजन विश्रान्ति की सेवा हेतु अनेक लोग व्यक्तिगत रूप में या समूह बनाकर कार्य करते हैं । उसी प्रकार से प्रचलित यात्राओं, शोभायात्राओं की सेवा और सुरक्षा हेतु लोग स्वेच्छा से आगे आयें इस प्रकार का आयोजन और प्रबोधन सामाजिक संस्थाओं को करना चाहिये ।
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१५. सार्वजनिक कार्यों की व्यवस्थाओं के लिये सरकार को जितनी कम व्यवस्था करनी पड़े उतना अच्छा है । उदाहरण के लिये इन दिनों तीर्थस्थानों के लिये पदयात्रियों की संख्या में बहुत बढोतरी हुई है । उनके यात्रा मार्गों पर भोजन विश्रान्ति की सेवा हेतु अनेक लोग व्यक्तिगत रूप में या समूह बनाकर कार्य करते हैं । उसी प्रकार से प्रचलित यात्राओं, शोभायात्राओं की सेवा और सुरक्षा हेतु लोग स्वेच्छा से आगे आयें इस प्रकार का आयोजन और प्रबोधन सामाजिक संस्थाओं को करना चाहिये ।
    
१६. एक और निर्धन, असंस्कारी और दूसरी ओर अति धनवान और असंस्कारी युवक लडकियों को छेडते हैं । इन पर पुलीस की या न्यायालय की खास कुछ नहीं चलती । इन पर नियन्त्रण करना, उन्हें ऐसे कामों से परावृत्त करना भी सामाजिक संस्थाओं का काम है ।
 
१६. एक और निर्धन, असंस्कारी और दूसरी ओर अति धनवान और असंस्कारी युवक लडकियों को छेडते हैं । इन पर पुलीस की या न्यायालय की खास कुछ नहीं चलती । इन पर नियन्त्रण करना, उन्हें ऐसे कामों से परावृत्त करना भी सामाजिक संस्थाओं का काम है ।
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२४. आज विश्व में भारत की गणना युवा देश के रूप में हो रही है । युवा देश की सम्पदा है । परन्तु इस सम्पदा को अकर्मण्यता, अज्ञान और असंस्कारिता का ग्रहण लग गया है । इससे बचने हेतु उपाय करने की आवश्यकता है ।
 
२४. आज विश्व में भारत की गणना युवा देश के रूप में हो रही है । युवा देश की सम्पदा है । परन्तु इस सम्पदा को अकर्मण्यता, अज्ञान और असंस्कारिता का ग्रहण लग गया है । इससे बचने हेतु उपाय करने की आवश्यकता है ।
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२५. घटती हुई जननक्षमता, बडी आयु में विवाह, परिवार संस्था का विघटन, जन्म लेने वाले बच्चों को जन्म से ही दुर्बल बना रहे हैं । शारीरिक और मानसिक दुर्बलता के साथ जन्मे हुए बच्चों को कोई वैद्य बलवान तथा निरोगी, कोई शिक्षक बुद्धिमान और कोई सन्त सज्जन नहीं बना सकता । इस दृष्टि से वर्तमान किशोर और युवावस्था के लड़के और लड़कियों के विकास की चिन्ता करनी चाहिये ।
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२५. घटती हुई जननक्षमता, बडी आयु में विवाह, परिवार संस्था का विघटन, जन्म लेने वाले बच्चोंं को जन्म से ही दुर्बल बना रहे हैं । शारीरिक और मानसिक दुर्बलता के साथ जन्मे हुए बच्चोंं को कोई वैद्य बलवान तथा निरोगी, कोई शिक्षक बुद्धिमान और कोई सन्त सज्जन नहीं बना सकता । इस दृष्टि से वर्तमान किशोर और युवावस्था के लड़के और लड़कियों के विकास की चिन्ता करनी चाहिये ।
    
२६. देश की संसद जिस प्रकार से चलती है और उसे टी.वी. पर दिखाया जाता है वह किसी के भी लिये प्रेरणादायी नहीं हो सकता । वास्तव में सभा के शिष्टाचार तो प्राचीन काल से हमारे देश में सिखाये जाते रहे हैं। सभा के शिष्टाचार के भंग को
 
