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== धर्म क्या है ==
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== धर्म क्या है<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १) -
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अध्याय ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref> ==
 
काम पुरुषार्थ मनुष्य की प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है। कामपुरुषार्थ की सिद्धता हेतु अर्थपुरुषार्थ प्रस्तुत होता है। परन्तु कामपुरुषार्थ मन के विश्व की लीला होने के कारण से उसके नियमन और नियंत्रण की आवश्यकता होती है। नियमन और नियंत्रण के लिए धर्मपुरुषार्थ होता है।
 
काम पुरुषार्थ मनुष्य की प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है। कामपुरुषार्थ की सिद्धता हेतु अर्थपुरुषार्थ प्रस्तुत होता है। परन्तु कामपुरुषार्थ मन के विश्व की लीला होने के कारण से उसके नियमन और नियंत्रण की आवश्यकता होती है। नियमन और नियंत्रण के लिए धर्मपुरुषार्थ होता है।
    
धर्म क्या है? धर्म विश्वनियम है। सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही सृष्टि को धारण करने वाले विश्वनियम भी उत्पन्न हुए हैं। इस विश्वनियम की व्यवस्था के अनुसरण में मनुष्य ने भी अपनी जीवनव्यवस्था के लिए जो नियम बनाए हैं वे धर्म हैं। यह व्यवस्था समाज को बनाए रखती है, उसे नष्ट नहीं होने देती। इसी को धारण करना कहते हैं। धर्म समाज को धारण करता है। धारण करने के कारण ही उसे धर्म कहते हैं।
 
धर्म क्या है? धर्म विश्वनियम है। सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही सृष्टि को धारण करने वाले विश्वनियम भी उत्पन्न हुए हैं। इस विश्वनियम की व्यवस्था के अनुसरण में मनुष्य ने भी अपनी जीवनव्यवस्था के लिए जो नियम बनाए हैं वे धर्म हैं। यह व्यवस्था समाज को बनाए रखती है, उसे नष्ट नहीं होने देती। इसी को धारण करना कहते हैं। धर्म समाज को धारण करता है। धारण करने के कारण ही उसे धर्म कहते हैं।
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धर्म कर्तव्य के रूप में भी मनुष्य के जीवन के साथ जुड़ा है। व्यक्ति को अपना शरीर स्वास्थ्य बनाए रखना चाहिए। पशु को शरीर स्वास्थ्य की इतनी चिन्ता नहीं होती जितनी मनुष्य को होती है। पशु प्रकृति के द्वारा नियंत्रित जीवन जीता है इसलिए उसका आहारविहार नियमित होता है और वह साधारण रूप से बीमार नहीं होता। हो भी गया तो अपनी प्राणिक वृत्ति से प्रेरित होकर उचित आहार नियंत्रण करता है और पुन: स्वस्थ हो जाता है। मनुष्य अपने मन की आसक्ति के कारण आहार विहार में अनियमित हो जाता है और बीमार होता है। धर्म उसे मन को नियंत्रण में रखना सिखाता है जिससे वह अपना स्वास्थ्य ठीक करता है। धर्मबुद्धि ही उसे समझाती है कि शरीर धर्म का पालन करने हेतु साधन है और उसे स्वस्थ रखना चाहिए। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए और बुद्धि को तेजस्वी बनाने हेतु उसने अपने मन को वश में करना चाहिए। मन, जो हमेशा उत्तेजना की अवस्था में रहता है, चंचल रहता है उसे शान्त बनाना चाहिए, एकाग्र बनाना चाहिए। अर्थात्‌ मनुष्य के अपनेआप के प्रति जो कर्तव्य हैं उनका पालन करना ही धर्म का पालन करना है।
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धर्म कर्तव्य के रूप में भी मनुष्य के जीवन के साथ जुड़ा है। व्यक्ति को अपना शरीर स्वास्थ्य बनाए रखना चाहिए। पशु को शरीर स्वास्थ्य की इतनी चिन्ता नहीं होती जितनी मनुष्य को होती है। पशु प्रकृति के द्वारा नियंत्रित जीवन जीता है अतः उसका आहारविहार नियमित होता है और वह साधारण रूप से बीमार नहीं होता। हो भी गया तो अपनी प्राणिक वृत्ति से प्रेरित होकर उचित आहार नियंत्रण करता है और पुन: स्वस्थ हो जाता है। मनुष्य अपने मन की आसक्ति के कारण आहार विहार में अनियमित हो जाता है और बीमार होता है। धर्म उसे मन को नियंत्रण में रखना सिखाता है जिससे वह अपना स्वास्थ्य ठीक करता है। धर्मबुद्धि ही उसे समझाती है कि शरीर धर्म का पालन करने हेतु साधन है और उसे स्वस्थ रखना चाहिए। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए और बुद्धि को तेजस्वी बनाने हेतु उसने अपने मन को वश में करना चाहिए। मन, जो सदा उत्तेजना की अवस्था में रहता है, चंचल रहता है उसे शान्त बनाना चाहिए, एकाग्र बनाना चाहिए। अर्थात्‌ मनुष्य के अपनेआप के प्रति जो कर्तव्य हैं उनका पालन करना ही धर्म का पालन करना है।
    
दूसरे क्रम पर मनुष्य का अपने आसपास के मनुष्यों के प्रति जो कर्तव्य है उसका भी पालन उसे करना है। उसे अपने कुटुंब में पिता, पुत्र, भाई, पति, मामा, चाचा या माता, पुत्री, पत्नी, बहन, भाभी आदि अनेक प्रकार की भूमिकायें निभानी होती हैं। यह भी उसका कर्त्तव्य अर्थात धर्म है। पशु पक्षी, प्राणी, वृक्ष वनस्पति आदि के प्रति जो कर्तव्य है, वह भी उसका धर्म है। समाज में वह शिक्षक, व्यापारी, मंत्री, कृषक, धर्माचार्य आदि अनेक प्रकार से व्यवहार करता है। यह व्यवहार उचित प्रकार से करना उसका धर्म है। अर्थात्‌ कर्तव्यधर्म धर्म का एक बहुत बड़ा और कदाचित सर्वाधिक महत्वपूर्ण आयाम है ।
 
दूसरे क्रम पर मनुष्य का अपने आसपास के मनुष्यों के प्रति जो कर्तव्य है उसका भी पालन उसे करना है। उसे अपने कुटुंब में पिता, पुत्र, भाई, पति, मामा, चाचा या माता, पुत्री, पत्नी, बहन, भाभी आदि अनेक प्रकार की भूमिकायें निभानी होती हैं। यह भी उसका कर्त्तव्य अर्थात धर्म है। पशु पक्षी, प्राणी, वृक्ष वनस्पति आदि के प्रति जो कर्तव्य है, वह भी उसका धर्म है। समाज में वह शिक्षक, व्यापारी, मंत्री, कृषक, धर्माचार्य आदि अनेक प्रकार से व्यवहार करता है। यह व्यवहार उचित प्रकार से करना उसका धर्म है। अर्थात्‌ कर्तव्यधर्म धर्म का एक बहुत बड़ा और कदाचित सर्वाधिक महत्वपूर्ण आयाम है ।
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== आश्रमधर्म ==
 
== आश्रमधर्म ==
मनुष्य परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है। उसे अनेक प्रकार की शक्तियाँ मिली हैं। इन शक्तियों से वह जो चाहे कर सकता है। परन्तु कर सकता है इसलिए वह कुछ भी करे यह अपेक्षित नहीं है। उसे अपना जीवन धर्म के अनुकूल बनाकर व्यवस्थित करना है। इस दृष्टि से उसके लिए चार आश्रमों की व्यवस्था दी गई है। ये चार आश्रम हैं: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास ।
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मनुष्य परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है। उसे अनेक प्रकार की शक्तियाँ मिली हैं। इन शक्तियों से वह जो चाहे कर सकता है। परन्तु कर सकता है अतः वह कुछ भी करे यह अपेक्षित नहीं है। उसे अपना जीवन धर्म के अनुकूल बनाकर व्यवस्थित करना है। इस दृष्टि से उसके लिए चार आश्रमों की [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|व्यवस्था]] दी गई है। ये चार आश्रम हैं: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास ।
    
चार आश्रमों का विवरण इस प्रकार है:  
 
चार आश्रमों का विवरण इस प्रकार है:  
    
=== आश्रमचतुष्य ===
 
=== आश्रमचतुष्य ===
आश्रम शब्द का मूल है श्रम । जहाँ रहकर मनुष्य को श्रम करना पड़ता है वह आश्रम है। आश्रम शब्द स्थानवाचक भी है और अवस्थावाचक भी। ऋषिमुनियों के आश्रम हुआ करते थे। वर्तमान समय में भी विचारवान लोगों ने अपनी संस्थाओं को आश्रम की संज्ञा प्रदान की है, जैसे कि महात्मा गाँधी का हरिजन आश्रम, रवीन्द्रनाथ ठाकुर का शान्तिनिकेतन आश्रम, रवीन्द्र शर्मा का कलाश्रम इत्यादि। श्रम करने का अर्थ है कष्ट करना, मेहनत करना। एक वेदाध्ययन करने वाले विद्वान डॉ. दयानन्द भार्गव ने परिभाषा की है कि जहाँ केवल अपने निजी भौतिक लाभ के लिये कष्ट किये जाते हैं वह '''श्रम''' है, जहाँ दूसरों की आज्ञा से कष्ट किये जाते हैं वह '''परिश्रम''' है परन्तु जहाँ दूसरों के लिये स्वेच्छा से और आनन्द से कष्ट किये जाते हैं वह '''आश्रम''' है। इस कष्ट को तप कहते हैं। मनुष्य को जीवनसाफल्य के लिये तप ही करना होता है। जीवन सफल बनाना ही मनुष्य का लक्ष्य है, इस दृष्टि से ही ऋषियों ने मनुष्य जीवन की विभिन्न अवस्थाओं के लिये आश्रम की व्यवस्था दी।
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आश्रम शब्द का मूल है श्रम । जहाँ रहकर मनुष्य को श्रम करना पड़ता है वह आश्रम है। आश्रम शब्द स्थानवाचक भी है और अवस्थावाचक भी। ऋषिमुनियों के आश्रम हुआ करते थे। वर्तमान समय में भी विचारवान लोगोंं ने अपनी संस्थाओं को आश्रम की संज्ञा प्रदान की है, जैसे कि महात्मा गाँधी का हरिजन आश्रम, रवीन्द्रनाथ ठाकुर का शान्तिनिकेतन आश्रम, रवीन्द्र शर्मा का कलाश्रम इत्यादि। श्रम करने का अर्थ है कष्ट करना, मेहनत करना। एक वेदाध्ययन करने वाले विद्वान डॉ. दयानन्द भार्गव ने परिभाषा की है कि जहाँ केवल अपने निजी भौतिक लाभ के लिये कष्ट किये जाते हैं वह '''श्रम''' है, जहाँ दूसरों की आज्ञा से कष्ट किये जाते हैं वह '''परिश्रम''' है परन्तु जहाँ दूसरों के लिये स्वेच्छा से और आनन्द से कष्ट किये जाते हैं वह '''आश्रम''' है। इस कष्ट को तप कहते हैं। मनुष्य को जीवनसाफल्य के लिये तप ही करना होता है। जीवन सफल बनाना ही मनुष्य का लक्ष्य है, इस दृष्टि से ही ऋषियों ने मनुष्य जीवन की विभिन्न अवस्थाओं के लिये आश्रम की व्यवस्था दी।
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मनुष्य को यदि विकास करना है तो उसे नियम और संयम की आवश्यकता होती है। बिना इनके विकास सम्भव नहीं। विकास किसे कहते हैं? आजकल उपभोग की सामग्री अधिक से अधिक होने को विकास कहा जाता है। बहुत धनवान होना, बहुत सत्तावान होना, बहुत विद्वान होना, समाज में बहुत प्रतिष्ठित होना यह विकास नहीं है। व्यक्ति की अंतर्निहित क्षमताओं को व्यवहार में प्रकट करना ही व्यक्ति का विकास है। सुसंस्कृत होना यह समाज का विकास है। व्यक्ति का आरोग्य, बल, इन्ट्रियों का कौशल, प्राणों का सन्तुलन, शान्त मन, एकाग्रता, संयम, अनासक्ति, बुद्धि का विवेक, चित्तशुद्धि, हृदय की विशालता, सबके प्रति प्रेम आदि सब उसके विकास के मापदण्ड हैं, न कि धन या सत्ता। समृद्ध, अहिंसक, ज्ञानी, पराक्रमी, स्वतन्त्र समाज ही विकसित समाज है, न कि भोगी और कामी।
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मनुष्य को यदि विकास करना है तो उसे नियम और संयम की आवश्यकता होती है। बिना इनके विकास सम्भव नहीं। विकास किसे कहते हैं? आजकल उपभोग की सामग्री अधिक से अधिक होने को विकास कहा जाता है। बहुत धनवान होना, बहुत सत्तावान होना, बहुत विद्वान होना, समाज में बहुत प्रतिष्ठित होना यह विकास नहीं है। व्यक्ति की अंतर्निहित क्षमताओं को व्यवहार में प्रकट करना ही व्यक्ति का विकास है। सुसंस्कृत होना यह समाज का विकास है। व्यक्ति का आरोग्य, बल, इन्द्रियों का कौशल, प्राणों का सन्तुलन, शान्त मन, एकाग्रता, संयम, अनासक्ति, बुद्धि का विवेक, चित्तशुद्धि, हृदय की विशालता, सबके प्रति प्रेम आदि सब उसके विकास के मापदण्ड हैं, न कि धन या सत्ता। समृद्ध, अहिंसक, ज्ञानी, पराक्रमी, स्वतन्त्र समाज ही विकसित समाज है, न कि भोगी और कामी।
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जिस समाज में स्पर्धा है और स्पर्धा को प्रोत्साहन दिया जाता है वह समाज शोषण, छल, हिंसा और भ्रष्टाचार से भरा हुआ बन जाता है । उस समाज को विकृत कहते हैं, सुसंस्कृत नहीं। समाज को सुसंस्कृत बनाने वाला व्यक्ति ही होता है। समाज को सुसंस्कृत बनाने के लिये व्यक्ति को अपने जीवन में नियम और संयम को अपनाना पड़ता है। व्यक्ति के जीवन को नियमित और संयमित करने के लिये हमारे पूर्वज ऋषियों ने आश्रमव्यवस्था बनाई है।
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जिस समाज में स्पर्धा है और स्पर्धा को प्रोत्साहन दिया जाता है वह समाज शोषण, छल, हिंसा और भ्रष्टाचार से भरा हुआ बन जाता है । उस समाज को विकृत कहते हैं, सुसंस्कृत नहीं। समाज को सुसंस्कृत बनाने वाला व्यक्ति ही होता है। समाज को सुसंस्कृत बनाने के लिये व्यक्ति को अपने जीवन में नियम और संयम को अपनाना पड़ता है। व्यक्ति के जीवन को नियमित और संयमित करने के लिये हमारे पूर्वज ऋषियों ने [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रमव्यवस्था]] बनाई है।
    
मनुष्य का जीवन चार तबकों में विभाजित किया गया है। मनुष्य जीवन की औसत आयु एक सौ वर्षों की है ऐसी कल्पना की गई है। व्यक्तिगत रूप से यह कम अधिक भी हो सकती है। इस सम्पूर्ण आयु के चार तबकों को चार आश्रमों का नाम दिया गया है। ये आश्रम हैं: ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम ।
 
मनुष्य का जीवन चार तबकों में विभाजित किया गया है। मनुष्य जीवन की औसत आयु एक सौ वर्षों की है ऐसी कल्पना की गई है। व्यक्तिगत रूप से यह कम अधिक भी हो सकती है। इस सम्पूर्ण आयु के चार तबकों को चार आश्रमों का नाम दिया गया है। ये आश्रम हैं: ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम ।
    
=== ब्रहमचर्याश्रम ===
 
=== ब्रहमचर्याश्रम ===
आयु के प्रथम पचीस वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम के होते हैं । प्रथम छः से आठ वर्ष घर में ही बीतते हैं। जन्म से पूर्व गर्भाधान, पुंसबन और सीमंतोन्नयन ऐसे तीन संस्कार उस पर किये जाते हैं। जन्म के बाद जातकर्म, कर्णवेध, नामकरण, चौलकर्म, और विद्यारंभ ऐसे संस्कार किये जाते हैं। ये संस्कार शरीरविज्ञान और मनोविज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण उपचार हैं। ये सब चरित्रनिर्माण की नींव हैं। जीवनविकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया कैसे चलेगी यह इसी समय तय होता है। यद्यपि यह ब्रह्मचर्याश्रम के वर्णन में समाविष्ट नहीं होता है क्योंकि यह व्यक्ति ने नहीं अपितु मातापिता ने करना होता है पर होता व्यक्ति पर ही है। प्रथम पाँच वर्ष में ये संस्कार हो जाते हैं। उसके बाद उपनयन संस्कार होता है और व्यक्ति का ब्रह्मचर्याश्रम शुरू होता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म में चर्या। चर्या का अर्थ है आचरण की पद्धति। ब्रह्म को प्राप्त करने हेतु जो जो करना होता है वह ब्रह्मचर्य है । ब्रह्मचर्याश्रम के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं:
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आयु के प्रथम पचीस वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम के होते हैं । प्रथम छः से आठ वर्ष घर में ही बीतते हैं। जन्म से पूर्व गर्भाधान, पुंसबन और सीमंतोन्नयन ऐसे तीन संस्कार उस पर किये जाते हैं। जन्म के बाद जातकर्म, कर्णवेध, नामकरण, चौलकर्म, और विद्यारंभ ऐसे संस्कार किये जाते हैं। ये संस्कार शरीरविज्ञान और मनोविज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण उपचार हैं। ये सब चरित्रनिर्माण की नींव हैं। जीवनविकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया कैसे चलेगी यह इसी समय तय होता है। यद्यपि यह ब्रह्मचर्याश्रम के वर्णन में समाविष्ट नहीं होता है क्योंकि यह व्यक्ति ने नहीं अपितु मातापिता ने करना होता है पर होता व्यक्ति पर ही है। प्रथम पाँच वर्ष में ये संस्कार हो जाते हैं। उसके बाद उपनयन संस्कार होता है और व्यक्ति का ब्रह्मचर्याश्रम आरम्भ होता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म में चर्या। चर्या का अर्थ है आचरण की पद्धति। ब्रह्म को प्राप्त करने हेतु जो जो करना होता है वह ब्रह्मचर्य है । ब्रह्मचर्याश्रम के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं:
 