२६. देश की संसद जिस प्रकार से चलती है और उसे टी.वी. पर दिखाया जाता है वह किसी के भी लिये प्रेरणादायी नहीं हो सकता । वास्तव में सभा के शिष्टाचार तो प्राचीन काल से हमारे देश में सिखाये जाते रहे हैं। सभा के शिष्टाचार के भंग को
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३९, जिसका पैसा हमें खर्च नहीं करना पडा है ऐसी सामग्री का अपव्यय करने में जरा भी विचार नहीं करना भी स्वाभाविक बन गया है । किसी भी सामग्री का अपव्यय नहीं करना नैतिकता है । हमारे सभी शास्त्र यह सिखाते हैं । परन्तु यह आदत छूटती नहीं है । अब तो हम पैसे खर्च करके लाये हैं ऐसी सामग्री का भी अपव्यय होता है । यह व्यक्तिगत स्वभाव से आगे अब संस्थागत स्वभाव बन गया है । एक पेन की आवश्यकता है परन्तु दो लाना, पाँच छायाप्रतियों की आवश्यकता है परन्तु आठ करवाना आदि असंख्य बातों में अपव्यय दिखाई देता है । प्रजा की समृद्धि का इससे हास होता है । संस्थाओं की कार्यपद्धति में बदल करने की आवश्यकता है और विद्यालयों में और घरों में इसे सिखाने की आवश्यकता है ।
 
३९, जिसका पैसा हमें खर्च नहीं करना पडा है ऐसी सामग्री का अपव्यय करने में जरा भी विचार नहीं करना भी स्वाभाविक बन गया है । किसी भी सामग्री का अपव्यय नहीं करना नैतिकता है । हमारे सभी शास्त्र यह सिखाते हैं । परन्तु यह आदत छूटती नहीं है । अब तो हम पैसे खर्च करके लाये हैं ऐसी सामग्री का भी अपव्यय होता है । यह व्यक्तिगत स्वभाव से आगे अब संस्थागत स्वभाव बन गया है । एक पेन की आवश्यकता है परन्तु दो लाना, पाँच छायाप्रतियों की आवश्यकता है परन्तु आठ करवाना आदि असंख्य बातों में अपव्यय दिखाई देता है । प्रजा की समृद्धि का इससे हास होता है । संस्थाओं की कार्यपद्धति में बदल करने की आवश्यकता है और विद्यालयों में और घरों में इसे सिखाने की आवश्यकता है ।
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४०. हम मानते हैं कि मोबाईल, यातायात के साधन आदि के कारण अब सम्पर्क सरल हो गया है परन्तु वास्तव में हम देखते हैं कि हमारी गैरजिम्मेदारी ही बढ़ी है । किसी कार्यक्रम की सूचना पहले केवल मौखिक अथवा केवल पोस्टकार्ड से देने पर भी मिल जाती थी और उसका पालन भी होता था । आज मोबाइल और इण्टरनेट होने पर भी बार बार सूचना देनी पढ़ती है और फिर भी उसका पालन नहीं होता । सुविधा ने हमारा कृतित्व शिथिल बना दिया है ।
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४०. हम मानते हैं कि मोबाईल, यातायात के साधन आदि के कारण अब सम्पर्क सरल हो गया है परन्तु वास्तव में हम देखते हैं कि हमारी गैरजिम्मेदारी ही बढ़ी है । किसी कार्यक्रम की सूचना पहले केवल मौखिक अथवा केवल पोस्टकार्ड से देने पर भी मिल जाती थी और उसका पालन भी होता था । आज मोबाइल और इण्टरनेट होने पर भी बार बार सूचना देनी पढ़ती है और तथापि उसका पालन नहीं होता । सुविधा ने हमारा कृतित्व शिथिल बना दिया है ।
    
४१. विवाह समारोहों में भोजन की व्यवस्था के सम्बन्ध में पुनर्विचार करने की बहुत आवश्यकता है । भोजन पदार्थों की संख्या और विविधता इतनी अधिक होती है कि एक व्यक्ति इन सबका एक एक कौर भी नहीं खा सकता । संस्कार , स्वास्थ्य और पैसा, तीनों के लिये यह हानिकारक है । परन्तु एक ने किया तो उसकी आलोचना होने के स्थान पर दूसरों ने करना आरम्भ किया । यह तो सामाजिक शिक्षा का बहुत बड़ा विषय है । लोकशिक्षा का दायित्व जिनका है उन्होंने यह सिखाना चाहिये...
 