* गुरुगृहवास : ब्रह्मचारी मातापिता का घर छोड़कर गुरु के घर रहने के लिये जाता है । गुरु के घर जाकर वह गुरु के घर की सारी रीत अपनाता है । वह उसका गुरुकुल है। गुरु के घर के सदस्य के नाते उसे घर के सारे कामों के दायित्व में सहभागी होना है। घर के सारे काम करने हैं। गुरुमाँ को भी काम में सहायता करनी है। स्वच्छता करना, पानी भरना, इंधन लाना आदि काम करने हैं। गुरु की परिचर्या करनी है। ये सब काम श्रमसाध्य हैं। श्रम करना इस आश्रम में महत्वपूर्ण पहलू है। श्रम करते करते और ये सारे काम करते करते इन कामों की मानसिक और शारीरिक शिक्षा भी होती है, अर्थात्‌ ये सब काम करना भी आता है और काम करने की मानसिकता भी बनती है। गुरुगृह में गुरु जो खाते हैं वैसे ही उसे भी खाना है, वे जिन सुविधाओं का उपभोग करते हैं उन्ही का उपभोग करना है।
 
* गुरुगृहवास : ब्रह्मचारी मातापिता का घर छोड़कर गुरु के घर रहने के लिये जाता है । गुरु के घर जाकर वह गुरु के घर की सारी रीत अपनाता है । वह उसका गुरुकुल है। गुरु के घर के सदस्य के नाते उसे घर के सारे कामों के दायित्व में सहभागी होना है। घर के सारे काम करने हैं। गुरुमाँ को भी काम में सहायता करनी है। स्वच्छता करना, पानी भरना, इंधन लाना आदि काम करने हैं। गुरु की परिचर्या करनी है। ये सब काम श्रमसाध्य हैं। श्रम करना इस आश्रम में महत्वपूर्ण पहलू है। श्रम करते करते और ये सारे काम करते करते इन कामों की मानसिक और शारीरिक शिक्षा भी होती है, अर्थात्‌ ये सब काम करना भी आता है और काम करने की मानसिकता भी बनती है। गुरुगृह में गुरु जो खाते हैं वैसे ही उसे भी खाना है, वे जिन सुविधाओं का उपभोग करते हैं उन्ही का उपभोग करना है।
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या करने वाले को पवित्र करता है। इसलिये वह नित्य करना चाहिये ।</blockquote>
 
या करने वाले को पवित्र करता है। इसलिये वह नित्य करना चाहिये ।</blockquote>
 
* संन्यासी भिक्षा माँगता है। भिक्षा का संग्रह नहीं करता। वह तप करता है। वह वर्णसूचक चिह्लों का भी त्याग करता है। उसे किसी प्रकार के दुन्यवी नाते रिश्ते नहीं होते। वह अपने नाम का भी त्याग करता है। वह भगवा वस्त्र पहनता है। सर्वसंगपरित्याग और सर्वभूतहित ही उसका लक्ष्य होता है। अपने तप से वह विश्व का कल्याण करता है। वह पूर्ण रूप से मोक्षमार्गी होता है।
 
* संन्यासी भिक्षा माँगता है। भिक्षा का संग्रह नहीं करता। वह तप करता है। वह वर्णसूचक चिह्लों का भी त्याग करता है। उसे किसी प्रकार के दुन्यवी नाते रिश्ते नहीं होते। वह अपने नाम का भी त्याग करता है। वह भगवा वस्त्र पहनता है। सर्वसंगपरित्याग और सर्वभूतहित ही उसका लक्ष्य होता है। अपने तप से वह विश्व का कल्याण करता है। वह पूर्ण रूप से मोक्षमार्गी होता है।
इस प्रकार आश्रम व्यवस्था भारतीय समाज रचना की एक अद्भुत और विशिष्ट व्यवस्था है। आज उसका ह्रास हुआ है यह सत्य है। परन्तु यह अज्ञान के कारण है। इसके विषय में पढ़ने के बाद सब को इसकी आवश्यकता और उपयोगिता ध्यान में आती है। अब हमारा दायित्व है कि हम इसे पुन: प्रस्थापित करें ।
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इस प्रकार [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम व्यवस्था]] धार्मिक समाज रचना की एक अद्भुत और विशिष्ट व्यवस्था है। आज उसका ह्रास हुआ है यह सत्य है। परन्तु यह अज्ञान के कारण है। इसके विषय में पढ़ने के बाद सब को इसकी आवश्यकता और उपयोगिता ध्यान में आती है। अब हमारा दायित्व है कि हम इसे पुन: प्रस्थापित करें ।
    
== वर्णधर्म ==
 
== वर्णधर्म ==
समाज में सबको साथ मिलकर रहना है । सौहार्द से
+
समाज में सबको साथ मिलकर रहना है। सौहार्द से रहना है। सबके लिए सुख, शान्ति, समृद्धि, संस्कार सुलभ हो, इस प्रकार रहना है। इस हेतु से हमारे मनीषियों ने वर्णव्यवस्था दी। आज इस व्यवस्था का विपर्यास होकर वह अत्यन्त विकृत हो गई है, यह सत्य है परन्तु वह मूल में ऐसी नहीं है, यह भी सत्य है। मूल में तो यह समाज की धारणा करने वाली और मनुष्यों की अर्थ और काम की प्रवृत्ति को सम्यक रूप से नियमन में रखने वाली व्यवस्था ही रही है। आज हम उस व्यवस्था की विकृतियाँ दूर कर उसे पुनर्स्थापित कैसे करें इसका ही विचार करना चाहिए ।
रहना है। सबके लिए सुख, शान्ति, समृद्धि, संस्कार सुलभ
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हो इस प्रकार रहना है । इस हेतु से हमारे मनीषियों ने
  −
वर्णव्यवस्था दी । आज इस व्यवस्था का विपर्यास होकर
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वह अत्यन्त विकृत हो गई है यह सत्य है परन्तु वह मूल में
  −
ऐसी नहीं है यह भी सत्य है । मूल में तो यह समाज की
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धारणा करने वाली और मनुष्यों की अर्थ और काम की
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प्रवृत्ति को सम्यक रूप से नियमन में रखने वाली व्यवस्था
  −
ही रही है । आज हम उस व्यवस्था की विकृतियाँ दूर कर
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उसे पुनर्स्थापित कैसे करें इसका ही विचार करना चाहिए ।
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वर्णव्यवस्था का मूल आधार प्राकृतिक है । वर्ण,
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वर्णव्यवस्था का मूल आधार प्राकृतिक है। वर्ण, जैसा कि भगवद् गीता में बताया गया है, गुण और कर्म के अनुसार निश्चित होते हैं। गुण का अर्थ है सत्त्व, रज और तम - ये तीन गुण। ये तीनों गुण सम्मिलित रूप में प्रत्येक व्यक्ति में होते ही हैं। गुणों के कम अधिक होने से वर्ण निश्चित होता है। जिस व्यक्ति में सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण क्रम से प्रबल हैं, वह ब्राह्मण है; जिसमे रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण क्रम से प्रबल हैं वह क्षत्रिय है; रजोगुण, तमोगुण और सत्त्वगुण क्रम से प्रबल हैं वह वैश्य है और तमोगुण, रजोगुण, सत्त्वगुण से प्रबल हैं, वह शूद्र है। जन्मजन्मांतर के कर्म, कर्मफल और उसके भोग की श्रंखला से इस जन्म के लिए जो संस्कार बनते हैं, उसे कर्म कहते हैं। गुण और कर्म प्रत्येक मनुष्य की मानसिक प्रवृत्तियों के कारण ही बनते हैं। हर जन्म में मनुष्य का प्राकृतिक वर्ण भिन्न भिन्न ही होता है। परन्तु सामाजिक व्यवस्था में यह वंश के अनुसार ही स्थापित किया गया है। अर्थात ब्राह्मण कुल में जन्मा व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय कुल में जन्मा व्यक्ति क्षत्रिय, वैश्य कुल में जन्मा व्यक्ति वैश्य और शूद्र कुल में जन्मा व्यक्ति शूद्र माना जाता है।
जैसा कि भगवद्रीता में बताया गया है, गुण और कर्म के
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अनुसार निश्चित होते हैं । गुण का अर्थ है सत्त्व, रज और
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तम ये तीन गुण । ये तीनों गुण सम्मिलित रूप में प्रत्येक
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व्यक्ति में होते ही हैं । गुणों के कम अधिक होने से वर्ण
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निश्चित होता है । सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण क्रम से
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वर्ण के अनुसार व्यक्ति के आचार, व्यवसाय और विवाह निश्चित होते हैं। ब्राह्मण का व्यवसाय मुख्य रूप से अध्यापन करना, पौरोहित्य करना और चिकित्सा करना है। उसे समाज के ज्ञान और संस्कार का रक्षण और संवर्धन करना है। परम्परा में ब्राह्मण राजा के पुरोहित, मंत्री और आमात्य भी रहे हैं। ब्राह्मण को समाज के हर वर्ग को अपने अपने कर्तव्य धर्म की शिक्षा देनी है और आवश्यकता के अनुसार मार्गदर्शन करना है। इस दृष्टि से शुद्धता, पवित्रता, तप, संयम, सादगी, साधना उसका आचार है। अपने आचार छोड़ने वाला ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता, भले ही उसने ब्राह्मण कुल में जन्म लिया हो। आचारधर्म का कठोरता से पालन करने पर ही उसे समाज की ओर से सम्मान और आदर प्राप्त होता है। यह ब्राह्मण का वर्णधर्म है। ब्राह्मण यदि अपने धर्म से च्युत्‌ होता है तब स्वयं उसे जो नुकसान होता है, उससे भी अधिक नुकसान सम्पूर्ण समाज का होता है। संस्कार और ज्ञान के क्षेत्र में भीषण संकट निर्माण होता है और समाज की दुर्गति होती है।
   −
प्रबल हैं वह ब्राह्मण है; रजोगुण,
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क्षत्रिय का काम है युद्ध करना, दुर्बलों की रक्षा करना, दान करना और शासन करना। उसे अध्ययन करना है परंतु अध्यापन नहीं करना है। शौर्य उसका स्वभाव है। दान करना उसकी प्रवृत्ति है। घाव सहना उसका काम है वह वैभव भोगता है परन्तु अपने जीवन की रक्षा हेतु युद्ध से पलायन नहीं करता है।  
aa और तमोगुण क्रम से प्रबल हैं वह क्षत्रिय है;
  −
रजोगुण, तमोगुण और सत्त्वगुण क्रम से प्रबल हैं वह वैश्य
  −
है और तमोगुण, रजोगुण sk aay wa से प्रबल हैं
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वह शूट्र है । जन्मजन्मांतर के कर्म, कर्मफल और उसके
  −
भोग की शुंखला से इस जन्म के लिए जो संस्कार बनते हैं
  −
उसे कर्म कहते हैं । गुण और कर्म प्रत्येक मनुष्य कि
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मानसिक प्रवृत्तियों के कारण ही बनते हैं। हर जन्म में
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मनुष्य का प्राकृतिक वर्ण भिन्न भिन्न ही होता है । परन्तु
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सामाजिक व्यवस्था में यह वंश के अनुसार ही स्थापित
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किया गया है। अर्थात ब्राह्मण कुल में जन्मा व्यक्ति
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ब्राह्मण, क्षत्रिय कुल में जन्मा व्यक्ति क्षत्रिय, वैश्य कुल में
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जन्मा व्यक्ति वैश्य और शूट्र कुल में जन्मा व्यक्ति शूट्र माना
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जाता है ।
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वर्ण के अनुसार व्यक्ति के आचार, व्यवसाय और
+
वैश्य का काम है, समाज के भौतिक पदार्थों की आवश्यकताओं को पूर्ण करना। अन्न, वस्त्र आदि आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वह कृषि करता है, भौतिक संसाधनों का संगोपन और संवर्धन करता है और सबको अपनी आवश्यकताओं के अनुसार वस्तुयें प्राप्त हों इसकी व्यवस्था करता है। वह वैभव में रहता है और लक्ष्मी का उपासक है।
विवाह निश्चित होते हैं । ब्राह्मण का व्यवसाय मुख्य रूप से
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अध्यापन करना, पौरोहित्य करना और चिकित्सा करना है ।
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उसे समाज के ज्ञान और संस्कार का रक्षण और संवर्धन
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करना है । परम्परा में ब्राह्मण राजा के पुरोहित, मंत्री और
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आमात्य भी रहे हैं । ब्राह्मण को समाज के हर वर्ग को अपने
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अपने कर्तव्य धर्म की शिक्षा देनी है और आवश्यकता के
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अनुसार मार्गदर्शन करना है । इस दृष्टि से शुद्धता, पवित्रता,
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तप, संयम, सादगी, साधना उसका आचार है । अपने
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आचार छोड़ने वाला ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता,
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भले ही उसने ब्राह्मण कुल में जन्म लिया हो । आचारधर्म
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का कठोरता से पालन करने पर ही उसे समाज की ओर से
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सम्मान और आदर प्राप्त होता है । यह ब्राह्मण का वर्णधर्म
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है । ब्राह्मण यदि अपने धर्म से च्युत्‌ होता है तब स्वयं उसे
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जो नुकसान होता है उससे भी अधिक नुकसान सम्पूर्ण
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समाज का होता है । संस्कार और ज्ञान के क्षेत्र में भीषण
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संकट निर्माण होता है और समाज की दुर्गति होती है ।
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क्षत्रयि का काम है युद्ध करना, दुर्बलों की रक्षा करना, दान
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करना और शासन करना । उसे अध्ययन करना है परंतु
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अध्यापन नहीं करना है । शौर्य उसका स्वभाव है । दान
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करना उसकी प्रवृत्ति है । घाव सहना उसका काम है । वह
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शूद्र परिचर्या करता है, ऐसा भगवद्रीता कहती है। परिचर्या का अर्थ शरीर से संबन्धित काम करना है। परन्तु व्यापक अर्थ में वह शरीर के लिए आवश्यक ऐसी सभी वस्तुओं को बनाने वाला है। सर्व प्रकार की कारीगरी करना और असंख्य उपयोगी वस्तुओं का निर्माण करना शूद्र का काम है। शूद्र को आर्थिक दृष्टि से निश्चिन्तता देना वैश्य का, उनकी रक्षा करना क्षत्रिय का और उनके संस्कारों की रक्षा करना ब्राह्मण का काम है। चारों वर्णों में, ब्राह्मण सरस्वती का, क्षत्रिय दुर्गा का, वैश्य लक्ष्मी का और शूद्र अन्नपूर्णा का उपासक है। ब्राह्मण ज्ञान और संस्कार की उपासना कर समाज की, संस्कृति की और शूद्र भौतिक समृद्धि की सुनिश्चिति करता है। क्षत्रिय इन सबकी रक्षा का और वैश्य समृद्धि के वितरण की व्यवस्था करता है। चारों अपने अपने कामों से समाज की सेवा करते हैं। सेवा की वृत्ति का जतन करना और बाजारीकरण की विकृति को नहीं पनपने देने का दायित्व ब्राह्मण का है क्योंकि वह धर्म सिखाता है। जब ब्राह्मण अपना दायित्व भूल जाता है तब समाज की दुर्गति होती है। जब क्षत्रिय अपना दायित्व भूल जाता है तब समाज असुरक्षित बन जाता है। जब वैश्य अपना दायित्व भूल जाता है तब समाज दरिद्र होता है । जब शूद्र अपना दायित्व भूल जाता है तब समाज असुविधा में पड़ जाता है, कोई उद्योग धन्धे नहीं चलते ।
   −
वैभव भोगता है परन्तु अपने जीवन की
+
समाज में ये चारों वर्ण चाहिए और उनके कामों की अच्छी व्यवस्था भी होनी चाहिए। सब अपना अपना काम करें और किसी को काम का अभाव न रहे यह देखना शासक का कर्तव्य होता है। ऐसी व्यवस्था को स्वायत्त समाजव्यवस्था कहते हैं। स्वायत्त समाज की व्यवस्था में वर्णव्यवस्था का महत्वपूर्ण योगदान है ।
रक्षा हेतु युद्ध से पलायन नहीं करता है । वैश्य का काम है
  −
समाज के भौतिक पदार्थों की आवश्यकताओं को पूर्ण
  −
करना । अन्न, वस्त्र आदि आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वह
  −
कृषि करता है, भौतिक संसाधनों का संगोपन और संवर्धन
  −
करता है और सबको अपनी आवश्यकताओं के अनुसार
  −
वस्तुयें प्राप्त हों इसकी व्यवस्था करता है । वह वैभव में
  −
रहता है और लक्ष्मी का उपासक है । शूट्र परिचर्या करता है
  −
ऐसा भगवद्रीता कहती है । परिचर्या का अर्थ शरीर से
  −
संबन्धित काम करना है । परन्तु व्यापक अर्थ में वह शरीर
  −
के लिए आवश्यक ऐसी सभी वस्तुओं को बनाने वाला है ।
  −
सर्व प्रकार की कारीगरी करना और असंख्य उपयोगी
  −
वस्तुओं का निर्माण करना शूट्र का काम है । शूट्र को
  −
आर्थिक दृष्टि से निर्शितता देना वैश्य का, उनकी रक्षा करना
  −
क्षत्रयि का और उनके संस्कारों की रक्षा करना ब्राह्मण का
  −
काम है । चारों वर्णों में ब्राह्मण सरस्वती का, क्षत्रिय दुर्गा
  −
का, वैश्य लक्ष्मी का और शूट्र अन्नपूर्णा का उपासक है ।
  −
ब्राह्मण ज्ञान और संस्कार की उपासना कर समाज की
  −
संस्कृति की और शूद्र भौतिक समृद्धि की सुनिश्चिति करता
  −
है। क्षत्रयि इन सबकी रक्षा का और वैश्य समृद्धि के
  −
वितरण की व्यवस्था करता है । चारों अपने अपने कामों से
  −
समाज की सेवा करते हैं । सेवा की वृत्ति का जतन करना
  −
और बाजारीकरण की विकृति को नहीं पनपने देने का
  −
दायित्व ब्राह्मण का है क्योंकि वह धर्म सिखाता है । जब
  −
ब्राह्मण अपना दायित्व भूल जाता है तब समाज की दुर्गति
  −
होती है । जब क्षत्रिय अपना दायित्व भूल जाता है तब
  −
समाज असुरक्षित बन जाता है । जब वैश्य अपना दायित्व
  −
भूल जाता है तब समाज द्रिद्र होता है । जब शूद्र अपना
  −
दायित्व भूल जाता है तब समाज असुविधा में पड़ जाता है,
  −
कोई उद्योग धन्धे नहीं चलते
     −
समाज में ये चारों वर्ण चाहिए और उनके कामों की
+
आज इस व्यवस्था का विपर्यास हो गया है। यद्यपि जन्म से वर्ण माने जाते हैं परन्तु सभी वर्णों ने अपने अपने व्यवसाय और आचार छोड़ दिये हैं। राज्य की व्यवस्था में वर्ण कोई मायने नहीं रखता है। राज्य की व्यवस्था में केवल व्यवसाय ही नहीं तो विवाह भी वर्ण के अनुसार करने की बाध्यता नहीं है। केवल कर्मकांडों में, लोगोंं की मानसिकता में और अनर्थक अहंकार का जतन करने हेतु वर्णों का उल्लेख किया जाता है। वर्णव्यवस्था सर्वथा अव्यवस्था में बदल गई है और सामाजिक समरसता नष्ट कर विद्वेष बढ़ाने का साधन बन गई है। आचार, व्यवसाय और विवाह इन तीन मुद्दों को ध्यान में रखकर इस व्यवस्था का पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। समाज की धारणा करने वाला यह धर्म का प्रमुख आयाम है ।
अच्छी व्यवस्था भी होनी चाहिए । सब अपना अपना काम
  −
करें और किसीको काम का अभाव न रहे यह देखना
  −
शासक का कर्तव्य होता है । ऐसी व्यवस्था को स्वायत्त
  −
समाजव्यवस्था कहते हैं । स्वायत्त समाज की व्यवस्था में
     −
वर्णव्यवस्था महत्वपूर्ण योगदान है ।
+
धर्मानुसारिणी समाजव्यवस्था में कुटुंब संस्था का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। कुटुम्ब का केंद्रवर्ती घटक है पति पत्नी। स्त्री और पुरुष को पति पत्नी बनाने वाला विवाह संस्कार है। मनुष्य जीवन को श्रेष्ठ बनाने हेतु संस्कारों की और उनमें भी नित्य द्वन्द्वात्मक स्वरूप की स्त्रीधारा और पुरुषधारा की एकात्मता सिद्ध करने वाले विवाह संस्कार की और इसकी कल्पना करने वाले ऋषियों की प्रज्ञा की जितनी प्रशंसा की जाय उतनी कम है। विवाह में स्त्री पुरुष की एकात्मता की अपेक्षा की गई है और उसके आदर्श के रूप में शिव और पार्वती के युगल की प्रतिष्ठा की गई है। उनकी एकात्मता को अर्धनारीश्वर की प्रतिमा में व्यक्त किया गया है। विवाह में लक्षित एकात्मता का ही विस्तार होते होते वसुधैव कुटुंबकम्‌ के सूत्र की सिद्धि तक पहुँचा जाता है। कुटुम्ब का भावात्मक स्वरूप है आत्मीयता। इसे ही परिवारभावना कहते हैं। सम्पूर्ण समाजव्यवस्था में कुटुंब भावना अनुस्यूत रहे ऐसी कल्पना की गई है ।
   −
आज इस व्यवस्था का विपर्यास हो गया है । यद्यपि
+
स्त्री और पुरुष के सम्बन्धों को पति पत्नी में केंद्रिय कर उसके विस्तार के रूप में भाई बहन, माता पिता और संतानों के संबंध विकसित किए गए हैं और जगत के सभी स्त्री पुरुषों के सम्बन्धों को इनमें समाहित किया गया है । जिसके साथ विवाह हुआ है उसके अलावा अन्य सभी पुरुष, स्त्री के लिए भाई, पुत्र या पिता समान हैं और पुरुष के लिए स्त्री माता, पुत्री और बहन के समान है ऐसी धर्मबुद्धि समाज को अनाचारी बनने से बचाती है। स्त्री और पुरुष के शील की रक्षा समाजधर्म का महत्वपूर्ण आयाम है। इस प्रकार आचार, व्यवसाय और विवाहव्यवस्था के माध्यम से वर्णधर्म समाज का रक्षक है ।
जन्म से वर्ण माने जाते हैं परन्तु सभी वर्णों ने अपने अपने
  −
व्यवसाय और आचार छोड़ दिये हैं । राज्य की व्यवस्था में
  −
वर्ण कोई मायने नहीं रखता है । राज्य की व्यवस्था में
  −
केवल व्यवसाय ही नहीं तो विवाह भी वर्ण के अनुसार
  −
करने की बाध्यता नहीं है । केवल कर्मकांडों में, लोगों की
  −
मानसिकता में और अनर्थक अहंकार का जतन करने हेतु
  −
वर्णों का उल्लेख किया जाता है। वर्णव्यवस्था सर्वथा
  −
अव्यवस्था में बदल गई है और सामाजिक समरसता नष्ट
  −
कर विट्रेष बढ़ाने का साधन बन गई है । आचार, व्यवसाय
  −
और विवाह इन तीन मुद्दों को ध्यान में रखकर इस व्यवस्था
  −
का पुनर्विचार करने की आवश्यकता है । समाज की धारणा
  −
करने वाला यह धर्म का प्रमुख आयाम है ।
  −
 