४१. विवाह समारोहों में भोजन की व्यवस्था के सम्बन्ध में पुनर्विचार करने की बहुत आवश्यकता है । भोजन पदार्थों की संख्या और विविधता इतनी अधिक होती है कि एक व्यक्ति इन सबका एक एक कौर भी नहीं खा सकता । संस्कार , स्वास्थ्य और पैसा, तीनों के लिये यह हानिकारक है । परन्तु एक ने किया तो उसकी आलोचना होने के स्थान पर दूसरों ने करना आरम्भ किया । यह तो सामाजिक शिक्षा का बहुत बड़ा विषय है । लोकशिक्षा का दायित्व जिनका है उन्होंने यह सिखाना चाहिये...
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४३. बस या रेल में, या अन्यत्र कहीं पर भी वृद्ध, अशक्त, बच्चों या महिलाओं के लिये अपनी बैठक देना, किसी महिला या वृद्ध का सामान उठाना, किसी को सहायता करना आदि बातें भी कम हो गई हैं । ये सब कानून नहीं हैं, अच्छाई है । यह स्वेच्छा से ही होना चाहिये, दबाव से नहीं । परन्तु अब ये शिक्षा के विषय बन गये हैं । जब बन ही गये हैं तो शिक्षासंस्थाओं ने इन्हें अपने विषय बनाना भी चाहिये ।
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४३. बस या रेल में, या अन्यत्र कहीं पर भी वृद्ध, अशक्त, बच्चोंं या महिलाओं के लिये अपनी बैठक देना, किसी महिला या वृद्ध का सामान उठाना, किसी को सहायता करना आदि बातें भी कम हो गई हैं । ये सब कानून नहीं हैं, अच्छाई है । यह स्वेच्छा से ही होना चाहिये, दबाव से नहीं । परन्तु अब ये शिक्षा के विषय बन गये हैं । जब बन ही गये हैं तो शिक्षासंस्थाओं ने इन्हें अपने विषय बनाना भी चाहिये ।
    
४४. हमारे सामाजिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों में इवेण्ट मैनेजमेण्ट का प्रचलन धीरे धीरे बढ रहा है । अपने घर में बच्चे का जन्मदिन है तो पूरे के पूरे कार्यक्रम का ही ठेका देना, पुरस्कार वितरण समारोह है तो पूरा का पूरा किसी व्यवसायिक समूह को देना, विवाह में गीत गाने के लिये गायकवृन्द को बुलाना आदि बातें हो रही हैं । कार्यक्रम का संचालन करने के लिये पैसे देकर किसी को बुलाना भी सामान्य हो गया 2 | स्वयं के आनन्द की, भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिये गीत गाना कर्मकाण्ड बन गया, काम की कुशलता और काम करने में आनन्द हमने गँवा दिया, हमारा काम के साथ का आन्तरिक सम्बन्ध छूट गया । इससे हमारा मानसिक खालीपन ही बढता है, समाज की अकर्मण्यता बढती है, जीवन कृत्रिम और रसहीन बन जाता है । हृदयशूत्यता बढती है । हमें पुनः काम करने के आनन्द को कृति और अनुभव के दायरे में लाने की महती आवश्यकता है ।
 
४४. हमारे सामाजिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों में इवेण्ट मैनेजमेण्ट का प्रचलन धीरे धीरे बढ रहा है । अपने घर में बच्चे का जन्मदिन है तो पूरे के पूरे कार्यक्रम का ही ठेका देना, पुरस्कार वितरण समारोह है तो पूरा का पूरा किसी व्यवसायिक समूह को देना, विवाह में गीत गाने के लिये गायकवृन्द को बुलाना आदि बातें हो रही हैं । कार्यक्रम का संचालन करने के लिये पैसे देकर किसी को बुलाना भी सामान्य हो गया 2 | स्वयं के आनन्द की, भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिये गीत गाना कर्मकाण्ड बन गया, काम की कुशलता और काम करने में आनन्द हमने गँवा दिया, हमारा काम के साथ का आन्तरिक सम्बन्ध छूट गया । इससे हमारा मानसिक खालीपन ही बढता है, समाज की अकर्मण्यता बढती है, जीवन कृत्रिम और रसहीन बन जाता है । हृदयशूत्यता बढती है । हमें पुनः काम करने के आनन्द को कृति और अनुभव के दायरे में लाने की महती आवश्यकता है ।
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प्रदूषण है । विज्ञापन के कारण ग्राहक को वस्तु महँगी मिलती है और नहीं चाहिये ऐसी वस्तु भी खरीद करने का मोह होता है । विज्ञापनों में स्त्रियों और बच्चों का साधन के रूप में उपयोग होता है । विज्ञापन देखनेवालों में भी खियाँ और बच्चे ही अधिक प्रभावित होते हैं । अपनी ही वस्तु की प्रशंसा नहीं करना संस्कारिता है । इस संस्कारिता का भी हास होता है । इस विज्ञापन बाजी को आर्थिक और सांस्कृतिक अनिष्ट के रूप में देखकर उस पर नियन्त्रण लाने हेतु सरकार, धर्मक्षेत्र और शिक्षाक्षेत्र तीनों ने मिलकर विचार करना चाहिये ।
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प्रदूषण है । विज्ञापन के कारण ग्राहक को वस्तु महँगी मिलती है और नहीं चाहिये ऐसी वस्तु भी खरीद करने का मोह होता है । विज्ञापनों में स्त्रियों और बच्चोंं का साधन के रूप में उपयोग होता है । विज्ञापन देखनेवालों में भी खियाँ और बच्चे ही अधिक प्रभावित होते हैं । अपनी ही वस्तु की प्रशंसा नहीं करना संस्कारिता है । इस संस्कारिता का भी हास होता है । इस विज्ञापन बाजी को आर्थिक और सांस्कृतिक अनिष्ट के रूप में देखकर उस पर नियन्त्रण लाने हेतु सरकार, धर्मक्षेत्र और शिक्षाक्षेत्र तीनों ने मिलकर विचार करना चाहिये ।
    
५०. हमारे विद्यालयों और कार्यालयों के भवन चौबीस में से पन्‍्द्रह से सोलह घण्टे खाली रहते हैं । इतने बड़े बड़े भवन बिना उपयोग के रहना आर्थिक दृष्टि से कैसे न्यायपूर्ण हो सकता है ? हमारे निवास और कार्यालयों और विद्यालयों की दूरी हमारे समय का कितना अपव्यय करती है ? इस दूरी के लिये वाहन चाहिये, यातायात की व्यवस्था चाहिये । इससे भीड, कोलाहल, प्रदूषण, गर्मी, संसाधनों का हास, मनः्शान्ति का हास, भागदौड़ आदि में कितनी वृद्धि होती है । क्या हम समझदारीपूर्वक इस समस्या का हल नहीं निकाल सकते ? यह तो अनुत्पादक और विनाशक वृत्ति प्रवृत्ति है ।
 
५०. हमारे विद्यालयों और कार्यालयों के भवन चौबीस में से पन्‍्द्रह से सोलह घण्टे खाली रहते हैं । इतने बड़े बड़े भवन बिना उपयोग के रहना आर्थिक दृष्टि से कैसे न्यायपूर्ण हो सकता है ? हमारे निवास और कार्यालयों और विद्यालयों की दूरी हमारे समय का कितना अपव्यय करती है ? इस दूरी के लिये वाहन चाहिये, यातायात की व्यवस्था चाहिये । इससे भीड, कोलाहल, प्रदूषण, गर्मी, संसाधनों का हास, मनः्शान्ति का हास, भागदौड़ आदि में कितनी वृद्धि होती है । क्या हम समझदारीपूर्वक इस समस्या का हल नहीं निकाल सकते ? यह तो अनुत्पादक और विनाशक वृत्ति प्रवृत्ति है ।
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६१. भारतीय परम्परा के अनुसार जो काम सामाजिक स्तर पर होना उचित और आवश्यक माना जाता रहा है वे अब अधिकाधिक मात्रा में सरकार को करने पड रहे हैं । उदाहरण के लिये समाज में कोई भूखा न रहे, कोई अशिक्षित न रहे, कोई बेरोजगार न रहे यह देखने का दायित्व समाज का है, सरकार का नहीं । इस दृष्टि से एक ओर अन्न्सत्र, सदाव्रत या भण्डारा चलना और दूसरी ओर अधथर्जिन के अवसर देकर मुक्त में नहीं खाने की प्रेरणा देना ऐसे दोनों काम एक साथ किये जाते थे । वानप्रस्थों की जिम्मेदारी है कि समाज में कोई अशिक्षित और असंस्कारी न रहे । मन्दिरों की जिम्मेदारी है कि कोई अनाश्रित न रहे । यात्रियों के लिये धर्मशाला, प्याऊ, अन्नसत्र आदि के होते होटलों की भी आवश्यकता नहीं और सरकार पर भी बोझ नहीं । ऐसी समाज की जिम्मेदारी आज सरकार पर चली गई है । वास्तव में वानप्रस्थियों ने मिलकर इस बात का विचार करना चाहिये और शीघ्र ही उचित परिवर्तन करना चाहिये ।
 