  −
धर्मानुसारिणी समाजव्यवस्था में erst संस्था का
  −
अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है । कुट्म्ब का केंद्रवर्ती घटक है
  −
पति पत्नी । of ak ges को पतिपत्नी बनाने वाला
  −
विवाहसंस्कार है । मनुष्यजीवन को श्रेष्ठ बनाने हेतु संस्कारों
  −
की और उनमें भी नित्य ट्रन्ट्रात्टक स्वरूप की स्त्रीधारा और
  −
पुरुषधारा की एकात्मता सिद्ध करने वाले विवाहसंस्कार की
  −
और इसकी कल्पना करने वाले क्षियों की प्रज्ञा की
  −
जितनी प्रशंसा की जाय उतनी कम है । विवाह में स्त्री पुरुष
  −
की एकात्मता की अपेक्षा की गई है और उसके आदर्श के
  −
रूप में शिव और पार्वती के युगल की प्रतिष्ठा की गई है ।
  −
उनकी एकात्मता को अर्धनारीश्वर की प्रतिमा में व्यक्त किया
  −
गया है । विवाह में लक्षित एकात्मता का ही विस्तार होते
  −
होते वसुधैव कुटुंबकम्‌ के सूत्र की सिद्धि तक पहुँचा जाता
  −
है । कुट्म्ब का भावात्मक स्वरूप है आत्मीयता । इसे ही
  −
परिवारभावना कहते हैं । सम्पूर्ण समाजव्यवस्था में pea
  −
भावना अनुस्यूत रहे ऐसी कल्पना की गई है ।
  −
 
  −
स्त्री और पुरुष के सम्बन्धों को पति पत्नी में केंद्रिय
  −
कर उसके विस्तार के रूप में भाई बहन, माता पिता और
  −
संतानों के संबंध विकसित किए गए हैं और जगत के सभी
  −
स्त्री पुरुषों के सम्बन्धों को इनमें समाहित किया गया है ।
  −
जिसके साथ विवाह हुआ है उसके अलावा अन्य सभी
  −
  −
 
  −
पुरुष, स्त्री के लिए भाई, पुत्र या पिता समान हैं और पुरुष
  −
के लिए स्त्री माता, पुत्री और बहन के समान है ऐसी
  −
धर्मबुद्धि समाज को अनाचारी बनने से बचाती है । स्त्री और
  −
पुरुष के शील की रक्षा समाजधर्म का महत्वपूर्ण
  −
आयाम है ।
  −
 
  −
इस प्रकार आचार, व्यवसाय और विवाहव्यवस्था के
  −
माध्यम से वर्णधर्म समाज का रक्षक है ।
      
=== प्रकृतिधर्म ===
 
=== प्रकृतिधर्म ===
इस सृष्टि में सभी पदार्थों का अपना अपना स्वभाव
+
इस सृष्टि में सभी पदार्थों का अपना अपना स्वभाव होता है। उसे उस पदार्थ का गुणधर्म कहते हैं। उसे उसकी प्रकृति भी कहते हैं। मनुष्य के अलावा सारे पदार्थों का केवल गुणधर्म होता है, मनुष्य का गुणकर्म होता है। उस गुणकर्म के आधार पर बनी वर्णव्यवस्था व्यावहारिक हेतु से जन्मगत बन गई है। परन्तु शेष सभी की व्यवस्था गुणधर्म के अनुसार ही बनी है। मनुष्य को शेष सृष्टि के साथ सामंजस्य बैठाना है तो इस प्रकृतिधर्म को भी जानना चाहिए। मनुष्य की अपेक्षा शेष सारे पदार्थों में भौतिक शक्ति और प्राणिक शक्ति अर्थात अन्नमय और प्राणमय कोश अनेक गुणा अधिक है। मनुष्य में विचारशक्ति, विवेकशक्ति और संस्कारशक्ति शेष सारे पदार्थों से कहीं अधिक है। इन विशिष्ट शक्तियों के प्रभाव से वह सृष्टि के संसाधनों से अपरिमित लाभ प्राप्त करता है। लाभ प्राप्त करने के साथ साथ सृष्टि के सारे पदार्थों का रक्षण करना, उसे जो प्राप्त होता है उसके लिए उनके प्रति कृतज्ञ रहना, अपने सुख के लिए उनका शोषण नहीं करना, उनकी सुस्थिति बनाए रखना उसका परम धर्म है। इस धर्म का सम्यक पालन करने के लिए उसे प्रकृति को जानना आवश्यक है। साथ ही सृष्टि के सारे पदार्थ एक ही आत्मतत्व का विस्तार है यह समझकर आत्मीय सम्बन्ध भी बनाने की आवश्यकता होती है। प्रकृति धर्म का पालन समाज के लिए अभ्युदय और निःश्रेयस का बलवान साधन है ।
होता है । उसे उस पदार्थ का गुणधर्म कहते हैं । उसे उसकी
  −
प्रकृति भी कहते हैं । मनुष्य के अलावा सारे पदार्थों का
  −
केवल गुणधर्म होता है, मनुष्य का गुणकर्म होता है । उस
  −
गुणकर्म के आधार पर बनी वर्णव्यवस्था व्यावहारिक हेतु से
  −
जन्मगत बन गई है । परन्तु शेष सभी की व्यवस्था गुणधर्म
  −
के अनुसार ही बनी है । मनुष्य को शेष सृष्टि के साथ
  −
सामंजस्य बैठाना है तो इस प्रकृतिधर्म को भी जानना
  −
चाहिए । मनुष्य की अपेक्षा शेष सारे पदार्थों में भौतिक शक्ति
  −
और प्राणिक शक्ति अर्थात अन्नमय और प्राणमय कोश
  −
अनेक गुणा अधिक है । मनुष्य में विचारशक्ति, विवेकशक्ति
  −
और संस्कारशक्ति शेष सारे पदार्थों से कहीं अधिक है । इन
  −
विशिष्ट शक्तियों के प्रभाव से वह सृष्टि के संसाधनों से
  −
अपरिमित लाभ प्राप्त करता है । लाभ प्राप्त करने के साथ
  −
साथ सृष्टि के सारे पदार्थों का रक्षण करना, उसे जो प्राप्त
  −
होता है उसके लिए उनके प्रति कृतज्ञ रहना, अपने सुख के
  −
लिए उनका शोषण नहीं करना, उनकी सुस्थिति बनाए रखना
  −
उसका परम धर्म है । इस धर्म का सम्यक पालन करने के
  −
लिए उसे प्रकृति को जानना आवश्यक है । साथ ही सृष्टि के
  −
सारे पदार्थ एक ही आत्मतत्व का विस्तार है यह समझकर
  −
आत्मीय सम्बन्ध भी बनाने की आवश्यकता होती है ।
  −
प्रकृतिधर्म का पालन समाज के लिए अभ्युद्य और निःश्रेयस
  −
का बलवान साधन है ।
      