६१. भारतीय परम्परा के अनुसार जो काम सामाजिक स्तर पर होना उचित और आवश्यक माना जाता रहा है वे अब अधिकाधिक मात्रा में सरकार को करने पड रहे हैं । उदाहरण के लिये समाज में कोई भूखा न रहे, कोई अशिक्षित न रहे, कोई बेरोजगार न रहे यह देखने का दायित्व समाज का है, सरकार का नहीं । इस दृष्टि से एक ओर अन्न्सत्र, सदाव्रत या भण्डारा चलना और दूसरी ओर अधथर्जिन के अवसर देकर मुक्त में नहीं खाने की प्रेरणा देना ऐसे दोनों काम एक साथ किये जाते थे । वानप्रस्थों की जिम्मेदारी है कि समाज में कोई अशिक्षित और असंस्कारी न रहे । मन्दिरों की जिम्मेदारी है कि कोई अनाश्रित न रहे । यात्रियों के लिये धर्मशाला, प्याऊ, अन्नसत्र आदि के होते होटलों की भी आवश्यकता नहीं और सरकार पर भी बोझ नहीं । ऐसी समाज की जिम्मेदारी आज सरकार पर चली गई है । वास्तव में वानप्रस्थियों ने मिलकर इस बात का विचार करना चाहिये और शीघ्र ही उचित परिवर्तन करना चाहिये ।
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६२. आज वृद्धों को सिनियर सिटिझन्स अर्थात्‌ वरिष्ठ नागरिक कहा जाता है। उन्हें वानप्रस्थी भी कह सकते हैं। वानप्रस्थी कहते ही उसका अर्थ बदलजाता है । वानप्रस्थी सदा अपने कल्याण और समाजसेवा का विचार करता है । आज वानप्रस्थियों ने छोटे छोटे समूह बनाने चाहिये । प्रारम्भ में तो स्वाध्याय करना चाहिये । चिन्तन करना चाहिये । दूसरा समाजप्रबोधन का कार्य करना चाहिये । हर परिवार को दिन में एक घण्टा अथवा सप्ताह में एक दिन अर्थात्‌ चार या पाँच घण्टे ऐसे काम में देने चाहिये जिससे कोई भी भौतिक लाभ मिलता न हो । उदाहरण के लिये शिक्षित व्यक्ति बच्चों को पढ़ाने का और संस्कार देने का काम कर सकते हैं । मातापिता अपने बच्चे को प्रतिदिन ऐसे काम में ae करे जिसमें विद्यालय की पढाई, किसी भी प्रकार की परीक्षा या अन्य कोई भौतिक लाभ न हो । वानप्रस्थी उन्हें स्वदेशी, देशभक्ति, अच्छाई आदि बातों का महत्त्व समझायें । इस प्रकार सामाजिकता के प्रति अनुकूल मानस बनाने के प्रयास करने चाहिये ।
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६२. आज वृद्धों को सिनियर सिटिझन्स अर्थात्‌ वरिष्ठ नागरिक कहा जाता है। उन्हें वानप्रस्थी भी कह सकते हैं। वानप्रस्थी कहते ही उसका अर्थ बदलजाता है । वानप्रस्थी सदा अपने कल्याण और समाजसेवा का विचार करता है । आज वानप्रस्थियों ने छोटे छोटे समूह बनाने चाहिये । प्रारम्भ में तो स्वाध्याय करना चाहिये । चिन्तन करना चाहिये । दूसरा समाजप्रबोधन का कार्य करना चाहिये । हर परिवार को दिन में एक घण्टा अथवा सप्ताह में एक दिन अर्थात्‌ चार या पाँच घण्टे ऐसे काम में देने चाहिये जिससे कोई भी भौतिक लाभ मिलता न हो । उदाहरण के लिये शिक्षित व्यक्ति बच्चोंं को पढ़ाने का और संस्कार देने का काम कर सकते हैं । मातापिता अपने बच्चे को प्रतिदिन ऐसे काम में ae करे जिसमें विद्यालय की पढाई, किसी भी प्रकार की परीक्षा या अन्य कोई भौतिक लाभ न हो । वानप्रस्थी उन्हें स्वदेशी, देशभक्ति, अच्छाई आदि बातों का महत्त्व समझायें । इस प्रकार सामाजिकता के प्रति अनुकूल मानस बनाने के प्रयास करने चाहिये ।
    
६३. जो मुफ्त में मिलता है वह निकृष्ट होता है ऐसा कहने का प्रचलन तो बढ़ा है परन्तु मुफ्त में वस्तु प्राप्त करने का आकर्षण भी बढ़ा है । किसी वस्तु की “सेल' लगती है तब, जब एक के ऊपर एक मुफ्त वस्तु मिलती है तब, किसी वस्तु पर रियायत मिलती है तब बिना विचार किये लोग उस पर टूट पड़ते हैं । दूसरे के पैसे से यात्रा करना अच्छा लगता है, सरकारी गाड़ी में बिना अधिकार यात्रा करना अच्छा लगता है, रेल या बस में जाँच नहीं होगी ऐसा कहा
 
६३. जो मुफ्त में मिलता है वह निकृष्ट होता है ऐसा कहने का प्रचलन तो बढ़ा है परन्तु मुफ्त में वस्तु प्राप्त करने का आकर्षण भी बढ़ा है । किसी वस्तु की “सेल' लगती है तब, जब एक के ऊपर एक मुफ्त वस्तु मिलती है तब, किसी वस्तु पर रियायत मिलती है तब बिना विचार किये लोग उस पर टूट पड़ते हैं । दूसरे के पैसे से यात्रा करना अच्छा लगता है, सरकारी गाड़ी में बिना अधिकार यात्रा करना अच्छा लगता है, रेल या बस में जाँच नहीं होगी ऐसा कहा
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आइआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों के विद्यार्थियों का विदेशगमन आदि शिक्षाक्षेत्र के सामाजिक अपराध हैं। जो प्राथमिक विद्यालय निःशुल्क शिक्षा देता है, जो सौ रूपये शुल्क लेता है और जो दसहजार लेता है उनके कक्षा एकके पाठ्यक्रम क्या अलग होते हैं ? क्या अलग पद्धति a ued जाते हैं ? क्या महँगी सामग्री का प्रयोग करने से अधिक अच्छा पढ़ा जाता है ? शिक्षा और पैसे का इतना बेहूदा सम्बन्ध जोड़ना समाज को कभी भी मान्य नहीं होना चाहिये | ज्ञानप्राप्ति के लिये गरीब और अमीर में कोई अन्तर ही नहीं होना चाहिये । दोनों को साथ बैठकर पढ़ना चाहिये । विद्यालयों ने दोनों को समान मानना चाहिये । दोनों को समान रूप से. संस्कारवान,. साफसुथरे, आचारवान, बुद्धिमान और सदूगुणी बनाना चाहिये । आज अच्छे घर के लोग अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में इसलिये भेजना नहीं चाहते क्योंकि उनमें पिछड़ी बस्तियों के बच्चे आते हैं । यह मानसिक और व्यावहारिक अन्तर पाटने का काम समाजहितैषी लोगोंं को करना चाहिये ।
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आइआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों के विद्यार्थियों का विदेशगमन आदि शिक्षाक्षेत्र के सामाजिक अपराध हैं। जो प्राथमिक विद्यालय निःशुल्क शिक्षा देता है, जो सौ रूपये शुल्क लेता है और जो दसहजार लेता है उनके कक्षा एकके पाठ्यक्रम क्या अलग होते हैं ? क्या अलग पद्धति a ued जाते हैं ? क्या महँगी सामग्री का प्रयोग करने से अधिक अच्छा पढ़ा जाता है ? शिक्षा और पैसे का इतना बेहूदा सम्बन्ध जोड़ना समाज को कभी भी मान्य नहीं होना चाहिये | ज्ञानप्राप्ति के लिये गरीब और अमीर में कोई अन्तर ही नहीं होना चाहिये । दोनों को साथ बैठकर पढ़ना चाहिये । विद्यालयों ने दोनों को समान मानना चाहिये । दोनों को समान रूप से. संस्कारवान,. साफसुथरे, आचारवान, बुद्धिमान और सदूगुणी बनाना चाहिये । आज अच्छे घर के लोग अपने बच्चोंं को सरकारी विद्यालयों में इसलिये भेजना नहीं चाहते क्योंकि उनमें पिछड़ी बस्तियों के बच्चे आते हैं । यह मानसिक और व्यावहारिक अन्तर पाटने का काम समाजहितैषी लोगोंं को करना चाहिये ।
    