== धर्म उपासना के रूप में ==
 
== धर्म उपासना के रूप में ==
धर्म का यह स्वरूप बड़ा अद्भुत है । साथ ही मनुष्य
+
धर्म का यह स्वरूप बड़ा अद्भुत है । साथ ही मनुष्य की नवनवोन्मेषशालिनी कल्पनाशक्ति और सृजनशीलता का यह अतुलनीय आविष्कार है। सृष्टि के जिन जिन पदार्थों ने उसका जीवन सुकर और सुखद बनाया उन तत्वों में उसने देवत्व देखा। उनके प्रति एकात्मता का अनुभव कर काव्य में उसे स्थान दिया और अनेक प्रकार से उनका गुणगान किया। देवत्व की कल्पना के आधार पर मुूर्तिविधान किया। मूर्तिविधान में भावना तो थी ही साथ ही प्राकृतिक पदार्थों के स्वभाव और व्यवहार का पूर्ण ज्ञान भी था और निर्माण कौशल भी था। इस प्रकार अपनी सर्व प्रकार की क्षमताओं का विनियोग आनंदऔर कृतज्ञता के रूप में व्यक्त कर उसने लौकिक सुख का उन्नयन किया। भौतिक समृद्धि, ज्ञान, पवित्रता, स्वास्थ्य, पोषण, संयम, त्याग आदि सर्व प्रकार के तत्वों को मूर्तरूप देकर उनका पूजा विधान बनाया। इसमें से विभिन्न उपासना पद्धतियों का विकास किया। हम देखते हैं कि नाना प्रकार की पूजाविधियों में सुन्दरता है, कुशलता है, निश्चितता है, भावना है, आनंद है, कृतज्ञता है, ज्ञान है, पवित्रता है, अपने और सर्व के सुख और कल्याण की कामना है। एकात्मता और समग्रता का यह विस्मयकारक आविष्कार है। इस अनंत वैविध्यपूर्ण पूजा पद्धतियों के विधान के ही शास्त्र बने, स्तोत्र बने और सम्प्रदाय बने। ये सम्प्रदाय मनुष्य के मन को, आचार को, सम्पूर्ण जीवनचर्या को नियमन में रखने के साधन बने। अनेक देवी देवता और उनका उपासना विधान इस वैविध्य का परिचायक है।
   −
BR
+
उपासना जीवन का ऐसा अनिवार्य अंग है कि वह इष्टदेवता बन व्यक्ति के साथ, कुलदेवता बन कुल के साथ, ग्रामदेवता बन पूरे गाँव के साथ जुड़ गया। विभिन्न समूहों के विभिन्न सम्प्रदाय बने। सदाचार, सद्गुण, सहयोग, सेवाकार्य, उत्सव, मेले, सत्संग, कथा, कीर्तन, यात्रा, मन्दिर आदि के रूप में यह सम्प्रदायधर्म समाजव्यापी है। आचारधर्म का अन्य एक आयाम दान, अन्नसत्र, धर्मशाला, प्याऊ, जलाशयों का निर्माण आदि भी व्यापक रूप में प्रचलित हैं ।
   −
 
+
आज अन्य अच्छी बातों की तरह उपासना या सम्प्रदाय को भी विकृत बनाया गया है और विकृत रूप में प्रस्तुत किया जाता है और विवाद का विषय बना दिया जाता है। जीवन धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता, यह बहुत सीधी सादी समझ की बात है परन्तु उसके बावजूद धर्मनिरपेक्षता का नारा दिया जाता है। इस नारे के लिए देश के संविधान की दुहाई दी जाती है परन्तु संविधान में धर्मनिरपेक्ष शब्द नहीं है, पंथनिरपेक्ष शब्द है। तथापि धर्म के नाम पर वाद विवाद खड़ा कर कोलाहल मचाया जाता है। पंथ अर्थात्‌ सम्प्रदाय भी हेय नहीं है परन्तु सर्वपंथसमादर का विवेक और सौजन्य छोड़कर उनके नाम पर झगड़े किए जाते हैं और सार्वजनिक वार्तालाप में उसे नकारा जाता है। यह स्थिति बहुत घातक है, इसका उपाय करने की आवश्यकता है।
  −
   
     −
की नवनवोन्मेषशालिनी कल्पनाशक्ति
+
धर्मपुरुषार्थ साधना का विषय है। वह शिक्षा का मुख्य सन्दर्भ है। वह काम और अर्थ को नियंत्रित करता है और उन्हें प्रतिष्ठा देता है। यह मनुष्य का सर्व प्रकार से उन्नयन करता है। वह जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने की ओर मनुष्य को अग्रसर बनाता है। ऐसे धर्म की रक्षा करनी चाहिए। जब इसकी रक्षा हम करते हैं तो ऐसा धर्म फिर हमारी रक्षा करता है। धर्म की रक्षा करना हर मनुष्य का कर्तव्य है। महाभारत में बार बार अनेक मुखों से कहा गया है “यतोधर्मस्ततोजय:' अर्थात जहाँ धर्म है वहीं जय है। ऐसा यह सर्वदा सर्वरक्षक धर्म है जो मनुष्य के लिए सारी शक्ति लगाकर आचरणीय है ।
और सृजनशीलता का यह अतुलनीय आविष्कार है । सृष्टि
  −
के जिन जिन पदार्थों ने उसका जीवन सुकर और सुखद
  −
बनाया st dal में उसने देवत्व देखा । उनके प्रति
  −
एकात्मता का अनुभव कर काव्य में उसे स्थान दिया और
  −
अनेक प्रकार से उनका गुणगान किया । देवत्व की कल्पना
  −
के आधार पर मुूर्तिविधान किया । मूर्तिविधान में भावना तो
  −
थी ही साथ ही प्राकृतिक पदार्थों के स्वभाव और व्यवहार
  −
का पूर्ण ज्ञान भी था और निर्माण कौशल भी था । इस
  −
प्रकार अपनी सर्व प्रकार की क्षमताओं का विनियोग आनंद
  −
और कृतज्ञता के रूप में व्यक्त कर उसने लौकिक सुख का
  −
उन्नयन किया । भौतिक समृद्धि, ज्ञान, पवित्रता, स्वास्थ्य,
  −
पोषण, संयम, त्याग आदि सर्व प्रकार के तत्वों को मूर्त
  −
रूप देकर उनका पूजा विधान बनाया । इसमें से विभिन्न
  −
उपासना पद्धतियों का विकास किया । हम देखते हैं कि
  −
नाना प्रकार की पूजाविधियों में सुन्दरता है, कुशलता है,
  −
निश्चितता है, भावना है, आनंद है, कृतज्ञता है, ज्ञान है,
  −
पवित्रता है, अपने और सर्व के सुख और कल्याण की
  −
कामना है । एकात्मता और समग्रता का यह विस्मयकारक
  −
आविष्कार है। इस अनंत वैविध्यपूर्ण पूजा पद्धतियों के
  −
विधान के ही शास्त्र बने, स्तोत्र बने और सम्प्रदाय बने । ये
  −
सम्प्रदाय मनुष्य के मन को, आचार को, सम्पूर्ण जीवनचर्या
  −
को नियमन में रखने के साधन बने । अनेक देवी देवता
  −
और उनका उपासना विधान इस वैविध्य का परिचायक है ।
     −
उपासना जीवन का ऐसा अनिवार्य अंग है कि वह
+
== धर्म पुरुषार्थ हेतु शिक्षा ==
इष्टदेवता बन व्यक्ति के साथ, कुलदेवता बन कुल के साथ,
+
शिक्षा वही है जो धर्म सिखाती है, ऐसा एक वाक्य में शिक्षा का वर्णन किया जा सकता है। बहुत प्रसिद्ध सुभाषित हम जानते ही हैं:  
ग्रामदेवता बन पूरे गाँव के साथ जुड़ गया । विभिन्न समूहों
  −
के विभिन्न सम्प्रदाय बने । सदाचार, सदुण, सहयोग,
  −
सेवाकार्य, उत्सव, मेले, सत्संग, कथा, कीर्तन, यात्रा,
  −
मन्दिर आदि के रूप में यह सम्प्रदायधर्म समाजव्यापी है ।
  −
आचारधर्म का अन्य एक आयाम दान, अन्नसत्र, धर्मशाला,
  −
प्याऊ, जलाशयों का निर्माण आदि भी व्यापक रूप में
  −
प्रचलित हैं ।
  −
 
  −
आज अन्य अच्छी बातों कि तरह उपासना या
  −
सम्प्रदाय को भी विकृत बनाया गया है और विकृत रूप में
  −
  −
 