सामाजिक व्यवहार
 
सामाजिक व्यवहार
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७०, सामाजिक स्तर पर सम्बन्धों की आज लगभग कोई व्यवस्था नहीं है । हमने वर्ण, जाति, सम्प्रदाय आदि का तो त्याग कर दिया परन्तु उनके स्थान पर कोई व्यवस्था नहीं बनाई । पुरानी व्यवस्थाओं को छोडने Ho afer दृष्टि से तो कोई आपत्ति नहीं होती | पर्यायी व्यवस्था के अभाव में व्यावहारिक स्तर पर कठिनाई होती है । आज वैसी ही कठिनाई हो रही है। एक ही सन्तान को जन्म देने के आग्रह के कारण पारिवारिक सम्बन्धों का दायरा छोटा हो रहा है। दो पीढ़ियाँ साथ साथ नहीं रहने के कारण भी पारिवारिक सम्बन्धों की व्यवस्था गडबडा गई है । उस स्थिति में परिवार के बाहर सामाजिक सम्बन्धों की भी कोई व्यवस्था नहीं होना अनेक प्रकार की मानसिक और व्यावहारिक परेशानियों को जन्म देता है । हमने क्लबों, वृद्धाश्रमों , महिला मण्डलों जैसी व्यवस्थायें बनाना आरम्भ तो किया है परन्तु एक तो वे अभी बहुत ही प्राथमिक स्वरूप की हैं और दूसरे, वे विकसित होकर भी सम्बन्ध नहीं निर्माण कर सकतीं । फिर भी हम कह सकते हैं कि किसी प्रकार की सम्बन्धों की व्यवस्थायें तो हमें करनी ही चाहिये । नहीं तो सामाजिक संगठन तो होगा नहीं उल्टे विघटन को गति मिलेगी ।
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७०, सामाजिक स्तर पर सम्बन्धों की आज लगभग कोई व्यवस्था नहीं है । हमने वर्ण, जाति, सम्प्रदाय आदि का तो त्याग कर दिया परन्तु उनके स्थान पर कोई व्यवस्था नहीं बनाई । पुरानी व्यवस्थाओं को छोडने Ho afer दृष्टि से तो कोई आपत्ति नहीं होती | पर्यायी व्यवस्था के अभाव में व्यावहारिक स्तर पर कठिनाई होती है । आज वैसी ही कठिनाई हो रही है। एक ही सन्तान को जन्म देने के आग्रह के कारण पारिवारिक सम्बन्धों का दायरा छोटा हो रहा है। दो पीढ़ियाँ साथ साथ नहीं रहने के कारण भी पारिवारिक सम्बन्धों की व्यवस्था गडबडा गई है । उस स्थिति में परिवार के बाहर सामाजिक सम्बन्धों की भी कोई व्यवस्था नहीं होना अनेक प्रकार की मानसिक और व्यावहारिक परेशानियों को जन्म देता है । हमने क्लबों, वृद्धाश्रमों , महिला मण्डलों जैसी व्यवस्थायें बनाना आरम्भ तो किया है परन्तु एक तो वे अभी बहुत ही प्राथमिक स्वरूप की हैं और दूसरे, वे विकसित होकर भी सम्बन्ध नहीं निर्माण कर सकतीं । तथापि हम कह सकते हैं कि किसी प्रकार की सम्बन्धों की व्यवस्थायें तो हमें करनी ही चाहिये । नहीं तो सामाजिक संगठन तो होगा नहीं उल्टे विघटन को गति मिलेगी ।
    
७१. सामाजिक सम्बन्ध निर्माण करने हेतु हम व्यवसायों का आधार ले सकते हैं क्योंकि वही एक बात ऐसी है जो हम परिवार से बाहर जाकर करते हैं । एक व्यवसाय करने वालों के यदि समूह बनते हैं और उनमें सामाजिक सम्बन्ध विकसित होते हैं तो व्यावहारिक और मानसिक दोनों प्रकार से आत्मीयता और परस्पर सहयोग की भावना बढ़ेगी । सामाजिक सम्बन्ध व्यावसायिक सम्बन्धों से थोड़े अधिक अन्तरंग होते हैं । जैसे कि आपस में मैत्री होना, एकदूसरे के घर आनाजाना, विवाह आदि पारिवारिक समारोहों में सम्मिलित होना, पारिवारिक सुखदुःखों में सहभागी होना आदि से सामाजिक सम्बन्ध बनते हैं । यह एक मनोवैज्ञानिक सुरक्षा व्यवस्था है ।
 
७१. सामाजिक सम्बन्ध निर्माण करने हेतु हम व्यवसायों का आधार ले सकते हैं क्योंकि वही एक बात ऐसी है जो हम परिवार से बाहर जाकर करते हैं । एक व्यवसाय करने वालों के यदि समूह बनते हैं और उनमें सामाजिक सम्बन्ध विकसित होते हैं तो व्यावहारिक और मानसिक दोनों प्रकार से आत्मीयता और परस्पर सहयोग की भावना बढ़ेगी । सामाजिक सम्बन्ध व्यावसायिक सम्बन्धों से थोड़े अधिक अन्तरंग होते हैं । जैसे कि आपस में मैत्री होना, एकदूसरे के घर आनाजाना, विवाह आदि पारिवारिक समारोहों में सम्मिलित होना, पारिवारिक सुखदुःखों में सहभागी होना आदि से सामाजिक सम्बन्ध बनते हैं । यह एक मनोवैज्ञानिक सुरक्षा व्यवस्था है ।
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७२. एक व्यवसाय करने वाले लोगोंं की आवासव्यवस्था भी एक साथ हो सकती है । आज भी महानगरों में पत्रकार कॉलोनी, प्रोफेसर्स कोलोनी आदि के रूप में साथ साथ निवास व्यवस्था होती है । बेंक, रेलवे, पुलीस आदि में संस्था की ओर से आवास - आवंटित किये जाते हैं । जब तक नौकरी में हैं तब तक यह व्यवस्था रहती है, नौकरी पूरी होने पर आवास छोड़ना पड़ता है । इसीको व्यवस्था का रूप देकर समान व्यवसाय के लोग साथ साथ रहें ऐसा विचार ही प्रचलित किया जाय और लोगोंं के मानस में बिठाया जाय तो सामाजिक सम्बन्ध विकसित होने में सुविधा रहेगी ।
 
७२. एक व्यवसाय करने वाले लोगोंं की आवासव्यवस्था भी एक साथ हो सकती है । आज भी महानगरों में पत्रकार कॉलोनी, प्रोफेसर्स कोलोनी आदि के रूप में साथ साथ निवास व्यवस्था होती है । बेंक, रेलवे, पुलीस आदि में संस्था की ओर से आवास - आवंटित किये जाते हैं । जब तक नौकरी में हैं तब तक यह व्यवस्था रहती है, नौकरी पूरी होने पर आवास छोड़ना पड़ता है । इसीको व्यवस्था का रूप देकर समान व्यवसाय के लोग साथ साथ रहें ऐसा विचार ही प्रचलित किया जाय और लोगोंं के मानस में बिठाया जाय तो सामाजिक सम्बन्ध विकसित होने में सुविधा रहेगी ।
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७३. सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में नये बच्चों का प्रवेश
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७३. सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में नये बच्चोंं का प्रवेश
    
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८३. किसे कौनसी शिक्षा प्राप्त करनी चाहिये इसकी व्यवस्था केवल परीक्षा में मिलने वाले अंक हैं, कौन चुनाव लड सकता है इसका उत्तर केवल आयु और भारत की नागरिकता है । इस प्रकार हर बात बडी यान्त्रिक, आवश्यकता निरपेक्ष, भावना निरपेक्ष, तर्क निरपेक्ष है । यह तो कोई व्वस्था ही नहीं हुई ।
 
८३. किसे कौनसी शिक्षा प्राप्त करनी चाहिये इसकी व्यवस्था केवल परीक्षा में मिलने वाले अंक हैं, कौन चुनाव लड सकता है इसका उत्तर केवल आयु और भारत की नागरिकता है । इस प्रकार हर बात बडी यान्त्रिक, आवश्यकता निरपेक्ष, भावना निरपेक्ष, तर्क निरपेक्ष है । यह तो कोई व्वस्था ही नहीं हुई ।
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८४. हमारी परिवार व्यवस्था भी युगों से जो संस्कृति का प्रवाह बह रहा है उसके संस्कार हमारे चित्त पर अभी भी हैं, मिटे नहीं है ऐसलिये चल रही है । यह तो हमारी ही आन्तरिक ताकत इतनी अधिक है कि सर्व प्रकार की विपरीतताओं का आक्रमण उसे तोड नहीं सका है । वह छिन्न विच्छिन्न हो तो रही है फिर भी बनी रही है । यही एक आशा है ।
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८४. हमारी परिवार व्यवस्था भी युगों से जो संस्कृति का प्रवाह बह रहा है उसके संस्कार हमारे चित्त पर अभी भी हैं, मिटे नहीं है ऐसलिये चल रही है । यह तो हमारी ही आन्तरिक ताकत इतनी अधिक है कि सर्व प्रकार की विपरीतताओं का आक्रमण उसे तोड नहीं सका है । वह छिन्न विच्छिन्न हो तो रही है तथापि बनी रही है । यही एक आशा है ।
    
८५. हमने देखा कि हमारा सामाजिक संगठन कितना व्यवस्थाहीन हो गया है । तो भी वह अभी चल रहा है। हमारे अन्तःकरण में जो अच्छाई है, जो
 
८५. हमने देखा कि हमारा सामाजिक संगठन कितना व्यवस्थाहीन हो गया है । तो भी वह अभी चल रहा है। हमारे अन्तःकरण में जो अच्छाई है, जो
    
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