  −
प्रस्तुत किया जाता है और विवाद का
  −
विषय बना दिया जाता है। जीवन धर्मनिरपेक्ष नहीं हो
  −
सकता यह बहुत सीधी सादी समझ की बात है परन्तु उसके
  −
बावजूद धर्मनिरपेक्षता का नारा दिया जाता है । इस नारे के
  −
लिए देश के संविधान की दुहाई दी जाती है परन्तु संविधान
  −
में धर्मनिरपेक्ष शब्द नहीं है, पंथनिरपेक्ष शब्द है । फिर भी
  −
धर्म के नाम पर वाद विवाद खड़ा कर कोलाहल मचाया
  −
जाता है। पंथ अर्थात्‌ सम्प्रदाय भी हेय नहीं है परन्तु
  −
सर्वपंथसमादर का विवेक और सौजन्य छोड़कर उनके नाम
  −
पर झगड़े किए जाते हैं और सार्वजनिक वार्तालाप में उसे
  −
नकारा जाता है । यह स्थिति बहुत घातक है, इसका उपाय
  −
करने की आवश्यकता है ।
  −
 
  −
धर्मपुरुषार्थ साधना का विषय है । वह शिक्षा का
  −
मुख्य सन्दर्भ है । वह काम और अर्थ को नियंत्रित करता है
  −
और उन्हें प्रतिष्ठा देता है । यह मनुष्य का सर्व प्रकार से
  −
उन्नयन करता है । वह जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने
  −
की ओर मनुष्य को अग्रसर बनाता है । ऐसे धर्म की रक्षा
  −
करनी चाहिए । जब इसकी रक्षा हम करते हैं तो ऐसा धर्म
  −
फिर हमारी रक्षा करता है । धर्म की रक्षा करना हर मनुष्य
  −
का कर्तव्य है। महाभारत में बार बार अनेक मुखों से
  −
कहा गया है “यतोधर्मस्ततोजय:ः' अर्थात जहाँ धर्म है वहीं
  −
जय है ।
  −
 
  −
ऐसा यह सर्वदा सर्वरक्षक धर्म है जो मनुष्य के लिए
  −
सारी शक्ति लगाकर आचरणीय है ।
     −
== धर्म पुरुषार्थ हेतु शिक्षा ==
+
आहारनिद्राभयमैथुनम च सामान्यमेतत्‌ पशुभिर्नराणाम्‌।<blockquote>धर्मों ही तेघामधिकों विशेष: धर्मेण हिना: पशुभी: समाना: ॥।</blockquote><blockquote>अर्थात्‌, आहार, निद्रा भय और मैथुन के मामले में
शिक्षा वही है जो धर्म सिखाती है, ऐसा एक वाक्य
  −
में शिक्षा का वर्णन किया जा सकता है । बहुत प्रसिद्ध
  −
सुभाषित हम जानते ही हैं
  −
आहारनिद्राभयमैथुनम च सामान्यमेतत्‌ पशुभिर्नराणाम्‌।
  −
धर्मों ही तेघामधिकों विशेष: धर्मेण हिना: पशुभी: समाना: ॥।
  −
अर्थात्‌, आहार, निद्रा भय और मैथुन के मामले में
   
तो पशु और मनुष्य समान ही हैं । दोनों की भिन्नता धर्म के
 
तो पशु और मनुष्य समान ही हैं । दोनों की भिन्नता धर्म के
कारण ही है । बिना धर्म के मनुष्य पशु के समान ही है ।
  −
  −
 
  −
  −
अत: शिक्षा को धर्म सिखाना चाहिए । इसका अर्थ है
  −
  −
शिक्षा से मनुष्य को धर्म का पालन करना आना चाहिए ।
  −
धर्म पुरुषार्थ हेतु शिक्षा के आयाम इस प्रकार हैं ...
  −
  −
g. धर्म को आज विवाद का विषय बना दिया गया है ।
  −
इसलिए  धर्मशिक्षा के स्थान पर आज मूल्यशिक्षा ऐसा
  −
Megat frat जाता है । अनेक बार उसे नैतिक
  −
अथवा आध्यात्मिक शिक्षा भी कहा जाता है । वह
  −
वास्तव में धर्मशिक्षा ही है ।
  −
  −
२... धर्मशिक्षा सम्प्रदाय की शिक्षा नहीं है । पूर्व में हमने
  −
धर्म का अर्थविस्तार देखा है । उन सारे आर्थों में धर्म
  −
की शिक्षा ही धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा है ।
  −
  −
3. धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा छोटे बड़े सब के लिए
  −
अनिवार्य होनी चाहिए । चाहे वह डॉक्टर बने या
  −
कंप्यूटर निष्णात, चाहे वह मंत्री बने या सरकारी
  −
कर्मचारी, चाहे वह साहित्य पढ़े या चित्रकला,
  −
चाहे वह वाणिज्य पढ़े या तत्वज्ञान, चाहे वह
  −
केवल प्राथमिक शिक्षा तक ही पढ़े या
  −
उच्चविद्याविभूषित बने, चाहे वह मजदूर बने या
  −
उद्योजक, छात्र को धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा अनिवार्य
  −
रूप से प्राप्त करनी चाहिए क्योंकि धर्म ही
  −
समाजजीवन का आधार है ।
  −
  −
¥. धर्म केवल जानकारी का विषय नहीं है। वह
  −
मानसिकता का और आचरण का विषय है । उसी
  −
रूप में उसकी शिक्षा की योजना करनी चाहिए ।
  −
  −
Gq. बाल अवस्था में शारीरिक और मानसिक आदतें
  −
  −
बनती हैं । उसी समय धर्मशिक्षा आचार के रूप में
  −
देनी चाहिए । यह इतना अनिवार्य होना चाहिए कि
  −
जब तक आचरण शुद्ध और पवित्र नहीं होता, सत्य,
  −
प्रामाणिकता, संयम, विनय,दान,दया और परोपकार
  −
की वृत्ति विकसित नहीं होती तब तक प्रगत शिक्षा में
  −
प्रवेश ही नहीं मिलना चाहिए । वैसे चरित्र और
  −
अच्छे व्यवहार का प्रमाणपत्र आज भी उच्चशिक्षा में
  −
या सरकारी सेवा में मांगा जाता है परन्तु उसे बहुत
  −
औपचारिक बना दिया गया है । वास्तव में अच्छे
  −
चरित्र की न तो व्याख्या की जाती है न अपेक्षा ।
  −
  −
  −
इसका अर्थ यह भी है कि सबको चरित्र और अच्छे
  −
व्यवहार कि आवश्यकता तो लगती है परन्तु उसे
  −
प्राप्त करने कि कोई व्यवस्था नहीं की जाती । स्वार्थ
  −
और स्वर्केट्रितता को विकास का मापदंड बनाने से
  −
तो यह प्राप्त होना सम्भव भी नहीं है क्योंकि
  −
धर्मशिक्षा शुरू ही होती है स्वार्थ और स्वकेंद्रितता
  −
छोड़ने से ।
  −
  −
प्रसिद्ध चिन्तक जे. कृष्णमूर्ति ने आज के बौद्धिक
  −
जगत के व्यवहार का वर्णन करते हुए कहा है कि
  −
इन्हें जाना तो होता है दक्षिण दिशा में परन्तु बैठते हैं
  −
उत्तर में जाने वाली गाड़ी में और गंतव्य स्थान आता
  −
नहीं है तब व्यवस्थाओं को कोसते हैं । शिक्षा के
  −
मामले में ठीक यही हो रहा है । हमें जाना तो है पूर्व
  −
में परन्तु प्रत्यक्ष यात्रा चल रही है पश्चिमाभिमुख
  −
होकर । हम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते तब
  −
सरकार, कलियुग, बाजारीकरण, यूरोप आदि को
  −
दोष देते हैं । लाख समझाने पर या समझने पर भी
  −
हम दिशा परिवर्तन करने का साहस नहीं जुटा
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सकते । अधर्म के रास्ते पर चलकर धर्म की, या
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आज की भाषा में कहें तो मूल्यों कि अपेक्षा करते
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हैं । जबकि दिशा परिवर्तन अनिवार्य है
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योग के प्रथम दो अंग यम और नियम वास्तव में
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धर्मशिक्षा ही है । व्यक्तिगत और सम्टिगत, सृष्टिगत
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व्यवहार को ठीक करने के वे सार्वभौम महाब्रत हैं ।
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इन्हें आचार के रूप में प्रस्थापित करना योगशिक्षा
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का महत्वपूर्ण अंग है और सारी शिक्षा का आधार
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है। हमने तो आज योग को भी शारीरिक शिक्षा का
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अंग बनाकर चिकित्सा का, प्रदर्शन का, स्पर्धा का
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विषय बना दिया है। प्रयत्नपूर्वक इसे बदलना
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चाहिए ।
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सारे विषयों के साथ धर्मशिक्षा को जोड़ना चाहिए ।
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वह आचार के रूप में नहीं अपितु विषयों के स्वरूप
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और सिद्धांतों को मूल्यनिष्ठ बनाकर । उदाहरण के     
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नहीं है। उसके स्थान पर
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अर्थशास््र कि शिक्षा धर्म के अविरोधी ही होनी
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चाहिए यह सिद्धान्त बनना चाहिए । दान और बचत
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अर्थव्यवहार के अनिवार्य अंग बनने चाहिए । बाँधवों
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को दिये बिना किसी प्रकार का उपभोग नहीं करना
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चाहिए ।
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धर्म और अआअधर्म को जानने का विवेक विकसित
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करना चाहिए। अधर्म का त्याग और धर्म का
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स्वीकार करने के लिए सदा उद्यत होना चाहिए । धर्म
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की रक्षा के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए ।
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विपत्तियों में भी धर्म का त्याग न करें ऐसी धर्मनिष्ठा
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विकसित करनी चाहिए । उदाहरण के लिए आज
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बच्चे और बड़े स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हों तो
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भी, संस्कार दूषित हों तो भी न खाने के पदार्थ खाते
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हैं क्योंकि संयम का और शुचिता के आग्रह का
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अभाव है । विदेशी वस्तुरयें खरीदने से हमारे देश का
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आर्थिक नुकसान होता है यह जानते हुए भी विदेशी
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वस्तुरयें खरीदते हैं क्योंकि देशभक्ति का अभाव है भले
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ही वे सस्ती हैं या आकर्षक हैं । धर्म की परीक्षा
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व्यवहार से ही होती है ।
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जगत के विभिन्न धर्मों का अध्ययन भी करना
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चाहिए । सबमें समानता और भेद क्या हैं इसका
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आकलन होना चाहिए । अपने धर्म की विशेषतायें,
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उनका महत्व आदि भी जानना चाहिए। धर्म
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और सम्प्रदाय का अंतर क्या है, सम्प्रदायनिरपेक्षेता
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का क्‍या अर्थ है, सम्प्रदाय बनते किस प्रकार हैं,
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संप्रदायों का झगड़ा क्यों होता है, धार्मिक कट्टरता
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कैसे पनपती है, धर्मयुद्ध क्या है, धर्मयुद्ध और
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जिहाद में क्या अंतर है, आज धर्म की जो स्थिति है
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उसे बदलना है तो हमारी भूमिका क्या होगी ...
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आदि सब धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा का हिस्सा होना
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चाहिए ।
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इस प्रकार धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा सम्पूर्ण शिक्षा का
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सार है । वह परम पुरुषार्थ की ओर अग्रसर होना सम्भव
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बनाती है ।
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fu am ade में पढ़ाया जाता है कि
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कारण ही है । बिना धर्म के मनुष्य पशु के समान ही है ।</blockquote>अत: शिक्षा को धर्म सिखाना चाहिए । इसका अर्थ है शिक्षा से मनुष्य को धर्म का पालन करना आना चाहिए। धर्म पुरुषार्थ हेतु शिक्षा के आयाम इस प्रकार हैं:
अर्थशास्त्र का धर्म से या मूल्यों से कोई लेना देना
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# धर्म को आज विवाद का विषय बना दिया गया है । अतः  धर्मशिक्षा के स्थान पर आज मूल्यशिक्षा ऐसा शब्द प्रयोग किया जाता है। अनेक बार उसे नैतिक अथवा आध्यात्मिक शिक्षा भी कहा जाता है। वह वास्तव में धर्मशिक्षा ही है।
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# धर्मशिक्षा सम्प्रदाय की शिक्षा नहीं है। पूर्व में हमने धर्म का अर्थविस्तार देखा है। उन सारे अर्थों में धर्म की शिक्षा ही धर्म-पुरुषार्थ की शिक्षा है।
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# धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा छोटे बड़े सब के लिए अनिवार्य होनी चाहिए । चाहे वह डॉक्टर बने या कंप्यूटर निष्णात, चाहे वह मंत्री बने या सरकारी कर्मचारी, चाहे वह साहित्य पढ़े या चित्रकला, चाहे वह वाणिज्य पढ़े या तत्वज्ञान, चाहे वह केवल प्राथमिक शिक्षा तक ही पढ़े या उच्चविद्याविभूषित बने, चाहे वह मजदूर बने या उद्योजक, छात्र को धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा अनिवार्य रूप से प्राप्त करनी चाहिए क्योंकि धर्म ही समाजजीवन का आधार है।
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# धर्म केवल जानकारी का विषय नहीं है। वह मानसिकता का और आचरण का विषय है। उसी रूप में उसकी शिक्षा की योजना करनी चाहिए।
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# बाल अवस्था में शारीरिक और मानसिक आदतें बनती हैं। उसी समय धर्मशिक्षा आचार के रूप में देनी चाहिए। यह इतना अनिवार्य होना चाहिए कि जब तक आचरण शुद्ध और पवित्र नहीं होता, सत्य, प्रामाणिकता, संयम, विनय, दान, दया और परोपकार की वृत्ति विकसित नहीं होती तब तक प्रगत शिक्षा में प्रवेश ही नहीं मिलना चाहिए। वैसे चरित्र और अच्छे व्यवहार का प्रमाणपत्र आज भी उच्चशिक्षा में या सरकारी सेवा में मांगा जाता है परन्तु उसे बहुत औपचारिक बना दिया गया है। वास्तव में अच्छे चरित्र की न तो व्याख्या की जाती है न अपेक्षा।
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# इसका अर्थ यह भी है कि सबको चरित्र और अच्छे व्यवहार की आवश्यकता तो लगती है परन्तु उसे प्राप्त करने की कोई व्यवस्था नहीं की जाती। स्वार्थ और स्वकेन्द्रित्ता  को विकास का मापदंड बनाने से  तो यह प्राप्त होना सम्भव भी नहीं है क्योंकि धर्मशिक्षा आरम्भ ही होती है स्वार्थ और स्वकेंद्रितता छोड़ने से।
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# प्रसिद्ध चिन्तक जे. कृष्णमूर्ति ने आज के बौद्धिक जगत के व्यवहार का वर्णन करते हुए कहा है कि इन्हें जाना तो होता है दक्षिण दिशा में परन्तु बैठते हैं उत्तर में जाने वाली गाड़ी में और गंतव्य स्थान आता नहीं है तब व्यवस्थाओं को कोसते हैं। शिक्षा के मामले में ठीक यही हो रहा है। हमें जाना तो है पूर्व में परन्तु प्रत्यक्ष यात्रा चल रही है पश्चिमाभिमुख होकर। हम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते, और तब सरकार, कलियुग, बाजारीकरण, यूरोप आदि को दोष देते हैं। लाख समझाने पर या समझने पर भी हम दिशा परिवर्तन करने का साहस नहीं जुटा सकते। अधर्म के रास्ते पर चलकर धर्म की, या आज की भाषा में कहें तो मूल्यों की अपेक्षा करते हैं। जबकि दिशा परिवर्तन अनिवार्य है।
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# योग के प्रथम दो अंग यम और नियम वास्तव में धर्मशिक्षा ही है। व्यक्तिगत और समष्टिगत, सृष्टिगत व्यवहार को ठीक करने के वे सार्वभौम महाव्रत हैं। इन्हें आचार के रूप में प्रस्थापित करना योगशिक्षा का महत्वपूर्ण अंग है और सारी शिक्षा का आधार है। हमने तो आज योग को भी शारीरिक शिक्षा का अंग बनाकर चिकित्सा का, प्रदर्शन का, स्पर्धा का विषय बना दिया है। प्रयत्नपूर्वक इसे बदलना चाहिए।
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# सारे विषयों के साथ धर्मशिक्षा को जोड़ना चाहिए । वह आचार के रूप में नहीं अपितु विषयों के स्वरूप और सिद्धांतों को मूल्यनिष्ठ बनाकर । उदाहरण के लिए, आज अर्थशास्त्र में पढाया जाता है कि अर्थशास्त्र का धर्म या मूल्यों से कोई लेना देना नहीं है। उसके स्थान पर अर्थशास्त्र शिक्षाधर्म के अविरोधी ही होनी चाहिए,  यह सिद्धान्त बनना चाहिए। दान और बचत अर्थव्यवहार के अनिवार्य अंग बनने चाहिए । बाँधवों को दिये बिना किसी प्रकार का उपभोग नहीं करना चाहिए ।
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# धर्म और अधर्म को जानने का विवेक विकसित करना चाहिए। अधर्म का त्याग और धर्म का स्वीकार करने के लिए सदा उद्यत होना चाहिए। धर्म की रक्षा के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए। विपत्तियों में भी धर्म का त्याग न करें ऐसी धर्मनिष्ठा विकसित करनी चाहिए। उदाहरण के लिए आज बच्चे और बड़े स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हों तो भी, संस्कार दूषित हों तो भी न खाने के पदार्थ खाते हैं क्योंकि संयम का और शुचिता के आग्रह का अभाव है। विदेशी वस्तुयें खरीदने से हमारे देश का आर्थिक नुकसान होता है यह जानते हुए भी विदेशी वस्तुयें खरीदते हैं क्योंकि देशभक्ति का अभाव है। धर्म की परीक्षा व्यवहार से ही होती है।
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# जगत के विभिन्न धर्मों का अध्ययन भी करना चाहिए। सबमें समानता और भेद क्या हैं इसका आकलन होना चाहिए। अपने धर्म की विशेषतायें, उनका महत्व आदि भी जानना चाहिए। धर्म और सम्प्रदाय का अंतर क्या है, सम्प्रदायनिरपेक्षेता का क्‍या अर्थ है, सम्प्रदाय बनते किस प्रकार हैं, संप्रदायों का झगड़ा क्यों होता है, धार्मिक कट्टरता कैसे पनपती है, धर्मयुद्ध क्या है, धर्मयुद्ध और जिहाद में क्या अंतर है, आज धर्म की जो स्थिति है उसे बदलना है तो हमारी भूमिका क्या होगी आदि सब धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा का हिस्सा होना चाहिए।
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इस प्रकार धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा सम्पूर्ण शिक्षा का सार है। वह परम पुरुषार्थ की ओर अग्रसर होना सम्भव बनाती है।
 
== References ==
 
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[[Category:भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप]]
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[[Category:पर्व 1: उपोद्धात्‌]]

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